उत्तरवैदिक-कालीन आर्यों की सामाजिक दशा
नारद संहिता, गार्गी संहिता और वृहत संहिता ज्योतिष साहित्य के ऐसे ग्रन्थ हैं जिनसे तत्कालीन सामाजिक जीवन की जानकारी प्राप्त होती है। कल्पसूत्र साहित्य में विविध सामाजिक और धार्मिक विधि-विधानों तथा नियम- निर्देशों का वर्णन है। यद्यपि उत्तर-वैदिक-काल के आर्यों के गृह-निर्माण, वेश-भूषा, खान-पान, मनोरंजन आदि में विशेष परिवर्तन नहीं हुए थे परन्तु सामाजिक जीवन के कई क्षेत्रों में बड़े परिवर्तन हुए।
(1.) पिता की शक्तियों में वृद्धि: उत्तर-वैदिक-काल में, परिवार में पिता की शक्ति बहुत अधिक बढ़ गई। अब पिता अपने पुत्र को उत्तराधिकार से वंचित कर सकता था। राज-परिवारों में ज्येष्ठाधिकार को अधिकाधिक महत्त्व दिया जाने लगा। राज-परिवारों के अतिरिक्त अन्य परिवारों में परिवार की संयुक्त सम्पत्ति पर पिता के समस्त पुत्रों का समान अधिकार होता था।
कभी-कभी पिता अपने जीवन-काल में ही अपने पुत्रों में परिवार की संयुक्त सम्पत्ति का विभाजन कर देता था और फिर उन्हें अपना अलग परिवार बसाने की अनुमति दे-देता था। इस काल में पूर्व-पुरुषों की पूजा होने लगी।
(2.) गोत्र व्यवस्था: उत्तर-वैदिक-काल में गोत्र व्यवस्था दृढ़ हुई। गोत्र शब्द का अर्थ है गोष्ठ अथवा वह स्थान जहाँ समस्त कुल के गोधन को एक साथ रखा जाता था परन्तु बाद में इस शब्द का अर्थ हो गया- एक मूल पुरुष के वंशज। गोत्रीय बहिर्विवाह की प्रथा आरम्भ हो गई। एक ही गोत्र अथवा पूर्व-पुरुष वाले समुदाय के सदस्यों के बीच विवाह पर प्रतिबंध लग गया।
(3.) नगरों का प्रादुर्भाव: ऋग्वैदिक आर्य गाँवों में निवास करते थे। ऋग्वेद में नगर शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है परन्तु जब उत्तर-वैदिक आर्य गंगा-यमुना के उपजाऊ मैदानों में आ गए तब उन्होंने बड़े-बड़े नगरों को बसाया तथा नगरों में निवास करना आरम्भ किया।
अब यही नगर, राजनीतिक तथा सामाजिक जीवन के केन्द्र बन गए। नगरों की वास्तविक शुरूआत का आभास उत्तर-वैदिक-काल के अंतिम दौर में मिलता है। हस्तिनापुर और कौशाम्बी को उत्तर-वैदिक-काल के अंतिम दौर के आदिम पद्धति के नगर माना जा सकता है। इन्हें प्राक्-नगरीय स्थल कहा जा सकता है।
(4.) खान-पान: उत्तरवैदिक-काल के आर्यों का भोजन ऋग्वैदिक-काल जैसा ही था। उसमें विशेष अन्तर नहीं आया था। अन्न, दूध, वनस्पति से बने हुए पदार्थ एवं माँस उनके भोजन के मुख्य अंग थे। अन्न में गेहूँ, जौ, चावल मुख्य थे। चावल की खेती अधिक की जाने लगी थी। दूध से दही, मक्खन और घी तैयार किया जाता था। दूध में दूसरी वस्तुओं को पकाकर कई प्रकार के व्यंजन बनाए जाते थे।
वैदिक साहित्य में ओदन, क्षीरोदन तथा तिलोदन आदि शब्दों का उल्लेख अनेक बार हुआ है। दूध में चावलों को पकाकर ‘क्षीरोदन’ अर्थात् खीर और तिलों को पकाकर ‘तिलोदन’ बनाई जाती थी। ऋग्वैदिक-काल की भाँति इस युग में भी साग-सब्जियों तथा फलों का सेवन प्रचुरता से होता था। सामान्यतः भेड़, बकरा-बकरी, बैल और कभी-कभी घोड़े का माँस खाया जाता था। शिकार में मारे गए पशु-पक्षियों का मांस भी खाया जाता था किंतु सामान्यतः मांस-भक्षण को घृणा की दृष्टि से देखा जाता था, ब्राह्मणों के लिए इसका निषेध हो गया था।
अथर्ववेद के एक सूक्त में मांस-भक्षण तथा सुरापान को पाप बताया गया है। अतः स्पष्ट है कि अंहिसा के विचार को श्रेष्ठ समझा जाता था। अब सोम के स्थान पर मासर, पूतिका, अर्जुनानी आदि अन्य पेय पदार्थों का प्रयोग होने लगा था। समाज के निम्न वर्गों में सुरापान बढ़ रहा था।
(5.) स्त्रियों की दशा में परिवर्तन: उत्तर-वैदिक-काल में स्त्रियों की दशा पहले से बिगड़ गई। राजवंशों तथा सम्पन्न परिवारों में बहु-विवाह की प्रथा प्रचलित हो गई थी। इसलिए घरों में स्त्रियों का जीवन कलहपूर्ण हो गया। कन्याओं को दुःख का कारण समझा जाने लगा। अथर्ववेद में पुत्री के जन्म पर खिन्नता का उल्लेख मिलता है। ऐतरेय ब्राह्मण में एक स्थान पर पुत्री के लिए ‘कृषण’ शब्द का उल्लेख किया गया है।
‘गोमिल-गृह सूत्र’ में कन्याओं द्वारा यज्ञोपतीत धारण करने का उल्लेख मिलता है। यज्ञोपवीत विधाध्ययन का चिह्न है। स्पष्ट है कि इस युग में भी स्त्रियाँ शिक्षा प्राप्त करती थीं। उपनिषदों में कुछ विदुषी स्त्रियों का उल्लेख है। जनक की राजसभा में गार्गी ने याज्ञवल्क्य के साथ शास्त्रार्थ किया था। गन्धर्व-गृहीता नामक महिला परम विदुषी तथा भाषण कला में निपुण थी। मैत्रेयी जैसी विदुषी महिला भी इसी युग में हुई। यज्ञादि धार्मिक अवसरों और सार्वजनिक सभाओं में स्त्रियाँ अब भी भाग लेती थीं।
गोद लेने की प्रथा का विकास हो गया था। गोद के लिए भाई की सन्तान को प्राथमिकता दी जाती थी। कुछ कन्याएँ अविवाहित रूप में आजीवन अपने पति के परिवार में रहती थी। यदा-कदा कन्याओं का विक्रय होता था और दहेज-प्रथा प्रचलित हो गई थी। विधवा स्त्री के लिए नियोग की प्रथा अब भी प्रचलित थी। विधवा स्त्री को विवाह करने का अधिकार था। सती-प्रथा का उल्लेख इस युग में भी नहीं मिलता है। पर्दा-प्रथा का प्रचलन नहीं हुआ था।
(6.) वैवाहिक सम्बन्ध में जटिलता: उत्तर-वैदिक-काल में भी विवाह को पवित्र एवं आवश्यक संस्कार समझा जाता था किंतु विवाह सम्बन्धी नियम कठोर हो गए थे। अविवाहित पुरुष को यज्ञ करने का अधिकार नहीं था। यज्ञादि के लिए पुत्र का होना आवश्यक था और पुत्र-प्राप्ति के लिए विवाह आवश्यक था। ‘सगोत्री विवाह’ अच्छा नहीं समझा जाता था। भिन्न गोत्र में विवाह करना अच्छा समझा जाता था। अथर्ववेद से ज्ञात होता है कि विधवा-विवाह तथा बहु-विवाह प्रथाओं का प्रचलन हो गया था।
मनु की दस पत्नियाँ थीं। याज्ञवल्क्य ऋषि के मैत्रेयी और कात्यायनी नामक दो पत्नियाँ थी। ऐतरेय ब्राह्मण में हरिश्चन्द्र नामक व्यक्ति की 100 पत्नियों का उल्लेख है परन्तु बहु-विवाह के ये उदाहरण धनी एवं राजपरिवारों तक ही सीमित थे। साधारण लोग केवल एक विवाह करते थे।
‘एक पुरुष-एक पत्नी’, यही सामान्य व्यवस्था थी। एक स्त्री के एक से अधिक पति नहीं होते थे। विवाह युवावस्था में किया जाता था तथा बाल-विवाह का प्रचलन नहीं था। सपिण्ड, सगोत्र और सप्रवर विवाहों पर प्रतिबन्ध लगने लगा था और सूत्रकाल के आते-आते इस प्रकार के विवाहों पर स्पष्ट रूप से निषेध कर दिया गया।
विवाह सामान्यतः सजातीय होते थे। उच्च-वर्ण की कन्या का विवाह निम्न-वर्ण में नहीं होता था। उत्तरवैदिक साहित्य में अन्तर्जातीय विवाहों के उल्लेख भी मिलते हैं। तैतिरीय संहिता में आर्य पुरुष और शूद्र कन्या के विवाह का उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण में ऋषि च्यवन और राजकन्या सुकन्या के विवाह का उल्लेख है। इस प्रकार के अन्तर्जातीय विवाहों के बारे में विद्वानों की मान्यता है कि साधारणतः श्रेष्ठ जाति के पुरुष निम्न जाति की स्त्रियों के साथ विवाह कर सकते थे। अर्थात् अनुलोम विवाह होते थे परन्तु प्रतिलोम विवाह वर्जित थे।
स्त्री, पुरुष की सहधर्मिणी थी तथा घर एवं समाज में स्त्री का बहुत सम्मान था। शतपथ ब्राह्मण में उसे पुरुष की अर्धांगिनी कहा गया है। धर्म-सूत्रों में तो स्त्रियों के प्रति उदार रुख अपनाया गया है। उदाहरणार्थ, वशिष्ठ धर्मसूत्र में लिखा है कि चाहे पत्नी दोषी हो, झगड़ालू हो, घर छोड़कर चली गई हो, उसके साथ बलात्कार हुआ हो, उसे त्यागा नहीं जाएगा।
धर्मसूत्रों में पत्नी को त्यागने वाले पति के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था की गई है। आपस्तम्ब सूत्र में लिखा है कि जिस पति ने अन्याय से अपनी पत्नी का परित्याग किया हो, वह गधे का चमड़ा ओढकर प्रतिदिन सात गृहों में यह कहते हुए भिक्षा माँगे कि उस पुरुष को भिक्षा प्रदान करो, जिसने अपनी पत्नी को त्याग दिया है।
इस युग में माता के पद को बहुत उँचा और पवित्र समझा जाता था। वशिष्ठ सूत्र में माता का स्थान उपाध्याय, आचार्य और पिता से श्रेष्ठ माना गया है। इस प्रकार इस युग में स्त्रियों की स्थिति सम्मानजनक थी। परन्तु कुछ विद्वानों का मानना है कि उत्तरवैदिक युग के अन्तिम चरण में स्त्रियों की स्थिति में काफी गिरावट आ गई थी। कन्याओं को बेचने तथा दहेज लेने के उल्लेख मिलते हैं।
ऐतरेय ब्राह्मण में लिखा है कि एक अच्छी स्त्री वह है जो उत्तर नहीं देती। शतपथ ब्राह्मण कहता है कि पत्नी को पति के पहले भोजन नहीं करना चाहिए। ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्री को दुःख का कारण माना गया है। मैत्रायनी संहिता में स्त्री को जुआ और शराब की भाँति पुरुष का दोष माना गया है।
(7.) वर्ण-व्यवस्था में जटिलता: ऋग्वैदिक युग के रथेष्ठ और राजन्य उत्तर-वैदिक-काल में क्षत्रिय कहलाने लगे। यज्ञकर्ता, ब्रह्मवादी एवं तत्त्वचिन्तक, ब्राह्मण कहलाते थे। कृषि, पशुपालन एवं वाणिज्य करने वाले लोगों को वैश्य कहा जाता था। अनार्य लोग शूद्र कहलाते थे। उत्तर-वैदिक-कालीन ग्रंथों में प्रथम तीन वर्णों को उच्च और शूद्रों को निम्न समझा जाता था।
तीनों उच्च वर्णों- ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों का उपनयन संस्कार होता था। चौथे वर्ण का उपनयन संस्कार नहीं हो सकता था। ब्राह्मणों और क्षत्रियों की सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ गई थी। ब्राह्मणों को देवताओं का प्रिय माना जाने लगा। इस युग में सामाजिक प्रभुता तथा प्रतिष्ठा के लिए ब्राह्मणों और क्षत्रियों में प्रतिस्पर्धा होती थी। इस कारण कुछ क्षत्रियों ने विशिष्ट ज्ञान अर्जित किया।
उनकी विद्वता से प्रभावित होकर ब्राह्मण भी उन क्षत्रियों के पास ज्ञान प्राप्त करने के लिए जाने लगे। श्वेतकेतु आरुणेय ने जैवलि नामक क्षत्रिय से और गार्ग्य नामक ब्राह्मण ने राजा अजातशुत्र से शिक्षा प्राप्त की थी।
ऋग्वैदिक-काल में वैश्य शब्द का उल्लेख नहीं है किंतु उत्तरवैदिक साहित्य से ज्ञात होता है कि वैश्यों का सामाजिक स्तर ब्राह्मणों तथा क्षत्रिय से निम्न था। चूँकि यह वर्ण विविध व्यवसायों के द्वारा राष्ट्र की समृद्धि के लिए प्रयत्नशील था, अतः इसकी उपेक्षा करना सम्भव नहीं था। इसलिए वैश्यों को भी विद्या की प्राप्ति तथा यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार था। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को द्विज कहा जाता था।
शूद्रों पर कई तरह के प्रतिबंध थे किंतु राज्याभिषेक से सम्बन्धित ऐसे कई सार्वजनिक अनुष्ठान थे जिनमें शूद्र, सम्भवतः मूल कबीले के सदस्यों की हैसियत से भाग लेते थे। कुछ विशेष वर्गों के शिल्पियों को, जैसे रथकारों को, समाज में ऊंचा स्थान प्राप्त था और उन्हें उपनयन संस्कार के अधिकारियों की सूची में सम्मिलित किया गया था।
वर्ण-व्यवस्था जाति-प्रथा का रूप लेती जा रही थी। कार्य अथवा व्यवसाय के स्थान पर जन्म, जाति का आधार होने लगा था। उत्तर-वैदिक-काल में ऋग्वैदिक-काल की चार जातियों के अतिरिक्त दो और जातियाँ बन गयी थीं। इनमें से एक निषाद कहलाती थी और दूसरी व्रात्य। निषाद लोग अनार्य थे। सम्भवतः ये लोग भील जाति के थे। व्रात्य लोग सम्भवतः आर्य एवं अनार्य रक्त-मिश्रण से उत्पन्न हुए थे। विभिन्न व्यवसायों के अनुसार बढ़ई, लोहार, मोची आदि उपजातियाँ बनने लगी थीं और अन्तर्जातीय-विवाह को घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा था।
(8.) आश्रम-व्यवस्था की दृढ़ता: ऋग्वेद में आश्रम व्यवस्था की जानकारी नहीं मिलती। उत्तरवैदिक-काल के ग्रन्थों में केवल तीन आश्रमों- (1.) ब्रह्मचर्य (2.) गृहस्थ (3.) वानप्रस्थ आश्रम की जानकारी मिलती है, अंतिम अथवा चौथे आश्रम की स्थापना स्पष्ट रूप से नहीं हुई थी। सूत्र-ग्रन्थों में चारों आश्रमों की जानकारी मिलती है- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। आश्रम व्यवस्था केवल द्विज जातियों के लिए थी। शूद्रों के लिए एकमात्र गृहस्थ आश्रम ही बताया गया था।
(9.) वंशानुगत उद्योग-धन्धे: अब व्यवसाय वंशानुगत हो गया था और एक परिवार के लोग एक ही व्यवसाय करने लगे थे। यही कारण था कि उपजातियों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ने लगी।
(10.) शिक्षा के महत्त्व में वृद्धि: वैदिक यज्ञों में वृद्धि हो जाने के कारण शिक्षा के महत्त्व में वृद्धि हो गई। यद्यपि शिक्षा का मुख्य विषय वेदों का अध्ययन ही था परन्तु वैदिक मन्त्रों के साथ-साथ विज्ञान, गणित, भाषा, युद्ध-विद्या आदि की भी शिक्षा दी जाने लगी। विद्यार्थी, गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण करता था और ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करता था। शिक्षा समाप्त होने पर वह गुरु को दक्षिणा देकर घर आता था और गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता था।