पुष्यभूति वंश का उदय
गुप्त साम्राज्य के छिन्न-भिन्न हो जाने के उपरान्त भारत की राजनीतिक एकता एक बार पुनः समाप्त हो गई और देश के विभिन्न भागों में फिर छोटे-छोटे राजवंशों की स्थापना हो गई जिनमें निरन्तर संघर्ष चलता रहता था। देश में कोई ऐसी प्रबल शक्ति नहीं थी जो देश की रक्षा कर सकती और इन छोटे-छोटे राज्यों पर नियंत्रण रख कर देश को सुख तथा शान्ति प्रदान कर सकती। जिस समय देश पर हूणों के आक्रमण हो रहे थे और गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो रहा था उन्हीं दिनों छठी शताब्दी के आरम्भ में थानेश्वर में एक नये राजवंश की स्थापना हुई। इस वंश का संस्थापक पुष्भूति था जो भगवान शिव का परम भक्त था। उसके नाम पर इस वंश को पुष्यभूति वंश कहा जाता है। उसके अधिकांश वंशजों के नाम के अंत में वर्धन प्रत्यय लगा हुआ है, इससे इस वंश को वर्धन वंश भी कहा जाता है।
प्रारंभिक शासक
इस वंश के प्रारंभिक शासकों के विषय में अधिक जानकारी नहीं मिलती है। पुष्यभूति के उपरान्त नरवर्धन, राज्यवर्धन तथा आदित्यवर्धन शासक हुए जो स्वतंत्र शासक न होकर किसी स्वतंत्र शासक के सामन्त के रूप में शासन कर रहे थे। इन शासकों की उपाधि महाराज थी। इनका उल्लेख अभिलेखों तथा राजकीय मोहरों पर मिलता है। अनुमान है कि प्रारंभ में ये गुप्तों के अधीन शासन कर रहे थे और गुप्तों के बाद हूण शासकों के अधीन शासन कर रहे थे।
प्रभाकरवर्धन
हर्ष चरित के अनुसार प्रभाकरवर्धन इस वंश का चौथा शासक था। वह 580 ई. में सिंहासन पर बैठा। उसने परमभट्टारक तथा महाराजाधिराज उपाधियां धारण कीं जिनसे ज्ञात होता है कि वह स्वतंत्र तथा प्रतापी शासक था। उसने गुर्जरों के विरुद्ध सफलता पूर्वक युद्ध किया। प्रभाकरवर्धन के चार संतानें थीं, तीन पुत्र- राज्यवर्धन, हर्षवर्धन तथा कृष्णवर्धन और एक पुत्री- राज्यश्री। राज्यश्री का विवाह कान्यकुब्ज (कन्नौज) के मौखरी राजा ग्रहवर्मन के साथ हुआ था। 605 ई. में प्रभाकरवर्धन की मृत्यु हो गई।
राज्यवर्धन
प्रभाकरवर्धन के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र राज्यवर्धन सिंहासन पर बैठा। शासन संभालते ही उसे मालवा के शासक देवगुप्त के विरुद्ध अभियान पर जाना पड़ा क्योंकि देवगुप्त ने मौखरी राज्य पर आक्रमण करके राज्यवर्धन के बहनोई ग्रहवर्मन की हत्या कर दी तथा राज्यवर्धन की बहिन राज्यश्री को बन्दीगृह में डाल दिया। इस दुर्घटना का समाचार पाते ही राज्यवर्धन ने शासन का भार अपने छोटे भाई हर्षवर्धन को सौंपकर स्वयं एक विशाल सेना के साथ देवगुप्त को दण्डित करने के लिए प्रस्थान कर दिया। राज्यवर्धन ने देवगुप्त को युद्ध में परास्त किया और उसके राज्य को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। गौड़ (बंगाल) का राजा शशांक देवगुप्त का मित्र था। उसने विश्वासघात करके राज्यवर्धन की हत्या करवा दी और कन्नौज पर अधिकार कर लिया। उसने राज्यश्री को मुक्त कर दिया जो विन्ध्य पहाड़ि़यों में अज्ञात स्थान को चली गई। हर्ष के बांसखेड़ा तथा मधुबन अभिलेखों में उसके चार पूर्वज शासकों- नरवर्धन, राज्यवर्धन, आदित्यवर्धन तथा प्रभाकर वर्धन एवं उनकी रानियों के नाम मिले हैं।
हर्षवर्धन
राज्यवर्धन की मृत्यु के उपरान्त उसका छोटा भाई हर्षवर्धन थानेश्वर के सिंहासन पर बैठा। हर्ष के सिंहासनारोहण पर टिप्पणी करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘छठी शताब्दी ईस्वी का प्रारम्भ राजनीतिक मंच पर एक अलौकिक व्यक्ति के आगमन से होता है। यद्यपि हर्षवर्धन में न तो अशोक का उच्चादर्श था और न चन्द्रगुप्त मौर्य का सैनिक कौशल, फिर भी वह उन्हीं दोनों महान् सम्राटों की भांति इतिहासकारों की दृष्टि को आकृष्ट करने में सफल हुआ है।’
हर्ष कालीन इतिहास जानने के साधन
हर्ष के शासनकाल की जानकारी कई साधनों से मिलती है। हर्ष के दरबार में रहने वाले कवि बाणभट्ट ने अपनी कृति हर्षचरित में हर्ष तथा उसके पूर्वजों का वर्णन किया है। हर्ष के समकालीन चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने ग्रंथ सी-यू-की में भी हर्ष तथा उसके शासन की प्रमुख घटनाओं का उल्लेख किया है। हर्ष ने स्वयं भी रत्नावली, नागानंद और प्रियदर्शिका नामक ग्रंथों की रचना की। इन ग्रंथों में उस समय की राजनीतिक स्थितियों का उल्लेख है। मधुबन, बांसखेड़ा, सोनीपत आदि स्थानों से हर्ष के अभिलेख मिले हैं। इनमें भी कई सूचनाएं दी गई हैं। हर्षकालीन सिक्के भी हर्ष की तिथि, राज्य विस्तार, राज्यकाल की अवधि तथा आर्थिक परिस्थिति पर प्रकाश डालते हैं।
राज्याभिषेक
राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद 606 ई. में हर्ष राजगद्दी पर बैठा। उस समय हर्ष की आयु 16 वर्ष थी।
आरंभिक समस्याएं
हर्ष के समक्ष कई बड़ी समस्याएं थीं। उसके पिता की मृत्यु और भाई की हत्या को अधिक समय नहीं हुआ था। बहनोई की हत्या हो चुकी थी तथा बहन राज्यश्री जंगलों में थी। इस प्रकार उसका परिवार लगभग नष्ट हो चुका था तथा स्वयं हर्ष अल्पायु था। फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी। उसके समक्ष दो बड़ी चुनौतियां थीं। पहली चुनौती अपनी बहन को जंगलों से ढूंढकर गौड़ के राजा शशांक को दण्डित करने की तथा दूसरी चुनौती स्वयं अपने राज्य को व्यवस्थित करने की।
(1) राज्य श्री की खोज: हर्ष अपनी सेना के साथ विंध्याचल के जंगलों में पहुंचा तथा बौद्ध भिक्षु दिवाकरमित्र की सहायता से अपनी बहन राज्यश्री को ढूंढ निकाला। जिस समय हर्ष ने राज्यश्री को देखा, उस समय राज्यश्री अपने दुखों से तंग आकर अग्नि में प्रवेश करने जा रही थी। हर्ष अपनी बहन को समझा-बुझा कर अपने साथ ले आया।
(2) कन्नौज की समस्या: राज्यश्री के कोई संतान नहीं थी। इसलिये कन्नौज राज्य का कोई उत्तराधिकारी नहीं था। कन्नौज के मंत्रियों ने हर्ष से प्रार्थना की कि वह कन्नौज का राज्य भी संभाल ले। हर्ष ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार हर्ष दो राज्यों का राजा बन गया। इससे हर्ष की जिम्मेदारी तथा शक्ति दोनों ही बढ़ गईं। हर्ष ने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया।
हर्ष की दिग्विजय
हर्ष के पास एक विशाल सेना थी। इस सेना की सहायता से उसने दिग्विजय करने का निश्चय किया। स्मिथ ने हर्ष की विजय योजनाओं की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘सम्पूर्ण भारत को एक छत्र के नीचे लाने के उद्देश्य से उसने अपनी सारी शक्ति तथा योग्यता को एक सुव्यवस्थित विजय योजना के कार्यान्वयन में लगा दिया।’
(1) गौड़ नरेश शशांक पर आक्रमण: हर्ष ने सर्वप्रथम गौड़ नरेश शशांक को दण्डित करने और उसके राज्य को जीतने का निर्णय लिया। हर्षचरित के अनुसार हर्ष को जब अपने भाई की हत्या का समाचार मिला, उसी समय उसने प्रण किया कि कुछ ही दिनों में धरती को गौड़विहीन कर दूंगा। उसकी इस घोषणा का उसके मंत्रियों ने स्वागत किया। बाणभट्ट तथा ह्वेनसांग दोनों ने ही इस युद्ध की घटनाओं तथा परिणामों की जानकारी नहीं दी है। ह्वेनसांग के अनुसार शशांक बौद्ध धर्म के प्रति हिंसक था। उसने बुद्ध के पदचिह्नों से अंकित पत्थरों को नदी में डलवा दिया तथा गया के बोधि वृक्ष को कटवा दिया। मंजूश्रीमूलकल्प के अनुसार हर्ष ने गौड़ नरेश शशांक की राजधानी पुण्ड्र पर आक्रमण कर उस पर विजय अर्जित की किंतु इस विजय के अन्य प्रमाण नहीं मिलते हैं क्यांेकि शशांक की अंतिम तिथ 619 ई. प्राप्त होती है। ह्वेनसांग के अनुसार 637 ई. में उसने जब बोधि वृक्ष को देखा, तब शशांक उसे कटवा चुका था तथा उन्हीं दिनों में शशांक की मृत्यु हुई थी।
(2) पंच भारत पर विजय: ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि जैसे ही हर्ष राजा हुआ, उसने एक विशाल सेना के साथ अपने भाई के हत्यारे से बदला लेने के लिये प्रस्थान किया। वह पूर्व की ओर बढ़ा और लगातार 6 वर्षों तक उन राज्यों से युद्ध करता रहा जो बिना लड़े, उसकी अधीनता स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। उसने पंचभारत पर भी विजय प्राप्त की। पंच भारत में पंजाब, कन्नौज, बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा आते थे। इस प्रकार लगभग सम्पूर्ण उत्तरी भारत उसके अधिकार में आ गया।
(3) वल्लभी पर विजय: उस काल में सौराष्ट्र अर्थात् काठियावाड़ में मैत्रक वंश शासन कर रहा था। वल्लभी उसकी राजधानी थी। यह राज्य उत्तर भारत के कन्नौज और दक्षिण भारत के चालुक्य राज्यों के मध्य में स्थित था। इसलिये सैनिक दृष्टिकोण से उसका बहुत बड़ा महत्त्व था। इन दिनों धु्रवसेन द्वितीय वल्लभी में शासन कर रहा था। 633 ई. में हर्ष ने वल्लभी पर आक्रमण करके ध्रुवसेन को परास्त कर दिया। धु्रवसेन ने हर्ष से मैत्री कर ली। हर्ष ने अपनी कन्या का विवाह धु्रवसेन के साथ कर दिया। सम्भवतः धु्रवसेन ने हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली और उसी के सामन्त के रूप में वह वल्लभी में शासन करने लगा। वल्लभी के अधीन राज्यों- आनंदपुर, कच्छ तथा काठिायावाड़ ने भी हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली।
(4) चालुक्य राज्य पर आक्रमण: वल्लभी राज्य के दक्षिण में चालुक्य वंश शासन कर रहा था। पुलकेशिन (द्वितीय) इस वंश का सर्वाधिक प्रतापी तथा शक्तिशाली शासक था जो हर्ष का समकालीन था। उसने अपने पड़ौसी राज्यों को नत मस्तक कर अपनी शक्ति का विस्तार किया था। लगभग 634 ई. में हर्ष ने पुलकेशिन के राज्य पर आक्रमण किया। पुलकेशिन ने नर्मदा के तट पर हर्ष का सामना किया और उसे परास्त कर दिया। हर्ष निराश होकर नर्मदा के तट से लौट आया। नर्मदा ही उसके राज्य की सीमा बन गई। ह्वेनसांग ने भी इस युद्ध में हर्ष की पराजय का उललेख किया है।
(5) सिंध पर विजय: बाणभट्ट के हर्षचरित के अनुसार हर्ष ने सिंध क्षेत्र पर भी आक्रमण किया तथा सिंधुराज को जीतकर उसकी समस्त सम्पत्ति पर अधिकार कर लिया। ह्वेनसांग ने लिखा है कि जिस समय वह (ह्वेनसांग) सिंधु प्रदेश पहुंचा, उस समय सिंधु प्रदेश एक स्वतंत्र राज्य था। अन्य स्रोतों से भी हर्ष की सिंध विजय के उल्लेख नहीं मिलते।
(6) नेपाल तथा काश्मीर पर विजय: समकालीन साहित्य से ज्ञात होता है कि नेपाल तथा काश्मीर ने भी हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली।
(7) पूर्वी भारत पर विजय: हर्ष को पूर्वी भारत में की गई विजय यात्रा में बड़ी सफलता प्राप्त हुई। उसने मगध पर अधिकार कर लिया और 641 ई. में मगध के राजा की उपाधि धारण की। कामरूप (आसाम) के राजा भास्कर वर्मन से उसकी मैत्री हो गई।
(8) गौड़ नरेश का अंत: यद्यपि हर्ष अपने सबसे बड़े शत्रु शशांक के राज्य का अन्त न कर सका परन्तु बाद में उसके मित्र भास्करवर्मन ने गौड़ राज्य का अन्त कर दिया।
हर्ष का साम्राज्य
हर्ष का साम्राज्य उत्तर में हिमालय पर्वत से दक्षिण में नर्मदा नदी के तट तक और पूर्व में आसाम से पश्चिम में सौराष्ट्र तक फैला था। इस सम्पूर्ण प्रदेश में उसका प्रत्यक्ष शासन नहीं था। कुछ भाग में वह स्वयं शासन करता था और कुछ में उसके सामन्त शासक करते थे।
हर्ष का शासन प्रबंध
हर्ष महान् विजेता होने के साथ-साथ कुशल शासक भी था। डॉ. रमेश चन्द्र मजूमदार ने हर्ष की प्रशासकीय प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘इसमें सन्देह नहीं कि वह भारत के महानतम सम्राटों में एक था। उथल-पुथल के काल में उसे दो विश्ृंखलित राज्यों पर शासन करना पड़ा। वह उत्तरी भारत के विशाल क्षेत्र के बहुत बड़े अंश में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित करने में सफल रहा।’
हर्ष के शासन की इकाइयां: हर्ष का साम्राज्य अत्यंत विशाल था जिसे राज्य अथवा मण्डल कहते थे। हर्ष ने अपने राज्य में गुप्त शासकों की भांति चार स्तरीय शासन व्यवस्था लागू कर रखी थी- 1. केन्द्रीय शासन, 2. प्रांतीय शासन 3. जिला स्तरीय शासन तथा 4. स्थानीय शासन।
केन्द्रीय शासन
हर्ष की शासन व्यवस्था राजतन्त्रात्मक थी जिसमें सम्राट समस्त शासन का केन्द्र बिंदु था। हर्ष ने थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ गुप्त कालीन शासन व्यवस्था का ही अनुसरण किया।
(1) सम्राट: सम्राट केन्द्रीय शासन का प्रधान था। शासन के विभिन्न भागों पर वह अपनी कड़ी दृष्टि रखता था। युद्ध के समय वह स्वयं रणक्षेत्र में उपस्थित रहकर सेना का संचालन करता था। शान्ति के समय वह अपनी प्रजा के हित के कार्यों को करने में संलग्न रहता था। प्रजा की दशा को जानने के लिए सम्राट अपने राज्य के विभिन्न भागों में यात्राएं करता था। सम्राट का सारा समय धार्मिक कार्यों को करने तथा शासन को सुचारू रीति से चलाने में व्यतीत होता था।
(2) मन्त्रि परिषद: सम्राट को सहायता देने के लिए मन्त्रि परिषद भी होती थी। ये मन्त्री सचिव अथवा अमात्य कहलाते थे। सम्राट के लिये इस परिषद की सलाह मानना अनिवार्य नहीं था। हर्ष का प्रधान सचिव भाण्डि एवं प्रधान सेनापति सिंहनाद था।
(3) शासन के अधिकारी: हर्ष के दानपत्रों में विभिन्न अधिकारियों का उल्लेख मिलता है। जिनका विवरण इस प्रकार है-
महासंधिविग्रहाधिकृत ः युद्ध और शांति का प्रमुख मंत्री
महाबलाधिकृत ः सर्वोच्च सेनापति
राजस्थानीय ः राज्यपाल
कुमारामात्य ः युवराज
उपरिक ः प्रांतीय गवर्नर
विषयपति ः जिला अधिकारी
भोगपति ः राजकीय कर एकत्रित करने वाला प्रांतीय अधिकारी।
(4) सैन्य प्रबंधन: अपनी दिग्विजय को सफल बनाने तथा साम्राज्य को शत्रुओं के आक्रमणों से सुरक्षित रखने के लिए हर्ष ने एक विशाल सेना का संगठन किया। इस सेना में हाथी, घोड़े तथा पैदल सैनिक हुआ करते थे। हर्ष ने रथ सेना की व्यवस्था नहीं की थी। ह्वेनसांग के अनुसार हर्ष की सेना में 60 हजार हाथी थे। यद्यपि सम्राट स्वयं अपनी सेना का सेनाध्यक्ष होता था और रणक्षेत्र में उसका संचालन करता था परन्तु सेना के रख-रखाव के लिये एक अलग सेनापति होता था जो महाबलाधिकृत कहलाता था। सेना के विभिन्न अंगों के लिए अलग-अलग सेनापति होते थे।
(5) न्याय-व्यवस्था: सम्राट स्वयं न्याय विभाग का सर्वोच्च न्यायाधीश था। वह अपराधियों को दण्ड देता था। हर्ष के शासन काल में दण्ड विधान बड़ा कठोर था। साधारण अपराधों के लिए अर्थदण्ड दिया जाता था और जघन्य अपराधों के लिये हाथ, नाक, कान काट लिये जाते थे। राजद्रोहियों को जीवन भर के लिए जेल में बन्द कर दिया जाता था। दंड विधान की कठोरता के कारण अपराध कम होते थे और लोग शान्ति पूर्वक जीवन व्यतीत करते थे। उसके शासन काल में चोर एवं डाकू भी थे जो अवसर प्राप्त होते ही प्रजा को लूट लेते थे। सड़कें चोर-डाकुओं से सुरक्षित नहीं थीं। चीनी यात्री ह्वेनसांग कई बार डाकुओं के चक्कर में पड़ गया था।
(6) राजस्व विभाग: हर्ष उदार शासक था। गुप्तों की भांति वह भी अपनी प्रजा से उपज का केवल छठा भाग कर के रूप में लेता था। आयात कर भी बहुत कम था जो सीमा स्थित चुंगीघरों में वसूल किया जाता था। राज्य की आय का बहुत बड़ा भाग विद्वानों को पुरस्कार देने, धार्मिक कृत्यों को सम्पादित करने तथा विभिन्न सम्प्रदायों को दान-दक्षिणा देने में व्यय होता था।
(8) लोकहित के कार्य: हर्ष प्रजापालक शासक था। वह सदैव अपनी प्रजा के कल्याण की चिन्ता करता था। उसने प्रजा का आवागमन सुगम बनाने के लिये कई सड़कें बनवाईं तथा उनके किनारे छायादार वृक्ष लगवाये। यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशालाएं बनवाईं। इन धर्मशालाओं में यात्रियों के लिए भोजन, चिकित्सा तथा औषधि की व्यवस्था की गई थी। नालन्दा तथा अन्य शिक्षा-केन्द्रों को राज्य की ओर से सहायता दी जाती थी। विद्वानों एवं साहित्यकारों को भी राज्य की ओर से सहायता एवं प्रोत्साहन दिया जाता था। हर्ष में उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी। विभिन्न धर्मों के मतावलम्बी उससे दान-दक्षिणा प्राप्त करते थे। उसने अनेक मंदिर, चैत्य, विहार, स्तूप आदि बनवाये थे। हर्ष की प्रशंसा करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘हर्ष एक विजेता तथा शासक के रूप में तो महान् था ही, वह शान्ति कालीन कलाओं में और भी अधिक महान् था जिनकी विजयें युद्ध की विजयों से कम विख्यात नहीं होतीं।’
(9) प्रयाग की पंचवर्षीय सभा: हर्ष प्रति पांचवें वर्ष प्रयाग में एक सभा का आयोजन करता था। इस अवसर पर वह बुद्ध, सूर्य, शिव आदि देवताओं की प्रतिमाओं की बड़े समारोह के साथ पूजा करता था। इन सभाओं में वह समस्त सम्प्रदाय वालों तथा दीन-दुखियों को दान-दक्षिणा देता था। इसी से वह महादान-भूमि कहलाता था। सम्राट इस अवसर पर अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति दान में दे देता था। यहाँ तक कि वह अपने मूल्यवान आभूषण भी दान में दे देता था। प्रयाग की एक पंचवर्षीय परिषद् में चीनी यात्री ह्वेनसांग भी विद्यमान था, जिसका उसने आंखों देखा वर्णन किया है।
प्रांतीय शासन
केन्द्रीय राजधानी से सम्पूर्ण साम्राज्य को संभालना सम्भव नहीं था। फलतः हर्ष ने अपने साम्राज्य को गुप्त शासकों की भांति कई प्रान्तों में विभक्त कर रखा था। ये प्रान्त ‘भुक्ति’, देश आदि नामों से पुकारे जाते थे। भुक्ति के शासक राजस्थानीय, राष्ट्रीय, उपरिक आदि कहलाते थे। इन पदों पर प्रायः राजकुल के राजकुमार नियुक्त होते थे।
जिला स्तरीय शासन
प्रत्येक प्रान्त कई ‘विषयों’ में विभक्त रहता था। इनका शासक विषयपति कहलाता था। विषयपति की नियुक्ति प्रांतीय शासक करते थे। अधिष्ठानों में विषयपति के केन्द्र होते थे जहां उनके अधिकरण (न्यायालय) होते थे। विषय अनेक पठकों में विभक्त थे जिन्हें आज के तहसील के समकक्ष माना जा सकता है। प्रांतीय एवं जिला स्तरीय शासकों की सहायता के लिये दण्डिक, चोरोद्धरणिक तथा दण्डपाशिक आदि पुलिस अधिकारी नियुक्त किये जाते थे।
स्थानीय शासन
शासन की सबसे छोटी इकाई गांव होता था। गांव के समस्त मामलों की देखभाल गांव के प्रतिष्ठित लोग करते थे जो ‘महत्तर’ कहलाते थे। गांव के प्रबन्धन के लिए ‘ग्रामिक’ भी होता था। हर्ष के लेखों में ग्राम स्तरीय अन्य अधिकारियों के भी उल्लेख मिलते हैं। आठ कुलों का निरीक्षक अष्टकुलाधिकरण कहलाता था। शुल्क अर्थात् चंुगी वसूलने वाले को शौल्किक कहते थे। वन, उपवन आदि का निरीक्षक गौल्मिक कहलाता था। भूमिकर का अध्यक्ष धु्रवाधिकरण, गांव का लेखा-जोखा रखने वाला तलवाटक तथा कागज-पत्र रखने वाला अक्षपटलिक कहलाता था। अधिकारियों की इस सूची से अनुमान होता है कि ग्राम शासन पर्याप्त सुदृढ़ था। यह सुदृढ़ता उनकी स्वावलम्बी स्थिति को इंगित करती है।
हर्ष का धर्म
शैव धर्म: हर्ष चरित के अनुसार हर्ष के पूर्ववर्ती चारों पुष्भूति शासक, शैवधर्म के अनुयायी थे। हर्ष भी प्रारंभ में शैव था जिसकी पुष्टि विभिन्न स्रोतों से होती है। हर्ष ने अपने नाटकों रत्नावली एवं प्रियदर्शिका में भी शिव पार्वती एवं अन्य देवी देवताओं की स्तुति की है।
बौद्ध धर्म: बौद्ध धर्म के प्रति हर्ष का झुकाव बौद्ध भिक्षु दिवाकरमित्र से भेंट होने के बाद हुआ। दिवाकरमित्र ने राज्यश्री को ढूंढने में हर्ष की सहायता की। इस भेंट के बाद लगातार छः वर्षों तक हर्ष युद्धों में व्यस्त रहा। हर्ष ने ह्वेनसांग के प्रभाव से बौद्ध धर्म स्वीकार किया। ह्वेनसांग ने उसे बौद्ध धर्म की महायान शाखा में दीक्षित किया। महायान धर्म में दीक्षित होने के बाद हर्ष ने कन्नौज में धार्मिक सभा आयोजित की ताकि ह्वेनसांग समस्त धर्मों पर महायान धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध कर सके। अनेक विद्वान इस बात से सहमत नहीं हैं कि हर्ष ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। डॉ. आर. सी. मजूमदार ने लिखा है कि यद्यपि अंत में हर्ष का झुकाव बौद्ध धर्म की ओर हो गया था किंतु संभवतः उसने अपना प्राचीन धर्म छोड़ा नहीं। न ही अन्य धर्मों को छोड़कर बौद्ध धर्म को आश्रय दिया। मजूमदार के पास अपनी बात सिद्ध करने का कोई प्रमाण नहीं है जबकि ह्वेनसांग तथा बाणभट्ट दोनों ही स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि हर्ष ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था। हर्ष द्वारा बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु धर्म सभायें आयोजित करना, स्तूप व विहारों का निर्माण करना तथा नालंदा विश्वविद्यालय को दान देना, काश्मीर नरेश से महात्मा बुद्ध के दांत प्राप्त करना, हर्ष के बौद्ध धर्म ग्रहण करने की पुष्टि करता है। हर्ष धर्म-सहिष्णु राजा था, बौद्ध धर्म ग्रहरण करने पर भी उसने अन्य धर्मों पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं लगाया। कन्नौज एवं प्रयाग की सभाओं में उसने बुद्ध के साथ-साथ शिव एवं सूर्य की भी पूजा की।
बौद्ध धर्म का प्रचार: हर्ष के प्रयासों से चीन में महायान धर्म का प्रचार हुआ। भारत में उसके प्रचार की गति तेज हुई। ह्वेनसांग के सम्मान में हर्ष ने गया में धर्म सभा का आयोजन किया जिसमें 20 राज्यों के राजाओं, धार्मिक विद्वानों ब्राह्मणों, हीनयान तथा महायान के हजारों अनुयायियों ने भाग लिया। इस अवसर पर कन्नौज में विशाल संघाराम तथा 100 फुट ऊँचा बुर्ज बनवाया गया। इसमें हर्ष के कद के बराबर की भगवान बुद्ध की स्वर्ण प्रतिमा स्थापित की गई। हर्ष ने काश्मीर से बुद्ध का दांत मंगवाकर कन्नौज में प्रतिष्ठापित किया। इस सभा में ह्वेनसांग ने महायान सम्प्रदाय की श्रेष्ठता सिद्ध की। ह्वेनसांग के विवरण के अनुसार इस अवसर पर ब्राह्मणों द्वारा संघाराम में आग लगा दी गई तथा हर्ष की हत्या करने का प्रयास किया गया। इस आरोप में 500 ब्राह्मणों को गया से निष्कासित किया गया।
महामोक्ष परिषद का आयोजन: बौद्ध धर्म ग्रहण करने के उपरांत भी हर्ष प्रत्येक पांचवे वर्ष में प्रयाग में महामोक्ष परिषद का आयोजन करता रहा जिसमें बुद्ध सूर्य तथा शिव की पूजा होती थी। इस अवसर पर वह अपनी समस्त सम्पत्ति यहां तक कि अपने वस्त्र भी दान में दे देता था। ह्वेनसांग ने छठे परिषद का उल्लेख किया है। इस अवसर पर पांच लाख श्रमण, निर्ग्रन्थ, ब्राह्मण, निर्धन, अनाथ आदि एकत्र हुए। यह परिषद 75 दिनों तक चली। इसमें प्रथम दिन बुद्ध की, दूसरे दिन सूर्य की तथा तीसरे दिन शिव की पूजा हुई। चौथे दिन दान दिया गया।
हर्ष के शासन काल में सांस्कृतिक विकास
हर्ष के शासन काल में साम्राज्य में वृद्धि तथा प्रशासनिक कौशल के साथ-साथ कला और साहित्य की भी उन्नति हुई। हर्ष स्वयं कला और साहित्य का अनुरागी था।
कलाओं का विकास
वास्तुकला तथा मूर्तिकला: इस काल में भारत में बड़ी संख्या में हिन्दू, बौद्ध तथा जैन धर्मों के मंदिर, चैत्य तथा संघाराम बने। एलोरा का मंदिर, एलिफैण्टा का गुहा मंदिर, कांची में मामल्लपुरम् का शैल मंदिर इसी काल में बने। मंदिरों के निर्माण के कारण मूर्तिकला का भी पर्याप्त विकास हुआ। बौद्धों ने बुद्ध की तथा हिन्दुओं ने शिव तथा विष्णु आदि देवताओं की सुंदर मूर्तियों का निर्माण किया। इस काल की मूर्तिकला में भारशिव शैली तथा मथुरा शैली का सम्मिलन हो गया तथा गोल मुख के स्थान पर लम्बे चेहरे बनाये जाने लगे। अजंता की गुफा संख्या 1 एवं 2 की मूर्तियां इसी काल की हैं।
चित्रकला: इस काल के चित्र अजन्ता की गुफा संख्या 1 और 2 में देखने को मिलते हैं। ये दो प्रकार के चित्र हैं- प्रथम प्रकार के चित्रों में गति और जीवन का अभाव है जबकि द्वितीय प्रकार के चित्रों में संयोजन की समानता का अभाव है। एक चित्र में पुलकेशिन (द्वितीय) को फारस के सम्राट खुसरो परवेज का स्वागत करते हुए दिखाया गया है। इन गुफाओं में बुद्ध तथा पशु-पक्षियों के अनेक चित्र हैं।
अन्य कलायें: हर्ष के काल में उत्तरी भारत में संगीत कला, मुद्रा कला तथा नाट्य कलाओं का विकास हुआ। इनके विकास में हर्ष तथा उसके समकालीन राजाओं ने पर्याप्त रुचि ली।
साहित्य का विकास
हर्षवर्धन विद्वानों का सम्मान करता था एवं उनका आश्रयदाता था। ह्वेनसांग के अनुसार हर्ष ने अपने दरबारी कवियों से रचनाएं लिखने के लिये कहा था जिनके संग्रह को जातकमाला कहा जाता है। हर्ष अपने राजकोष का एक भाग, विद्वानों को पुरस्कार देने में व्यय करता था। हर्ष के दरबारी लेखक बाणभट्ट ने हर्षचरित तथा कादम्बरी नामक ग्रंथों की रचना की। हर्ष ने संस्कृत में तीन नाटक- नागानंद, रत्नावली तथा प्रियदर्शिका की रचना की। संस्कृत साहित्य में इन नाटकों का विशेष स्थान है। बाणभट्ट ने हर्ष को सुंदर काव्य रचना में प्रवीण बताया है। हर्ष की सभा में बाणभट्ट के साथ-साथ मयूर, हरिदत्त, जयसेन, मातंग, दिवाकर, भृतहरि आदि प्रसिद्ध कवि और लेखक रहते थे। हर्ष के समय में अन्य लेखकों ने भी बड़ी संख्या में ग्रंथ लिखे।
ह्वेनसांग की भारत यात्रा
ह्वेनसांग एक चीनी यात्री था, जो हर्षवर्धन के शासन काल में भारत आया था। ह्वेनसांग का जन्म 605 ई. में चीन के एक नगर में हुआ था। ह्वेनसांग का बड़ा भाई बौद्ध भिक्षु था। ह्वेनसांग ने भी उसका अनुसरण किया और बौद्ध भिक्षु के रूप में दीक्षा ले ली। ह्वेनसांग बाल्यकाल से ही बड़ा जिज्ञासु था और सदैव सत्य की खोज में संलग्न रहता था। उसने चीन के विभिन्न स्थानों में जाकर अध्ययन किया और अपने ज्ञान की वृद्धि की। अन्त में वह चड्गगन में निवास करने लगा। यहीं पर उसने भारत आने की योजना बनाई। वह अपने कुछ मित्रों के साथ चीन सम्राट् के पास गया और उससे भारत यात्रा में सहायता देने की प्रार्थना की। सम्राट ने उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की परन्तु ह्वेनसांग निराश नहीं हुआ। 626 ई. में जब उसकी अवस्था 24 वर्ष की थी, वह दो अन्य साहसिक व्यक्तियों को अपने साथ लेकर भारत के लिए चल पड़ा। कुछ समय तक ह्वेनसांग के साथ यात्रा करने के उपरान्त उसके दोनों साथी हताश हो गए और अपने देश लौट गए परन्तु ह्वेनसांग ने साहस नहीं छोड़ा और मार्ग की कठिनाईयांे को झेलता हुआ आगे बढ़ता गया। मार्ग में व्यापारियों से उसे बहुत सहायता मिली। मार्ग की भयंकर कठिनाइयों को सहन करता हुआ ह्वेनसांग अपने गन्तव्य की ओर बढ़ता गया। जिस किसी राज्य में ह्वेनसांग गया, वहीं उसका स्वागत तथा सम्मान हुआ और उसे सहायता मिली।
ह्वेनसांग 631 ई. में काश्मीर पहुंचा। यहाँ पर उसने एक बौद्ध विहार में रहकर दो वर्ष अध्ययन मंें व्यतीत किए। इसके उपरांत वह काश्मीर से मथुरा तथा थानेश्वर आदि स्थानों की यात्रा करता हुआ हर्ष की राजधानी कन्नौज पहुंचा। हर्ष ने उसका बड़ा स्वागत तथा आदर-सत्कार किया। उसने कन्नौज, अयोध्या, श्रावस्ती, कपिलवस्तु आदि तीर्थ-स्थानों की यात्रा की। वह प्रयाग, कौशाम्बी, अयोध्या, श्रावस्ती, कपिलवस्तु, कुशीनगर, पाटलिपुत्र, गया तथा राजगृह होता हुआ नालन्दा पहुंचा। वहाँ पर उसने संस्कृत तथा बौद्ध-ग्रन्थों के अध्ययन में दो वर्ष व्यतीत किए। 640 ई. में वह कांचीपुर अर्थात् कांजीवरम पहुंचा। यहाँ से वह महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, सिन्धु, मुल्तान तथा गजनी होता हुआ काबुल नदी के किनारे पहुंच गया। वहाँ से पामीर की पहाड़ि़यों को पार करके काशगर तथा खोतान होता हुआ अपने देश को लौट गया।
चीन के राजा ने ह्वेनसांग का बड़ा स्वागत तथा आदर सत्कार किया। ह्वेनसांग ने अपने जीवन का शेष भाग भारत से लाये हुए ग्रंथों का अनुवाद करने तथा अपनी यात्रा के विवरण लिखने में व्यतीत किया। 664 ई. में ह्वेनसांग का निधन हो गया परन्तु भारत तथा चीन के इतिहास में ह्वेनसांग का नाम अमर हो गया।
ह्वेनसांग का भारतीय विवरण
ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा का वर्णन करते हुए भारत की तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक दशा पर अच्छा प्रभाव डाला है।
(1) राजनीतिक दशा: तत्कालीन राजनीतिक दशा का वर्णन करते हुए ह्वेनसांग ने लिखा है कि हर्ष का शासन प्रबंध बड़ा ही अच्छा था। वह अपनी प्रजा की सुरक्षा तथा सुख का बड़ा ध्यान रखता था। राज्य कर बहुत कम तथा हल्के थे। इससे प्रजा बड़ी सुखी तथा सम्पन्न थी। लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। श्रमिकों से बेगार नहीं ली जाती थी। किसानों से भूमि की उपज का छठा भाग राजकीय कर के रूप में लिया जाता था। राजकीय भूमि चार भागों में बंटी थी। एक भाग की आय से राजकीय व्यय चलता था। दूसरा भाग राजकीय कर्मचारियों को जागीर के रूप में दिया जाता था। तीसरे भाग की आय विद्या तथा कला कौशल में व्यय की जाती थी। चौथे भाग की आय विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों की सहायता करने तथा दान-दक्षिण देने में व्यय की जाती थी। सड़कें बड़ी सुन्दर तथा चौड़ी होती थीं और सड़क के किनारे छायादार वृक्ष लगे होते थे। यद्यपि सड़कों पर सुरक्षा की पूरी व्यवस्था रहती थी, परन्तु वे डाकुओं से मुक्त नहीं थीं। यात्रियों को राज्य की ओर से हर प्रकार की सुविधा देने का प्रयत्न किया जाता था। अपराधियों को बड़े कठोर दण्ड दिये जाते थे। राजद्राहियों को जीवन भर के लिए बन्दीगृह में डाल दिया जाता था। बड़े अपराधों के लिए अंग-भंग का दण्ड दिया जाता था और लोगों के हाथ, पैर, नाक-कान काट लिए जाते थे। व्यापार से राज्य को अच्छी आय होती थी। हर्ष की सेना बड़ी विशाल थी और उसके सैनिक शस्त्र चलाने में बड़े कुशल थे।
(2) सामाजिक दशा: ह्वेनसांग के विवरण से भारत की तत्कालीन सामाजिक दशा का ज्ञान होता है। वह लिखता है कि भारत के लोग बड़ी सरल प्रकृति के तथा ईमानदार होते थे। उनका जीवन बड़ा ही सादा था। लोगों का रहन-सहन तथा खान-पान आडम्बरहीन था। दूध, घी, भुने चने तथा मोटी रोटी लोगों का साधारण भोजन था। मांस, लहसुन, प्याज आदि का प्रयोग बहुत कम लोग करते थे। मिट्टी तथा काठ के बर्तनों में केवल एक बार भोजन किया जाता था, फिर उन्हें फेंक दिया जाता था। जाति-प्रथा के बन्धन कठोर थे। लोग छूआछूत का बड़ा विचार करते थे। वस्त्रों की स्वच्छता पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाता था। अन्तर्जातीय विवाहों की प्रथा नहीं थी। बाल-विवाह का प्रचलन था। पर्दे की प्रथा नहीं थी और स्त्री-शिक्षा पर ध्यान दिया जाता था। सती-प्रथा का प्रचलन था। विधवा-विवाह की प्रथा नहीं थी। विद्या तथा कला कौशल में लोगों की बड़ी रुचि थी। संस्कृत ही विद्वानों की भाषा थी। समाज में संन्यासियों का बड़ा आदर था। वे जनता में ज्ञान का प्रचार करते थे। सन्यासियों पर निन्दा तथा प्रशंसा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था।
(3) आर्थिक दशा: ह्वेनसांग ने लिखा है कि हर्ष की प्रजा सुखी तथा सम्पन्न थी। अधिकांश लोग खेती करते थे। खेती ही उनकी आजीविका का प्रधान साधन थी। वैश्य जाति व्यापार करती थी। व्यापार जल तथा स्थल दोनों ही मार्गों से होता था। उन दिनों भवन इतने सुन्दर बनते थे कि ह्वेनसांग उनकी सुन्दरता को देखकर आश्चर्य चकित हो गया था। निर्धन लोगों के मकान भी ईंट अथवा काठ के बने होते थे। इन भवनों पर भांति-भांति की चित्रकारी बनी रहती थी। देश धन-धान्य से पूर्ण था और लोग सुखी थे। ह्वेनसांग स्वयं बहुमूल्य धातुओं की बनी बुद्ध की मूर्तियां अपने साथ चीन ले गया था।
(4) धार्मिक दशा: ह्वेनसांग के वर्णन से ज्ञात होता है कि उन दिनों भारत में ब्राह्मण धर्म का अधिक प्रचार था। ब्राह्मणों को समाज में आदर की दृष्टि से देखा जाता था। प्रजा में यज्ञ आदि खूब होते थे। अधिकांश प्रजा वैष्णव अथवा शैव धर्म की अनुयायी थी। थानेश्वर में शैव धर्म का प्रचलन अधिक था। मंदिरों में पूजा के लिए देव मूर्तियों की स्थापना की जाती थी। ब्राह्मण धर्म के साथ-साथ बौद्ध धर्म का भी प्रचार था। जिन क्षेत्रों में ब्राह्मण धर्म उन्नत दशा में था, उन क्षेत्रों में बौद्ध धर्म का जोर कम था। बौद्ध धर्म के महायान तथा हीनयान दोनों ही पंथों का प्रचलन था। पश्चिमोत्तर भारत में बौद्ध धर्म निष्प्राण सा हो गया था परन्तु पूर्वी भारत में उसका प्रचार था। बौद्धों की संख्या धीरे-धीरे घटती जा रही थी, परन्तु उनके विहार, मठ, स्तूप आदि अब भी बहुत बड़ी संख्या में विद्यमान थे। बौद्ध लोग भी मूर्ति पूजा करते थे। ये लोग बुद्ध को ईश्वर का अवतार मानने लगे थे और उनकी मूर्ति बनाकर पूजा करते थे।
(5) सांस्कृतिक दशा: ह्वेनसांग ने लिखा है कि हर्ष के राज्य में शिक्षक विद्यार्थियों से सहानुभूति रखते थे और उन्हें परिश्रम के साथ पढ़ाते थे। शिक्षा निःशुल्क थी। विद्यार्थियों से व्यक्तिगत सेवा के अतिरिक्त कुछ नहीं लिया जाता था। अध्यापक योग्य तथा चरित्रवान होते थे। नालन्दा उस समय का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय था जो पटना जिले में राजगृह के निकट स्थित था। ह्ेवनसांग ने स्वयं दो वर्षों तक इस विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। इस विश्वविद्यालय की इतनी अधिक ख्याति थी कि विदेशों से भी विद्यार्थी अध्ययन करने के लिए आते थे। नालंदा में कई हजार भिक्षु निवास करते थे। यद्यपि नालन्दा प्रधानतः बौद्ध शिक्षा का केन्द्र था परन्तु इनमें समस्त धर्मों की शिक्षा दी जाती थी। विद्वानों को वाद-विवाद करने की पूरी स्वतंत्रता थी। विश्वविद्यालय के नियम कठोर थे जिनका पालन अध्यापकों तथा विद्यार्थियों दोनों को करना पड़ता था। इस संस्था में आचार्यों की संख्या लगभग 1000 और विद्यार्थियों की संख्या लगभग 10,000 थी। इसका व्यय 220 गांवों की आय से चलता था। इस काल में बौद्ध शिक्षा के साथ-साथ ब्राह्मण शिक्षा भी बड़ी उन्नत दशा में थी।
हर्ष की मृत्यु
लगभग 42 वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन करने के उपरान्त 648 ई. में हर्ष का निधन हो गया। उसके कोई पुत्र नहीं था, इसलिये उसकी मुत्यु के उपरांन्त उसके मंत्री अर्जुन ने उसके राज्य पर अधिकार कर लिया। साम्राज्य बिखर गया और कई नये राज्यों की स्थापना हो गई। इस प्रकार पुष्यभूति वंश का अन्त हो गया।
हर्ष का मूल्यांकन
हर्ष की गणना भारत के महान् सम्राटों में की जाती है, इसके निम्नलिखित कारण हैं-
(1) महान् विजेता: स्मिथ ने हर्ष की उपलब्धियों का वर्णन करते हुए लिखा है- ‘एक युद्ध ने अशोक की रक्त पिपासा को शांत कर दिया किंतु हर्ष अपनी तलवार को म्यान में रखने के लिए तब संतुष्ट हुआ जब उसने लगातार सैंतीस वर्ष तक, जिनमें छः वर्षों तक निरन्तर और शेष समय में सविराम युद्ध कर लिया।’ हर्ष ने पंजाब, कन्नौज, मगध, बंगाल, बिहार, उड़ीसा, वल्लभी, आनंदपुर, कच्छ, काठिायावाड़ तथा सिंध आदि राज्यों पर विजय प्राप्त की। नेपाल तथा काश्मीर ने उसकी अधीनता स्वीकार की।
(2) महान् साम्राज्य निर्माता: हर्ष एक महान् साम्राज्य निर्माता था। उसे अपने पूर्वजों से थानेश्वर का छोटा सा राज्य प्राप्त हुआ परन्तु अपनी दिग्विजय द्वारा उसने उसे एक विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया और सम्पूर्ण उत्तरी भारत में एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर लिया। यद्यपि दक्षिण भारत के युद्ध अभियान में उसे सफलता नहीं मिली और चालुक्य राजा पुलकेशिन (द्वितीय) ने उसे परास्त कर दिया परन्तु उसकी उत्तर भारत की विजयें उसे भारत के महान सम्राटों में स्थान दिलवाती हैं। गुप्त साम्राज्य के छिन्न भिन्न हो जाने पर भारत की राजनीतिक एकता को फिर से स्थापित करने का श्रेय हर्ष को ही प्राप्त है। जिस विशाल साम्राज्य की स्थापना उसने अपने बाहुबल से की थी वह उसे अपने जीवन काल में सुरक्षित रखने में भी समर्थ रहा। इसलिये उसकी गणना भारत के महान् विजेताओं तथा साम्राज्य निर्माताओं में करनी उचित ही है।
(3) महान् शासक: हर्ष न केवल महान् विजेता तथा साम्राज्य निर्माता था वरन् अपने बाहुबल से उसने जिस विशाल साम्राज्य की स्थापना की उसके सुशासन की भी सुन्दर व्यवस्था की। एक शासक के रूप में उसकी महानता इस बात में पाई जाती है कि उसका शासन उदार, दयालु तथा प्रजा के लिये हितकारी था। उसने कर बहुत कम लगाये थे, जिससे प्रजा को कर देने में कष्ट न हो और उसकी आर्थिक दशा भी अच्छी बनी रहे। हर्ष ने देश में शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए दण्ड विधान को कठोर बना दिया। अपराधों में कमी होने के कारण प्रजा सुख तथा शान्ति का जीवन व्यतीत करने लगी। हर्ष अपने राज्य में घूम-घूम कर अपनी प्रजा की कठिनाईयों को जानने तथा उनको दूर करने का प्रयत्न करता था। हर्ष अपने विशाल साम्राज्य के सुशासन की स्वयं देख-रेख करता था और अपने कर्मचारियों पर निर्भर नहीं रहता था। स्मिथ ने उसके इस गुण की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘अपने विस्तृत साम्राज्य पर नियंत्रण रखने के लिए हर्ष अपने प्रशिक्षित कर्मचारियों की सेना पर निर्भर न रहकर अपने व्यतिगत निरीक्षण पर भरोसा करता था।’ इस सम्बन्ध में डॉ.रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘अपने विस्तृत शासन सम्बन्धी मामलों के निरीक्षण के कठोर कार्य को उसने स्वयं करने का प्रयत्न किया।’ उसने अनेक लोक मंगलकारी कार्य किए, जिनसे उसकी प्रजा सुखी तथा सम्पन्न बन गई। इसलिये एक शासक के रूप में हर्ष महान् था।
(4) महान् धर्म-परायण: हर्ष का हृदय बड़ा कोमल तथा दयालु था। उसमें उच्च कोटि की धर्मपरायणता थी। प्रारम्भ में वह ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था और शिव, सूर्य आदि देवों की उपासना करता था। बाद में वह बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया परन्तु इससे उसके धार्मिक विचारों में किसी भी प्रकार की संकीर्णता नहीं आई। उसमें उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी और वह समस्त धर्मों के मानने वालों को सम्मान देता था। वह समस्त सम्प्रदायों के साधु-सन्यासियों का आदर करता था और उन्हें दान-दक्षिणा देता था। प्रयाग की पंचवर्षीय सभा में वह समस्त धर्म वालों का आदर करता था और उन्हें दान-दक्षिणा देता था। इस प्रकार आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी हर्ष महान् शासक था।
(5) महान् विद्यानुरागी: हर्ष महान् साहित्यानुरागी था। उसके विद्यानुराग की प्रशंसा करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘हर्ष के स्मरणीय होने का एक कारण यह भी है कि वह विद्वानों का उदार आश्रयदाता था।’ हर्ष ने विद्वानों को आश्रय देने के साथ-साथ स्वयं भी अपनी लेखनी का प्रयोग उसी कौशल के साथ किया जिस कौशल से वह अपनी तलवार का प्रयोग करता था। इस सम्बन्ध में डॉ. विन्सेन्ट स्मिथ ने लिखा है- ‘सम्राट हर्ष न केवल योग्य साहित्यकारों का उदार आश्रयदाता था, वह स्वयं भी एक उच्चकोटि का लेख-विशारद तथा सुविख्यात लेखक था।’ उसने ‘नागानन्द’, ‘रत्नावली’ तथा ‘प्रियदर्शिका‘ नामक तीन ग्रन्थों की रचना की। उसके दरबार का सबसे बड़ा विद्वान बाणभट्ट था, जिसने ‘हर्ष-चरित’ तथा ‘कादम्बरी’ नामक ग्रन्थों की रचना की। शिक्षा प्रसार में भी हर्ष की बड़ी रुचि थी। उसने अनेक शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना करवाई और बड़ी उदारतापूर्वक उनकी सहायता की। हर्ष ने नालन्दा विश्वविद्यालय की सहायता के लिए 220 गाँवों की आय दान में दी। इस प्रकार हर्ष ने प्रजा के न केवल भौतिक सुख तथा आध्यात्मिक विकास के लिए प्रयत्न किया, अपितु प्रजा के बौद्धिक विकास के लिए भी सुविधाएँ दीं। इस दृष्टि से भी उसे महान् सम्राट् मानना सर्वथा उचित है।
(6) संस्कृति का महान् सेवक: हर्ष ने भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति के पोषण तथा प्रचार का अथक प्रयास किया। उसके शासन काल में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का विदेशों में खूब प्रचार हुआ। तिब्बत, चीन तथा मध्य एशिया के साथ भारत के घनिष्ठ सांस्कृतिक सम्बन्ध बने और इन देशों में भारतीय संस्कृति का खूब प्रचार हुआ। इस काल में दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीप समूहों में भी भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार हुआ। इस प्रकार भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति के दृष्टिकोण से भी हर्ष का शासन काल बड़ा गौरवपूर्ण था। इसलिये हर्ष को भारतीय सम्राटों में उच्च स्थान प्रदान करना तथ्य-संगत है।
डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी ने हर्ष की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘हर्ष प्राचीन भारत के इतिहास के श्रेष्ठतम सम्राटों में से है। उसमें समुद्रगुप्त तथा अशोक दोनों ही के गुण संयुक्त थे। उसका जीवन हमें समुद्रगुत की सैनिक सफलताओं और अशोक की पवित्रता की याद दिलाता है।’
नालंदा विश्वविद्यालय
हर्ष के समय में नालंदा का विश्वविद्यालय अपने शिखर पर था। ह्वेनसांग ने भी छः वर्ष तक नालंदा में रहकर अध्ययन किया। उसके समय में शीलभद्र इस महाविहार का अध्यक्ष था। ह्वेनसांग के अनुसार इस महाविहार में 8500 विद्यार्थी तथा 1510 शिक्षक थे। नालंदा महाविहार में अध्ययन करने के इच्छुक विद्यार्थियों को कड़ी परीक्षा देनी होती थी। 100 परीक्षार्थियों में से केवल 20 को ही प्रवेश मिलता था। यह स्नातकोत्तर विद्यालय था जिसमें भारत, कोरिया, चीन, मंगोलिया, जापान, लंका आदि देशों के विद्यार्थी पढ़ते थे। प्रतिदिन 100 आसनों से शिक्षा दी जाती थी। बौद्ध धर्म की विभिन्न शाखाओं और ग्रंथों के साथ-साथ वेद, सांख्य, योग, न्याय, दर्शन, तर्कशास्त्र, आयुर्वेद, विज्ञान, शिल्प, उद्योग आदि विषय भी पढ़ाये जाते थे। शीलभद्र, नागार्जुन, आर्यदेव, असंग, वसुबंधु और दिड्नाग आदि प्रसिद्ध आचार्य थे। ह्वेनसांग के समय इसमें आठ विहार थे जिनके भवन गगनचुम्बी थे। पुस्तकालय का भवन नौ मंजिला था। इस महाविहार को 100 गांवों की आय प्राप्त होती थी। विभिन्न राजवंश एवं धनी लोग इस महाविहार को दान तथा आर्थिक सहायता देते थे। विद्यार्थियों को इस महाविहार में अध्ययन करते समय प्रत्येक सुविधा निःशुल्क मिलती थी।