स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में गवर्नरों द्वारा शासित 11 ब्रिटिश प्रांत, चीफ कमिश्नरों द्वारा शासित 6 ब्रिटिश प्रांत एवं 567 देशी राज्य थे। ब्रिटिश प्रांत भारत सरकार द्वारा प्रत्यक्षतः शासित होते थे जबकि देशी राज्यों के साथ ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अधीनस्थ सहायता की संधियाँ करके उनका वास्तविक शासन हड़प लिया था। 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम से पहले ब्रिटेन में यह मांग उठती रहती थी कि भारत के देशी राज्यों को समाप्त कर दिया जाये किंतु किसी तरह ये राज्य चलते रहे। जब 1857 ई. के स्वतंत्रता आंदोलन में देशी राजाओं ने अँग्रेजों तथा उनके शासन की रक्षा की तो अँग्रेजों को देशी राज्यों का महत्त्व अच्छी तरह समझ में आ गया तथा उन्होंने देशी राज्यों को बनाये रखकर अपने चारों ओर एक रक्षा कवच का निर्माण कर लिया। 1919 ई. में जब भारत में रोलट एक्ट का व्यापक विरोध हुआ तो भारत सरकार ने कांग्रेस का मुकाबला करने के लिये देशी राजाओं का एक मंच खड़ा किया जिसे नरेन्द्र मण्डल (चैम्बर और प्रिसेंज) कहा जाता था। उसके बाद से राजा लोग भारत सरकार के समक्ष अपनी समस्याएं इसी मंच के माध्यम से रखते आ रहे थे। साइमन कमीशन (1927 ई.) की रिपोर्ट (1930 ई.) के बाद, भारत सरकार लगातार यह प्रयास करती रही थी कि देशी राज्यों को एक संघ के नीचे लाया जाये जिसमें ब्रिटिश प्रांत भी हों। राजा लोगों ने प्रारम्भ में तो संघ में आने की इच्छा व्यक्त की किंतु बाद में वे पलट गये। वे नहीं चाहते थे कि भारत संघ बने और न ही यह चाहते थे कि भारत स्वतंत्र हो क्योंकि अधिकांश देशी राजा, ब्रिटिश परमोच्चता को देशी राज्यों के लिये रक्षा कवच मानते थे। उनका मानना था कि कांग्रेस देशी राज्यों को नष्ट कर देगी।
कांग्रेस और देशी राजाओं में मतभेद
जब देश की स्वतंत्रता की तिथि निकट आ गई तो कांग्रेस ने घोषणा की कि जब देश स्वतंत्र होगा तो देशी राज्यों का नियंत्रण स्वतः भारत सरकार को स्थानांतरित हो जायेगा किंतु देशी राज्यों का कहना था कि वे भारत सरकार के नियंत्रण में नहीं हैं और न ही भारत सरकार से किसी तरह की संधि से बंधे हुए हैं, उन्होंने अपने राज्यों की संधियाँ ब्रिटिश ताज के साथ की थीं। अतः जब इंग्लैण्ड की सरकार इस देश को छोड़कर जायेगी तो देशी राज्य अधीनस्थ सहायता की संधियों से मुक्त होकर, पहले की स्थिति में आ जायेंगे जिससे ब्रिटिश ताज की परमोच्चता समाप्त हो जायेगी तथा यह परमोच्चता किसी नई बनने वाली सरकार को नहीं दी जायेगी।
प्रधानमंत्री एटली की घोषणा
कैबीनेट मिशन की असफलता के बाद जब भारतीय सेनाओं में विद्रोह हो गया तो 20 फरवरी 1947 को प्रधानमंत्री एटली ने घोषणा की कि 20 जून 1948 तक भारत को स्वतंत्र कर दिया जायेगा। उस घोषणा में देशी राज्यों के सम्बन्ध में केवल इतना कहा गया कि महामाना सम्राट की सरकार की यह मंशा नहीं है कि परमोच्चता के अधीन राज्यों की शक्तियां तथा दायित्व ब्रिटिश भारत में किसी अन्य सरकार को सौंपी जायें। यह मंशा भी नहीं है कि परमोच्चता को सत्ता के अंतिम हस्तांतरण की तिथि तक बनाये रखा जाये। अंतरिम काल के लिये राज्यों के साथ ब्रिटिश ताज के सम्बन्ध किसी अन्य समझौते द्वारा समायोजित किये जा सकते हैं।
देशी राज्यों के शासकों की प्रतिक्रिया
प्रधानमंत्री एटली के वक्तव्य का राजाओं द्वारा एक स्वर से स्वागत किया गया। नवाब भोपाल ने इस बात पर प्रसन्नता व्यक्त की कि जब अँग्रेज चले जायेंगे तो परमोच्चता समाप्त हो जायेगी तथा राज्य स्वतंत्र हो जायेंगे। सर सी. पी. रामास्वामी का मानना था कि प्रधानमंत्री एटली के इस वक्तव्य के अनुसार सत्ता के अंतिम हस्तांतरण के बाद राज्य स्वतंत्र राजनीतिक इकाईयां बन जायेंगे जो कि नयी सरकार के साथ वार्ताओं के माध्यम से व्यवस्थाएं करंेगे तथा नवीन भारतीय व्यवस्था में अपनी स्थिति को प्राप्त करेंगे। सर सी. पी. रामास्वामी ने एक प्रेस वार्ता में दावा किया कि एटली के बयान ने कैबिनेट मिशन योजना को आच्छादित (सुपरसीड) कर लिया है तथा उसने राज्यों को खुला छोड़ दिया है ताकि राज्य तत्काल ही अपने आंतरिक एवं बाह्य मामालों को इस प्रकार मान्यता दें कि भारत सरकार से बराबर के स्तर पर वार्ता करने के लिये 10 या 12 से अधिक इकाईयां न हों।
रजवाड़ों की स्थिति पर विचार
पं. जवाहरलाल नेहरू का मानना था कि भारतीय रियासतें केवल मध्यकालीन सामंतवाद के ऐतिहासिक चिह्न हैं। इनकी वर्तमान परिस्थिति से संगति नहीं होती। समाज और राजनीति की वर्तमान स्थिति में इनका कोई स्थान नहीं है। कांग्रेस द्वारा रजवाड़ों की स्थिति को लेकर कई तरह के प्रस्तावों पर विचार किया गया। उनमें से एक यह भी था कि ब्रिटिश सरकार सत्ता के हस्तांतरण के बाद भी कुछ निश्चित रियासतों पर अपनी परमसत्ता बनाये रखे। ऐसा करना असंभव प्रायः ही था। ऐसा करने से यही प्रतीत होता कि ब्रिटेन भारत में अपनी टांग अड़ाये रखना चाहता है तथा ऐसा करके वह एक कमजोर एवं खण्ड-खण्ड भारत का निर्माण करना चाहता है। ऐसी स्थिति में यह भी संभव था कि आगे चलकर ब्रिटिश संरक्षित रजवाड़ों तथा भारत एवं पाकिस्तान की सरकारों के मध्य युद्ध हों।
ब्रिटिश सरकार इतना ही कर सकती थी कि रजवाड़ों को मजबूत बनाये ताकि जब उत्तराधिकारी सरकार के साथ रजवाड़ों के समझौते हों तो रजवाड़े अपने लिये अधिक से अधिक सुविधायें ले सकें। ऐसा करने के लिये भी केवल एक ही उपाय दिखाई पड़ता था कि रजवाड़ों पर से परमसत्ता को समाप्त कर दिया जाये उसे किसी अन्य सरकार को नहीं सौंपा जाये।
