राजा नाभि के पश्चात् ईक्ष्वाकु वंश में राजा सिन्धुदीप तथा उसके बाद राजा अयुतायुष अयोध्या का राजा हुआ। राजा अयुतायुष के परलोक गमन के पश्चात् राजा ऋतुपर्ण अयोध्या का राजा हुआ। ऋतुपर्ण अयोध्या का पुराकालीन राजा माना जाता है।
वायु पुराण, ब्रह्म पुराण तथा हरिवंश पुराण इत्यादि पुराणों एवं महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत में ऋतुपर्ण को अयुतायुष का पुत्र बताया गया है। बौधायन श्रौत्रसूत्र के अनुसार ऋतुपर्ण भंगाश्विन का पुत्र तथा शफाल नामक राज्य का राजा था।
कुछ पुराणों के अनुसार ऋतुपर्ण के पिता का नाम सर्वकाम था। ऋतुपर्ण अश्वविद्या में अत्यंत निपुण था। निषध देश का राजा नल जुए में अपना राज्य हार जाने के उपंरात अपने अज्ञातवास के काल में इसी ईक्ष्वाकुवंशी राजन्ऋ तुपर्ण के पास ‘बाहुक’ नाम से सारथि के रूप में रहा था।
जब राजा नल की रानी दमयंती को अपने अनुचर पर्णाद के माध्यम से ज्ञात हुआ कि राजा नल सारथि के रूप में रह रहा है तो रानी दमयंती ने ऋतुपर्ण के पास संदेश भिजवाया कि मुझे अपने पति राजा नल का कुछ भी पता नहीं लग सका है। इसलिए मैं अपना दूसरा स्वयंवर कल सूर्याेदय के समय कर रही हूँ। अतः ऋतुपर्ण भी समय रहते विदर्भ राज्य की कुंडनिपुर पधारें। दमयंती का विचार था कि ऋतुपर्ण के साथ राजा नल भी अवश्य ही आएगा।
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ऋतुपर्ण ने अपने सारथि बने हुए राजा नल से कहा कि कल ही सूर्योदय के समय स्वयंवर है जबकि इतने कम समय में कुंडनिपुर पहुंचना संभव नहीं है। इस पर राजा नल ने अपनी अश्वविद्या के बल से ऋतुपर्ण को ठीक समय पर कुंडनिपुर पहुँचाने का आश्वासन दिया। सारथि बना हुआ राजा नल एवं सूतपुत्र वार्ष्णेय राजा के रथ पर सवार हो गए।
ऋतुपर्ण भी रथ पर बैठ गया। जैसे आकाशचारी पक्षी आकाश में उड़ते हैं, वैसे ही बाहुक का रथ थोड़े ही समय में नदी, पर्वत और वनों को लाँघने लगा। एक स्थान पर ऋतुपर्ण का उत्तरीय नीचे गिर गया। उन्होंने नल से कहा- ‘रथ रोको बाहुक! वार्ष्णेय मेरा उत्तरीय उठा लाएगा।’
बाहुक रूपी नल ने कहा- ‘महाराज! आपका वस्त्र गिरा तो अभी है परन्तु हम वहाँ से एक योजन आगे निकल आए हैं। अब वह नहीं उठाया जा सकता।’
जिस समय यह बात हो रही थी, उस समय रथ एक वन के ऊपर से निकल रहा था। ऋतुपर्ण ने कहा- ‘बाहुक तुमने मुझे अपनी अश्व-विद्या दिखाई, अब तुम मेरी गणित-विद्या देखो। सामने के वृक्ष में जितने पत्ते और फल दिख रहे हैं, उनकी अपेक्षा भूमि पर गिरे हुए फल और पत्ते एक-सौ-एक गुना अधिक हैं। इस वृक्ष की दोनों शाखाओं और टहनियों पर पाँच-करोड़ पत्ते हैं और दो हजार पिच्यानवे फल हैं। तुम्हारी इच्छा हो तो गिन लो।’
इस पर बाहुक अर्थात् राजा नल ने रथ वहीं आकाश में खड़ा कर दिया और कहा कि मैं इस बहेड़े के वृक्ष को काटकर इसके फलों और पत्तों को ठीक-ठीक गिनकर निश्चय करूँगा। जब बाहुक ने उन फलों और पत्तों को गिना तो वे उतने ही निकले जितने ऋतुपर्ण ने बताए थे। बाहुक बने राजा नल ने आश्चर्य चकित होकर कहा- ‘राजन्! आपकी विद्या अद्भुत है। आप अपनी विद्या मुझे सिखा दीजिये।’ इस पर राजा ऋतुपर्ण ने कहा- ‘गणित-विद्या की तरह मैं पासों की वशीकरण-विद्या में भी इतना ही निपुण हूँ।’
बाहुक ने कहा- ‘आप मुझे यह विद्या भी सिखा दें तो मैं आपको अपनी दिव्य अश्व विद्या सिखा दूंगा।’
ऋतुपर्ण को विदर्भ पहुँचने की जल्दी थी और अश्वविद्या सीखने का लोभ भी था। अतः उसने राजा नल को गणित और पासों की विद्याएं सिखा दीं तथा कहा- ‘मैं तुमसे अश्वविद्या बाद में सीखूंगा। वह तुम्हारे पास मेरी धरोहर है।’
महाभारत वन पर्व के नलोपाख्यान में राजा ऋतुपर्ण का उल्लेख हुआ है। महाभारत में आए प्रसंग के अनुसार बृहदश्व मुनि कहते हैं- ‘हे युधिष्ठिर! तदनन्तर संध्या होते-होते सत्य-पराक्रमी राजा ऋतुपर्ण सारथी बाहुक तथा सूतपुत्र वार्ष्णेय के साथ विदर्भ राज्य में जा पहुँचे। राजा के अनुचरों ने राजा भीष्मक को इस बात की सूचना दी।
राजा भीष्मक के अनुरोध पर ऋतुपर्ण ने अपने रथ की घर्घराहट द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए कुण्डिनपुर में प्रवेश किया। राजा नल के घोड़े वहीं रहते थे। वे रथ का घोष सुनकर अत्यंत प्रसन्न और उत्साहित हुए। उन्होंने अपने स्वामी के द्वारा संचालित हो रहे रथ की घर्घराहट को पहचान लिया।
रानी दमयन्ती ने भी नल के रथ की घर्घराहट सुनी, मानो वर्षाकाल में गरजते हुए मेघों का गम्भीर घोष हो रहा हो। इस महा-भयंकर रथनाद को सुनकर रानी दमयंती को अत्यंत विस्मय हुआ और उसने पहचान लिया कि रथ को राजा नल चला रहा है। इसलिए रानी दमयंती अपने स्वामी नल को देखने की इच्छा से ऊंचे महल की छत पर चढ़ गई। रानी ने राजा नल को देखते ही पहचान लिया।
महल के द्वार पर पहुंचकर रथ रुक गया। राजा नल तो रथ पर ही रहा और ऋतुपर्ण रथ से उतरकर दमयंती के पिता राजा भीष्मक से मिला। राजा भीष्मक ऋतुपर्ण को अपने महल में ले आया।
ऋतुपर्ण को वहाँ स्वयंवर जैसा कोई आयोजन दिखाई नहीं दिया। स्वयं राजा भीष्मक को भी ज्ञात नहीं था कि दमयंती ने झूठा संदेश भेजकर ऋतुपर्ण को बुलाया है। ऋतुपर्ण समझ गया कि उसे राजा भीष्मक ने वहाँ नहीं बुलाया है अपितु उसे बुलाए जाने के पीछे कोई और कारण है। इसलिए ऋतुपर्ण ने विदर्भराज से कहा- ‘राजन्! मैं आपका अभिवानदन करने के लिये आया हूँ।’
राजा भीष्मक ने विचार किया कि ऋतुपर्ण सौ योजन से भी अधिक दूरी से केवल मुझे प्रणाम करने नहीं आया है किंतु उसने ऋतुपर्ण के समक्ष ऐसा ही प्रकट किया जैसे ऋतुपर्ण का यूं चले आना सहज बात ही है और ऋतुपर्ण से कहा- ‘राजन्! आप बहुत थक गए होंगे, अतः विश्राम कीजिये।’
विदर्भ नरेश के द्वारा प्रसन्नता पर्वूक आदर-सत्कार पाकर ऋतुपर्ण को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने राजा भीष्मक के यहाँ विश्राम करना स्वीकार कर लिया। इसी बीच ऋतुपर्ण का सारथी बाहुक अपना रथ लेकर रथशाला में आ गया और रथ के घोड़ों को खोलकर सूतपुत्र वार्ष्णेय के साथ रथ के पिछले भाग में जा बैठा। इसी समय रानी दमयन्ती ने राजा नल का पता लगाने के लिये अपनी दूती को रथशाला में भेजा। दासी ने राजा नल को पहुचान लिया। इस पर राजा नल अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो गया।
राजा नल वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर अपनी रानी दमयन्ती एवं अपने श्वसुर राजा भीष्मक से मिला। राजा भीष्मक ने बड़ी प्रसन्नता के साथ नल का स्वागत किया। राजा नल के आगमन की प्रसन्नता में विदर्भ नगर में बड़ा आनंद हुआ।
जब ऋतुपर्ण ने सुना कि बाहुक के वेष में राजा नल उसकी सेवा कर रहा था तो ऋतुपर्ण को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने जाने-अनजाने में की गई अपनी गलतियों के लिए राजा नल से क्षमा याचना की। नल ने भी अनेक युक्तियों द्वारा ऋतुपर्ण की प्रशंसा करते हुए उनका धन्यवाद ज्ञापित किया।
नल ने ऋतुपर्ण से कहा- ‘आपका अश्वविज्ञान मेरे पास धरोहर के रूप में पड़ा है। राजन्! यदि आप उचित समझें तो मैं उसे आप को देने की इच्छा रखता हूँ।’ ऐसा कहकर निषधराज नल ने ऋतुपर्ण को अश्वविद्या प्रदान की। ऋतुपर्ण ने भी राजा नल से शास्त्रीय विधि के अनुसार अश्वविद्या ग्रहण की तथा अश्वों के रहस्य को समझा।
इसके बाद ऋतुपर्ण ने नल को द्यूतविद्या का रहस्य बताया और सूतपुत्र वार्ष्णेय को अपना सारथि बनाकर पुनः अयोध्या चले गए। ऋतुपर्ण के चले जाने पर राजा नल कुछ समय तक कुण्डिनपुर में रहे और रानी दमयंती को लेकर अपने राज्य ‘निषध’ चले गए।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता