भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना
कानपुर षड़यन्त्र केस के कुछ दिनों बाद ही संयुक्त प्रांत में सक्रिय साम्यवादी समूह के नेता सत्यभक्त ने 1 सितम्बर 1924 को कानपुर में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की। इस पार्टी का उद्देश्य, सम्पूर्ण स्वराज्य को प्राप्त करना और एक ऐसे समाज का निर्माण करना था जिसमें उत्पादन और धन के वितरण पर सामूहिक स्वामित्व हो। पार्टी का एक तदर्थ संविधान भी तैयार किया गया। इस पार्टी का कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से कोई सम्बन्ध नहीं था।
इसी पार्टी के तत्त्वावधान में दिसम्बर 1924 के अन्तिम सप्ताह में कानुपर में पहली साम्यवादी कान्फ्रेन्स हुई जिसमें एस. वी. घाटे, जागेलेकर, नाग्बियार, शम्शुद्दीन हसन, चेट्टियार, मुजफ्फर अहमद आदि अनेक प्रमुख कम्युनिस्टों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में सत्यभक्त की कड़ी आलोचना की गई क्योंकि उन्होंने अपनी पार्टी को राष्ट्रवादी पार्टी घोषित किया था तथा कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से किसी प्रकार का सम्पर्क नहीं रखा था। अन्य कम्युनिस्टों का तर्क था कि कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के नियमानुसार पार्टी का नाम भारत की कम्युनिस्ट पार्टी होना चाहिए न कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, और उसे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के निर्देशानुसार कार्य करना चाहिए। सत्यभक्त अल्पमत में पड़ गये, अतः उन्होंने पार्टी तथा राजनीति, दोनों को छोड़ दिया। 1925 ई. तक इस पार्टी के सदस्यों की संख्या 250 तक पहुँच गयी।
कानुपर सम्मेलन दो दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण था-
(1.) कम्युनिस्ट आंदोलन को सत्यभक्त जैसे राष्ट्रवादी आदमी के हाथों में पड़ने से बचा लिया गया जो एक ऐसी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण का विचार प्रस्तुत कर रहा था जो राष्ट्रीय हो और जिसका कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के साथ कोई सम्पर्क न हो।
(2.) भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन, समूहों के निर्माण की अवस्था से निकलकर, नियमित रूप से कार्य करने वाली अखिल भारतीय पार्टी की अवस्था में पहुँच गया।
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना
कानपुर कान्फ्रेंस में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के समर्थक साम्यवादियों का दबदबा रहा और उन्होंने अन्य ग्रुपों को संगठित करके 27 दिसम्बर 1925 को भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की घोषणा की। पार्टी की एक केन्द्रीय समिति का भी गठन किया गया जिसमें 30 सदस्यों का प्रावधान था परन्तु उस दिन केवल 16 सदस्य ही चुने गये। इसी सम्मेलन में पार्टी का नया संविधान पारित किया गया तथा विभिन्न पदाधिकारियों की नियुक्ति की गई। बीकानेर के जानकी प्रसाद बगरहट्टा तथा एस. वी. घाटे महासचिव चुने गये। यह निश्चित किया गया कि पार्टी का मुख्यालय अगले वर्ष बम्बई चला जायेगा और घाटे उसका काम संभालेंगे। इस पार्टी के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार से थे-
1. भारत को पूर्ण रूप से स्वतंत्र करवाना।
2. बलपूर्वक आरोपित ब्रिटिश शासन को समाप्त करना।
3. भारत में सोवियत रूस जैसी सरकार की स्थापना करना।
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की गतिविधियाँ
मजदूर-किसान पार्टियों का गठन
कम्युनिस्ट पार्टी के लिए संवैधानिक रूप से काम करना संभव नहीं था, इसलिये मजदूरों, किसानों और श्रमजीवी वर्ग के हितों की रक्षा के लिए मजदूर-किसान पार्टियों के गठन का निर्णय लिया गया ताकि उनकी आड़ में, कम्युनिस्ट अपनी गतिविधियाँ चला सकें। मुजफ्फर अहमद के अनुसार मजदूर-किसान पार्टियों के गठन की दिशा में कदम उठाने का श्रेय काजी नजरूल इस्लाम और शम्सुद्दीन को था। कुछ लेखकों के अनुसार इसका श्रेय ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के फिलिप स्पार्ट को है।
बंगाल में लेबर स्वराज पार्टी की स्थापना: बंगाल में सबसे पहली मजदूर-किसान पार्टी की स्थापना हुई जिसका प्रारम्भिक नाम लेबर स्वराज पार्टी रखा गया। लेबर स्वराज पार्टी ने दिसम्बर 1925 से लांगल नामक पत्र का प्रकाशन आरम्भ किया। अगस्त 1926 में इस पत्र का नाम बदलकर गनबानी (गणवाणी) किया गया। 1928 ई. में पार्टी का नाम मजदूर-किसान पार्टी किया गया।
बम्बई में कामकरी शेतकरी पार्टी की स्थापना: बम्बई में एस. एस. मीरजकर, ढुंढिराज ठेंगड़ी और उनके साथियों द्वारा मार्च 1927 में कामकरी शेतकरी पार्टी (मजदूर किसान पार्टी) की स्थापना की गई। इस पार्टी का मुखपत्र क्रांति शीर्षक से साप्ताहिक आवृत्ति पर प्रकाशित किया जाता था। इस पार्टी का काम मजदूरों, किसानों और युवकों में प्रगतिशील राजनीतिक विचारों का प्रसार करना था। इस पार्टी ने मजदूरों को संगठित करके कई हड़तालों का संचालन किया। 80,000 सदस्यों वाली गिरनी कामगार यूनियन (लाल झण्डा) इसी पार्टी के सदस्यों द्वारा स्थापित की गई।
पंजाब में किरती-किसान पार्टी की स्थापना: दिसम्बर 1927 में पंजाब में किरती-किसान पार्टी की स्थापना हुई। इस पार्टी में अमृतसर और लाहौर, दोनों क्षेत्रों के कृषक एवं श्रमिक सम्मिलित थे। अब्दुल मजीद तथा सोहनसिंह जोश इस पार्टी के प्रमुख नेता थे। किसरती उनका मुखपत्र था जो पंजाबी और उर्दू, दो भाषाओं में प्रकाशित होता था।
संयुक्त प्रांत में मजदूर-किसान पार्टी की स्थापना: संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) में 14 अक्टूबर 1928 को मजदूर-किसान पार्टी की स्थापना हुई। पूरनचन्द जोशी को पार्टी का सचिव चुना गया।
अखिल भारतीय मजदूर-किसान पार्टी की स्थापना
1928 ई. के मेरठ सम्मेलन में कम्युनिस्टों ने देश भर की मजदूर-किसान पार्टियों के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय लिया। 21-24 दिसम्बर 1928 को कलकत्ता में सोहनसिंह जोश की अध्यक्षता में एक सम्मेलन बुलाया गया। इस सम्मेलन में अखिल भारतीय मजदूर-किसान पार्टी की स्थापना करने की घोषणा की गई। आर. एस. निंबकर को पार्टी का सचिव बनाया गया और बम्बई में पार्टी का मुख्यालय स्थापित किया गया। पार्टी के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार थे-
(1.) आर्थिक और सामाजिक मुक्ति सहित सम्पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना।
(2.) मजदूरों और किसानों के शक्तिशाली आन्दोलनों को गति प्रदान करना।
(3.) जनसाधारण के आर्थिक एवं राजनीतिक स्तर को उन्नत बनाना।
मेरठ षड़यन्त्र केस
1927-28 ई. में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में देश के विभिन्न हिस्सों में मजदूरों ने अनेक हड़तालें कीं। कम्युनिस्टों की बढ़ती हुई शक्ति से भारत सरकार व भारतीय पूँजीपतियों में घबराहट फैल रही थी। इसलिये अनेक उद्योगपतियों ने सरकार पर दबाव डाला कि वह कम्युनिस्टों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही करे। ब्रिटिश नौकरशाही भी इन आंदोलनों को मजबूती से कुचलना चाहती थी। बम्बई तथा कलकत्ता आदि महानगरों में हड़ताली मजदूर बड़ी संख्या में रहते थे। इसलिये निश्चित किया गया कि देश के विभिन्न हिस्सों से कम्युनिस्टों के प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार करके मेरठ लाया जाये तथा वहाँ उन पर मुकदमा चलाया जाये। कुल 32 कम्युनिस्ट नेताओं पर मुकदमा चलाया गया और जानबूझ कर मुकदमे की कार्यवाही को लम्बा खींचा गया। सरकार की इस कार्यवाही से कम्युनिस्ट संगठन कमजोर हो गया, मजदूर आन्दोलन को भारी क्षति पहुँची और मजदूर-किसान पार्टियां विघटित हो गईं।
कम्युनिस्ट पार्टी का नया कार्यक्रम
मेरठ षड़यन्त्र केस से पहले, कम्युनिस्ट नेता, देश के बुर्जुआ राष्ट्रवादियों (दक्षिणपंथी कांग्रेसियों) के साथ मिलकर काम करने में विश्वास रखते थे परन्तु अब उन्होंने अनुभव किया कि भारत में विदेशी सत्ता को बनाये रखने तथा जन आन्दोलन को कमजोर बनाने में देश के व्यापारी, पूँजीपति एवं उद्योगपति किसी से कम नहीं हैं और भारतीय कांग्रेस इन्हीं तत्त्वों के प्रभाव में है। अतः कम्युनिस्ट नेताओं ने बुर्जुआ राष्ट्रवाद का विरोध करने का कार्यक्रम तैयार किया और सर्वहारा वर्ग की एक मजदूर पार्टी का निर्माण करने का निर्णय लिया। 1929 ई. के अन्त में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस का विभाजन हो गया तथा कम्युनिस्ट, इस संगठन से अलग हो गये। कम्युनिस्टों ने अपना एक नया कार्यक्रम घोषित किया जिसमें बलपूर्वक ब्रिटिश शासन को समाप्त करना, सोवियत रूस की तरह भारत में भी सर्वहारा वर्ग की सरकार बनाना, बड़े-बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करना, देशी रियासतों तथा जमींदारी प्रथा का उन्मूलन करना आदि अनेक कार्यक्रम सम्मिलत थे। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक गुप्त केन्द्रीय संगठन स्थापित करने का निर्णय लिया गया।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन और कम्युनिस्ट पार्टी
12 मार्च 1930 से गांधीजी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ हुआ। गांधीजी के द्वारा चलाये गये पूर्ववर्ती समस्त आंदोलनों की तरह यह आन्दोलन भी विफल रहा। इस आन्दोलन के दौरान कम्युनिस्टों ने रैड ट्रेड यूनियन का गठन किया तथा इसके माध्यम से आन्दोलन को अधिक व्यापक और उग्र बनाने का प्रयास किया। अपैल 1930 में जी. आई. पी. की हड़ताल, जून, 1930 में शोलापुर का विद्रोह, एक आम राजनीतिक हड़ताल तथा अन्य किसान एवं मजदूर आन्दोलनों का सफल संचालन करके, कम्युनिस्टों ने ब्रिटिश शासन का डटकर मुकाबला किया। मजदूर आन्दोलन में उन्होंने अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके बढ़ते हुए प्रभाव से सरकार चिंतित हो उठी। क्योंकि अधिकांश कम्युनिस्ट नेता जेल में बन्द थे, फिर भी उनका प्रभाव बढ़ता जा रहा था। 1931 ई. में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में 166 हड़तालें हुईं जिनमें हजारों मजदूरों ने भाग लिया। 1934 ई. में 159 हड़तालें हुईं। बम्बई की कपड़ा मिलों में भी मजदूरों ने बड़ी हड़तालें कीं। विस्तृत स्तर पर हो रही हड़तालें और उग्र प्रदर्शन, देश में कम्युनिस्टों के बढ़ते हुए प्रभाव के स्पष्ट संकेत थे।
सरकार द्वारा कम्युनिस्ट आंदोलन को कुचलने के प्रयास
ब्रिटिश सरकार ने कम्युनिस्टों के बढ़ते हुए प्रभाव को समाप्त करने के लिए कई कदम उठाये। रैड ट्रेड यूनियन तथा कांग्रेस से सम्बद्ध मजदूर यूनियनों के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। मजदूरों के जुलूसों तथा सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। 23 जुलाई 1934 को भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया। कम्युनिस्ट पार्टी से सम्बद्ध अन्य संगठनों को भी गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया। विदेशों से आने वाले कम्युनिस्ट साहित्य पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। सरकार को आशा थी कि इन कदमों से कम्युनिस्टों की गतिविधियों पर अंकुश लगेगा और वे प्रभावहीन हो जायेंगे परन्तु इन प्रतिबन्धों के उपरान्त भी कम्युनिस्टों ने हिम्मत नहीं हारी और उनकी गुप्त गतिविधियाँ जारी रहीं।
संयुक्त मोर्चे का गठन
1935 ई. में सातवीं कम्युनिस्ट इंटरनेशनल का आयोजन हुआ। इसमें भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को सुझाव दिया गया कि वह साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चा गठित करे। रजनी पामदत्त, ब्राडले और रूसी प्रतिनिधि दिमित्रोव ने भी भारत में एक संयुक्त मोर्चे की स्थापना की आवश्यकता जताई ताकि भारत के कम्युनिस्ट, उसकी ओट में पुनः अपना प्रभाव बढ़ा सकें। इसलिये भारत के कम्युनिस्टों ने कांग्रेस के भीतर काम कर रहे कांग्रेस समाजवादी दल के साथ गठजोड़ कर लिया। कांग्रेस समाजवादी दल भी वामपंथी शक्तियों की एकता का समर्थक था इसलिये उसने 1936 ई. में कम्युनिस्टों को कांग्रेस समाजवादी दल में सम्मिलित होने का निमंत्रण दिया। कम्युनिस्टों ने इस निमंत्रण को स्वीकार कर लिया। वे कांग्रेस समाजवादी दल के सदस्य बन गये परन्तु उन्होंने अपनी स्वतंत्र पहचान को भी बनाये रखा।
अन्य कम्युनिस्ट संस्थाओं की स्थापना
संयुक्त मोर्चे की स्थापना के फलस्वरूप अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस भी पुनः शक्तिशाली बन गई। 1936 ई. में स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में अखिल भारतीय किसान सभा का निर्माण हुआ। उसी वर्ष अखिल भारतीय छात्र यूनियन अस्तित्त्व में आई। भारत के लेखकों एवं साहित्यकारों ने मुंशी प्रेमचन्द की अध्यक्षता में एक अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना कर ली।
संयुक्त मोर्चे की स्थापना से भारतीय कांग्रेस की नीतियों में बदलाव आया। उसने किसानों की समस्याओं एवं उनके संगठनों की तरफ अधिक ध्यान देना आरम्भ किया। इससे किसान संगठनों की शक्ति का विकास हुआ। 1936 ई. के फैजपुर सम्मेलन में जहाँ 20,000 किसानों ने भाग लिया था, वहीं 1938 ई. में किसान सभा के सदस्यों की संख्या पांच लाख को पार कर गई। संयुक्त मोर्चे की स्थापना के बाद मजदूर संघों की संख्या में भी आशातीत वृद्धि हुई। श्रमिक वर्ग अपनी राष्ट्रव्यापी हड़तालों के माध्यम से अपनी अधिकांश मांगे मनवाने में सफल रहा।
संयुक्त मोर्चे का पतन
