22 अगस्त 1542 को हुमायूँ अत्यंत दयनीय दशा में अमरकोट पहुँचा। राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है कि हुमायूँ अपने सात साथियों के साथ अमरकोट पहुंच पाया किंतु यह बात सही नहीं है, इस समय भी हुमायूँ के पास कुछ सौ सिपाही अवश्य ही रहे होंगे क्योंकि आगे के वर्णनों में उनके उल्लेख एवं नाम मिलते हैं।
अमरकोट के राणा वीरसाल ने हुमायूँ का स्वागत किया और उसे हर प्रकार से सहायता देने का वचन दिया। फरिश्ता ने लिखा है- ‘ऐसी विपत्तियों को जो कभी सुनी भी नहीं गई, झेलता हुआ बादशाह अंत में उमरकोट पहुंचा। उस समय उसके साथ केवल थोड़े से सहायक बचे थे। अमरकोट के राणा को दुर्भाग्यग्रस्त बादशाह पर दया आई और उसने उसकी विपत्तियों को कम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।’
इस प्रकार बाबर के चारों बेटे अपने पिता के राज्य से दूर हो गए। जिस राज्य को जीतने में बाबर एवं हुमायूँ ने अत्यधिक पसीना बहाया था। बाबर के चारों बेटों में यदि एकता होती और वे थोड़ी सी हिम्मत से काम लेकर नए सैनिकों की भरती करते तो वे शेर खाँ को बिहार तक ही सीमित कर सकते थे किंतु न तो बाबर के बेटों में एकता थी और न उनके पास सैनिकों की भरती करने लायक कोष बचा था।
कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि बाबर ने दिल्ली एवं आगरा से प्राप्त बहुत सारा धन समरकंद, बुखारा एवं फरगना में अपने रिश्तेदारों एवं मित्रों को उपहारों के रूप में भिजवा दिया था जिससे राजकोष में अधिक धन नहीं बचा था। हुमायूँ भी राजकोष में धन की वृद्धि नहीं कर सका था इसलिए अब उसके पास धन की कमी हो गई थी। हुमायूँ को चम्पानेर से जो धन मिला था, वह धन उसने आमोद-प्रमोद में लुटा दिया।
संकट की इस घड़ी में हुमायूँ को शेर खाँ से लड़ने के लिये सेना के लिए रसद एवं आयुध की आवश्यकता थी किंतु उसे कहीं से धन मिलने की संभावना नहीं थी। अतः न तो सेना की भर्ती की जा सकती थी, न रसद जुटाई जा सकती थी और न आयुध खरीदे जा सकते थे। इतिहास की पुस्तकों में इस समय बाबर के उन दो तोपचियों उस्ताद अली कुली तथा मुस्तफा रूमी का उल्लेख नहीं मिलता है। मुस्तफा रूमी खाँ का अंतिम उल्लेख चुनार दुर्ग के घेरे में मिलता है। अतः कहा नहीं जा सकता कि इस समय उस्ताद अली कुली तथा मुस्तफा रूमी इस समय जीवित भी थे या नहीं!
गुलबदन बेगम ने लिखा है कि अमरकोट के राणा वीरसाल के पिता को थट्टा के शासक मिर्जा शाह हुसैन ने मार डाला था, इसलिए अमरकोट का राणा शाह हुसैन से बदला लेना चाहता था। एक दिन हुमायूँ अमरकोट की सेना के पांच हजार सैनिकों को लेकर थट्टा पर आक्रमण करने गया ताकि थट्टा के विश्वासघाती शासक मिर्जा शाह हुसैन को दण्डित किया जा सके।
जब हुमायूँ अमरकोट तथा थट्टा के बीच स्थित एक तालाब पर रुका हुआ था, वहीं पर तार्दी बेग खाँ ने हुमायूँ को सूचना दी कि हमीदा बानू ने एक पुत्र को जन्म दिया है। हुमायूँ को पुत्र प्राप्ति की बड़ी प्रसन्नता हुई परन्तु उस समय हुमायूँ के पास अपने साथियों को देने के लिए कुछ नहीं था।
इसलिए हुमायूँ ने एक कस्तूरी तोड़कर अपने मित्रों में बांटी और अल्लाह से प्रार्थना की कि कस्तूरी की सुगन्ध की तरह उसके पुत्र का यश भी चारों दिशाओं में फैल जाये। हुमायूँ ने अपने इस पुत्र का नाम जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर रखा।
जब सिंध के हिन्दू राजाओं ने सुना कि अमरकोट का राणा बादशाह हुमायूँ को लेकर थट्टा के मिर्जा को मारने के लिए आया है तो आसपास के सोढ़ा, सूदमः और समीचा सरदार अपनी-अपनी सेनाएं लेकर हुमायूँ की सहायता के लिए आ गए। इससे हुमायूँ के पास दस हजार की सेना हो गई। जब हुमायूँ इस सेना के साथ ‘जून’ नामक स्थान पर पहुंचा तो जून का अमीर जून छोड़कर भाग गया। वह थट्टा के मिर्जा शाह हुसैन का अधीनस्थ अमीर था। यहाँ से ठट्टा 75 मील दूर रह गया था।
गुलबदन बेगम ने लिखा है कि हुमायूँ छः माह तक जून में रहा। उसने अपने हरम को भी अमरकोट से जून बुला लिया। उस समय अकबर छः माह का हो चुका था जबकि राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है कि वह केवल 34 दिन का हुआ था।
हुमायूँ ने शेख अली बेग को मुजफ्फर बेग तुर्कमान के साथ ‘जाज्का’ नामक बड़े परगने पर अधिकार करने भेजा जो कि ठट्ठा के शासक मिर्जा शाह हुसैन के अधीन था। मिर्जा शाह हुसैन ने हुमायूँ की सेना को परास्त कर दिया। शेख अली बेग मारा गया और मुजफ्फर बेग तुर्कमान भाग कर हुमायूँ के पास आ गया।
कुछ दिन बाद हुमायूँ के अमीर खालिद बेग और एक अन्य अमीर शाहिम खाँ जलावर के भाई लौश बेग के बीच झगड़ा हो गया। बादशाह ने लौश बेग का पक्ष लिया जिसके कारण खालिद बेग बादशाह हुमायूँ से नाराज होकर मिर्जा शाह हुसैन के पास चला गया। कुछ दिन बाद लौश बेग भी हुमायूँ को छोड़कर भाग गया। कुछ दिन बाद समाचार मिले कि लौश बेग को नींद में, उसके ही एक गुलाम ने छुरे से मार डाला।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता