अत्रि के वंशजों में हम राजा भरत तक के कुछ विख्यात राजाओं की कथाओं की चर्चा कर चुके हैं। राजा भरत के चैथे वंशज राजा हस्ती हुए जिन्होंने गंगा-यमुना के बीच में हस्तिनापुर नामक नगरी की स्थापना की तथा उसे अपनी राजधानी बनाया। हस्ती के तीसरे वंशज का नाम संवरण था।
यद्यपि अलग-अलग पुराणों में चंद्रवंशी राजाओं की वंशावली में अंतर मिलता है तथापि कुछ पुराणों के अनुसार संवरण चंद्रवंशी रजााओं की श्ृंखला में इकत्तीसवें राजा थे। वे भी अपने पूर्वजों की तरह प्रतापी राजा हुए।
एक दिन संवरण हाथ में धनुष-बाण लेकर हिमपर्वत पर आखेट करने गया। वहाँ राजा को एक अत्यंत सुंदर युवती दिखाई दी। वह युवती इतनी सुंदर थी कि राजा संवरण अपनी सुधि भुलाकर उस पर आसक्त हो गया।
राजा ने अपने तीर तरकष में रख लिए और उस युवती के निकट जाकर बोला- ‘हे तन्वंगी, तुम कौन हो? तुम देवी हो, गंधर्वी हो या किन्नरी हो? तुम्हें देखकर मेरा चित्त चंचल और व्याकुल हो उठा है। क्या तुम मेरे साथ गंधर्व विवाह करोगी … मैं हस्तिनापुर का सम्राट हूँ। मैं तुम्हें हर तरह से सुखी रखूंगा।’
युवती ने एक क्षण संवरण को देखा और अदृश्य हो गई। युवती के अदृश्य हो जाने पर राजा संवरण अत्यधिक व्याकुल हो गया। वह धनुष-बाण फेंककर उन्मत्तों की भांति विलाप करने लगा। कुछ समय पश्चात् वह युवती पुनः प्रकट हुई।
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युवती ने कहा- ‘राजन्! मैं सूर्यदेव की छोटी पुत्री ताप्ती हूँ। मैं स्वयं भी आप पर मुग्ध हूँ किंतु मैं अपने पिता की आज्ञा के वश में हूँ। जब तक मेरे पिता आज्ञा नहीं देंगे, मैं आपके साथ विवाह नहीं कर सकती। यदि आपको मुझे पाना है तो मेरे पिता को प्रसन्न कीजिए।’
इतना कहकर युवती पुनः अदृश्य हो गई। युवती को अपने सामने न देखकर राजा संवरण बेसुध होकर धरती पर गिर पड़ा। कुछ समय पश्चात् सुधि आने पर राजा संवरण सूर्यपुत्री ताप्ती के द्वारा कही गई बातों पर विचार करने लगा। उसने उसी समय सूर्यदेव की आराधना करनी आरम्भ कर दी। राजा संवरण की कई वर्षों की तपस्या के बाद सूर्यदेव ने संवरण की परीक्षा लेने का निश्चय किया।
एक रात जब संवरण आंखें बंद करके सूर्य भगवान के ध्यान में बैठा था। तब उसे आकाशवाणी सुनाई दी- ‘संवरण! तू यहाँ तप में संलग्न है और वहाँ तेरी राजधानी आग में जल रही है।’
राजा संवरण भगवान् सूर्यदेव के ध्यान में बैठा रहा। कुछ देर बाद उसके कानों में पुनः आवाज सुनाई पड़ी- ‘संवरण, तेरे कुटुंब के सभी लोग आग में जलकर मर गए।’
राजा संवरण इस पर भी अपने स्थान पर बैठा भगवान सूर्य देव का ध्यान करता रहा। कुछ देर पश्चात् उसके कानों में तीसरी बार आवाज आई- ‘संवरण, तेरी प्रजा अकाल की आग में जलकर भस्म हो रही है। तेरे नाम को सुनकर लोग थू-थू कर रहे हैं।’
राजा संवरण फिर भी दृढ़तापूर्वक तप में लगा रहा। सूर्यदेव राजा संवरण की दृढ़निष्ठा से प्रसन्न हुए और उन्होंने संवरण के समक्ष प्रकट होकर कहा- ‘संवरण, मैं तुम्हारी दृढ़ता पर मुग्ध हूँ। बोलो, तुम्हें क्या चाहिए?’
संवरण ने आंखें खोलकर सूर्यदेव को प्रणाम किया तथा बोला- ‘देव! मुझे आपकी पुत्री ताप्ती पत्नी के रूप में चाहिए!’
राजा की प्रार्थना सुनकर सूर्यदेव ने कहा- ‘तथास्तु।’ अर्थात् ऐसा ही हो!
संवरण की इच्छानुसार सूर्यदेव ने अपनी पुत्री ताप्ती का विवाह संवरण के साथ कर दिया। संवरण हिमपर्वत पर ही ताप्ती के साथ रमण करने लगा तथा अपनी प्रजा और राज्य को भूल गया। उधर संवरण के राज्य में भीषण अकाल पड़ा और जैसा-जैसा सूर्यदेव ने कहा था, वैसा-वैसा होने लगा। संवरण के मंत्री ने अपने राजा की खोज की और शीघ्र ही उसे खोज निकाला। मंत्री ने राजा को बताया कि राज्य में अकाल पड़ गया है तथा संपूर्ण प्रजा का विनाश हो रहा है।
मंत्री की बातें सुनकर संवरण का हृदय कांप गया और उसे इस बात की ग्लानि हुई कि मैंने एक स्त्री के प्रति आसक्त होकर अपनी प्रजा और राज्य को छोड़ दिया। राजा संवरण तुरंत अपने मंत्री तथा अपनी पत्नी ताप्ती के साथ अपने राज्य में पहुंचा। उसके राजधानी में पहुंचते ही राज्य में वर्षा आरम्भ हो गई। सूखी हुई पृथ्वी हरियाली से ढंक गई और अकाल दूर हो गया। प्रजा सुख और शांति के साथ जीवन व्यतीत करने लगी। वह संवरण को परमात्मा और ताप्ती को देवी मानकर दोनों की पूजा करने लगी।
जब हम इस पौराणिक कथा पर विचार करते हैं तो सहज ही अनुमान लगा लेते हैं कि यहाँ भी कुछ प्राकृतिक घटनाओं का मानवीकरण करके उसे चंद्रवंशी राजाओं के साथ जोड़ दिया गया है। वस्तुतः सूर्य की तपस्या करने वाला राजा संवरण एक बादल है। भगवान सूर्य बादलों को गति प्रदान करके आकाश में ऊंचा उठाते हैं, रानी ताप्ती वस्तुतः वह जलराशि है जो बादलों को तृप्त करती है। अंत में संवरण रूपी बादल धरती पर बरसात करके प्रजा को सुखी करता है।
पुराणों में आए उल्लेख के अनुसार संवरण और ताप्ती से कुरु नामक पुत्र का जन्म हुआ जो संवरण के बाद हस्तिनापुर का राजा हुआ। कुरु भी अपने पूर्वजों की तरह प्रतापी राजा था इसलिए उसके बाद से इस वंश को कुरुवंश कहा जाने लगा तथा कुरुवंश के राजाओं को कौरव कहा जाने लगा।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता