प्राचीन भारत में स्त्री-शिक्षा
वैदिक-काल में स्त्री-शिक्षा
वैदिक-काल में स्त्री-शिक्षा पर विशेष बल दिया जाता था। ज्ञान और शिक्षा में वे पुरुषों के समकक्ष थीं। गार्गी ने जनक की राजसभा में याज्ञवल्यक्य को अपने गूढ़ प्रश्नों से मूक कर दिया था। याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी अत्यन्त विदुषी थी। उस युग की स्त्रियां अनेक कार्यों में दक्ष होती थीं। ऋग्वेद कालीन अनेक विदुषी स्त्रियों के उल्लेख मिलते हैं जिनमें से अनेक ने ऋग्वेद की ऋचाओं का भी प्रणयन किया था।
इनमें लोपामुद्रा, घोषा, सिकता, विश्ववारा, निवावरी आदि अनेक प्रतिभा-सम्पन्न विदुषियां थीं। गृह्यसूत्रों से ज्ञात होता है कि उस काल में स्त्रियों के उपनयन एवं समावर्तन संस्कार भी होते थे। उपनयन संस्कार शिक्षा आरम्भ होने से पूर्व एवं समावर्तन संस्कार शिक्षा-समाप्ति के बाद होता था। अतः अनुमान है कि सूत्र-युग में स्त्रियां भी पुरुषों की तरह शिक्षा प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करती थीं।
ऋषि-तर्पण के समय गार्गी, वाचनवी, सुलभा, मैत्रेयी, बड़वा प्रतिथेयी आदि ऋषि-नारियों के नाम भी लेने का निर्देश किया गया था। उस काल में दो प्रकार की स्त्रियां थीं- एक सद्योवधू और दूसरी ब्रह्मवादिनी। ‘सद्योवधू’ विवाह होने से पहले तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करती थीं ओर ‘ब्रह्मवादिनी’ जीवन पर्यन्त ज्ञानार्जन में लगी रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करती थीं। उस काल में स्त्रियां संगोष्ठियों में पुररुषों के बराबर बैठकर उनसे शास्त्रार्थ किया करती थीं।
महाकाव्य-काल में स्त्री-शिक्षा
महकाकाव्य काल में भी स्त्री-शिक्षा का महत्व बना हुआ था। कौशल्या और तारा मन्त्रविद् थीं। सीता सन्ध्या पूजन करती थी और अत्रेयी वेदान्त का अध्ययन करती थी। महाभारत में उल्लिखित सुलभा ने जीवन पर्यन्त वेदान्त का अध्ययन किया। आत्रेयी ने वाल्मीकि आश्रम में लव और कुश के साथ शिक्षा ग्रहण की थी। महारानी द्रौपदी पण्डिता थीं। उत्तरा ने अर्जुन से संगीत और नृत्य की शिक्षा प्राप्त की। परवर्ती काल में स्त्री-शिक्षा में अवरोध आने लगा।
बौद्ध-काल में स्त्री-शिक्षा
बौद्ध एवं जैन ग्रंथों में सुशिक्षित नारियों का उल्लेख हुआ है। संघमित्रा ने लंका जाकर बौद्ध धर्म का उपदेश एवं प्रचार किया। सुभा, अनोपमा आदि स्त्रियां दर्शन में पारंगत थीं। जैन ग्रंथों में जयन्ती, सहस्रानीक आदि शिक्षित स्त्रियों का उल्लेख है। उपाध्याय की स्त्री को उपाध्यायानीतथा आचार्य की पत्नी को आचार्यनी कहा जाता था। छात्राओं को अध्येत्री कहा जाता था। पतंजलि ने औदमेध्या नामक आचार्या का उल्लेख किया है जिसके छात्र ‘औदमेध’ कहलाते थे। छात्राओं के लिए छात्री-शालाएं होती थीं।
मौर्य-काल में स्त्री-शिक्षा
ई.पू. चौथी शती के आचार्य वात्स्यायन ने स्त्रियों के लिए 64 अंगविद्याओं के अध्ययन करने का उल्लेख किया है। उसने उपाध्याया, उपाध्यायी, आचार्या, आदि का भी उल्लेख किया है जिससे ज्ञात होता है कि उस काल में स्त्रियां आचार्य-कुलों में शिक्षण का कार्य भी करती थीं।
स्मृति-काल में स्त्री-शिक्षा
स्मृतियों का युग आते-आते स्त्रियों के उपनयन एवं समावर्तन संस्कार बंद हो गए किंतु समृद्ध एवं उच्च प्रतिष्ठित परिवारों में स्त्री-शिक्षा पूर्ववत् चलती रही।
गुप्त-काल में स्त्री-शिक्षा
गुप्त-काल में स्त्री-शिक्षा स्मृतियों के निर्देशानुसार ही थी। इस काल में उच्च वर्ग की कुछ स्त्रियों के विदुषी और कलाकार होने का उल्लेख मिलता है। ‘अभिज्ञान शकुन्तलम्’ में अनुसूया को इतिहास का ज्ञाता बताया गया है। ‘मालती माधव’ में मालती को चित्रकला में निपुण बताया गया है। संभवतः स्त्रियां ही स्त्रियों को शिक्षा देती थीं। ‘अमरकोष’ में आचार्या, उपाध्यया आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है।
प्राचीन भारत में शूद्र-शिक्षा
ऋग्वैदिक-काल में वर्ण विभाजन नहीं हुआ था। इसलिए समाज के किसी भी सदस्य को शिक्षा से वंचित रखे जाने की संभावना नहीं है। उत्तरवैदिक-काल में वर्ण व्यवस्था ने आकार लिया फिर भी जन्म से किसी को शूद्र नहीं माना जाता था। शुक्रनीति के अनुसार- ‘इस संसार में जन्म से कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र या म्लेच्छ नहीं होता है, गुण तथा कर्म के भेद से ही होता है।’
अतः अनुमान लगाया जा सकता है कि उत्तरवैदिक-काल के आरम्भ में शूद्रों को शिक्षा से वंचित नहीं रखा गया होगा। महाभारत में सूतजी का उल्लेख हुआ है जो शूद्र होने पर भी ऋषि थे। ई.पू. चौथी शताब्दी में मनुस्मृति की रचना हुई तथा दूसरी शताब्दी ईस्वी तक इस ग्रंथ में संशोधन एवं परिवर्द्धन होते रहे। मनुस्मृति के रचना काल में तक्षशिला में चल रहे आचार्यकुलों के सम्बन्ध में प्राप्त होने वाले वृत्तांतों से ज्ञात होता है कि तक्षशिला में क्षत्रिय, ब्राह्मण और वैश्य के साथ-साथ दर्जी और मछली मारने वाले परिवारों के लड़के भी शिक्षा प्राप्त करते थे।
चाण्डालों का तक्षशिला में पढ़ना निषिद्ध था। ‘चित्तसम्भूत जातक’ में लिखा है कि चाण्डाल लोग वेश बदल कर छिपकर, तक्षशिला में शिक्षा प्राप्त किया करते थे। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि चाण्डाल शूद्रों से भी नीचे समझे जाते थे और उन्हें अन्त्यज (अस्पर्श्य) कहा जाता था। इस काल में मैला ढोने की प्रथा आरम्भ नहीं हुई थी। अतः अन्त्यज वर्ग में केवल चाण्डाल ही थे।
जब समय के साथ वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म न होकर जन्म हो गया तब शूद्रों के लिए शिक्षा अनावश्यक मानकर उन्हें शिक्षा से वंचित किया जाने लगा। इस काल के शास्त्रकार शूद्रों के लिए शिक्षा का निषेध करते हैं। उन्हें वैदिक अध्ययन तथा यजन से पूर्णतः वंचित कर दिया गया।
‘गौतम धर्म सूत्र’ के सूत्रकार गौतम ने व्यवस्था दी कि वैदिक मंत्रों का उच्चारण करने वाले शूद्रों की जिह्वा काट लेनी चाहिए। महर्षि जैमिनि के अनुसार कोई भी शूद्र अग्निहोत्र और वैदिक यज्ञ नहीं कर सकता। ‘अर्थशास्त्र’ के रचियता कौटिल्य ने शूद्रों की शिक्षा के बारे में कुछ नहीं लिखा है। ‘मनुस्मृति’ के रचयिता मनु के अनुसार शूद्र धार्मिक शिक्षा और व्रतों के अनुपयुक्त था।
गुप्तोत्तर भारत में शिक्षा
ई.570 के आसपास गुप्त साम्राज्य ध्वस्त हो गया तथा देश हूणों के आक्रमणों से त्रस्त हो गया। हूण लड़ाके बड़े ही असभ्य तथा बर्बर थे। उन्होंने लाखों बौद्ध-भिक्षुओं का बड़ी क्रूरता से वध किया और उनके मठों तथा विहारों को आग लगाकर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इस आग में हजारों पुस्तकालय भी भस्मीभूत हो गए जिनमें प्राचीन भारतीय शिक्षा के अमूल्य ग्रंथ भरे हुए थे।
हूणों ने मन्दिरों, मठों, स्तूपों, विहारों आदि का विध्वंस कर भारतीय कलाओं को भी बहुत क्षति पहुँचाई। हूणों के कारण भारतीय समाज में बहुत सी कुप्रथाएँ तथा अन्धविश्वास प्रचलित हो गये। इससे शिक्षा को बहुत बड़ा धक्का लगा। फिर भी प्राचीन शिक्षा के लाखों ग्रंथ बच गए और ब्राह्मण शिक्षा पूर्ववत् चलती रही।
छठी शताब्दी ईस्वी के संस्कृत कवि दण्डी ने पाठ्य विषयों की सूची में लिपियों, भाषाओं, वेद, वेदांग, काव्य, नाट्यकला, धर्मशास्त्र, व्याकरण, ज्योतिष, तर्कशास्त्र, मीमांसा, राजनीति, संगीत, छन्द रसशास्त्र, युद्धविद्या, द्यूत, चौर्य विद्या को सम्मिलित किया है। सातवीं शताब्दी ईस्वी में भारत आए चीनी बौद्ध-भिक्षु ह्वेनत्सांग ने व्याकरण, शिल्प, आयुर्वेद, तर्क, आत्मविद्या आदि विषयों का उल्लेख किया है।
उसी काल के संस्कृत कवि बाणभट्ट ने लिखा है कि उस काल में ब्राह्मण गुरु नियमित रूप से वेद, व्याकरण, मीमांसा आदि की शिक्षा देता था। गुरुकुल में वेदों का निरंतर पाठ होता था। अग्निहोत्र की क्रियाएं हुआ करती थीं। विश्वदेव को बलि दी जाती थी। विधिपूर्वक यज्ञ का सम्पादन होता था। ब्राह्मण उपाध्याय ब्रह्मचारियों को पढ़ाने में संलग्न रहते थे। सातवीं शताब्दी में भारत आए विद्वान इत्सिंग ने लिखा है कि काशिकावृत्ति और पतंजलि के महाभाष्य का अध्ययन चार या छः साल में पूर्ण होता था।
यद्यपि कुछ विद्वानों ने मनु, याज्ञवलक्य एवं यम आदि स्मृतिकारों पर स्त्री-शिक्षा को प्रतिबंधित कर देने का आरोप लगाया है किंतु उपलब्ध तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि यह आरोप सही नहीं है। स्मृति-युग से भी बहुत बाद तक के काल तक स्त्री-शिक्षा की परम्परा बनी रही। चार्वाक् परम्परा के कुछ लोगों ने स्मृतियों में क्षेपक जोड़कर उनके मूल स्वरूप को विकृत कर दिया है।
आठवीं शताब्दी ईस्वी में भवभूति ने सहशिक्षा का उल्लेख किया है। ‘कामन्दकी’ ने भूरिवस और देवराट के साथ विद्या ग्रहण की थी। आठवीं-नौवीं सदी में भी भारत में स्त्री-शिक्षा की स्थिति अच्छी थी। शिक्षित स्त्रियों के पुररुषों के बराबर बैठकर शास्त्रार्थ करने की परम्परा जगद्गुरु शंकराचार्य के काल तक जीवित थी। मण्डन मिश्र के पराजित हो जाने के बाद उनकी पत्नी ‘भारती’ ने शंकर से शास्त्रार्थ किया था।
पूर्व-मध्य-काल में शिक्षा
दसवीं शताब्दी के अंत एवं ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में भारत भ्रमण पर आए अरबी विद्वान अलबरूनी ने तत्कालीन भारत में ज्ञान-विज्ञान के विविध विषयों और विभिन्न ग्रंथों का उल्लेख किया है। उसने चार वेद, अठारह पुराण, बीस स्मृतियाँ, रामायण, महाभारत, पतंजलि-कृत महाभाष्य, कपिल-कृत न्याय भाषा, जैमिनि-कृत मीमांसा, बृहस्पति-कृत लोकायत, अगस्त्य कृत अगस्त्य मत, शर्ववर्मन-कृत कातंत्र, शशिदेव वृत्त, उग्रभूति कृत शिष्यहितावृत्ति, पुलिष कृत गणित-विषयक सिद्धान्त, वराहमिहिर, आर्यभट्ट विद्याधर गौड़-कृत सरलावृत्ति आदि के ग्रंथों का उल्लेख किया है।
अलबरूनी लिखता है- ‘हिन्दू विज्ञान और साहित्य की अन्य अनेक शाखाओं का विस्तार करते हैं तथा उनका साहित्य सामान्यतः अपरिसीम है। इस प्रकार मैं अपने ज्ञान के अनुसार उनके साहित्य को न समझ सका।’ अतः अनुमान लगाया जा सकता है कि इस काल में भारत में शिक्षा का इतना प्रसार था और ग्रंथों की संख्या इतनी बढ़ चुकी थी कि किसी एक व्यक्ति के लिए विभिन्न विषयों के समस्त ग्रंथों को जान पाना और समझ पाना अत्यंत कठिन था।
इस काल में भारत में शूद्रों की शिक्षा पूर्णतः विनाश को प्राप्त कर गई थी। अलबरूनी ने लिखा है कि शूद्र को वेद पढ़ने का कोई अधिकार नहीं है। अपरार्क सूचित करता है कि शूद्रों को न वेद पढ़ने का अधिकार है और न यज्ञ करने का।