जलालुद्दीन खिलजी ने बलबन के भतीजे मलिक छज्जू के विद्रोह का दमन करके उसे तथा उसके साथी मुस्लिम सैनिकों को तो क्षमा कर दिया था किंतु उसके साथ के हिंदू सैनिकों को जंगलों से पकड़कर उनकी निर्मम हत्या करवाई थी।
जलालुद्दीन खिलजी ने यह नीति आगे भी जारी रखी। कुछ समय बाद जलालुद्दीन की सेना ने उन डाकुओं को पकड़ा जो किसी समय हिन्दू थे तथा दिल्ली सल्तनत की सेना के सताए जाने के कारण मुसलमान हो गए थे। इन लोगों को न तो सेना में भर्ती किया गया था और न उनकी आर्थिक स्थिति में कोई सुधार आया था। इसलिए उनके कुछ समूह स्वयं संगठित होकर डकैती किया करते थे।
जब दिल्ली के निकटवर्ती जंगलों से इन समूहों के एक हजार डाकुओं को पकड़कर सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी के समक्ष लाया गया तब सुल्तान ने उनके साथ भी उदारता का वैसा ही प्रदर्शन किया जो उसने मलिक छज्जू तथा उसके मुस्लिम विद्रोही साथियों के साथ किया था। सुल्तान ने उन्हें कठोर दण्ड देने के स्थान पर उन्हें चोरी की बुराइयों पर उपदेश दिया। सुल्तान ने उन्हें चेतावनी दी कि फिर कभी ऐसा निकृष्ट कार्य न करें और उन्हें नावों में बैठाकर बंगाल भेज दिया जहाँ उन्हें मुक्त कर दिया गया।
विद्रोहियों एवं अपराधियों के प्रति सुल्तान की इस उदार नीति की सर्वत्र आलोचना होने लगी तथा उसकी उदारता को उसकी दुुर्बलता समझा गया। तुर्की अमीर तो पहले से ही सुल्तान से असंतुष्ट थे, अब खिलजी अमीर भी उससे अप्रसन्न हो गए। जलालुद्दीन खिलजी एक भी मुस्लिम सैनिक को मरते हुए नहीं देखना चाहता था। फिर भी उसने राजपूत राजाओं पर कुछ आक्रमण किए जिनमें उसे विशेष सफलता नहीं मिली। तत्कालीन मुस्लिम लेखकों द्वारा इस पराजय का कारण यह बताया जाता है कि सुल्तान अपने मुस्लिम सैनिकों के शव गिरते हुए नहीं देखना चाहता था।
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सुल्तान जलालुद्दीन का पहला आक्रमण ई.1291 में रणथम्भौर के दुर्ग पर हुआ। सुल्तान ने स्वयं इस युद्ध का संचालन किया। उसने अपने पुत्र अर्कली खाँ को किलोखरी में रहने की आज्ञा दी तथा स्वयं एक सेना लेकर रणथंभौर की ओर चल दिया। इस समय वीर हम्मीर रणथंभौर का शासक था। उसके चौहान सैनिक अपने दुर्ग की रक्षा के लिए दृढ़़-सकंल्प थे।
सुल्तान ने सबसे पहले झाइन के दुर्ग पर आक्रमण किया। कुछ इतिहासकारों ने इसे छान का किला भी कहा है। रणथंभौर के शासक हम्मीर ने सेनापति भीमसिंह के नेतृत्व में 10,000 सैनिक झाइन के दुर्ग की रक्षा करने के लिए भेजे किंतु दिल्ली की सेना ने रणथंभौर की इस सेना को परास्त करके झाइन के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। अमीर खुसरो ने लिखा है कि एक ही धावे में हजारों रावत मार डाले गए। हिन्दू सेनानायक साहिनी भाग गया जबकि पराजित हिन्दू सेना रणथंभौर की ओर भाग आई।
इस पर सुल्तान जलालुद्दीन स्वयं झाइन पहुंचा तथा हम्मीरदेव के महल में रुका। वहाँ सुल्तान ने अनेक भवनों, मंदिरों एवं मूर्तियों का विध्वंस किया। इसके बाद सुल्तान ने मलिक खुर्रम के साथ आगे बढ़कर रणथंभौर पर घेरा डाल दिया तथा उसने अपनी सेना के एक हिस्से को मालवा की ओर भेज दिया जिसने मालवा के समृद्ध क्षेत्र में लूटमार करके पर्याप्त धन प्राप्त किया। जब मालवा से शाही सेना का वह हिस्सा वापस लौट आया तब सुल्तान ने रणथम्भौर पर आक्रमण करने का निश्चय किया।
रणथंभौर के शासक वीर हम्मीरदेव चौहान के सैनिक अपने दुर्ग की रक्षा के लिए दृढ़़-सकंल्प थे। उन्होंने बड़ी वीरता से तुर्कों का सामना किया। राजपूतों की दृढ़़ता तथा दुर्ग की अभेद्यता से हताश होकर सुल्तान ने रणथम्भौर विजय का विचार त्याग दिया और घेरा उठाने के आदेश दिए। जियाउद्दीन बरनी ने लिखा है कि जब सुल्तान ने रणथंभौर के दुर्ग को देखा तो आश्चर्यचकित रह गया तथा उसने घेरा उठाने के आदेश दिए। एक अन्य इतिहासकार ने लिखा है कि एक दिन राजपूतों ने शाही सेना के बहुत से मुस्लिम सैनिकों को काट डाला। उनके शवों को देखकर जलालुद्दीन के शोक का पार नहीं रहा और उसने तुरंत घेरा उठाने के आदेश दिए। इस पर मलिक अहमद चप ने सुल्तान से कहा कि बिना जीत हासिल किए घेरा उठाने से सुल्तान की प्रतिष्ठा गिर जाएगी।
इस पर सुल्तान ने जवाब दिया कि इस किले को जीतने के लिए असंख्य मुसलमानों की बलि देनी पड़ेगी। और मैं इस प्रकार के दस किलों को भी मुसलमानों के एक बाल को भी हानि पहुंचाकर लेने के पक्ष में नहीं। आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि सुल्तान ने कहा कि उसके मुसलमान सैनिकों के सिर का प्रत्येक बाल, रणथम्भौर जैसे सौ दुर्गों से अधिक मूल्यवान था।
शाही सेना के रणथंभौर से जाते ही हम्मीर चौहान ने झाइन के दुर्ग पर भी फिर से अधिकार कर लिया। कुछ समय बाद पुनः शाही सेना ने झाइन पर आक्रमण करके उसे तहस-नहस कर दिया।
सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी का दूसरा आक्रमण रेगिस्तान के मण्डोर राज्य पर हुआ। पाठकों को स्मरण होगा कि मण्डोर का राज्य शम्सुद्दीन इल्तुतमिश के समय में दिल्ली सल्तनत के अधीन हो चुका था परन्तु बाद में जालौर के चौहान राजपूतों ने उस पर फिर से अपना अधिकार कर लिया था। ई.1292 में जलालुद्दीन खिलजी ने मण्डोर को पुनः अपने अधिकार में कर लिया।
जलालुद्दीन खिलजी के काल में शाही सेनाओं द्वारा दो और हिन्दू राजाओं पर आक्रमण किए गए जिनमें सुल्तान की सेनाओं को बड़ी विजय मिली किंतु ये दोनों आक्रमण जलालुद्दीन के भतीजे अल्लाउद्दीन खिलजी के नेतृत्व में किए थे जो कि सुल्तान का दामाद भी था।
इनमें से पहला आक्रमण ई.1292 में मालवा पर तथा दूसरा आक्रमण भिलसा पर किया गया और वहाँ के मन्दिरों तथा सेठ-साहूकारों को लूटकर अपार धन एकत्रित किया गया। अल्लाउद्दीन इस धन को लेकर दिल्ली लौट आया और उसने यह समस्त धन सुल्तान को भेंट कर दिया। सुल्तान ने अल्लाउद्दीन की सफलता से प्रसन्न होकर कड़ा-मानिकपुर के साथ-साथ अवध की जागीर भी उसे दे दी और उसे आरिज-ए-मुमालिक के पद पर नियुक्त कर दिया।
अल्लाउद्दीन द्वारा मालवा में स्थित देवगिरि के यादव राज्य पर किए गए आक्रमण की विस्तृत चर्चा हम आगे करेंगे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता