मराठा शक्ति
शम्भाजी: 1680 ई. में छत्रपति शिवाजी की मृत्यु के बाद उनका ज्येष्ठ पुत्र शम्भाजी गद्दी पर बैठा किंतु औरंगजेब ने बीजापुर और गोलकुण्डा को हस्तगत करने के बाद अपनी सम्पूर्ण शक्ति मराठों के विरुद्ध लगा दी। शम्भाजी को कैद करके दिल्ली ले जाया गया जहाँ उसके टुकड़े-टुकड़े करके कुत्तों को खिला दिया गया।
राजाराम: मराठों ने शम्भाजी के भाई राजाराम के नेतृत्व में मुगलों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। मुगलों ने रायगढ़ दुर्ग पर आक्रमण करके राजाराम को घेर लिया। शम्भाजी की विधवा रानी येशुबाई की सलाह पर राजाराम सुदूर दक्षिण की ओर चला गया किन्तु विश्वासघात के कारण शम्भाजी की विधवा रानी येशुबाई और उसका पुत्र शाहू मुगलों द्वारा कैद कर लिये गये।
ताराबाई: 1700 ई. में राजाराम की मृत्यु के बाद राजाराम की विधवा रानी ताराबाई ने अपने तीन वर्षीय पुत्र शिवाजी (द्वितीय) को छत्रपति की गद्दी पर बैठा दिया और मराठों का नेतृत्व ग्रहण कर मुगलों के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा।
शाहू: फरवरी 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों- मुअज्जम और आजम के बीच उत्तराधिकार का संघर्ष हुआ। इस समय आजम दक्षिण में था, अतः उत्तर की तरफ जाते समय वह अपने साथ शाहू और उसके परिवार को, जो मुगलों की कैद में थे, भी ले गया। मार्ग में मुगल सेनानायक जुल्फिकार खाँ की सलाह पर आजम ने शाहू को मुक्त कर दिया किंतु शाहू के परिवार को अपने साथ दिल्ली ले गया। औरंगजेब की कैद से मुक्त होकर शाहू महाराष्ट्र के लिये रवाना हुआ। महाराष्ट्र पहुँचते-पहुँचते उसके पास एक बड़ी सेना हो गई। ताराबाई ने अपने पुत्र शिवाजी (द्वितीय) को छत्रपति बनाये रखने के लिये, शाहू का विरोध किया। अतः शाहू और ताराबाई की सेनाओं में युद्ध हुआ जिसमें ताराबाई परास्त हो गई। शाहू ने सतारा को अपनी राजधानी बनाया और जनवरी 1708 में छत्रपति के रूप में अपना राज्याभिषेक करवाया।
बालाजी विश्वनाथ: शाहू के राज्यारोहण के समय मराठा राज्य अस्त-व्यस्त था। शाहू विलासी प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसके लिये महाराष्ट्र की अव्यवस्था को व्यवस्थित करना संभव नहीं था। अतः 16 नवम्बर 1713 को उसने बालाजी विश्वनाथ को अपना पेशवा नियुक्त किया। बालाजी विश्वनाथ ने ताराबाई की सत्ता को समाप्त करके तथा विद्रोही मराठा सरदारों की शक्ति का दमन करके, उन पर शाहू के प्रभुत्व की स्थापना की। पेशवा द्वारा मराठा राज्य को दी गई महत्त्वपूर्ण सेवाओं के कारण शाहू के शासनकाल में पेशवाओं का उत्कर्ष हुआ। उन्हीं दिनों दिल्ली में सैयद भाइयों के सहयोग से फर्रूखसियर, मुगल बादशाह बना किन्तु कुछ समय बाद ही उसकी सैयद भाइयों से अनबन हो गई और सैयद बंधुओं ने फर्रूखसियर को समाप्त करने के लिये मराठों से सहायता माँगी। 1719 ई. में सैयद बंधुओं ने मराठों से एक सन्धि की, जिसमें शाहू को दक्षिण के 6 सूबों से चौथ और सरदेशमुखी वसूल करने का अधिकार देने तथा शाहू के परिवार को मुगलों की कैद से मुक्त करने का वचन दिया।
इस संधि के बाद बालाजी विश्वनाथ मराठों की सेना लेकर सैयद भाइयों की सहायता के लिये दिल्ली गया, जहाँ मारवाड़ नरेश अजीतसिंह की सहायता से फर्रूखसियर को गद्दी से उतारकर मार डाला गया और रफी-उद्-दरजात को बादशाह बनाया गया। नये बादशाह ने 1719 ई. की सन्धि को स्वीकार कर लिया। इस घटना से मराठों को मुगलों की पतनोन्मुखी स्थिति का ज्ञान हो गया। अतः दिल्ली से स्वदेश लौटने के बाद बालाजी विश्वनाथ ने उत्तर भारत में मराठा शक्ति के प्रसार की योजना बनाई किन्तु योजना को कार्यान्वित करने के पूर्व ही 1720 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।
बाजीराव (प्रथम) (1720-40 ई.): बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के बाद उसका बीस वर्षीय पुत्र बाजीराव (प्रथम) पेशवा बना। उसने हैदराबाद के सूबेदार निजाम-उल-मुल्क को दो बार परास्त किया, पुर्तगालियों से बसीन व सालसेट छीन लिये तथा मराठों के प्रभाव को गुजरात, मालवा और बुन्देलखण्ड तक पहुँचा दिया। इस प्रकार बाजीराव ने सम्पूर्ण उत्तर भारत में मराठा शक्ति के विस्तार का मार्ग प्रशस्त किया। 28 अप्रैल 1740 को बाजीराव की मृत्यु हो गई।
बालाजी बाजीराव (1740-61 ई.): बाजीराव (प्रथम) की मृत्यु के बाद शाहू ने बाजीराव के 19 वर्षीय पुत्र बालाजी बाजीराव को पेशवा नियुक्त किया। बालाजी बाजीराव के समय में मराठा साम्राज्य चरम पर पहुँच गया। छत्रपति की समस्त शक्तियाँ पेशवा के हाथों में चली गईं और सतारा के स्थान पर पूना मराठा राज्य का केन्द्र बन गया। 25 दिसम्बर 1749 को शाहू की मृत्यु हो गई। उसके बाद छत्रपति का नाम इतिहास में लुप्त प्रायः हो गया तथा पेशवा मराठा राज्य का सर्वेसर्वा बन गया। 18वीं सदी के मध्य में जब मराठे उत्तर भारत में अपना प्रभाव जमाने के लिये प्रयासरत थे, उसी समय उत्तर भारत पर अफगानों के भी आक्रमण होने लगे। इससे उत्तर भारत की राजनीति में परिवर्तन आ गया।
अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण
1748 ई. में अफगानिस्तान के शासक अहमदशाह अब्दाली ने पहली बार पजांब पर आक्रमण किया किन्तु वह परास्त होकर लौट गया। 1752 ई. में उसने दुबारा आक्रमण किया। इस बार वह मुल्तान और लाहौर को जीतने में सफल रहा। उसने दोनों स्थानों पर अपने अधिकारी नियुक्त किये तथा वापस अफगानिस्तान लौट गया। उस समय दिल्ली के तख्त पर मुगल बादशाह अहमदशाह का अधिकार था। उसने एक ओर तो अब्दाली के भय से मुल्तान और लाहौर, अब्दाली को दे दिये किंतु दूसरी ओर मराठों से सन्धि की जिसमें तय किया गया कि मराठे, देशी और विदेशी शत्रुओं के विरुद्ध, मुगल बादशाह की सहायता करेंगे जिसके बदले में मराठों को पंजाब, सिन्ध और दो-आब से चौथ वसूल करने का अधिकार होगा। इस प्रकार मराठा, मुगल सल्तनत के संरक्षक बन गये। इसके कुछ समय बाद ही बादशाह अहमदशाह और उसके वजीर सफदरजंग के बीच मतभेद बढ़े तथा दिल्ली दरबार में दो परस्पर-विरोधी दल खड़े हो गये। दोनों पक्षों ने मराठों से सहायता प्राप्त करने का प्रयास किया। मराठों ने बादशाह का साथ दिया तथा मुगल वजीर को कई बार परास्त किया। बार-बार परास्त होकर वजीर अपने सूबे अवध को चला गया। 13 मई 1754 को बादशाह ने इन्तिजामउद्दौला को अपना नया वजीर बनाया किन्तु निजाम-उल-मुल्क के बड़े पुत्र गाजीउद्दीन ने बादशाह अहमदशाह को पदच्युत करके आलमगीर (द्वितीय) को बादशाह बनाया और खुद वजीर बन गया। नया वजीर स्वार्थ-सिद्धि हेतु कभी मराठों से, कभी रोहिल्ला सरदार नजीबखाँ से और कभी अफगानिस्तान के शासक अहमदशाह अब्दाली से साँठ-गाँठ करता रहा।
नवम्बर 1753 में पंजाब के सूबेदार मीर मन्नू की मृत्यु के बाद उसकी विधवा मुगलानी बेगम अपने शिशु पुत्र के नाम पर शासन करने लगी। गाजिउद्दीन ने औरत के शासन को हटाने के लिये पंजाब पर आक्रमण किया तथा मुगलानी बेगम को बंदी बनाकर दिल्ली ले आया। वह मुगलानी बेगम की सम्पत्ति भी दिल्ली ले आया। गाजीउद्दीन ने शाही हरम की बेगमों को भी परेशान किया। बेगमों ने रोहिल्ला सरदार नजीबखाँ से सहायता माँगी। नजीबखाँ का मानना था कि वजीर, मराठों की शक्ति के बल पर ऐसा कर रहा है। अतः नजीबखाँ ने मराठों को कुचलने के लिये अहमदशाह अब्दाली को आमन्त्रित किया। उधर मुगलानी बेगम ने भी अब्दाली को भारत आने का निमन्त्रण भेजा। 1757 ई. के आरम्भ में अब्दाली एक बार फिर सेना लेकर भारत पहुँचा और उसने लाहौर पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने दिल्ली में प्रवेश करके दिल्ली के समृद्ध नागरिकों एवं अमीरों को लूटा। अब्दाली ने मथुरा के आसपास के क्षेत्रों में भंयकर लूटमार मचाई। संयोगवश अब्दाली की सेना में महामारी फैल गई जिसके कारण वह वापिस अपने देश को लौट गया। लौटते समय उसने नजीबखाँ को मुगल सल्तनत का मीर-बख्शी बनाया तथा अपने पुत्र तैमूरशाह को पंजाब का गवर्नर नियुक्त किया।
जिस समय अहमदशाह अब्दाली, दिल्ली तथा मथुरा में लूट मचाये हुए था, उस समय मराठा सरदार, राजपूताना के राज्यों से चौथ वसूल करने में व्यस्त थे। जब अब्दाली वापिस लौट गया, तब मराठा सेनापति रघुनाथराव और मल्हारराव होलकर सेनाएँ लेकर आगरा पहुँचे। रघुनाथराव ने नजीबखाँ को बन्दी बना लिया परन्तु होलकर के अनुरोध पर पुनः मुक्त कर दिया। इसके बाद मराठों ने लाहौर पर आक्रमण करके तैमूरशाह को खदेड़ दिया। मराठों ने अटक तक धावे मारे तथा अदीनाबेग को लाहौर का सूबेदार और अहमदशाह बंगश को मीर-बख्शी नियुक्त किया। अब्दाली के पुत्र तैमूरशाह को पंजाब से निकाल बाहर करने से अब्दाली ने क्रुद्ध होकर फिर से भारत पर चढ़ाई की।
उधर पेशवा ने उत्तर भारत की व्यवस्था करने का दायित्व सिन्धिया परिवार को सौंपा और होलकर को सिन्धिया की सहायता करने को कहा किन्तु होलकर ने पेशवा के आदेश का पालन नहीं किया। दत्ताजी सिन्धिया ने दिल्ली पहुँचकर नजीबखाँ को पकड़ने का प्रयास किया। नजीबखाँ ने अब्दाली से सहायता माँगी। इस समय अब्दाली पेशावर में था। उसने जहानखाँ को लाहौर पर अधिकार करने भेजा किन्तु साबाजी सिन्धिया ने उसे परास्त करके खदेड़ दिया। इस पर अब्दाली स्वयं दिल्ली की ओर बढ़ा। नजीबखाँ भी सेना लेकर अब्दाली से जा मिला। जनवरी 1760 में बरारी घाट का युद्ध हुआ जिसमें दत्ताजी सिन्धिया परास्त होकर मारा गया। अब्दाली ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। दत्ताजी की मृत्यु के बाद होलकर दिल्ली की तरफ आया किन्तु अफगानों से परास्त होकर राजपूताने की ओर भाग गया।
पानीपत का तीसरा युद्ध
अब्दाली द्वारा मराठों की दुर्दशा किये जाने से पेशवा बालाजी बाजीराव को अत्यधिक दुःख हुआ। उसने अपने चचेरे भाई सदाशिवराव भाऊ को एक विशाल सेना के साथ दिल्ली की ओर भेजा। इस अभियान का औपचारिक नेतृत्व पेशवा के बड़े पुत्र विश्वासराव को सौंपा गया। सदाशिवराव भाऊ पराक्रमी सेनापति था। अब्दाली ने भारतीय मुस्लिम सेनापतियों का समर्थन प्राप्त करने के लिये घोषित किया कि वह दिल्ली के मुस्लिम राज्य को मराठों की लूटमार से बचाने के लिए भारत आया है। इस घोषणा के बाद, भारत के अधिकांश मुस्लिम शासक अहमदशाह अब्दाली के साथ हो गये। इस पर सदाशिवराव भाऊ ने घोषित किया कि वह विधर्मी विदेशियों को भारत से खदेड़ना चाहता है; इसलिये समस्त भारतीय शक्तियाँ इस कार्य में सहयोग दें किंतु मराठों की लूटमार से संत्रस्त उत्तर भारत की किसी भी शक्ति ने मराठों का साथ नहीं दिया। राजा सूरजमल को छोड़कर भारत की समस्त शक्तियों की सहानुभूति अब्दाली के साथ थी।
कहने को मराठे, मुगल बादशाह आलमगीर की तरफ से अहमदशाह अब्दाली से युद्ध लड़ रहे थे किंतु इस समय तक मुगल साम्राज्य की इतनी दुर्दशा हो चुकी थी कि बादशाह आलमगीर, अहमदशाह अब्दाली के विरुद्ध छोटी-मोटी सेना भी नहीं भेज सका। 7 मार्च 1760 को सदाशिवराव भाऊ दक्षिण से चला। मराठे अपनी जीत के प्रति आवश्यकता से अधिक आश्वस्त थे। वे अपनी पराजय के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। वे युद्ध के मैदान में अपनी पत्नियों, रखैलों और दासियों को लेकर पहुँचे। युद्ध क्षेत्र में उतरने से पहले उन्होंने पुष्कर और प्रयाग में डुबकियां लगाईं और काशी में विश्वनाथ के दर्शन किये। वे बड़ी ही लापरवाही से दिल्ली की ओर बढ़े। अगस्त 1760 में सदाशिवराव ने अब्दाली के आदमियों से दिल्ली छीन ली तथा दिल्ली के निकट अफगानों के प्रमुख केन्द्र कुंजपुरा पर भी अधिकार कर लिया।
अब्दाली को यह समाचार मिला तो उसने यमुना पार करके मराठों पर पीछे से आक्रमण करने की योजना बनाई और पानीपत तक चला आया। सदाशिवराव भी अपनी सेना सहित पानीपत जा पहुँचा। नवम्बर 1760 में दोनों सेनाएँ आमने-सामने हो गईं। 14 जनवरी 1761 को दोनों सेनाओं के बीच अन्तिम निर्णायक युद्ध लड़ा गया। मदमत्त मराठों ने युद्ध के सामान्य नियमों का पालन भी नहीं किया। न ही शत्रु की गतिविधियों पर दृष्टि रखी। वे सीधे ही युद्ध के मैदान में धंस गये जबकि अब्दाली ने उस मैदान के तीन तरफ अपनी सेनाएं छिपा रखी थीं। पाँच घण्टे के भीषण युद्ध के बाद ही पेशवा का पुत्र विश्वासराव, शत्रु की गोली से मारा गया। यह सुनते ही सदाशिवराव भाऊ अपना संयम खो बैठा और अन्धाधुन्ध लड़ते हुए वह भी मारा गया। मल्हारराव होलकर आरम्भ से ही दोहरी नीति अपनाये हुए था। वह युद्ध के मैदान तक तो पहुंचा किंतु उसने युद्ध में विशेष भाग नहीं लिया और स्थिति के प्रतिकूल होते ही सेना सहित युद्ध के मैदान से भाग खड़ा हुआ।
अहमदशाह अब्दाली, हाथ आये हुए शत्रु को इस तरह बच कर नहीं जाने दे सकता था। उसकी सेना ने भागते हुए मराठों का पीछा किया तथा एक लाख मराठे काट डाले। मराठों के अनेक प्रसिद्ध सेनापति इस युद्ध में मारे गये। भागते हुए हजारों मराठों को बन्दी बना लिया गया। बचे हुए मराठे जान हथेली पर रखकर राजपूताना होते हुए महाराष्ट्र की तरफ भागे। मार्ग में लोगों ने उन्हें लूटना और मारना आरम्भ किया। मराठा सैनिकों की ऐसी दुर्दशा देखकर भरतपुर के जाटों की राजमाता किशोरी देवी ने घोषणा की कि मराठा सैनिक मेरे बच्चे हैं। राजमाता ने समस्त भारतीयों और भारतीय राजाओं का आह्वान किया कि वे मराठा सैनिकों के प्राणों की रक्षा करें और उन्हें शरण प्रदान करें।
युद्ध के परिणाम
(1.) मराठा सैन्य शक्ति का पराभव: एक लाख मराठा सैनिकों के मारे जाने के कारण मराठों की सैन्य शक्ति का बहुत ह्रास हुआ। यदुनाथ सरकार ने लिखा है- ‘इस भयंकर संघर्ष में मराठों को बुरी तरह मार खानी पड़ी। सम्पूर्ण महाराष्ट्र में शायद ही कोई ऐसा सैनिक परिवार बचा हो, जिसने पानीपत के इस पवित्र संघर्ष में अपना एक सदस्य न खोया हो।’
(2.) मराठा सरदारों में बिखराव: एक लाख मराठा सैनिकों को काट डाले जाने के बाद पूरा महाराष्ट्र विधवा मराठनों के करुण क्रंदन से गूंज उठा। मराठों की इस भारी पराजय से पेशवा बालाजी बाजीराव का हृदय टूट गया। 23 जून 1761 को वह हृदयाघात से मर गया। उसका पुत्र विश्वासराव पहले ही मारा जा चुका था, ऐसी स्थिति में मराठा सरदारों पर नियंत्रण रखने वाला कोई नहीं रहा। वे अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिये एक-दूसरे के विरुद्ध षड्यंत्र रचने लगे।
(3.) मुगल सत्ता का पराभव: मुगलों की सत्ता अपने पतन के चरम पर थी किंतु पानीपत का युद्ध समाप्त हो जाने के बाद मुगल सत्ता का नैतिक पतन भी हो गया। विजय मद में चूर अब्दाली ने हाथी पर बैठकर दिल्ली में प्रवेश किया। उसने आलमगीर को एक साधारण कोठरी में बंद कर दिया। अब्दाली तथा उसके सैनिकों ने बादशाह आलमगीर तथा उसके अमीरों की औरतों और बेटियों को लाल किले में निर्वस्त्र करके दौड़ाया और उन पर दिन-दहाड़े बलात्कार किये। निकम्मा आलमगीर, अब्दाली के विरुद्ध कुछ नहीं कर सका। जब अहमदशाह अब्दाली, लाल किले का पूरा गर्व धूल में मिलाकर अफगानिस्तान लौट गया तब मुगल शाहजादियाँ पेट की भूख मिटाने के लिये दिल्ली की गलियों में फिरने लगीं। अब्दाली के जाते ही उसके वजीर इमाद ने बादशाह की हत्या करवाकर शव नदी तट पर फिंकवा दिया तथा यह प्रचारित कर दिया कि बादशाह पैर फिसलने से मर गया। इस प्रकार पानीपत के तृतीय युद्ध के बाद मुगल सल्तनत का लगभग अन्त हो गया। मुगलों, मराठों तथा अफगानों के पराभव ने अँग्रेजों के लिये मैदान साफ कर दिया।
मराठों का पुनरुत्थान
मराठा इतिहासकार सरदेसाई का मत है- ‘यह सोचना कि पानीपत के युद्ध ने मराठों की उठती हुई शक्ति को कुचल दिया, ठीक नहीं होगा। क्योंकि नई पीढ़ी के लोग शीघ्र ही पानीपत में हुई क्षति की पूर्ति करने के लिये उठ खड़े हुए।’
मराठों ने बहुत कम समय में अपनी क्षति को पूरा कर लिया। 1769 ई. में उन्होंने पुनः नर्मदा को पार किया और राजपूतों, रोहिल्लों, जाटों आदि से कर वसूल किया। बाद में सिन्धिया कुछ समय के लिये मुगल बादशाह का संरक्षक भी रहा परन्तु फिर भी, मराठे भारत की राजनीति में दुबारा से स्थायी प्रभाव जमाने में सफल नहीं हुए।
निष्कर्ष
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि अँग्रेजों के भारत आगमन के समय लगभग पूरे देश में राजनीतिक अस्थिरता व्याप्त थी। चारों ओर लूटमार का वातावरण था। औरंगजेब की नीतियों के कारण केन्द्रीय सत्ता कमजोर चुकी थी तथा उसकी मृत्यु के बाद देश में विभिन्न अर्द्धस्वतंत्र एवं स्वायत्तशासी राज्यों का उदय हो चुका था। मुगलों के पतन से उत्पन्न हुई राजनीतिक शून्यता को भरने के लिये मराठे सामने आये। इसी दौरान हुए अफगानी आक्रमणों ने तथा मराठों की आपसी फूट ने मराठा शक्ति को कमजोर कर दिया।