नितांत अनपढ़ होने के उपरांत भी सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी ने अपने शासन के आधार को मजबूत बनाया तथा एक विशाल सेना को नियंत्रण में रखने के लिए समुचित उपाय किए। अल्लाउद्दीन खिलजी द्वारा आंतरिक प्रशासन में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए गए।
अल्लाउद्दीन ने सल्तनत में घूसखोरी तथा अनैतिक तरीके से धन-संग्रहण की प्रवृत्ति को रोकने के लिए बाजारों में मूल्य नियंत्रण के कठोर उपाय किये। उसने उन वस्तुओं की विस्तृत सूचि तैयार करवाई जिन वस्तुओं की उसके सैनिकों को प्रतिदिन आवश्यकता पड़ती थी। इन सब वस्तुओं के मूल्य निश्चित कर दिए गए। इन वस्तुओं को कोई भी दुकानदार निर्धारित मूल्य से अधिक मूल्य पर नहीं बेच सकता था।
सुल्तान ने बाजार में वस्तुओं की माँग तथा पूर्ति में संतुलन बनाने के लिए मुक्त-बाजार के साथ-साथ राज्य की ओर से भी व्यवस्था की। आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति का उत्तरदायित्व सरकार ने अपने ऊपर ले लिया। जो वस्तुएँ शासन स्वयं उत्पन्न कर सकता था, उनके उत्पादन की व्यवस्था की गई। जो वस्तुएं दूरस्थ प्रान्तों से मँगवाई जाती थीं, वे वहाँ से मँगवाई जाने लगीं और जो वस्तुएँ देश में नहीं मिल सकती थीं, वे विदेशों से मँगवाई जाने लगीं।
वस्तुओं की आपूर्ति व्यवस्था के साथ-साथ उनके बाजारों में वितरण की भी समुचित व्यवस्था की गई। दिल्ली में तीन बाजारों की व्यवस्था की गई। एक बाजार सराय अदल कहलाता था, दूसरा शहना-ए-मण्डी कहलाता था और तीसरे बाजार का नाम अब उपलब्ध नहीं है। तीनों बाजारों में भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुएँ प्राप्त होती थीं। प्रत्येक नियन्त्रित दुकान को उतनी ही मात्रा में वस्तुएँ दी जाती थीं जितनी उस दुकान के उपभोक्ताओं की मांग होती थी।
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अल्लाउद्दीन खिलजी ने बाजार में कई श्रेणियों के अधिकारी नियुक्त किये और उन्हें आदेश दिए कि वे बाजारों पर कड़ा नियंत्रण रखें। इस व्यवस्था का प्रमुख अधिकारी दीवाने रियासत कहलाता था। उसे तीनों बाजारों पर नियन्त्रण रखना पड़ता था। दीवाने रियासत के नीचे प्रत्येक बाजार में तीन पदाधिकारी नियुक्त किये गए थे। पहला पदाधिकारी शाहनाह अर्थात् निरीक्षक, दूसरा बरीद-ए-मण्डी अर्थात् लेखक और तीसरा मुन्हीयान अर्थात् गुप्तचर कहलाता था।
शाहनाह बाजार के सामान्य कार्यों को दख्ेाता था, बरीद घूम-घूम कर बाजार का नियन्त्रण करता था और मुन्हीयान गुप्त एजेन्ट अथवा कारदार होता था। बरीद बाजार की पूरी सूचना शाहनाह के पास, शाहनाह इस सूचना को दीवाने रियासत के पास और दीवाने रियासत सुल्तान के पास भेज देता था।
मुन्हीयान को सुल्तान स्वयम् नियुक्त करता था। वह बाजार की अपनी अलग रिपोर्ट तैयार करके सीधे ही सदर दफ्तर में भेजता था। यदि उसकी तथा अन्य पदाधिकारियों की रिपोर्ट में कुछ अन्तर पड़ता था तो गलत रिपोर्ट देने वाले को कठोर दण्ड दिया जाता था।
सुल्तान उन लोगों को बड़े कठोर दण्ड देता था जो बईमानी करते थे और त्रुटियुक्त बाट रखते थे। कहा जाता है कि जो व्यापारी जितना कम तोलता था, उतना ही मांस उसके शरीर से काटने के निर्देश दिए गए थे परन्तु कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जब इस नियम को कार्यान्वित किया गया हो।
सुल्तान की ओर से कपड़ों का भी मूल्य निर्धारित किया गया परन्तु इस मूल्य पर कपड़ा बेचने में व्यापारियों को हानि होने की सम्भावना थी। इसलिए व्यापारियों में कपड़े की दूकानों का अनुज्ञापत्र लेने का साहस नहीं होता था। इसलिए सुल्तान ने कपड़े का व्यापार मुल्तानी व्यापारियों को सौंप दिया। इन व्यापारियों को कपड़ा खरीदने के लिए राजकोष से धन मिलता था और कपड़ा बिक जाने पर इन्हें निर्धारित कमीशन दिया जाता था।
सुल्तान ने पशुओं के क्रय-विक्रय पर भी राज्य का पूरा नियन्त्रण रखा और उनका मूल्य निर्धारित कर दिया। प्रथम श्रेणी के घोड़ों का मूल्य 100 से 120 टंक, दूसरी श्रेणी के घोड़ों का 80 टंक और तीसरी श्रेणी के घोड़ों का 65 से 70 टंक निश्चित किया गया। टट्टुओं का मूल्य 10 से 25 टंक निश्चित किया गया। दूध देने वाली गाय का मूल्य तीन-चार टंक और बकरियों का मूल्य 10 से 14 जीतल निश्चित किया गया।
बाजार की अन्य वस्तुओं की तरह गुलामों तथा वेश्याओं का भी मूल्य निश्चित किया गया। गुलामों का मूल्य 5 से 12 टंक तथा वेश्या का मूल्य 20 से 40 टंक निश्चित किया गया। कुछ उत्तम गुलामों के दाम 100 से 200 टंक हुआ करते थे। बड़े सुन्दर गुलाम लड़के 20 से 30 टंक में खरीदे जा सकते थे। गुलाम नौकरानियों का मूल्य 10 से 15 टंक हुआ करता था। घर में कामों के लिए गुलाम 7 से 8 टंक में खरीदे जा सकते थे।
तत्कालीन मुस्लिम लेखकों द्वारा दी गई इस मूल्य सूचि के आधार पर कहा जा सकता है कि अधिकतर वस्तुओं के भाव मन-माने तरीके से निर्धारित किए गए थे। इंसानों की बजाय पशु महंगे थे। एक घोड़े के मूल्य में पांच से छः वेश्याएं मिल सकती थीं जबकि एक घोड़े के मूल्य में 20-22 गुलाम मिल सकते थे। मर्द-वेश्या के रूप में प्रयुक्त होने वाले एक गुलाम लड़के के मूल्य में चार-पांच गुलाम खरीदे जा सकते थे। एक घोड़े के मूल्य में 30-40 दुधारू गायें मिल सकती थीं।
घोड़ों का इतना अधिक मूल्य उनके सैन्य उपयोग के कारण था। वास्तव में देखा जाए तो ये घोड़े ही अल्लाउद्दीन खिलजी की सल्तनत की वास्तविक शक्ति थे, यही शासन का आधार थे और यही घोड़े अल्लाउद्दीन की सम्पूर्ण सेना का निर्माण करते थे।
बाजार के इन सुधारों का परिणाम यह हुआ कि आवश्यक वस्तुएं कम मूूल्य पर मिलने लगीं। सैनिकों के लिए यह संभव हो गया कि वे कम वेतन में भी सुखमय जीवन व्यतीत कर सकें और अपने परिवार का ठीक से पालन कर सकें।
सुल्तान ने बाजार से दलालों को निकाल दिया तथा उनके नेताओं को कठोर दण्ड दिया। दलालों को बाजार से हटा देने से समस्त चीजों के मूल्य राज्य द्वारा निर्धारित स्तर पर बने रहे तथा बाजार से कालाबाजारी जैसी हरकतें समाप्त हो गईं।
डॉ. के. एस. लाल ने सिद्ध किया है कि बाजारों का यह नियंत्रण केवल राजधानी तथा उसके आसपास तक ही सीमित था। डॉ. लाल के अनुसार उसकी सफलता भावों को कम करने में उतनी नहीं है जितनी कि एक लम्बे समय तक भावों को नियंत्रण में रखने में है। जियाउद्दीन बरनी ने लिखा है कि सुल्तान की मृत्युपर्यंत वस्तुओं के भाव एक जैसे बने रहे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता