Sunday, December 22, 2024
spot_img

राजा अज

राजा अज ने जंगल में लकड़ियां काटकर गुरु दक्षिणा चुकाई!

अज का अर्थ होता है जिसका जन्म नहीं हुआ हो। इसीलिए प्रजापति ब्रह्मा को अज कहा जाता है। पौराणिक काल में अज नामक कई राजा हुए हैं। इनमें सर्वाधिक विख्यात ईक्ष्वाकु वंश का राजा अज था। वह महाराज रघु का पुत्र था।

विष्णु पुराण सहित अनेक पुराणों में महाराज अज की कथा मिलती है। बहुत से पुराणों में राजा अज के विवाह की घटना का उल्लेख मिलता है। इस उल्लेख के अनुसार एक बार किसी देश के राजा भोजराज ने अपनी राजकुमारी इंदुमती के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन किया। जब राजकुमार अज को इस स्वयंवर की सूचना मिली तो वे भी अपने पिता की आज्ञा से इस स्वयंवर में भाग लेने के लिए राजा भोजराज की राजधानी में गए।

राजकुमार अज ने स्वयंवर में राजकुमारी इंदुमति को जीत लिया एवं इंदुमति ने प्रसन्नता पूर्वक राजा अज का वरण किया। राजकुमार अज अपनी रानी को लेकर अपने पिता की राजधानी अयोध्या लौट आए। जब महाराज रघु ने देखा कि उनका पुत्र वयस्क हो गया है एवं उसका विवाह भी हो गया है तब महाराज रघु ने वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करने का निश्चय किया।

सूर्यवंशी इक्ष्वाकुओं में यह परम्परा थी कि वे अपने जीवन का तीसरा काल आरम्भ होने  पर अर्थात् प्रौढ़ावस्था आने पर अपना राजपाट अपने पुत्र अथवा योग्य उत्तराधिकारी को सौंपकर स्वयं रानी सहित वनप्रांतर में चले जाते थे और वहीं पर ईश आराधना एवं आध्यात्मिक चिंतन करते थे।

जब वनवासी राजा वृद्ध होते थे तो वे सन्यास आश्रम में प्रवेश करके पुनः मानव समाज में लौटते थे और अपने द्वारा वानप्रस्थ आश्रम के दौरान अर्जित ज्ञान को जन साधारण में बांट देते थे और देशाटन करते हुए ब्रह्मलीन होते थे।

महाराज रघु ने भी प्रौढ़ावस्था आने पर अपना राज्यपाट अपने पुत्र अज को सौंप दिया तथा स्वयं रानी सहित वन में चले गए। पुराने राजा के वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करने के पश्चात् कुलगुरु महार्षि वसिष्ठ ने रघुवंशी राजकुमार अज का राज्यभिषेक किया। अज से ही ईक्ष्वाकुओं को रघुवंशी कहे जाने की परम्परा आरम्भ हुई। महाराज अज ने अपने पूर्वजों की परम्परा के अनुसार राज्य का धर्म पूर्वक पालन किया।

पूरे आलेख के लिए देखिए यह वी-ब्लॉग-

एक बार राजा अज ने गुरु वसिष्ठ को अपने महल में आमंत्रित किया तथा उनसे एक यज्ञ सम्पन्न करवाया। यज्ञ पूर्ण होने के बाद राजा अज ने गुरु से प्रार्थना की कि वे यज्ञ की दक्षिणा मांगें।

गुरु वसिष्ठ ने कहा- ‘हम दक्षिणा अवश्य लेंगे किंतु महाराज अज! आप हमें दक्षिणा में क्या देना चाहते हैं!’

राजा अज ने कहा- ‘महाराज! कौशल राज्य सामर्थ्यवान एवं सम्पन्न राज्य है, अपने कुलगुरु की प्रत्येक इच्छा पूरी कर सकता है, आप स्वयं ही अपनी इच्छा बताएं।’

इस पर गुरु वसिष्ठ ने कहा- ‘महाराज! राज्य की सम्पत्ति प्रजा द्वारा चुकाए गए कर से उत्पन्न होती है। इस सम्पत्ति में से राजा को अपनी निजी आवश्यकताएं पूरी करने का पूरा अधिकार होता है। इस नाते आप हमें राज्यकोष में से जो चाहे दे सकते हैं किंतु महाराज इस बार हम आपकी प्रजा द्वारा चुकाए गए कर से दक्षिणा नहीं लेंगे। हमारी इच्छा है कि आप अपने परिश्रम से एक दिन में जो धन अर्जित करें, वह सम्पूर्ण धन हमें गुरु दक्षिणा के रूप में प्रदान करें।’

TO PURCHASE THIS BOOK, PLEASE CLICK THIS PHOTO

राजा अज ने सोचा कि मैं तो अत्यंत सामर्थ्यवान राजा हूँ, अतः एक दिन में अधिक से अधिक धन अर्जित कर लूंगा ताकि गुरु वसिष्ठ उस धन से संतुष्ट हो जाएं। इसलिए राजा अज ने महर्षि की इस इच्छा को स्वीकार कर लिया तथा महर्षि से एक दिन की प्रतीक्षा करने को कहा। महर्षि वसिष्ठ तो राजा के महल में ठहर गए और राजा अज उसी समय अपना महल एवं राज्य छोड़कर निकटवर्ती राज्य में चले गए।

राजा अज अपने ही राज्य में परिश्रम करके धन अर्जित नहीं कर सकते थे। क्योंकि वे जिसके पास भी काम मांगने जाते तो वह राजा पर अनुग्रह करके उन्हें अधिक से अधिक राशि देने का प्रयास करता जो कि राजा के परिश्रम से धर्म-पूर्वक अर्जित की गई राशि नहीं होती। इसलिए राजा अज अपने राज्य से बाहर निकल गए और साधारण श्रमिक का वेश बनाकर निकटवर्ती राज्य में पहुंचे। महाराज अज ने उस नगर के बड़े-बड़े श्रेष्ठियों के पास जाकर उनसे एक दिन के लिए काम देने की प्रार्थना की किंतु इस अपरिचित नगर में उन्हें किसी ने कोई काम नहीं दिया। इस पर राजा अज निकटवर्ती वन में चले गए और दिन भर सूखे वृक्ष काटकर उनकी लकड़ियां एकत्रित करते रहे।

संध्याकाल में राजा ने वे लकड़ियां वन के निकट स्थित नगर में लाकर बेच दीं। एक श्रेष्ठि ने उस समस्त सूखी लकड़ियों के लिए राजा अज को केवल एक साधारण मुद्रा प्रदान की। राजा अपने पूरे दिन के गहन परिश्रम का इतना तुच्छ पारिश्रमिक देखकर बहुत निराश हुए। फिर भी गुरु को दिए वचन के अनुसार राजा अज एक साधारण मुद्रा लेकर अपनी राजधानी अयोध्या पहुंचे और उन्होंने अत्यंत कष्ट के साथ वह मुद्रा गुरु के चरणों में रख दी।

महर्षि वसिष्ठ ने अपने चरणों में रखी हुई एक साधारण मुद्रा एवं राजा के म्लान मुख को देखा तो सारी स्थिति समझ गए। उन्होंने मुद्रा लेकर अपने कमण्डल में रखते हुए कहा- ‘राजन! यह धन आपने अपने परिश्रम से अर्जित किया है। आज से पहले किसी भी राजा ने अपने कुलपुरोहित को स्वयं द्वारा अर्जित धन दक्षिणा में नहीं दिया होगा। इस दक्षिणा को पाकर मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ।’

यह कथा यहीं समाप्त होती है तथा देखने में अत्यंत साधारण प्रतीत होती है किंतु वस्तुतः इस कथा के माध्यम से हमारे ऋषियों ने समस्त भारतवासियों को अपने परिश्रम से धन अर्जित करने एवं उस धन से अपने परिवार का पालन करने का उपदेश दिया है।

इस घटना के कुछ दिन बाद राजा अज रानी इन्दुमती के साथ उद्यान में घूम रहे थे। तभी आकाश मार्ग से जा रहे देवर्षि नारद की वीणा से लिपटी हुई देवलोक की एक पुष्पमाला गिर पड़ी और नीचे धरती पर आकर रानी इन्दुमती के कण्ठ में जा पड़ी। इस माला के प्रहार से रानी इन्दुमती की उसी क्षण मृत्यु हो गई।

महाराज अज को रानी की मृत्यु से अत्यंत शोक हुआ। तभी देवर्षि नारद वहाँ प्रकट हुए। उन्होंने राजा को बताया कि रानी इन्दुमति का धरती पर इतना ही जीवन था। उन्हें पुनः स्वर्ग में बुला लिया गया है। राजा अज को देवर्षि नारद की यह बात सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ। इस पर देवर्षि नारद ने राजा अज को रानी इन्दुमती के पूर्व जन्म की कथ सुनाई।

देवर्षि ने कहा- ‘एक बार देवराज इन्द्र ने तृणविन्दु नामक ऋषि की तपस्या भंग करने के लिए हरिणी नामक एक अप्सरा को भेजा था। इस पर ऋषि ने हरिणी को मानवी के रूप में जन्म लेने का शाप दे दिया। हरिणी के अनुरोध करने पर ऋषि तृणविंदु ने उसे शाप से छूटने का उपाय भी बता दिया तथा कहा कि जब देवर्षि नारद की वीणा पर लिपटी हुई माला तेरे गले में गिरेगी तब तुझे मानवी रूप से मुक्ति मिलेगी। आज संयोगवश मेरे आकाश गमन के समय मेरी वीणा से लिपटी हुई पुष्पमाला गिर पड़ी और हरिणी शाप मुक्त होकर पुनः स्वर्ग में जा पहुंची। इसलिए अज को रानी इन्दुमति की मृत्यु का शोक नहीं करना चाहिए।’

देवर्षि नारद की बात सुनकर अज ने धैर्य धारण किया। उस समय राजकुमार दशरथ छोटे बालक थे। अतः राजा अज ने अपने पुत्र का बहुत ध्यान से लालन-पालन किया तथा उन्हें समुचित शिक्षा दिलवाई। इस प्रकार पत्नी के वियोग में राजा के आठ वर्ष बीत गए। राजा अज ने देखा कि राजकुमार दशरथ सब प्रकार से प्रजा का पालन करने योग्य हो गए हैं तो राजा ने अपना राजपाट दशरथ को दे दिया और स्वयं तपस्या करते हुए पंचत्त्व में विलीन हो गए।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source