Thursday, November 21, 2024
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शाहजहाँ का परिवार

शाहजहाँ का परिवार उससे प्रेम नहीं करता था। इसके कई कारण थे। शाहजहाँ स्वयं इतना बड़ा अय्याश था कि वह भी अपने परिवार से प्रेम नहीं करता था।

ई.1526 में बाबर ने अपने पूर्ववर्ती अफगानों को हराकर उनसे उत्तरी भारत के हरे-भरे मैदान छीने थे। गंगा-यमुना के किनारों पर स्थित इन मैदानों के खेत, धान के कटोरे कहलाते थे तथा इन मैदानों में हरी घास चरने वाले दुधारू पशु, गंगा-यमुना में बहने वाले पवित्र जल के बराबर ही अपरिमित दूध देते थे।

ऊपर आसमान में रंग-बिरंगे पंछी उड़ते थे और सूर्य-चंद्र बारी-बारी से आकर इस शस्य-शामला धरती को मुग्ध भाव से निहारते थे। इन्हीं मैदानों में हजारों साल से सुख-पूर्वक निवास करने वाले हिन्दुओं की प्राचीन राजधानी थी दिल्ली।

जब यह दिल्ली ई.1193 में तुर्कों के अधीन हो गई तो उन्होंने अपने लिए एक किला बनवाया जिसे सीरी का दुर्ग कहते थे। जब सूर वंश का शासक सलीमशाह दिल्ली का बादशाह हुआ तो उसने दिल्ली में अपने लिए एक नया दुर्ग बनवाया जिसे सलीमगढ़ कहा जाता था। फरगना एवं समरकंद से आए मुगलों ने दिल्ली को छोड़कर आगरा को अपनी राजधानी बनाया तथा फतहपुर सीकरी में एक छोटा सा बदसूरत किला बनवाया।

जब बाबर की पीढ़ियों को भारत पर शासन करते हुए सौ साल से अधिक हो गए तब ई.1628 में मुगल शहजादा खुर्रम अपने 18 भाईयों और चाचाओं की हत्या करके भारत के हरे-भरे मैदानों, अविरल बहने वाली नदियों और गगनचुम्बी पहाड़ों का स्वामी हुआ। वह बाबर का चौथा वंशज था, उसे भारत के इतिहास में शाहजहाँ के नाम से जाना गया।

शाहजहां को अपने बाप-दादाओं का जमा-जमाया साम्राज्य मिला था। इसलिए उसके सामने चुनौतियां बहुत कम थीं। सल्तनत की विशाल सेनाएं अफगानिस्तान, चीन, बंगाल तथा दक्षिण भारत के मोर्चों पर लड़ती थीं और सल्तनत की सीमाओं में नित नई वृद्धि करती थीं। इस कारण सल्तनत के खजाने में सोने-चांदी और हीरे-जवाहरात के ढेर लग गए थे।

इस रोचक इतिहास का वीडियो देखें-

इस धन का उपयोग करके शाहजहां ने अपने लिए एक विशाल सिंहासन बनवाया जिसे तख़्त-ए-ताऊस कहते थे जिसका अर्थ होता है मयूर सिंहासन। इस सिंहासन को नाचते हुए मोर की आकृति में बनाया गया था।

तख्तेताउस 3.5 गज़ लम्बा, 2 गज़ चौड़ा और 5 गज़ ऊँचा था। पूरा सिंहासन ठोस सोने से बना था जिसमें 454 सेर भार के बहुमूल्य रत्न जड़े हुए थे। इन रत्नों की मीनाकरी एवं पच्चीकारी में कई सौ कारीगरों ने 7 वर्ष तक निरंतर कार्य किया था। तख्ते ताउस की लागत 2 करोड़ 14 लाख 50 हज़ार रुपये आई थी। यूरोपियन इतिहासकार टैवर्नियर ने लिखा है कि कोहिनूर भी इसी सिंहासन में जड़वाया गया था।

तख्तेताउस पर बैठने के बाद शाहजहां का मन अकबर द्वारा आगरा और फतहपुर सीकरी में बनाए गए पुरानी डिजाइन के भद्दे से किलों में नहीं लगता था। उसने यमुना के किनारे पर बसी तथा हिन्दुओं की हजारों सालों तक राजधानी रही दिल्ली में अपने लिए एक नया किला बनवाने का निर्णय लिया। शाहजहां से पहले भी दिल्ली लगभग सवा तीन सौ साल तक तुर्की और अफगानी मुसलमानों की राजधानी रह चुकी थी।

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शाहजहां ने उस्ताद अहमद लाहौरी नामक एक होशियार इंजीनियर को लाल किला बनाने का काम सौंपा जिसे मुगल स्थापत्य के भवन बनाने में महारत हासिल थी। इसी अहमद लाहौरी ने आगे चलकर आगरा का ताजमहल भी बनाया।

12 मई 1638 को दिल्ली में यमुना के किनारे लाल किले की नींव डाली गई। जब तक लाल किला बनकर तैयार हो, शाहजहाँ का परिवार इसके निकट स्थित सौ साल पुराने सलीमगढ़ नामक किले में रहा जिसका निर्माण ई.1546 में सलीमशाह सूरी ने करवाया था।

शाहजहां घण्टों यमुना के किनारे खड़ा रहकर इस नवीन किले का निर्माण कार्य देखता और तेजी से ऊंची हो रही किले की दीवारों की परछाइयों को यमुना की श्यामवर्णी लहरों में हिलते-डुलते देखता रहता।

शाहजहां ने अपनी पसंद के लाल और सफेद रंग के पत्थरों से इस किले का निर्माण करवाया। ये दोनों रंग शाहजहां को बहुत प्रिय थे। तब शाहजहां यह नहीं जानता था कि लाल किले की ये दीवारें तब तक लाल रंग के इंसानी खून से धोई जाती रहेंगी जब तक कि बाबर का अंतिम वंशज जंजीरों से बांधकर रंगून नहीं भेज दिया जाएगा।

लाल किले के ठीक बीच में शाहजहांनाबाद नामक नगर बसाया गया तथा इसके ठीक मध्य में शाही महल बनाया गया जहाँ खुद शाहजहां और उसकी भावी पीढ़ियां रहने वाली थीं। यमुना नदी से लाल किले तक कई छोटी-छोटी नहरें बनाई गईं जिनके माध्यम से यमुना का पवित्र जल खींचकर लाल किले के महलों तक लाया गया।

ये नहरें इतनी सुंदर थीं कि इन्हें नहर-ए-बहिश्त कहा जाता था। इन नहरों का जल पीकर लाल किले में दूर-दूर तक फैले बागीचों में इतने सुंदर फूल खिले, जो स्वर्ग के फूलों से होड़ करते थे। हालांकि लाल किले की दीवारों ने समय बदल जाने पर इन्हीं नहरों में शाहजहां के वंशजों के खून को भी बहते हुए देखा।

हिन्दू मानते हैं कि शाहजहां ने लालकिले के रूप में किसी नए किले का निर्माण नहीं करवाया था। यहां पहले से ही एक पुराना किला मौजूद था जिसमें सैंकड़ों साल तक हिन्दू शासकों ने निवास किया था। शाहजहां ने उसी किले का नए सिरे से निर्माण करवाया।

आखिर पूरे नौ साल के जी-तोड़ निर्माण के बाद, 6 अप्रेल 1648 को लाल किला बनकर पूरा हुआ और शाहजहाँ ने अपने विशाल हरम सहित किले में प्रवेश किया। बस उसी दिन से लाल किले की दीवारें इंसानी लाल खून से भीगनी शुरु हो गईं। शाहजहाँ का परिवार एक-दूसरे के रक्त का प्यासा हो गया।

लाल किले में प्रवेश करते समय शाहजहां 56 साल का प्रौढ़ हो चुका था लेकिन उसके शरीर में अब भी बहुत जान थी। वह अय्याश किस्म का इंसान था इसलिए उसके हरम में नित नई औरतों का आना-जाना लगा रहता था।

शाहजहां ने अपने कई अमीर-उमरावों और सेनानायकों के परिवारों की औरतों को अपने हरम में बुलाकर उन्हें खराब किया था। इस कारण कुछ औरतों ने तो आत्म-हत्याएं कर लीं। ऐसी स्थिति में शाहजहाँ का परिवार उससे कैसे प्रेम कर सकता था!

यही कारण था कि शाहजहाँ का परिवार उससे प्रेम नहीं करता था। उसका हरम षड़यंत्रों से भरा हुआ था। सल्तनत के बहुत से अमीर बादशाह के खून के प्यासे थे।

 तेजी से बूढ़ा होता जा रहा शाहजहां, अपनी औलाद की आखों में लाल किले का तख्त प्राप्त करने की चाहत में उतर रहे खून की ललाई को साफ देख सकता था। जिसके कारण उसके चेहरे की झुरियां तेजी से गहरी होती जा रही थीं।

घोषित रूप से शाहजहाँ की नौ बेगमें थीं जिनमें मुमताज महल तीसरे नम्बर की थी। वह केवल 10 साल की आयु में शाहजहां से ब्याही गई। मुमताज महल के पेट से 13 संतानों ने जन्म लिया तथा 14वें प्रसव के दौरान उसकी मृत्यु हुई।

शाहजहां की अन्य बेगमों से भी शाहजहाँ को ढेर सारी संतानें हुईं जिनमें से अधिकांश संतानें शाहजहां के जीवन काल में ही मर गईं।

जब शाहजहां को उसके पुत्र औरंगजेब ने गिरफ्तार किया था, तब शाहजहां की आठ संतानें जीवित थीं जिनमें से चार पुत्र- दारा शिकोह, शाह शुजा, औरंग़ज़ेब और मुराद बख्श थे तथा चार शहजादियां- पुरहुनार बेगम, जहांआरा बेगम, रोशनारा बेगम और गौहरा बेगम थीं ।

शाहजहां की इन आठों संतानों की आंखों में लाल किले की दीवारों का रतनार रंग, ललाई बनकर छाया रहता था। शाहजहां के चारों शहजादे और चारों शहजादियां एक दूसरे के खून के प्यासे थे। प्रत्येक शहजादी ने अपने एक भाई को बादशाह बनाने के लिए शतरंज की गोटियां बिछानी आरम्भ कर दीं।

इस कारण शाहजहां ने अपने बड़े पुत्र दारा शिकोह के अतिक्ति और किसी को भी अपनी राजधानी दिल्ली में नहीं रहने दिया। फिर भी एक दिन उसके एक पुत्र औरंगजेब ने शाहजहां को पकड़कर बंदी बना लिया।

आधुनिक इतिहासकारों ने भले ही शाहजहां को ताजमहल के निर्माण के कारण प्रेम का देवता बताया हो किंतु इतिहास की कड़वी सच्चाई यह है कि उसका व्यक्तिगत आचरण इतना खराब था कि जब उसके पुत्र औरंगजेब ने उसे कैद किया तो न तो हरम का कोई सदस्य और न सल्तनत का कोई अमीर या सेनापति ही, बादशाह की सहायता के लिए आगे आया।

लाल किले की दीवारें अपने निर्माता और स्वामी की यह दुर्दशा देखकर हैरान थीं। वे तब और भी निराश हुईं जब बूढ़े शाहजहां को दिल्ली के लाल किले से बाहर निकालकर आगरा के लाल किले में बंद कर दिया गया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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