ई.1303 में दिल्ली के सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ दुर्ग को विशाल सेना लेकर घेर लिया तथा रावल रत्नसिंह से उसकी रानी पद्मावती अथवा पद्मिनी के समर्पण की मांग की। जब रावल रत्नसिंह ने सुल्तान की मांग अस्वीकार कर दी तो दिल्ली की सेना ने छल से चित्तौड़ का किला भंग कर दिया।
ऐतिहासिक दृष्टि से इस युद्ध के केन्द्र में रावल रत्नसिंह एवं अल्लाउद्दीन खिलजी को होना चाहिए था किंतु दुर्भाग्य से विगत सात सौ सालों में चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी को इस युद्ध का केन्द्रबिंदु बना दिया गया है और यह काम इतिहास ने नहीं, साहित्य ने किया है। इस ऐतिहासिक विरूपण की शुरुआत ई.1540 में मलिक मुहम्मद जायसी के ग्रंथ ‘पद्मावत’ से हुई। यह ग्रंथ इतिहास की दृष्टि से नितांत अनुपयोगी और झूठा है। इस ग्रंथ का साहित्यिक मूल्य भी अधिक नहीं है किंतु सोलहवीं शताब्दी में लिखा हुआ होने के कारण, हिन्दी भाषा के प्रारम्भिक काल की रचना के रूप में इस ग्रंथ का महत्त्व है।
वास्तव में इसका कथानक, उपन्यास की भांति कपोल-कल्पित है जिसके पात्रों एवं स्थानों के नाम इतिहास से ग्रहण किए गए हैं। महारानी पद्मिनी की कथा पर आधारित होने के कारण इस ग्रंथ को राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हुई। मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित पद्मावत को हिन्दी साहित्य में सूफी परम्परा के महाकाव्य के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त है। बहुत से लोग इसमें इतिहास ढूंढने की चेष्टा करते हैं तथा जायसी की पद्मावती को केन्द्रबिंदु बनाकर चित्तौड़ का इतिहास लिखने का प्रयास करते हैं किंतु इस ग्रंथ की नायिका जायसी की मौलिक रचना नहीं है, न ही वह चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी अथवा पद्मावती है। जायसी की पद्मिनी अथवा पद्मावती तो ‘पृथ्वीराज रासो’ नामक ग्रंथ से उधार ली हुई है।
जायसी ने पद्मावत की रचना हिजरी 947 अर्थात् ई.1540 में शेरशाह सूरी के शासनकाल में की थी। इस ग्रंथ के आरम्भ में शेरशाह सूरी की प्रशंसा की गई है। जायसी की पद्मावत में राजा रतनसेन और नायिका पद्मिनी की प्रेमकथा के माध्यम से सूफियों की प्रेम-साधना का आधार तैयार किया गया है। इस ग्रंथ में रतनसेन को चित्तौड़ का राजा बताया गया है और पद्मावती सिंहल द्वीप की राजकुमारी तथा रतनसेन की रानी है जिसके सौंदर्य की प्रशंसा सुनकर दिल्ली का सुल्तान अल्लाउद्दीन उसे प्राप्त करने के लिये चित्तौड़ पर आक्रमण करता है।
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बहुत से लोग मानते हैं कि अवधी क्षेत्र में प्रचलित ‘हीरामन सुग्गे’ की लोककथा जायसी की पद्मावत का आधार बनी थी। इस कथा के अनुसार सिंहल द्वीप के राजा गंधर्वसेन की कन्या पद्मावती ने हीरामन नामक सुग्गा पाल रखा था। एक दिन वह सुग्गा पदमावती की अनुपस्थिति में भाग निकला और एक बहेलिए द्वारा पकड़ लिया गया। बहेलिए से एक ब्राह्मण के हाथों में होता हुआ वह सुग्गा चित्तौड़ के राजा रतनसिंह के पास पहुंचा।
सुग्गे ने राजा रतनसिंह को सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती के अद्भुत सौंदर्य का वर्णन सुनाया और राजा रतनसिंह राजकुमारी पद्मावती को प्राप्त करने के लिये योगी बनकर निकल पड़ा। राजा रतनसिंह ने सुग्गे के माध्यम से पद्मावती के पास प्रेमसंदेश भेजा। पद्मावती उससे मिलने के लिये एक देवालय में आई जहाँ से राजा रतनसेन राजकुमारी को घोड़े पर बैठाकर चित्तौड़ ले आया। इस प्रकार यह कथा चलती रहती है।
