सिन्धु सभ्यता की चित्रकला
सभ्य मानव द्वारा की गई चित्रकला के सर्वप्रथम साक्ष्य सैन्धव सभ्यता से प्राप्त हुए हैं। सिंधु स्थलों की खुदाई में प्राप्त अनेक मुद्राओं, बर्तनों एवं अन्य सामग्री पर सुंदर चित्र मिलते हैं। कुछ मुहरों पर पशु-पक्षी, वृक्ष, मानव, देवी-देवता आदि के चित्र मिले हैं। एक मुद्रा पर दो पशुओं के शीश पर पीपल की नौ पत्तियाँ अंकित हैं। एक अन्य मुद्रा पर एक नग्न स्त्री का चित्र है जिसके दोनों ओर एक-एक टहनी बनी है। उसके सामने पत्तियों का मुकुट पहने एक अन्य आकृति का चित्र है।
ये चित्र वनस्पतियों की देवी के प्रतीत होते हैं। उनकी बहुत सी मुद्राओं पर पीपल के विविध अंकन मिलते हैं। कहीं उसे वेदिका से उगता हुआ दिखाया गया है तो कहीं इसके भीतर देवता को अंकित किया गया है। अलग-अलग चित्रों में पीपल की टहनियों पर पत्तों की संख्या अलग-अलग रखी गई है। एक जगह इसकी पांच टहनियों पर सात पत्ते उपर की ओर, दो नीचे की ओर और एक बराबर में दिखाया गया है। कपड़ों और बर्तनों पर भी पीपल की टहनी और पत्तों के अनेक डिजाइन मिले हैं।
कुछ मुद्राओं पर बैल के चित्र मिले हैं। मोहेनजोदड़ो के एक ताम्रपत्र पर कूबड़दार बैल अंकित किया गया है। बैल की भांति भैंस और भैंसा के चित्र भी अनेक मुद्राओं पर मिले हैं। एक मुद्रा पर गाय की पूजा करते हुए एक मनुष्य का चित्र अंकित है। एक चबूतरे पर लेटे हुए नाग को दिखाया गया है। सिंधु सभ्यता से प्राप्त विभिन्न मुद्राओं पर हाथी, बाघ, भेड़, बकरी, गैंडा, हिरण, ऊँट, घड़ियाल, गिलहरी, तोता, मुर्गा, मोर आदि पक्षियों के चित्र भी मिले हैं। सम्भव है कि ये पशु-पक्षी विभिन्न देवी-देवताओं के वाहन रहे हों।
कुछ मुद्राओं पर मनुष्य को चीते से लड़ते हुए दिखाया गया है। इस चित्र में वृक्ष पर चढ़ा हुआ आदमी चीते को भगा रहा है तथा भागता हुआ चीता पीछे की ओर मुँह करके देख रहा है। इन मुद्राओं से अनुमान होता है कि उस काल में चीते बड़ी संख्या में पाए जाते थे और मानवों का उनसे निरंतर संघर्ष चल रहा था। सैन्धववासी, पशुओं की आकृति विचित्र ढंग से बनाते थे। कुछ पशु आधे मनुष्य और आधे पशु हैं।
आधा भेड़, आधा बकरा, आधा हाथी और आधा बैल या इसी प्रकार के अन्य मिश्रण से पशुओं की आकृति बनाते थे। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वे इनमें दैवीय अंश मानकर इनकी पूजा करते थे।
आर्य बस्तियों के प्राचीन चित्र
आर्य सभ्यता की वैदिक बस्तियों से मिले बर्तनों पर सफेद, काली एवं लाल रेखाओं के माध्यम से चित्रकारी की गई है। सभ्यता के विकास के साथ चित्रकला का भी विकास होता चला गया।
मौर्यकालीन चित्रकला
