ई.1303 में अल्लाउद्दीन खिजली ने चित्तौड़ दुर्ग पर आक्रमण किया। उसे चित्तौड़ दुर्ग पर अधिकार करने में लगभग आठ माह लगे तथा अगस्त 1303 में अल्लाउद्दीन खिलजी का दुर्ग पर अधिकार हो गया।
इसके बाद अल्लाउद्दीन ने दुर्ग में कत्लेआम का आदेश दिया जिसमें लगभग 30 हजार लोग मारे गए। अल्लाउद्दीन ने चित्तौड़ दुर्ग का नाम बदल कर खिज्राबाद कर दिया तथा उसे अपने पुत्र खिज्र खाँ को देकर स्वयं पुनः दिल्ली चला गया। खिज्र खाँ ने चित्तौड़ दुर्ग के सैंकड़ों साल पुराने अनेक मंदिरों को नष्ट कर दिया और उनमें लगे देव-विग्रहों, शिलालेखों तथा पत्थरों को वहाँ से उठवाकर गंभीरी नदी के तट पर डलवा दिया तथा उस सामग्री से नदी पर एक पुल बनवाया गया। इस पुल में लगे एक शिलालेख में महाराणा जयतल्लदेवी का भी उल्लेख है जिसका इतिहास में अब केवल यही एक उल्लेख बचा है।
इस पुल में लगा एक अन्य शिलालेख वि.सं. 1254 का महारावल तेजसिंह के समय का है। पुल से कुछ दूर दक्षिण में शंकरघट्टा नामक स्थान है जहाँ से वि.सं.770 अर्थात् ई.713 का मान मोरी का एक शिलालेख एवं कई मूर्तियां मिली हैं। स्वाभाविक ही है कि बहुत से शिलालेख पूरी तरह नष्ट हो गए होंगे। यदि खिज्र खाँ द्वारा चित्तौड़ दुर्ग के मंदिर एवं शिलालेख नहीं तोड़े गए होते तो भारत के इतिहास की कई टूटी हुई कड़ियों को जोड़ने के लिए विश्वसनीय सामग्री उपलब्ध हुई होती। इस प्रकार अल्लाउद्दीन खिलजी तथा उसके पुत्र खिज्र खाँ ने चित्तौड़ के उस वैभव को भारी क्षति पहुंचाई जो चित्तौड़ दुर्ग ने शताब्दियों एवं सहस्राब्दियों में अर्जित किया था।
अल्लाउद्दीन खिलजी के विजय अभियानों को आगे बढ़ाने से पहले हम चित्तौड़ दुर्ग के इतिहास को बीस साल आगे ले जाकर छोड़ना चाहते हैं जब वह दिल्ली सल्तनत के हाथों से फिसलकर पुनः गुहिलों के हाथों में जा पहुंचा था। जब ई.1303 में अल्लाउद्दीन खिलजी अपने पुत्र खिज्र खाँ को चित्तौड़ दुर्ग का दायित्व सौंपकर दिल्ली चला गया तो खिज्र खाँ चित्तौड़ दुर्ग में रहने लगा। वह लगभग 10-12 वर्ष चित्तौड़ दुर्ग में ही रहता रहा किंतु जैसे-जैसे समय बीतने लगा, खिज्र खाँ की बेचैनी बढ़ने लगी।
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खिज्र खाँ समझ रहा था कि अपने पिता अल्लाउद्दीन खिलजी और सल्तनत की राजधानी दिल्ली दोनों से इतनी लम्बी अवधि तक दूर रहना खिज्र खाँ के भविष्य के लिए ठीक नहीं था। उसे निरंतर समाचार मिल रहे थे कि गुलाम मलिक काफूर दिल्ली की राजनीति पर शिकंजा कस रहा है। इसलिए ई.1313 से 1315 के बीच किसी समय, शहजादा खिज्र खाँ किसी बहाने से चित्तौड़ छोड़कर पुनः दिल्ली लौट गया।
इस पर सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी ने जालोर के मृत राजा कान्हड़देव चौहान के भाई मालदेव सोनगरा को चित्तौड़ दुर्ग का दुर्गपति नियुक्त कर दिया। मालदेव सात साल तक चित्तौड़ पर शासन करता रहा। ई.1322 के लगभग चित्तौड़ दुर्ग में ही उसका निधन हुआ।
मालदेव के निधन के बाद उसका पुत्र जैसा अर्थात् जयसिंह सोनगरा चित्तौड़ का दुर्गपति हुआ। इस बीच ई.1316 में अल्लाउद्दीन खिलजी की मृत्यु हो गई तथा ई.1320 में खिलजी सल्तनत ही समाप्त हो गई। इस कारण चित्तौड़ दुर्ग पर दिल्ली सल्तनत की पकड़ ढीली हो गई। गुहिलों की रावल शाखा तो ई.1301 में समाप्त हो चुकी थी किंतु गुहिलों का राज्य-दीपक अब भी सीसोदा की छोटी सी जागीर में जगमगा रहा था। इस दिनों राणा हम्मीर सिसोदे का जागीरदार था। उसने अपने पैतृक राज्य का उद्धार करने का निर्णय लिया।
एक दिन राणा हमीर ने चित्तौड़ दुर्ग पर आक्रमण किया। उसके सैनिक चुपचाप दुर्ग में प्रवेश करके दुर्ग की प्राचीरों तक जा पहुंचे और उन्होंने, मुस्लिम तथा चौहान सैनिकों को पत्थरों से बांध-बांधकर दुर्ग की दीवारों से नीचे गिरा दिया और दुर्ग पर अधिकार कर लिया। चित्तौड़ से निकाल दिये जाने के बाद जैसा चौहान दिल्ली पहुंचा। उस समय दिल्ली सल्तनत पर मुहम्मद बिन तुगलक का शासन था।
मुहम्मद बिन तुगलक ने जैसा को अपनी सेना देकर पुनः चित्तौड़ के लिये रवाना किया। इस बीच राणा हमीर ने अपने मित्रों से सम्पर्क किया तथा युद्ध की तैयारी करके बैठ गया। उसने दिल्ली से आई सेना को नष्ट कर दिया। चित्तौड़ दुर्ग में स्थित महावीर स्वामी के मंदिर में महाराणा कुम्भा का एक शिलालेख लगा है जिसमें हम्मीर को असंख्य मुसलमानों को रणखेत में मारकर कीर्ति संपादित करने वाला कहा गया है। इस विजय से राणा हम्मीर को चित्तौड़ के साथ-साथ अजमेर, मण्डोर और रणथंभौर के किले तथा पचास लाख रुपये की मुद्राएं प्राप्त हुईं। इस कारण सिसोदे की छोटी सी जागीर अचानक ही एक महत्त्वपूर्ण राज्य में बदल गई।
कुछ तो चित्तौड़ दुर्ग की यशोभूमि का महत्त्व था और कुछ गुहिल राजाओं के धर्मनिष्ठ आचरण का प्रभाव था जिनके कारण सीसोदे के सामान्य जागीरदार चित्तौड़ का दुर्ग पाकर राणा से महाराणा हो गए और भारत भर के राजाओं के लिए सर्वपूज्य हो गए। उन्होंने आने वाली छः शताब्दियों तक असंख्य भारतवासियों के मन में स्वतंत्रता की आग प्रज्जवलित की। महाराणाओं के पुण्यप्रताप से आज भी चित्तौड़ का दुर्ग भारतीयों की आन-बान और शान का प्रतीक बनकर खड़ा है।
अल्लाउद्दीन की चितौड़-विजय के साथ ही दिल्ली के लिए न केवल मालवा और गुजरात के मार्ग खुल गए अपितु अब वे दक्षिण भारत तक अपनी सेनाओं के साथ आसानी से पहुंच सकते थे। इसलिए अल्लाउद्दीन ने सबसे पहले मालवा पर सेना भेजी।
ई.1305 में अल्लाउद्दीन खिलजी ने ऐनुल्मुल्क मुल्तानी को मालवा अभियान का दायित्व सौंपा। इन दिनों मालवा में मलहक देव नामक राजा शासन कर रहा था। उसकी सेना ने बड़ी वीरता से शत्रु का सामना किया परन्तु अन्त में मलहक देव परास्त हुआ तथा युद्ध क्षेत्र में ही काम आया। अंततः मालवा पर दिल्ली के तुर्कों का अधिकार हो गया।
अल्लाउद्दीन खिलजी ने मांडू, उज्जैन, धारानगरी तथा चन्देरी आदि नगरों को भी जीत लिया। इस प्रकार ई.1305 तक राजपूताना तथा मालवा के कई राज्य अल्लाउद्दीन के अधीन हो गए किंतु थार रेगिस्तान का जालोर राज्य अब तक अल्लाउद्दीन की पहुंच से बाहर था। इसलिए ई.1306 में अल्लाउद्दीन ने जालोर के चौहान राज्य पर अभियान किया जहाँ से ई.1301 में उसकी सेनाएं बुरी तरह पिटकर लौटी थीं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता