सरदार पटेल और मोहनदास कर्मचंद गांधी दोनों गुजराती थे। इस समय तक गांधीजी को जितनी भी सफलता मिली थी, उसमें सरदार वल्लभभाई पटेल का हाथ अधिक था। गांधीजी अपने दम पर अब तक कोई सफलता प्राप्त नहीं कर सके थे। फिर भी गांधजी को पटेल की बजाय नेहरू अधिक पसंद थे। गांधीजी की इच्छा देखकर पटेल ने लाहौर कांग्रेस की अध्यक्षता करने से मना कर दिया!
कांग्रेस अब तक औपनिवेशिक राज्य को ही अपनी मुख्य मांग बताती आई थी औपनिवेशिक राज्य का अर्थ था अंग्रेजों की छत्रछाया में भारतीयों की ऐसी सरकार जिसमें कानून बनाने को सर्वोच्च अधिकार अंग्रेजों के पास रहें तथा भारतीय तत्व स्थानीय विषयों के सम्बन्ध में कानून बना सकें।
युवा नेताओं को औपनिवेशिक राज्य की मांग पसंद नहीं आती थी। वे पूर्ण स्वराज्य को अपना लक्ष्य घोषित करना चाहते थे। युवा कांग्रेसियों को लगता था कि पूर्ण स्वराज्य हेतु संघर्ष करने के लिए सरदार पटेल ही सर्वाधिक उपयुक्त नेता हैं। इसलिए जब दिसम्बर 1929 में लाहौर में कांग्रेस का अधिवेशन होना तय हुआ तो कांग्रेसियों ने लाहौर कांग्रेस की अध्यक्षता के लिए सरदार पटेल को अधिक उपयुक्त समझा।
उस काल में ग्यारह ब्रिटिश प्रांत थे। इन सभी प्रांतों में प्रांतीय कांग्रेस का गठन हुआ था। समस्त प्रांतों से लाहौर कांग्रेस की अध्यक्षता के लिए सुझाव मांगे गए। दस प्रांतों से इस अधिवेशन के अध्यक्ष पद के लिये तीन नाम आये। पांच प्रांतों ने गांधीजी का, तीन प्रांतों ने सरदार पटेल का तथा दो प्रांतों ने जवाहरलाल नेहरू का नाम भेजा। गांधीजी चाहते थे कि जवाहरलाल को इस अधिवेशन की अध्यक्षता दी जाये, इसलिये उन्होंने स्वयं अध्यक्ष बनने से मना कर दिया। पटेल ने भी लाहौर कांग्रेस की अध्यक्षता करने से मना कर दिया।
जब लोगों ने पटेल से इसका कारण पूछा तो उन्होंने जवाब दिया कि मेरे सेनापति गांधीजी हैं, जहाँ वे रहेंगे, वहीं मैं रहूंगा। इस प्रकार जवाहरलाल को इस अधिवेशन की अध्यक्षता मिल गई।जवाहरलाल ने इस अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव रखा। यह प्रस्ताव ध्वनि मत से पारित हो गया। 31 दिसम्बर 1929 को जवाहरलाल ने रावी नदी के तट पर तिरंगा फहराकर पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करने के संकल्प की घोषणा कर दी। यह एक नये संघर्ष का आरम्भ था। आगे का पथ कांटों से भरा था जिसमें मुसीबतों के अतिरिक्त और कुछ न था। देश के सामने आग का दरिया था जिसे डूबकर पार करना था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता