पिछली कथा में हमने चर्चा की थी कि भोग-विलासों की निरर्थकाता समझकर राजा ययाति ने अपने पुत्र पुरु को उसका यौवन लौट दिया तथा स्वयं अपनी रानियों सहित पर्वत पर जाकर तपस्या करने लगा। वहीं पर राजा ययाति ने अपनी देह का त्याग किया।
महाभारत एवं मत्स्य महापुराण आदि ग्रंथों में आई एक कथा के अनुसार देहत्याग करने के पश्चात् राजा ययाति स्वर्ग पहुंचा तथा वहाँ बड़े आनंद से रहने लगा। इन्द्र, साध्य, मरुत् एवं वसु सहित समस्त देवगण राजा ययाति का बहुत सम्मान करते थे। इस प्रकार हजारों वर्ष बीत गए। एक दिन इन्द्र ने राजा ययाति से पूछा- ‘राजन् जिस समय आपने अपने पुत्र पुरु को उसका यौवन लौटाया, उस समय आपने उसे क्या उपदेश दिया?’
इस पर ययाति ने कहा- ‘देवराज मैंने पुरु से कहा कि मैंने तुम्हें गंगा और यमुना के बीच के देश का स्वामी बनाया है। तुम्हारे भाई सीमांत प्रदेशों के राजा होंगे। हे पुत्र, क्रोधियों से क्षमाशील श्रेष्ठ हैं, और असहिष्णु से सहिष्णु। मनुष्येतर जातियों से मनुष्य श्रेष्ठ हैं और मूर्ख मनुष्यों से बुद्धिमान मनुष्य श्रेष्ठ हैं। किसी के द्वारा बहुत सताए जाने पर भी हमें उसे सताने का प्रयास नहीं करना चाहिए। क्योंकि दुखी प्राणी का शोक ही सताने वाले का नाश कर देता है। मर्मभेदी और कड़वी बात मुंह से नहीं निकालनी चाहिए। अनुचित उपाय से शत्रु को अपने वश में नहीं करना चाहिए। जिस बात से किसी को कष्ट पहुंचता हो, ऐसी बात तो पापी लोग बोलते हैं।
जो लोग अपनी कड़वी, तीखी और मर्मस्पर्शी बातों के कांटे से लोगों को सताता है, उसको देखना भी बुरा है। क्योंकि वह अपनी वाणी के रूप में एक पिशाचिनी को ढो रहा है। ऐसा आचरण करना चाहिए कि सत्पुरुष सामने तो सत्कार करें ही, पीठ पीछे से भी तुम्हारी रक्षा करें। दुष्ट लोग कोई कड़वी बात कहें तो सदा उसे सहन ही करना चाहिए तथा सदाचार का आश्रय लेकर सर्वदा सत्पुरुषों के व्यवहार को ही ग्रहण करना चाहिए। वाणी से भी बाण-वृष्टि होती है। जिस पर इसकी बौछारें पड़ती हैं, वह रात-दिन सोच में पड़ा रहता है। इसलिए ऐसी वाणी का प्रयोग कभी नहीं करना चाहिए। त्रिलोकी में सबसे बड़ी सम्पत्ति यह है कि सभी प्राणियों के प्रति दया और मैत्री का बर्ताव हो, यथाशक्ति सबको कुछ दिया जाए और मधुर वाणी का प्रयोग हो। सारांश यह कि कठोर वाणी न बोले। मीठी वाणी बोले, सम्मान करे, दान दे, और कभी किसी से कुछ नहीं मांगे। यही सर्वश्रेष्ठ व्यवहार का मार्ग है।’
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ययाति की बात सुनकर नहुष ने पूछा- ‘नहुषनंदन! आपने गृहस्थाश्रम धर्म का पूरा-पूरा पालन करके वानप्रस्थाश्रम स्वीकार किया था। मैं आपसे पूछता हूँ कि आप तपस्या में किसके समकक्ष हैं?’
ययाति ने कहा- ‘देवता, मनुष्य, गन्धर्व, और महर्षियों में अपने समान तपस्वी मुझे कोई नहीं दिखाई पड़ता।’
इन्द्र ने कहा- ‘तुमने सृष्टि के समस्त लोगों का प्रभाव अपने समान न जानकर, उन सबका तिरस्कार किया है। अपने मुंह अपनी करनी का बखान करने से तुम्हारा पुण्य क्षीण हो गया। यहाँ के सुख-भोगों को सीमा तो है ही, जाओ यहाँ से पृथ्वी पर गिर पड़ो।’
ययाति ने कहा- ‘ठीक है। यदि सबका अपमान करने से मेरा पुण्य क्षीण हो गया तो मैं यहाँ से संतों के बीच में गिरूं।’
इन्द्र ने कहा- ‘अच्छी बात।’
इसके पश्चात् राजा ययाति पवित्र लोकों से च्युत होकर उस स्थान पर गिरने लगे जहाँ अष्टक, प्रतर्दन, वसुमान् और शिबि नामक ऋषि तपस्या करते थे।
राजा ययाति को आकाश से धरती की तरफ आते देखकर अष्टक ने कहा- ‘युवक! तुम्हारा रूप इन्द्र के समान है। तुम्हें गिरते देखकर हम चकित हो रहे हैं। तुम जहाँ तक आ गए हो, वहीं पर ठहर जाओ और विषाद तथा मोह छोड़कर अपनी बात बताओ। इन सत्पुरुषों के समक्ष इन्द्र भी तुम्हारा बाल बांका नहीं कर सकता। दुःखी और दीन लोगों के लिए संत ही परम आराध्य हैं। सौभाग्यवश तुम उन्हीं के बीच में आ गए हो। तुम अपनी व्यथा ठीक-ठीक सुनाओ!’
ययाति ने कहा- ‘मैं समस्त प्राणियों का तिरस्कार करने के कारण स्वर्ग से च्युत हो रहा हूँ। मुझमें अभिमान था। अभिमान नरक का मूल है। सत्पुरुषों को दुष्टों का अनुकरण नहीं करना चाहिए। जो लोग धन-धान्य की चिंता छोड़कर अपनी आत्मा का हित-साधन करते हैं, वही समझदार हैं। धन पाकर फूलना नहीं चाहिए। विद्वान् होकर अहंकार नहीं करना चाहिए। अपने विचार और प्रयत्न की अपेक्षा दैव की गति बलवान् है। ऐसा समझकर संताप नहीं करना चाहिए। दुःख से जले नहीं, सुख से फूले नहीं। दोनों में समान रहे। हे अष्टक! मैं इस समय मोहित नहीं हूँ और मेरे मन में कोई जलन भी नहीं है। मैं विधाता के विधान के विपरीत तो नहीं जा सकता, ऐसा समझकर मैं संतुष्ट रहता हूँ। अष्टक! मैं सुख-दुःख दोनों की अनित्यता जानता हूँ। फिर मुझे दुःख हो तो कैसे! क्या करूं, क्या करके सुखी रहूँ, इन झंझटों से मैं उन्मुक्त रहता हूँ। इसलिए दुःख मेरे पास नहीं फटकते।’
अष्टक ने पूछा- ‘आपकी बातों से लगता है कि आप अनेक लोकों में रह चुके हैं और आत्मज्ञानी नारदादि के समान भाषण कर रहे हैं। अतः बताइए, आप प्रधानतः किन-किन लोकों में रह चुके हैं?’
ययाति ने कहा- ‘मैं पहले पृथ्वी पर सार्वभौम राजा था। मैं एक सहस्र वर्ष तक महत् लोकों में रहा। तदनंतर सौ योजन लम्बी-चौड़ी सहस्रद्वार युक्त इन्द्रपुरी में एक सहस्र वर्ष तक रहा। तदनंतर प्रजापति के लोक में जाकर वहाँ भी एक सहस्र वर्ष तक रहा। मैंने नंदनवन में स्वर्गीय भोगों को भोगते हुए लाखों वर्षों तक निवास किया। वहाँ मैं सुखों में आसक्त हो गया और पुण्य क्षीण हो जाने पर पृथ्वी पर आ रहा हूँ। जैसे धन का नाश होने पर सगे-सम्बन्धी छोड़ देते हैं, वैसे ही पुण्य क्षीण हो जाने पर इन्द्रादि देवता भी परित्याग कर देते हैं।’ यह सम्पूर्ण वर्णन महाभारत तथा मत्स्य महापुराण सहित अनेक ग्रंथों में आया है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता