राजपूताने पर आक्रमण औरंगजेब की इच्छा भी थी और मजबूरी भी। इच्छा तो इसलिए कि वह स्वर्गीय महाराजा जसवंतसिंह के उत्तराधिकारी को जान से मारना चाहता था और मजबूरी इसलिए कि ऐसा किए बिना औरंगजेब का राज्य सुरक्षित नहीं रह गया था।
दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि राठौड़ों और सिसोदियों ने मिलकर औरंगजेब को पहाड़ों में खींच लिया। राजपूताने पर आक्रमण इस बात का भी द्योतक था कि औरंगजेब के पाप का घड़ा अब भरने वाला था। औरंगजेब को लाल किले के तख्त पर बैठे हुए 22 साल बीत चुके थे और अपनी बदनीयती के कारण वह भारत में इतना बदनाम हो चुका था कि हर कोई उसे मार देना चाहता था किंतु भारत के लोगों की बदकिस्मती यह थी कि वे कभी एकजुट होकर नहीं लड़ते थे।
अंतिम बार उन्हें ई.1526 में खानवा के मैदान में एक होकर लड़ते हुए देखा गया था किंतु उस युद्ध के बाद महाराणा सांगा को जहर देकर मार दिए जाने के बाद भारत की हिन्दू शक्तियां कभी एक नहीं हो सकीं। अब इतिहास पुनः उसी बिंदु पर आकर खड़ा हो गया था जहाँ भारत की हिन्दू शक्तियों को मिलकर लड़ने की आवश्यकता थी।
विगत आठ सौ वर्षों से चली आ रही मेवाड़ की वीर परम्परा के अनुसार इस बार पुनः मेवाड़ का महाराणा इस कार्य के लिए आगे आया। मेवाड़ के राजवंश ने आठवीं शताब्दी ईस्वी में अपने राजा खुमांण के नेतृत्व में पहली बार भारत में अरब से आई खलीफा अलमामूं की सेना को काटकर नष्ट किया था। तभी से मेवाड़ के राजा, हिन्दुओं के प्रमुख मान लिए गए थे और वह परम्परा अब तक चली आ रही थी।
महाराणा राजसिंह ने औरंगजेब के हाथों नष्ट किए जा चुके मारवाड़ के राठौड़ राज्य को पुनर्जीवित करने का संकल्प लिया तथा वीर दुर्गादास राठौड़ के नेतृत्व में औरंगजेब से लड़-मरने को तैयार 25 हजार राठौड़ राजपूतों के साथ अपने 25 हजार सिसोदिए सिपाही भी नियुक्त कर दिए।
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महाराणा का साथ मिल जाने से वीर दुर्गादास राठौड़ उत्साह से भर गया। उसने मुगलों से तब तक तलवार बजाने निर्णय लिया जब तक कि स्वर्गीय महाराजा जसवंतसिंह के पुत्र अजीतसिंह को फिर से मारवाड़ के राजसिंहासन पर न बैठा दे। इस संघर्ष को अपने लक्ष्य तक पहुंचने में तीस साल लगे, कहते हैं कि पूरे तीस साल तक वीर दुर्गादास राठौड़ घोड़े की पीठ से नीचे नहीं उतरा। यही कारण है कि आज भी भारत का इतिहास वीर दुर्गादास का ऋणी है। किसी कवि ने वीर दुर्गादास के योगदान का उल्लेख करते हुए लिखा है-
डम्बक-डम्बक ढोल बाजे, दै-दै ठोर नगारां की।
आसे घर दुर्गो नहीं होतो, होती सुन्नत सारां की।
अर्थात्- यदि आसकरणजी के घर में वीर दुर्गादास ने जन्म नहीं लिया होता तो भारत में सभी लोगों की सुन्नत हो जाती!
इस प्रकार औरंगजेब का राजपूताने पर आक्रमण हिन्दू जाति के अस्तित्व के लिए बड़ी चुनौती बन गया। अब राठौड़ों ने जोधपुर राज्य में स्थापित हो चुके मुगलिया थानों, चौकियों एवं कोषागारों पर हमले करने आरम्भ कर दिए। मारवाड़ के राठौड़ों से निबटने के लिए औरंगजेब ने मारवाड़ राज्य के राजवंश से निकले नागौर के राव इन्द्रसिंह को जोधपुर का राजा घोषित कर दिया था।
राव इन्द्रसिंह ने जोधपुर के राठौड़ों को अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया किंतु जोधपुर के राठौड़ों ने राजकुमार अजीतसिंह को ही अपना स्वामी माना। वे जगह-जगह पर शाही सैनिकों को मारने लगे एवं शाही खजाना लूटने लगे।
जब यह बात औरंगजेब को ज्ञात हुई तो वह महाराणा राजसिंह पर बुरी तरह से क्रोधित हो गया तथा वह स्वयं विशाल शाही सेना लेकर अजमेर पहुंच गया। उसने शहजादे आजम को 12 हजार सैनिकों के साथ चित्तौड़ की तरफ नियुक्त किया और शहजादे अकबर को मारवाड़ के सोजत, जैतारण और मेड़ता परगनों में शाही थानों को लूट रहे राठौड़ों के पीछे भेजा। शहजादे अकबर की सेना का मार्ग साफ करने के लिए तहव्वर खाँ को नियुक्त किया गया।
इस काल में राठौड़ों ने एक विचित्र रणनीति अपनाई। उन्होंने अपने छोटे-छोटे दल बना लिये। जब एक दल सोजत में प्रकट होकर अपनी कार्यवाही करता था, ठीक उसी समय दूसरा, तीसरा और चौथा दल मेड़ता, बिलाड़ा, गोड़वाड़, जोधपुर, डीडवाना या सांभर में कार्यवाही करता था। मुगलों की सेना एक साथ रहना चाहती थी, उसमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह छोटे-छोटे दलों में बंटकर राजपूतों का पीछा करती। जब यह समाचार औरंगजेब को मिले तो उसने अपने सबसे छोटे शहजादे कामबख्श को भी मारवाड़ में बुला लिया और उसे शहजादे अकबर की सहायता करने के आदेश दिए।
इससे स्थिति कुछ नियंत्रण में आई तथा औरंगजेब महाराणा राजसिंह को दण्डित करने के लिए उदयपुर की तरफ रवाना हो गया। जब औरंगजेब अजमेर से मेवाड़ के लिए रवाना हुआ तो राठौड़ तथा सिसोदिये उसके पीछे लग गए और उस पर छोटे-छोटे आक्रमण करके नुक्सान पहुंचाने लगे।
उन दिनों मुगलों में राजपूतों का इतना भय व्याप्त हो गया कि जब औरंगजेब या शहजादा अकबर राजपूताने में कहीं पर अपना नया थाना स्थापित करता था तो कोई भी मुगल अधिकारी थानेदार के रूप में नियुक्त होना पसंद नहीं करता था क्योंकि जैसे ही शाही सेना आगे बढ़ती थी, वैसे ही राजपूत सिपाही आकर थानेदार का सिर काट लेते थे।
हम पहले ही लिख आए हैं कि मेवाड़ के सिसोदिए, बुंदेलखण्ड के बुंदेले एवं महाराष्ट्र के मराठे पहाड़ी क्षेत्रों में रहने के कारण मैदानी युद्ध के साथ-साथ छापामार युद्ध करने में भी कुशल थे।
जब महाराणा राजसिंह ने देखा कि औरंगजेब बहुत विशाल मुगल सेना के साथ उदयपुर आ रहा है तो महाराणा अपनी सेना के साथ उदयपुर छोड़कर गहन पहाड़ों में चला गया ताकि औरंगजेब को अपने पीछे खींचा जा सके। इस योजना के कारण औरंगजेब का राजपूताने पर आक्रमण मुगल सेना के लिए गले की फांस बन गया।
औरंगजेब ने चित्तौड़ तथा उदयपुर में अत्यंत प्राचीन मंदिरों को तोड़ना आरम्भ किया। इसका वर्णन हम पहले ही कर चुके हैं। जब वीर दुर्गादास के राठौड़ों ने देखा कि औरंगजेब मेवाड़ को उजाड़ रहा है, तब राठौड़ सैनिक मारवाड़ राज्य में घुस गए और वे मुगलों को भारी क्षति पहुंचाने लगे।
जोधपुर से लगभग 80 किलोमीटर दूर बिलाड़ा के निकट खेतासर के तालाब के पास औरंगजेब द्वारा नियुक्त राव इन्द्रसिंह तथा वीर दुर्गादास की सेनाओं में भारी युद्ध हुआ जिसमें राव इन्द्रसिंह एवं शहजादे अकबर की सेनाओं की हार हो गई तथा वीर दुर्गादास की सेना ने खुले युद्ध में यह पहली बड़ी सफलता अर्जित की।
इसके बाद नाडोल, सोजत, खरवा, मेड़ता, डीडवाना एवं सांभर आदि स्थानों पर कई-बार लड़ाइयां हुईं जिनमें दुर्गादास के राठौड़ों को सफलताएं मिलती रहीं। राठौड़ सरदार मुगल-सेना से लड़-मरने की बजाय उसका कोष एवं रसद छीनने पर अधिक ध्यान देते थे। इस कारण मुगल सैनिकों की जान के लाले पड़े रहते थे और वे हर समय अन्न एवं जल के लिए तरसते रहते थे।
उधर औरंगजेब उदयपुर तथा चित्तौड़ के प्राचीन मंदिरों को तोड़ने के बाद पहाड़ों में रह रहे महाराणा राजसिंह का पीछा करता रहा। इस कारण दोनों पक्षों में कई लड़ाइयां हुईं। महाराणा ने भीलों की सेना को पहाड़ों की नाकाबंदी करने पर नियुक्त कर दिया। इन भीलों ने सैंकड़ों मुगल सैनिकों को अपने तीरों से मार डाला।
मेवाड़ी सिपाही रात के समय अचानक मुगल शिविर पर धावा बोलते थे और रसद तथा हथियार छीनकर भाग जाते थे। अंत में औरंगजेब को मेवाड़ से चले जाना ही उचित लगा। उसने शहजादे अकबर को चित्तौड़ किले में नियुक्त कर दिया तथा स्वयं वापस अजमेर चला गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता