Wednesday, April 16, 2025
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11. दिखकाट की बुढ़िया

– ‘यह कौनसा गाँव है?’ पहले नौजवान ने अपने माथे पर छलक आये पसीने को अपने सिर की पगड़ी के कपड़े से पौंछते हुए प्रश्न किया। काफी देर तक चलते रहने के बाद वे किसी गाँव तक पहुँचे थे।

– ‘दिखकाट।’ नौजवान के हमउम्र साथी ने जवाब दिया।

– ‘क्या यह गाँव भी हमारे अब्बा हुजूर की जागीर में था?’ पहले नौजवान ने फिर प्रश्न किया।

– ‘आपके पिता को यह गाँव आपके दादा हुजूर से जागीर में मिला था।’

– ‘तब तो इस गाँव पर हमारा सबसे अधिक अधिकार बनता है।’

– ‘बेशक! यह आपकी पुश्तैनी जागीर का गाँव है लेकिन अब इस बात को करने से क्या लाभ है? किसी ने सुन लिया तो नाहक परेशानी में पड़ेंगे।’

– ‘क्या इस गाँव में ऐसा कोई परिवार नहीं है जो हमारे पिता के प्रति वफादारी रखता हो।’

 -‘मैंने सुना है कि यहाँ के गाँव का मुखिया आपके पिता का विश्वस्त जागीरदार था।’

– ‘क्या हमें वहाँ से कोई मदद मिल सकती है?’

– ‘कैसी मदद?’

– ‘कोई भी मदद, जिसकी भी जरूरत पड़ जाये।’ पहले नौजवान ने फिर अपनी पगड़ी से माथा पौंछा। उसका चेहरा धूप की गर्मी से लाल हो आया था।

– ‘यह तो मुखिया से मिलकर ही जाना जा सकता है। आप कहें तो मैं वहाँ होकर आऊँ?’ दूसरे नौजवान ने पूछा।

– ‘नहीं! तुम अकेले मत जाओ। हम भी साथ चलेंगे।’

– ‘तो क्या तुम अपना वास्तविक परिचय उन्हें दे दोगे।’

– ‘वह तो वहाँ जाकर ही देखा जायेगा।’

– ‘तो फिर ठीक है, चलो।’

किसी तरह पूछते हुए दोनों नौजवान मुखिया के घर तक पहुंचे। घर के बाहर एक अत्यधिक उम्र की बुढ़िया ऊँटों को चारा डाल रही थी। उसके चेहरे की झुर्रियों से एक जाल सा बन गया था जिसके कारण उसकी सही शक्ल का अनुमान लगाना संभव नहीं रह गया था। उसके हाथ-पांव कांपते थे फिर भी वह काम में लगी हुई थी। दोनों नौजवान बुढ़िया को सलाम करके चुपचाप खड़े हो गये।

– ‘क्या है? क्या चाहते हो? बुढ़िया के पोपले मुँह में एक भी दांत नहीं था फिर भी उसकी वाणी बिल्कुल स्पष्ट और मुखर थी। नौजवानों ने अनुमान लगाया कि बुढ़िया की आंखों में भी पूरी रौशनी थी।

– ‘परदेशी हैं, बड़ी दूर से चलकर आ रहे हैं और पास में खाने को कुछ भी नहीं है।’ पहले नौजवान ने जवाब दिया।

– ‘यहाँ क्या सराय समझ कर आये हो?’ बुढ़िया ने तुननकर जवाब दिया।

– ‘हमने सुना कि मुखिया का परिवार काफी दयालु है। राहगीरों को रोटी देता है।’

– ‘तो तुमने गलत सुना है। मुखिया का परिवार तो खुद भूखों मर रहा है। तुम्हें रोटी कहाँ से खिलाये?’

– ‘क्या हम मुखिया से मिल सकते हैं?’

– ‘क्यों नहीं मिल सकते। गले में फंदा लगाकर इस ऊँट की गर्दन से झूल जाओ, कुछ ही क्षणों में वहीं पहुँच जाओगे, जहाँ मुखिया गया है।’

– ‘ओह! तो ये बात है?’

– ‘इसमें ओह की क्या बात है, तुमने रोटी खानी है?’

– ‘हाँ।’

– ‘तो लकड़ियाँ चीरकर देनी होंगी।’ बुढ़िया ने लकड़ियों के ढेर की ओर संकेत करते हुए कहा।

लकड़ियों का विशाल ढेर देखकर दोनों नौजवानों की रूह काँप गयी। फिर भी उस समय उन्हें रोटियों की इतनी सख्त आवश्यकता थी कि उन्होंने इस प्रस्ताव को भी खुदा की नियामत समझा।

– ‘लकड़ियाँ तो चीर देंगे किंतु पहले रोटी खाकर।’

– ‘रोटियाँ खाकर भाग गये तो?’

– ‘और लकड़ियाँ चीर कर भी रोटियाँ न मिलीं तो?’

– ‘पूरी लकड़ियाँ चीरनी होंगी। बोलो तैयार हो?’

– ‘भरपेट रोटियाँ खिलानी होंगी। बोलो तैयार हो।’

बुढ़िया को दोनों नौजवानों पर तरस आ गया। उसने उन दोनों को भरपेट रोटियाँ खिलाईं। जब रोटियाँ खाकर नौजवानों ने कुल्हाड़ी उठाई तो बुढ़िया को उन पर फिर दया आ गयी।

-‘कुछ देर आराम कर लो, तब तक सूरज भी ढल जायेगा। उसके बाद लकड़ियाँ चीर देना लेकिन देखना, चकमा देकर भाग न जाना।’

दोनों नौजवान वहीं कंटीली झाड़ियों की ओट में कुछ भूमि साफ करके लेट गये। जब सूरज ढल गया तो वे लकड़ियाँ चीरने के काम पर जुटे।

– ‘यह बुढ़िया कितने बरस की होगी?’ पहले नौजवान ने कुल्हाड़ी चलाते हुए प्रश्न किया।

– ‘कोई अस्सी साल की तो होगी।’ दूसरे नौजवान ने जवाब दिया।

– ‘अरे नहीं, नब्बे से क्या कम होगी।’

– ‘कुछ भी कहो, बुढ़िया है बहुत खुर्रांट।’

– ‘वो कैसे?’

– ‘आधा सेर आटे के बदले इतनी सारी लकड़ियाँ जो चिरवा रही है।’

– ‘मुझे तो लगता है कि बुढ़िया बहुत दयालु है।’

– ‘वो कैसे?’

– ‘यदि दयालु नहीं होती तो हमें इतनी देर गये तक काम पर नहीं लगाये रहती। अवश्य ही वह हमें शाम का खाना भी खिलाकर भेजेगी।’

दूसरे नौजवान की बात सुनकर पहला नौजवान खिलखिला कर हँस पड़ा।

– ‘अरे नासपीटो! दो मन लकड़ी चीरने के बदले मैं तुम्हें जनम भर रोटियाँ खिलाऊंगी।’ बुढ़िया जाने कब इन दोनों के पीछे आकर खड़ी हो गयी थी और उनकी बातें सुन रही थी। दोनों नौजवान खिसियाकर चुप हो गये। बुढ़िया को लगा कि नौजवान नाराज हो गये।

– ‘अच्छा चलो। तुम ढंग से लकड़ियाँ चीर दो तो मैं तुम्हें शाम की रोटियाँ भी खिलाऊंगी।’ बुढ़िया ने उन दोनों को मनाते हुए कहा।

लकड़ियाँ चीरते-चीरते सचमुच काफी देर हो गयी। बुढ़िया ने अपने वायदे के अनुसार दोनों को रात की भी रोटी खिलायी और रात हो गयी जानकर वहीं रुक जाने को कहा।

दोनों नौजवान तो यही चाहते थे। वे रात को बुढ़िया के यहीं ठहर गये। जब वे रात का खाना खाने बैठे तो बुढ़िया ने पूछा- ‘अच्छा एक बात बताओ। तुम दोनों कहाँ से आ रहे हो और कहाँ जा रहे हो?’

बुढ़िया का प्रश्न सुनकर दोनों नौजवान सकते में आ गये। यही वह प्रश्न था जिससे वे बचना चाहते थे और जिसका जवाब वे किसी को नहीं देना चाहते थे। फिर भी दयालु मेजबान को कुछ न कुछ जवाब तो देना ही था।

– देखो! फालतू के सवाल मत करो। क्या हमने तुमसे पूछा कि तुम कितने साल की हो और कब से जी रही हो?’ दूसरे नौजवान ने खींसे निपोरते हुए कहा।

– ‘अरे तो इसमें नाराज होने की क्या बात है? तुमने नहीं पूछा तो क्या हुआ? मैं खुद ही बता देती हूँ कि मैं एक सौ ग्यारह साल की हूँ और इतने ही साल से जी रही हूँ।’

– ‘क्या वाकई में तू एक सौ ग्यारह साल की है?’ पहले नौजवान ने पूछा।

– ‘हाँ मैं एक सौ ग्यारह साल की हूँ, मुझे अच्छी तरह याद है कि जब समरकंद का अमीर तैमूर अपनी सेना लेकर हिन्दुस्थान गया था तो मैं बहुत छोटी बच्ची थी। मेरा बाप अमीर के साथ हिन्दुस्थान गया था और मेरे लिये बहुत सी चीजें लेकर आया था। अब तुम बताओ कि तुम कौन हो और कहाँ जा रहे हो?’

– ‘हम पहाड़ियों के पीछे के गाँवों से आयें हैं और रोजगार की तलाश में जा रहे हैं।’ पहले नौजवान ने जवाब दिया। अमीर तैमूर का जिक्र बातों में आया जानकर उसे अच्छा लगा था।

– ‘यहाँ कहाँ रोजगार मिलेगा तुम्हें?’

– ‘तो फिर कहाँ जायें, कहाँ मिलेगा रोजगार?’

– किसी बादशाह की सेना में जाकर भर्ती हो जाओ।’

– ‘क्या समरकंद के शाह शैबानीखाँ के यहाँ?’ पहले नौजवान ने व्यंग्य से प्रश्न किया।

– ‘क्यों शैबानीखाँ के यहाँ क्यों? अमीर तैमूर के वंश में बहुत से बादशाह हैं, उन्हीं में से किसी के यहाँ भर्ती हो जाओ और कभी मौका लगे तो हिन्दुस्थान अवश्य जाओ।’

– ‘क्यों? हिन्दुस्थान क्यों?’ बुढ़िया की बात से नौजवानों को प्रसन्नता हुई थी किंतु वे अपनी प्रसन्नता को छुपाये रखना चाहते थे।

– ‘अरे मूर्खो! हिन्दुस्थान में इतना सोना, चाँदी, हीरे जवाहरात हैं कि तुम्हारी सारी भुखमरी जाती रहेगी। हिन्दुस्थान पर हमला करने का माद्दा केवल तैमूरी बादशाहों में है। और किसी का बूता नहीं जो हिन्दुस्थान की ओर आँख कर सके।’

– ‘और यदि मैं कहूँ कि मैं खुद तैमूरी बादशाह हूँ तो, तो क्या कहेगी तू?’ पहले नौजवान ने उत्तेजित होकर कहा।

– ‘तब तो तू यह भी कहेगा कि तू फरगना और समरकंद का अमीर है।’ बुढ़िया ने जोर से हँसते हुए कहा।

– ‘हाँ-हाँ! मैं फरगना और समरकंद का अमीर जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर हूँ।’ पहले नौजवान ने और भी उत्तेजित होकर कहा।

– ‘क्या कहता है?’ बुढ़िया सहम गयी।

– ‘हाँ मैं सच कहता हूँ।’

– ‘मुझे विश्वास नहीं होता।’

– ‘क्यों? क्यों नहीं होता विश्वास? क्या इस गाँव का मुखिया मेरे मरहूम पिता अमीर उमरशेख का खास आदमी नही था।

– ‘था।’

– ‘तो फिर तुझे मुझ पर विश्वास क्यों नहीं होता?’

– ‘मुझे तुझ पर तो विश्वास होता है किंतु अपनी तकदीर पर विश्वास नहीं होता। इतना बड़ा तैमूरी बादशाह, मेरी झौंपड़ी में।’

– ‘मैं बड़ा था, अब नहीं हूँ किंतु फिर से बनना चाहता हूँ।’

– ‘मैं बादशाह की क्या खिदमत कर सकती हूँ?’ बुढ़िया ने सहम कर पूछा।

– ‘बड़े दादा हुजूर अमीर तैमूर के हिन्दुस्थान फतह के जो भी किस्से तू जानती है, सब मुझे सुना।’

बुढ़िया ने पूरी रात जागकर बाबर को देवभूमि भारत की सम्पन्नता और तैमूर लंग की क्रूरता के किस्से सुनाये। इन किस्सों को सुनकर बाबर के आश्चर्य का पार न रहा। उसने मन ही मन संकल्प किया कि एक दिन वह भी देवभूमि पर आक्रमण करेगा और अपने प्रपितामह की ही तरह लाखों काफिरों और गायों का वध करेगा। उसे पूरा भरोसा था कि उसके बुरे दिन हमेशा नहीं रहेंगे।

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