महाराजा रूपसिंह की मृत्यु का समाचार सुनकर शहजादी जहाँआरा ने काले कपड़े पहन लिए! जहाँआरा का शोक शब्दों में व्यक्त करने योग्य नहीं था। किसी हिन्दू राजा की मृत्यु पर मुगलिया खानदान की कोई शहजादी शायद ही कभी इतनी शोकातुर हुई होगी!
उधर औरंगज़ेब हाथी से नीचे गिर रहा था और इधर महाराजा रूपसिंह का ध्यान भटककर उन सिपाहियों की तलवारों की ओर चला गया जो रूपसिंह के प्राण लेने के लिए हवा में जोरों से लपलपा रही थीं। महाराजा ने चीते की सी फुर्ती से उछलकर एक मुगल सिपाही की गर्दन उड़ा दी। फिर दूसरी, फिर तीसरी और इस तरह से महाराजा, औरंगज़ेब के अंगरक्षकों के सिर काटता रहा किंतु उनकी संख्या खत्म होने में ही नहीं आती थी।
दारा यह सब हाथी पर बैठा हुआ देखता रहा, उसकी हिम्मत नहीं हुई कि वह अपनी हथिनी औरंगज़ेब के हाथी पर हूल दे। महाराजा, औरंगज़ेब के अंगरक्षकों के सिर काटता जा रहा था और उसका सारा ध्यान अपने सामने लपक रही तलवारों पर था किंतु अचानक औरंगज़ेब के एक अंगरक्षक ने महाराजा की गर्दन पर पीछे से वार किया।
खून का एक फव्वारा छूटा और महाराजा रूपसिंह का सिर भुट्टे की तरह कटकर दूर जा गिरा। तब तक औरंगज़ेब के बहुत से अंगरक्षकों ने हाथी से गिरते हुए अपने मालिक को हाथों में ही संभाल लिया, उसे धरती का स्पर्श नहीं करने दिया।
महाराजा का सिर कटकर गिर गया था किंतु उसका धड़ अब भी तलवार चला रहा था। महाराजा की तलवार ने दो-चार मुगल सैनिकों के सिर और काटे तथा फिर स्वयं भी एक ओर का लुढ़क गया।
ठीक इसी समय दारा की हथिनी का महावत, अपनी हथिनी को दूर भगा ले गया। दुश्मन की निगाहों से छिपने के लिए दारा थोड़ी ही दूर जाकर हथिनी से उतर गया। दारा की हथिनी का हौदा खाली देखकर, उसके सिपाहियों ने सोचा कि दारा मर गया और वे सिर पर पैर रखकर भाग लिए। युद्ध का निर्णय हो चुका था।
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महाराजा का कटा हुआ सिर और धड़ एक-दूसरे से दूर पड़े थे जिन्हें उठाने वाला कोई नहीं था। अपने भक्त के देहोत्सर्ग का यह दृश्य देखकर आकाश में स्थित रूपसिंह के इष्टदेव भगवान कल्याणराय की आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। न केवल शामूगढ़ का मैदान अपितु दूर-दूर तक पसरे हुए यमुना के तट भी बारिश की तेज बौछारों में खो से गए।
भक्त तो भगवान के लिए नित्य ही रोते थे किंतु भक्तों के लिए भगवान को रोने का अवसर कम ही मिलता था। आज भगवान की यह इच्छा एक बार फिर से पूरी हो रही थी।
महाराजा के राठौड़ों को मुगल सेनाओं की अंधी रेलमपेल में पता ही नहीं चल सका कि महाराजा के साथ क्या हुआ और वह कहाँ गया! जब शामूगढ़ के समाचार आगरा के लाल किले में पहुँचे तो शाहजहाँ एक बार फिर से बेहोश हो गया। शहजादी जहाँआरा ने बादशाह की ख्वाबगाह के फानूस बुझा दिए और काले कपड़े पहन लिए। जहाँआरा का शोक मुगलिया इतिहास के भविष्य को व्यक्त करने में पूर्णतः सक्षम था।
जहाँआरा का शोक भारत के मुगलों के इतिहास की एक बड़ी घटना समझा जाना चाहिए। उसके काले कपड़ों में लाल किले के दुर्दिनों की झलक स्पष्ट दिखाई देती थी।
शामूगढ़ के मैदान से भागकर दारा शिकोह आगरा आया और किसी तरह शहर का दरवाजा खुलवाकर अपने महल में पहुंचा। इस समय उसके पास इतना समय नहीं था कि वह बादशाह के हुजूर में पेश हो सके।
दारा ने अपनी बेगमों को तत्काल दिल्ली कूच करने का आदेश दिया। जिस समय दारा आगरा के किले से किसी चोर दरवाजे से बाहर निकला, उस समय केवल उसकी बेगमें ओर मुट्ठी भर अंगरक्षक ही उसके साथ थे।
मिर्जा राजा जयसिंह और सुलेमान शिकोह अब भी आगरा की तरफ दौड़े चले आ रहे थे किंतु उनके आगरा पहुंचने से पहले ही शामूगढ़ में हुई दारा की पराजय के समाचार उन तक पहुंच गए। महाराजा रूपसिंह और दारा शिकोह शामूगढ़ का मैदान हार चुके हैं, यह सुनते ही मिर्जा राजा जयसिंह ने औरंगजेब के शिविर की राह ली।
उसे अब औरंगजेब में ही अपना भविष्य दिखाई दे रहा था। अपने पिता की पराजय के समाचार से दुःखी सुलेमान अपने पिता दारा को ढूंढता हुआ किसी तरह आगरा पहुंचा किंतु तब तब तक दारा शिकोह अपने हरम के साथ लाल किला छोड़ चुका था। सुलेमान ने भी उसी समय अपने पिता की दिशा में गमन किया।
कुछ ही दिनों में महाराजा रूपसिंह के बलिदान के समाचार किशनगढ़ भी जा पहुंचे। महाराजा रूपसिंह की रानियों ने महाराजा की वीरगति के समाचार उत्साह के साथ ग्रहण किए और वे अग्निरथ पर आरूढ़ होकर फिर से महाराजा रूपसिंह का वरण करने स्वर्गलोक में जा पहुँचीं।
जिस समय महाराजा रूपसिंह मुगलिया राजनीति की खूनी चौसर पर बलिदान हुआ, उस समय रूपसिंह के वंश में उसका तीन साल का पुत्र मानसिंह ही अकेले दिए की तरह टिमटिमा रहा था और आगरा में औरंगज़ेब नामक आंधी बड़ी जोरों से उत्पात मचा रही थी। किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमती के कोमल हाथों को अब न केवल इस टिमटिमाते हुए दिए की रक्षा करनी थी अपितु स्वयं को भी औरंगज़ेब नामक आंधी के क्रूर थपेड़ों से बचाना था!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता