कुतुबुद्दीन ऐबक ने हजारों भारतीय नागरिकों का कत्ले आम किया तथा हजारों भारतीयों को गुलाम बनाकर मध्य-एशिया के बाजारों में बिकने के लिए भेजा फिर भी भारत के मुस्लिम इतिहासकारों ने उसकी वीरता, उदारता एवं न्यायप्रियता का गुणगान करते हुए उसे महान् निर्माता के रूप में चित्रित किया है। डॉ. हबीबुल्ला ने ऐबक के कार्यों का मूल्यांकन करते हुए लिखा है- ‘वह महान् शक्ति तथा महान् योग्यता का सैनिक नेता था। उसमें एक तुर्क की वीरता के साथ-साथ पारसीक की सुरुचि तथा उदारता विद्यमान् थी।’ वास्तविकता यह है कि कुतुबुद्दीन ऐबक को अपने संक्षिप्त शासन काल में भवन बनवाने का समय ही नहीं मिला। उसने दिल्ली तथा अजमेर के प्रसिद्ध हिन्दू भवनों को तोड़कर उनमें मस्जिदें बनवाईं।
कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली के निकट महरौली गांव में मंदिरों को तोड़कर कुव्वत-उल-इस्लाम नामक मस्जिद का निर्माण करवाया जिसका अर्थ होता है- ‘इस्लाम की शक्ति।’ इस मस्जिद को इस्लाम द्वारा दिल्ली पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में बनवाया गया। इसके निर्माण के लिए सामग्री प्राप्त करने हेतु इस क्षेत्र में स्थित 27 हिन्दू मंदिरों का विध्वंस किया गया। इस मस्जिद की बाहरी शैली हिन्दू स्थापत्य की है। मस्जिद के इबादतखाने में बड़ी सुन्दर खुदाइयाँ मौजूद हैं जो प्राचीन हिन्दू मंदिरों की याद दिलाती हैं।
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ऐबक की बनवाई हुई दूसरी प्रसिद्ध इमारत कुतुबमीनार है। वैसे तो यह एक विजय स्तम्भ है किंतु कुतुबुद्दीन ऐबक ने इस मीनार को ख्वाजा मुईनद्दीन चिश्ती के शिष्य ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की स्मृति में ई.1199 में बनवाना आरम्भ किया किंतु यह ई1221 में बनकर पूरी हुई, उस समय दिल्ली पर कुतुबुद्दीन के गुलाम इल्तुतमिश का शासन था।
ई.1200 में कुतुबुद्दीन ऐबक ने अजमेर की चौहान कालीन संस्कृत पाठशाला को तोड़कर उसके परिसर में एक मस्जिद बनवाई। बाद में इस परिसर में पंजाबशाह की स्मृति में अढ़ाई दिन का उर्स भरने लगा। तब से इसे अढ़ाई दिन का झौंपड़ा कहने लगे। बहुत से लोग समझते हैं कि इसका निर्माण ढाई दिन में किया गया था। इस मस्जिद के भीतर खड़े स्तम्भों एवं गुम्बदों की कलात्मक खुदाई इसके हिन्दू भवन होने की घोषणा करती है।
ऐबक का शासन सैनिक बल पर अवलम्बित था। उसके साथ सदैव एक प्रबल सेना रहती थी। इसके साथ ही, सल्तनत के अन्य भागों में भी महत्त्वपूर्ण स्थानों में सेना रखी जाती थी। राजधानी दिल्ली तथा प्रान्तीय नगरों का शासन मुसलमान अधिकारियों के हाथों में था। इन अधिकारियों की इच्छा ही कानून थी। ग्रामीण क्षेत्रों में कर-वसूली का काम अब भी हिन्दू कर्मचारियों के हाथों में था और लगान-सम्बन्धी पुराने नियम ही चालू रखे गये थे। ऐबक द्वारा कोई व्यवस्थित न्याय विधान स्थापित नहीं किया गया। इस कारण न्याय की व्यवस्था असन्तोषजनक थी। काजियों की मर्जी ही सबसे बड़ा कानून थी।
सल्तनतकालीन इतिहासकार कुतुबुद्दीन ऐबक की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं क्योंकि उसने भारत में मुस्लिम शासन की नींव रखी। हमें भी ऐबक के चरित्र तथा कार्यों का मूल्यांकन करने के लिये उन्हीं के विवरण पर निर्भर रहना पड़ता है। सल्तनत कालीन इतिहासकार ऐबक की कितनी ही प्रशंसा क्यों न करें, वास्तविकता यह थी कि एक आक्रांता के रूप में उसकी समस्त अच्छाइयाँ मुस्लिम प्रजा के लिये थीं जो कि उस समय मुट्ठी भर थी और जिसकी खुशहाली पर ऐबक के शासन की मजबूती निर्भर करती थी। शासन की दृष्टि में हिन्दू प्रजा काफिर थी जिसे मुस्लिम प्रजा के बराबर अधिकार प्राप्त नहीं थे।
ऐबक युद्ध में तलवार चलाना तो जानता था किंतु उसमें रचनात्मक प्रतिभा नहीं थी। उसने भारत में हिन्दू शासन को तो नष्ट किया किंतु अपनी ओर से कोई सुदृढ़़, संगठित एवं व्यवस्थित शासन व्यवस्था स्थापित नहीं कर सका। न ही उसने कोई शासन सम्बन्धी सुधार किये। उसने हिन्दू प्रजा पर उन काजियों को थोप दिया जो इस्लाम के अनुसार काफिर प्रजा का न्याय करते थे। ऐबक की उदारता तथा दानशीलता मुसलमानों तक ही सीमित थी। हिन्दुओं के साथ वह सहिष्णुता की नीति का अनुसरण नहीं कर सका। उसने हजारों हिन्दुओं की हत्या करवाई, हजारों हिन्दुओं को गुलाम बनाकर मध्यएशिया के बाजारों में बिकने के लिए भेजा, सैंकड़ों मन्दिरों का विध्वंस करके काफिर हिन्दुओं को दण्डित किया तथा मुस्लिम इतिहासकारों से प्रशंसा प्राप्त की।
मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार कुतुबुद्दीन ऐबक को साहित्य तथा कला से भी प्रेम था। हसन निजामी तथा फखरे मुदीर आदि विद्वानों को उसका आश्रय प्राप्त था जबकि वास्तविकता यह है कि उसके काल में संगीत कला, चित्र कला, नृत्य कला, स्थापत्य कला, शिल्प कला, मूर्ति कला आदि कलाओं का कोई विकास नहीं हुआ।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता