दिल्ली सल्तनत का सुल्तान बनने के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक को रावी से लेकर ब्रह्मपुत्र की घाटी तक हिन्दू राजाओं एवं सरदारों द्वारा स्वतंत्र होने के लिए किए गए सशस्त्र प्रयासों का सामना करना पड़ा था। हम अपनी पूर्व में चर्चा कर चुके हैं कि ई.1192 में शहाबुद्दीन गौरी, स्वर्गीय राजा पृथ्वीराज चौहान के पुत्र गोविंदराज को अजमेर की गद्दी पर बैठाकर पुनः दिल्ली लौट गया। जब वह दिल्ली से गजनी जा रहा था, तब एक चौहान सरदार ने हांसी के निकट मुहम्मद गौरी का मार्ग रोका। ताजुल मासिर के लेखक हसन निजामी ने इस चौहान मुखिया का नाम नहीं लिखा है। हसन निजामी के अनुसार कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा इस चौहान मुखिया का वध किया गया। कुछ भाट-ग्रंथों में इस चौहान मुखिया को पृथ्वीराज का बड़ा पुत्र रेणसी बताया गया है जो इस युद्ध में काम आया।
वस्तुतः पृथ्वीराज के किसी भी पुत्र का नाम रेणसी नहीं था। अतः हांसी के निकट मुहम्मद गौरी का मार्ग रोकने वाला चौहान योद्धा पृथ्वीराज का पुत्र न होकर कोई और रेणसी रहा होगा। हसन निजामी ने लिखा है कि जब शहाबुद्दीन गौरी कुतबुद्दीन ऐबक को भारत में विजित क्षेत्रों का गवर्नर नियुक्त करके गजनी चला गया तब पृथ्वीराज चौहान के छोटे भाई हरिराज ने पृथ्वीराज के पुत्र गोविन्दराज को अजमेर से मार भगाया तथा स्वयं अजमेर का राजा बन गया क्योंकि गोविंदराज ने मुसलमानों की अधीनता स्वीकार कर ली थी।
इस समय कुतुबद्दीन ऐबक, बनारस, कन्नौज तथा कोयल (अलीगढ़) में हिन्दू विरोध से निबटने में व्यस्त था। इस कारण कुतुबुद्दीन ऐबक गोविंदराज को कोई सहायता उपलब्ध नहीं करा सका। इसलिए गोविंदराज अजमेर का दुर्ग खाली करके रणथंभौर चला गया। हरिराज ने अजमेर पर अधिकार करके रणथंभौर को घेर लिया। गोविंदराज ने पुनः कुतुबुद्दीन ऐबक से सहायता मांगी। जब कुतुबुद्दीन ऐबक की सेना गोविंदराज की सहायता के लिये आई तो हरिराज रणथम्भौर का घेरा उठाकर अजमेर चला आया।
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ई.1194 में हरिराज ने अपने सेनापति चतरराज को दिल्ली पर आक्रमण करने के लिये भेजा। कुतुबुद्दीन ऐबक ने चतरराज को परास्त कर दिया। चतरराज फिर से अजमेर लौट आया। कुतुबुद्दीन ऐबक ने चतरराज का पीछा किया तथा वह भी सेना लेकर अजमेर आ गया और उसने तारागढ़ घेर लिया। हरिराज ने आगे बढ़कर कुतुबुद्दीन पर आक्रमण किया किंतु थोड़े से संघर्ष के बाद हरिराज परास्त हो गया।
हम्मीर महाकाव्य के अनुसार अपनी पराजय निश्चित जानकर हरिराज और उसका सेनापति जैत्रसिंह, अपने स्त्री समूह सहित, जीवित ही अग्नि में प्रवेश कर गये। इस प्रकार ई.1195 में अजमेर पर फिर से मुसलमानों का अधिकार हो गया। कुतुबद्दीन ऐबक ने सयैद हुसैन खनगसवार मीरन साहिब को अजमेर का दरोगा नियुक्त किया। इस प्रकार बारहवीं शताब्दी के अंत में अजमेर के चौहान नेपथ्य में चले गये तथा शाकंभरी राज्य पूरी तरह लुप्त हो गया।
सम्राट पृथ्वीराज चौहान को वीरगति प्राप्त हुए 10 साल बीत गए थे किंतु अजमेर के चौहान अब भी अजमेर को स्वतंत्र कराने का स्वप्न देखते रहे। 12 अप्रेल 1202 की रात में, तारागढ़ के आसपास रहने वाले राठौड़ों एवं चौहानों के एक समूह ने अजमेर दुर्ग पर आक्रमण किया। राजपूत सैनिक किसी तरह बीठली दुर्ग में घुसने में सफल हो गए। रात के अंधेरे में दोनों पक्षों के बीच भयानक युद्ध हुआ जिसमें दुर्ग के भीतर स्थित समस्त मुस्लिम सैनिकों को मार डाला गया। राजपूतों ने दरोगा सैयद हुसैन खनग सवार मीरन को भी मार डाला। इस प्रकार अजमेर दुर्ग एक बार फिर से हिन्दुओं के अधिकार में आ गया।
दुर्ग से भागे हुए मुस्लिम सिपाही जब यह समाचार लेकर दिल्ली पहुँचे तो कुतबुद्दीन ऐबक के होश उड़ गये। इस समय उसकी सेनाएं चारों दिशाओं में फैली हुई थीं तथा हिन्दू राजाओं एवं सरदारों से उलझी हुई थीं। इसलिए कुतुबुद्दीन ऐबक ने गजनी से सेना मंगवाई। गजनी से आई विशाल सेना ने राजपूतों से बीठली का दुर्ग फिर से छीन लिया तथा अजमेर में कत्लेआम किया। गजनी की सेना का यह प्रतिशोध बहुत भयानक था।
गजनी से आई सेना ने तारागढ़ में स्थित राजपूत सैनिकों को मारने के बाद दुर्ग के बाहर रहने वाले राजपूत परिवारों को पकड़कर उनकी सुन्नत की और उन्हें मुसलमान बनाया। इस्लाम में परिवर्तित होने के बाद ये राजपूत परिवार तारागढ़ के निकट ही रहने लगे। बाद में इन्हें देशवाली मुसलमान कहा जाने लगा। गजनी एवं गौर से आए मुसलमानों द्वारा इन्हें बहुत नीची दृष्टि से देखा जाता था। गजनी के मुसलमानों द्वारा देशवाली मुसलमानों को बराबर का स्तर नहीं दिया गया। उन्हें सेना में भी भर्ती नहीं किया जाता था। इसलिये देशवाली मुसलमान उपेक्षित जीवन जीने लगे और उनकी आर्थिक दशा दिन पर दिन गिरने लगी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता