बालाजी विश्वनाथ मराठों का पहला पेशवा था। पेशवाओं ने कुछ ही समय में न केवल मराठा राजनीति पर नियंत्रण कर लिया अपितु वे सम्पूर्ण उत्तर भारत की राजनीति पर भी छा गये। पेशवाओं की भीषण टक्करों से मुगल सल्तनत चूर-चूर होकर बिखर गई।
मराठा शक्ति का अभ्युदय छत्रपति शिवाजी द्वारा ई.1645 से 1680 की अवधि में शाहजहाँ एवं औरंगजेब के काल में किया गया था। तब से मराठे निरंतर अपनी शक्ति बढ़ाते आ रहे थे।
छत्रपति शिवाजी के वंशज शाहूजी ने 16 नवम्बर 1713 को बालाजी विश्वनाथ को अपना पेशवा नियुक्त किया। पेशवा बालाजी विश्वनाथ द्वारा मराठा राज्य को दी गई महत्त्वपूर्ण सेवाओं के कारण शाहूजी के शासनकाल में पेशवाओं का उत्कर्ष हुआ। इसके बाद पेशवा का पद वंशानुगत हो गया।
पेशवा बालाजी विश्वनाथ ने न केवल मराठा राजनीति में अपितु दिल्ली की मुगलिया राजनीति में भी बराबर की दिलचस्पी ली। जब ईस्वी 1719 में सैयद बंधुओं ने बादशाह फर्रूखसियर को उसके पद से हटाया तो सैयदों ने पेशवा बालाजी विश्वनाथ से सहायता माँगी।
इस अवसर पर पेशवा बालाजी विश्वनाथ और सैयद हुसैन अली के बीच एक सन्धि हुई जिसके अनुसार पेशवा ने सैयद हुसैन अली को 15 हजार मराठा घुड़सवार उपलब्ध करवाने का वचन दिया तथा इसके बदले में सैयदों ने छत्रपति शाहू को दक्षिण के 6 सूबों से चौथ और सरदेशमुखी वसूल करने का अधिकार देने का वचन दिया।
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इस संधि के बाद पेशवा बालाजी विश्वनाथ 15 हजार मराठा घुड़सवारों की सेना लेकर सैयद बंधुओं की सहायता के लिये दिल्ली अया, जहाँ मारवाड़ नरेश अजीतसिंह तथा कोटा नरेश भीमसिंह आदि की सहायता से फर्रूखसियर को गद्दी से उतारकर मार डाला गया और रफी-उद्-दरजात को बादशाह बनाया गया।
नये बादशाह रफी-उद्-दरजात ने सैयद हुसैन अली द्वारा पेशवा से की गई सन्धि को स्वीकार कर लिया। इस घटना से मराठों को मुगलों की वास्तविक स्थिति का ज्ञान हो गया। अतः दिल्ली से लौटने के बाद बालाजी विश्वनाथ ने उत्तर भारत में मराठा शक्ति के प्रसार की योजना बनाई किन्तु योजना को कार्यान्वित करने के पूर्व ही ईस्वी 1720 में उसकी मृत्यु हो गयी। इस समय तक मुहम्मदशाह रंगीला दिल्ली के तख्त पर बैठ चुका था और सैयद बंधुओं की हत्या करके सल्तनत पर अपनी पकड़ मजबूत बनाने का प्रयास कर रहा था।
बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के बाद उसका बीस वर्षीय पुत्र बाजीराव पेशवा बना। उसे इतिहास में पेशवा बाजीराव (प्रथम) के नाम से जाना जाता है। उसने हैदराबाद के सूबेदार निजाम-उल-मुल्क चिनकुलीच खाँ को दो बार बड़े युद्धों में परास्त किया। पेशवा बाजीराव ने पुर्तगालियों से बसीन एवं सालसेट के इलाके छीन लिये तथा मराठों के प्रभाव को गुजरात, मालवा और बुन्देलखण्ड तक पहुँचा दिया। उसने मुगलों के अधीन छः सूबों में चौथ एवं सरदेशमुखी वसूलने के लिए होलकर, सिन्धिया, पंवार तथा गायकवाड़ आदि मराठा सेनापतियों को नियुक्त किया।
इन मराठा सेनापतियों ने मुगलों द्वारा सौंपे गए अधिकार क्षेत्र के साथ-साथ इस क्षेत्र से बाहर भी चौथ वसूली का काम आरम्भ कर दिया। कुछ समय पश्चात् ये मराठा सेनापति इतने शक्तिशाली हो गए कि इन्होंने गुजरात तथा मालवा के मुगल क्षेत्रों में अपने चार राज्य स्थापित कर लिए। इनमें से सबसे पहला राज्य पिलाजी राव गायकवाड़ ने गुजरात के बड़ौदा में स्थापित किया। गुजरात सूबा मुगल सल्तनत के समृद्ध सूबों में से था तथा उस समय जोधपुर नरेश अभयसिंह गुजरात का सूबेदार था किन्तु केन्द्रीय शक्ति के ह्रास के कारण महाराजा के लिए गुजरात पर नियंत्रण बनाये रखना कठिन हो गया।
ईस्वी 1733 में मराठों ने महाराजा अभयसिंह को बुरी तरह परास्त किया। इस कारण महाराजा अभयसिंह गुजरात का शासन अपने अधिकारियों को सौंपकर जोधपुर चला गया। ईस्वी 1735 तक मराठे गुजरात के वास्तविक शासक बन गये।
ईस्वी 1730 में ऊदाजी राजे पवार ने धार में पृथक मराठा राज्य की स्थापना कर ली। ई.1731 में मल्हारराव होलकर ने इन्दौर में अपना अगल राज्य स्थापित कर लिया। ई.1731 में ही रानोजी सिंधिया ने भी ग्वालियर में अपना राज्य स्थापित कर लिया।
मराठों का पांचवा राज्य अब भी पूना में पेशवा के नेतृत्व में चल रहा था जो शेष चारों राज्यों का भी सर्वोच्च शासक था। जबकि क्षत्रपति शिवाजी का वंशज शाहूजी सतारा में नाममात्र का मराठा राजा था और अब भी छत्रपति कहलाता था। कहने को अब भी पेशवा छत्रपति का मंत्री था किंतु पेशवा पूना में बैठता था और स्वतंत्र रूप से अपने राज्य का संचालन करता था।
इस प्रकार पेशवा बाजीराव के प्रभाव से मराठा राजनीति दक्षिण भारत से बाहर निकाल कर उत्तर भारत तक फैल गई तथा मराठों की शक्ति के विस्तार के लिए नवीन क्षेत्र उपलब्ध हो गया।
इस काल में मराठे निरंतर आगे बढ़ते रहे जिसके कारण केन्द्रीय राजनीति में राजपूत राज्यों की भूमिका गौण हो गई तथा राजपूताना राज्यों के शासक अपने-अपने राज्यों में स्वतंत्र शासक की भांति शासन करने लगे।
बादशाह मुहम्मदशाह की हैसियत उसकी अपनी राजधानी दिल्ली में भी बहुत कम रह गई थी। एक बार कोटा नरेश दुर्जनशाल बादशाह से मिलने के लिये दिल्ली आया। वहाँ उसने कुछ कसाईयों को देखा जो गायों को काटने के लिये शाही बावर्चीखाने ले जा रहे थे। दुर्जनशाल ने अपने आदमियों को उन कसाइयों को मार डालने के आदेश दिए।
अपने राजा का आदेश सुनते ही हाड़ा सैनिक कसाइयों पर टूट पड़े। हो हल्ला सुनकर दिल्ली का कोतवाल भी कसाइयों की रक्षा के लिये आ गया। कोटा के सिपाहियों ने दिल्ली के कोतवाल को भी मार डाला तथा महाराव दुर्जनशाल उन गायों को लेकर कोटा लौट गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता