हमारी अस्थाई असफलता से हताश न हों। दुनिया की कोई ताकत भारत को गुलाम नहीं रख सकती।
– सुभाषचंद्र बोस।
भारत की राजनीति में सुभाषचंद्र बोस अकेले ऐसे नेता हुए हैं जिन्होंने राष्ट्रसेवा के लिए विभिन्न मोर्चों पर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया। उन्होंने अपने समय की कठिनतम आईसीएस परीक्षा उत्तीर्ण की, एक कॉलेज के प्रिंसीपल रहे, एक विशाल सशस्त्र सेना की स्थापना की और उसके अध्यक्ष रहे, वे सैनिक के रूप में युद्ध के मोर्चों पर लड़े और नेता के रूप में कांगे्रस के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे।
उन्होंने जापान, जर्मनी और बर्मा आदि देशों से अंतरर्राष्ट्रीय संधियां कीं और आजादी से पहले ही भारत के लिए एक सरकार की स्थापना भी की। एक व्यक्ति सार्वजनिक जीवन में रहकर जितने भी रूपों में भारत की सेवा कर सकता है, उन्होंने की। वे गांधीजी के सबसे बड़े विरोधी रहे किंतु गांधाजी को सबसे पहले राष्ट्रपिता भी उन्होंने ही कहा।
जीवन परिचय
सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। पांच वर्ष की आयु में उन्हें अंग्रेजी स्कूल भेजा गया। स्कूल में भारतीय बच्चों से कहा जाता था कि भारतीय होने के कारण वे कुछ छात्रवृत्ति परीक्षाओं में नहीं बैठ सकते, यद्यपि वार्षिक परीक्षाओं में उन्होंने सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया था। इससे सुभाषचन्द्र बोस ने अनुभव किया कि एक ही संस्था में पढ़ते हुए उन्हें और बच्चों से नीचा समझा जाता है।
जब वे भारतीय स्कूल में पढ़ने गए तब उन पर स्कूल के प्रधानाध्यापक बेनीमाधव प्रसाद के उच्च चरित्र का गहरा प्रभाव पड़ा। उन पर दूसरा प्रभाव स्वामी विवेकानन्द के भाषणों एवं लेखों का था। इससे उनकी आत्मा को नई चेतना प्राप्त हुई। वे देश एवं मानवता की सेवा की ओर अग्रसर हुए। उनके माता-पिता ने उन्हें जितना अधिक नियंत्रण में रखने का प्रयास किया, वे उतने ही अधिक विद्रोही होते चले गए।
ई.1913 में 15 वर्ष की आयु में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उतीर्ण की तथा सम्पूर्ण विश्वविद्यालय में दूसरा स्थान प्राप्त किया। इसके बाद वे कलकत्ता के प्रसीडेन्सी कॉलेज में प्रविष्ट हुए। उस समय कलकत्ता में क्रांतिकारी गतिविधियां जोरों पर थीं तथा कॉलेज का छात्रावास क्रांतिकारियों का मिलन स्थल बना हुआ था।
एक ओर अंग्रेजों की दमनकारी नीति ने सुभाष की राजनीतिक चेतना को झकझोरा तो दूसरी ओर प्रथम विश्व युद्ध ने उन्हें यह विश्वास दिलाया कि जिस राष्ट्र के पास सैनिक शक्ति नहीं है वह अपनी आजादी की रक्षा करने की आशा नहीं कर सकता। ई.1919 में सुभाषचन्द्र ने बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। अगले ही वर्ष ई.1920 में उन्होंने इंग्लैण्ड जाकर आई.सी.एस. की परीक्षा दी।
सुभाष इस परीक्षा में सफल रहे किंतु उनका मन विदेशी सरकार की गुलामी करने को तैयार नहीं हुआ। इसलिए उन्होंने नौकरी नहीं की। ई.1921 में उन्होंने बम्बई जाकर गांधीजी से भेंट की। उस समय गांधीजी ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध असहयोग आन्दोलन छेड़ रखा था। गांधीजी ने उनसे इस कार्यक्रम से जुड़ने के लिए कहा किंतु सुभाषचंद्र को यह कार्यक्रम प्रभावित नहीं कर सका। वे पुनः कलकत्ता लौट आए।
कुछ दिन बाद सुभाष बाबू देशबन्धु चितरंजन दास से मिले। उनसे मिलने पर उन्होंने अनुभव किया कि उन्हें एक योग्य नेता मिल गया है। जब तक देशबन्धु चितरंजनदास जीवित रहे, सुभाष बाबू उनके सहयोगी के रूप में कार्य करते रहे। असहयोग आंदोलन में जब गांधीजी के आह्वान पर बहुत से छात्रों ने कॉलेज छोड़़ दिया, तब उनकी शिक्षा के लिए देशबन्धु चितरंजन दास ने एक राष्ट्रीय कॉलेज की स्थापना की और सुभाष बाबू को उसका प्रिंसीपल बनाया।
कुछ समय बाद सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस की सदस्यता ले ली। यद्यपि सुभाष चंद्र वामपंथी विचारधारा के समर्थक थे किंतु इस समय कांग्रेस में विभिन्न विचारधाराओं के लोग सदस्य होते थे, वामपंथी भी बड़ी संख्या में कांगे्रस में थे।
आन्दोलनकारी सुभाष
ई.1921 में प्रिन्स ऑफ वेल्स ने भारत की यात्रा की। उसकी यात्रा के बहिष्कार एवं विरोध के लिए देशव्यापी आन्दोलन की रूपरेखा बनाई गई तथा कलकत्ता के आंदोलन का नेतृत्व सुभाष बाबू को सौंपा गया। 10 दिसम्बर 1921 को ब्रिटिश सरकार ने देशबन्धु चितरंजन दास, सुभाष चन्द्र बोस तथा उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया। कुछ दिनों बाद उन्हें रिहा किया गया।
ई.1922 में चैरीचैरा काण्ड होने पर गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया। इस पर 1 जनवरी 1923 को चित्तरंजन दास, नरसिंह चिंतामन केलकर, मोतीलाल नेहरू और बिट्ठलभाई पटेल ने कांग्रेस छोड़कर स्वराज पार्टी का निर्माण किया। चित्तरंजन दास इसके अध्यक्ष और मोतीलाल नेहरू सचिव बनाये गये। देशबन्धु चित्तरंजन दास ने स्वराज्य पार्टी का एक समाचार-पत्र ‘फारवर्ड’ आरम्भ किया और सुभाष बाबू को इस समाचार-पत्र का मैनेजर नियुक्त किया।
मार्च 1924 में स्वराज्य पार्टी को कलकत्ता नगर निगम के चुनाव में भारी सफलता प्राप्त हुई और देशबन्धु चितरंजन दास नगर निगम के मेयर बने, तब उन्होंने सुभाष बाबू को कार्यपालक अधिकारी नियुक्त किया।
जून 1925 में चितरंजनदास की मृत्यु हो गई और सुभाष बाबू अकेले पड़ गए। इसका लाभ उठाकर अंग्रेजस सरकार ने अक्टूबर 1925 में सुभाष बाबू को एक क्रांतिकारी षड्यन्त्र करने के झूठे आरोप में गिरफ्तार करके मांडले भेज दिया। वे लगभग ढाई वर्ष तक जेल में रहे। मई 1927 में उन्हें रिहा किया गया। इस समय तक स्वराज्य पार्टी भी समाप्त हो चुकी थी। अतः सुभाष फिर से कांग्रेस में सक्रिय हो गए और उन्हें बंगाल प्रदेश कांग्रेस कमेटी का प्रधान निर्वाचित किया गया।
कांग्रेस में वामपंथियों का प्रभाव
ई.1925 में सुभाष बाबू को पहली बार कांग्रेस कार्यकारिणी समिति में शामिल किया गया तथा उन्हें पार्टी का महासचिव बनाया गया। ई.1927 में ब्रिटिश सरकार ने भारत में संवैधानिक सुधारों के सम्बन्ध में सुझाव देने के लिए साइमन कमीशन नियुक्त किया। भारत में इस आयोग का जबर्दस्त विरोध किया गया क्योंकि इस आयोग में एक भी सदस्य भारतीय नहीं था। सुभाष बाबू ने बंगाल में कमीशन के विरुद्ध किए गए प्रदर्शन का नेतृत्व किया।
दिसम्बर 1928 में कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन में सुभाष बाबू का गांधीजी से वैचारिक संघर्ष हुआ। इस अधिवेशन में ‘नेहरू रिपोर्ट’ पर विचार किया गया जिसमें ‘औपनिवेशिक स्वराज्य’ की मांग की गई थी। सुभाषचंद्र तथा उनके वामपंथी साथियों ने ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ का प्रस्ताव रखा। गांधीजी ने प्रस्ताव रखा कि यदि दिसम्बर 1929 तक ब्रिटिश सरकार भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य का दर्जा नहीं देती है तो कांग्रेस एक अहिंसात्मक असहयोग आन्दोलन चलायेगी।
इस पर सुभाष बाबू ने इसमें संशोधन प्रस्ताव प्रस्तुत किया कि कांग्रेस पूर्ण स्वतंत्रता से कम किसी भी दर्जे से सनतुष्ट नहीं होगी। यह संशोधन के विरोध में 1,350 तथा पक्ष में 973 मत आए। इस प्रकार सुभाष बाबू का प्रस्ताव तो गिर गया किंतु गांधजी एवं उनके साथियों को कांग्रेस के भीतर उभर चुकी सुभाष बाबू की शक्ति का पता लग गया।
एक वर्ष बाद पं. जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुए कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में वामपंथियों ने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव बड़े आराम से पारित करवा लिया। इसके बाद सुभाष चंद्र स्वाधीनता संग्राम के अग्रिम पंक्ति के नेता माने जाने लगे।
ई.1930 में गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ किया जिसमें सुभाषचन्द्र बोस ने बड़े उत्साह से भाग लिया। सुभाष बाबू को बन्दी बना लिया गया और गांधी-इरविन पैक्ट के बाद उन्हें रिहा किया गया। दूसरे गोलमेज सम्मेलन से लौटकर गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को पुनः प्रारम्भ करने की घोषणा की। इस बार भी सुभाष बाबू को गिरफ्तार कर लिया गया। कुछ समय बाद उनका स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया। ऐसी स्थिति में उन्हें वियना जाकर इलाज कराने की अनुमति मिल गई।
गांधीजी से तीव्र मतभेद
19 से 21 फरवरी 1938 तक गुजरात के सूरत जिले के हरिपुरा गांव में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ जिसमें सुभाष बाबू को निर्विरोध अध्यक्ष चुन लिया गया। यद्यपि गांधीजी और सुभाष बाबू के बीच, कांग्रेस की नीति व कार्यप्रणाली को लेकर मतभेद थे किन्तु वामपंथियों का प्रभाव देखकर किसी ने सुभाष बाबू का विरोध नहीं किया।
ई.1938 में सुभाष बाबू ने भरसक प्रयत्न किया कि जिन्ना से सुलह हो जाए और सारा राष्ट्र एक हो जाए ताकि ब्रिटिश साम्राज्यवाद का कारगर ढंग से विरोध कर सकें किन्तु जिन्ना टस से मस नहीं हुआ। सुभाष बाबू चटगांव गए तो मुस्लिम लीगियों ने उन पर एवं अन्य कांग्रेसियों पर पथराव किया जिससे सुभाष बाबू को चोटें आई और चैदह अन्य कांग्रेसी भी घायल हुए। सुभाषचंद्र ने जनता से अपील की कि वे धैर्य और आत्म-संयम से काम लें और घृणा की बजाय प्रेम का रास्ता अपनाएं।
सितम्बर 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ हो गया और इंग्लैण्ड भी जर्मन के विरुद्ध युद्ध में शामिल हो गया। इस अवसर पर गांधीजी व सुभाष बाबू के मतभेद खुलकर सामने आए। सुभाष बाबू का मानना था कि ‘इंग्लैण्ड का संकट भारत के लिए अवसर है’ किंतु गांधीजी इंग्लैण्ड के संकट को भारत के लिए अवसर नहीं समझते थे तथा इस संकट में वे अंग्रेज सरकार से सहयोग करना चाहते थे।
ये मतभेद निरन्तर बढ़ते ही गए। उसी वर्ष कांग्रेस का त्रिपुरा अधिवेशन हुआ। इसमें सुभाष बाबू को पुनः कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए खड़ा किया गया। गांधीजी तथा उनके साथी नहीं चाहते थे कि सुभाष बाबू पुनः अध्यक्ष बनें। उन्होंने पट्टाभिसीतारमैया को सुभाष बाबू के सामने खड़ा कर दिया। गांधजी ने सुभाष बाबू के विरुद्ध एढ़ी-चोटी को जोर लगा दिया किंतु पट्टाभि सीतारमैया हार गए।
गांधीजी ने हार से तिलमिलाकर कहा- ‘अब मुझे तनिक भी सन्देह नहीं कि कांग्रेस के प्रतिनिधि उन सिद्धन्तों और नीतियों को नहीं मानते जिनका मैं समर्थन करता हूँ।’ गांधीजी ने सुभाष का विरोध क्यों किया?
कांग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में सुभाष बाबू की जय-जयकार हुई तो गांधीजी ने एक वक्तव्य दिया- ‘जो लोग कांग्रेस में रहना पसंद नहीं करते वे बाहर आ सकते हैं।’
गांधीजी के संकेत पर कांग्रेस कार्य-समिति के 15 सदस्यों ने यह कहकर अपने पदों से त्याग-पत्र दे दिया कि सुभाष बाबू अपनी इच्छानुसार कार्य-समिति गठित कर लें। सुभाष बाबू नहीं चाहते थे कि कांग्रेस में फूट पड़े। इसलिए उन्होंने गांधी, नेहरू, कृपलानी आदि से बात करके मतभेद दूर करने का प्रयास किया किंतु कोई परिणाम नहीं निकला।
गांधीजी के समर्थकों ने एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया कि सुभाष बाबू, गांधीजी की इच्छानुसार कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य मनोनीत करें। गांधीजी एवं सुभाषचंद्र में मतैक्य नहीं हो सका। इधर सुभाष बाबू अस्वस्थ होने के कारण अधिवेशन में भाग नहीं ले सके। विषय समिति की बैठक में उन्हें स्ट्रेचर पर लाया गया।
सुभाष बाबू ने प्रस्ताव रखा कि ब्रिटिश सरकार को अल्टीमेटम दे देना चाहिए कि- ‘यदि छः महीने में ब्रिटिश सरकार भारत को आजाद नहीं करती है तो भारत युद्ध के अवसर का लाभ उठाकर ब्रिटिश विरोधी शक्तियों से सैनिक सहायता ले लेगा।’
गांधीजी ने इस प्रस्ताव का जबरदस्त विरोध किया। अतः यह प्रस्ताव पारित नहीं हो सका। सुभाष बाबू ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्याग-पत्र दे दिया।
फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन
कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्याग-पत्र देने के बाद सुभाष बाबू ने कांग्रेस में ही रहकर ‘फारवर्ड ब्लॉक’ नामक एक अलग दल बनाया। सुभाष ने फॉरवर्ड ब्लाक के तीन प्रमुख उद्देश्य बताए- (1.) देश की आजादी के लिए तेजी से कार्य करना, (2.) गांधी गुट के नेतृत्व को समाप्त करना, (3.) समझौते का कड़ा विरोध करना।
सुभाष बाबू ने कहा कि- ‘फारवर्ड ब्लॉक श्री गांधी के व्यक्तित्त्व और अहिंसात्मक असहयोग के उनके सिद्धान्त को पूरा सम्मान देता है किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि कांग्रेस के मौजूदा हाई कमान में भी अपनी निष्ठा बनाए रखे।’
कांग्रेस के समस्त पदों से च्युत
एक तरफ सुभाष बाबू कांग्रेस की एकता के लिए कार्य कर रहे थे किंतु दूसरी तरफ गांधीजी के समर्थक सुभाष बाबू को पूरी तरह कांग्रेस से निकाल देना चाहते थे। कांग्रेस के नए अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने सुभाष बाबू से उनकी गतिविधियों के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण पूछा।
सुभाष बाबू ने अपने जवाब में सब कुछ स्पष्ट कर दिया किन्तु फिर भी सुभाष बाबू को कांग्रेस के समस्त पदों से हटाकर मात्र चार आने वाला सामान्य सदस्य रहने दिया गया। इस प्रकार सुभाष कांग्रेस-संगठन से अलग कर दिए गए। निःसंन्देह संगठन में यह कार्य लोकतन्त्र की भावना के विरुद्ध था तथा सुभाषचंद्र को अपमानित करने वाला था।
सुभाष की गिरफ्तारी और जर्मनी पहुँचना
द्वितीय विश्व-युद्ध के सम्बन्ध में सुभाषचंद्र बोस की स्पष्ट धारणा थी कि-
(1.) विश्व-युद्ध में ब्रिटेन पराजित होगा और ब्रिटिश साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो जाएगा।
(2.) विषम परिस्थतियाँ होते हुए भी ब्रिटेन भारतीय जनता को अधिकार हस्तांतरित नहीं करेगा और भारतीयों को अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ना होगा।
(3.) यदि भारत ने युद्ध में ब्रिटेन के विरुद्ध भाग लिया और जो राष्ट्र ब्रिटेन से लड़ रहे हैं उनसे सहयोग किया तो भारत अपनी स्वतंत्रता प्राप्त कर लेगा।
फॉरवर्ड ब्लॉक ने सुभाष बाबू के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध जंग की तैयारियां आरम्भ कर दीं। सरकार ने सुभाष को एक खतरनाक क्रांतिकारी मानकर 2 जुलाई 1940 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इस पर उन्होंने सरकार को अल्टीमेटम दिया- ‘मेरी गिरफ्तारी का कोई नैतिक कानूनी आधार नहीं है और यदि मुझे तुरन्त रिहा नहीं किया गया तो मैं अनशन करूंगा।’
सरकार ने इस अल्टीमेटम की कोई परवाह नहीं की। इस पर 29 नवम्बर 1940 को सुभाषचंद्र ने अनशन आरम्भ कर दिया। उन्होंने बंगाल के गवर्नर को लिखा- ‘व्यक्ति को मरना चाहिए ताकि राष्ट्र जिंदा रह सके। आज मुझे मरना चाहिए ताकि भारत अपनी आजादी और गौरव प्राप्त कर सके।’
कुछ दिनों के अनशन के बाद सुभाष की स्थिति बिगड़ गई। इस पर सरकार ने उन्हें जेल से रिहा करके उनके ही घर में नजरबंद कर दिया। लगभग 40 दिनों तक सुभाष अपने शयनकक्ष से बाहर नहीं निकले। अचानक एक दिन भारत और ब्रिटेन के लोग यह सुनकर स्तम्भित रह गए कि ब्रिटिश सरकार के कड़े पहरे के बावजूद सुभाषचंद्र पुलिस को चकमा देकर भाग गए।
सुभाषचंद्र वेश बदलकर काबुल पहुँचे, कुछ दिन वहाँ रहने के बाद वे मास्को गए और वहाँ से 28 मार्च 1941 को बर्लिन के लिए रवाना हो गए। बर्लिन में जर्मनी के विदेश मन्त्री रिबेनट्राप ने सुभाषचंद्र का स्वागत किया और जर्मनी के रेडियो द्वारा ब्रिटेन के विरुद्ध अपने विचारों को प्रसारित करने की अनुमति दी। नवम्बर 1942 में सुभाषचंद्र ने जर्मनी रेडियो से अपना सन्देश प्रसारित किया। उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध में हिटलर का पलड़ा भारी था। हिटलर ने सुभाष बाबू को भारत के स्वाधीनता संग्राम में सहायता देने का आश्वासन दिया।
सुभाष चंद्र बोस का दक्षिण-पूर्वेशिया में आगमन
जून 1942 में रासबिहारी बोस ने सुभाषचंद्र बोस को पूर्वी एशिया में आने तथा उनके द्वारा स्थापित आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व सम्भालने का निमन्त्रण दिया। सुभाष बाबू 8 फरवरी 1943 को एक जर्मन यू-बोट से फ्रेकेन बर्ग से रवाना होकर मेडागास्कर होते हुए समुद्र में 400 मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित एक जापानी पनडुब्बी में बैठकर सुमात्रा के उत्तर में स्थित साबन द्वीप पहुंचे।
यहाँ उनके पुराने परिचित कर्नल यामामोटो ने जापान सरकार की ओर से उनका स्वागत किया। वहाँ से चलकर सुभाष बाबू 16 मई 1943 को हवाई जहाज से टोकियो पहुंचे। नेताजी के टोकियो पहुँचने के पूर्व ही जर्मनी कई मोर्चों पर पराजित हो चुका था और मित्र राष्ट्रों की स्थिति सुदृढ़ होती जा रही थी। सुभाषचन्द्र बोस ने टोकियो में जापान के प्रधानमंत्री तोजो से लम्बी बातचीत की।
प्रधानमंत्री तोजो, सुभाष के व्यक्तित्व तथा उनकी बातचीत से बहुत प्रभावित हुआ और उसने जापानी संसद (डीट) में घोषणा की कि- ‘जापान ने दृढ़ता के साथ फैसला किया है कि वह भारत से अँग्रेजों को; जो भारतीय जनता के दुश्मन हैं, निकाल बाहर करने और उनके प्रभाव को खत्म करने के लिये सब तरह की सहायता देगा तथा भारत को वास्तविक अर्थ में पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करने में समर्थ बनायेगा।’
भारतीयों के लिये मर्मस्पर्शी संदेश
2 जुलाई 1943 को नेताजी सुभाषचन्द्र बोस सिंगापुर पहुंचे जहाँ उनका शानदार स्वागत किया गया। 4 जुलाई को कैथे सिनेमा हॉल में आयोजित एक भव्य समारोह में उन्होंने विधिवत् ढंग से आजाद हिन्द फौज का अध्यक्ष पद ग्रहण किया। ले. कर्नल के. भौंसले ने सैनिकों की तरफ से उनका अभिनन्दन किया।
इस अवसर पर नेताजी ने स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार बनाने और आजाद हिन्द फौज को लेकर हिन्दुस्तान जाने की घोषणा की। 5 जुलाई 1943 को सुभाष बाबू ने आजाद हिन्द फौज के पुनर्निर्माण की घोषणा की तथा सेना का निरीक्षण किया।
इस अवसर पर उन्होंने कहा- ‘यह केवल अँग्रेजी दासता से भारत को मुक्त कराने वाली सेना नहीं है, अपितु बाद में स्वतन्त्र भारत की राष्ट्रीय सेना का निर्माण करने वाली सेना भी है। साथियों आपके युद्ध का नारा हो- चलो दिल्ली, चलो दिल्ली। इस स्वतन्त्रता संग्राम में हम में से कितने जीवित बचेंगे, यह मैं नहीं जानता परन्तु मैं यह जानता हूँ कि अन्त में विजय हमारी होगी और हमारा ध्येय तब तक पूरा नहीं होगा जब तक हमारे शेष जीवित साथी ब्रिटिश साम्राज्य की एक अन्य कब्रगाह- लाल किले पर विजयी परेड नहीं करेंगे।’
सुभाषचंद्र बोस ने सिंगापुर रेडियो से भारतीयों के नाम मर्मस्पर्शी संदेश दिया- ‘एक वर्ष से मैं मौन एवं धैर्य के साथ समय की प्रतीक्षा कर रहा था। वह घड़ी आ पहुंची है कि मैं बोलूँ। ब्रिटिश दासता से भारतीयों को मुक्ति मिल सकती है- उन अँग्रेजों से जिन्होंने सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से अब तक हमें गुलाम बना रखा है। ब्रिटिश साम्राज्य के शत्रु हमारे स्वाभाविक मित्र हैं। समस्त भारतीयों की ओर से मैं घोषणा करता हूँ कि ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध तब तक जारी रहेगा जब तक भारत आजाद न हो जाये।’
उन्होंने भारतीयों से अपील की- ‘दिल्ली चलो। यह रास्ता खून, पसीने और आंसू से भरा हुआ है……।’
लोकप्रिय नारों का निर्माण
भारत की आजादी के लिये भारतीयों को जागृत करने के उद्देश्य से सुभाष बाबू ने संसार के सर्वश्रेष्ठ नारों का निर्माण किया। उनका विश्वविख्यात उद्घोष जयहिंद पूरी दुनिया में लोकप्रिय हुआ। उनका दूसरा नारा था- ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।’ दिल्ली चलो नारा भी खूब लोकप्रिय हुआ।
अस्थायी भारत सरकार का गठन
21 अक्टूबर 1943 को नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने स्वतन्त्र भारत के अस्थायी मन्त्रिमण्डल का गठन किया जिसमें कप्तान लक्ष्मी स्वामीनाथन सहित कई लोगों को मंत्री बनाया गया। 23 अक्टूबर को सुभाषचन्द्र बोस ने भारत की अस्थायी सरकार की तरफ से ब्रिटेन और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
कुछ दिनों के अन्दर ही धुरी राष्ट्रों- जर्मनी, जापान और इटली तथा उनके प्रभाव के अन्तर्गत काम करने वाली सरकारों- स्याम, बर्मा, फिलिपीन इत्यादि ने स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार को मान्यता दे दी। जापान ने अण्डमान-निकोबार द्वीप समूहों का प्रशासन इस अस्थायी सरकार को सौंप दिया।
सुभाष द्वारा आजाद हिन्द फौज का पुनर्गठन
अब सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज को पुनर्गठित करने का काम आरम्भ किया। कुछ ही दिनों में चार ब्रिगेडों- गांधी ब्रिगेड, आजाद ब्रिगेड, नेहरू ब्रिगेड और सुभाष ब्रिगेड का गठन किया गया । भारतीय स्त्री सैनिकों की सेना गठित करने के लिये सिंगापुर में एक प्रशिक्षण-शिविर स्थापित किया गया। इसमें 500 महिला सैनिक रखे गये।
आईएनए का कमाण्डर इन चीफ बनने के बाद पूर्व एशिया में इण्डियन इण्डिपेण्डेंस आंदोलन का नेतृत्व भी सुभाष चंद्र के हाथों में आ गया। आजाद हिन्द फौज में सैनिकों की भर्ती और प्रशिक्षण की अलग-अलग व्यवस्था की गई। स्त्री तथा पुरुष सैनिकों के लिये अलग-अलग प्रशिक्षण शिविर स्थापित किये गये। सैनिकों को हिन्दुस्तानी भाषा में निर्देश दिये जाते थे।
6 माह के प्रशिक्षण के बाद रंगरूटों को आजाद हिन्द फौज में सम्मिलित कर लिया जाता था। प्रवासी भारतीयों को इस आन्दोलन से जोड़ने के लिये सुभाषचन्द्र बोस ने हाँगकाँग, शंघाई, मनीला, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो तथा अन्य स्थानों का दौरा किया और प्रवासी भारतीयों को अपने उद्देश्यों से अवगत कराया। उनके प्रेरक और चुम्बकीय व्यक्तित्व ने प्रवासी भारतीयों को बहुत आकर्षित किया और उन्होंने तन-मन-धन से इस आन्दोलन को सहयोग दिया।
युद्ध के मोर्चे पर
सुभाषचंद्र की योजना थी कि आजाद हिन्द फौज बर्मा मोर्चे से भारत की सीमा में प्रवेश करके बंगाल और असम से ब्रिटिश फौजों के पीछे धकेल दे। उनका विश्वास था कि आजाद हिन्द फौज की सफलता देखकर भारतीय जनता, अँग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर देगी जिससे भारत को मुक्त करवाना सरल हो जायेगा। भारत की जो भूमि मुक्त कराई जायेगी, उसका शासन आाजद हिन्द फौज को सौंप दिया जायेगा और उस भूमि पर केवल भारत का तिंरगा फहराया जायेगा।
इस योजना के अनुसार आजाद हिन्द फौज की सुभाष ब्रिगेड भारत-बर्मा की सीमा पर पहुँच गई। सुभाषचन्द्र बोस ने रंगून में अपना मुख्यालय स्थापित किया। सुभाष ब्रिगेड की छोटी-छोटी टुकड़ियों ने भारतीय अधिकारियों के नेतृत्व में आगे बढ़ना आरम्भ किया। आजाद हिन्द फौज के सैनिकों का मनोबल काफी ऊँचा था परन्तु युद्ध की दृष्टि से फौज पूरी तरह से सुसज्जित नहीं थी।
जनवरी 1944 के अन्त में सुभाष ब्रिगेड की एक बटालियन को अराकान की कलादान घाटी में तथा दूसरी और तीसरी बटालियन को चिन पहाड़ियों की ओर भेजा गया। पहली बटालियन ने कलादान घाटी में पश्चिमी अफ्रीका की हब्शी सेना को परास्त कर आगे बढ़ना आरम्भ किया तथा पलेतवा व दलेतमे नामक स्थानों पर शत्रु सेना को परास्त कर क्षेत्र पर अधिकार कर लिया।
मई 1944 में उसने मादोक नामक स्थान जीत लिया जो भारत की भूमि पर अँग्रेजों की अग्रिम चैकी थी। इस प्रकार आजाद हिन्द फौज ने भारत की भूमि पर कदम रख दिये परन्तु शीघ्र ही अँग्रेजों की सेना ने जोरदार आक्रमण किया। इस अवसर पर जापानी सेना मादोक के सैनिकों को सहायता पहुँचाने में असमर्थ रही। अतः आजाद हिन्द फौज के अधिकारियों को मादोक से हट जाने को कहा गया परन्तु भारतीय सैनिक डटे रहे और मई से सितम्बर तक उन्होंने इस क्षेत्र की रक्षा की और तब तक मादोक में तिरंगा लहराता रहा।
सुभाष ब्रिगेड की दूसरी और तीसरी बटालियनों ने भी अपूर्व शौर्य का प्रदर्शन किया। उन्हें कलेवा से होकर टासू और फोर्ट हवाइट के मार्ग की रक्षा का भार सौंपा गया। इस क्षेत्र में आजाद हिन्द फौज के सैनिकों ने मित्र राष्ट्रों के छापामारों का सफाया किया तथा मेजर मार्निंग की सेना को परास्त करके अँग्रेजों के सामरिक दुर्ग क्लैंग-क्लैंग को जीत लिया।
आजाद हिन्द फौज की वीरता से प्रसन्न होकर जापानी सेनापति ने समस्त सुभाष ब्रिगेड को कोहिमा की ओर कूच करने का आदेश दिया। यह निश्चय किया गया कि इम्फाल का पतन होते ही सुभाष ब्रिगेड ब्रह्मपुत्र नदी को पार करके बंगाल में प्रवेश कर जाये। इस बीच आजाद हिन्द फौज की दूसरी टुकड़ियां जापान के मंजूरियाई डिवीजन के साथ कोहिमा पहुँच गईं और घमासान युद्ध के बाद कोहिमा पर अधिकार जमा लिया।
इसके बाद युद्ध के अन्य क्षेत्रों में जापानियों की पराजय का सिलसिला आरम्भ हो गया। इसका लाभ उठाते हुए अँग्रेज इम्फाल में नई कुमुक पहंचाने में सफल रहे। इससे इम्फाल बच गया। अब अँग्रेजों ने दीमापुर और कोहिमा की तरफ से जोरदार हमला किया। आजाद हिन्द फौज को पीछे हटना पड़ा।
गांधी ब्रिगेड को अप्रैल के आरम्भ में इम्फाल की तरफ भेजा गया। जापानियों ने सोचा था कि अब तक इम्फाल का पतन हो गया होगा परन्तु मार्ग में सूचना मिली कि फलेल के निकट घमासान युद्ध चल रहा है। इस पर गांधी ब्रिगेड के छापामार सैनिकों ने फलेल के हवाई अड्डे पर अधिकार करके वहाँ मौजूद वायुयानों को नष्ट कर दिया।
इस अभियान में गांधी ब्रिगेड के लगभग 250 सैनिक मारे गये। फिर भी गांधी ब्रिगेड बहादुरी के साथ डटी रही और अँग्रेजों को आगे नहीं बढ़ने दिया। जून 1944 में रसद पानी और गोला-बारूद की कमी से गांधी ब्रिगेड की स्थिति बिगड़ने लगी, जबकि दूसरी तरफ नई कुमुक आ जाने से अँग्रेज सेना की स्थिति मजबूत हो गई।
वर्षा ऋतु में टास-फलेल सड़क बह गई और आजाद हिन्द फौज को रसद मिलना भी बन्द हो गया। ऐसी स्थिति में कुछ दिनों बाद गांधी ब्रिगेड को भी जापानी सेना के साथ बर्मा लौटना पड़ा। इस प्रकार, आजाद हिन्द फौज का मुख्य अभियान जो मार्च 1944 में आरम्भ हुआ था, वह समाप्त हो गया।
इस अभियान के दौरान वह भारतीय सीमा में लगभग 150 मील भीतर तक प्रवेश करने में सफल रही परन्तु रसद और गोला-बारूद के अभाव में उस क्षेत्र की रक्षा नहीं कर सकी। इस अभियान में आजाद हिन्द फौज के लगभग 4000 सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए।
सुभाष चंद्र बोस के अन्तिम दिन
अब ब्रिटिश सेना ने बर्मा पर पुनः अधिकार करने के लिये आक्रमण किया। उनका आक्रमण इतना जोरदार था कि जापानियों को निरन्तर पीछे हटना पड़ा। जापानी सेना रंगून का भार, आजाद हिन्द फौज को देकर बर्मा से चली गई। आजाद हिन्द फौज ने कुछ दिनों तक बहादुरी के साथ नगर की रक्षा की परन्तु मई 1945 के आरम्भ में रंगून पर अँग्रेजों का अधिकार हो गया। आजाद हिन्द फौज के सैकड़ों सैनिक बन्दी बना लिये गये।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस रंगून से बैंकाक और वहाँ से सिंगापुर चले गये। इस समय तक जापान के साथी राष्ट्रों- जर्मनी और इटली का पतन हो चुका था और जापान अकेला ही मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध लड़ रहा था। अमरीका ने 6 और 8 अगस्त 1945 को हिरोशिमा और नागासाकी पर अणु बम गिराये। इसके बाद रूस ने भी जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
15 अगस्त 1945 को जापान ने मित्र-राष्ट्रों के समक्ष समर्पण कर दिया। सुभाषचन्द्र बोस अपने एक साथी कर्नल हबीब उर रहमान के साथ 17 अगस्त 1945 को एक लड़ाकू विमान से सैगांव से टोकियो के लिये रवाना हुए। 17 अगस्त की रात्रि को विमान में सवार लोगों ने तूरेन (हिन्द-चीन) में विश्राम किया। अगले दिन विमान ताइपेह पहुँचा। ताइपेह से रवाना होते ही विमान में अचानक आग लग गई।
इस कारण कुछ जापानी अधिकारियों सहित नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की भी मृत्यु हो गई। कर्नल हबीब उर रहमान जीवित बच गये। बहुत से लोगों का विश्वास है कि नेताजी उस दुर्घटना में नहीं मारे गये थे। मित्र राष्ट्रों के हाथों में पड़ने से बचने के लिये वे भूमिगत हो गये थे। उनकी भस्मी को सम्मानपूर्वक टोकियो लाया गया और 14 सितम्बर 1945 को उसे रियो कोजू मन्दिर में रख दिया गया।
सुभाष चन्द्र बोस की उपलब्धियों का मूल्यांकन
नेताजी सुभाषचंद्र बोस की उपलब्धियां उनके समकालीन नेताओं से कहीं अधिक बड़ी हैं। उन्होंने आईसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण की, कॉलेज के प्रिंसीपल रहकर युवकों को पढ़ाया, जनजागृति के लिए समाचार पत्र का सम्पादन किया, फॉरवर्ड ब्लॉक जैसे लोकप्रिय राजनीतिक दल का गठन किया। सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लिया, कांग्रेस का नेतृत्व किया तथा सशस्त्र सेना के माध्यम से देश को आजाद करवाने का प्रयास किया।
वे भारत की कुछ भूमि को अंग्रेजों से आजाद करवाने वाले एवं अपनी सरकार स्थापित करके विश्व के कई देशों से मान्यता प्राप्त करने वाले एकमात्र स्वतंत्रता सेनानी थे। वे गांधीजी की अहिंसा की भूल-भुलैया में उलझने की बजाय ठोस परिणाम में विश्वास रखते थे तथा देश की आजादी के लिए प्रत्येक उपाय को उचित मानते थे। वे कांग्रेस में एकमात्र ऐसे नेता थे जिन्होंने गांधीजी के विचारों एवं उनकी कार्यप्रणाली को खुलकर चुनौती दी तथा उनके प्रत्याशी पट्टाभिसीतारमैया को अध्यक्ष पद के चुनावों में परास्त किया।
सुभाषचंद्र की राय में दूसरा विश्व-युद्ध भारत के लिए सुनहरा अवसर था। इसे भुनाने के लिए जर्मनी एवं जापान के राष्ट्राध्यक्षों की आंख में आंख डालकर बात करने वाले वे एकमात्र नेता थे। जिस समय वायसराय वेवेल भारतीय नेताओं को शिमला-सम्मेलन में बुलाकर डोमिनियन स्टेटस देने के लिए ललचा रहा था, उस समय सुभाष बाबू जापान की भूमि से रेडियो प्रसारण के माध्यम से भारतीय नेताओं से अपील कर रहे थे कि वे भारत के लिए आधी-अधूरी आजादी प्राप्त करने हेतु वायसराय भवन की ओर न दौड़़ंे। हालांकि वे भारत की आजादी का सूरज नहीं देख सके किंतु भारत की आजादी में उनका बहुत बड़ा योगदान है।