पृथ्वीराज रासो में ‘पद्मावती समय’ नामक एक आख्यान दिया गया है। इसके अनुसार पूर्व दिशा में समुद्रशिखर नामक प्रदेश पर विजयपाल यादव नाम का राजा राज्य करता था। उसकी पत्नी का नाम पद्मसेना तथा पुत्री का नाम पद्मावती था। एक दिन राजकुमार पद्मावती राजभवन के उद्यान में विचरण कर रही थी। उस समय एक शुक अर्थात् तोता पद्मावती के लाल होठों को बिम्बाफल समझकर उसे खाने के लिए आगे बढ़ा। उसी समय पद्मावती ने शुक को पकड़ लिया। वह शुक मनुष्यों की भाषा बोलता था। उसने पद्मावती का मनोरंजन करने के लिए एक कथा सुनाई।
राजकुमारी पद्मावती ने पूछा- ‘हे शुकराज! आप कहाँ निवास करते हैं? आपके राज्य का राजा कौन है?’ इस पर शुक ने राजकुमारी पद्मावती को दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान के बारे में बताया। राजकुमारी पृथ्वीराज के गुणों पर रीझ गई तथा शुक से कहने लगी- ‘तू मेरा प्रेम-संदेश लेकर दिल्ली जा और राजा पृथ्वीराज से कह कि वह आकर मुझे ले जाए क्योंकि मैं उससे प्रेम करती हूँ जबकि मेरे पिता ने मेरा विवाह राजा कुमुदमणि से तय कर दिया है।’
शुक ने दिल्ली पहुंचकर राजा पृथ्वीराज को राजकुमारी पद्मावती का संदेश दिया। राजा पृथ्वीराज समुद्रशिखर राज्य में पहुंचकर पद्मावती से मिला तथा उसे अपने घोड़े पर बैठाकर ले गया।
हीरामन सुग्गे की लोककथा के तथ्यों को काम में लेते हुए रानी पद्मावती की प्रेमगाथा को पृथ्वीराज रासो में जोड़ दिया गया। संभवतः वही प्राचीन लोककथा सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित पद्मावत का भी आधार बनी होगी।
ई.1586 में जैनकवि हेमरत्न ने अपने ग्रंथ ‘गोरा-बादल चरित चउपई’ में तथा कवि लब्धोदय ने ई.1649 में रचित ग्रंथ ‘पद्मिनी चरित चउपई’ में रानी पद्मावती के ऐतिहासिक सत्य एवं लोककथा के तथ्यों को मिलाकर इस समस्या को और बढ़ा दिया। इन तीनों ग्रंथों अर्थात् जायसी की ‘पद्मावत’, हेमरत्न की ‘गोरा-बादल चरित चउपई’ तथा कवि लब्धोदय की ‘पद्मिनी चरित चउपई’ में महारानी पद्मिनी की कथा को स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में लिखा गया। उसके बाद फरिश्ता एवं अबुल फजल ने इन तथ्यों को और अधिक तोड़-मरोड़कर इस कथा को विस्तार दे दिया। कवि जटमल नाहर ने ‘पद्मिनी चरित’, कवि मल्ल ने ‘गोरा-बादल कवित’, कवि पत्ता ने ‘छप्पय चरित’, कवि भट्ट रणछोड़ ने ‘राजप्रशस्ति काव्य’, दलपत विजय ने ‘खुंमाण रासौ’, दयालदास ने ‘राणौ रासौ’, कविराज श्यामलदास ने ‘वीर विनोद’ तथा मुंहता नैणसी ने मुंहता नैणसी री ख्यात में इस कथा के अलग-अलग रूप गढ़ दिए।
कर्नल टॉड ने लिखा है- ‘अल्लाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ दुर्ग को तो अधीन कर लिया परन्तु जिस पद्मिनी के लिये उसने इतना कष्ट उठाया था, उसकी तो चिता की अग्नि ही उसे दिखाई दी।’
आजादी के बाद कुछ टूरिस्ट गाइड्स ने चित्तौड़ दुर्ग में एक महल के सामने की दीवार पर एक दर्पण लटका दिया जिसे वे दुर्ग में आने वाले पर्यटकों को दिखाकर कहते थे कि रानी पद्मिनी अपने महल में खड़ी हो गई और इस दर्पण में अल्लाउद्दीन खिलजी ने रानी का चेहरा देखा।
इस प्रकार रानी पद्मिनी की कथा के विरूपित संस्करण को जनमानस में गहराई से बैठा दिया गया। कुछ फिल्मकारों ने इस कथा को विस्तार देते हुए रानी पद्मिनी और अल्लाउद्दीन खिलजी की एक मिथ्या प्रेमकहानी गढ़ने का प्रयास किया जिसके प्रतिकार स्वरूप भारत में एक लम्बा आंदोलन हुआ।
वास्तविकता यह है कि महारानी पद्मिनी अपने अदम्य साहस एवं पातिव्रत्य धर्म के कारण भारतीय नारियों के लिये सीता और सती सावित्री की तरह आदर्श बन गई। इसी प्रकार गोरा एवं बादल भी मिथकीय कथाओं के नायक बन गये।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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