सूरज से धरती निकली है और धरती से चंद्रमा। यही क्रम इनकी मर्यादा को भी निश्चित करता है जिसके चलते चंद्रमा धरती के चारों ओर घूमता है तथा धरती सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है। सूरज इन दोनों को अपने आकर्षण में बांधे रखकर अनंत ब्रह्माण्ड में फैली आकाशगंगा में विचरण करता है। इसी व्यवस्था में बंधे रहकर सूरज, धरती और चंद्रमा एक-दूसरे का सम्मान करते हुए जीव-जगत् की रचना करते हैं तथा उसका पालन-पोषण करके उसे पूर्णता की ओर ले जाते हैं।
भारत की संसद में से न्यायपालिका निकली है और न्यायपालिका में से वकीलों का अपार समूह प्रकट हुआ है। भारत की संसद न्यायपालिका को कानून का प्रकाश देती है और न्यायपालिका वकीलों को कानून के अनुसार अपने मुकदमे रखने का अधिकार देती है। ये तीनों मिलकर भारत की जनता को न्याय उपलब्ध करवाते हैं। इन तीनों संस्थाओं का यही सम्बन्ध इन तीनों की मर्यादा के क्रम को भी निश्चित करता है किंतु हाल ही में भारत के विधि मंत्री किरण रिजिजू जो कि भारत की संसद के लघुप्रतिरूप अर्थात् मंत्रिमण्डल के वरिष्ठ सदस्य हैं, ने जो कुछ भी कहा है वह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की देह में पल रहे घावों को उजागर करने वाला है। भारतीय न्यायिक व्यवस्था के घावों को उपचार की आवश्यकता है
विधि मंत्री ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट में अंग्रेजी और वकीलों का वर्चस्व है। 40-50 वकील जजों को भी धमकाते हैं। वे अंग्रेजी के कई शब्द इस्तेमाल करना जानते हैं। रिजिजू ने भारत की जनता की पीड़ा बहुत ही सीधे, सरल एवं ईमानदार शब्दों में व्यक्त की है। यह तो ठीक ऐसा ही है जैसे सूरज को धरती धमकाए और धरती को चंद्रमा।
आज भारत की जनता को न्याय वकीलों की फौज और अंग्रेजी भाषा में लिखी रिट् के माध्यम से ही मिल सकता है। जबकि वास्तविकता यह है कि भारत की संसद को चुनने वाले अधिकांश भारतीय न तो वकीलों की फीस चुका सकते हैं और न अंग्रेजी भाषा की आतंकित करने वाली गिटर-पिटर को समझ सकते हैं। यह हैरान करने वाली बात है कि अंग्रेजी से जनता ही नहीं डरती, सरकार भी परेशान है। यह जानकर तो और भी हैरानी हुई कि कुछ वकील ऐसे भी हैं जो जजों को धमकाते हैं।
रिजिजू ने इससे भी अधिक गंभीर बातें कही हैं। उन्होंने कहा है कि न्यायपालिका उपनिवेश व्यवस्था पर आधारित है। उनके कपड़े भी यही दिखाते हैं, जबकि कपड़े भारत के मौसम के अनुसार होने चाहिए।
उन्होंने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट जजों की नियुक्ति करने वाले कॉलेजियम में गुटबाजी होती है। इसमें पारदर्शिता भी नहीं है। कॉलेजियम प्रणाली के कारण हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश, न्यायिक कार्य करने के बदले आधा समय तो इसी में व्यस्त रहते हैं कि किसे जज बनाएं।
यह तो ऐसा हुआ जैसे दुकानदार तो मेले में लुट गए यारो तमाशबीन दुकान सजाकर बैठ गए! जनता संसद का खर्च उठाती है, न्यायालय का खर्चा उठाती है, वकील का खर्चा उठाती है और इसके बदले में क्या और कितना पाती है, इसका हिसाब विधिमंत्री के इस वक्तव्य से लगाया जा सकता है कि जजों का आधा समय इस बात पर खर्च होता है कि जज किसे बनाया जाए!
रिजिजू ने यह भी कहा कि जब कार्यपालिका या विधायिका रास्ते से भटकते हैं, तो न्यायपालिका उन्हें संविधान से सुधार देती है किंतु जब न्यायपालिका भटकती है, तो उसे सुधारने की कोई व्यवस्था नहीं है।
रिजिजू ने बड़ी ही मार्मिक बात कही- हमारा लोकतंत्र जीवंत है, इसमें कई बार तुष्टीकरण की राजनीति भी होती है। कोई दल नहीं चाहता कि वह न्यायपालिका के खिलाफ दिखे। यहाँ रिजिजू किसके तुष्टिकरण की बात कर रहे हैं? पाठक स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि यहाँ कम से कम अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण की बात तो नहीं हो रही!
विधि मंत्री ने अपने वक्तव्य में यह भी कहा है कि ऐसी व्यवस्था विश्व में कहीं नहीं है कि जज ही अपनी बिरादरी के जजों की नियुक्ति करें। राजनीति में जो उथल-पुथल होती है, वह तो सभी को दिखती है, किंतु जजों की नियुक्ति में जो उथल-पुथल हो रही है, वह किसी को नहीं दिख पा रही।
रिजिजू यहीं नहीं रुके। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका में अंकल जज सिंड्रोम घुसा हुआ है। जज उसी को जज चुनते हैं, जिसे वे जानते हैं। जज के पद पर नियुक्ति के लिए करीबी, परिवार के लोगों, जानने वालों में से नाम की सिफारिश व चयन होता है। जज बनाने के लिए मेरे पास जो टिप्पणियां आती हैं, उनमें जज लिखते हैं, मैं इसे जानता हूं, वो मेरी कोर्ट में आते हैं, इसका चरित्र अच्छा है, इसके काम से मैं खुश हूं। 1993 के पहले जजों पर अंगुली नहीं उठती थी क्योंकि दूसरे जजों की नियुक्ति में उनकी भूमिका नहीं होती थी। वे इन सबसे दूर रहते थे।
रिजिजू ने कहा, सांसद व जज, दोनों के पास विशेषाधिकार होते हैं किंतु संसद में एथिक्स कमेटी या स्पीकर किसी सांसद के असंसदीय शब्दों को कार्यवाही से हटाते हैं, उसकी निंदा होती है। प्रेस पर भी प्रेस काउंसिल दृष्टि रखती है परंतु न्यायपालिका जब कोई ऐसा निर्णय दे, जो समाज के अनुकूल नहीं है, तो इसे देखने की कोई भीतरी व्यवस्था नहीं है।
कानून मंत्री ने कहा, सांसद पांच साल के लिए चुनकर आते हैं, लोग चाहें तो 5 साल बाद उन्हें फिर से कुर्सी पर न बैठाएं। जजों को लोग नहीं चुनते, फिर भी याद रखना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट व कई हाईकोर्ट की कार्यवाही का सीधा प्रसारण हो रहा है। सोशल मीडिया पर भी चीजें आ रही हैं, लोग जजों का व्यवहार देख रहे हैं।
यह बहुत ही गंभीर बात है कि रिजिजू यह कहें कि लोग जजों का व्यवहार देख रहे हैं। हाल ही में नूपुर शर्मा के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के दो जजों द्वारा की गई टिप्पणियों में भारत की जनता ने जो तीखी प्रतिक्रिया दी, वह सबके सामने है। इन जजों ने कोर्ट की अवमानना की दुहाई देकर जनता को चुप कराने का प्रयास किया किंतु जनता को कब तक चुप रखा जा सकता है!
संभवतः इसी उदाहरण को ध्यान में रखते हुए विधि मंत्री ने कहा कि कई बार जज कोई बात कह देते हैं, जो निर्णय का हिस्सा नहीं होती है किंतु ऐसा कहकर वे अपनी सोच उजागर करते हैं। समाज में इसका विरोध भी होता है। जज अपनी बात केवल आदेश के जरिये कहें, यही अच्छा रहेगा। न कि बाहर टिप्पणियों में कुछ कहा जाए।
किरेन रिजिजू ने कहा, पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जमाने में तीन सीनियर जजों को ओवरटेक करके किसी को चीफ जस्टिस बनाया गया, मौजूदा सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया। आज जब सरकार कोई कदम उठाती है तो वही लोग जो कभी न्यायपालिका पर कब्जा चाहते थे, कहते हैं कि मौजूदा सरकार न्यायपालिका पर हावी हो रही है, नियंत्रण कर रही है या जजों की नियुक्ति में रोड़े अटका रही है।
रिजिजू ने कहा, केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीते 8 साल में ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे न्यायपालिका को नुकसान हो या उसके अधिकार को चुनौती मिले। जब केंद्र सरकार राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग लाई, तो इसे चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने इसे रद्द किया। सरकार चाहती तो इस पर और कदम उठा सकती थी।
रिजिजू ने अपने वक्तव्य में यह भी कहा है कि जजों को व्यावहारिकता और वित्तीय स्थितियों का पता नहीं होता। यूपी में कोविड के दौरान एक जज ने आदेश दिए कि सभी जिला अस्पतालों में निश्चित दिनों में कोविड की दवाएं, ऑक्सीजन, एंबुलेंस आदि दी जाएं। हमारे पास यह सब होना भी तो चाहिए, हमारी अपनी क्षमता है। जजों को व्यवहारिक दिक्कतें व वित्तीय स्थिति पता नहीं होती।
इस प्रकार रिजिजू ने न्यायव्यवस्था के कपड़े से लेकर भाषा तक और वकीलों के व्यवहार से लेकर जजों के व्यवहार तक सुधार की आवश्यकता जताई है। अच्छा तो यह हो कि सुधारों की मांग न्यायपालिका के स्वयं के भीतर से उठे अन्यथा यह आवाज जनता के बीच से उठेगी। सुधार अनिवार्य हैं और वे होकर रहेंगे….. आज नहीं तो कल।
डॉ. मोहनलाल गुप्ता