विभिन्न पुराणों से लेकर वाल्मीकि रामायण एवं महाभारत में ईक्ष्वाकु वंशी राजा भगीरथ का उल्लेख बहुत आदर के साथ हुआ है। हम पिछली कड़ियों में चर्चा कर चुके हैं कि राजा सगर के पौत्र का नाम अंशुमान था। अंशुमान का पुत्र दिलीप हुआ। ईक्ष्वाकु वंश में त्रेता युग में दिलीप नामक दो राजा हुए हैं। प्रथम दिलीप, राजा अशंुमान का पुत्र था एवं राजा भगीरथ का पिता था और दूसरा दिलीप राजा खटवांग का पुत्र था और राजा रघु का पिता था।
जब भगवान श्री हरि विष्णु ने कपिल मुनि के रूप में प्रकट होकर राजा सगर के साठ हजार पुत्रों को भस्म कर दिया तब राजा अंशुमान ने अपने पितृव्यों के तर्पण के लिए गंगाजल प्राप्ति हेतु घनघोर तपस्या की किंतु वह गंगाजी को पृथ्वी पर नहीं ला पाया।
तदनंतर उसके पुत्र दिलीप ने भी घनघोर तपस्या की किंतु वह भी भगवती गंगा को धरती पर नहीं ला सका। राजा दिलीप के बाद उसका पुत्र भगीरथ अयोध्या का राजा हुआ। राजा भगीरथ ने भी भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए घनघोर तपस्या की।
बहुत से पुराणों के अनुसार राजा भगीरथ पुत्रहीन थे। इसलिए उन्होंने राज्यभार अपने मन्त्रियों को सौंपा और स्वयं गोकर्ण तीर्थ में जाकर घोर तपस्या करने लगे। पितामह ब्रह्मा के प्रसन्न होने पर उन्होंने दो वरदान माँगे, एक तो यह कि राजा भगीरथ अपने पितरों का गंगा जल से तर्पण करके उन्हें स्वर्ग पहुंचाएं और दूसरा यह कि राजा भगीरथ की कुल परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए एक पुत्र प्राप्त हो।
पितामह ब्रह्मा ने राजा भगीरथ को दोनों वरदान दिये तथा यह भी कहा कि स्वर्ग में बहने वाली गंगा नदी का वेग इतना अधिक है कि यह पृथ्वी उसे संभाल नहीं सकती। इसलिए तुम्हें भगवान शंकर को प्रसन्न करके उनकी कृपा प्राप्त करनी होगी।
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ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त करने के पश्चात् राजा भगीरथ ने भगवान शंकर को प्रसन्न करने का निश्चय किया तथा एक वर्ष तक अपने पैरों के अंगूठों पर खड़े होकर घनघोर तपस्या की। भगवान शंकर ने भगीरथ से कहा कि धरती के प्राणियों के पाप-ताप तथा शाप हरने के लिए गंगाजी का धरती पर अवतरित होना आवश्यक है। मैं इस कार्य में तुम्हारी सहायता करूंगा तथा गंगाजी के स्वर्ग से धरती पर अवतरित होने से पहले मैं उसे अपने शीश पर धारण करूंगा ताकि गंगजाजी का वेग कम हो सके।
जब देवी गंगा स्वर्ग से धरती पर गिरने लगीं तो उनका वेग अत्यंत प्रबल था। निश्चय ही यदि गंगाजी सीधे ही धरती पर गिरतीं तो धरती अपने स्थान पर स्थिर नहीं रह सकती थी। अतः भगवान शंकर ने स्वर्ग से आती हुई गंगाजी को अत्यंत प्रसन्नता के साथ अपने मस्तक पर धारण कर लिया। तब से गंगाजी का नाम जटाशंकरी हो गया। वे भगवान शिव की जटाओं में ऐसे समा गईं कि उन्हें जटाओं से निकलने का मार्ग ही नहीं मिला।
इस पर राजा भगीरथ ने फिर से भगवान शंकर की तपस्या की। भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर गंगाजी को अपनी जटाओं से मुक्त किया। शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव ने राजा भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर अपनी जटाओं को निचोड़ा जिससे तीन बूंद जल प्रकट हुआ। एक बूंद जल की पुनीत धारा बनकर पाताल की ओर चली गयी, दूसरी बूंद आकाशगंगा बनकर आकाश की ओर तथा तीसरी बूंद जल की धारा के रूप में राजा भगीरथ के पीछे-पीछे चली।
कुछ पुराणों के अनुसार शिव की जटाओं से निकली गंगाजी सात धाराओं के रूप में प्रवाहित हुईं। इनमें से तीन धाराएं ह्लादिनी, पावनी और नलिनी पूर्व दिशा की ओर बढ़ीं। गंगाजी की अन्य तीन धाराएं सुचक्षु, सीता और सिंधु पश्चिम दिशा की ओर बढ़ीं और सातवीं धारा ‘भागीरथी’ राजा भगीरथ की अनुगामिनी हुई। राजा भगीरथ गंगाजी में स्नान करके पवित्र हुए और अपने दिव्य रथ पर चढ़कर हिमालय से समुद्र की ओर चल दिए।
गंगा मैया उनके पीछे-पीछे चलीं। कुछ पुराणों के अनुसार इस मार्ग में जह्नु मुनि की यज्ञशाला थी जो गंगाजी के प्रवाह में बह गई। इस पर मुनि ने क्रुद्ध होकर गंगाजी को पी लिया। गंगाजी के इस प्रकार लुप्त हो जाने पर समस्त देवता चिंतित हुए और उन्होंने जह्नु मुनि का पूजन करके उन्हें प्रसन्न किया तथा उनसे कहा कि गंगाजी आपकी पुत्री हैं, कृपया उन्हें मुक्त करें। इस पर जह्न ऋषि ने गंगाजी को अपने कानों के मार्ग से बाहर निकाला। तभी से गंगाजी जह्नुसुता एवं जाह्नवी कहलाने लगीं।
राजा भगीरथ पुनः अपने दिव्य रथ पर सवार होकर समुद्र की ओर चल दिए तथा गंगाजी राजा भगीरथ के पीछे-पीछे चलती हुईं समुद्र तक पहुँच गयीं। यहाँ से राजा भगीरथ गंगाजी को रसातल में ले गए तथा अपने पितरों की भस्म को गंगाजल से सिंचित करके उन्हें मुक्ति दिलवाई।
राजा भगरीथ के दृढ़ संकल्प को देखकर पितामह ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर कहा- ‘हे भगीरथ, जब तक समुद्र रहेगा, तुम्हारे पितर देवता के समान पूज्य माने जायेंगे तथा गंगा तुम्हारी पुत्री कहलाकर भागीरथी के नाम से विख्यात होगी। तीन धाराओं में प्रवाहित होने के कारण गंगा आज से त्रिपथगा कहलाएगी।’
गंगा-अवतरण के सम्बन्ध में पुराणों में मिलने वाली कथाओं तथा महाभारत में मिलने वाली कथा में थोड़ा अंतर है। महर्षि वेदव्यास ने महाभारत के वनपर्व में तीर्थयात्रा पर्व का सुंदर वर्णन किया है इसी वर्णन में राजा भगीरथ की तपस्या का वर्णन हुआ है। महर्षि वैशम्पायन ने राजा जनमेजय को भगीरथ की तपस्या का बहुत सुंदर वर्णन सुनाया था। इस वर्णन के अनुसार राजा भगरीथ ने गंगाजी को प्रसन्न करने के लिए हजारों वर्षों तक हिमालय पर्वत पर घनघोर तपस्या की।
एक हजार दिव्य वर्ष बीत जाने पर स्वयं गंगाजी ने साकार होकर राजा भगीरथ को दर्शन दिए तथा उनसे पूछा- ‘महाराज आप मुझसे क्या चाहते हैं।’
राजा भगीरथ ने हाथ जोड़कर कहा- ‘वरदायिनी महानदी! मेरे साठ हजार पितृव्यों की मुक्ति के लिए आप धरती पर चलें। मैं उनके उद्धार के लिये आपसे याचना करता हूँ।’
राजा भगीरथ की यह बात सुनकर विश्वन्दिता गंगाजी अत्यन्त प्रसन्न हुईं और उन्होंने कहा- ‘महाराज! मैं आपकी प्रार्थना स्वीकार करती हूँ किंतु आकाश से पृथ्वी पर गिरते समय मेरे वेग को रोकना बहुत कठिन है। महेश्वर नीलकण्ठ को छोड़कर तीनों लोकों मे कोई भी मेरा वेग धारण नही कर सकता। अतः हे महाबाहो! तुम तपस्या द्वारा उन्हीं वरदायक भगवान शिव को प्रसन्न करो। स्वर्ग से गिरते समय वे ही मुझे अपने मस्तक पर धारण करेंगे। विश्वभावन भगवान शंकर आपके पितरों के हित की इच्छा से आपका मनोरथ अवश्य पूर्ण करेंगे।’
महाभारत की कथा के अनुसार जब गंगा भगवान शिव की जटाओं में होती हुई पृथ्वी पर अवतरित हुई तब वह राजा भगीरथ का अनुसरण करते हुए सूखे हुए समुद्र तक पहुँची, जिसका जल अगस्त्य मुनि ने पी लिया था। समुद्र को भरने के पश्चात् गंगाजी ने पाताल में स्थित सगर के साठ हजार पुत्रों का उद्धार किया। पहले स्वर्ग, फिर पृथ्वी एवं अंत में पाताल में बहने के कारण गंगाजी ‘त्रिपथगा’ कहलाईं। यहाँ स्वर्ग से आशय हिमालय पर्वत के किसी क्षेत्र से, पृथ्वी का आशय भारत भूमि के मैदानी क्षेत्रों से तथा पाताल का आशय दक्षिण-पूर्व एशियाई द्वीपों अर्थात् इण्डोनेशिया, कम्बोडिया, मलेशिया, वियतनाम एवं ऑस्ट्रेलिया आदि द्वीपों से लिया जाना चाहिए।
गंगाजी के धरती पर आने के उपलक्ष्य में राजा भगीरथ ने सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया। उनके द्वारा किए गए महान् यज्ञ में देवराज इन्द्र सोमपान करके मदमत्त हो गया। यज्ञ के अंत में राजा भगीरथ ने गंगाजी के किनारे दो स्वर्ण घाट बनवाए तथा रथ में बैठी अनेक सुन्दर कन्याएँ धन-धान्य सहित, ब्राह्मणों को दान स्वरूप प्रदान कीं।
पुराणों में उल्लेख है कि भगीरथ के संकल्प कालिक जलप्रवाह से आक्रांत होकर गंगा राजा भगीरथ की गोद में जा बैठी। इस प्रकार वह भगीरथ की पुत्री होकर भागीरथी कहलाई और राजा की जंघा अर्थात् उरु पर बैठने के कारण ‘उर्वशी’ के नाम से विख्यात हुई। पुराणों के अनुसार पृथ्वी-वासियों के पाप धोने के लिए देवनदी गंगा को धरती पर लाने के पश्चात् राजा भगीरथ ने दीर्घकाल तक अयोध्या में राज्य किया तथा प्रजा को सुखी बनाया। महर्षि वाल्मीकि ने गंगा-अवतरण का बहुत संुदर वर्णन किया है। प्रत्येक भारतवासी चिरकाल तक राजा भगीरथ का ऋणी रहेगा जिन्होंने गंगाजी को स्वर्ग से धरती पर उतारकर भारत को सचमुच भारत बना दिया।
यदि इस प्रसंग को प्राकृतिक घटनाओं के आधार पर देखा जाए तो गंगा-अवतरण की घटना एक महत्वपूर्ण भौगोलिक घटना है। इस घटना का मानवीकरण करके राजा सगर के साठ हजार पुत्रों के उद्धार का कथानक रचा गया है। गंगा अवतरण की घटना होने से पहले, समुद्रों का जल हिमकाल के कारण हिमालय पर्वत पर जमा हो गया था जिसके कारण समुद्र खाली हो गए थे। इस सम्बन्ध में यह रूपक गढ़ा गया कि अगस्त्य ऋषि ने समुद्रों का जल पीकर उन्हें खाली कर दिया था। वस्तुतः अगस्त्य किसी बादल का नाम था जिसने समुद्रों का जल अपने भीतर खींच लिया था। इस प्रकार खाली हुए समुद्र के बीच जो हजारों द्वीप उभर आए होंगे उन्हें ही राजा सगर के साठ हजार पुत्रों के नाम से पुकारा गया होगा। जब हिमकाल बीत गया तब हिमालय की बर्फ पिघलने से सात नदियां ह्लादिनी, पावनी, नलिनी, सुचक्षु, सीता, सिंधु और भागीरथी एक साथ धरती की ओर प्रवाहित हुईं तथा इस जल से समुद्र भर गया। गंगा-अवतरण के कथानक में वर्णन आया है कि राजा भगीरथ द्वारा किए गए यज्ञ में इन्द्र सोमपान करके मदमत्त हो गया। इस वाक्य का आशय इस घटना से लगता है कि हिमयुग बीत जाने के बाद जब हिमालय का जल नदियों के माध्यम से समुद्र में भर गया तब धरती पर फिर से वर्षा होने लगी। वेदों, उपनिषदों एवं पुराणों में इन्द्र को वर्षा का देवता कहा गया है तथा उसके मदमत्त हो जाने का अर्थ अधिक वर्षा करने से लगाया जा सकता है क्योंकि समुद्रों में जल भर जाने से वाष्पन की क्रिया से समुद्र का जल बादलों में पहुंचने एवं उनका जल फिर से धरती पर बरसने की क्रिया तेज हो गई होगी।