गीता के अठारह अध्याय
गीता के अठारह अध्यायों में दिए गए उपदेशों में एक निश्चित क्रम दिखाई देता है तथा वे एक दूसरे से सम्बद्ध प्रतीत होते हैं।
प्रथम अध्याय
गीता के प्रथम अध्याय का नाम अर्जुन-विषाद-योग है। वह गीता के उपदेश का विलक्षण दृश्य प्रस्तुत करता है जिसमें श्रोता अर्जुन और वक्ता श्रीकृष्ण जीवन की प्रगाढ़ समस्या के समाधान के लिये प्रवृत्त होते हैं। अर्जुन वीर क्षत्रिय था किंतु अपने ही बंधु-बांधवों को युद्ध के मैदान में खड़ा देखकर वह क्षत्रियोचित कर्म भूलकर श्रीकृष्ण से युद्ध से विमुख होने की आज्ञा मांगने लगा। उसका तर्क धर्मयुक्त जान पड़ता है जिसमें वह भूमि के लिए स्वजनों का वध नहीं करना चाहता किंतु उसने स्वयं ही उसे कायरता कहा है। इस प्रकार पहले अध्याय में भूमिका रूप में अर्जुन ने भगवान से अपनी स्थिति कही है।
द्वितीय अध्याय
दूसरे अध्याय का नाम सांख्य-योग है। अर्जुन को प्रियजनों के जीवन के लिए कातर होकर रोते हुए देखकर कृष्ण उसे ध्यान दिलाते हैं कि क्षत्रिय होने के कारण उसे इस प्रकार का क्लैव्य प्रदर्शित करना उचित नहीं है। वे अर्जुन को भारत के दो प्राचीन एवं विख्यात दर्शनों की जानकारी देते हैं जिससे अर्जुन को कर्त्तव्य का वास्वतिक ज्ञान हो तथा वह कातरता एवं क्लैव्य का त्याग कर दे।
कृष्ण ने अर्जुन की युक्तियों को प्रज्ञावाद का झूठा रूप कहा। कृष्ण कहते हैं कि प्रज्ञादर्शन काल, कर्म और स्वभाव से होने वाले संसार की सब घटनाओं और स्थितियों को अनिवार्य रूप से स्वीकार करता है। जीना और मरना, जन्म लेना और बढ़ना, विषयों का आना और जाना। सुख और दुःख का अनुभव, ये तो संसार में होते ही हैं, इसी को प्राचीन आचार्य पर्यायवाद का नाम भी देते थे।
काल की चक्रगति इन समस्त स्थितियों को लाती और ले जाती है। जीवन के इस स्वभाव को जान लेने पर शोक नहीं होता। यही भगवान का व्यंग्य है कि प्रज्ञायुक्त दृष्टिकोण को मानते हुए भी अर्जुन इस प्रकार के मोह में क्यों पड़ा है?
प्रज्ञावाद के अनुसार जीवन की नित्यता और शरीर की अनित्यता निश्चित है। ‘नित्य जीव’ के लिए शोक करना उतना ही व्यर्थ है जितना ‘अनित्य शरीर’ को बचाने की चिंता। ये दोनों अपरिहार्य हैं। जन्म और मृत्यु बारी-बारी से होते ही हैं, ऐसा समझकर शोक करना उचित नहीं है। दूसरा दृष्टिकोण स्वधर्म का है। जन्म से ही प्रकृति ने सबके लिए एक धर्म नियत किया है। उसमें जीवन का मार्ग, इच्छाओं की परिधि, कर्म की शक्ति सभी कुछ आ जाता है। इससे निकल कर भागा नहीं जा सकता। कोई भागे भी तो प्रकृति उसे फिर खींच लाती है।
इस प्रकार भगवान ने अर्जुन को काल के परिवर्तन, जीव की नित्यता और व्यक्ति के स्वधर्म का ज्ञान कराया है जिसे सांख्य की बुद्धि कहा गया है। इससे आगे भगवान ने योगमार्ग की बुद्धि का भी वर्णन किया। यह बुद्धि कर्म या प्रवृत्ति मार्ग के आग्रह की बुद्धि है। कर्मयोगी को कर्म करते हुए कर्म के फल की आसक्ति से बचना आवश्यक है।
अर्जुन को संदेह हुआ कि क्या इस प्रकार की बुद्धि प्राप्त करना संभव है, व्यक्ति कर्म करे और फल की इच्छा न करे? इसलिए अर्जुन ने पूछा कि इस प्रकार का दृढ़ प्रज्ञावाला व्यक्ति जीवन का व्यवहार कैसे करता है? आना, जाना, खाना, पीना, कर्म करना, उनमें लिप्त होकर भी निर्लेप कैसे रहा जा सकता है?
कृष्ण ने मन के संयम की व्याख्या करते हुए अर्जुन को बताया कि काम, क्रोध, भय, राग, द्वेष के द्वारा मन का सौम्यभाव बिगड़ जाता है और इंद्रियाँ वश में नहीं रहतीं। बाहर से कोई विषयों को छोड़ भी दे तो भी भीतर का मन नहीं मानता। विषयों का स्वाद जब मन से जाता है, तभी मन प्रफुल्लित, शांत और सुखी होता है। इसे गीता में ब्राह्मी-स्थिति कहा है।
तीसरा अध्याय
तीसरे अध्याय का नाम कर्म-योग है। अर्जुन भगवान से प्रश्न करता है कि सांख्य और योग इन दोनों मार्गों में आप किसे अच्छा समझते हैं और क्यों नहीं यह निश्चित कहते कि मैं इन दोनों में से किसे अपनाऊँ? इस पर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि लोक में दो निष्ठाएँ या जीवन-दृष्टियाँ हैं- सांख्यवादियों के लिए ज्ञानयोग और कर्ममार्गियों के लिए कर्मयोग। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि संसार में कोई व्यक्ति कर्म छोड़ ही नहीं सकता।
प्रकृति तीनों गुणों (सत्, रज एवं तम) के प्रभाव से व्यक्ति को कर्म करने के लिए बाध्य करती है। कर्म से बचने वाले बाहरी रूप से तो कर्म छोड़कर बैठ जाते हैं किंतु मन उसमें ही डूबा रहता है। यह मिथ्याचार है। मन में कर्मेद्रियों को रोककर कर्म करना ही श्रेयस्कर है। कर्म के बिना तो भोजन के लिए अन्न भी नहीं मिल सकता। श्रीकृष्ण ने कर्म के विधान को चक्र के रूप में उपस्थित किया।
न केवल विभिन्न मनुष्यों के कर्मचक्र सामाजिक व्यवस्था में अरों की तरह परस्पर पिरोए हुए हैं अपितु पृथ्वी के मनुष्य और स्वर्ग के देवता दोनों का सम्बन्ध भी कर्मचक्र पर आश्रित है। धरती पर मनुष्य कृषि करते हैं और दैवीय शक्तियाँ वृष्टि का जल भेजती हैं। अन्न और पर्जन्य दोनों कर्म से उत्पन्न होते हैं। एक में मानवीय कर्म, दूसरे में दैवीय कर्म। कर्म के पक्ष में लोकसंग्रह की युक्ति भी दी गई है, अर्थात् कर्म के बिना समाज का ढाँचा खड़ा नहीं रह सकता।
राजा जनक जैसे ज्ञानी भी कर्म में प्रवृत्त रहते हैं। कृष्ण ने स्वयं अपना ही दृष्टांत देकर कहा कि मैं नारायण का रूप हूँ, मेरे लिए कुछ कर्म शेष नहीं है। फिर भी तंद्रारहित होकर कर्म करता हूँ और अन्य लोग मेरे मार्ग पर चलते हैं। अंतर इतना ही है कि मूर्ख लिप्त होकर कर्म करते हैं और ज्ञानी असंग-भाव से कर्म करते हैं।
चौथा अध्याय
गीता के चौथे अध्याय का नाम ज्ञान-कर्म-संन्यास-योग है। इसमें बाताया गया है कि ज्ञान प्राप्त करके कर्म करते हुए भी कर्मसंन्यास का फल किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है। इसमें सच्चे कर्मयोग को चक्रवर्ती राजाओं की परंपरा में घटित माना है। मांधाता, सुदर्शन आदि अनेक चक्रवर्ती राजाओं के दृष्टांत दिए गए हैं।
भगवान अर्जुन को अपना संकल्प भी बताते हैं कि जब भी धर्म की हानि होती है मैं साधुओं की रक्षा एवं धर्म के उत्थान के लिए अवतार लेता हूँ। गीता के इसी अध्याय में कहा गया है- ‘क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।’ अर्थात् इस लोक में कर्मां से सिद्धि शीघ्र ही मिल जाती है। अर्थात् इस अध्याय में कर्म का महत्व भलीभांति स्थापित कर दिया गया है किंतु उस कर्म में असंग भाव होना चाहिए अर्थात् फल की आसक्ति से बचकर कर्म करना चाहिए।
पांचवा अध्याय
गीता के पाँचवे अध्याय का नाम कर्म-संन्यास-योग है। इस अध्याय में फिर मनुष्य के कर्म और अनासक्ति भाव सम्बन्धी युक्तियाँ और भी दृढ़ रूप में कही गई हैं। इसमें कर्म के साथ मन के सम्बन्ध को विशुद्ध करने पर बल दिया गया है। यह भी कहा गया है कि साधना के उच्च धरातल पर पहुँचकर सांख्य और योग में कोई भेद नहीं रह जाता।
किसी एक मार्ग पर ठीक प्रकार से चले तो समान फल प्राप्त होता है। जीवन के समस्त कर्मों का समर्पण कर देने से व्यक्ति शांति के ध्रुव-बिंदु पर पहुँच जाता है और जल में खिले कमल के समान कर्म रूपी जल से लिप्त नहीं होता।
छठा अध्याय
गीता के छठे अध्याय का नाम आत्म-संयम-योग है जिसका विषय नाम से ही प्रकट है। जितने विषय हैं उन सबसे इंद्रियों का संयम ही कर्म और ज्ञान का निचोड़ है। सुख और दुःख में मन की समान स्थिति को ही योग कहते हैं।
सातवाँ अध्याय
गीता के सातवें अध्याय का नाम ज्ञान-विज्ञान-योग है। वैदिक दृष्टि में मानव मात्र के लिए विज्ञान जानना अत्यंत महत्वपूर्ण है। सृष्टि के वैविध्य का ज्ञान ही विज्ञान है और वैविध्य से एकत्व स्थापित करना ज्ञान है। ये दोनों दृष्टियाँ मानव के लिए उचित हैं। विज्ञान की दृष्टि से गीता ने प्रकृति के दो रूपों- अपरा और परा की सुनिश्चित व्याख्या दी है।
अपरा प्रकृति में आठ तत्व हैं, पंचभूत, मन, बुद्धि और अहंकार। जिस अंड से मानव का जन्म होता है। उसमें ये आठों तत्व रहते हैं किंतु यह प्राकृत सर्ग है अर्थात् यह जड़ है। इसमें ईश्वर की चेष्टा के संपर्क से जो चेतना आती है उसे परा प्रकृति कहते हैं; वही जीव है। आठ तत्वों के साथ मिलकर जीवन नौवाँ तत्व हो जाता है। इस अध्याय में भगवान के अनेक रूपों का उल्लेख किया गया है (जिनका और अधिक विस्तार विभूतियोग नामक दसवें अध्याय में है)।
सातवें अध्याय में विशेष भगवती दृष्टि का भी उल्लेख है जिसका सूत्र- ‘वासुदेवः सर्वमिति’ अर्थात् सब वसु या शरीरों में एक ही देवतत्व है, उसी की संज्ञा ‘विष्णु’ है किंतु लोक में अपनी-अपनी रुचि के अनुसार अनेक नामों और रूपों में उसी एक देवतत्व की उपासना की जाती है।
आठवाँ अध्याय
गीता के आठवें अध्याय का नाम ‘अक्षर-ब्रह्म-योग’ है। उपनिषदों में अक्षर विद्या का विस्तार हुआ। गीता में उस अक्षर विद्या का सार दिया गया है- ‘अक्षर ब्रह्म परमं’ अर्थात् परब्रह्म की संज्ञा अक्षर है। मनुष्य, अर्थात् जीव और शरीर की संयुक्त रचना का ही नाम अध्यात्म है। जीवसंयुक्त भौतिक देह की संज्ञा क्षर है और केवल शक्तितत्व की संज्ञा आधिदैवक है। देह के भीतर जीव, ईश्वर तथा भूत ये तीन शक्तियाँ मिलकर जिस प्रकार कार्य करती हैं उसे अधियज्ञ कहते हैं। गीता के अनुसार ‘ऊँ’ एकाक्षर ब्रह्म है।
नौवाँ अध्याय
गीता के नौवें अध्याय का नाम राज-गुह्य-योग है। इसमें कहा गया है कि अध्यात्म विद्या विद्याराज्ञी है और यह गुह्य ज्ञान सबमें श्रेष्ठ है। राजा शब्द का एक अर्थ मन भी था। अतएव मन की दिव्य शक्तियों को किस प्रकार ब्रह्ममय बनाया जाय, इसकी युक्ति ही राजविद्या है। इस क्षेत्र में ब्रह्मतत्व का निरूपण ही प्रधान है, उसी से व्यक्त जगत का बारंबार निर्माण होता है।
वेद का समस्त कर्मकांड, यज्ञ, अमृत, और मृत्यु, संत और असंत, और जितने भी देवी देवता है, सबका पर्यवसान ब्रह्म में है। लोक में जो अनेक प्रकार की देवपूजा प्रचलित है, वह भी अपने अपने स्थान में ठीक है।
दसवाँ अध्याय
गीता के दसवें अध्याय का नाम विभूति-योग है। इसका सार यह है कि लोक में स्थित समस्त देवता एक ही भगवान की विभूतियाँ हैं। मनुष्य के समस्त गुण और अवगुण भगवान की शक्ति के ही रूप हैं। कोई पीपल पूज रहा है। कोई पहाड़, नदी या समुद्र को, कोई उनमें रहने वाले मछली और कछुओं को। इस प्रकार कितने ही देवी-देवता हैं, उनका कोई अंत नहीं।
विश्व के इतिहास में देवताओं की यह भरमार सर्वत्र पाई जाती है। भागवतों ने इनकी सत्ता को स्वीकारते हुए सबको विष्णु का रूप मानकर समन्वय की एक नई दृष्टि प्रदान की। इसी का नाम विभूति-योग है। जो सत्व जीव बल युक्त अथवा चमत्कार युक्त हैं, वे सब भगवान का रूप हैं। इतना मान लेने से मनुष्य ‘चित्त-निर्विरोध’ स्थिति में पहुँच जाता है।
ग्यारहवाँ अध्याय
गीता के ग्यारहवें अध्याय का नाम विश्व-रूप-दर्शन-योग है। इसमें भगवान ने अर्जुन को अपना विश्वरूप दिखाया। विराट रूप का अर्थ है मानवीय धरातल और परिधि के ऊपर जो अनंत विश्व का प्राणवंत रचना विधान है, उसका साक्षात दर्शन। विष्णु का जो चतुर्भुज रूप है, वह मानवीय धरातल पर सौम्यरूप है।
बारहवाँ अध्याय
गीता के बारहवें अध्याय का नाम भक्तियोग है। जब अर्जुन ने भगवान का विराट रूप देखा तो उसके मस्तक का विस्फोट होने लगा। उसने कहा- ‘दिशो न जाने न लभे च शर्म।’ तब भगवान ने अर्जुन को बताया कि मेरे शुद्ध प्रेम को प्राप्त करने का सबसे सुगम एवं सर्वोच्च साधन भक्ति है। इस पथ का अनुसरण करने वाले व्यक्ति में दिव्यगुण उत्पन्न हो जाते हैं।
तेरहवाँ अध्याय
गीता के तेरहवें अध्याय का नाम क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ है। इस अध्याय में भगवान ने अर्जुन को प्रकृति और पुरुष, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, ज्ञान और ज्ञेय के बारे में बताया है। भगवान कहते हैं कि शरीर क्षेत्र है, उसको जानने वाला जीवात्मा क्षेत्रज्ञ है। प्रकृति अचेतन गतिविधि है और पुरुष निष्क्रिय चेतना है। शरीर वह क्षेत्र है जिसमें वृद्धि, ह्रास और मृत्यु जैसी घटनाएं घटती हैं तथा निष्क्रिय और अनासक्त चेतन इन सब घटनाओं का साक्षी होता है, वह क्षेत्रज्ञ है।
चौदहवाँ अध्याय
चौदहवें अध्याय का नाम गुणत्रय-विभाग-योग है। यह अध्याय समस्त वैदिक, दार्शनिक और पौराणिक चिंतन का निचोड़ है। इसमें सत्व, रज तथा तम नामक तीन गुणों की अनेक व्याख्याएँ हैं। गुणों की साम्यावस्था का नाम प्रधान या प्रकृति है। गुणों के वैषम्य से ही वैकृत सृष्टि का जन्म होता है। अकेला सत्व शांत स्वभाव से निर्मल प्रकाश की तरह स्थिर रहता है और अकेला तम भी जड़वत निश्चेष्ट रहता है किंतु दोनों के बीच में छाया हुआ रजोगुण उन्हें चेष्टा के धरातल पर खींच लाता है। गति तत्व का नाम ही रजस है।
पन्द्रहवाँ अध्याय
पन्द्रहवें अध्याय का नाम पुरुषोत्तम-योग है। इसमें विश्व का अश्वत्थ (पीपल) के रूप में वर्णन किया गया है जिसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं। उसके पत्ते वेद हैं और शाखाएं नीचे की ओर एवं शाश्वत हैं। यह अश्वत्थ रूपी संसार महान विस्तार वाला है। देश और काल में इसका कोई अंत नहीं है किंतु इसका मूल या केंद्र जिसे जिसे ऊर्ध्व भी कहते हैं, वह ब्रह्म ही है।
एक ओर वह परम तेजवान है जो विश्वरूपी अश्वत्थ को जन्म देता है तथा सूर्य और चंद्र के रूप में प्रकट है, दूसरी ओर वही चैतन्य, प्राणी शरीर में आया हुआ है। श्रीकृष्ण कहते हैं– ‘अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः। नर या पुरुष के तीन प्रकार हैं- क्षर, अक्षर और अव्यय। पंचभूतों का नाम क्षर है, प्राण का नाम अक्षर है और मनस्तत्व या चेतना की संज्ञा अव्यय है। इन्हीं तीन नरों की एकत्र स्थिति से मानवी चेतना का जन्म होता है उसे ही ऋषियों ने वैश्वानर अग्नि कहा है।
सोलहवाँ अध्याय
गीता के सोलहवें अध्याय का नाम दैवासुर-सम्पद-विभाग-योग है। इस अध्याय में देवों एवं असुरों की संपत्तियों का वर्णन किया गया है। ये दोनों सम्पदाएं एक-दूसरे से बिलकुल विरुद्ध हैं। दैवी संपत्ति कल्याण करने वाली है और आसुरी-संपत्ति बाँधने वाली तथा नीच योनियों और नरकों में ले जाने वाली है। जो साधक इन दोनों विभागों को ठीक रीति से जान लेगा, वह आसुरी संपत्ति का सर्वथा त्याग कर देगा। आसुरी संपत्ति का सर्वथा त्याग होते ही दैवी संपत्ति स्वतः प्रकट हो जाएगी। दैवी संपत्ति प्रकट होते ही एकमात्र परमात्मा से सम्बन्ध रह जाएगा।
सत्रहवाँ अध्याय
सत्रहवें अध्याय का नाम ‘श्रद्धा-त्रय-विभाग-योग’ है। इस अध्याय का सम्बन्ध सत, रज और तम नामक तीन गुणों से ही है। जिस मनुष्य में जिस गुण का प्रादुर्भाव होता है, उसकी श्रद्धा या जीवन की निष्ठा वैसी ही बन जाती है। यज्ञ, तप, दान, कर्म ये सब तीन प्रकार की श्रद्धा से संचालित होते हैं। यहाँ तक कि आहार भी तीन प्रकार का है। भगवान ने उनके भेद और लक्षण बताए हैं।
अठारहवाँ अध्याय
अठारहवें अध्याय का नाम ‘मोक्ष-संन्यास-योग’ है। इसमें गीता के समस्त उपदेशों का सार एवं उपसंहार दिया गया है। यहाँ पुनः मानव जीवन के लिए तीन गुणों का महत्व कहा गया है। पृथ्वी के मानवों में और स्वर्ग के देवताओं में कोई भी ऐसा नहीं जो प्रकृति के चलाए हुए इन तीन गुणों से बचा हो।
मनुष्य को सतर्क होकर चलना आवश्यक है जिससे वह अपनी बुद्धि और वृत्ति को बुराई से बचा सके और क्या कार्य है, क्या अकार्य है, इसको पहचान सके। धर्म और अधर्म को, बंध और मोक्ष को, वृत्ति और निवृत्ति को जो बुद्धि ठीक से पहचनाती है, वही सात्विक बुद्धि है और वही मानव की सच्ची उपलब्धि है।
गीता के अठारह अध्यायों की समाप्ति पर अर्जुन को ज्ञान की प्राप्ति होती है और वह समस्त संदेहों को त्यागकर कर्म के पथ पर प्रवृत्त होता है।