मोक्ष
मानव-जीवन का अन्तिम लक्ष्य ‘मोक्ष’ है। धर्म, अर्थ और काम के सेवन का लक्ष्य भी मोक्ष है। वर्णाश्रम धर्म का लक्ष्य भी मोक्ष है। वेदों के अध्ययन-अध्यापन का अंतिम लक्ष्य भी मोक्ष है। श्रेष्ठतम एवं निकृष्टतम व्यक्ति भी अपने लिए अंत में मोक्ष की कामना करते हैं। इसलिए मोक्ष को चतुर्थ पुरुषार्थ में सम्मिलित किया गया है।
जीवन को पूर्णतः धार्मिक और आध्यात्मिक बना पाना अत्यन्त कष्टप्रद और दुर्गम है। उसके लिए मानवीय प्रवृत्तियों का उनके चरम स्तर तक संयमित होना आवश्यक है जबकि मनुष्य का मन अभिलाषाओं और आकांक्षाओं का घर होता है। इन अभिलाषाओं और आकांक्षाओं से छुटकारा पाना अत्यंत कठिन है और इनसे छुटकारा पाए बिना मनुष्य को निवृत्ति अर्थात् मोक्ष नहीं मिलता।
मनुष्य के भीतर प्रवृत्ति और निवृत्ति का संघर्ष जीवन भर चलता है। जब मनुष्य का हृदय इस संघर्ष में विजयी होकर सहज, स्वाभाविक, आत्म-चिन्तन से युक्त, आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत और बौद्धिकता से सम्पन्न होता है, तब उसकी अभिलाषाओं और आकांक्षाएं समाप्त होकर मोक्ष प्राप्त होता है।
प्रायः मनुष्य वृद्धावस्था में लौकिक सुखों का मोह त्यागकर पारलौकिक सुख की ओर अग्रसर होता है। धर्म एवं अध्यात्म के सहारे वह परमब्रह्म की ओर बढ़ने का प्रयास करता है। जब जीवात्मा परमब्रह्म में लीन होकर आवागमन के बन्धन से मुक्त हो जाता है तब वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। आत्मा और परमात्मा का तादात्म्य ही मोक्ष तथा परम आनन्द की उपलब्धि है। आत्मा ‘सीमित’ है तथा परमात्मा ‘असीम’।
मोक्ष ‘ससीम’ और ‘असीम’ में एकात्मकता स्थापित करता है। वैदिक शास्त्रों के अनुसार मोक्ष ‘परम ज्ञान’ और ‘आनन्द’ की वह अवस्था है जिसमें जीव (आत्मा) परमब्रह्म (परमात्मा) को प्राप्त कर लेता है तथा संसार के आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाता है।
साधारणतः ‘मोक्ष’ का अर्थ ‘जीवन से मुक्ति’ प्राप्त करने से लिया जाता है किन्तु वास्तव में मोक्ष का अर्थ ‘आत्मा की मुक्ति’ है। मनुष्य की प्रवृत्तियाँ सत्, रज और तम नामक गुणों से संचालित होती हैं। जब मनुष्य की बुद्धि सात्विक वृत्ति से अविरल होती है तब वह राजसिक एवं तामसिक प्रवृत्तियों से छुटकारा पाकर मोक्ष की ओर आकर्षित होता है।
मनुष्य की बुद्धि और मन प्रकृति (माया) से ढंके हुए होते हैं इस कारण मनुष्य अपना वास्तविक स्वरूप भूल हुआ रहता है। जब मनुष्य को सात्विक ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है तब उस पर से माया का आवरण हट जाता है और उसे अपने वास्तविक स्वरूप के दर्शन होते हैं। इसी को ‘कैवल्य’ अथवा ‘मोक्ष’ कहते हैं। यही प्रकृति और पुरुष का वास्तविक सम्बन्ध अर्थात् जीव और आत्मा का मिलन है।
अज्ञान को त्यागकर वास्तविक ज्ञान को प्राप्त करना, मोह के अंधकार से निकलकर अपने वास्तविक स्वरूप को जानना एवं तमोगुण और रजोगुण से निवृत्ति पाकर सतोगुण में स्थिर होना ही मोक्ष है। सतोगुण में स्थिर जीवात्मा प्रकृति (माया) को छोड़कर ब्रह्म से संयुक्त हो जाती है।
मोक्ष-प्राप्ति के मार्ग
मोक्ष-प्राप्ति के तीन मुख्य मार्ग हैं- कर्म, ज्ञान और भक्ति। मनुष्य इनमें से किसी भी मार्ग पर चलकर मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
कर्म-मार्ग: शास्त्रकारों का मत है कि मनुष्य अपने सामाजिक और धार्मिक कर्मों का निष्ठापूर्वक सम्पादन करके मोक्ष की और प्रवृत हो सकता है। वह अपने विभिन्न कर्त्तव्यों को, बिना किसी फल की आकांक्षा के करता है। इससे मनुष्य में अनासक्ति की भावना रहती है। इस प्रकार कर्म मार्ग पर चलने से उसे परम गति (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। विभिन्न आश्रमों के अंतर्गत रहते हुए एवं निर्दिष्ट कर्मों का यथोचित सम्पादन करने से ही व्यक्ति मोक्ष-प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है।
मनु के अनुसार तीनों ऋणों (देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण) से उऋण होकर ही व्यक्ति को मोक्ष के लिए प्रयत्न करना चाहिए। इन ऋणों से उऋण हुए बिना मोक्ष प्राप्त नहीं होता अपितु मनुष्य नर्क का अधिकारी होता है। मोक्ष के इच्छुक व्यक्ति के लिए यह आवश्यक था कि वह वेदों का ज्ञान प्राप्त करे, धर्मानुसार पुत्रों को उत्पन्न करे, यथाशक्ति यज्ञों का अनुष्ठान करे और तत्पश्चात् मोक्ष की इच्छा करे।
पुराणों के अनुसार समस्त आश्रमों के कार्य सम्पादित करने के बाद मोक्ष मिलता है। वायु-पुराण में कहा गया है कि अन्तिम आश्रम का अनुवर्ती व्यक्ति शुभ और अशुभ कर्मों को त्याग कर जब अपना स्थूल शरीर छोड़ता है तब वह जन्म-मृत्यु और पुनर्जन्म से पूर्णतः मुक्त हो जाता है।
ज्ञान-मार्ग: चिंतनशली व्यक्ति ज्ञान और विचार से ईश्वर के अव्यक्त और निराकार भाव के प्रति अनुरक्त होकर ‘ब्रह्म’ से एकाकार होने का प्रयास करता हैं। ज्ञानी और विद्वान् व्यक्तियों का यही आधार ज्ञान-मार्ग है।
भक्ति-मार्ग: श्रीमद्भागवत पुराण, श्रीमद्भागवत गीता एवं परवर्ती ग्रंथों में मोक्ष प्राप्त करने के लिए भक्ति-मार्ग का निरूपण किया गया है। इन ग्रंथों में भक्ति को कर्म और ज्ञान से श्रेष्ठ बताया गया है। भक्ति-मार्ग के अन्तर्गत मनुष्य ब्रह्म के सगुण अथवा निर्गुण अथवा दोनों रूपों की उपासना करता है और अपने सांसारिक बंधनों एवं लालसाओं को त्यागकर स्वयं को पूर्ण रूप से ब्रह्म (ईश्वर) की सेवा में समर्पित कर देता है।
ब्रह्म तक पहुँचने के लिए कई तरह की भक्ति की जाती है। भक्त अपने सुख-दुःख, ऊँच-नीच, अच्छा-बुरा और जन्म-मृत्यु सब कुछ भूल जाता है। यही सच्ची और सार्थक भक्ति है।
मोक्ष-प्राप्ति हेतु चरित्र एवं आचरण की शुद्धता
मोक्ष के आकांक्षी व्यक्ति के लिए अपना अन्तःकरण और आचरण शुद्ध एवं सात्विक रखना आवश्यक था। वह दिन में एक बार भिक्षा मांगता था तथा भिक्षा मिलने या नहीं मिलने पर हर्ष या कष्ट का अनुभव नहीं करता था। वह उतनी ही भिक्षा मांगता था जिससे उसका उदर भर जाता था। वह आसक्ति से दूर रहता था। उसके लिए चित्त-वृत्तियों पर नियंत्रण एवं इन्द्रिय-निरोध का अभ्यास आवश्यक था।
इन्द्रियों को वश में किए बिना मनुष्य न तो मोह से दूर हो सकता है और न वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सकता है। आध्यात्मिक उपलब्धि के लिए चित्त-वृत्तियों पर नियंत्रण एवं इन्द्रिय-निरोध करके मन की एकाग्रता को प्राप्त करना आवश्यक है। मनु के अनुसार इन्द्रिय-निरोधी व्यक्ति, राग-द्वेष का त्यागी और अंहिसा में युक्त व्यक्ति ही मुक्ति के योग्य होता है।
नियंत्रणहीन इन्द्रियाँ मनुष्य के मन और मस्तिष्क को भ्रमित कर देती है, जिससे वह मोह-माया एवं सांसारिकता में फँसा रहता है और राग-द्वेष में लिप्त रहता है। राग-द्वेष के वशीभूत होकर वह मन, वचन एवं कर्म से दूसरों के प्रति हिंसा करता है।
पुराणों में भी मोक्ष के आकांक्षी व्यक्ति के लिए चरित्र एवं आचरण की शुद्धता का निर्देशन किया गया है। विष्णु-पुराण के अनुसार व्यक्ति को शत्रु और मित्र के प्रति सम-भाव रखते हुए किसी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए तथा काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार का त्याग करना चाहये।
वायु-पुराण के अनुसार मोक्ष के इच्छुक व्यक्ति के लिए दया, क्षमा, अक्रोध, सत्य आदि गुण धारण करना अनिवार्य हैं। मत्स्य-पुराण में काम का परित्याग अनिवार्य बताया गया है। मनु के अनुसार अहिंसा, विषयों में अनासक्ति, वेद-प्रतिपादित कर्म और कठोर तपस्या से मनुष्य भू-लोक में परम-पद (ब्रह्म पद) को साध लेता है।
काम एवं अर्थ की उपेक्षा
कोई भी पुरषार्थी व्यक्ति धर्म, अर्थ और काम के नियमों का पालन करके अपना दैहिक, दैविक एवं भौतिक उत्थान कर सकता है तथा मोक्ष अर्थात् परम-पद का अधिकारी हो सकता है। वह शुद्ध विचारों तथा पवित्र आचरण का अनुसरण करके अपने जीवन को श्रेष्ठ एवं आदर्शमय बना सकता है।
संयम, नियम और अनुशासन से युक्त जीवन किसी भी मनुष्य के पुरुषार्थी होने का प्रमाण है। भारतीय शास्त्रों में वर्णित चारों पुरुषार्थ एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। किसी एक पुरुषार्थ की उपेक्षा करके अथवा किसी एक पुरुषार्थ को अधिक महत्व देकर मनुष्य के चिंतन एवं व्यक्तित्व का संतुलन भंग हो जाता है।
भारत में सन्यास-परम्परा की बलवती धारा प्रत्येक युग में विद्यमान रही है जिसके अंतर्गत मनुष्य गृहस्थ आश्रम एवं वानप्रस्थ आश्रम की उपेक्षा करके ब्रह्मर्च आश्रम एवं सन्यास आश्रम का ही पालन करता है। ऐसी स्थिति में वह केवल स्वयं को धर्म एवं मोक्ष नामक पुरुषार्थों पर केन्द्रित करता है और अर्थ एवं काम की पूर्ण उपेक्षा करता है।
वैदिक युग से काफी बाद में अपने विकसित रूप में आए भक्ति मार्ग में भी अर्थ एवं काम की उपेक्षा करके केवल धर्म एवं मोक्ष नामक पुरुषार्थों की साधना पर जोर दिया गया है किंतु सामान्य गृहस्थ के लिए वर्णाश्रम धर्म (अर्थात् चार वर्ण एवं चार आश्रम) के लिए निर्धारित कर्त्तव्यों का पालन करते हुए, चारों पुरुषार्थों की उपलब्धि हेतु प्रयास करने को ही श्रेयस्कर माना गया है।