संयुक्त मोर्चा अस्थायी सिद्ध हुआ। कांग्रेस समाजवादी दल का दक्षिणपंथी गुट, कांग्रेस समाजवादी दल में कम्युनिस्टों के बढ़ते हुए प्रभाव से चिंतित हो उठा। इस गुट ने धमकी दी कि यदि कम्युनिस्टों को नियंत्रित नहीं किया गया तो वे दल से अलग हो जायेंगे। जब धमकी का असर नहीं हुआ तो जुलाई 1939 में मीनू मसानी, अशोक मेहता, राममनोहर लोहिया तथा अच्युत पटवर्धन आदि नेताओं ने कांग्रेस समाजवादी दल को छोड़ दिया। इस प्रकार संयुक्त मोर्चे में दरार पड़ गई। 1940 ई. में कांग्रेस समाजवादी दल ने कम्युनिस्टों को पार्टी से बाहर निकाल दिया परन्तु समाजवादियों के इस कदम का, उनकी अपनी पार्टी पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। संयुक्त मोर्चे के अधिकांश नेता एवं कार्यकर्ता कम्युनिस्ट खेमे में चले गये। दक्षिण भारत से तो कांग्रेस समाजवादी दल का पूरा सफाया हो गया। संयुक्त मोर्चे का भी पतन हो गया।
द्वितीय विश्वयुद्ध और कम्युनिस्ट पार्टी
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी, सोवियत रूस के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों से प्रभावित होती थी। विश्व युद्ध के प्रारम्भ में सोवियत रूस ने जर्मनी के साथ अनाक्रमण समझौता कर रखा था। अतः भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने इस विश्व युद्ध को साम्राज्यवादी युद्ध घोषित करते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन को तेज करने तथा ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की अपील की। यद्यपि कांग्रेस समाजवादी दल और सुभाषचन्द्र बोस का नवोदित फॉरवर्ड ब्लॉक भी विश्व युद्ध में अँग्रेजों को सहयोग देने के विरुद्ध थे परन्तु कम्युनिस्ट पार्टी चाहती थी कि साम्राज्यवादी युद्ध को राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध में बदल दिया जाये। इसी उद्देश्य से कम्युनिस्टों ने 1940 ई. में अनेक मिलों में हड़तालें करवाईं तथा सरकार के युद्ध समर्थक प्रयासों को विफल बनाने का प्रयास किया। इसलिये भारत सरकार ने प्रमुख कम्युनिस्ट नेताओं को बन्दी बना लिया। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 480 मुख्य कम्युनिस्ट नेताओं को बन्दी बनया गया।
जब जून 1941 में जर्मनी ने सोवियत रूस पर अचानक आक्रमण कर दिया तो विवश होकर सोवियत रूस को मित्र राष्ट्रों (साम्राज्यवादियों) के गुट में सम्मिलित होना पड़ा। रूस के पासा पलटते ही भारतीय कम्युनिस्टों का दृष्टिाकोण बदल गया। जिस विश्व युद्ध को वे साम्राज्यवादियों का युद्ध कहकर उसका विरोध कर रहे थे, उसी को अब लोक युद्ध (जनता का युद्ध) कहकर उसका समर्थन करने लगे और साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार को हर सम्भव सहयोग देने की अपील करने लगे। ब्रिटिश सरकार ने भी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी से समस्त प्रतिबन्ध हटा लिये और कम्युनिस्ट नेताओं तथा कार्यकर्ताओं को जेलों से रिहा कर दिया।
भारत छोड़ो आन्दोलन और कम्युनिस्ट पार्टी
अगस्त 1942 में कांग्रेस के नेताओं की गिरफ्तारी से भारत छोड़ो आन्दोलन भड़क उठा। इस समय द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था तथा रूस, ब्रिटेन आदि साम्राज्यवादी देशों के गुट में था। इसलिये कम्युनिस्ट पार्टी ने भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया और मजदूरों से अपील की कि वे हड़तालों आदि में भाग न लें तथा युद्धोपयोगी सामग्री के उत्पादन में कमी न आने दें। बिटिश सरकार की स्थिति को मजबूत बनाने की दृष्टि से कम्युनिस्टों ने कालाबाजारी, सूदखोरी, जमाखोरी एवं भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन चलाये। पार्टी ने युद्धकाल में अपने विचारों का प्रचार करने के लिए पीपल्स वार शीर्षक से एक पत्रिका भी आरम्भ की। इस अवधि में कम्युनिस्टों को भारत में अपना प्रभाव बढ़ाने का अवसर प्राप्त हुआ जिसका उन्होंने पूरा-पूरा लाभ उठाया। कम्युनिस्टों द्वारा भारत छोड़ो आन्दोलन का विरोध किये जाने के कारण, कांग्रेसी नेता कम्युनिस्ट पार्टी से नाराज हो गये और दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद कांग्रेस ने कम्युनिस्टों को कांग्रंेस के समस्त निर्वाचित पदों से हटा दिया। इस प्रकार कम्युनिस्ट पूरी तरह से कांग्रेस से अलग हो गये।
युद्ध के बाद की घटनाएँ
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद 1945-46 ई. में भारत सरकार ने दिल्ली के लाल किले में आजाद हिन्द फौज के अधिकारियों के विरुद्ध मुकदमा चलाया। पूरे देश में सरकार के इस कृत्य का विरोध हुआ और आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों की रिहाई की मांग हुई। कम्युनिस्ट पार्टी ने भी बन्दियों की रिहाई के समर्थन में प्रदर्शन किये। 20 जनवरी 1946 को कराची के वायु सैनिकों ने आजाद हिंद फौज के सिपाहियों के समर्थन में हड़तील की। फरवरी 1946 में बम्बई के बन्दरगाह पर खड़े तलवार जहाज के नाविकों ने विद्रोह किया जो कराची बन्दरगाह में भी फैल गया। कम्युनिस्टों ने विद्रोही नौ-सैनिकों के पक्ष में हड़ताल तथा प्रदर्शन का आयोजन किया। सरकार ने आंदोलनकारियों के विरुद्ध हिंसा का सहारा लिया। तीन दिन चले इस आन्दोलन में 250 लोग मारे गये। नौ-सैनिक विद्रोह का भारत सरकार एवं ब्रिटिश साम्राज्यवादियों पर दूरगामी प्रभाव पड़ा। सशस्त्र सेना द्वारा जनता के पक्ष में आ जाने से भारत सरकार में घबराहट चरम पर पहुँच गई। इस अवधि में देशी रियासतों में भी जन-आन्दोलनों का दबाव बढ़ने लगा। जनता, देशी राजाओं से उत्तरदायी शासन की स्थापना करने की मांग करने लगी। कम्युनिस्ट पार्टी ने रियासती जन-आन्दोलनों को पूरा समर्थन दिया और ट्रावनकोर के महाराजा के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष में भाग लिया जिसमें 400 कम्युनिस्टों की जान चली गई। उड़ीसा और पंजाब की रियासतों में भी इसी तरह के संघर्ष हुए। उन संघर्षों में भी कम्युनिस्टों ने भाग लिया। हैदराबाद रियासत के निरंकुश शासन के विरुद्ध, तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष चला जिसमें कम्युनिस्टों ने मुख्य भूमिका निभाई। इस आन्दोलन में लगभग 4000 कम्युनिस्ट मारे गये।
मार्च 1946 में नियंत्रित मताधिकार के आधार पर विधान मण्डलों के चुनाव सम्पन्न हुए। कम्युनिस्ट पार्टी ने भी चुनावों में भाग लिया परन्तु उसे केवल 9 स्थान मिले। इन चुनावों में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने पहली बार अपने बल पर, अपने झण्डे के नीचे, चुनाव लड़े।
इस प्रकार भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने राष्ट्रीय आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा पार्टी ने भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ आर्थिक स्वतंत्रता का नारा दिया। किसानों एवं मजदूरों में राजनीतिक चेतना उत्पन्न करके उन्हें संगठित किया तथा अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा एवं शक्ति दी।