महाबतखाँ का विद्रोह
खुर्रम के विद्रोह के समय खुर्रम का श्वसुर आसफखाँ चुपचाप विद्रोह की गतिविधियों को देखता रहा। उसने इस विद्रोह में विशेष रुचि नहीं दिखाई ताकि उस पर किसी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सके परन्तु जब विद्रोह समाप्त हो गया तब आसफखाँ, महाबतखाँ की जड़ खोदने में लग गया। इस कार्य में आसफखाँ को अपनी बहिन नूरजहाँ का भी सहयोग प्राप्त हो गया। नूरजहाँ अपने भाई आसफखाँ का बड़ा विश्वास करती थी। वह उसकी कूटनीति को समझ नहीं सकी और सरलता से उसके जाल में फँस गई।
यद्यपि महाबतखाँ ने खुर्रम के विरोध का दमन कर साम्राज्य की बहुत बड़ी सेवा की थी परन्तु इस सेवा में ही उसके विनाश का बीजारोपण हो गया। इस समय उसके पास एक विशाल विजयी सेना थी। साम्राज्य में उसकी प्रतिष्ठा तथा उसका प्रभाव बहुत बढ़ गया और शाहजादा परवेज के साथ उसका गठबंधन हो गया। यह स्थिति साम्राज्य के लिए खतरे से खाली नहीं थी। किसी भी शक्तिशाली सेनापति का किसी शहजादे के साथ गठबंधन हो जाना भावी विद्रोह की संभावना प्रकट करता था। इस बात की सम्भावना थी कि आगे चलकर महाबतखाँ के उम्मीदवार परवेज, नूरजहाँ के उम्मीदवार शहरियार तथा आसफखाँ के उम्मीदवार खुर्रम के बीच शाही तख्त के लिये संघर्ष हो। अतः नूरजहाँ तथा आसफखाँ दोनों ने परवेज को मार्ग से हटाने का निश्चय किया। इस कार्य में सफलता पाने के लिये परवेज को महाबतखाँ से अलग करना आवश्यक था। अब्दुर्रहीम खानखाना ने भी इस योजना में सहयोग देना आरम्भ किया।
1625 ई. में महाबतखाँ को बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया गया तथा उसे निर्देश दिये गये कि वह परवेज को गुजरात के गवर्नर खान-ए-जहाँ लोदी के संरक्षण में दे दे। यद्यपि बंगाल की अस्वास्थ्यकर जलवायु के कारण न तो महाबतखाँ बंगाल जाना चाहता था और न शाहजादा परवेज खान-ए-जहाँ लोदी के संरक्षण में जाना चाहता था परन्तु अन्त में दोनों ने शाही आज्ञा का पालन करने का निश्चय किया। इस प्रकार महाबतखाँ तथा परवेज को एक दूसरे से अलग कर दिया गया।
महाबतखाँ ने बादशाह से प्रार्थना की कि उसके पुत्र खानजादखाँ को, जो काबुल में था, नायब बनाकर बंगाल भेज दिया जाये, बादशाह ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। बंगाल की गवर्नरी महाबतखाँ के हाथ में रही। खुर्रम के विद्रोह के समय महाबतखाँ को लूट का माल मिला था। उसका उसने अभी तक कोई हिसाब नहीं दिया था और न हाथी भेजे थे। अतः आसफखाँ ने दीवाने-रियासत की हैसियत से महाबतखाँ से लूट के माल का हिसाब तथा युद्ध संचालन के लिये दिये गये धन का हिसाब मांगा और हाथी समर्पित करने के लिये कहा। इसी समय अब्दुर्रहीम खानखाना ने बादशाह से शिकायत की कि महाबतखाँ ने मेरे पुत्र तथा परिवार के सदस्यों की हत्या कर दी है और मेरी सम्पत्ति छीन ली है। यद्यपि नूरजहाँ कूटनीति में निपुण थी परन्तु वह अपने भाई आसफखाँ की कूटनीति को नहीं समझ सकी। उसने आसफखाँ की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। आसफखाँ, महाबतखाँ के विरुद्ध बादशाह के कान भरता गया।
महाबतखाँ ने सारे हाथी लौटा दिये और बुरहानपुर से रणथम्भौर चला गया जो उसकी जागीर थी। अब उसे आदेश मिला कि वह दरबार में उपस्थित हो। महाबतखाँ दरबार में हाजिर होने के लिये पहुँचा तो बादशाह ने कहला भेजा कि जब तक वह दीवान को सारा हिसाब नहीं दे देगा तब तक बादशाह उससे नहीं मिलेगा। महाबतखाँ को अपमानित करने के लिये उसके दामाद बर्खुरदारखाँ को पीटा गया और जेल में बंद कर दिया गया। जो सम्पत्ति महाबतखाँ ने बर्खुरदार को दहेज में दी थी वह भी छीन ली गई और उस पर आरोप लगाया गया कि यह विवाह बादशाह की स्वीकृति के बिना हुआ था। इसी समय यह भी खबर फैल गई कि आसफखाँ, महाबतखाँ को कैद करने की योजना बना रहा है।
जिस समय महाबतखाँ, बादशाह के खेमे के पास पहुँचा उस समय बादशाह काबुल के लिये प्रस्थान कर रहा था। नूरजहाँ, आसफखाँ तथा अन्य लोग झेलम नदी के उस पार जा चुके थे परन्तु जहाँगीर अभी इस पार ही था। महाबतखाँ ने इस परिस्थिति से लाभ उठाया। वह बादशाह के खेमे में घुस गया और उसके सामने गिरकर प्रार्थना की कि आसफखाँ उसे अपमानित कर रहा है, बादशाह महाबतखाँ की रक्षा करे। बादशाह को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि शाही कैम्प महाबतखाँ के आदमियों के हाथ में था। जब नूरजहाँ को इसकी सूचना मिली तो उसके क्रोध की सीमा न रही। उसने फिर नदी को पार कर वापस लौटने का प्रयत्न किया परन्तु वह बादशाह को मुक्त नहीं करवा सकी। इस पर उसने स्वयं को भी महाबतखाँ को समर्पित कर दिया। आसफखाँ ने भागकर अटक के दुर्ग में शरण ली। महाबतखाँ ने अपने पुत्र विहरोज को अटक भेजकर आसफखाँ को भी हिरासत में ले लिया।
अब महाबतखाँ जहाँगीर, नूरजहाँ तथा अन्य लोगों के साथ काबुल की ओर बढ़ा। शाही कैम्प काबुल पहुँचा। यहाँ बादशाह को पूरी आजादी थी परन्तु नूरजहाँ इसे बड़ा अपमानजनक समझती थी कि बादशाह अपने एक मनसबदार की देख-रेख में रहे। धीरे-धीरे महाबतखाँ अलोकप्रिय होने लगा। नूरजहाँ ने इस स्थिति से लाभ उठाने का प्रयत्न किया। वह लोगों को महाबतखाँ के खिलाफ भड़काने लगी।
इसी समय 1626 ई. में बादशाह को सूचना मिली कि खुर्रम ने दक्षिण से राजधानी के लिए प्रस्थान कर दिया है। इससे शाही कैम्प काबुल से हिन्दुस्तान की ओर चल पड़ा। मार्ग में शाही सैनिकों की संख्या बढ़ती गई और महाबतखाँ की स्थिति खराब होती गई। जब शाही खेमा रोहतास पहुँचा तो बादशाह ने महाबतखाँ को आदेश दिया कि वह आगे बढ़े, शाही खेमा पीछे आयेगा। महाबतखाँ स्थिति को समझ गया। वह आगे बढ़ा और फिर रुका नहीं। वह मेवाड़ की पहाड़ियों की ओर चला गया और वहीं से खुर्रम के साथ वार्ता आरम्भ की। खुर्रम बहुत प्रसन्न हुआ और उसे सेना में लेने के लिए तैयार हो गया। यद्यपि नूरजहाँ, बादशाह तथा अपने भाई को महाबतखाँ के चंगुल से मुक्त कराने में सफल हो गई परन्तु उसने अपने लिए आपत्ति के बीज बो दिए।
जब खुर्रम गुजरात में था तब उसे सूचना मिली कि अत्यधिक मद्यपान के कारण परवेज की मृत्यु हो गई है। इस प्रकार खुर्रम के मार्ग से उसका एक और प्रतिद्वन्द्वी हट गया। महाबतखाँ, जो परवेज का समर्थक था, बादशाह का कोप भाजन बन चुका था। अतः महाबतखाँ से भी दरबार को कोई सहायता मिलने की संभावना नहीं थी। महाबतखाँ के खुर्रम की सेवा में आ जाने से खुर्रम का पक्ष बड़ा प्रबल हो गया। अब तख्त के लिए खुर्रम तथा शहरियार ही दावेदार रह गये।
जहाँगीर की मृत्यु
1627 ई. की ग्रीष्म ऋतु में जहाँगीर का स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया। वह लाहौर की गर्मी सहन नहीं कर सका। अतः वह काश्मीर चला गया परन्तु वहाँ भी उसके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ। जब वह काश्मीर से लाहौर लौट रहा था। तब उसकी दशा शोचनीय हो गई। 29 अक्टूबर 1627 को 60 वर्ष की आयु में उसका निधन हो गया। नूरजहाँ उसके मृत शरीर को लाहौर ले गई और वहीं पर दिलकुशा नामक बगीचे में दफना दिया।
जहाँगीर के चरित्र एवं कार्यों का मूल्यांकन
व्यक्ति के रूप में
जहाँगीर की चारित्रक दुर्बलताएँ उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर हावी थीं। उसे मदिरापान तथा अफीम के सेवन का दुर्व्यसन था, जिसका उसके स्वास्थ्य तथा उसकी मानसिक क्षमताआंे पर बुरा प्रभाव पड़ा। वह चाटुकारों तथा अपने सम्बन्धियांे के प्रभाव में सरलता से आ जाता था, जिससे वह अपने विवेक से काम नहीं ले पाता था। इस कारण जहाँगीर की पहचान विलासी, अवज्ञाकारी एवं क्रोधी व्यक्ति के रूप में होती है। उसने कभी भी अपने पिता की आज्ञा का पालन नहीं किया तथा शराब के नशे में अपनी बेगम मानबाई को कोड़ों से पीट-पीटकर जान से मार डाला। जहाँगीर ने अपने पुत्र खुसरो के प्रति भी अत्यंत क्रूरता दिखाई। उसे अंधा बनाकर कारागृह में डाल दिया तथा बाद में उसे निरीह अवस्था में खुर्रम को सौंप दिया जिसने उसकी हत्या करवा दी। जहाँगीर ने शेरखाँ की विधवा नूरजहाँ से विवाह करके अपनी कामांधता का परिचय दिया तथा उसके रूप पाश में बंधकर राज्य का सारा भार उस पर छोड़ दिया।
शासक के रूप में
जहाँगीर को अपने पिता से सुव्यवस्थित, सुसंगठित एवं विशाल सल्तनत मिली थी। इसके निर्माण के लिये उसे जंग के मैदान में नहीं उतरना पड़ा था। न ही नये सिरे से प्रशासनिक व्यवस्थाएँ करनी पड़ी थीं। अकबर ने सल्तनत की सुरक्षा के लिये विशाल सैनिक व्यवस्था कर दी थी जिसके बल पर जहाँगीर अपने पिता से प्राप्त सल्तनत पर मृत्युपर्यंत शासन करता रहा। उसमें अकबर जैसी कार्य-कुशलता और नीति-निपुणता नहीं थी इस कारण वह शासन में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं कर पाया। जहाँगीर की विलासिता तथा अकर्मण्यता के कारण शासन का वास्तविक संचालन नूरजहाँ तथा उसके परिवार के हाथ में चला गया जो सल्तनत के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ। इससे गुटबन्दी का सूत्रपात हुआ जो उसके शासन में अन्त तक चलती रही। सल्तनत में षड्यन्त्र तथा कुचक्र का प्रकोप बढ़ जाने से प्रान्तीय शासक मनमानी करने लगे। इस कारण जन-साधारण की सुरक्षा खेतरे में पड़ गई।
विजेता के रूप में
बादशाह बनने से पहले एवं बादशाह बनने के बाद जहाँगीर ने कोई उल्लेखनीय विजय प्राप्त नहीं की। उसने मेवाड़ को झुकने पर विवश अवश्य किया किंतु मलिक अम्बर के विरुद्ध असफल होने से साम्राज्य की सैनिक प्रतिष्ठा को गहरा धक्का लगा। जहाँगीर नये क्षेत्र नहीं जीत सका। कन्दहार उसके हाथ से निकल गया। इस प्रकार एक भी ऐसी विजय नहीं है जो जहाँगीर को विजेता सिद्ध कर सके।
न्यायकर्ता के रूप में
अनेक समकालीन इतिहासकारों ने जहाँगीर को असफल किंतु उच्च कोटि का न्यायप्रिय शासक बताया है। विचारणीय है कि उच्च कोटि का विलासी व्यक्ति जो अपने पिता, पुत्र एवं पत्नी के साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर सका हो, उच्च कोटि का न्यायप्रिय शासक कैसे हो सकता है ? मद्यपान का व्यसनी, राज्यकार्य से विमुख, युद्ध के मैदान से विमुख बादशाह, न्यायप्रिय कैसे हो सकता है ? फिर भी समकालीन दरबार मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा लिखी गई बातों का अनुकरण करके बहुत से आधुनिक इतिहासकार स्वयं को धर्मनिरपेक्ष सिद्ध करने की लालसा में जहाँगीर को उसकी न्याय-प्रियता के लिये याद करते हैं तथा जहाँगीर का बचाव करते हुए तर्क देते हैं कि अपनी न्याय-शीलता के कारण ही वह कभी-कभी अपराधियों को कठोर दण्ड दे देता था। इन इतिहासकारों के अनुसार यद्यपि जहाँगीर का स्वभाव बड़ा ही उदार, दयालु तथा क्षमाशील था परन्तु वह कभी-कभी बड़ा क्रूर, निर्दयी तथा हृदयहीन हो जाता था। इसी से कुछ विद्वानों ने उसे कोमलता तथा क्रूरता का सम्मिश्रण कहा है। वस्तुतः जहाँगीर में कोमलता जैसा कोई गुण विद्यमान हो, ऐसा उसके जीवन चरित्र के किसी भी हिस्से में दिखाई नहीं देता। उसने अपनी पत्नी मानबाई की हत्या की, अबुल फजल की हत्या की, पिता अकबर के प्रति जीवन भर अवज्ञा का प्रदर्शन किया तथा विद्रोह करके राज्य प्राप्त करने का प्रयास किया। उसने अपने पुत्र खुसरो को अंधा बनाकर जेल में डाल दिया, ऐसा व्यक्ति कोमल और न्यायप्रिय कैसे हो सकता है ?
धर्म-सहिष्णु शासक के रूप में
जहाँगीर का झुकाव सूफी धर्म की ओर अधिक था। वह अपने पिता अकबर से कम और अपने पुत्र खुर्रम से अधिक धर्म-सहिष्णु था। यद्यपि वह भी अकबर की भांति दीपावली, शिवरात्रि, रक्षाबन्धन आदि हिन्दू त्यौहार मनाता था तथापि उसके शासन काल में धार्मिक अत्याचारों का फिर से बीजारोपण किया गया। उसके शासन काल में गुरु अर्जुनदेव की बेरहमी से हत्या की गई जिससे सिक्ख समुदाय सदैव के लिए मुगल सल्तनत का शत्रु बन गया। जहाँगीर के आदेश से और उसकी उपस्थिति में काँगड़ा में एक बैल का वध किया गया, जिससे हिन्दुओं की भावना को बहुत ठेस पहुँची। उसके शासन काल के आठवें वर्ष में उसी की आज्ञा से अजमेर में पुष्कर के हिन्दू मन्दिरों को नष्ट किया गया। आगे चलकर शाहजहाँ के शासन काल में इस धार्मिक अत्याचार ने और अधिक उग्र रूप धारण कर लिया।
साहित्य संरक्षक के रूप में
जहाँगीर साहित्यकारों तथा कलाकारों का आश्रयदाता था। उसे स्वयं भी फारसी का अच्छा ज्ञान था और वह फारसी भाषा में कविताएँ लिखता था। हिन्दी, कविता से उसे बड़ा प्रेम था। वह हिन्दी कवियों को पुरस्कार देता था। उसकी आत्म-कथा तुजके जहाँगीरी उसकी अनुपम कृति मानी जाती है। इस ग्रन्थ से उसकी वैज्ञानिक जिज्ञासा तथा उसके प्रकृति-प्रेम का परिचय मिलता है। जहाँगीर की आत्मकथा में जहाँगीर के गुणों तथा अवगुणों दोनों का परिचय मिलता है।
भवन एवं उपवन निर्माता के रूप में
यद्यपि जहाँगीर के शासन काल में बहुत कम इमारतें बनी थीं परन्तु इस काल में उपवन लगवाने की नई शैली विकसित हुई। काश्मीर में जहाँगीर द्वारा बनवाया हुआ शालीमार बाग और आसफखाँ का बनवाया हुआ निशात बाग आज भी प्रसिद्ध हैं। आगरा में यमुना नदी के तट पर श्वेत संगमरमर का नूरजहाँ द्वारा बनवाया हुआ एतिमादुद्दौला का मकबरा दर्शनीय है। आगरा के बाहर सिकन्दरा में निर्मित अकबर का मकबरा, अकबर ने बनवाना आरम्भ करवाया था, उसे जहाँगीर ने पूरा करवाया। लाहौर के निकट जहाँगीर का अपना चबूतरा जिसे नूरजहाँ ने बनवाया था और दिल्ली में बना हुआ खानखाना का मकबरा जहाँगीर के काल की अन्य इमारतें हैं।
चित्रकला के संरक्षक के रूप में
जहाँगीर के शासन काल में चित्रकला की बड़ी उन्नति हुई। अबुल हसन तथा मन्सूरी उसके दरबार के प्रसिद्ध चित्रकार थे। जहाँगीर को प्रकृति से बहुत प्रेम था इसलिये उसके काल में चित्रकारों ने पक्षियों, पशुओं तथा फूल-पत्तियों का अच्छा चित्रण किया। उसकी मुद्राओं पर भेड़ों, साँड़ों आदि के सुन्दर चित्र मिलते हैं।
इतिहासकारों की दृष्टि में जहाँगीर
जफर ने जहाँगीर के कार्यों का मूल्यांकन करते हुए लिखा है- ‘जहाँगीर एक महान् शासक था जिसमें बहुत बड़ी कार्य-क्षमता थी। यदि नूरजहाँ के गुट से वह प्रभावित न हुआ होता तो अपने पिता के ही समान कुशल शासक सिद्ध हुआ होता। उसके शासन का गौरव दो महान् बादशाहों- अकबर महान् तथा शाहजहाँ शानदार के बीच में आने से मंद पड़ गया है।’ डॉ. बेनी प्रसाद ने भी जहाँगीर के बारे में इसी तरह की भावना व्यक्त करते हुए लिखा है- ‘उसकी ख्याति उसके पिता के महान् गौरव और उसके पुत्र की चमत्कार पूर्ण शान के सामने मन्द पड़ गई है।’
निष्कर्ष
इसमें कोई संदेह नहीं कि जहाँगीर की चारित्रिक दुर्बलताएँ उस पर हावी थीं जिनके कारण न वह अपने परिवार वालों के साथ न्याय कर सका, न नये राज्य जीत सका, न शासन में नई व्यवस्थायें आरम्भ कर सका किंतु दूसरी ओर यह भी सत्य है कि उसके शासन काल में अकबर द्वारा स्थापित शासन व्यवस्था बहुत अंशों में उसी प्रकार चलती रही। कंदहार के अतिरिक्त और कोई क्षेत्र जहाँगीर के हाथ से नहीं निकला। मलिक अम्बर के अतिरिक्त और किसी से उसकी सेनाओं को हार का मुख नहीं देखना पड़ा। जहाँगीर धर्म-सहिष्णु नहीं था किंतु कुछ घटनाओं को छोड़कर उसने हिन्दुओं पर वैसे अत्याचार नहीं किये जैसे उसके पूर्ववर्ती दिल्ली सल्तनत के मुस्लिम शासकों के काल में अथवा पश्चवर्ती औरंगजेब के काल में हुए। इसलिये सुप्रसिद्ध इतिहासकार स्मिथ ने जहाँगीर को विभिन्नताओं का सम्मिश्रण बतलाते हुए उचित ही लिखा है- ‘जहाँगीर में दयालुता तथा क्रूरता, न्याय-प्रियता तथा झक्कीपन, सभ्यता तथा निर्बलता, बुद्धिमत्ता तथा बचपने का अद्भुत मिश्रण था।’
उत्तराधिकार के लिए संघर्ष
जिस समय जहाँगीर का निधन हुआ उस समय खुर्रम दक्षिण में और शहरियार लाहौर में था। जहाँगीर की मृत्यु होते ही आसफखाँ ने अपनी बहिन नूरजहाँ के निवास पर कड़ा पहरा लगा दिया और खुर्रम के पुत्रों को शाही नियन्त्रण से मुक्त कर दिया। आसफखाँ ने खुसरो के पुत्र दावरबख्श को मीरबख्शी इदारत खाँ के नियन्त्रण में रख दिया, जो आसफखाँ का विश्वस्त आदमी था। इसके बाद आसफखाँ ने बनारसीदास नामक व्यक्ति के हाथों खुर्रम के पास सन्देश भिजवाया कि वह अविलम्ब लाहौर चला आये। उसने महाबतखाँ के पास भी यह सूचना भेज दी कि वह अपनी पूरी शक्ति के साथ खुर्रम की सहायता करे।
इतने प्रबंधों के बाद भी आसफखाँ संतुष्ट नहीं हुआ। वह जानता था कि तख्त को खाली जानकर शहरियार तथा नूरजहाँ षड़यंत्र रच सकते थे, इसलिये आसफखाँ ने खुसरो के पुत्र दावरबख्श को तख्त पर बिठा दिया जिससे खुर्रम के पहुँचने तक तख्त खाली न रहे। दावरबख्श अपने अन्तिम परिणाम को जानता था इसलिये तख्त पर बैठने के लिए तैयार नहीं हुआ किंतु उसे जबरदस्ती तख्त पर बैठाया गया।
उधर शहरियार ने लाहौर में स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया और शाहेशाहान की उपाधि धारण की। उसने अमीरों तथा सैनिकों का समर्थन प्राप्त करने के लिए खूब धन बाँटा और एक सेना आसफखाँ तथा दावरबख्श के विरुद्ध भेज दी। यह सेना परास्त हो गई और उसके अधिकांश सैनिक आसफखाँ की तरफ जा मिले। आसफखाँ ने लाहौर पर आक्रमण करने के लिये सेना भेजी। इस पर शहरियार ने स्वयं को लाहौर दुर्ग में बंद कर लिया परन्तु अंत में उसे समर्पण करना पड़ा। उसे दावरबख्श के समक्ष उपस्थित किया गया और दावरबख्श से यह आदेश दिलवाया गया कि शहरियार को अन्धा करके कारागार में डाल दिया जाय। दानियाल के पुत्रों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार का आदेश दिया गया।
बनारसीदास चौबीस दिन की यात्रा करके दक्षिण पहुँचा और महाबतखाँ को वस्तुस्थिति से अवगत कराया। उस समय खुर्रम जुन्नर में था। महाबतखाँ ने उसके पास सूचना भेज दी। सूचना मिलते ही खुर्रम ने उत्तर के लिए प्रस्थान किया। वह मार्ग में ही था कि उसे शहरियार की पराजय तथा उसके बंदी बनाये जाने की सूचना मिली। शाहजहाँ ने आसफखाँ को आदेश भिजवाया कि वह शहरियार तथा दानियाल के पुत्रों की हत्या कर दे। आसफखाँ ने इस आज्ञा का पालन किया और उन सबकी हत्या करवा दी। इसके बाद खुर्रम आगरा पहुँचा और 6 फरवरी 1628 को शाहजहाँ के नाम से आगरा में तख्त पर आरूढ़ हो गया। उसने नूरजहाँ को दो लाख रुपये की वार्षिक पेन्शन दे दी। इसके बाद नूरजहाँ राजनीति से पूरी तरह अलग हो गई। उसने अपने जीवन के शेष अट्ठारह वर्ष अपनी विधवा पुत्री के साथ एकान्तवास में व्यतीत किये। 1645 ई. में नूरजहाँ की मृत्यु हुई।
नूरजहाँ के कार्यों का मूल्यांकन
नूरजहाँ के गुणों के कारण जहाँगीर ने 1622 ई. में उसे बादशाह बेगम की उपाधि से अलंकृत किया था और अपनी मुद्राओं पर उसके नाम को अंकित कराकर उसे अभूतपूर्व प्रतिष्ठा प्रदान की थी। नूरजहाँ की सबसे बड़ी सेवा उसकी सांस्कृतिक देन है। वह बड़ी ही प्रतिभावान्, सुशिक्षित तथा व्यावहारिक बुद्धि की महिला थी। कला में उसकी विशेष अनुरक्ति थी। उसे सौन्दर्य तथा अलंकरण से बड़ा प्रेम था। वह जो काम करती थी उसमें सौन्दर्य उत्पन्न करने का प्रयत्न करती थी। इस कारण उसमें प्रबल सांस्कृतिक प्रभाव डालने की क्षमता उत्पन्न हो गई थी। वह पारसीक सभ्यता तथा संस्कृति की पोषक थी। अतः समस्त क्षेत्रों में पारसीक सभ्यता का प्रभाव डालने का प्रयत्न किया। उसने नये फैशन चलाये, नये वस्त्रों, नये आभूषणों, नई वेश-भूषाओं, नये प्रलेपों एवं आलंकारिक पदार्थों का आविष्कार तथा प्रचलन किया। उसने दरबार के आचार-व्यवहार में सौन्दर्य तथा सौष्ठव उत्पन्न किया। तत्कालीन वास्तुकला पर उसके व्यक्तित्व की छाप स्पष्ट है। इस प्रकार उसने अपने समय के सांस्कृतिक जीवन को अत्यधिक प्रभावित किया।
नूरजहाँ का मस्तिष्क उन्नत तथा हृदय विशाल था। वह उदार तथा दयालु महिला थी। उसका बहिरंग यथा अन्तरंग दोनों ही समान रूप से कोमल था। उसके प्रत्येक कार्य में उदारता तथा दया का समावेश रहता था। उसमें उच्च कोटि की दानशीलता थी। वह दीन-दुखियों, असहायों, अनाथों, विधवाओं तथा पीड़ितों की सहायक थी। परोपकार के कार्यों से उसने जहाँगीर के शासन में उदारता तथा दानशीलता का ऐसा वातावरण उत्पन्न कर दिया जिसका सामाजिक दृष्टि से बहुत महत्त्व है। नूरजहाँ में उच्च-कोटि का पति-प्रेम था। अपने प्रथम पति शेर अफगन के प्रति उसकी अनुपम अनुरक्ति थी। जब जहाँगीर ने उसे अपनी प्रेयसी तथा पत्नी बनाया तब उसने प्रेम और सेवा से जहाँगीर को ऐसा मुग्ध कर लिया कि बादशाह उस पर अपना सर्वस्व निछावर करने के लिए उद्यत हो गया।
नूरजहाँ के राजनीतिक प्रभाव के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। नूरजहाँ का जहाँगीर पर बहुत प्रभाव था। कुछ विद्वानों की धारणा है कि राजनीतिक क्षेत्र में भी उसका उतना ही बड़ा प्रभाव था। इन विद्वानों के विचार में तत्कालीन राजनीति उसी के द्वारा संचालित होती थी। इसलिये इतिहासकार दरबारी षड्यन्त्रों तथा कुचक्रों के लिए प्रधानतः उसी को उत्तरदायी मानते हैं और तत्कालीन राजनीति पर उसके दूषित प्रभाव की कटु आलोचना करते हैं। नूरजहाँ का व्यक्तित्व इतना ऊँचा था कि अपने काल की राजनीति को प्रभावित करना उसके लिए असम्भव नहीं था, इसयिले उसने ऐसा किया भी। वह पहले खुर्रम को जहाँगीर का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी किंतु बाद में अपने जामाता शहरियार को बादशाह बनते हुए देखने के लिये कार्य करने लगी। उसने परवेज को भी बादशाह बनने से रोकने के लिये कार्य किया। जब महाबतखाँ ने बादशाह को नजरबंद कर लिया तब उसने स्वयं को भी नजरबंद करवाकर चतुर राजनीतिज्ञ होने का परिचय दिया। उसने बड़ी चतुराई से जहाँगीर को महाबतखाँ के चंगुल से मुक्त करवाकर शाही परिवार की प्रतिष्ठा तथा मर्यादा की पुनर्स्थापना की। शाहजादा खुर्रम तथा महाबतखाँ के विद्रोह और उत्तराधिकार के लिए जो षड्यन्त्र तथा कुचक्रों को काटने के लिये भी उसने हरसंभव कार्य किया।
नूरजहाँ का अपने भाइयों में और विशेषकर अपने बड़े भाई आसफखाँ में बहुत विश्वास था। आसफखाँ बड़ा षड्यंत्रकारी व्यक्ति था और अपने तथा अपने दामाद खुर्रम के स्वार्थ सिद्ध करने के लिए वह नूरजहाँ को अस्त्र बना लेता था। नूरजहाँ उसके षड्यंत्रों को को समझ नहीं पाती थी और उसका अस्त्र बन जाती थी। वास्तव में नूरजहाँ तत्कालीन कुचक्री राजनीति के योग्य नहीं थी। दुर्भाग्य से शहरियार जैसा अयोग्य शहजादा उसका दामाद बन गया जिसे वह बादशाह बनते हुए देखना चाहती थी। जब खुर्रम बादशाह बन गया तब नूरजहाँ राजनीति से बिल्कुल अलग हो गई और उसने अपने जीवन के शेष दिन एकान्तवास में व्यतीत किये।