अंग्रेज ईस्वी 1927 से ही भारत में एक संघ की स्थापना करने का प्रयास कर रहे थे जिसमें ब्रिटिश प्रांत एवं देशी राज्यों के प्रांत शामिल हों तथा देश का शासन एक संघीय सरकार द्वारा चलाया जाए। इस दिशा में अनेक लोगों द्वारा भारत संघ योजनाएं बनाकर अंग्रेज सरकार के समक्ष प्रस्तुत की गईं।
सप्रू योजना
दिसम्बर 1944 में तेज बहादुर सप्रू की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। प्रांतों एवं राज्यों के प्रस्तावित भारतीय संघ में सम्मिलित होने अथवा अलग रहने के प्रश्न पर समिति ने सिफारिश की कि ब्रिटिश-भारत के किसी भी प्रांत को संघ में शामिल नहीं होने का विकल्प नहीं होगा। ब्रिटिश-भारत का प्रांत हो या देशी राज्य, एक बार सम्मिलित होने के बाद उसे संघ से अलग होने का अधिकार नहीं होगा। ब्रिटिश-भारत, जिस तरह से किसी भी ब्रिटिश-भारतीय प्रांत को अलग होने की आज्ञा देना स्वीकार नहीं कर सकता उसी तरह देशी राज्यों को भी इसकी अनुमति नहीं दे सकता।
सप्रू समिति में राज्यों का प्रतिनिधित्व नहीं था, इसलिए समिति ने अपनी इच्छा से संघ में शामिल होने के अतिरिक्त रियासतों के विषय में कोई और सिफारिश नहीं की। समिति द्वारा यह सिफारिश भी की गई कि जहाँ तक हो सके राज्य प्रमुख, राज्यों के शासकों में से ही चुना जाना चाहिए। साथ ही उसमें राज्यों के मंत्री पद की भी व्यवस्था हो जिसकी सहायता के लिए राज्यों की सलाहकार समिति हो।
सप्रू समिति की अवधारणा के अनुसार भारतीय संघ केवल एक राज्य होगा जिसमें संघीय इकाइयां होंगी चाहे वह प्रांतों की हों या राज्यों की। संघ से असंबद्ध राज्य भी होंगे। किसी भी विदेशी शक्ति का इन इकाइयों पर कोई अधिकार नहीं होगा चाहे वे संघ में शामिल हों या न हों।
रैडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी का प्रस्ताव
रैडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से एम. एन. राय द्वारा स्वतंत्र भारत के संविधान का प्रारूप तैयार किया गया। 6 जनवरी 1945 को ऑल इण्डिया कान्फ्रेन्स ऑफ दी रैडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी के द्वारा इस प्रारूप को पृष्ठांकित किया गया जिसमें कहा गया कि अंतरिम सरकार को संपूर्ण भारत के लिए संविधान की घोषणा करनी चाहिये तथा उसे भारतीय रियासतों पर भी लागू किया जाना चाहिये।
इसे पूर्व में ब्रिटिश सरकार तथा भारतीय राजाओं के मध्य हुए द्विपक्षीय संधियों के माध्यम से किया जाना चाहिये जिसके माध्यम से भारतीय राजाओं को कुछ वित्तीय अनुदानों के बदले अपने अधिकार भारत सरकार के समक्ष समर्पित करने होंगे।
अन्य विद्वानों के प्रस्ताव
प्रो. कूपलैण्ड ने नदियों को आधार बनाकर जनसंख्या के अनुसार उनके क्षेत्रीय विभाजन की योजना प्रस्तुत की। सर सुल्तान अहमद ने भारत तथा यूनाइटेड किंगडम के मध्य संधि के माध्यम से भारत-पाक विभाजन की योजना प्रस्तुत की। इनमें देशी राज्यों के बारे में कोई स्थिति स्पष्ट नहीं की गयी।
ई.1943-44 में अर्देशिर दलाल, डा. राधा कुमुद मुखर्जी तथा डा. भीमराव अम्बेडकर ने भी अपनी योजनाएं प्रस्तुत कीं जिनमें भारत की सांप्रदायिक समस्या का समाधान ढूंढने की चेष्टा की गयी किंतु इन सभी योजनाओं में देशी राज्यों की समस्या को अधिक महत्त्व नहीं दिया गया।
राजगोपालाचारी प्लेटफॉर्म
6 मई 1944 को गांधीजी को जेल से रिहा कर दिया गया। इसी के साथ भारत छोड़ो आंदोलन भी समाप्त हो गया। लिब्ररल पार्टी के नेता तेज बहादुर सप्रू एवं राजगोपालाचारी ने कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के नेताओं से बात करके गांधी और जिन्ना के बीच समझौता करवाने का प्रयास किया। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी भी चाहती थी कि गांधी और जिन्ना भारत की आजादी के लिए लड़ें न कि एक दूसरे के खिलाफ लड़कर देश की शक्ति व्यर्थ करें। इसलिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने देश भर में एक नारा उछाला- ‘गांधी-जिन्ना फिर मिलें’ । इन प्रयासों ने असर दिखाया तथा राजगोपालाचारी ने एक प्रस्ताव तैयार किया जिसमें निम्नलिखित बिंदु सम्मिलित किए गए-
(1) युद्ध के दौरान मुस्लिम लीग को पूर्ण स्वाधीनता की मांग का समर्थन करना चाहिए तथा संक्रमण काल के लिए अस्थाई अंतरिम सरकार बनाने में कांग्रेस का सहयोग करना चाहिए।
(2) युद्ध के बाद मुस्लिम बहुमत के क्षेत्रों की सीमा के निर्धारण के लिए एक आयोग नियुक्त किया जाना चाहिए। उन क्षेत्रों के समस्त निवासियों के जनमत या साधारण मतदान के किसी भी अन्य स्वरूप द्वारा निश्चित किया जाना चाहिए कि उनका अलग राज्य बनना चाहिए या नहीं।
(3) जनमत संग्रहण के पहले अपने-अपने दृष्टिकोण का समर्थन करने का अधिकार सब दलों का होगा। अगर अलगाव हो जाए तो दोनों राज्यों के प्रतिरक्षा, व्यवसाय और अन्य उद्देश्यों के लिए समझौता करना चाहिए।
(4) जनसंख्या का कोई भी स्थानांतरण बिल्कुल ऐच्छिक आधार पर होगा।
(5) ये शर्तें तभी लागू होंगी जब ब्रिटेन भारत के शासन की सारी सत्ता और जिम्मेदारी हस्तांतरित कर देगा।
इस प्रस्ताव के आधार पर 4 सितम्बर 1944 को गांधीजी एवं जिन्ना के बीच बम्बई में वार्तालाप आरम्भ हुआ जो कि 17 सितम्बर तक चलता रहा। यह वार्तालाप बहुत गुप्त होता था तथा पत्रों के आदान-प्रदान से होता था। ये पत्र वार्तालाप पूरा होने के बाद प्रकाशित कर दिए गए। यह वार्तालाप असफल हो गया।
असफलता का कारण जिन्ना की जिद था। जिन्ना चाहता था कि किसी भी प्रकार का जनमत संग्रहण करने से पहले ही और ब्रिटिश राज के रहते ही कांग्रेस मान ले कि पाकिस्तान स्थापित किया जाएगा।
जिन्ना ने यह भी कहा कि पाकिस्तान के अंदर पूरा पंजाब, पूरा बंगाल, पश्चिमोत्तर सीमांत प्रदेश, बलूचिस्तान और असम को पाकिस्तान में शामिल करना होगा। गांधीजी किसी भी कीमत पर जिन्ना को पाकिस्तान देने के लिए तैयार नहीं थे। इसलिए वार्तालाप विफल हो गया और पूरे देश को इस विफलता से बड़ी निराशा हुई।
इस प्रकार एक के बाद एक करके भारत संघ योजनाएं प्रस्तावित की जाती रहीं और मुस्लिम लीग उन्हें ठुकराती रही। बहुत सी योजनाएं कांग्रेस ने ठुकरा दीं तो बहुत सी योजनाओं का राजाओं ने विरोध किया। अंग्रेज भी अपनी तरफ से प्रयास कर रहे थे। भारत संघ की योजनाएं परवान नहीं चढ़ सकीं क्योंकि प्रत्येक पक्ष अपने-अपने उद्देश्य की पूर्ति तो चाहता था किंतु दूसरे पक्ष की अनदेखी करता था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता