चन्द्रवंशी राजा ययाति के पांच पुत्रों का उल्लेख हम इससे पूर्व की कथाओं में कर आए हैं। इस कथा में हम ययाति की पुत्री माधवी की चर्चा करेंगे। जहाँ तक मेरी जानकारी है किसी भी प्राचीन पुराण में माधवी का उल्लेख नहीं हुआ है।
कहा जाता है कि महाभारत के उद्योगपर्व में माधवी का उल्लेख किया गया है किंतु मेरे पास गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित महाभारत की जो प्रति उपलब्ध है, उसमें माधवी की कथा का उल्लेख नहीं है किंतु डाॅ. भीमराव अम्बेडकर सहित कई विद्वानों ने माधवी की कथा का उल्लेख किया है। अतः संभव है कि किसी अन्य प्रकाशक द्वारा प्रकाशित महाभारत में माधवी की कथा कही गई हो।
इसलिए जब हम चंद्रवंशी राजाओं की शृंखला में राजा ययाति और उसके वंशजों की विस्तार से चर्चा कर रहे हैं तब हमें राजा ययाति की तथाकथित पुत्री माधवी की कथा तथा उसकी सच्चाई की भी चर्चा करनी चाहिए।
इस कथा के अनुसार एक बार गालव ऋषि ने अपने गुरु विश्वामित्र से पूछा- ‘मैं आपको गुरुदक्षिणा में क्या प्रदान करूं?
इस पर महर्षि विश्वामित्र ने कहा- ‘तुमने मेरी बहुत सेवा की है, इसलिए मुझे तुमसे कोई दक्षिणा नहीं चाहिए।’
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महर्षि के बार-बार मना करने पर भी गालव ऋषि ने हठ कर लिया कि वे महर्षि विश्वामित्र को दक्षिणा देना ही चाहते हैं। इसपर विश्वामित्र ने रुष्ट होकर कहा- ‘हे गालव! यदि तुम मुझे कुछ देना ही चाहते हो तो मुझे चन्द्रमा के समान श्वेतवर्ण वाले ऐसे आठ सौ घोड़े ला दो, जिनका दायां कान श्यामवर्ण हो।’
गालव ने महर्षि विश्वामित्र से कुछ समय देने की याचना की ताकि वे गुरु-दक्षिणा का प्रबंध कर सकें। गालव ने कई स्थानों पर पता किया किंतु उन्हें ऐसे अश्वों के बारे में कुछ पता नहीं चला। इस पर गालव ने भगवान श्री हरि विष्णु का ध्यान किया। भगवान श्री हरि विष्णु ने गालव की सहायता के लिए गरुड़जी को भेजा।
गरुड़जी ने चारों दिशाओं का वर्णन करके गालव से पूछा- ‘हे द्विजश्रेष्ठ! मैं तुम्हें समस्त दिशाओं का दर्शन कराने के लिए उत्सुक हूँ, अतः तुम मेरी पीठ पर बैठ जाओ और बताओ कि हम पहले किस दिशा में चलें?’
गरुड़ के आदेश से गालव गरुड़ की पीठ पर बैठ गए तथा उन्होंने गरुड़जी से कहा- ‘हे गरुड़! आप मुझे पूर्व दिशा की ओर ले चलें जहाँ धर्म के नेत्रस्वरूप सूर्य और चन्द्रमा प्रकाशित होते हैं तथा जहाँ आपने देवताओं का सानिध्य बताया है।’
जब गरुड़जी ने अंतरिक्ष में उड़ान भरी तो गालव मुनि भय से व्याकुल होकर बोले- ‘हे गरुड़! अपनी गति कम करें, कहीं ऐसा न हो आपसे ब्रह्महत्या हो जाए। मुझे न तो आपका शरीर दिखाई दे रहा है न ही अपना। सब ओर अंधकार ही अंधकार है।’
कुछ ही समय में गरुड़जी गावल को लेकर समुद्र तट के निकट स्थित ऋषभ पर्वत पर पहुंचे। ऋषभ पर्वत पर उन्हें शाण्डाली नामक तपस्विनी मिली। शाण्डिली ने उन दोनों को कुछ खाने को दिया और उसके बाद वे सो गए। जब वे लोग नींद से जागे तो गरुड़जी के पंख गायब थे।
गरुड़जी को ऐसे देखकर गालव मुनि बोले- ‘हे मित्र! अवश्य ही आपने कुछ गलत सोचा होगा।’
गरुड़जी ने कहा- ‘मैंने तो केवल इतना ही विचार किया था कि इस तपस्विनी को मुझे ब्रह्मा, विष्णु और महेश के लोक में छोड़ देना चाहिए। फिर भी हे देवी! यदि मैंने अपने चंचल मन से आपका कुछ अप्रिय सोचा तो आप मुझे क्षमा करें।’
गरुड़जी की बात सुनकर शाण्डाली नामक तपस्विनी बोली- ‘वत्स! तुमने मेरी निंदा की है, मैं निंदा सहन नहीं करती, जो पापी मेरी निंदा करेगा, पुण्य लोकों से तत्काल भ्रष्ट हो जायेगा। अतः आज से तुम्हें मेरी ही नहीं अपितु किसी भी स्त्री की निंदा नहीं करनी चाहिए।’
यह कहकर तपस्विनी ने गरुड़जी को उनके शक्तिशाली पंख वापस लौटा दिए। तत्पश्चात तपस्विनी की आज्ञा लेकर वे दोनों वहाँ से चल दिए।
मार्ग में गरुड़जी ने कहा- ‘गालव! श्वेतवर्ण और श्यामकर्ण वाले घोड़े हमें तभी मिल सकते है, जब हमारे पास धन हो। अतः मेरी राय में हमें किसी राजा के पास जाकर धन की याचना करनी चाहिए। चन्द्रवंश में उत्पन्न एक राजा मेरे मित्र हैं, जो महाराज नहुष के पुत्र हैं। वह मांगने पर तुम्हें निश्चय ही धन दे देंगे।’
यह बात सुनकर गालव ऋषि ने गरुड़जी को राजा ययाति के पास चलने को कहा। दोनों मित्र राजा ययाति के दरबार में पहुंचे।
गरुड़जी ने राजा ययाति को गालव द्वारा महर्षि विश्वामित्र को दक्षिण देने के संकल्प की बात बताई तथा कहा- ‘हे नहुषनंदन! ये तपस्वी गालव मेरे मित्र हैं। ये दस हजार वर्षों तक महर्षि विश्वामित्र के शिष्य रहे हैं। हे राजन्! ऋषि गालव आपके दान के सुपात्र हैं और इनके हाथ में दिए गए दान से आपकी शोभा होगी।’
राजा ययाति का वैभव पहले ही सहस्रों यज्ञ, अनुष्ठान और दानादि के कारण क्षीण हो चुका था। अतः राजा ययाति ने कहा- ‘हे गरुड़! आप सूर्यवंश के राजाओं को छोड़कर मेरे पास आए। इससे मेरा जन्म सफल हो गया किन्तु अब मैं उतना धनवान नहीं रहा जितना आप समझते हैं। इन दिनों मेरा वैभव क्षीण हो चुका है। अतः मैं आपकी इच्छा पूर्ण करने में असमर्थ हूँ। फिर भी द्वार पर आये याचक को खाली हाथ लौटाकर मैं अपने कुल को कलंकित नहीं करूंगा। मैं आपको अपनी पुत्री माधवी प्रदान करता हूँ जो आपका सम्पूर्ण कार्य संपादित करेगी।’ यह कहकर राजा ययाति ने अपनी सर्वांग-सुन्दर पुत्री माधवी को बुलाया।
राजा ययाति बोले- ‘यह मेरी पुत्री चार राजकुलों की स्थापना करने वाली है। इसे वरदान मिला हुआ है कि प्रत्येक प्रसव के बाद यह फिर से कुमारी हो जाएगी। इसके सौन्दर्य से आकृष्ट होकर देवता, मनुष्य और असुर इसे पाने की अभिलाषा रखते हैं। आप इसे ले जाइये। इसके शुल्क के रूप में राजा आपको अपना राज्य भी दे देंगे, फिर आठ सौ श्वेतवर्णी एवं श्यामकर्णी अश्वों की तो बात ही क्या है?’
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता