प्राचीन भारत में बौद्ध शिक्षा के प्रमुख केन्द्र
महात्मा बुद्ध के उपदेशों से प्रभावित होकर बहुत से लोग किशोरावस्था में ही भिक्षुव्रत ग्रहण करके बौद्ध संघ में सम्मिलित हो गए। विभिन्न राज्यों के राजा एवं सम्पन्न गृहस्थ बौद्ध विहारों को उदारतापूर्वक दान देते थे। ये विहार भी शिक्षा के भी महत्वपूर्ण केन्द्र हो गए जिनमें आचार्य और उपाध्याय अध्यापन का कार्य करते थे। इस प्रकार आचार्य-कुलों या गुरुकुलों का स्थान विहारों ने ले लिया और परम्परागत गुरुकुलों को भारी आघात लगा।
परम्परागत गुरुकुल का स्वरूप एक परिवार की तरह होता था जिसमें गुरु और शिष्यों के बीच पिता-पुत्र जैसा सम्बन्ध हो जाता था किन्तु बौद्ध विहारों में यह सम्भव नहीं था, क्योंकि उनमें शिक्षा प्राप्त करने वाले भिक्षुओं या विद्यार्थियों की संख्या सैकड़ों-हजारों में होती थी। भिक्षुओं को अपने भोजन आदि के लिए भिक्षाटन की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि बौद्ध विहार प्रायः अत्यन्त समृद्ध होते थे।
विद्यार्थी इन विहारों में बड़े समूह में शिक्षार्जन करते थे। उनके अध्यापन के लिए अनेक उपाध्याय और शिक्षक नियत होते थे। विद्यार्थियों को विनय-पिटक में दिए गए नियमों का पालन करना होता था।
नालन्दा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों तथा श्रावस्ती और वलभी विहार बौद्ध शिक्षा के प्रसिद्ध केन्द्र थे। बौद्ध विहार की सम्पूर्ण व्यवस्था बौद्ध-भिक्षुओं के हाथों में रहती थी, चाहे वह छोटा बौद्ध-विहार हो अथवा बड़ा। इनका प्रबन्धन किसी विख्यात बौद्ध विद्वान् के निर्देशन में होता था, जो संघ के सदस्यों के मतों से भिक्षुओं में से चुना जाता था।
नालन्दा विश्वविद्यालय, पहले बौद्ध-संघ था किंतु कालान्तर में विश्वविख्यात शिक्षण संस्था के रूप में विख्यात हुआ। प्रधान आचार्य के प्रबन्ध में सहायता प्रदान करने के लिए कई समितियाँ होती थीं जिनमें दो समितियाँ प्रधान थीं- एक शिक्षा समिति और दूसरी प्रबन्ध समिति। शिक्षा समिति के अन्तर्गत विभिन्न पाठ्यक्रमों का निर्धारण होता था तथा प्रबन्ध समिति के अन्तर्गत शिक्षा-संस्थाओं की प्रशासनिक व्यवस्था, कार्यकर्ताओं की नियुक्ति तथा भवनों का निर्माण आदि कार्य होते थे।
प्रारम्भ में बौद्ध शिक्षण संस्थाओं के अनुशासन और नियम प्रायः हिन्दू शिक्षण व्यवस्था की तरह थे। दोनों शिक्षा प्रणालियों के आदर्श और पद्धति में भी बहुत साम्य था। जैसे-जैसे बौद्ध-शिक्षा का प्रसार हुआ, इनकी आदर्श, पद्धति एवं नियमों में अंतर आता गया तथा बहुत से वैदिक शिक्षण संस्थान राजकीय संरक्षण खोकर बौद्ध शिक्षण संस्थानों में बदल गए।
बौद्ध विहारों में शिक्षा का माध्यम संस्कृत न होकर पालि था। बौद्ध संघ में शिक्षा आरम्भ करने के लिए ‘पब्बजा’ (प्रव्रज्या) और समाप्ति के लिए ‘उपसम्बदा’ नामक संस्कार आवश्यक थे। प्रायः आठ वर्ष के बाद कभी भी पब्बजा संस्कार करवाया जा सकता था। ऐसे विद्यार्थी को उपासक कहा जाता था।
उसे विहार में रहते हुए बुद्ध के उपदेशों में शत-प्रतिशत श्रद्धा रखनी होती थी तथा ब्रह्मचर्य का पालन करना होता था। वह भी हिन्दू विद्यार्थियों की तरह ‘भिक्षाटन’ के लिए जाता था। उपसम्बदा के समय विद्यार्थी की आयु लगभग 30 वर्ष हो जाती थी। बौद्ध उपासक भी अपने आचार्य की सेवा करता था।
नालन्दा विश्वविद्यालय
नालन्दा अपने प्रारम्भिक काल में ब्राह्मण शिक्षा का प्रसिद्ध केन्द्र था। बौद्धों ने नालंदा का इतिहास उलझा दिया है। कुछ बौद्ध विवरणों के अनुसार नालन्दा की ख्याति महात्मा बुद्ध के समय में भी थी तथा यह बुद्ध के प्रमुख शिष्य ‘सारिपुत्र’ की जन्मभूमि थी। कुछ बौद्ध लेखकों के अनुसार 500 श्रेष्ठियों ने मिलकर 10 करोड़ मुद्राओं से नालन्दा क्षेत्र को क्रय करके महात्मा बुद्ध को अर्पित किया था। तथागत ने यहाँ के आम्र-वन में कई दिन व्यतीत किए तथा अपने शिष्यों को बौद्ध धर्म की शिक्षा दी।
बाद में मौर्य सम्राट अशोक ने नालंदा में एक विशाल विहार का निर्माण करवाया। इस विवरण में अनेक तथ्य गलत हैं। ई.399 से ई.412 तक चीनी बौद्ध-भिक्षु ‘फाहियान’ भारत में रहा। वह पाटलिपुत्र तथा राजगृह भी गया। उसने इस क्षेत्र के बौद्धविहारों का वर्णन किया है किंतु उसने एक भी स्थान पर नालंदा के विहार का उल्लेख नहीं किया है जबकि नालंदा राजगृह से केवल 11 किलोमीटर दूर है। यदि यहाँ कोई बड़ा बौद्ध विहार या विश्वविद्यालय रहा होता तो फाहियान ने उसका उल्लेख अवश्य किया होता।
अतः स्पष्ट है कि पांचवी शताब्दी ईस्वी के प्रारंभ तक नालंदा में कोई विश्वविद्यालय नहीं था। यदि छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में अर्थात् फाहियान के भारत आगमन से लगभग 1100 वर्ष पहले 500 श्रेष्ठियों ने 10 करोड़ मुद्राओं से कोई भूमि क्रय करके बुद्ध को दी होती अथवा सम्राट अशोक ने नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की होती तो फाहियान के समय तक यहाँ कोई न कोई बौद्ध विहार अथवा विश्वविद्यालय अवश्य रहा होता। पूरे मौर्य शासन काल के दौरान नालंदा में बौद्ध-शिक्षा के किसी केन्द्र की स्थापना नहीं हुई थी।
मगध राज्य का उल्लेख महाभारत तथा अनेक पुराणों में हुआ है। जिससे स्पष्ट है कि मगध का राज्य बहुत पुराना है। संभवतः पौराणिक काल में ही नालंदा में ब्राह्मण शिक्षा का कोई केन्द्र स्थापित हुआ होगा जिसका अब कोई उल्लेख नहीं मिलता है। यदि भगवान बुद्ध के समय एवं बाद में सम्राट अशोक के समय में ‘नालंदा’ शिक्षा का बड़ा केन्द्र रहा भी होगा तो वह ब्राह्मण शिक्षा का बड़ा केन्द्र रहा होगा न कि बौद्ध शिक्षा का।
पांचवी शताब्दी के मध्य में बौद्ध विद्वान् दिग्नाग ने नालन्दा के विख्यात ब्राह्मण पंडित सुदुर्गम को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। इसके बाद मगध के गुप्त सम्राट कुमारगुुप्त (ई.414-455) ने नालंदा में बौद्ध महाविहार का निर्माण करवाया तथा उसे विपुल धन प्रदान किया। उसके बाद बुद्धगुप्त, तथागतगुप्त, नरसिंहगुप्त बालादित्य आदि अनेक गुप्त राजाओं ने इस महाविहार को संरक्षण प्रदान किया तथा इसके परिसर में अनेक भवन बनवाए।
इस कारण इस संस्था की ख्याति में तेजी से विस्तार हुआ और देश-विदेश के हजारों विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने के लिए आने लगे। अनेक चीनी विद्वान भी इस विहार में अध्ययन करने आए। उन्होंने अपने देश को लौटकर अपने यात्रा-विवरण लिखे, उन्हीं से नालन्दा के भवनों, आचार्यों और शिक्षा-पद्धति आदि की जानकारी प्राप्त होती है।
इस विश्वविद्यालय के उल्लेख चीनी यात्रियों ‘इत्सिंग’ तथा ‘ह्वेनत्सांग’ के वर्णनों में मिलते हैं। इनमें से इत्सिंग सातवीं शताब्दी ईस्वी में तथा ह्वेनत्सांग आठवीं शताब्दी ईस्वी में भारत आए। इन दोनों यात्रियों ने नालंदा के बौद्ध महाविहार एवं विश्वविद्यालय को अपनी आंखों से देखा था। चीनी यात्री ह्वेनत्सांग ने लिखा है कि नालंदा में अनेक बौद्ध विहारों का निर्माण किया गया जिनमें से कुछ तो काफी बड़े और भव्य थे जिनके गगन-चुम्बी शिखर अत्यन्त आकर्षक थे।
यहाँ का सबसे बड़ा विहार 203 फुट लम्बा और 164 फुट चौड़ा था। इसके कक्ष साढ़े नौ फुट से 12 फुट लम्बे थे। यशोवर्मा के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि नालन्दा के विहारों की शिखर श्रेणियाँ गगनस्थ मेघों का चुम्बन करती थीं। इनमें अनेक जलाशय थे, जिनमें कमल तैरते रहते थे। अनेक विशालकाय भवन थे जिनमें छोटे-बड़े अनेक कक्ष थे। खुदाई में मिले अवशेषों से उसकी भव्यता प्रमाणित होती है।
विश्वविद्यालय भवन में व्याख्यान के लिए 7 विशाल कक्ष और 300 छोटे-बड़े कक्ष थे। विद्यार्थी छात्रावासों में रहते थे तथा प्रत्येक कोने पर कूपों का निर्माण किया गया था। नालन्दा विश्वविद्यालय के संचालन हेतु 200 गाँव दान में प्राप्त थे। इन गाँवों की आय से यहाँ के भिक्षुओं, विद्यार्थियों एवं कर्मचारियों का पोषण होता था। ग्रामवासी भी प्रतिदिन कई मन चावल और दूध भेजा करते थे। विद्यार्थियों से किसी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जाता था।
उनके भोजन और आवास की व्यवस्था विश्वविद्यालय द्वारा निःशुल्क की जाती थी। ह्वेनत्सांग ने लिखा है कि जब तक वह नालन्दा में रहा, उसे प्रतिदिन महासाली चावलों का एक निश्चित परिमाण, 20 पूग और 120 जम्बीर मिलते रहे। साथ ही प्रतिमास तेल, घी और अन्य खाद्य पदार्थ भी निश्चित मात्रा में दिये जाते थे।
नालन्दा विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने के इच्छुक विद्यार्थियों के लिए कठोर नियम निर्धारित थे। प्रवेशार्थी विद्यार्थियों को प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण होना होता था। यह परीक्षा ‘द्वार पण्डित’ द्वारा ली जाती थी। महाविहार के प्रवेश द्वार को लांघने के लिए ‘द्वार पण्डित’ की कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण होना अनिवार्य था। ह्वेनत्सांग के अनुसार प्रवेश द्वार पर 8-10 विद्यार्थी असफल हो जाया करते थे और केवल एक या दो सफल हो पाते थे।
द्वार पण्डित को पराजित कर जो विद्यार्थी नालन्दा के महाविहार में प्रविष्ट होते थे, उन्हें वहाँ बहुत ही कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। ह्वेनत्सांग के अनुसार महाविहार में प्रविष्ट होकर भी बहुत से विद्यार्थी वहाँ परास्त हो जाते थे किंतु जो विद्यार्थी वहाँ भी विजयी होकर (परीक्षाओं में उत्तीर्ण होकर) फिर बाहर आते थे, उनके ज्ञान और पाण्डित्य का सर्वत्र आदर होता था। विश्वविद्यालय में प्रत्येक विषय के कई विद्वान नियत थे।
सातवीं सदी ईस्वी में ‘इत्सिंग’ नामक चीनी यात्री भारत आया। उसने ई.671 में चीन से प्रस्थान किया और ई.673 में वह ताम्रलिप्ति के बन्दरगाह पर पहुँचा। इत्सिंग का मुख्य उद्देश्य भारत आकर बौद्ध धर्म का उच्च ज्ञान प्राप्त करना और यहाँ से धर्म की प्रामाणिक पुस्तकों को एकत्र करके चीन ले जाना था। उसका अधिकांश समय नालन्दा में व्यतीत हुआ। उसने लगभग चार सौ ग्रन्थों का अध्ययन किया, जिनके श्लोकों की संख्या पांच लाख थी। इन ग्रन्थों को वह अपने साथ चीन ले गया। इत्सिंग के समय यहाँ विद्यार्थियों की संख्या 3,000 थी किन्तु ह्वेनत्सांग के समय बढ़कर 10,000 हो गई थी।
महाविहार में प्रवेश पाने के लिए व्याकरण, हेतु विद्या (न्याय) और अभिधर्म कोश का ज्ञान होना आवश्यक था। महाविहार में प्रवेश पा चुकने पर विद्यार्थी बौद्ध धर्म के विशाल साहित्य का अध्ययन करते थे। शब्द-विद्या, चिकित्सा-विद्या, सांख्यशास्त्र, तन्त्र, वेद आदि के अध्ययन की भी व्यवस्था थी। नालंदा महाविहार के शिक्षकों की संख्या 1,510 थी जिनमें से 1,010 ‘सूत्र निकायों’ में दक्ष थे और शेष 500 विद्यार्थी अन्य विषयों में।
ह्वेनत्सांग के समय इस विश्वविद्यालय का प्रधान कुलपति ‘शीलभद्र’ था, जो अनेकों विषयों में पारंगत था। शीलभद्र के पहले ‘धर्मपाल’ कुलपति था। ह्वेनत्सांग भी यहाँ के प्रधान शिक्षकों में था, जिसने अनेक विषयों पर अधिकार प्राप्त कर लिया था। नालन्दा के कई शिक्षकों की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। इस कारण विद्यार्थी भारत के सुदूर प्रदेशों तथा चीन, तिब्बत, कोरिया आदि देशों से नालंदा आकर शिक्षा प्राप्त करते थे।
नालन्दा महाविहार में विद्यार्थियों के अध्ययन के लिए धर्मयज्ञ नामक विशाल पुस्तकालय था जिसमें रत्नसागर, रत्नोदधि और रत्नरंजक नामक तीन विशाल भवन थे। रत्नोदधि-भवन नौ मंजिल ऊँचा था और उसमें धर्मग्रन्थों का संग्रह था। अन्य दोनों इमारतें भी इसी प्रकार विशाल एवं विस्तीर्ण थीं जिनमें जिज्ञासु शोधकर्ताओं एवं अध्ययनशीन विद्यार्थियों की भीड़ लगी रहती थी।
एक अध्यापक नौ या दस विद्यार्थियों को पढ़ाता था। विश्वविद्यालय में 7 विशाल व्याख्यान भवन थे और 300 छोटे व्याख्यान कक्ष थे। सभी विषयों के मिलाकर नित्य लगभग 100 व्याख्यानों की आयोजना की जाती थी। नालंदा विश्वविद्यालय में मुख्यतः बौद्ध धर्म की महायान शाखा का अध्यापन किया जाता था। महायानी शाखा के भी अनेक विहार स्थित थे। पालि भाषा की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती थी।
नागार्जुन, वसुबंध, असंग, धर्मकीर्ति आदि महायानी विद्वानों ने नालंदा से ही शिक्षा प्राप्त की थी। ह्वेनत्सांग ने ऐसे अनेक विद्वान् आचार्यों का उल्लेख किया है जो अपने विषय के प्रकाण्ड पंडित थे तथा भारत के विभिन्न प्रदेशों से आकर अध्ययन-अध्यापन करते थे। धर्मपाल, चन्द्रपाल, गुणमति, स्थिरमति, प्रभामित्र, जिनमित्र, आर्यदेव, दिड्नाग, ज्ञानचन्द्र आदि ऐसे ही प्रतिभावन शिक्षकों की ख्याति पूरे देश में थी।
इनमें से आर्यदेव और दिड्नाग दक्षिण भारत के थे, धर्मपाल कांची का रहने वाला था, शीलभद्र समतट (बंगाल) का निवासी था तथा गुणमति एवं स्थिरमति वलभी के रहने वाले थे।
ह्वेनत्सांग और इत्सिंग के अतिरिक्त भी अनेक विदेशी विद्वान् नालन्दा में उच्च शिक्षा प्राप्त करने आये। श्रमण हिएनचिन सातवीं सदी में नालन्दा आया और तीन वर्ष तक यहाँ रहा। उसका भारतीय नाम प्रकाशमणि था। कोरिया का एक भिक्षु आर्यवर्मन बहुत दिनों तक नालन्दा में रहा और उसकी मृत्यु भी यहीं हुई।
चेहांग नामक एक अन्य चीनी भिक्षु सातवीं सदी में नालन्दा आया और आठ वर्ष तक अध्ययन करता रहा। आठवीं सदी के प्रारम्भ में तिब्बत के राजा ने नालन्दा के प्रसिद्ध आचार्य शान्तरक्षित को आमन्त्रित किया ताकि वह तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रसार कर सके। तिब्बत पहुँचने पर शान्तरक्षित का बड़ी धूमधाम से स्वागत किया गया और उसे ‘आचार्य बोधिसत्व’ की उपाधि से विभूषित किया गया।
शान्तरक्षित के कुछ समय बाद कमलशील नामक एक अन्य आचार्य को नालन्दा से बुलाया गया। इन दो भारतीय बौद्ध-आचार्यों ने तिब्बत में बौद्ध धर्म की स्थापना की।
यद्यपि नौवीं शताब्दी ईस्वी में पालवंशी राजाओं के संरक्षण में मगध में विक्रमशिला विश्वविद्यालय की भी स्थापना हो गयी थी, जिसके कारण नालन्दा की कीर्ति कुछ मन्द पड़ने लगी तथापि नालन्दा महाविहार ग्यारहवीं सदी ईस्वी तक भारत के प्रमुख शिक्षा केन्द्र के रूप में अपना स्थान बनाए रखने में सफल रहा।
ई.1203 में मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी ने बिहार पर आक्रमण किया। उसने मगध स्थित दोनों बड़े विश्वविद्यालयों अर्थात् नालन्दा विश्वविद्यालय एवं विक्रमशिला विश्वविद्यालय को पूरी तरह नष्ट कर दिया तथा हजारों बौद्ध-भिक्षुओं एवं विद्यार्थियों की हत्या कर दी। इस प्रकार शिक्षा एवं संस्कृति के ये दोनों केन्द्र नष्ट हो गए।
विक्रमशिला विश्वविद्यालय
नालंदा विश्वविद्यालय की ख्याति अत्यधिक बढ़ जाने के कारण देश-देशांतर के विद्यार्थी बड़ी संख्या में नालंदा पहुँचते थे। संभवतः विद्यार्थियों की बढ़ती हुई संख्या को देखते हुए आठवीं शताब्दी ईस्वी में बंगाल के पालवंशी राजा धर्मपाल (ई.775-800) ने बिहार में स्थित वर्तमान भागलपुर से लगभग 40 किलोमीटर दूर विक्रमशिला विहार की स्थापना की तथा विहार को 100 गांव दान दिए।
राजा धर्मपाल बौद्ध-धर्म का अनुयायी था। उसने विक्रमशिला में महाविहार बनवाकर उसमें 108 बौद्ध-आचार्यों की नियुक्ति की। राजा धर्मपाल और उसके उत्तराधिकारियों ने विक्रमशिला विहार को विपुल धन एवं संसाधन प्रदान किए जिसके कारण देश-विदेश के बहुत से विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने के लिए विक्रमशिला में आने लगे।
इस विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म और दर्शन, न्याय, तत्त्वज्ञान, व्याकरण, वैदिक साहित्य तथा तंत्र आदि विषयों की शिक्षा दी जाती थी। यह विश्वविद्यालय बौद्धों के वज्रयान सम्प्रदाय के अध्ययन का सबसे बड़ा केन्द्र था। इस युग में तन्त्र-विद्या का बहुत प्रचार था। बौद्ध धर्म, शैव धर्म, जैन धर्म, शाक्तमत तथा पौराणिक धर्म सहित उस युग के सभी धर्मों में तन्त्र साधना को अत्यंत महत्व दिया जाता था।
यह विश्वविद्यालय तन्त्र-शिक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र था। विक्रमशिला महाविहार का तिब्बत के साथ विशेष सम्बन्ध रहा। विक्रमशिला विश्वविद्यालय में तिब्बत से आने वाले विद्वानों के लिए अलग से एक अतिथिशाला थी। विक्रमशिला से भी अनेक विद्वान तिब्बत गए जिन्होंने कई ग्रन्थों का तिब्बती भाषा में अनुवाद किया। इनमें प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान ‘दीपंकर श्रीज्ञान’ भी थे जो ‘उपाध्याय अतीश’ के नाम से विख्यात थे और जिन्होंने लगभग 200 ग्रंथों की रचना की।
विश्वविद्यालय की आंतरिक व्यवस्था अत्यधिक सुसंगठित थी। विश्वविद्यालय के कुलपति 6 भिक्षुओं के एक मण्डल की सहायता से प्रबंध तथा व्यवस्था करते थे। कुलपति के अधीन विद्वान द्वार-पण्डितों की एक परिषद प्रवेशार्थी विद्यार्थियों की परीक्षा लेती थी। यहाँ द्वार-पण्डितों की संख्या छः थी। अनुमान है कि विक्रमशिला विश्वविद्यालय में छः महाविद्यालय थे तथा प्रत्येक महाविद्यालय का द्वार-पण्डित पृथक था।
इन छः द्वार-पण्डितों की समिति द्वारा इस विश्वविद्यालय का संचालन होता था, जिसका प्रधान महास्थविर होता था। तिब्बती लेखक तारानाथ ने लिखा है- ‘विक्रमशिला के दक्षिणी द्वार का द्वार-पण्डित प्रज्ञाकरमति, पूर्वी द्वार का रत्नाकरशान्ति, पश्चिमी द्वार का बागीश्वर कीर्ति, उत्तरी द्वार का नारोपन्त, प्रथम केन्द्रीय द्वार का रत्नव्रज और द्वितीय केन्द्रीय द्वार का द्वार-पण्डित ज्ञानश्रीमित्र था।’ द्वार-पण्डित पद पर उच्च कोटि के विद्वानों को नियुक्त किया जाता था।
विश्वविद्यालय के दैनिक प्रबन्धन के लिए अनेक अधिकारी और कर्मचारी नियुक्त थे। इस विश्वविद्यालय का व्यय धनाढ्य दानदाताओं के दान से चलता था। आचार्यों एवं विद्यार्थियों के आवास एवं भोजन का प्रबन्ध विश्वविद्यालय द्वारा किया जाता था। भिक्षुक एवं अध्यापक विश्वविद्यालय के प्रबन्धन में हाथ बँटाते थे। विक्रमशिला महाविहार में अनेक छोटे-बड़े बौद्ध मन्दिर बने हुए थे।
विहार में स्थित समस्त 6 महाविद्यालयों में 108-108 शिक्षक थे। इस प्रकार विक्रमशिला में शिक्षकों की कुल संख्या 648 थी। यहाँ कितने विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करते थे, इसका उल्लेख किसी भी विदेशी यात्री ने नहीं किया है। विक्रमशिला के मुख्य सभा-भवन में 8,000 व्यक्ति एक साथ बैठ सकते थे। इससे अनुमान होता है कि यहाँ के विद्यार्थियों की संख्या हजारों में थी।
विदेशी छात्रों में तिब्बत के छात्र अधिक होते थे, जो बौद्ध धर्म और दर्शन का ज्ञान प्राप्त करने आते थे। प्रायः एक छात्रावास तिब्बत के छात्रों से भरा रहता था। इस विश्वविद्यालय के बाहर एक धर्मशाला बनाई गई थी, ताकि विद्यार्थी विश्वविद्यालय में प्रविष्ट होने से पहले उसमें निवास कर सकें। विश्वविद्यालय में स्थित विहारों के व्याख्यान कक्षों में व्याख्यान होते थे तथा धर्म और दर्शन की संगोष्ठियाँ आयोजित की जाती थीं।
विश्वविद्यालय के चारों ओर दुर्ग जैसी मजबूत प्राचीर थी। विक्रमशिला का पुस्तकालय बहुत समृद्ध था। विद्यार्थियों को पुस्तकालय से पुस्तकें उपलब्ध कराई जाती थीं तथा विद्वान आचार्यों द्वारा उनकी जिज्ञासाओं का समाधान किया जाता था। विद्यार्थियों की शिक्षा की समाप्ति पर बंगाल के राजा उन्हें उपाधि प्रदान करते थे। इस विश्वविद्यालय की उपाधि, विद्यार्थी के विषय की दक्षता का प्रमाण मानी जाती थी।
विक्रमशिला विश्वविद्यालय के प्रख्यात विद्वानों की एक लम्बी सूची है। इस विश्वविद्यालय के अनेक विद्वानों ने विभिन्न ग्रंथों की रचना की जिनका बौद्ध साहित्य और इतिहास में अच्छा नाम है। इनमें रक्षित, विरोचन, ज्ञानपाद, बुद्ध, जेतारि रत्नाकर शान्ति, ज्ञानश्री मिश्र, रत्नवज्र, अभयंकर, आचार्य रत्नकीर्ति और दीपंकर श्रीज्ञान अर्थात् आचार्य अतीश विशेष उल्लेखनीय हैं।
‘दीपंकर श्रीज्ञान’ विक्रमशिला का महान् प्रतिभाशली आचार्य था। वह गौड़ प्रदेश (बंगाल) का रहने वाला था। उसका जन्म ई.980 ई. में हुआ था। बचपन में वह कृष्णगिरी नामक विहार में रहकर पढ़ा। वहाँ उसे शीलरक्षित, चन्द्रकीर्ति और धर्मरक्षित जैसे बौद्ध आचार्यों ने शिक्षा दी। कालान्तर में वह बौद्ध धर्म और दर्शन का प्रकाण्ड पण्डित हुआ। बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु वह तिब्बत भी गया।
विक्रमशिला के बहुत से विद्यार्थी, यहीं पर आचार्य बन गए। अतीश को तिब्बत में बौद्ध धर्म की पुनः स्थापना के लिए बुलाया गया। उसके द्वारा स्थापित व्यवस्था लामाओं की अधीनता में अब तक विद्यमान है। आचार्य रत्नकीर्ति, अतीश का गुरु था और ज्ञानश्रीमित्र, अतीश का उत्तराधिकारी था। अतीश के तिब्बत चले जाने के बाद ज्ञानश्रीमित्र ही विक्रमशिला विश्वविद्यालय का प्रधान आचार्य बना।
तबकात-ए-नासिरी में इस महाविहार का उल्लेख आया है जिसके अनुसार विक्रमशिला में अधिकांशतः ब्राह्मण या बौद्ध-भिक्षु निवास करते थे और वे सभी सिर मुंड़ाए हुए थे। ई.1203 में मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी ने बिहार पर आक्रमण किया, तब उसने नालन्दा विश्वविद्यालय तथा विक्रमशिला विश्वविद्यालय को जलाकर नष्ट कर दिया तथा हजारों बौद्ध-भिक्षुओं एवं विद्यार्थियों की हत्या कर दी। अब इस विश्वविद्यालय के खण्डहर ही बचे हैं।
वलभी विश्वविद्यालय
वलभी नगर वर्तमान में गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र में स्थित है तथा विगत सैंकड़ों वर्षों से अरब की तरफ से आने वाले समुद्री जहाजों के लिए बन्दरगाह के रूप में प्रयुक्त होता रहा था। बुंदेलों के परम्परागत इतिहास से ज्ञात होता है कि वल्लभीपुर की स्थापना उनके पूर्वपुरुष कनकसेन ने की थी जो श्री रामचन्द्र के पुत्र लव का वंशज था। इसका समय ई.144 बताया जाता है।
यह भी माना जाता है कि वलभी नगर की स्थापना ई.470 में मैत्रक वंश के संस्थापक सेनापति भट्टारक ने की थी किंतु वलभी नगर इससे पहले भी अस्त्तिव में था। क्योंकि ईस्वी 453 अथवा 466 में वलभी में दूसरी जैन परिषद् आयोजित की गई थी। अतः ई.470 से पहले वलभी एक सम्पन्न नगर रहा होगा और उस काल में यह जैन-धर्म का बड़ा केन्द्र रहा होगा।
सातवीं शताब्दी ईस्वी के मध्य में हर्ष के समय चीनी बौद्ध-भिक्षु ‘ह्वेनत्सांग’ और सातवीं शताब्दी ईस्वी के अन्त में चीनी बौद्ध-भिक्षु ‘इत्सिंग’ वलभी आए थे। इन दोनों ने वलभी के बौद्ध विहारों का उल्लेख किया है तथा उनकी तुलना बिहार के नालन्दा विश्वविद्यालय से की है। अतः कहा जा सकता है कि हर्ष के शासनकाल में वलभी बौद्ध-शिक्षा के बड़ा केन्द्र के रूप में विख्यात था।
वलभी में बौद्ध विहार का सर्वप्रथम निर्माण राजकुमारी टड्डा ने कराया जो संभवतः मैत्रकों की राजकुमारी रही होगी। वलभी में दूसरा बौद्ध विहार राजा धरसेन अथवा श्रीबप्पपाद ने ई.580 में बनवाया। आचार्य स्थिरमति इस विहार के प्रमुख आचार्य थे। ह्वेनत्सांग ने लिखा है कि वलभी में 100 विहार थे जिनमें 6,000 बौद्ध-भिक्षु निवास करते थे।
दूर-दूर के स्थानों से विद्यार्थी विद्याध्ययन के लिए वलभी आते थे। इत्सिंग के अनुसार वलभी का महाविहार, नालन्दा महाविहार के समान ही महत्वपूर्ण था। यहाँ अनेक विशाल बौद्ध विहार और मठ स्थित थे। ‘कथासरित्सागर’ के अनुसार अन्तर्वेदी (गंगा-यमुना का दोआब) के द्विज वसुदत्त का पुत्र विष्णुदत्त जब सोलह वर्ष का हो गया तो वह विद्या प्राप्ति के लिए वलभी पुरी गया।
वलभी महाविहार के बौद्ध शिक्षकों में स्थिरमति और गुणमति की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई थी। इस विहार में बौद्ध धर्म एवं दर्शन, तर्क, व्याकरण, व्यवहार, साहित्य आदि विभिन्न विषय पढ़ाए जाते थे। विहारों के संचालन, भिक्षुओं के भोजन, ग्रन्थों के लेखन एवं प्रतिलिप्यांकन आदि कार्यों के लिए देश के विभिन्न हिस्सों से धन प्राप्त होता था। वलभी में रहने वाले लगभग 100 श्रेष्ठि तथा देश के अनेक राजा वलभी के विहारों को विपुल धन दान देते थे।
ई.725-735 में सौराष्ट्र पर अरब सेनाओं के भयानक आक्रमण हुए किंतु वलभी नगर इन आक्रमणों में बच गया। इसके बाद वलभी का इतिहास बहुत कम प्राप्त होता है। 12वीं सदी में जब मुस्लिम आक्रान्ताओं ने पुनः सौराष्ट्र को आक्रान्त किया तो वलभी के विहारों को भयानक क्षति पहुँची तथा यह यह नगर पूरी तरह नष्ट हो गया। अब इस नगर की पहचान ‘वल’ नामक गाँव के रूप में की गई है जहाँ से मैत्रक राजाओं के ताम्र-अभिलेख और मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं।
अन्य बौद्ध-शिक्षा केन्द्र
उपर्युक्त प्रमुख हिन्दू एवं बौद्ध शिक्षा-केन्द्रों के अतिरिक्त भी देश में अनेक छोटे-बड़े हिन्दू, बौद्ध और जैन आश्रम, विहार एवं मठ; विद्यालयों एवं शिक्षा केन्द्रों के रूप में विकसित हुए। वैशाली, नासिक, उज्जैन तथा पाटलिपुत्र प्राचीन काल में ब्राह्मण शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे जो बाद में बौद्ध शिक्षा के लिए प्रसिद्ध हुए। कपिलवस्तु भी विद्या और शिल्प का केन्द्र था जहाँ गौतम बुद्ध ने शिक्षा प्राप्त की।
फाह्यान ने ‘कश्यप बुद्ध संघाराम’ का उल्लेख किया है जहाँ बाद में ह्वेनत्सांग ने चार माह रहकर ‘सर्वास्तिवाद’ का अध्ययन किया। ह्वेनत्सांग ने काश्मीर स्थित विहार में कोश, न्याय तथा हेतु की शिक्षा ग्रहण की। यहाँ देश के विभिन्न विद्वान बौद्ध-भिक्षुओं के उपदेश सुनने के लिए आते थे। जालन्धर का बौद्ध विहार भी बहुत प्रसिद्ध था जिसका उल्लेख ह्वेनत्सांग ने किया है।
‘श्रुघ्न’ के मठ में उसने उसने बौद्ध विद्वान जयगुप्त से विद्यार्जन किया। उसने मतिपुर के विशाल संघाराम में रहकर मित्रसेन से अभिधर्मज्ञान-प्रस्थान शास्त्र का अध्ययन किया। कान्यकुब्ज के ‘भद्र’ बौद्ध विहार में रहकर उसने वीर्यसेन से त्रिपिटक का ज्ञान प्राप्त किया। उसने वाराणसी के तीस ऐसे विहारों का उल्लेख किया है जो सर्वस्तिवाद के प्रमुख केन्द्र थे। राजगृह तथा श्रावस्ती भी बौद्ध शिक्षा के प्रसिद्ध केन्द्रों में से थे।
ई.641 में ह्वेनत्सांग ने भीनमाल के बौद्ध मठ की यात्रा की जिसमें 100 बौद्ध-भिक्षु रहते थे। अयोध्या एवं पुष्कर भी प्राचीन काल से प्रसिद्ध हिन्दू केन्द्र थे किंतु बाद में वहाँ बौद्ध विहारों का निर्माण हुआ। पुष्कर में निश्चित अंराल पर विशाल धर्मसभाओं का आयोजन होता था जिनमें देश भर के हिन्दू एवं बौद्ध विद्वान सम्मिलित होते थे।
कपिलवस्तु का निग्रोधाराम विहार, राजगृह का जेतवन और पूर्वाराम विहार, वैशाली का आम्रवन विहार और राजगृह का वेणुवन विहार बहुत प्रसिद्ध थे। मठों एवं विहारों के साथ-साथ कुछ संघारामों का भी विकास हुआ जिनमें आध्यात्मिक चिंतन होता था। ह्वेनत्सांग ने मुंगेर के हिरण्य संघाराम में रहकर वसुबंधु के मित्र संघभद्र द्वारा लिखित न्यायशास्त्र के ग्रंथों का अध्ययन किया था।
जब ग्यारहवी-बारहवीं शताब्दी ईस्वी में मुसलमानों ने भारत में अपने राज्य का प्रसार किया तब शिक्षा के अधिकांश प्राचीन केन्द्र नष्ट हो गए।