कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि तहमास्प का एक भाई हुमायूँ से वैमनस्य रखने लगा। उसने कुछ लोगों के साथ मिलकर हुमायूँ के विरुद्ध तहमास्प के कान भरने आरम्भ किये इससे तहमास्प हूमायू से अप्रसन्न हो गया। यहाँ तक कि हुमायूँ की जान खतरे में पड़ गई। इस स्थिति में शाह की बहिन सुल्तानम ने हूमायू की बड़ी सहायता की।
यह वही बहिन थी जो शिकार के समय तहमास्प के पीछे खड़ी रहा करती थी और जिसके घोड़े की बाग एक सफेद दाढ़ी वाला मनुष्य लिए रहता था। पाठकों को स्मरण होगा कि सुल्तानाम ने शाही भोज के अवसर पर हमीदा बानू बेगम द्वारा की गई हिंदुस्तान की प्रशंसा का भी समर्थन किया था।
हुमायूँ द्वारा हीरों की थैली तहमास्प के पास भिजवाए जाने और उसके बाद तहमास्प का मन साफ होने की बात से लगता है कि तहमास्प को हुमायूँ के पास अत्यधिक धन होने की जानकारी मिलने पर तहमास्प ने हुमायूँ के प्राण लेने की साजिश रची हो तथा तहमास्प की बहिन ने दोनों के बीच मध्यस्थता करके हुमायूँ की जान बचाई हो!
कुछ इतिहासकारों के अनुसार फारस में हुमायूँ अधिक प्रसन्न नहीं रहता था। वह सुन्नी मुसलमान था परन्तु फारस का शाह शिया था। इसलिये एक शिया की शरण में रहना हुमायूँ के लिए पीड़ाजनक था। हुमायूँ को पारसीकों जैसे कपड़े पहनने पड़ते थे तथा उन्हीं की तरह व्यवहार करना पड़ता था।
इन इतिहासकारों के अनुसार तहमास्प की बहिन ने तहमास्प को हुमायूँ की सहायता करने के लिये तैयार किया ताकि हुमायूँ फिर से अपने खोये हुए राज्य को प्राप्त कर सके। ईरान के शाह ने हुमायूँ को ईरान के शाहजादे मुराद की अध्यक्षता में 14 हजार अश्वारोही दिये ताकि हुमायूँ कन्दहार पर आक्रमण कर सके। इस सहायता के बदले में हुमायूँ से यह वचन लिया गया कि वह शाह की बहिन की पुत्री से विवाह करेगा और जब फारस की सेना कन्दहार, काबुल तथा गजनी जीत कर हूमायू को सौंप देगी, तब हुमायूँ कन्दहार का दुर्ग फारस के शाह को प्रदान करेगा तथा काबुल एवं गजनी हुमायूँ के पास रहेंगे।
इन इतिहासकारों के अनुसार इसके अतिरिक्त अन्य कोई धार्मिक, साम्प्रदायिक अथवा राजनीतिक शर्त नहीं रखी गई किंतु इन इतिहासकारों का यह कहना गलत है। गुलबदन बेगम ने इन तथ्यों का उल्लेख नहीं किया है किंतु इतिहास की अन्य पुस्तकों के अनुसार ईरान के शाह ने भारत-विजय की योजना बनाई तथा अपनी बहिन सुल्तानम की पुत्री का विवाह इस शर्त पर हुमायूँ के साथ कर दिया कि हुमायूँ शिया-मत ग्रहण कर ले। इसके बाद शाह ने हुमायूँ को अपनी सेना देकर हिंदुस्तान-विजय के लिए रवाना किया।
गुलबदन बेगम की तरह अबुल फजल ने भी हुमायूँ के शिया बनने के सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा है कितु कट्टर सुन्नी लेखक मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूनीं ने लिखा है कि दोनों बादशाहों में मेल हो जाने के उपरांत शाह ने हुमायूँ से शिया मत स्वीकार करने को कहा और हुमायूँ ने इस दिशा में कदम उठाया। उसने फारस में शिया धर्म से सम्बन्धित स्थानों तथा हसरत अली के मजार की यात्रा की।
गुलबबदन बेगम ने लिखा है कि अंत में शाह ने अपने पुत्र मुराद को खानों, सुल्तानों और सरदारों के साथ हुमायूँ की इच्छानुसार खेमे, तंबू, छत्र, मेहराब, शामियाने, रेशमी गलीचे, कलाबत्तू की दरियां तथा हर प्रकार का सामान, तोषकखाना, कोष, हर प्रकार के कारखाने, बावरची खाना और रिकाब-खाना बनाकर बादशाह हुमायूँ को दिए और एक शुभ समय में हुमायूँ को कांधार के लिए विदा किया। उस समय हुमायूँ ने ईरान के शाह से कहा कि वह ख्वाजा गाजी तथा रौशन कोका को क्षमा करके उन्हें मुक्त कर दे ताकि मैं उन्हें अपने साथ कांधार ले जा सकूं।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार हुमायूँ की रुचि भारत लौटने की बजाय फारस में ही मौज-मस्ती करने में थी। इसलिए जब फारस के शाह ने हुमायूँ को कजवीन के पास ही मौज-मस्ती में डूबा हुआ देखा तो एक दिन शाह ने हुमायूँ को फटकार लगाई तथा उसे जबर्दस्ती हिंदुस्तान के लिए रवाना किया। फारस के शाह का पुत्र मुराद चौदह हजार सैनिकों के साथ इस अभियान के लिए भेजा गया।
गुलबदन बेगम ने जिन वस्तुओं को शाह द्वारा हुमायूँ के साथ भेजे जाने की बात लिखी है, वास्तव में वह सब सामग्री तथा सेना शाह ने अपने पुत्र मुराद को दी थीं न कि हुमायूँ को। हुमायूँ को तो इस सेना के साथ भेजा गया था। ईरान का शाह तो स्वयं ही अफगानिस्तान एवं भारत पर अधिकार करने का स्वप्न देख रहा था।
ई.1545 में हुमायूँ फारस की सेना को साथ लेकर कांधार के निकट पहुंच गया। जब मिर्जा अस्करी ने सुना कि हुमायूँ खुरासान से लौटकर आ रहा है तब उसने हुमायूँ के पुत्र जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर को मिर्जा कामरान के पास काबुल भेज दिया। कुछ इतिहासकारों के अनुसार कामरान के आदेश से ऐसा किया गया।
पाठकों को स्मरण होगा कि जब हुमायूँ शाल मस्तान से बलूचिस्तान की ओर भागा था। तब उसका 15 महीने का शिशु अकबर पीछे ही छूट गया था और उसे मिर्जा अस्करी अपने साथ कांधार ले गया था। जब अस्करी ने अकबर को कांधार से काबुल भेजा तब अकबर ढाई साल का हो चुका था। मिर्जा कामरान ने अकबर को अपनी बुआ खानजादः बेगम को सौंप दिया।
फारस की तरफ से अफगानिस्तान में प्रवेश करने पर सबसे पहले बुस्त किला आता है जिस पर इस समय कामरान का अधिकार था। हुमायूँ ने बुस्त किले पर अधिकार कर लिया। इसके बाद हुमायूँ ने कांधार घेर लिया।
गुलबदन ने लिखा है कि जब मिर्जा कामरान को ज्ञात हुआ कि बादशाह लौट आया है तो कामरान ने खानजादः बेगम के समक्ष विनम्रता का प्रदर्शन करके तथा कुछ रो-पीटकर कहा कि आप हुमायूँ के पास कांधार जाएं तथा हम लोगों में संधि करवा दें।
इस पर खानजादः बेगम ने शिशु अकबर; मिर्जा कामरान तथा उसकी स्त्री खानम को सौंप दिया तथा स्वयं काबुल से कांधार जाने की तैयारी करने लगी। इससे पहले कि खानजादः बेगम काबुल से रवाना हो पाती, बैराम खाँ कांधार से काबुल आ पहुंचा। उसे हुमायूँ ने अपना दूत बनाकर कामरान के पास भेजा था तथा कामरान के नाम यह आदेश भिजवाया था कि वह काबुल खाली करके हुमायूँ की शरण में आ जाए किंतु कामरान ने बैराम खाँ की बात मानने से मना कर दिया।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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