धूप तेज थी और जहाँ से हमने परमबनन मंदिर के लिए चलना आरम्भ किया था, वहाँ से परमबनन मंदिर के शिखर लगभग एक किलोमीटर दूर दिखाई दे रहे थे। जैसे-जैसे मंदिर के शिखर निकट आते गए, उनके चारों तरफ बिखरे हुए काले रंग के चौकोर एवं तराशे हुए सुगढ़ पत्थरों के विशाल ढेर हमारे सामने स्पष्ट होते गए। निकट जाने पर ज्ञात हुआ कि पत्थरों के इन ढेरों के नीचे मंदिरों के आधार दबे पड़े हैं। यहाँ लगे सूचना-पट्टों से ज्ञात हुआ कि इस मंदिर समूह का निर्माण नौवीं शताब्दी ईस्वी में हुआ था। उस समय 240 मंदिरों का निर्माण किया गया था। केन्द्रीय भाग में स्थित तीन मंदिर ‘त्रिमूर्ति मंदिर’ कहलाते हैं और ये शिव, विष्णु एवं ब्रह्मा को समर्पित हैं। इन त्रिमूर्ति भवनों के सामने इन देवताओं के वाहनों अर्थात् नन्दी, गरुड़ एवं हंस के ‘वाहन मंदिर’ हैं। त्रिमूर्ति मंदिरों एवं वाहन मंदिरों के बीच में उत्तर एवं दक्षिण की ओर एक-एक ‘आपित मंदिर’ है। इन मंदिरों के चार मुख्य द्वारों के भीतरी क्षेत्र में चार दिशाओं में एक-एक ‘केलिर मंदिर’ हैं तथा चारों कोनों पर एक-एक ‘पाटोक मंदिर’ हैं। मुख्य मंदिर योजना के चारों ओर चार पंक्तियों में 224 मंदिर स्थित हैं। इस प्रकार कुल 240 मंदिर बने हुए थे किंतु सोलहवीं शताब्दी ईस्वी के प्रबल भूकम्प में ये समस्त मंदिर गिर गए। लगभग 400 साल तक ये मंदिर खण्डहरों के रूप में स्थित रहे। मंदिर समूह के दूर-दूर तक फैले इन खण्डहरों को देखकर हमारी रुचि बढ़ती जा रही थी। खोज-बीन के पश्चात् जो इतिहास हमें ज्ञात हुआ वह किसी रहस्य और रोमांच भरी कहानी से कम नहीं था।
रहस्य और रोमांच की ओर
हम मंदिर की तरफ एक-एक कदम आगे बढ़ाते जा रहे थे। रहस्य और रोमांच से भरी एक दुनिया हमारी प्रतीक्षा कर रही थी। उस समय तक हमें अनुमान नहीं था कि हम क्या देखने जा रहे हैं! यदि मस्तिष्क में कुछ था तो केवल इतना ही कि यह इण्डोनेशिया द्वीप का सबसे बड़ा हिन्दू मंदिर है तथा भारत से बाहर स्थित हिन्दू मंदिरों में यह सबसे बड़ा है। हमें यह भी जानकारी थी कि इण्डोनेशिया के समस्त 17,508 द्वीपों पर स्थित किसी भी धर्म के मंदिरों में यह सबसे बड़ा है।
परमबनन मंदिर से विदा
समस्त मंदिरों को देखना हमारे लिए संभव नहीं था। इसलिए हम लगभग तीन घण्टे तक मंदिर परिसर में रहने के बाद लौट लिए। इस समय तक धूप काफी मंदी पड़ गई थी और आकाश में बादल भी दिखाई देने लगे थे। मि. अन्तो एक्जिट के पास ही खड़ा मिल गया। हम थके हुए थे, चाय पीने की इच्छा थी किंतु यहाँ दूध वाली चाय मिलना संभव नहीं था। अतः थकान उतारने के लिए नारियल पानी से अच्छा कोई विकल्प नहीं था।
प्लाओसान बौद्ध मंदिर
मि. अन्तो हमें परमबनन मंदिर जैसे ही खण्डहरों से युक्त एक और मंदिर परिसर में ले गया। पूछने पर ज्ञात हुआ कि यह प्लाओसान बौद्ध मंदिर है। यहाँ भी मंदिर परिसर में प्रवेश के लिए टिकट खरीदना आवश्यक था। थकान होने के कारण हमारे लिए भीतर जाकर मंदिरों को देख पाना अत्यंत कठिन था। इसलिए हमने बाहर सड़क पर खड़े रहकर मंदिर परिसर एवं उसमें दूर तक बिखरे पड़े पत्थरों के विशाल ढेरों एवं उनके बीच खड़े भग्न मंदिरों का अवलोकन किया।
आकाश में बादल घिर आए थे और बूंदा-बांदी आरम्भ हो गई थी। मंदिर के मुख्य द्वार के सामने एक महिला अंगीठी पर भुट्टे सेक रही थी। पूछने पर ज्ञात हुआ कि एक भुट्टा इण्डोनेशियाई मुद्रा में 15 हजार रुपए का तथा भारतीय मुद्रा में 75 रुपए का था। भारत में यह भुट्टा एक तिहाई मूल्य में उपलब्ध हो जाता है। इसलिए भुट्टे का विचार भी त्याग देना पड़ा। इसी बीच बरसात बहुत जोरों से आरम्भ हो गई थी। हम मि. अन्तो की गाड़ी में बैठकर अपने निवास की ओर चल पड़े जो यहाँ से लगभग 20 किलोमीटर दूर था किंतु इस समय तक कार्यालयों का अवकाश हो गया था और योग्यकार्ता की सड़कें वाहनों से ठसाठस भर गई थीं। इस कारण ट्रैफिक बहुत रेंग-रेंग कर सरक रहा था। घर पहुंचते-पहुंचते अंधेरा पूरी तरह घिर आया जबकि अभी मुश्किल से साढ़े छः बजे थे।
घर के बाहर मिस रोजोविता ने छोलदारी-नुमा एक छपरा बना रखा था जिसमें बैठकर लॉन तथा चारदीवारी के भीतर की वनस्पति एवं बारिश दोनों को देखने का आनंद लिया जा सकता था। हम यहीं बैठ गए। मधु और भानु चाय की तैयारियों में जुट गईं तथा मैंने और विजय ने मि. अंतों द्वारा आज किए गए व्यय का भुगतान किया तथा अगले दिन की कार्ययोजना निर्धारित की। पिताजी हमारे पास ही बैठ गए। थोड़ी देर में चाय बनकर आ गई। दिन भर की थकान के बाद बरसात के इस मौसम में गर्म चाय की चुस्कियां लेते हुए हमने मिस रोजोविता को इस आरामदेह घर के सामने इस आरामदेह छोलदारी बनाने के लिए मन ही मन धन्यवाद दिया। दीपा की शैतानियां अब भी बदस्तूर जारी थीं।