राजा शिबि ने अपने शरीर का मांस काटकर बाज को दे दिया!
पिछली एक कथा में हमने चर्चा की थी कि इन्द्र के कुपित हो जाने के कारण राजा ययाति स्वर्ग से नीचे गिरने लगा। उस स्थान पर अष्टक, प्रतर्दन, वसुमान् और शिबि नामक राजर्षि बैठे हुए तपस्या कर रहे थे। इस कथा में हम राजा शिबि की कथा की चर्चा करेंगे जिनका उल्लेख अनेक पुराणों, महाभारत तथा जातक कथाओं में मिलता है। तेरहवीं सदी के जैन कवि बालचंद्र सूरि ने ‘करुणावज्रायुध’ में राजा शिबि की कहानी राजा वज्रायुध के नाम से कही है। इस कथा का प्रारूप जातक कथा के बोधिसत्व के समान है।
राजा शिबि कुरुवंशी राजा उशीनर के पुत्र थे। इस कारण राजा ययाति अवश्य ही राजा उशीनर तथा राजा शिबि के पूर्वज रहे होंगे। राजा उशीनर के वंशज आगे चलकर उशीनर कहलाए। कौषीतकि उपनिषद् में उशीनर की गणना मत्स्यों, कुरुओं तथा पांचालों आदि के साथ राजवंशों के रूप में की गई है।
अनेक पुराणों के अनुसार उशीनरों का प्रदेश मध्यदेश था। महाभारत के अनुसार उशीनरों की राजधानी भोज नगर थी तथा उशीनरों ने यमुना की पार्श्ववर्ती नदियों के किनारे यज्ञ किया था। पाणिनि ने अपने ग्रंथ अष्टाध्यायी में अपने कई सूत्रों में उशीनर देश का उल्लेख किया है जिसके अनुसार ‘पुरूवंशी नरेश शिबि’ उशीनर देश के राजा थे।
राजा शिबि बड़े परोपकारी एवं धर्मात्मा थे। उनके यहाँ से कोई याचक खाली हाथ नहीं लौटता था। उनकी सम्पत्ति परोपकार के लिए थी और शक्ति आर्त की रक्षा के लिए। वे अजातशत्रु थे। उनकी प्रजा सुखी एवं संतुष्ट थी। राजा शिबि सदैव ही भगवद्-आराधन में लीन रहते थे। महाभारत के वनपर्व में इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा लिए जाने की कथा मिलती है। शिबि की त्याग-भावना उनके स्वभाव का स्थायी गुण है अथवा अस्थायी, इस बात की परीक्षा करने के लिए देवराज इंद्र और अग्निदेव ने एक योजना बनायी।
एक दिन अग्निदेव कबूतर का रूप धारण करके फड़फड़ाते हुए राजा शिबि की गोद में जाकर गिरे। उस सयम राजा शिबि अपने दिव्य सिंहासन पर बैठे हुए थे। उसी समय देवराज इन्द्र बाज पक्षी का रूप धारण करके उस कबूतर का पीछा करते हुए दरबार में आए।
जब भयभीत कबूतर राजा शिबि की गोद में आकर गिरा तो पुरोहित ने राजा से कहा- ‘महाराज। यह कबूतर बाज के डर से अपने प्राणों की रक्षा के लिए आपकी शरण में आया है। किसी तरह प्राण बच जाएं, यही इस कबूतर का प्रयोजन है परन्तु विद्वान पुरुष कहते हैं कि इस तरह कबूतर का आकर गिरना भयंकर अनिष्ट का सूचक है। आपकी मृत्यु निकट जान पड़ती है, अतः आपको इस उत्पात की शान्ति के लिए धन दान करना चाहिए।’
उसी समय बाज से भयभीत कबूतर ने राजा से कहा- ‘महाराज। मैं बाज के डर से प्राण बचाने के लिए प्राणार्थी होकर आपकी शरण में आया हूँ। मैं वास्तव में कबूतर नहीं, ऋषि हूँ। मैंने स्वेच्छा से अपना शरीर बदल लिया है। प्रजापालक एवं प्राणरक्षक होने के कारण आप ही मेरे स्वामी हैं। मैं आपकी शरण में हूँ, मुझे बचाइये। मुझे ब्रह्मचारी समझिये। मैंने वेदों का स्वाध्याय करते हुए अपने शरीर को दुर्बल किया है। मैं तपस्वी और जितेन्द्रिय हूँ। आचार्य के प्रतिकूल कभी कोई बात नहीं करता। मुझे योगयुक्त और निष्पाप जानिये। मैं वेदों का प्रवचन और छन्दों का संग्रह करता हूँ। मैंने सम्पूर्ण वेदों के एक-एक अक्षर का अध्ययन किया है। मैं श्रोत्रिय विद्वान हूँ। मुझ जैसे व्यक्ति को किसी भूखे प्राणी की भूख बुझाने के लिए उसके हवाले कर देना उत्तम दान नहीं है। अतः मुझे बाज को मत सौंपिये। मैं कबूतर नहीं हूँ’।
कबूतर के चुप हो जाने पर बाज ने राजा से कहा- ‘महाराज! समस्त जीवों को बारी-बारी से विभिन्न योनियों में जन्म लेकर रहना पड़ता है। मालूम होता है, आप इस सृष्टि परम्परा में पहले कभी इस कबूतर से जन्म ग्रहण कर चुके हैं, तभी तो इसे अपने आश्रय में ले रहे हैं। राजन् मैं आग्रह-पूर्वक कहता हूँ, आप इस कबूतर को शरण देकर मेरे भोजन में विघ्न न डालें।’
राजा बोले- ‘अहो! आज से पहले किसी ने कभी भी किसी पक्षी के मुख से ऐसी उत्तम संस्कृत नहीं सुनी होगी जैसी ये कबूतर और बाज बोल रहे हैं। किस प्रकार इन दोनों का वास्तविक स्वरूप जानकर इनके प्रति न्यायोचित बर्ताव किया जा सकता है! जो राजा अपनी शरण में आए हुए भयभीत प्राणी को उसके शत्रु के हाथ में दे देता है, उसके देश में समय पर वर्षा नहीं होती। उसके बोए हुए बीज भी समय पर नहीं उगते हैं।
जब वह संकट के समय अपनी रक्षा चाहता है, तब उसे कोई रक्षक नहीं मिलता है। जो राजा अपनी शरण में आए हुए भयभीत प्राणी को उसके शत्रु के हाथ में सौंप देता है, उसकी संतानें छोटी अवस्था में ही मर जाती हैं। उसके पितरों को कभी पितृलोक में रहने के लिए स्थान नहीं मिलता और देवता उसका दिया हुआ हविष्य ग्रहण नहीं करते हैं, उसका भोजन निष्फल है।
वह अनुदार ह्दय का मनुष्य शीघ्र ही स्वर्गलोक से भ्रष्ट हो जाता है और इन्द्र आदि देवता उसके ऊपर वज्र का प्रहार करते हैं। अतः हे बाज! इस कबूतर के बदले मेरे सेवक तुम्हारी पुष्टि के लिए भात के साथ ऋषभकन्द पका कर देंगे। तुम जिस स्थान पर प्रसन्नता-पूर्वक रह सको, वहीं चलकर रहो। मेरे सेवक तुम्हारे लिए वहीं पर भात और ऋषभकन्द का गूदा पहुँचा देंगे।’
बाज बोला- ‘राजन! मैं आपसे ऋषभकन्द नहीं मांगता और न मुझे इस कबूतर से अधिक कोई दूसरा मांस ही चाहिए। आज दूसरे पक्षियों के अभाव में यह कबूतर ही मेरे लिए देवताओं का दिया हुआ भोजन है। अतः यही मेरा आहार होगा। इसे ही मुझे दे दीजिये।’
राजा ने कहा- ‘हे बाज! उक्षा अर्थात् ऋषभकन्द अथवा वेहत नामक औषधियाँ बड़ी पुष्टिकारक होती हैं। मेरे सेवक वन में जाकर उनकी खोज करेंगे और पर्याप्त मात्रा में भात के साथ पकाकर तुम्हारे पास पहुँचा देंगे। भयभीत कपोत के बदले में यह मूल्य उचित होगा। इस मूल्य को ले लो तथा इस कबूतर को न मारो।
मैं अपने प्राण दे दूंगा किंतु यह कबूतर तुम्हें नहीं दूंगा। क्या तुम नहीं जानते कि यह कबूतर कितना सुन्दर, कैसा भोला और सौम्य है! अब तुम यहाँ व्यर्थ कष्ट न उठाओ। मैं इस कबूतर को किसी भी प्रकार से तुम्हारे हाथ में नहीं दूंगा। बाज! जिस कर्म से शिबि देश के लोग प्रसन्न होकर मुझे साधुवाद देते हुए मेरी भूरि-भूरि प्रशंसा करें और जिससे मेरे द्वारा तुम्हारा भी प्रिय कार्य बन सके, वह बताओ। उसी के लिए मुझे आज्ञा दो। मैं वही करूंगा।’
बाज बोला- ‘राजन्! अपनी दायीं जांघ से इस कबूतर के बराबर मांस काटकर दे दो। ऐसा करने से कबूतर की भली-भाँति रक्षा हो सकती है। इसी से शिबि देश की प्रजा आपकी भूरि-भूरि प्रशंसा करेगी और मेरा भी प्रिय कार्य सम्पन्न हो जायेगा।’
बाज के ऐसा कहने पर राजा ने अपनी दायीं जांघ से मांस काटकर तराजू के एक पलड़े पर रखा तथा दूसरे पलड़े में कबूतर को रख दिया। कबूतर का भार अधिक था। इसलिए राजा ने और मांस काटकर तराजू में चढ़ा दिया। फिर भी कबूतर वाला पलड़ा भारी रहा। इस प्रकार राजा शिबि ने क्रमशः अपने सभी अगों का मांस काट-काटकर तराजू पर चढ़ाया तो भी कबूतर ही भारी रहा। तब राजा स्वयं ही तराजू पर चढ़ गए। ऐसा करते समय उनके मन मे क्लेश नहीं हुआ।
राजा को ऐसा करते हुए देखकर बाज बोला- ‘हो गयी कबूतर की प्राण रक्षा। ‘ऐसा कहकर वह वहीं अन्तर्धान हो गया।
राजा शिबि कबूतर से बोले- ‘हे कपोत। हम तो तुम्हें कबूतर ही समझते थे। हे पक्षी-प्रवर! मैं आपसे पूछता हूँ, बताओ, यह बाज कौन था? ईश्वर के अतिरिक्त और कोई भी ऐसा चमत्कारपूर्ण कार्य नहीं कर सकता। भगवन! मेरे इस प्रश्न का यथावत उत्तर दें।’
कबूतर बोला- ‘राजन्! मैं धूममयी ध्वजा से विभूषित वैश्वानर अग्नि हूँ और उस बाज के रूप में साक्षात वज्रधारी शचीपति इन्द्र थे। सुरथा नन्दन! तुम एक श्रेष्ठ पुरुष हो। हम दोनों तुम्हारी श्रेष्ठता की परीक्षा करने के लिए यहाँ आए थे। राजन्! तुमने मेरी रक्षा करने के लिए तलवार से काटकर अपना यह मांस दिया है, इसके घाव को मैं अभी अच्छा कर देता हूँ।
यहाँ की चमड़ी का रंग सुन्दर और सुनहला हो जायगा तथा इससे बड़ी पवित्र सुगन्ध फैलती रहेगी, यह तुम्हारा राज चिह्न होगा। तुम्हारे इस दक्षिण पार्श्व से एक पुत्र उत्पन्न होगा, जो इन प्रजाओं का पालक और यशस्वी होने के साथ ही देवर्षियों के अत्यन्त आदर का पात्र होगा। उसका नाम होगा- कपोतरोमा।
राजन्। तुम्हारे द्वारा उत्पन्न किया हुआ वह पुत्र, जिसे तुम भविष्य में प्राप्त करोगे, तुम्हारी जांघ का भेदन करके प्रकट होगा, इसीलिए औभ्दिद कहलाएगा। उसके शरीर के रोएं कबूतर के समान होंगे। उसका शरीर बैल के समान ह्ष्ट-पुष्ट होगा। तुम देखोगे कि वह सुयश से प्रकाशित हो रहा है। सुरथा के वंशजों में वह सर्वश्रेष्ठ शूरवीर होगा।’ ऐसा कहकर अग्निदेव चले गए।
राजा शिबि से कोई कुछ भी मांगता, वे दिए बिना नहीं रहते थे। एक बार मंत्रियों ने पूछा- ‘महाराज! आप किस इच्छा से ऐसा साहस करते हैं, अदेय वस्तु का दान करने को भी तैयार हो जाते हैं। क्या आप यश चाहते हैं?’
राजा बोले- ‘नहीं, मैं यश अथवा ऐश्वर्य की कामना से दान नहीं करता, भोगों की अभिलाषा से भी नहीं। धर्मात्मा-पुरुषों ने सदैव इस मार्ग का सेवन किया है, अतः मेरा भी यह कर्त्तव्य है, ऐसा समझ कर ही मैं यह सब कुछ करता हूँ। सत्पुरुष जिस मार्ग से चले हैं, वही उत्तम है, यही सोचकर मेरी बुद्धि उत्तम पथ का आश्रय लेती है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता