कांधार हाथ से निकल जाने के बाद कामरान फिर से काबुल भाग आया और मोर्चा बांधकर बैठ गया। वह जानता था कि हुमायूँ भले ही कितना अकर्मण्य और आलसी क्यों न हो किंतु बैरामखाँ काबुल पर आक्रमण अवश्य करेगा।
कामरान का अनुमान ठीक निकला। बहुत जल्दी बैरामखाँ काबुल पर आ धमका। इस बार उसके हाथ बंधे हुए नहीं थे। न तो बालक अकबर कामरान की गिरफ्त में था और न हुमायूँ बैरामखाँ के साथ आया था। बैरामखाँ हर ओर से निश्चिंत था और जीवन भर के इस प्रबल बैरी से मुक्ति चाहता था। उसने चारों ओर से काबुल पर घेरा डाला ताकि कामरान को भाग जाने का अवसर नहीं मिले।
बैरामखाँ की जबर्दस्त मार के सामने कामरान टिक नहीं सका और एक रात वह किले से भाग निकला। उसके साथ उसकी बेगमें और गिने-चुने विश्वसनीय साथी ही थे। सुबह होने पर किले के भीतर इस बात की खबर फैली कि कामरान तो रात को ही भाग निकला। अब लड़ना व्यर्थ जानकर किलेदार ने किला बैरामखाँ को समर्पित कर दिया।
बैरामखाँ जानता था कि कामरान इतना मक्कार है कि कहीं भी छिप सकता है। उसने किले का कौना-कौना छान मारा किंतु कामरान नहीं मिला। और तो और न तो मिर्जा अस्करी और न फूफी खानजादा बेगम ही उसके हाथ लगी।
बैरामखाँ समझ गया कि रात के अंधेरे में पंछी घोंसले से उड़ गया। उसने तुरंत अपने घुड़सवार बदख्शां, दिल्ली और खैबरदर्रे की ओर जाने वाले रास्तों पर दौड़ाये। वह स्वयं भी अपने शिकार की खोज में निकला। चप्पे-चप्पे को सावधानी से छानने के बाद अंततः तीसरे दिन कामरान और अस्करी उसके हाथ लग गये। वे दोनों मक्कार भाई दिल्ली के बादशाह इस्लामशाह से मदद लेने जा रहे थे। बैरामखाँ चाहता तो उसी समय कामरान और अस्करी का काम तमाम कर सकता था। लेकिन यहाँ भी उसने इखलास रखा और उन्हें हुमायूँ के पास ले गया।
कामरान और अस्करी के तरफदारों ने इस बार फिर वही पुरानी वाली चालें दोहराईं। बाबर के परिवार की बूढ़ी औरतें हुमायूँ के पास बैठकर रोने लगीं कि तैमूर, चंगेज और बाबर के वंशजों को साधारण गुनहगारों की तरह न मारा जाये।
बैरामखाँ ने हुमायूँ से प्रार्थना की कि कामरान और अस्करी उसे सौंप दिये जायें। उसने हुमायूँ को वचन दिया कि वह कामरान और अस्करी को जान से नहीं मारेगा। हुमायूँ ने बहुत सोच-विचार के बाद कामरान और अस्करी बैरामखाँ के हाथों में सौंप दिये।
बैरामखाँ ने उन दोनों मक्कार भाईयों को अंधेरी कोठरी में ले जाकर बंद कर दिया और बाहर सख्त पहरा बैठा दिया। कई दिनों के सोच-विचार के बाद बैरामखाँ ने अपने अपराधियों के लिये दण्ड निर्धारित किया। एक रात उसने अंधेरी कोठरी का ताला खुलवाया और दोनों कैदियों को बाहर निकाल कर कहा कि अंतिम बार दुनिया को जी भर कर देख लो।
दोनों मक्कार भाईयों ने कोठरी से बाहर आकर नजरें घुमाईं। अंधेरे में उन्हें कुछ दिखाई नहीं दिया। जब उन्होंने आकाश की तरफ देखा तो हजारों तारों को चमचमाते हुए देखा जो अमावस्या की रात में भी दुनिया की सुंदरता को कायम रखे हुए थे।
बैरामखाँ ने उसी समय लोहे की सलाईयां गरम करवाईं और कामरान की आँखों में फिरा दीं। कामरान अंधा होकर चीखने और छटपटाने लगा। धूर्त अस्करी उसी समय बैरामखाँ के कदमों से लिपट गया और उसे खुदा का वास्ता देकर रहम करने के लिये कहा।
अस्करी को गिड़गिड़ाते हुए देखकर बैरामखाँ को हुमायूँ की आँखंे याद हो आईं। कितनी बेबसी भरी आँखें थीं वे! उसने अस्करी की आँखों को फोड़ने का इरादा त्याग दिया। उसकी नजर में कामरान ही असली गुनहगार था जिसे अपने किये की सजा मिल चुकी थी। उसी रात बैरामखाँ ने दोनों भाईयों को सपरिवार मक्का के लिये रवाना कर दिया।
अंधा कामरान अस्करी को साथ लेकर अपने कृत्यों पर पछताता हुआ हिन्दुस्तान की जमीन से बाहर हो गया और चार साल बाद वह मक्का में ही मर गया। कुछ दिनों बाद अस्करी भी मौत के गाल में समा गया। हिन्दाल पहले ही किसी अफगान द्वारा धोखे से मारा जा चुका था।
बाबर की खूनी ताकत के चार ही उत्तराधिकारी थे जिनमें से अब केवल हुमायूँ ही शेष बचा था। उसने अकबर को गजनी का सूबेदार नियुक्त किया और बैरामखाँ को उसका संरक्षक घोषित किया।