मौर्य काल में चित्रकला के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई। बौद्ध शैली के चित्रों की रचना इस काल में प्रारम्भ हो गई थी। उस काल की चित्रकला के पर्याप्त नमूने उपलब्ध नहीं हो सके हैं। ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के मौर्यकालीन बौद्ध ग्रंथ विनय पिटक में राजप्रासादों में अंकित चित्रकला का उल्लेख हुआ है। ईसा पूर्व पहली शताब्दी के लगभग चित्रकला षडांग (चित्रकला के छः अंग) का विकास हुआ।
प्राचीन ग्रंथों में चित्रकला का उल्लेख
प्राचीन हिन्दू और बौद्ध साहित्य में कला के विभिन्न रूपों का उल्लेख हुआ है, यथा- लेप्यचित्र, आलेख्यचित्र और धूलिचित्र। पहली प्रकार की कला का सम्बन्ध भित्तिचित्रों से है। दूसरी प्रागैतिहासिक वस्त्रों पर बने रेखाचित्र और चित्रकला से सम्बद्ध है और तीसरे प्रकार की कला आंगन में बनाई जाती है।
पांचवी शताब्दी ईस्वी के मुद्राराक्षस नामक नाटक में चित्रों एवं चित्रपटों का उल्लेख है। छठी शताब्दी इस्वी के वात्स्यायन के ग्रंथ कामसूत्र में 64 कलाओं के अंतर्गत चित्रकला का भी उल्लेख हुआ है और कहा गया है कि यह कला वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है। वात्स्यायन ने चित्रकला के छः अंगों का उल्लेख किया है। कामसूत्र के प्रथम अधिकरण के तीसरे अध्याय की टीका करते हुए यशोधर पंडित ने चित्रकला के छः अंग इस प्रकार बताये हैं-
रूपभेदाः प्रमाणनि भावलावण्ययोजनम्।
सादृश्यं वर्णिकाभंग इति चित्र षंड्गकम्।।
अर्थात्- (1.) रूपभेद, (2.) प्रमाण- सही नाप और संरचना आदि, (3.) भाव, (4.) लावण्य योजना, (5.) दृश्य विधान, (6.) वर्णिकाभंग।
सातवीं शताब्दी ईस्वी में मार्कण्डेय मुनि रचित विष्णुधर्मोत्तर पुराण के ‘चित्रसूत्र’ अध्याय में कला की विवेचना की गई है। इसमें चित्रकला को उच्च बताते हुए उसे धर्म, काम, अर्थ और मोक्ष देने वाली कला माना गया है। जहाँ इसकी प्रतिष्ठा की जाती है, वहाँ मंगल होता है-
कलानां प्रवरं चित्र, धर्म कामार्थ मोक्षदम्।
मांगल्यं प्रथमं चैतद्, गृहे यत्र प्रतिष्ठितम्।।
मार्कण्डेय मुनि द्वारा चित्रकला के छः अंग बताए गए हैं- (1.) आकृति की विभिन्नता, (2.) अनुपात, (3.) भाव, (4.) चमक, (5.) दृश्य विधान, (6.) रंगों का प्रभाव आदि।
चित्रकला की विभिन्न शैलियाँ
भारत में चित्रकला का प्रचलन देश के विभिन्न हिस्सों एवं इतिहास के समस्त कालखण्डों में विद्यमान रहा जिसके कारण अनेक शैलियाँ विकसित हो गईं। इनमें छः शैलियां मुख्य हैं- (1.) अजन्ता शैली, (2.) गुजरात शैली, (3.) मुगल शैली, (4.) राजपूत शैली, (5.) दकन शैली (6.) वर्तमान शैली।
अजन्ता चित्रकला शैली
अजन्ता की विश्व-विख्यात गुफाएं महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में सह्याद्रि पर्वतमाला में स्थित हैं। इन गुफाओं की संख्या 20 है। इनमें से गुफा संख्या 9, 10, 19 और 26 चैत्य हैं, शेष गुफाएं बौद्ध-भिक्षुओं के रहने के विहार हैं। गुफा संख्या 8, 12 और 13 प्राचीनतम हैं। 13वीं गुफा की दीवारों पर पॉलिश है और वह ई.पू. 200 के लगभग (मौर्यकाल) की हो सकती है। इन तीनों गुफाओं में चित्र नहीं हैं। 8वीं और 13वीं गुफाएं हीनयान सम्प्रदाय की हैं और ये सम्भवतः ई.पू.200 से ई.पू.150 के मध्य (शुंगकाल में) खोदी गई थीं।
छठी और सातवीं गुफाएं सम्भवतः ई.450-550 के बीच (गुप्तकाल में) खोदी गई थीं। कुछ गुफाएं इससे भी बाद की हैं। सबसे पहली गुफा सम्भवतः सबसे अन्त में खुदी। इन गुफाओं के चित्र भिन्न-भिन्न काल के हैं। इन गुफाओं के चित्र ईसा से प्रायः सौ वर्ष पहले से लेकर ईसा बाद सातवीं सदी इस्वी तक के है।
नवीं-दसवीं गुफाओं में दो काल के चित्र है, इनमें प्राचीनतम चित्र पहली ई.पू. पहली शती के हैं जबकि बाद के चित्र गुप्तकाल (ई.320-495), वाकाटक (ई.250-500) और चालुक्य काल (ई.550-642) के हैं। इनमें से अधिकांश चित्र अब मिट गए हैं या धूमिल पड़ गए हैं। समस्त विश्व में इन भित्तिचित्रों की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की गई है।
अजन्ता की गुफाओं में विकसित हुई चित्रशैली को अजन्ता शैली कहते हैं। ये चित्र किसी एक काल की नहीं है किंतु इस शैली की सर्वप्रमुख विशेषता यह है कि यह चित्रशैली केवल कन्दराओं की भित्तियों पर ही चित्रित मिलती है। इन्हें भित्ति-चित्र कहते हैं। दीवार पर चूना आदि का लेप लगाकर उन पर चित्र बनाए जाते हैं। इन्हें ‘फ्रेस्को-चित्रण’ भी कहते हैं।
अजन्ता की गुफाओं में की गई चित्रकारी कई शताब्दियों में तैयार हुई थी, इसकी सबसे प्राचीन चित्रकारी ई.पू. प्रथम शताब्दी की है। इन चित्रों मे भगवान बुद्ध को विभिन्न रूपों में दर्शाया गया है। अजन्ता की चित्रकला के विषय में श्रीमती ग्राबोस्का ने लिखा है- ‘अजन्ता की कला भारत की प्राचीन कला है। चित्रकारियों का सौन्दर्य आश्चर्यजनक है और वह भारतीय चित्रकारी की चरमोन्नति का प्रतीक है।’
गुप्तकालीन अजन्ता चित्रकला
गुप्तकाल में चित्रकला की बड़ी उन्नति हुई। अजन्ता तथा एलोरा की गुफाओं की दीवारों में इस काल की चित्रकला के सुन्दर उदाहरण विद्यमान हैं। इन चित्रों को वज्रलेप से बनाया गया है। इस काल में प्रकृति चित्रण के साथ-साथ मनुष्याकृतियां भी बड़ी संख्या में बनीं।
हर्ष कालीन अजन्ता चित्रकला
अजन्ता की गुफा संख्या 1 और 2 में हर्ष कालीन चित्र देखने को मिलते हैं। ये चित्र दो प्रकार के हैं- (1.) प्रथम प्रकार के चित्रों में गति और जीवन का अभाव है जबकि (2.) द्वितीय प्रकार के चित्रों में संयोजन की समानता का अभाव है। एक चित्र में पुलकेशिन (द्वितीय) को फारस के सम्राट खुसरो परवेज का स्वागत करते हुए दिखाया गया है। इन गुफाओं में भगवान बुद्ध तथा पशु-पक्षियों के चित्र बहुतायत से बने हैं।
हर्ष काल के बाद की अजन्ता चित्रकला
हर्ष के बाद 7वीं-8वीं शताब्दी के लगभग अजन्ता चित्रकला अपने चरम पर पहुँच गई। इस काल में अजन्ता शैली का प्रभाव सम्पूर्ण देश पर किसी न किसी रूप में दिखाई देता है। कालीदास, भारवि, माघ, भवभूति आदि लेखकों ने अपने ग्रंथों में इन चित्रों की ओर संकेत किया है।
अजन्ता गुफाओं के चित्रों के विषय
अजन्ता के चित्रों का मुख्य विषय बौद्ध धर्म है। अजन्ता की गुफाओं में महात्मा बुद्ध के जीवन और जातक कथाओं की घटनाएं चित्रित की गई हैं। इन चित्रों को चार भागों में रखा जा सकता है-
(1.) बुद्ध और बोधिसत्वों के चित्र,
(2.) जातक ग्रन्थों की कथाओं के दृश्य।
(3.) पुष्प, वृक्ष, लताएं, पशु-पक्षी, देवी-देवता आदि।
(4.) रिक्त स्थान भरने के लिए अप्सराओं, गन्धर्वों तथा यक्षों का चित्रण।
बिम्बों की कल्पना, रंगों की योजना, रेखाओें के लालित्य और अभिव्यक्ति की सम्पन्नता के कारण अजन्ता के भित्ति चित्र अद्भुत दिखाई पड़ते हैं। ‘अजन्ता की कला इतनी पूर्ण, परम्परा में इतनी निर्दोष, अभिप्राय में इतनी सजीव तथा विषय-वैविध्य, आकृति तथा वर्ण के सौन्दर्य में इतनी समृद्ध है कि उसे विश्व की सर्वश्रेष्ठ कलाकृतियों में सम्मिलित किया जाता है।
यद्यपि ये चित्र मानव जीवन की विभिन्न भावनाओं से ओत-प्रोत हैं तथापि उनमें एक ऐसी आध्यात्मिक विशिष्टता है जिनके कारण उनमें किंचित् भी अश्लीलता नहीं है। गुफा संख्या 1 का चित्रण अत्यंत विशिष्ट है। गुफा संख्या 2 की छत में भी इसी प्रकार के आकर्षक अलंकरण हैं। पहली गुफा की छत में चित्रित सांडों की लड़ाई में पशुओं की गति को बहुत सुंदर ढंग से अभिव्यक्त किया गया है।
गुफा संख्या नौ एवं दस के चित्र इस्वी-पूर्व पहली सदी के हैं। नौवीं गुफा की दीवार पर प्रणाम मुद्रा में बैठे एक योगी का चित्र है। दसवीं गुफा के चित्र भी बड़े सजीव हैं। दाहिनी दीवार पर हाथी का एक रेखाचित्र बना हुआ है। इस गुफा के अधिकतर चित्र मिट गए हैं। सोलहवीं गुफा के चित्र भी अब कम ही बचे हैं। ई.1874 में जब ग्रिफिथ ने इन चित्रों की प्रतिलिपियां तैयार की थीं, तब काफी चित्र अस्तित्व में थे।
ग्रिफिथ ने अजन्ता कला की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। वर्गेस ने 17वीं गुफा के चित्रों को सबसे सुन्दर बताया था। राजकुमार विजय का सिंहल भूमि पर अवतरण अपनी असाधारण गति और सौन्दर्य के लिए अप्रतिम माना जाता है। गुफा संख्या 1 में बोधिसत्व पद्मपाणि अविलोकितेश्वर का चित्र भारतीय चित्रण कला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
इस चित्र के मुख पर करुण भावों का उन्मेष है। इसी गुफा में फारस के निवासियों के वेश में कुछ व्यक्तियों का आगमन चित्रित है। इसमें प्रस्तुत फारसी वातावरण, अजन्ता के अन्य चित्रों से सर्वथा भिन्न है। ये चित्र उन फारसी दूतों के हैं जिन्हें फारस के शाह खुसरो परवेज ने चालुक्यराज पुलकेशिन (द्वितीय) के पास भेजा था।
गुफा संख्या 2 में स्तम्भ से लगी खड़ी एक नायिका का चित्र है जो अपने बाएं पैर को मोड़कर स्तम्भ से टिकाए हुए है। उसने बाएं आथ के अंगूठे और अनामिका को मिला रखा है। गुफा संख्या 10 में रानियों से घिरा हुआ राजा चित्रित है। यह चित्र काफी प्राचीन है किंतु आकृतियों की अभिव्यक्ति बड़ी प्रबल है तथा मुख मण्डल पर अभूतपूर्व ताजगी विराजमान है। 17वीं गुफा में बने एक चित्र में एक माता और एक पुत्र बुद्ध को भिक्षा दे रहे हैं। उनके अंग-अंग से दैन्य भाव प्रकट हो रहा है, उनकी पलकें बिखरी हुई हैं, नेत्र अधखुले हैं। 17वीं गुफा में बने एक चित्र में एक स्त्री अपने शिशु को लिए हुए है।
अजन्ता के चित्रों में सौन्दर्य की साधना की गई है। इन चित्रों में कलाकारों ने मानव जीवन का कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं छोड़ा है। अजन्ता के चित्रों में मैत्री, करुणा, पे्रम, क्रोध, लज्जा, हर्ष, उत्साह, घृणा आदि विभिन्न प्रकार के भाव, पद्ममणि बोधिसत्व, अवलोकितेश्वर, प्रशान्त तपस्वी और देवोपम राजपरिवार से लेकर क्रूर व्याध, निर्दय वधिक, साधु वेशधारी धूर्त, वार-वनिता, समाधिमग्न बुद्ध, प्रणयरत दम्पति और शृंगाररत नायिकाएँ अंकित हैं।
इन चित्रों में विविध प्रकार के अंग-विन्यास, मुख-मुद्राएँ, भाव-भंगिमाएँ, वेश-भूषाएँ, अंलकार, केश विन्यास, रूप-रंग आदि चित्रित हैं। अजन्ता के चित्रों में राहुल और उसकी माता, छदन्त जातक, क्रूर ब्राह्मण की कथा, शिवि जातक, गजराज की जल क्रीड़ा, कवियों का उल्लास, नन्द का पलायन आदि अनेक सुंदर चित्र बने हैं।
अजन्ता शैली में अंगुलियां कमल की पंखड़ियों जैसी चित्रित की गई हैं तथा नेत्र आधे बंद हैं। दोनों नेत्र छंद युक्त प्रतीत होते है। चित्रों के विषयों की विविधता, जीवन से उनकी अविच्छिन्नता और उनके सहज स्वाभाविक अंकन ने कला का एक अद्भुत संसार रच दिया है। नगरों, राजमहलों, साधारण आवासों, वन-प्रान्तरों आदि के दृश्य मानो चित्रों में सुरक्षित होकर रह गए हैं।
दिल्ली-सल्तनत कालीन चित्रकला
मूर्ति-पूजा करना और मनुष्यों के चित्र एवं मूर्तियाँ बनाना इस्लाम में वर्जित है। क्योंकि ऐसा करते समय मूर्तिकार कल्पना करने लगता है कि वह अपनी चित्रित वस्तुओं को जीवन प्रदान कर रहा है। इस प्रकार वह अल्लाह से समता करने लगता है। जबकि जीवन प्रदान करने वाला एकमात्र अल्लाह है। इस कारण मध्य-कालीन मुसलमान जीव-जन्तुओं को चित्रित करना पाप समझते थे।
इसलिए दिल्ली के सुल्तान, मुसलमान अमीर और जनसाधारण चित्रकला से दूर रहते थे और मूर्तिकारों एवं चित्रकारों को संरक्षण नहीं देते थे। फिर भी सल्तनतकाल में अपवाद स्वरूप कुछ चित्र बने जिन पर ईरानी प्रभाव है।
सिकन्दर लोदी ने अपने काल के किसी दक्ष चित्रकार से वल्लभाचार्यजी का चित्र अपने सामने बैठकर बनवाया। यह चित्र सिकन्दर लोदी के महल में हर समय लगा रहता था। बाद में जब मुगलों ने आगरा पर अधिकार किया तब यह चित्र मुगल बादशाहों के पास आ गया। मुगल बादशाह हुमायूँ ने इस चित्र की रक्षा की तथा इसे अपने महल में लगा लिया।
जब शेरशाह सूरी ने हूमायूँ को भारत से भगा दिया तब भी वल्लभाचार्यजी का यह चित्र सुल्तान के महलों में सुरक्षित रहा। जब हुमायूँ लौटकर आया तब भी यह चित्र सुरक्षित था। अकबर, जहाँगीर तथा शाहजहां ने भी इस चित्र को संभाल कर रखा। शाहजहाँ के काल में जब किशनगढ़ का राजा रूपसिंह बलख और काबुल विजय के बाद आगरा आया तब उसने यह चित्र अपनी विजय के पुरस्कार के रूप में शाहजहाँ से मांग लिया।
इस प्रकार यह चित्र आज भी किशनगढ़ में सुरक्षित है। इस घटना से यह कहा जा सकता है कि दिल्ली सल्तनत में सिकंदर लोदी के काल से ही चित्रकला को पुनः प्रतिष्ठा मिलने लगी थी जो मुगलों के समय भी तब तक जारी रही जब तक कि औरंगजेब मुगलों के तख्त पर नहीं बैठ गया।
मुगल कालीन चित्रकला
मुगल साम्राज्य की स्थापना के साथ ही चित्रकला में नवजीवन आ गया। मुगल बादशाह चित्रकला के महान् प्रेमी थे। हेरात में बहजाद नामक चित्रकार ने चित्रकला की एक नई शैली आरम्भ की जो चीनी कला का प्रान्तीय रूप था और इस पर भारतीय, बौद्ध, ईरानी, बैक्ट्रियाई और मंगोलियन तत्त्वों का प्रभाव था। इसे बहजाद कला कहा जाता था। फारस के तैमूरवंशी राजाओं ने इसे राजकीय सहायता दी।
बाबर के काल में चित्रकला
बाबर जब हेरात में आया, तब उसका बहजाद की चित्रकला से परिचय हुआ। बाबर ने इस चित्रशैली में अनेक हस्तलिखित ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ चित्रित करवाईं तथा इस कला को अपने साथ भारत ले आया।
हुमायूँ के काल में चित्रकला
हुमायूँ भी चित्रकला प्रेमी था। उसका फारस के उच्चकोटि के चित्रकारों से अच्छा परिचय था। इनमें से एक हेरात का प्रसिद्ध चित्रकार बहजाद का शिष्य मीर सैय्यद अली था और दूसरा ख्वाजा अब्दुस समद था। हुमायूँ इन दोनों को अपने साथ भारत ले आया। अब्दुस्समद द्वारा तैयार किए जाने वाले चित्रों में कुछ चित्र जहाँगीर द्वारा संकलित ‘गुलशन चित्रावली’ में संकलित हैं। ‘हम्जनामा’, जिसे ‘दास्ताने अमीर हम्जा’ भी कहते हैं, मुगल चित्रकला शैली में चित्रित सबसे महत्वपूर्ण चित्र संग्रह है।
‘हम्जनामा’ मीर सैय्यद अली एवं अब्दुस्समद के नेतृत्व में देश के विभिन्न भागों से बुलाए गए लगभग 100 चित्रकारों के समूह द्वारा तैयार किया गया जिसे पूरा करने में लगभग पन्द्रह वर्ष लगे। हम्जनामा में लगभग 1400 पृष्ठों को चित्रित किया गया। हुमायूँ तथा अकबर ने ईरानी कलाकारों से चित्रकला का कुछ ज्ञान प्राप्त किया। इस काल में अधिकांश चित्र सूती-वस्त्रों पर बनाए जाते थे।
इन चित्रों में ईरानी, भारतीय तथा यूरोपीयन शैलियों का सम्मिश्रण है किन्तु ईरानी शैली की प्रधानता होने के कारण इसे ईरानी कलम कहा गया। इस शैली को मुगल काल की प्रारम्भिक चित्रकला शैली कहा जा सकता है।
अकबर के काल में चित्रकला
अकबर के उदारवादी दृष्टिकोण के कारण अकबर के शासनकाल में चित्रकला की नई शैली विकसित हुई जो ईरानी और भारतीय शैली के सर्वोत्तम तत्त्वों का सम्मिश्रण थी। इस नवीन शैली में विदेशी तत्त्व भारतीय शैली में इस तरह घुल-मिल गये कि दोनों के पृथक् अस्तित्त्व का पत लगा पाना असम्भव हो गया और वह बिल्कुल भारतीय हो गई। अकबर ने चित्रकारी हेतु एक अलग विभाग स्थापित किया।
अबुल फजल ने आइने अकबरी में पन्द्रह प्रसिद्ध चित्रकारों का उल्लेख किया है जिनमें तेरह हिन्दू थे। दसवन्त, बसावन महेश, लाल मुकुन्द, सावलदास, अब्दुस्समद, सैय्यद अली आदि अकबर के दरबारी चित्रकार थे। रज्मनामा में दसवन्त के बनाए चित्र हैं।
मुगल चित्रकला के इतिहास में रज्मनामा को मील का पत्थर माना जाता है। दसवन्त के द्वारा बनाई गई अन्य कलाकृतियों में खानदाने-तैमूरिया और तूतीनामा शामिल हैं। बसावन अकबर के दरबार के मुख्य चित्रकारों में से एक था। बसावन को चित्रकला के सभी पक्षों में सिद्धहस्तता प्राप्त थी। एक कृशकाय घोड़े के साथ निर्जन क्षेत्र में भटकता हुआ मजनूं का चित्र बसावन की उत्कृष्ट कृति है।
जहाँगीर के काल में चित्रकला
जहाँगीर का शासनकाल भारतीय चित्रकला का स्वर्ण-काल था। जहाँगीर स्वयं अच्छा चित्रकार था। इस काल की चित्रकला में कई प्रयोग हुए। जहाँगीर ने अपनी आत्मकथा तुजुके जहाँगीरी में लिखा है कि कोई भी चित्र चाहे वह किसी जीवित चित्रकार द्वारा बनाया गया हो अथवा मृतक चित्रकार द्वारा, मैं चित्र को देखते ही बता सकता हूँ कि यह किसकी कृति है। यदि कोई चित्र विभिन्न चित्रकारों द्वारा बनाया गया है तो भी मैं उनके चेहरे अलग-अलग करके बता सकता हूँ कि कौन से अंग किस चित्रकार ने बनाएं हैं।
जहाँगीर ने हेरात के प्रसिद्ध चित्रकार आकारिजा के नेतृत्व में आगरा में एक चित्रशाला की स्थापना की। जहाँगीर के शासनकाल में शिकार, युद्ध और दरबारी दृश्यों, आकृति-चित्रण, पशुओं व फूलों आदि के चित्रांकन में विशेष उन्नति हुई। उस्ताद मंसूर और अबुल हसन इस काल के दो बड़े नाम थे. मंसूर पक्षी-विशेषज्ञ चित्रकार था जबकि अबुल हसन व्यक्ति-चित्र बनाने में निपुण था।
जहाँगीर ने मंसूर को नादिर-उल्-सर तथा हसन को नादिर-उल-जमा की उपाधि दी। मंसूर की उत्कृष्ट कृतियों में साइबेरियाई सारस तथा बंगाल का अनोखा पुष्प सम्मिलित हैं। फारूखबेग, बिसनदास, दौलत एवं मनोहर भी जहाँगीर कालीन प्रमुख चित्रकार थे। जहाँगीर की मृत्यु के साथ ही मुगल चित्रकला का विकास रुक गया।
शाहजहाँ के काल में चित्रकला
शाहजहाँ को चित्रकला में विशेष रुचि नहीं थी तो भी उसने चित्रकला को संरक्षण प्रदान किया। फकीर उल्ला, मीर हाशिम, अनूप, चित्रा, मुहम्मद नादिर, हुनर एवं मुरार आदि शाहजहांकालीन प्रमुख चित्रकार थे।
औरंगजेब के काल में चित्रकला
औरंगजेब ने मुगल दरबार से चित्रकारों, संगीतज्ञों, कला-मर्मज्ञों आदि को निकाल दिया। इन कलाकारों ने राजस्थान और पंजाब के राजाओं के यहाँ आश्रय प्राप्त किया जिससे वहाँ नवीन चित्रकला शैलियों का विकास संभव हो सका।