जम्मू का राजा रामरूपराय औरंगजेब के लिए अपने पुत्रों सहित कट मरा। वह मुगलिया राजनीति की चौसर का ऐसा गुमनाम मोहरा है जिसे सर्वस्व लुटा देने पर भी इतिहास में कोई यश नहीं मिला।
दारा शिकोह की मोर्चाबंदी इतनी मजबूत थी कि दो दिन तक आग और बारूद बरसाने के बावजूद औरंगजेब की सेना दो कदम भी आगे नहीं बढ़ सकी थी। इसलिए औरंगजेब के सेनापति अब दूसरी तरह सोचने लगे थे। उनमें से बहुत से तो औरंगजेब के साथ केवल इसलिये हुए थे क्योंकि उन्हें विश्वास था कि युद्ध में जीत औरंगजेब की ही होगी।
उन्हें लगता था कि दारा दुर्भाग्यशाली है और वह कभी जीत नहीं सकता किंतु भीतर से वे दारा के सद्गुणों के प्रशसंक थे। अब जबकि दारा औरंगजेब पर भारी पड़ रहा था तो उन्हें भीतर ही भीतर पछतावा होने लगा था।
तीसरे दिन प्रातः औरंगजेब ने एक गंभीर प्रयास करने का निश्चय किया। उसने अपने सेनापतियों को एकत्रित किया, उन्हें जोशीला भाषण देकर उनमें नई ऊर्जा का संचार किया तथा उन्हें बिना कोई क्षण गंवाये सम्मिलित होकर लड़ने के लिये प्रेरित किया।
उसी समय जम्मू का राजा रामरूपराय ने औरंगजेब को सूचित किया कि उसके पहाड़ी लड़ाकों ने, तारागढ़ की पहाड़ी में एक गुप्त मार्ग ढूंढ निकाला है। इस मार्ग से वे दक्षिण-पश्चिम दिशा से घुसकर कोकला पहाड़ी पर ठीक दारा के पीछे पहुँच सकते हैं तथा इस प्रकार वे दारा के दाहिने पार्श्व को तोड़ सकते हैं।
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औरंगजेब ने बिना कोई समय गंवाये, शाही सेना के खास बंदूकची तथा पैदल सिपाही उस मार्ग से कोकला पहाड़ी के पीछे भेज दिये। जम्मू का राजा रामरूपराय दारा का ध्यान बंटाने के लिये कोकला पहाड़ी के सामने जा धमका। रामरूप राय का यह कदम औरंगजेब के लिये तो विजयकारी सिद्ध हुआ किंतु राजा रामरूप राय अपने पूरे सैनिक दल के साथ रणक्षेत्र में ही काट दिया गया। इस प्रकार एक और बड़ा हिन्दू राजा मुगलिया राजनीति की चौसर पर बलिदान हो गया।
जब तक दारा के सिपाहियों ने जम्मू का राजा रामरूपराय मारकर खत्म किया, तब तक औरंगजेब के खास बंदूकची तथा हजारों पैदल सिपाही कोकला पहाड़ी पर से नीचे उतरने लगे। अब दृश्य उलट चुका था। औरंगजेब के बंदूकची तथा पैदल सिपाही ऊँचाई पर थे जबकि दारा के सिपाही नीचे की ढलान पर थे। औरंगजेब के बंदूकचियों ने दारा के सिपाहियों को तड़ातड़ गोलियों की बरसात करके मार डाला। दारा के खेमे में अफरा-तफरी मच गई।
ठीक उसी समय दिलेर खाँ तथा शेख मीर ने सामने से दारा के खेमे पर धावा बोला। दिलेर खाँ चश्मे की दक्षिणी दिशा से तथा शेख मीर उत्तरी दिशा से आगे बढ़ा ताकि वे दारा की तोपों की मार से बच सकें। ठीक उसी समय बाईं ओर से महाराजा जयसिंह तथा अमीर-उल-उमरा तथा दाईं ओर से असद खाँ एवं होशाबाद धावा बोलने के लिये आगे बढ़े।
दिलेर खाँ तथा शेख मीर आगे बढ़ते हुए दारा की मोर्चाबंदी के सबसे कमजोर बिंदु पर पहुँच गये जहाँ औरंगजेब का श्वसुर शाहनवाज खाँ मोर्चा संभाले हुए था। इस बिंदु से झरने का एक रास्ता उन्हें दीवार के ऊपरी हिस्से तक ले गया। शाही सिपाही इंदरकोट की मजबूत दीवार पर चढ़ गये। शाहनवाज खाँ के सिपाही दारा के सिपाहियों को औरंगजेब तक पहुँचने से रोकने के लिये तोपों से गोले बरसाने लगे। दारा के आदमियों ने भी अपनी तोपों के मुंह उनकी तरफ मोड़ दिये। इस अस्तव्यस्त गोलाबारी के बीच शाहनवाज खाँ तोप के गोले से मारा गया और उसका पुत्र सयैद खाँ भी घायल हो गया।
शेख मीर औरंगजेब की ओर से लड़ रहा था। वह हाथी पर सवार होकर अपनी सेना का नेतृत्व कर रहा था। पहाड़ी के ऊपर से आए तोप के एक गोले से वह भी मारा गया। हाथी के हौदे में सवार महावत ने शेख मीर के मृत शरीर को हौदे में इस तरह बिठा दिया मानो वह जीवित हो। शेख मीर के मारे जाने की बात युद्ध की समाप्ति के बाद ही प्रकट हो सकी।
दारा अपने पुत्र सिपहर शिकोह के साथ एक ऊँचे स्थान पर खड़ा होकर युद्ध देख रहा था। उसने देखा कि उसके दाहिने पार्श्व पर दिलेर खाँ ने सफलता प्राप्त कर ली है और राजा जयसिंह भी आगे बढ़ रहा है। दारा को लगा कि युद्ध का परिणाम उसके विरुद्ध जा रहा है।
इस समय दारा की स्थिति नाजुक तो थी किंतु चिंताजनक नहीं थी। उसकी सेना का मध्य भाग तथा उत्तरी भाग अब भी पूरी तरह सुरक्षित था। उसके पास सात हजार सिपाही अब भी सुरक्षित खड़े थे। एक तीव्र प्रत्याक्रमण दिलेर खाँ को पीछे धकेल सकता था।
यहाँ तक कि मिर्जा राजा जयसिंह की आगे बढ़ने की गति इतनी धीमी थी कि वह आवश्यकता पड़ने पर दिलेर खाँ को सहायता नहीं पहुँचा सकता था किंतु युद्धों के अनुभव से शून्य दारा अपनी स्थिति का सही आकलन नहीं कर सका।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता