कांग्रेस में भारत विभाजन के प्रति सहमति
गांधीजी सहित लगभग समस्त कांग्रेसी नेता भारत विभाजन के विरुद्ध थे। राजाजी राजगोपालाचारी जैसे नेता तथा घनश्यामदास बिड़ला जैसे उद्योगपति, भारत की आजादी के मामले को उलझाये जाने से अच्छा यह समझते थे कि भारत का युक्तियुक्त आधार पर विभाजन कर दिया जाये। घनश्यामदास बिड़ला ने नेहरूजी के नाम एक पत्र लिखा कि- ‘साझे के व्यापार में अगर कोई साझेदार संतुष्ट नहीं हो तो उसे अलग होने का अधिकार मिलना ही चाहिये। विभाजन युक्तियुक्त अवश्य होना चाहिये लेकिन विभाजन का विरोध कैसे किया जा सकता है…….। अगर मैं मुसलमान होता तो पाकिस्तान न कभी मांगता, न कभी लेता। क्योंकि विभाजन के बाद इस्लामी भारत बहुत ही गरीब राज्य होगा जिसके पास न लोहा होगा न कोयला। यह तो मुसलमानों के सोचने की बात है।’
उन्हीं दिनों माउण्टबेटन की पत्नी एडविना ने भारत के साम्प्रदायिक दंगाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया। वह दंगों में मारे गये लोगों के शवों को देखकर हैरान रह गयी। एडविना ने दंगाग्रस्त क्षेत्रों से लौटकर अपने पति से कहा कि कांग्रेस कभी भी विभाजन स्वीकार नहीं करेगी किंतु यदि अँग्रेज जाति को करोड़ों लोगों की हत्या का आरोप अपने सिर पर नहीं लेना है तो आप जबर्दस्ती भारत का विभाजन कर दें तथा कांग्रेसी नेताओं को इसके लिये तैयार करें। माउण्टबेटन ने गांधी, नेहरू और पटेल से, भारत के विभाजन के लिये बात की। गांधीजी ने विभाजन को मानने से साफ इंकार कर दिया किंतु नेहरू और पटेल मान गये।
गांधीजी का रुख
गांधीजी किसी भी हालत में भारत का विभाजन नहीं चाहते थे। 3 मार्च 1947 को गांधीजी ने कहा कि भारत का विभाजन मेरे शव पर होगा किंतु पटेल और नेहरू ने भारत में चल रहे साम्प्रदायिक दंगों पर ध्यान केन्द्रित किया तथा भारत विभाजन की अनिवार्यता को स्वीकार कर लिया। माउण्टबेटन से मिलने के बाद गांधीजी ने नेहरू और पटेल से बात की। नेहरू और पटेल ने गांधीजी के प्रस्ताव का विरोध किया और गांधीजी से कहा कि वे अपना प्रस्ताव वापिस ले लें।
मौलाना अबुल कलाम आजाद का रुख
मौलाना अबुल कलाम आजाद कांग्रेस के अध्यक्ष थे। वे भारत विभाजन के प्रबल विरोधी थे। 2 अप्रेल 1947 को उन्होंने गांधीजी से भेंट की। उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि अब गांधीजी देश के विभाजन के विरोध में नहीं बोल रहे थे। मौलाना को यह देखकर और भी आश्चर्य हुआ कि गांधी, सरदार पटेल की दलीलें दोहरा रहे थे। गांधीजी को भी देश के विभाजन के लिये तैयार हुआ देखकर मौलाना अबुल कलाम ने गांधीजी के सामने प्रस्ताव रखा कि वर्तमान स्थिति को दो वर्ष और चलाया जाये क्योंकि वास्तविक शासन तो भारतीयों के हाथ में आ ही चुका है। वैधानिक रूप से सत्ता का हस्तांतरण यदि दो-तीन वर्ष के लिये रुक भी जाये तो कोई हानि नहीं होगी। इस बीच संभवतः मुस्लिम लीग का मत बदल जाये और वह देश के विभाजन की मांग छोड़ दे। गांधीजी ने मौलाना के सुझाव के प्रति उदासीनता दिखायी। गांधीजी ने घोषणा कर दी कि अब वे वायसराय के साथ किसी बातचीत में भाग नहीं लेंगे, सिर्फ कांग्रेस के मामलों में सलाह दिया करेंगे। गांधीजी दिल्ली छोड़कर फिर से बिहार चले गये जहाँ उन्हें साम्प्रदायिक सद्भाव के लिये कार्य करना था। मौलाना ने गांधीजी के विचारों में परिवर्तन के लिये सरदार पटेल को अधिक दोषी माना है।
माउण्टबेटन द्वारा जिन्ना को समझाने का प्रयास
माउण्टबेटन ने अप्रेल 1947 में देश के विभाजन के प्रश्न पर जिन्ना से छः बार बात की। माउण्टबेटन ने लिखा है- ‘देश का विभाजन करने पर जिन्ना इस कदर आमादा थे कि मेरे किसी शब्द ने उनके कानों में शायद प्रवेश ही न किया। हालांकि मैंने ऐसी हर चाल चली, जो मैं चल सकता था। ऐसी हर अपील मैंने की, जो मेरी कल्पना में आ सकती थी। पाकिस्तान को जन्म देने का सपना उन्हें घुन की तरह लग चुका था। मेरा कोई तर्क किसी काम न आया।’ जिन्ना ने माउण्टबेटन को वचन दिया कि यदि पाकिस्तान अलग कर दिया गया तो कोई हुल्लड़, कोई खून खराबा नहीं होगा।
भारत विभाजन का प्रस्ताव अथवा माउण्टबेटन योजना
मुस्लिम लीग के अड़ियल रवैये के कारण, माउण्टबेटन ने अपने चीफ ऑफ स्टाफ लार्ड इस्मे तथा जार्ज एबेल से भारत विभाजन का प्रस्ताव तैयार करवाया। इस योजना को माउण्टबेटन योजना तथा इस्मे योजना भी कहते हैं। इसे बनाने में केवल अँग्रेज अधिकारियों को लगाया गया। प्रत्येक हिंदुस्तानी यहाँ तक कि मेनन को भी इससे पूरी तरह अलग रखा गया क्योंकि वायसराय को आशंका थी कि मेनन के हिंदू होने के कारण मुसलमान आपत्ति करेंगे। वायसराय तथा उसके साथियों द्वारा देश के विभाजन की जो योजना बनायी गयी, उसमें पंजाब और बंगाल को पाकिस्तान में रखने के कारण एक ऐसे देश की कल्पना की गयी जिसके दो सिर होंगे। एक सिर पूरब में और एक सिर पश्चिम में। इनके बीच 970 मील का फासला होगा। एक सिर से दूसरे सिर तक पहुंचने के लिये समुद्र के रास्ते भारत की परिक्रमा करना अनिवार्य हो जायेगा जिसमें बीस दिन लगेंगे। यदि दोनों सिरों के बीच सीधी हवाई उड़ान भरनी हो तो चार इंजनों वाले हवाई जहाज की आवश्यकता होगी। प्रस्तावित पाकिस्तान जैसे गरीब राष्ट्र के लिये ऐसे हवाई जहाजों का खर्च वहन करना सरल नहीं होगा।
2 मई 1947 को लार्ड इस्मे तथा जार्ज एबेल भारत विभाजन का प्रस्ताव लेकर वायसराय के विशेष विमान से लंदन गये ताकि उस प्रस्ताव पर मंत्रिमंडल की सहमति प्राप्त की जा सके। इंगलैण्ड भेजने से पहले यह योजना किसी भी हिंदुस्तानी नेता अथवा हिंदुस्तानी अधिकारी को नहीं दिखायी गयी। उन्हें योजना का केवल ढांचा ही बताया गया था। क्योंकि माउण्टबेटन का विश्वास था कि उसने इस योजना में उन सब बातों को शामिल कर लिया है जो बातें नेताओं से हुए विचार विमर्श के दौरान सामने आयीं थीं। माउण्टबेटन ने एटली सरकार को अपनी ओर से विश्वास दिलाया कि जब भी यह योजना भारतीय नेताओं के समक्ष रखी जायेगी, वे इसे स्वीकार कर लेंगे।
इस्मे के साथ इंग्लैण्ड भेजी गयी विभाजन योजना कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों पर ही आधारित थी। इसमें कहा गया था कि पार्टी के नेताओं की सहमति के बिना ही एक तरफा तौर पर प्रदेशों को सत्ता हस्तांतरित कर देनी चाहिये और केन्द्र में मजबूत केंद्रीय सरकार के स्थान पर एक फैडरेशन होना चाहिये।
योजना में यह भी प्रस्तावित किया गया था कि किसी प्रदेश की जनता, भारत और पाकिस्तान दोनों में से किसी के भी साथ न मिलकर अपने प्रदेश को स्वतंत्र राज्य बना सकती है। ऐसा करने के पीछे माउण्टबेटन का तर्क यह था कि प्रजा पर न तो भारत थोपा जाये और न ही पाकिस्तान। प्रजा अपना निर्णय स्वयं करने के लिये पूर्ण स्वतंत्र रहे। जो प्रजा पाकिस्तान में मिलना चाहे, वह पाकिस्तान में मिले। जिसे भारत के साथ मिलना हो, वह भारत का अंग बने। जिसे दोनों से अलग रहना हो, वह सहर्ष अलग रहे। ऐसा संभवतः बंगाल की स्थिति को देखते हुए किया गया था। क्योंकि आबादी के अनुसार पूर्वी बंगाल को पाकिस्तान में तथा पश्चिमी बंगाल को भारत में शामिल होना था किंतु इससे बंगाल की अर्थव्यवस्था बिल्कुल चरमरा जाती। पूर्वी बंगाल का सारा व्यापार कलकत्ता में था और कलकत्ता के पटसन कारखाने जिन फसलों पर अधारित थे, उनका अधिकांश क्षेत्र पूर्वी बंगाल में केन्द्रित था। अतः विभाजन से बंगाल की अर्थव्यवस्था को गहरा धक्का लगना स्वाभाविक था।
जिन्ना की तरफ से आशंका
योजना को स्वीकृति के लिये लंदन भेज दिये जाने के बाद माउण्टबेटन को आशंका हुई कि कि जिन्ना छंटे हुए पाकिस्तान का विरोध करेगा। इसलिये वायसराय ने जिन्ना से निबटने के लिये एक आपात योजना भी तैयार की कि यदि जिन्ना ने अंतिम क्षण में मना कर दिया तो उस समय क्या किया जायेगा। इस आपात् योजना में मुख्यतः यह प्रावधान किया गया था कि चूंकि जिन्ना ने योजना को अस्वीकार कर दिया है इसलिये सत्ता वर्तमान सरकार को ही सौंपी जा रही है। क्योंकि प्रदेशों के आधार पर पाकिस्तान की मांग नहीं चल सकती इसलिये हम छंटे हुए पाकिस्तान तक पहुंच गये थे। यदि अब भी तीन वर्षों के भीतर मुस्लिम लीग को छंटा हुआ पाकिस्तान स्वीकार्य हो तो गवर्नर जनरल वह कानून पास कर सकेगा जिससे मुसलमानों के बहुल वाले क्षेत्रों में अलग सरकार बन जाये। तब तक वर्तमान सरकार ही देश का शासन संभालेगी।
गांधीजी द्वारा जिन्ना को समझाने का प्रयास
गांधीजी विभाजन के प्रस्ताव से सहमत नहीं हुए। उन्होंने वायसराय से कहा कि वे जिन्ना से भेंट करना चाहते हैं। वायसराय के प्रयास से 6 मई 1947 को नई दिल्ली में जिन्ना के निवास पर गांधीजी ने जिन्ना से भेंट की। उन दोनों के बीच भारत का वह नक्शा रखा गया जिसमें पाकिस्तान हरे रंग से दिखाया गया था। जिन्ना ने भारत विभाजन को अस्वीकार करने से मना कर दिया तथा इस भेंट के बाद एक परिपत्र जारी करके कहा- ‘मि. गांधी बंटवारे के सिद्धांत को नहीं मानते हैं। उनके लिये बंटवारा अनिवार्य नहीं है। जबकि मेरी दृष्टि में वह अनिवार्य है…… हम दोनों ने अपने-अपने क्षेत्रों में सांप्रदायिक शांति बनाये रखने का सरतोड़ प्रयास करने का संकल्प लिया है।’
औपनिवेशिक स्वतंत्रता का प्रस्ताव
वायसराय ने इस्मे के साथ जो योजना इंग्लैण्ड भिजवाई थी उसमें डोमिनियन स्टेटस की कोई बात नहीं की गई थी। इस्मे के इंगलैण्ड चले जाने के बाद वायसराय ने वी. पी. मेनन से इस सम्बन्ध में बात की। मेनन ने वायसराय को बताया कि लार्ड वेवेल के समय में पटेल इस शर्त पर औपनिवेशिक स्वतंत्रता स्वीकार करने के लिये सहमत थे कि इससे भारत को तत्काल आजादी मिल जायेगी। माउण्टबेटन को लगा कि वे एक अच्छा अवसर चूक गये। यदि यह प्रस्ताव माउण्टबेटन योजना में डाल दिया जाता तो न केवल ब्रिटिश सरकार से अपितु विपक्ष से भी भारत के विभाजन की योजना को सरलता से स्वीकृति मिल जाती।
औपनिवेशिक स्वतंत्रता को नेहरू की स्वीकृति
8 मई 1947 को पं. नेहरू, कृष्णामेनन के साथ शिमला आये। माउण्टबेटन तथा मेनन ने भारत को डामिनियन स्टेटस दिये जाने के सम्बन्ध में नेहरू से बात की। माउण्टबेटन ने नेहरू से कहा कि मुसलमानों के बहुमत वाले प्रदशों को हिंदुस्तान से अलग होने दिया जाये। फिर दो केंद्रीय सरकारों को सत्ता सौंपी जाये। दोनों के अपने-अपने गवर्नर जनरल हों। जब तक दोनों उपनिवेशों की विभिन्न विधान सभाओं द्वारा उनके विधान तैयार न हों, तब तक उनका विधान गवर्नमेंट ऑफ इण्डया एक्ट 1935 के अनुसार चले। पं. नेहरू ने इस प्रस्ताव पर सहमति प्रकट करते हुए कहा कि भारत के लोग शीघ्रातिशीघ्र अपना शासन संभालना चाहते हैं और देरी करने से भारत का विकास रुक जायेगा।
माउण्टबेटन योजना को स्वीकृति
जिस दिन शिमला में माउण्टबेटन तथा उनके सलाहकारों की, नेहरू तथा मेनन के साथ बैठक पूरी हुई उसी दिन अर्थात् 10 मई 1947 को लंदन से माउण्टबेटन योजना मंत्रिमंडल की स्वीकृति के साथ तार से वापस आ गयी। मि. एटली और उनके मंत्रिमण्डल की सलाह पर उसमें बहुत सारे संशोधन किये गये थे लेकिन मूल योजना ज्यों की त्यों थी। इस कारण वायसराय ने नेहरू और मेनन से की गयी वार्ता को अमल में न लाने का निश्चय त्याग कर अपने प्रेस सलाहकार कैम्पबेल जॉनसन को बुलाया और अखबारों में यह विज्ञप्ति प्रकाशित करवायी कि 17 मई को दिल्ली में एक महत्वपूर्ण बैठक होगी। इस बैठक में कांग्रेस से पटेल और नेहरू को, सिक्ख प्रतिनिधियों में से बलदेवसिंह को तथा मुस्लिम लीग से जिन्ना और लियाकत अली को बुलाया जायेगा। उस दिन वायसराय, नेताओं के सामने हिंदुस्तानियों के हाथों सत्ता सौंप देने की योजना पेश करेंगे जिसे ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति मिल चुकी है।
नेहरू द्वारा माउण्टबेटन योजना का विरोध
इंग्लैण्ड से जो योजना संशोधित होकर आयी थी उसे 17 मई तक किसी को नहीं दिखाया जाना चाहिये था किंतु वायसराय ने 10 मई की शाम को पं. नेहरू को योजना दिखाई। नहेरू ने इस योजना को अस्वीकार कर दिया। माउण्टबेटन योजना में एक ओर तो देशी रियासतों को अपनी मर्जी से भारत या पाक में मिलने अथवा स्वतंत्र रहने की छूट दे दी गयी थी तो दूसरी ओर ब्रिटिश प्रांतों को भी इन दोनों देशों से अलग रहकर कोई स्वतंत्र देश बना लेने की छूट दे दी गयी थी। इसमें प्रावधान किया गया था कि ब्रिटिश सरकार द्वारा पहले तो प्रांतों को सत्ता का हस्तांतरण कर दिया जाये तथा अँग्रेजों के भारत छोड़ देने के बाद प्रांतों का समूहों में ध्रुवीकरण किया जाये जो कि प्रत्येक प्रांत को अलग से तय करना था कि वे भारत में रहेंगे या पाकिस्तान में या स्वतंत्र देश के रूप में। यदि इस प्रस्ताव को मान लिया जाता तो भारत की दशा योरोप के बलकान प्रदेशों से भी अधिक गई गुजरी हो जाती।
भारत विभाजन योजना का पुनर्निर्माण
नेहरू के विरोध के कारण वायसराय ने 17 मई के लिये प्रस्तावित बैठक की तिथि बढ़ाकर 2 जून कर दी तथा प्रधानमंत्री एटली को तार भिजवाया कि आपके द्वारा स्वीकृत योजना को रद्द समझा जाये। संशोधित योजना भिजवायी जा रही है। वायसराय के निर्देश पर वी. पी. मेनन ने माउण्टबेटन योजना में संशोधन करके एक नई योजना तैयार की। इस योजना में समस्त ब्रिटिश प्रांतों को यह अधिकार दिया गया कि वे ये निर्णय लें कि उनके लिये संविधान निर्माण का काम वर्तमान संविधान निर्मात्री सभा द्वारा करवाया जाये अथवा अलग से संविधान निर्मात्री समिति गठित की जाये। अर्थात् उन्हें भारत या पाकिस्तान में से किसी एक को चुनने की छूट दी गई। पंजाब और बंगाल की विधानसभाओं को यह अधिकार दिया गया था कि वे यह भी निर्णय लें कि उनके प्रांतोें को साम्प्रदायिक आधार पर विभाजित किया जाये अथवा नहीं? इस योजना में देशी रियासातों के बारे में केवल इतना प्रस्तावित किया गया था कि ऊपर जिस निर्णय की घोषणा की गयी है, उसका सम्बन्ध ब्रिटिश भारत से है और भारतीय रियासतों के बारे में उनकी नीति वही रहेगी जिसका विवरण 22 मई 1946 के कैबिनेट मिशन के मैमोरेण्डम में दिया गया है।
संशोधित योजना को स्वीकृति
वायसराय ने मेनन द्वारा तैयार की गयी रिपोर्ट पर विचार करने के लिये अपने सहायक अधिकारियों की बैठक बुलाई। बंगाल के गर्वनर सर फ्रेडरिक को छोड़कर किसी ने कोई आपत्ति नहीं की। माउण्टबेटन ने संशोधित योजना को मंत्रिमण्डल की स्वीकृति के लिये 14 मई को स्वयं लंदन जाने का निश्चय किया। के. एम. मुंशी ने लिखा है- ‘मेनन ने देश की महान सेवा की है। उन्होंने न केवल सरदार के नेतृत्व में देश को एक किया है, बल्कि उससे पहले देश को भयानक संकट से भी बचाया है, जिसमें निश्चय ही भारत फंस जाता यदि मेनन इस्मे योजना में हस्तक्षेप न करते।’
माउण्टबेटन ने इंगलैण्ड पहुंचकर संशोधित योजना एटली के सामने रखी। एटली की सलाह पर माउण्टबेटन ने चर्चिल को योजना की जानकारी दी और यह भी बताया कि भारत के सामने गंभीर और डरावने गृहयुद्ध का खतरा है। भारत और पाकिस्तान दोनों देश, कॉमनवैल्थ की सदस्यता ग्रहण करने पर सहमत हैं। जब चर्चिल को यह ज्ञात हुआ कि भारत व पाकिस्तान दोनों ही कॉमनवैल्थ के सदस्य बनने को तैयार हैं तो चर्चिल ने भारत विभाजन की उस नयी योजना को स्वीकृति दे दी।
पूर्वी एवं पश्चिमी पाकिस्तान को जोड़ने के लिये कोरीडोर की मांग
जब माउण्टबेटन संशोधित योजना की स्वीकृति लेकर भारत आ गये तो अचानक जिन्ना ने मांग की कि उसे पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान को मिलाने के लिये हिंदुस्तान से होकर एक हजार मील का रास्ता चाहिये। जिन्ना की इस मांग पर कांग्रेस में तीखी प्रतिक्रिया हुई। माउण्टबेटन ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।
गांधीजी द्वारा विभाजन का पुनः विरोध
31 मई 1947 को अपनी शाम की प्रार्थना सभा में गांधीजी ने एक बार फिर भारत विभाजन के प्रति अपना विरोध दोहराया। उन्होंने कहा कि कांग्रेस, भारत विभाजन का विरोध करेगी, यदि भयानक उपद्रव का खतरा हो तो भी। यदि संपूर्ण भारत जल जाये तब भी। नेहरू, पटेल और राजगोपालाचारी जैसे नेता स्थिति की गंभीरता को समझ गये थे किंतु गांधीजी अब भी अति-आदर्शवाद के सागर में गहरे गोते लगा रहे थे। माईकल एडवर्ड्स ने लिखा है- ‘गांधीजी द्वारा इस समय पर विरोध क्यों किया गया? जबकि वे इससे पूर्व ही कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में अपनी सहमति दे चुके थे। ……..गांधीजी समझ नहीं पा रहे थे कि भारत में सिविल वार छिड़ जाने का पूरा खतरा बना हुआ था।’
2 जून की बैठक
2 जून 1947 को माउण्टबेटन ने कांग्रेस की ओर से नेहरू, पटेल तथा कांग्रेस अध्यक्ष आचार्य कृपलानी को, मुस्लिम लीग की ओर से लियाकत अली खान तथा रबनिस्तर को एवं साठ लाख सिखों का प्रतिनिधित्व करने वाले सरदार बलदेवसिंह को अपने निवास पर आमंत्रित किया और उन्हें इस योजना की प्रतिलिपियां सौंप दीं तथा उनसे इस योजना पर उनकी सहमति मांगी ताकि इस सहमति की घोषणा ऑल इण्डिया रेडियो के माध्यम से की जा सके तथा उसके बाद लंदन रेडियो से प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली द्वारा उसका अनुमोदन किया जा सके। कांग्रेस तथा सिक्ख प्रतिनिधियों ने देश के विभाजन के लिये अपनी सहमति माउण्टबेटन को दे दी किंतु जिन्ना ने यह कहकर सहमति देने से इंकार कर दिया कि मैं तब तक इस पर अपनी सहमति नहीं दे सकता जब तक कि मुस्लिम लीग की कौंसिल में विचार नहीं होता। इसके लिये एक हफ्ते का समय चाहिये। माउण्टबेटन ने 3 जून को उसकी सहमति प्राप्त की।
रेडियो पर घोषणा
3 जून 1947 को शाम सात बजे वायसराय तथा भारतीय नेताओं ने माउण्टबेटन योजना को स्वीकार कर लिये जाने तथा अँग्रेजों द्वारा भारत को शीघ्र ही दो नये देशों के रूप में स्वतंत्रता दिये जाने की घोषणा की। वायसराय ने कहा कि कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के बीच ऐसी किसी योजना पर समझौता हो पाना संभव नहीं हुआ है जिससे कि देश एक रह सके। इसलिये आजादी के साथ ही जनसंख्या के आधार पर देश का विभाजन हिंदुस्तान व पाकिस्तान के रूप में किया जायेगा।
नेहरू ने वायसराय की घोषणा का स्वागत करते हुए देशवासियों से अपील की कि वे इस योजना को शांतिपूर्वक स्वीकार कर लें। नेहरू ने कहा कि हम भारत की स्वतंत्रता बल प्रयोग या दबाव से प्राप्त नहीं कर रहे हैं। यदि देश का विभाजन हो भी जाता है तो कुछ दिनों पश्चात् दोनों भाग पुनः एक हो जायेंगे और फिर अखण्ड भारत की नींव और मजबूत हो जायेगी।
जिन्ना ने अपने भाषण में कहा कि यह हम लोगों के लिये सोचने की बात है कि जो योजना बर्तानिया सरकार सामने रख रही है, उसे हम लोग समझौते के रूप में स्वीकार कर लें। सिक्खों के नेता बलदेवसिंह ने कहा कि यह समझौता नहीं था, आखिरी सौदा था। इससे हर किसी को खुशी नहीं होती। सिक्खों को तो होती ही नहीं। फिर भी यह गुजारे लायक है हमें इसे मान लेना चाहिये।
गांधीजी द्वारा पुनः विरोध
3 जून को रेडियो पर इस योजना की स्वीकृति की घोषणा हो जाने के बाद गांधीजी, वायसराय से यह अपील करने के लिये दिल्ली लौट आये कि देश का बंटवारा न किया जाये। उन्होंने कहा कि कोई ये न कहे कि हिंदुस्तान के बंटवारे में गांधी का भी हाथ था किंतु जब गांधी वायसराय से मिलने गये तो उन्होंने वायसराय को लिखकर सूचित किया कि मौन व्रत होने के कारण मैं आज बोल नहीं सकता फिर कभी आपसे अवश्य चर्चा करना चाहूंगा।
4 जून को माउण्टबेटन को सूचना मिली कि गांधीजी आज शाम की प्रार्थना सभा में देशवासियों से अपील करेंगे कि वे विभाजन की योजना को अस्वीकार कर दें। इस पर माउण्टबेटन ने गांधीजी को बुलाया और उनसे कहा- ‘विभाजन की पूरी योजना आपके निर्देशानुसार बनायी गयी है कि विभाजन का निर्णय जनता को करना चाहिये न कि अँग्रेजों को। इस योजना में प्रावधान रखा गया है कि चुनावों द्वारा गठित प्रादेशिक समितियां इस योजना को स्वीकार अथवा अस्वीकार कर सकें। प्रादेशिक समिति को पूरा अधिकार होगा कि उसे पाकिस्तान के साथ रहना है या भारत के साथ। यदि देश भर की तमाम प्रादेशिक समितियां एकमत होकर कहती हैं कि हमें भारत के साथ रहना है तो देश का विभाजन अपने आप टल जायेगा किंतु यदि समितियां एकमत नहीं होतीं तो, चूंकि ये समितियां जनता ने चुनी हैं अतः हमें यही मानना पड़ेगा कि जनता की इच्छा अखण्ड भारत में रहने की नहीं है।’
स्वतंत्रता की तिथि की घोषणा
भारत विभाजन की योजना पर विस्तार से जानकारी देने के लिये माउण्टबेटन ने 4 जून को एक पत्रकार सम्मेलन बुलाया और उसमें भारतीय स्वतंत्रता की तिथि 15 अगस्त 1947 घोषित कर दी। 22 जून को ब्रिटिश सरकार ने भारत की आजादी के बिल का ड्राफ्ट तार द्वारा वायसराय को भेज दिया जिसमें भारत की आजादी की तिथि 15 अगस्त स्वीकार कर ली गयी। इतिहासकारों का अनुमान है कि 15 अगस्त की तिथि को इसलिये चुना गया क्योंकि उस दिन मित्र-राष्ट्रों के समक्ष जापान के आत्मसमर्पण की दूसरी वर्षगांठ थी।
कांग्रेस अधिवेशन में भारत विभाजन प्रस्ताव को स्वीकृति
14 जून 1947 को अखिल भारतीय कांग्रेस के अधिवेशन में देश के विभाजन का प्रस्ताव रखा गया। कांग्रेस के कई नेताओं ने इस प्रस्ताव का विरोध किया किंतु नेहरू, पटेल, गोविंद वल्लभ पंत तथा गांधीजी ने विभाजन के पक्ष में भाषण दिये। जब प्रस्ताव पर मतदान हुआ तो प्रस्ताव के पक्ष में 29 तथा विरोध में 157 मत आये। इस प्रस्ताव का विरोध सिंध से आये हुए हिन्दुओं ने भी किया। इस सम्मेलन में पटेल ने यहाँ तक कह दिया कि यदि हमने पाकिस्तान निर्माण की मांग नहीं मानी होती तो सारा देश ही पाकिस्तान बन जाता। हमारे पास तीन चौथाई भारत बच रहा है। उसे ही हम विकसित करेंगे तो यह एक बड़ा शक्तिशाली राज्य बन जायेगा।
भारत विभाजन पर प्रतिक्रयाएं
भारत विभाजन पर नेहरू का मानना था कि यदि लीग को जबर्दस्ती संघ में रखा गया तो भारत की कोई प्रगति अथवा योजना संभव नहीं हो सकेगी। न ही यह भारत की दीर्घावधि के हित के लिये भी प्रजातांत्रिक तथा वांछित होगा। नेहरू की दृष्टि में पाकिस्तान का निर्माण दो बुराइयों में से एक कम बुराई थी। माइकल ब्रीचर ने लिखा है कि नेहरू को यह भय था कि यदि कांग्रेस माउण्टबेटन की योजना को निरस्त कर देती तो ब्रिटिश सरकार पहले से भी अधिक हानिकारक निर्णय लागू करेगी।
14 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि में विधान निर्मात्री परिषद के समक्ष दिये गये इस भाषण में डा. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा- ‘यद्यपि हमारी उपलब्धि (स्वतंत्रता) हमारे बलिदान से हुई है परंतु यह उपलब्धि विश्व के घटनाचक्र के दबाव से भी हुई है। ब्रिटिश सरकार ने हमें स्वतंत्रता देकर अपनी परंपराओं और प्रजातंत्र के सिद्धांतों को निभाया है।’
जस्टिस मेहरचंद महाजन ने अपनी पुस्तक लुकिंग बैक में लिखा है- ‘कुछ लोग यह दावा करते हैं कि यदि जिन्ना की बातों पर पहले ही गंभीरता पूर्वक विचार कर लिया जाता तो देश का विभाजन न होता। पर मैं निश्चय के साथ कह सकता हूँ कि कांग्रेस जितना अधिक सन् 1921 से 1945 तक मुसलमानों के हो हल्ले को सुनती रही, उतना ही अधिक हमारे लिये बुरा होता गया। देश का विभाजन सन् 1909 में मुसलमानों को महत्त्व मिलने से अनिवार्य हो गया था।‘
गांधीजी भारत विभाजन के प्रबल विरोधी थे। फिर भी उन्होंने माउन्टबेटन योजना को स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहा- ‘मैं आरम्भ से ही विभाजन का विरोधी रहा हूँ किन्तु अब परिस्थिति ऐसी उत्पन्न हो गई है कि दूसरा कोई रास्ता नहीं है।’
भारत विभाजन के लिए उत्तरदायी परिस्थितियाँ
भारत विभाजन के लिये निम्नलिखित परिस्थितियाँ उत्तरदायी थीं-
(1.) सीधी कार्यवाही: मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान प्राप्त करने के लिए सीधी कार्यवाही करके हजारों निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। जिन प्रान्तों में मुस्लिम लीग अथवा उसके सहयोगी दलों की सरकारें थीं, वहाँ की प्रान्तीय सरकारें स्वयं उपद्रवकारियों की सहायता कर रही थीं और वहाँ की पुलिस भी लूट-खसोट में सम्मिलित थी। इससे आम भारतीय को लगने लगा था कि मुस्लिम लीग की मांग को पूरा किये बिना यदि आजादी ली गई तो वह अत्यंत भयावह होगी। देश में तेजी से बदलते जनमानस की अनदेखी करना गांधीजी के लिये संभव नहीं रह गया था। भारत की अन्तरिम सरकार ने इन दंगों को रोकने का प्रयास किया परन्तु प्रतिरक्षा मंत्री सरदार बलदेवसिंह कुछ भी नहीं कर सके क्योंकि सेना और पुलिस पर अब भी अँग्रेजों का नियंत्रण था। ये दंगे निश्चित रूप से योजनाबद्ध थे और इनका एकमात्र उद्देश्य कांग्रेस को आतंकित करके विभाजन का प्रस्ताव स्वीकार कराना था। यदि अँग्रेज चाहते तो इन दंगों को रोक सकते थे किन्तु उन्होंने भी जानबूझकर ऐसा नहीं किया क्योंकि वे सिद्ध करना चाहते थे कि यदि भारत को स्वतंत्रता दी जाती है तो यहाँ के लोग आपस में ही कट मरेंगे। इसलिये गांधीजी तथा कांग्रेस के समक्ष विभाजन की अनिवार्यता को स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं बचा।
(2.) पंजाब में दंगे: माउण्टबेटन के आने से ठीक पहले रावलपिंडी में सिक्खों का कत्ल हो चुका था। सिक्ख, मुसलमानों के प्रति अपनी घृणा को खुलकर व्यक्त करते थे। मुसलमान भी खुल्लमखुल्ला सिक्खों की बुराई करते थे। सिक्खों की दलील थी, जब आजादी आयेगी तो हम लोगों का क्या होगा? मार्च 1947 में मास्टर तारासिंह ने पाकिस्तान मुर्दाबाद का नारा लगाते हुए मुस्लिम लीग के झण्डे को नीचे गिरा दिया। मुसलमानों ने, लीग के झण्डे के अपमान का बदला लेने के लिये हथियार उठाकर निकलने में कोई देरी नहीं की। इसके तुरंत बाद ही दंगे भड़क उठे। 3000 लोग मारे गये जिनमें अधिकांश सिक्ख थे।
(3.) अँग्रेजों के षड़यन्त्र: 1757 ई. में प्लासी युद्ध जीतने से लेकर 1885 ई. में कांग्रेस की स्थापना होने तक अँग्रेजों की सहानुभूति हिन्दुओं के साथ थी किंतु जब कांग्रेस ने देश की आजादी का आंदोलन चलाया तो अँग्रेज, हिन्दुओं को छोड़कर, मुस्लिम आंदोलनों के साथ हो गये। उन्होंने अलगाववादी मुस्लिम नेताओं को विधान मण्डलों में अलग प्रतिनिधित्व की मांग करने के लिये उकसाया तथा मुसलमानों को वास्तविक जनसंख्या के अनुपात से भी अधिक स्थान दिये। सुधार अधिनियमों में साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली को स्थान देकर हिन्दू-मुसलमानों के वैमनस्य को और अधिक बढ़ावा दिया गया। जब मुस्लिम लीग की स्थापना हो गई तो अँग्रेजों ने मुस्लिम लीग की पृथक् राज्य की मांग को पर्दे के पीछे से समर्थन दिया। एक ओर तो देश में हो रहे साम्प्रदायिक दंगों के कारण आम भारतीय असुरक्षित होता जा रहा था और दूसरी ओर अँग्रेजों द्वारा पुलिस, प्रतिरक्षा, सूचना और यातायात विभाग के महत्त्वपूर्ण पदों पर मुसलमानों को लगाया जा रहा था। मुस्लिम लीग के समर्थक गैर-कानूनी रूप से गोला-बारूद और हथियार एकत्रित कर रहे थे।
(4.) अविलम्ब स्वतंत्रता की लालसा: माइकल ब्रीचर जैसे कई अँग्रेज इतिहासकारों का आरोप है कि कांग्रेस ने अविलम्ब स्वतंत्रता प्राप्त करने की लालसा में, देश का विभाजन स्वीकार कर लिया। अँग्रेज सदैव मुस्लिम लीग का पक्ष लेते रहे और उसकी आड़ में भारत की स्वतंत्रता को भी आगे खिसकाते रहे। लॉर्ड वैवेल मुस्लिम लीग के बिना, संविधान सभा बुलाने को तैयार नहीं हुआ। उसने मुस्लिम लीग को अन्तरिम सरकार में सम्मिलित करने के लिए भारत सचिव के निर्देशों की भी अवहेलना की। मुस्लिम लीग के षड़यंत्र एवं विरोध से उत्साहित होकर माउन्टबेटन ने कहा कि यदि ऐसी परिस्थिति में हिन्दुस्तान की पार्टियां हमें ठहरने के लिए कहेंगी, तो हमें ठहरना पड़ेगा। इससे कांग्रेस को विश्वास हो गया था कि यदि अंगेज शीघ्रातिशीघ्र भारत को स्वतंत्र कर भारत से चले नहीं जाते तो भारत अनेक छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट जायेगा और फिर उन्हें संगठित करना बहुत कठिन होगा। अन्तरिम सरकार में मुस्लिम लीग के मंत्रियों वाले विभागों में चपरासी से लेकर समस्त उच्च पदों पर मुसलमानों को नियुक्त किया जा रहा था और उन विभागों में पहले से नियुक्त हिन्दुओं को वहाँ से हटाया जा रहा था अथवा अन्य विभागों में भेजा जा रहा था। इसलिए सरदार पटेल ने कहा था कि- ‘यदि पाकिस्तान स्वीकार नहीं किया जाता तो प्रत्येक दफ्तर में पाकिस्तान की एक इकाई स्थापित हो जाती।’ कांग्रेस की बैठक में माउन्टबेटन योजना पर विचार प्रकट करते हुए गोविन्द वल्लभ पंत ने कहा था- ‘3 जून, 1947 की योजना की स्वीकृति ही स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए एकमात्र मार्ग है…….आज कांग्रेस को या तो इस योजना को स्वीकार करना है अथवा आत्महत्या करनी है।’
(5.) कांग्रेस की त्रुटिपूर्ण नीति: मुस्लिम लीग अपने जन्म के समय से ही कांग्रेस का प्रबल विरोध कर रही थी। उसका नेता मुहम्मद अली जिन्ना खुले मंचों से यहाँ तक कि कांग्रेस के मंचों से भी गांधीजी के प्रति अभद्र भाषा का प्रयोग करता था। जबकि दूसरी ओर गांधीजी को दृढ़ विश्वास था कि उनकी अहिंसा और क्षमा का मुस्लिम लीग पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा और मुस्लिम लीग भारत विभाजन की मांग छोड़ देगी। मुस्लिम लीग ने कांग्रेस एवं गांधीजी की सदाशयता का उलटा अर्थ लगाया। मुस्लिम लीग की पक्की धारणा थी कि उसके सहयोग एवं समर्थन के बिना भारत की राजनीतिक समस्या हल नहीं हो सकती। 1916 ई. में कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के लखनऊ समझौते में कांग्रेस ने मुसलमानों के पृथक् निर्वाचन मण्डल की मांग को स्वीकार कर लिया था। यह कांग्रेस की महान् भूल थी। सी. आर. फार्मूले में पाकिस्तान की मांग काफी सीमा तक मान ली गई और इस फार्मूले के सम्बन्ध में बातचीत करने के लिए गांधीजी, जिन्ना के पीछे भागते रहे। 14 जून 1947 को कांग्रेस कमेटी की बैठक में पं. जवाहरलाल नेहरू को कहना पड़ा- ‘कांग्रेस भारतीय संघ में किसी भी इकाई को बलपूर्वक रखने के विरुद्ध रही है।’
सरदार पटेल के भाषणों से भी इस बात को समर्थन मिलता रहा। अतः जिन्ना को यह समझते देर नहीं लगी कि यदि थोड़ा और आतंकवादी दबाव डाला जाये तो कांग्रेस विवश होकर पाकिस्तान की मांग स्वीकार कर लेगी। मुहम्मद अली जिन्ना तथा उसकी मुस्लिम लीग को अनावश्यक महत्त्व देना और उसके पीछे भागना, कांग्रेस की सबसे बड़ी गलती रही जिसका अंतिम परिणाम भारत विभाजन के रूप में हुआ।
(6.) सशक्त भारत की इच्छा: मुस्लिम लीग, केन्द्र सरकार को शक्तिशाली नहीं देखना चाहती थी। इसलिए कैबिनेट मिशन ने मुस्लिम लीग की सुविधा को ध्यान में रखते हुए एक निर्बल केन्द्र का गठन किया। निर्बल केन्द्र कभी भी शक्तिशाली राष्ट्र नहीं बना सकता था। अखण्ड भारत के लिए मुस्लिम लीग से समझौता करने का एक ही अर्थ होता- सदैव के लिये निर्बल एवं शक्तिहीन भारत का निर्माण। कांग्रेस के अधिकांश नेता मुस्लिम लीग की हिंसात्मक प्रवृत्ति से तंग आ चुके थे। उन्होंने अनुभव किया कि मुस्लिम लीग के रहते, भारत कभी अखण्ड नहीं रह सकेगा। सरदार पटेल आदि नेताओं को स्पष्ट हो गया था कि जितना भी भारत हिन्दुओं के पास बच रहा है, उसे ले लिया जाये अन्यथा पूरा भारत हाथ से निकल जायेगा।
इसीलिये सरदार पटेल ने अपने वक्तव्य में कहा- ‘भारत को मजबूत और सुरक्षित करने का यही तरीका है कि शेष भारत को संगठित किया जाये। …….बंटवारे के बाद हम कम से कम 75 या 80 प्रतिशत भाग को शक्तिशाली बना सकते हैं, शेष को मुस्लिम लीग बना सकती है।’
आजादी के बाद एक अवसर पर नेहरू ने कहा- ‘यदि हमें आजादी मिल भी जाती; तो भारत निस्सन्देह निर्बल रहता जिसमें इकाइयों के पास बहुत अधिक शक्तियां रहतीं और संयुक्त भारत में सदैव कलह और झगड़े रहते। इसलिए हमने देश का बंटवारा स्वीकार कर लिया ताकि हम भारत को शक्तिशाली बना सकें। जब दूसरे (मुस्लिम लीगी मुसलमान) हमारे साथ रहना ही नहीं चाहते तो हम उन्हें क्यों और कैसे मजबूर कर सकते थे?’
(7.) जिन्ना की हठधर्मी: भारत के राष्ट्रवादी नेताओं का विचार था कि हमारा संघर्ष मुख्य रूप से अँग्रेजों से है। इसलिए कांग्रेसी नेता, जिन्ना से बातचीत करने को सदैव तत्पर रहते थे। जिन्ना ने कांग्रेस की इस प्रवृत्ति का अनुचित लाभ उठाया। जिन्ना की हठधर्मी के कारण गोलमेज सम्मेलन और वैवेल योजना असफल हो गयी और साम्प्रदायिक समस्या का कोई हल नहीं निकल सका। वह हर समय कांग्रेस को एक हिन्दू संस्था सिद्ध करने का प्रयास करता था और कांग्रेस के राष्ट्रीय दल होने के दावे को नकारता था। 1937 ई. के चुनावों के बाद जिन प्रान्तों में कांग्रेस की सरकारें बनीं, जिन्ना उन प्रांतीय सरकारों पर लगातार मनगढ़ंत आरोप लगाकर उन्हें मुसलमानों पर अत्याचार करने वाली सरकारें बताता रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ होने पर जब कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों ने त्यागपत्र दिये तो जिन्ना ने मुक्ति दिवस मनाया। ऐसी परिस्थिति में सरदार पटेल तथा अन्य कांग्रेसी नेता चाहते थे कि गांधीजी जिन्ना को महत्त्व देना बंद करें किंतु गांधीजी हर कीमत पर जिन्ना को प्रसन्न करना चाहते थे ताकि देश का बंटवारा न हो। गांधीजी की इस प्रवृत्ति से जिन्ना की हठधर्मी बढ़ती गई। उसने पाकिस्तान की प्राप्ति के लिए देश भर में साम्प्रदायकि दंगे फैला दिये और हजारों निर्दोष लोगों की हत्याएं करवाईं। पाकिस्तान प्राप्त करके भी वह शान्त नहीं हुआ। उसने पाकिस्तान वाले क्षेत्रों से हिन्दू जनसंख्या को भारत में लेने की मांग की। जब उसकी यह मांग नहीं मानी गई तो उसने मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में हिन्दुओं पर हमले करवाये। हजारों हिन्दू मार डाले गये। लाखों लोगों को पलायन करना पड़ा। मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान वाले क्षेत्रों में रह रहे हिन्दुओं को बलपूर्वक वहाँ से निकाल दिया गया। जिन्ना को प्रोत्साहित करने में अँग्रेजों ने पूरा सहयोग दिया।
(8.) अन्तरिम सरकार की असफलता: मुस्लिम लीग के सदस्य अन्तरिम सरकार में कांग्रेसी मन्त्रियों के लिए सिरदर्द बन गये। वे कोई काम होने ही नहीं देते थे। इससे सरकार पंगु बन गई थी। मुस्लिम लीग द्वारा सरकार के हर काम में रोड़े अटकाने की प्रवृत्ति से खिन्न होकर जवाहरलाल नेहरू ने वक्तव्य दिया- ‘हम सिर-दर्द से छुटकारा पाने के लिए सिर कटवाने को तैयार हो गये।’ सरदार पटेल ने इस स्थिति से छुटकारा पाने के लिये जिन्ना के भारत विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार करने की अनिवार्यता बताते हुए वक्तव्य दिया कि- ‘यदि शरीर का एक भाग खराब हो जाये तो उसको शीघ्र हटाना ठीक है, ताकि सारे शरीर में जहर न फैले। मैं मुस्लिम लीग से छुटकारा पाने के लिए भारत का कुछ भाग देने के लिए तैयार हूँ।’ आजादी प्राप्त करने के बाद नवम्बर 1947 में सरदार पटेल ने नागपुर में वक्तव्य दिया- ‘जब अन्तरिम सरकार में आने के बाद मुझे यह पूर्ण अनुभव हो गया कि राजनीतिक विभाग के षड़यंत्रों द्वारा भारत के हितों को बड़ी हानि पहुँच रही है तो मुझे विश्वास हो गया कि जितनी जल्दी हम अँग्रेजों से छुटकारा पा लें उतना ही अच्छा है…..मैंने उस समय महसूस किया कि भारत को मजबूत और सुरक्षित करने का यह तरीका है कि शेष भारत को संगठित किया जाये।…….हम उस समय ऐसी अवस्था पर पहुँच गये थे कि यदि हम देश का विभाजन न मानते तो सब-कुछ हमारे हाथ से चला जाता।’
(9.) माउन्टबेटन का प्रभाव: एक ओर तो गांधीजी भारत विभाजन के लिये तैयार नहीं थे और दूसरी ओर पूरा देश साम्प्रदायिक दंगों के कारण रक्त की नदी में गोते लगा रहा था। माउन्टबेटन ने अनुभव किया कि यदि ब्रिटेन, भारतीय उपमहाद्वीप में भयानक रक्तपात के कलंक से बचना चाहता है तो उसे तुरंत भारत को आजाद कर देना चाहिये। यही कारण था कि प्रधानमंत्री एटली ने भारत को स्वतंत्र करने की अंतिम तिथि 20 जून 1948 निर्धारित की थी किंतु माउण्टबेटन ने उसे 10 माह पहले खिसकाकर 15 अगस्त 1947 कर दिया। अब कांग्रेस के समक्ष केवल दो विकल्प थे- अखण्ड भारत के लिये साम्प्रदायिक दंगों का सामना करे अथवा लाखों हिन्दुओं की जान बचाने के लिये पाकिस्तान को स्वीकार कर ले। माउण्टबेटन ने कांग्रेसी नेताओं को समझाया कि अखण्ड भारत में मुस्लिम लीग कभी शान्ति और व्यवस्था नहीं रहने देगी। देश सदैव निर्बल रहेगा। जब कोई सम्प्रदाय, भारत में रहना ही नहीं चाहता तो उसे इसके लिए कैसे विवश किया जा सकता है। नेहरू और पटेल तो पहले से ही यह अनुभव कर रहे थे और वक्तव्य भी दे रहे थे। जब उन्होंने देखा कि माउण्टबेटन भी इसके लिये तैयार हैं तो उन्होंने भारत विभाजन को स्वीकार कर लिया।
(10.) मुसलमान जनता में स्थिति को समझने की असमर्थता: जिन्ना तथा उसके अनुयायियों ने अपने समर्थन में ऐसे तर्क जुटा लिये जिनके आधार पर वे एक अलग राष्ट्र मांग सकें तथा मनमाने ढंग से मुस्लिम जनता पर शासन कर सकें। भारत के बहुसंख्य मुसलमान, अलगाववादी मुस्लिम नेताओं के षड़यत्र को नहीं समझ पाये। यह एक आश्चर्य की ही बात थी कि जिन मुस्लिम नेताओं ने जिस गरीब मुसलमान जनता के नाम पर साम्प्रदायिकता की समस्या को उभारा, वे अच्छी तरह जानते थे कि उस गरीब मुसलमान जनता को भारत में रहकर, देश की बहुसंख्य जनता के साथ हिल-मिल कर आर्थिक, शैक्षणिक एवं राजनैतिक उन्नति के अधिक अवसर मिलेंगे जबकि वे एक नया राष्ट्र बनाकर गरीब मुसलमान जनता को और भी अधिक गरीब राष्ट्र का नागरिक बना देंगे। मुस्लिम लीगी नेताओं की इस विभाजनकारी मानसिकता का अँग्रेजों ने भरपूर लाभ उठाया और इस समस्या को कभी सुलझने नहीं दिया। जिन्ना और उनके साथी यह भी जानते थे कि वे भले ही अलग देश का निर्माण कर लें किंतु वे भारत की समस्त मुस्लिम जनसंख्या को पाकिस्तान नहीं ले जा सकेंगे। इससे स्पष्ट है कि जिन्ना और उसके अनुयायी अपने लिये एक अलग देश चाहते थे, न कि भारत के समस्त मुसलमानों के लिये किंतु भोली-भाली निर्धन मुस्लिम जनसंख्या नेताओं के इस षड़यंत्र को नहीं समझ सकी।
भारत के विभाजन की प्रक्रिया
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947
भारत को स्वतंत्रता देने के लिये ब्रिटिश संसद में भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 पारित किया गया। 18 जुलाई 1947 को इंगलैण्ड के राजा ने इसे स्वीकृति दे दी। इस एक्ट के अनुसार भारत की आजादी के साथ ही दो स्वतंत्र देश भारत एवं पाकिस्तान के नाम से अस्तित्व में आने थे। मुस्लिम बहुल आबादी वाले ब्रिटिश प्रांत, पाकिस्तान में ; तथा हिन्दू बहुल वाले ब्रिटिश प्रांत, भारत में सम्मिलित किये जाने थे। बंगाल एवं पंजाब प्रांतों का विभाजन करके उन प्रांतों के मुस्लिम बहुल क्षेत्र पाकिस्तान में सम्मिलित किये जाने थे। इस अधिनियम की धारा 8 के अनुसार भारत के 567 देशी राज्यों पर से ब्रिटिश सरकार की परमोच्चता समाप्त हो जानी थी तथा यह पुनः देशी राज्यों को हस्तांतरित कर दी जानी थी। इस कारण देशी राज्य अपनी इच्छानुसार भारत अथवा पाकिस्तान में से किसी भी देश में सम्मिलित होने अथवा पृथक अस्तित्व बनाये रखने अथवा पृथक समूहों का गठन करने के लिये स्वतंत्र थे।
उलटी तिथि का कलैण्डर
जब कांग्रेस ने पाकिस्तान की मांग को स्वीकार कर लिया तो लार्ड माउण्टबेटन ने भारत के भौतिक विभाजन का कार्य करना प्रारंभ किया। राज्य कर्मचारियों को विकल्प दिया गया कि वे भारत अथवा पाकिस्तान की सेवा में रह सकते हैं। 4 जून को माउण्टबेटन ने पत्रकारों के समक्ष भारत की आजादी की तिथि घोषित की। उस दिन 15 अगस्त आने में 73 दिन बाकी थे। माउण्टबेटन ने कर्मचारियों को सावधान और चुस्त रखने के लिये 73 पृष्ठों का एक कलैण्डर छपवाया जिसके हर पन्ने पर ठीक मध्य में, लाल घेरे में यह छपा हुआ था कि आज के दिन 15 अगस्त आने में कितने दिन शेष रह गये हैं। प्रत्येक दिन इस कलैण्डर का एक पन्ना फाड़ा जाता था।
फौज का विभाजन
1857 के गदर के पश्चात् अँग्रेजों ने भारतीय फौज का गठन इस प्रकार किया था कि प्रत्येक टुकड़ी में हिंदू, मुस्लिम तथा सिख सैनिक रहें ताकि सांप्रदायिक दंगों की स्थिति में फौज की निष्प्क्षता बनी रहे। देश की आजादी से पहले फौज के प्रधान की हैसियत से फौज के विभाजन का काम फील्ड मार्शल आचिनलेक को सौंपा गया। आचिनलेक तब तक फौज का विभाजन नहीं करना चाहते थे जब तक कि दोनों देशों का भली-भांति विभाजन नहीं हो जाये और जनसंख्या की अदला-बदली पूरी नहीं हो जाये किंतु नेहरू इस बात पर अड़े गये कि 15 अगस्त को आजादी मिलने का अर्थ है कि देश की अपनी सेना भी उसी दिन देश को तैयार मिले। अतः माउण्टबेटन ने आचिनलेक को निर्देश दिये कि वे सेना के विभाजन का काम 15 अगस्त से पहले पूरा कर लें।
आचिनलेक का मानना था कि देश की आजादी की घोषणा के बाद अँग्रेजों का कत्लेआम होगा जिससे निबटने के लिये 1 जनवरी 1948 तक ब्रिटिश फौज भारत में रहनी चाहिये तथा भारतीय एवं पाकिस्तानी फौजों को कुछ समय तक अँग्रेजों के कमाण्ड में ही रखना चाहिये किंतु माउण्टबेटन ने यह तर्क देकर आचिनलेक के सुझाव को मानने से इन्कार कर दिया कि आजादी के बाद अँग्रेजों व अन्य विदेशी नागरिकों की रक्षा का भार स्वतंत्र होने वाले दोनों देशों पर रहेगा।
आचिनलेक ने फौज के विभाजन की जो योजना बनायी, उसमें सैनिकों को स्वेच्छा के आधार पर किसी भी देश की फौज में शामिल होने का अधिकार दिया गया किंतु जो मुस्लिम सैनिक पाकिस्तानी क्षेत्र के रहने वाले थे, उन्हें अनिवार्य रूप से पाकिस्तानी सेना में तथा जो गैर मुस्लिम सैनिक हिंदुस्तानी क्षेत्र के रहने वाले थे उन्हें अनिवार्य रूप से हिंदुस्तानी फौज में सम्मिलित होने के लिये कहा गया। आचिनलेक से रेडियो पर सेना के विभाजन की घोषणा करवायी गयी। 6 अगस्त 1947 को लाल किले में भावी भारतीय सेना के अधिकारियों ने, पाकिस्तान जाने वाले सैन्य अधिकारियों को विदाई पार्टी दी। इस अवसर पर भारतीय सेना की ओर से जनरल करिअप्पा ने तथा पाकिस्तानी फौज की ओर से ब्रिगेडियर रजा ने विदाई भाषण दिये। इस अवर पर पं. नेहरू तथा सरदार बलदेवसिंह भी उपस्थित थे।
भारत में फौजी केन्द्र रखे जाने का प्रस्ताव
भारत की आजादी के बिल का जो प्रारूप ब्रिटिश सरकार ने वायसराय को भिजवाया था उसमें ब्रिटिश सरकार द्वारा लगातार कई संशोधन किये गये। उसमें एक संशोधन यह भी था कि भारत की सत्ता सौंप देने के बाद भी ब्रिटिश सरकार को भारत में एक सैनिक केंद्र रखने का अधिकार होगा। मेनन की कड़ी आपत्ति पर इस संशोधन को निकाल दिया गया।
चांदनी चौक में भीड़
लगभग 60 हजार अँग्रेजों के लिये भारत छोड़ने का दिन निकट आता जा रहा था। इनमें कोई सिपाही था तो कोई आई.सी. एस. अधिकारी, कोई पुलिस इंस्पेक्टर था तो कोई रेलवे इंजीनियर, कोई वेतन अधिकारी था तो कोई संचार लिपिक। दिल्ली के चांदनी चौक में भारत छोड़ रहे गोरों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। वे रेफ्रिजिरेटर या कार के बदले कालीन, हाथी-दांत, सोने-चांदी की वस्तुएं खरीद रहे थे। शेर की खाल और मसाला भरे हुए जानवरों की खूब मांग रही। पोलो खेलने के काम आने वाले घोड़े भी बड़ी संख्या में बिके। कुछ खिलाड़ियों ने तो अपने घोड़ों को इसलिये गोली मार दी कि वे नहीं चाहते थे कि उनके उम्दा घोड़े बग्घियों अथवा तांगों में जुतें।
विभाजन कौंसिल का गठन
विभाजन का काम दक्षता से निबटाने के लिये वायसराय की अध्यक्षता में एक विभाजन कौंसिल का गठन किया गया। इस कौंसिल में भारत के प्रतिनिधि के रूप में एच. एम. पटेल तथा पाकिस्तान के प्रतिनिधि के रूप में चौधरी मोहम्मद अली को रखा गया। इस समिति की सहायता के लिये विभिन्न प्रकार की बीस समितियां और उपसमितियां गठित की गयीं जिनमें लगभग 100 उच्च अधिकारियों की सेवाएं ली गयीं। इन समितियों का काम विभिन्न प्रकार के प्रस्ताव तैयार करके अनुमोदन के लिये विभाजन कौंसिल के पास भेजना था।
विभाजन कौंसिल द्वारा बैंकों, सरकारी विभागों तथा पोस्ट ऑफिसों में रखे हुए रुपयों, सामान और फर्नीचर के बंटवारे हेतु निर्णय लिये गये। बंटवारे में तय किया गया कि पाकिस्तान को बैंकों में रखी नकदी और स्टर्लिंग शेष का 17.5 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त होगा। पाकिस्तान को भारत के राष्ट्रीय कर्ज का 17.5 प्रतिशत हिस्सा चुकाना पड़ेगा। देश के विशाल सरकारी तंत्र में जो कुछ भी स्थानानंतरण द्वारा हटाया जा सकता है, उसका 80 प्रतिशत भारत को एवं 20 प्रतिशत पाकिस्तान को दिया जाये। देश में 18 हजार 77 मील लम्बी सड़कें तथा 26 हजार 421 मील रेल की पटरियां थीं। इनमें से 4 हजार 913 मील सड़कें तथा 7 हजार 112 मील रेल पटरियां पाकिस्तान के हिस्से में गईं। वायसराय की सफेद सुनहरी ट्रेन भारत के हिस्से में आयी उसके बदले में भारतीय सेना के कमाण्डर इन चीफ तथा पंजाब के गर्वनर की सभी कारें पकिस्तान को दे दी गयीं। वायसराय के पास सोने के पतरों वाली छः तथा चांदी के पतरों वाली छः बग्घियां थीं। इनमें से सोने के पतरों वाली बग्घियां भारत के हिस्से में तथा चांदी के पतरों वाली बग्घियां पाकिस्तान के हिस्से में आयीं।
राजकीय सेवाओं का विभाजन करना तय किया गया। ब्रिटिश मूल के अधिकारियों व कर्मचारियों को मुआवजा देना तय किया गया। जिस समय देश आजाद हुआ उस समय इंगलैण्ड पर भारत के 500 अरब डॉलर बकाया निकलते थे। यह कर्ज द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान चढ़ा था।
कर्मचारियों के लिये विशेष रेल
पाकिस्तान जाने वाले कर्मचारियों और उनके साथ जाने वाले कागजों के लिये रेलवे ने 3 अगस्त 1947 से दिल्ली से करांची तक विशेष रेलगाड़ियों का संचालन किया। इन रेलगाड़ियों को लौटती बार में पाकिस्तान से भारत आने वाले कर्मचारियों को लेकर आना था। उस समय तक रेल गाड़ियां भयानक सांप्रदायिक उन्माद की चपेट में आ चुकी थीं। इसलिये नेताओं ने आम जनता से अपील की कि वे गाड़ियों का उपयोग न करे। नेताओं को आशा थी कि कर्मचारियों की रेलगाड़ियां सुरक्षित रहेंगी किंतु पकिस्तान से कर्मचारियों को लेकर आने वाली रेलगाड़ियां भी सांप्रदायिक दंगों की भेंट चढ़ गईं।
संविधान सभा को संसद का दर्जा
उस समय तक चुनी हुई वैधानिक संसद के अस्तित्व में नहीं होने से संविधान सभा को ही संसद तथा संविधान सभा का दोहरा दर्जा दिया गया।
दो वैकल्पिक सरकारें
विभाजन से पहले भारत में जो अंतरिम सरकार चल रही थी उसमें से लार्ड माउण्टबेटन ने दो वैकल्पिक सरकारों का निर्माण किया जो 15 अगस्त को अस्तित्व में आने वाले दोनों देशों के प्रशासन को संभाल सकें। 1935 के भारत सरकार अधिनियम में सुविधापूर्ण सुधार करके भारतीय उपनिवेश में 1947 से 1950 ई. तक तथा पाकिस्तान उपनिवेश में 1947 से 1956 ई. तक संविधान का काम लिया गया। यहाँ तक कि भारत के वर्तमान संविधान का आधार भी यही अधिनियम है।
इण्डियन डोमिनियन्स शब्द पर आपत्ति
जब जिन्ना ने सुना कि प्रस्तावित बिल में दोनों उपनिवेशों को इण्डियन डोमिनियन्स कहा गया है तो उसने एक सख्त चिट्ठी भेजी। इसके बाद बिल में सिर्फ डोमिनियन्स शब्द काम में लिया गया।
पंजाब बाउंड्री फोर्स का गठन
जनरल टकर ने आचिनलेक को सुझाव दिया कि पंजाब में शांति बनाये रखने के लिये गोरखाओं की एक फौज बनायी जाये तथा उसे पंजाब में महत्वपूर्ण स्थानों पर लगा दिया जाये जहाँ कि कत्लेआम होने की सर्वाधिक संभावना है। यह फौज पूरी तरह से हिंदू मुस्लिम पक्षपात से अलग रहेगी लेकिन आचिनलेक ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। टकर ने लार्ड इस्मे से संपर्क किया। अंत में वायसराय के हस्तक्षेप पर इस फौज का गठन किया गया जिसका नाम पंजाब बाउंड्री फोर्स रखा गया। इसमें पचपन हजार सैनिकों की नियुक्ति की गयी। इस सेना ने 1 अगस्त 1947 से कार्य आरम्भ कर दिया। सियालकोट, गुजरांवाला, शेखपुरा, लायलपुरा, मौंटगुमरी, लाहौर, अमृतसर, गुरदासपुर, होशियारपुर, जालंधर, फिरोजपुर और लुधियाना जिलों में इस सेना को नियुक्त किया गया। कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग की सहमति से मेजर जनरल रीस को इस सेना का कमांडर नियुक्त किया गया। भारत की ओर से ब्रिगेडियर दिगंबरसिंह तथा पाकिस्तान की ओर से कर्नल अय्यूबखां इसके सलाहकार बनाये गये।
रैडक्लिफ आयोग का गठन एवं उसकी रिपोर्ट के प्रकाशन में विलम्ब
भारत व पाकिस्तान की सीमाओं का निर्धारण करने के लिये 27 जून 1947 को रैडक्लिफ आयोग का गठन किया गया। इसके अध्यक्ष सर सिरिल रैडक्लिफ इंग्लैण्ड के प्रतिष्ठित वकील थे। भारत में आने से पूर्व उन्हें भारत के आंतरिक मामलों की जानकारी नहीं थी। वे यहाँ की संस्कृति, राजनीतिक स्थिति, भौगोलिक जानकारी, व्यापारिक क्षेत्र, लोगों के आपसी सम्बन्ध, जनसंख्या की बसावट, नदियों के प्रवाह, नहरों की स्थिति, गांवों की आर्थिक निर्भरता आदि किसी भी तत्व से परिचित नहीं था। अँग्रेजों ने यह कहकर उनका चुनाव किया कि चूंकि रैडक्लिफ को हिंदू, मुसलमान, सिक्ख आदि किसी से कोई लेना-देना नहीं है, इसलिये वे एकदम निष्पक्ष साबित होंगे। 8 जुलाई 1947 को रैडक्लिफ दिल्ली पंहुचे। उनकी सहायता के लिये प्रत्येक प्रांत में चार-चार न्यायाधीशों के एक बोर्ड की नियुक्ति की गयी। इन न्यायाधीशों में से आधे कांग्रेस द्वारा व आधे मुस्लिम लीग द्वारा नियुक्त किये गये थे।
पंजाब प्रांत के विभाजन के लिये कांग्रेस की ओर से मेहरचंद महाजन तथा तेजासिंह को और मुस्लिम लीग की ओर से दीन मोहम्मद तथा मोहम्मद मुनीर को नियुक्त किया गया। इसी प्रकार बंगाल प्रांत के विभाजन के लिये कांग्रेस की ओर से सी. सी. विश्वास एवं बी. के. मुखर्जी को तथा मुस्लिम लीग की ओर से मोहम्मद अकरम और एस. ए. रहमान को नियुक्त किया गया।
पंजाब के गवर्नर जैन्किन्स ने माउण्टबेटन को पत्र लिखकर मांग की कि रैडक्लिफ आयोग की रिपोर्ट 15 अगस्त से पूर्व अवश्य ही प्रकाशित कर देनी चाहिये ताकि लोगों की भगदड़ खत्म हो। भारत विभाजन समिति ने भी वायसराय से यही अपील की। आयोग की रिपोर्ट 9 अगस्त 1947 को तैयार हो गयी किंतु लार्ड माउण्टबेटन ने उसे एक सप्ताह तक प्रकाशित नहीं करने का निर्णय लिया ताकि स्वतंत्रता दिवस के आनंद में विघ्न न हो। इस कारण पंजाब और बंगाल में असमंजस की स्थिति बनी रही। भारत की स्वतंत्रता के दो दिन पश्चात् अर्थात् 17 अगस्त 1947 को माउण्टबेटन ने रैडक्लिफ अवार्ड की प्रतियां भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तथा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खां को सौंपीं। इसी निर्णय के आधार पर भारत व पाकिस्तान की सीमायें निर्धारित की गयीं।
ताजमहल को पाकिस्तान ले जाने की मांग
भारत विभाजन की तिथि घोषित हो जाने के बाद कुछ मुसलमानों ने मांग की कि ताजमहल को तोड़कर पाकिस्तान ले जाना चाहिये और वहाँ फिर से निर्मित किया जाना चाहिये क्योंकि ताजमहल का निर्माण आखिर एक मुसलमान ने किया है किंतु यह मांग कोई जोर नहीं पकड़ सकी।
पाकिस्तान का निर्माण
7 अगस्त 1947 को जिन्ना ने सदा-सदा के लिये भारत छोड़ दिया और वह कराची चला गया। जिन्ना के जाने के अगले दिन सरदार पटेल ने वक्तव्य दिया- ‘भारत के शरीर से जहर अलग कर दिया गया। हम लोग अब एक हैं और अब हमें कोई अलग नहीं कर सकता। नदी या समुद्र के पानी के टुकड़े नहीं हो सकते। जहाँ तक मुसलमानों का सवाल है, उनकी जड़ें, उनके धार्मिक स्थान और केंद्र यहाँ हैं। मुझे पता नहीं कि वे पाकिस्तान में क्या करेंगे। बहुत जल्दी वे हमारे पास लौट आयेंगे।’
पाकिस्तान में रह गयी कांग्रेस कमेटियों ने आचार्य कृपलानी से पूछा कि स्वतंत्रता दिवस पर वे पाकिस्तान का झण्डा फहरायें या नहीं? इस पर कृपलानी ने आदेश दिया कि किसी तरह का झण्डा लहराने की आवश्यकता नहीं है। किसी तरह के जश्न में भी भाग नहीं लिया जाना चाहिये।
14 अगस्त को लार्ड माउण्टबेटन ने पाकिस्तान की संविधान निर्मात्री परिषद में भाषण दिया और पाकिस्तान के स्वतंत्र राज्य की स्थापना की घोषणा की। इसके पश्चात् वे उसी दिन वायुयान से दिल्ली लौट आये और मध्यरात्रि को भारत की संविधान निर्मात्री परिषद में भाषण देकर उन्होंने भारत की स्वतंत्रता की घोषणा की।