माईकल एडवर्ड्स ने लिखा है कि जब स्वतंत्रता पर विचार-विमर्श चल रहे थे, तब ब्रिटिश शासकों के पास इस बात पर विस्तार से विचार करने के लिये वास्तव में कोई समय नहीं था कि जब सत्ता का अंतिम रूप से स्थानांतरण हो जाये तब राजाओं को किस तरह से कार्य करना चाहिये। पूरी ब्रिटिश सरकार इस बात पर सुस्पष्ट थी कि देशी रजवाड़ों पर से परमसत्ता का हस्तांतरण किसी अन्य सरकार को नहीं किया जाये क्योंकि 1946 ई. में कैबिनेट मिशन यह आशा एवं अपेक्षा प्रकट कर चुका था कि सभी रियासतें प्रस्तावित भारत संघ के साथ मिल जायेंगी।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947
4 जुलाई 1947 को ब्रिटिश संसद ने भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम 1947 पारित कर दिया। इस अधिनियम की धारा 8 में प्रावधान किया गया कि 15 अगस्त 1947 को देशी राज्यों पर से ब्रिटिश सरकार की परमोच्चता समाप्त हो जायेगी तथा यह पुनः देशी राज्यों को हस्तांतरित कर दी जायेगी। इस कारण देशी राज्य अपनी इच्छानुसार भारत अथवा पाकिस्तान में से किसी भी देश में सम्मिलित होने अथवा पृथक अस्तित्व बनाये रखने के लिये स्वतंत्र हो जायेंगे।
स्वतन्त्रता के समय देशी राज्यों की स्थिति
स्वतन्त्रता के समय भारत में छोटी बड़ी 566 देशी रियासतें थीं। समस्त भारत का 40 प्रतिशत क्षेत्रफल और 25 प्रतिशत जनसंख्या इन राज्यों में निवास करती थी। जनसंख्या, क्षेत्रफल और वित्तीय संसाधनों की दृष्टि से इन राज्यों में भारी असमानता थी। प्रस्तावित पाकिस्तान की सीमा में पड़ने वाली 12 रियासतों पर मुस्लिम नवाबों और खानों का शासन था तथा वहाँ की बहुसंख्य जनसंख्या भी मुसलमान थी। जबकि भारतीय क्षेत्र में रह जाने वाली 554 रियासतों में से हैदराबाद, जूनागढ़, भोपाल तथा टोंक आदि कुछ रियासतों पर ही मुसलमान शासकों का शासन था किंतु वहां की बहुसंख्य जनसंख्या हिन्दू थी। जम्मू-काश्मीर अकेली ऐसी रियासत थी जिस पर हिन्दू शासक का शासन था और वहाँ की बहुसंख्य जनसंख्या मुसलमान थी। शेष समस्त रियासतों पर हिन्दू शासकों का शासन था और वहाँ की बहुसंख्य जनसंख्या भी हिन्दू थी। देशी राज्यों में जनता के अधिकार निश्चित नहीं थे। 1936 ई. के पश्चात् कुछ राज्यों में प्रजामण्डल आंदोलन हुए परन्तु उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली। प्रत्येक देशी राज्य में एक ब्रिटिश रेजींडेट अथवा पोलिटिकल अधिकारी नियुक्त रहता था जिसके माध्यम से वायसराय, देशी राज्यों पर अपना शासन आरोपित करता था।
अँग्रेज रेजीडेंटों की बैठक
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 की धारा 8 में किये गये प्रावधानों के अनुसार देशी रियासतों से परमोच्चता हटाने एवं उन्हें स्वतंत्र करने हेतु आवश्यक तैयारियों के सम्बन्ध में भारत सरकार के राजनीतिक विभाग ने अँग्रेज रेजीडेंटों की एक बैठक दिल्ली में बुलाई। इस बैठक में हुए विचार-विमर्श के आधार पर 10 बिंदु तैयार किये गये जिन पर सेक्रेटरी ऑफ स्टेट लॉर्ड लिस्टोवल से विचार विमर्श करना आवश्य समझा गया। ये बिंदु परमोच्चता की समाप्ति, पोलिटिकल अधिकारियों तथा उनके स्टाफ की निकासी, रेजीडेंसियों के हस्तांतरण, दस्तावेजों के निरस्तारण, नई बनने वाली औपनिवेशिक सरकारों से सम्पर्क बनाने हेतु किये जाने वाले अंतरिम प्रबन्ध, रेलवे, डाक सेवा, टेलिग्राफ सेवा तथा मुद्रा आदि के सम्बन्ध में स्टैण्ड स्टिल एग्रीमेंट्स से सम्बन्धित थे। नीति विषयक प्रश्न पहले से ही कैबिनेट मिशन द्वारा निर्धारित कर दिया गया था जो कि योजना में जोड़ा जाना था।
देशी राज्यों की मंशा
देशी राज्य किसी भी कीमत पर भारत संघ अथवा किसी अन्य प्रकार के संघ में प्रवेश के इच्छुक नहीं थे। वे अपने स्वतंत्र राज्य उसी प्रकार बने रहने देना चाहते थे जिस प्रकार ब्रिटिश छत्रछाया में जाने से पहले थे ताकि उन्हें अपनी रियासतों के राजस्व पर पूरा अधिकार हो। वे अपनी मर्जी से अपने पड़ौंसियों से युद्ध अथवा मित्रता कर सकें और अपनी प्रजा को उसके अपराधों के लिये मृत्युदण्ड अथवा क्षमादान देते रहें। छोटे राज्यों के पास भारत संघ में मिल जाने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था किंतु बड़े एवं सक्षम राज्यों की स्थित अलग थी। त्रावणकोर, हैदराबाद, जम्मू एवं कश्मीर, मैसूर, इन्दौर, भोपाल, नवानगर यहाँ तक कि बिलासपुर की बौनी रियासत ने भी पूर्णतः स्वतंत्र रहने का स्वप्न देखा। अलवर नरेश ने 3 अप्रेल 1947 को बम्बई में आयोजित नरेन्द्र मंडल की बैठक में कहा कि देशी राज्यों के अधिपतियों को हिंदी संघ राज्य में नहीं मिलना चाहिये। 5 जून 1947 को भोपाल तथा त्रावणकोर ने स्वतंत्र रहने के निर्णय की घोषणा की। हैदराबाद को भी यही उचित जान पड़ा। जम्मू एवं कश्मीर, इन्दौर, जोधपुर, धौलपुर, भरतपुर तथा कुछ अन्य राज्यों के समूह के द्वारा भी ऐसी ही घोषणा किये जाने की संभावना थी। इस प्रकार देशी रियासतों के शासकों की महत्वाकांक्षायें देश की अखण्डता के लिये खतरा बन गयीं।
मद्रास के तत्कालीन गवर्नर तथा बाद में स्वतंत्र भारत में ब्रिटेन के प्रथम हाई कमिश्नर सर आर्चिबाल्ड नेई को रजवाड़ों के साथ किसी प्रकार की संधि होने में संदेह था। माउण्टबेटन ने सरदार पटेल से कहा कि यदि राजाओं से उनकी पदवियां न छीनी जायें, महल उन्हीं के पास बने रहें, उन्हें गिरफ्तारी से मुक्त रखा जाये, प्रिवीपर्स की सुविधा जारी रहे तथा अँग्रेजों द्वारा दिये गये किसी भी सम्मान को स्वीकारने से न रोका जाये तो वायसराय, राजाओं को इस बात पर राजी कर लेंगे कि वे अपने राज्यों को भारतीय संघ में विलीन करें और स्वतंत्र होने का विचार त्याग दें। पटेल ने माउण्टबेटन के सामने शर्त रखी कि वे माउण्टबेटन की शर्त को स्वीकार कर लेंगे यदि माउण्टबेटन सारे रजवाड़ों को भारत की झोली में डाल दें। तेजबहादुर सप्रू का कहना था कि मुझे उन राज्यों पर, चाहे वे छोटे हों अथवा बड़े, आश्चर्य होता है कि वे इतने मूर्ख हैं कि वे समझते हैं कि वे इस तरह से स्वतंत्र हो जायेंगे और फिर अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखेंगे। दुर्दिन के मसीहाओं ने भविष्यवाणी की थी कि हिंदुस्तान की आजादी की नाव रजवाड़ों की चट्टान से टकरायेगी।