साइमन कमीशन – साम्प्रदायिकता का संवैधानिक विकास (1)
भारत में चल रहे क्रांतिकारी आन्दोलनों एवं स्वराज्य दल की गतिविधियों से विवश होकर ई.1927 में ब्रिटिश सरकार ने भारत में संवैधानिक सुधारों के बारे में सलाह देने के लिए साइमन कमीशन की नियुक्ति की। इस कमीशन के समस्त सदस्य अँग्रेज थे। इसलिये इसे व्हाइट कमीशन भी कहते हैं। कांग्रेस ने इसका बहिष्कार करने का निश्चय किया।
भारत-सचिव लॉर्ड बर्कनहेड ने भारतीय नेताओं को चुनौती देते हुए कहा कि साइमन कमीशन का विरोध करने से क्या लाभ है जबकि भारतवासी स्वयं ऐसा कोई संविधान तैयार करने में असमर्थ हैं जिसे भारत के समस्त दल स्वीकार करते हों! भारतीय नेताओं ने भारत-सचिव की इस चुनौती को स्वीकार कर लिया तथा भारत के भावी संविधान के लिये एक प्रस्ताव तैयार करने हेतु एक समिति का गठन किया।
मोतीलाल नेहरू को समिति का अध्यक्ष और जवाहरलाल नेहरू को सचिव नियुक्त किया गया। इसमें सुभाषचंद्र बोस तथा सर तेज बहादुर सप्रू सहित कुल 8 सदस्य थे। इस समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट को नेहरू रिपोर्ट कहा जाता है। इस रिपोर्ट में भारत में उत्तरदायी सरकार की स्थापना, अल्पसंख्यकों के धार्मिक एवं सांस्कृतिक हितों की रक्षा के लिए अधिकारों की घोषणा तथा वयस्क मताधिकार आदि बातें सम्मिलित की गईं।
दिसम्बर 1928 में सर्वदलीय बैठक में जिन्ना ने नेहरू समिति के प्रस्तावों पर तीन संशोधन रखे किन्तु वे स्वीकार नहीं किये गये। मुहम्मद शफी के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने प्रारम्भ से ही नेहरू समिति का बहिष्कार किया। 31 दिसम्बर 1928 और 1 जनवरी 1929 को आगा खाँ की अध्यक्षता में दिल्ली में सर्वदलीय मुस्लिम कान्फ्रेंस की बैठक बुलाई गई।
इसमें नेहरू रिपोर्ट के समस्त प्रस्तावों के विरुद्ध प्रस्ताव पारित किये गये। जिन्ना ने इस कान्फ्रेंस में भाग नहीं लिया परंतु उसने मार्च 1929 में मुस्लिम लीग के अधिवेशन में एक प्रस्ताव रखा जिसमें नेहरू रिपोर्ट के मुकाबले 14 शर्तें रखीं। मुस्लिम सम्प्रदाय से सम्बन्धित शर्तें इस प्रकार थीं-
(1) भविष्य का संविधान संघीय होना चाहिए तथा बची हुई शक्ति का प्रयोग प्रान्तों द्वारा होना चाहिए।
(2) सभी प्रान्तों के लिए स्वायत्त शासन का एक माप स्वीकार किया जाए।
(3) देश के समस्त विधानमण्डलों एवं अन्य चुनी गई पार्टियों का एक निश्चित सिद्धांत पर पुनर्गठन हो जो प्रत्येक प्रान्त में प्रभावशाली अल्पसंख्यक समुदाय का प्रतिनिधित्व करे।
(4) केन्द्र में मुस्लिम प्रतिनिधित्व एक तिहाई से कम नहीं होना चाहिए।
(5) प्रतिनिधित्व साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली पर आधारित हो।
(6) पंजाब, बंगाल, उत्तर प्रदेश और सीमा प्रान्त में कोई प्रादेशिक पुनर्विभाजन मुस्लिम बहुसंख्यकों को प्रभावित न करे।
(7) पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता हो, यदि किसी समुदाय के 3/4 सदस्य विरोध प्रकट करें तो वह विधेयक पारित नहीं किया जाए।
(8) सिंध को बम्बई से पृथक किया जाए।
(9) अन्य प्रान्तों की तरह उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त एवं बलूचिस्तान में भी समान अधिकार दिए जाएं।
(10) मुस्लिम संस्कृति, धर्म, निजी कानून, मुस्लिम शिक्षा तथा भाषा के उत्थान एवं रक्षा के लिए खुली वकालात करने की छूट हो।
(11) सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को संरक्षण प्राप्त हो।
(12) केन्द्र एवं प्रांतीय सरकारों में मुसलमान मंत्रियों की संख्या 1/3 हो।
(13) यूनिटों की स्वीकृति के बिना संविधान में परिवर्तन नहीं किया जाए।
(14) पृथक् मतदान प्रणाली, मुस्लिम स्वीकृति के बिना नहीं हटाई जाए।
नेहरू रिपोर्ट में जिन्ना की मांग संख्या 1, 12 एवं 13 को छोड़कर शेष 11 मांगें पहले ही मान ली गई थीं किंतु जिन्ना को इनसे संतोष नहीं हुआ। दूसरी ओर हिन्दू महासभा को भी नेहरू समिति के कई प्रस्ताव स्वीकार नहीं थे, विशेषकर सिंध को बम्बई से पृथक् किए जाने का प्रस्ताव।
शाहनवाज भुट्टो, मुहम्मद अली जिन्ना और सर गुलाम हुसैन चाहते थे कि सिंध को बम्बई से अलग किया जाए किंतु लाला लाजपतराय तथा हरचंदराय सिंध को बम्बई के साथ ही रखना चाहते थे ताकि पृथक सिंध क्षेत्र के रूप में एक मुस्लिम बहुल प्रांत का उदय नहीं हो सके। अखिल भारतीय हिन्दू महासभा, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी, सिंध हिन्दू पंचायत आदि संगठनों ने पृथक्कीकरण के प्रस्ताव का विरोध किया।
हिन्दू महासभा का आरोप था कि मुसलमानों का तुष्टिकरण करने के लिए नेहरू रिपोर्ट में हिन्दुओं के लिए अहितकर प्रस्ताव रखे गए थे। इस प्रकार हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों द्वारा अस्वीकार कर दिए जाने के कारण यह रिपोर्ट कूड़े के ढेर में फैंक दिए जाने से अधिक महत्व प्राप्त नहीं कर सकी।
….. लगातार (2)
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