दिल्ली के नौजवानों को भड़का कर शाह तुर्कान का सिर कटवाकर रजिया दिल्ली की सुल्तान बन गई। चालीसा के जिन अमीरों ने रजिया के उत्तराधिकार का विरोध किया था, उन्हीं अमीरों ने रजिया को सुल्तान स्वीकार कर लिया। दिल्ली के अमीरों द्वारा रजिया को सुल्तान स्वीकार करने का एक विशेष कारण यह भी था कि दिल्ली की सीमा पर लड़ रहा सुल्तान रुकनुद्दीन फीरोज मुल्तान, लाहौर, हांसी तथा बदायूं के गवर्नरों की सम्मिलित सेनाओं का सामना नहीं कर पा रहा था और ऐसा लगने लगा था कि सुल्तान की सेनाएं कभी भी परास्त हो जाएंगी।
दिल्ली के अमीर जानते थे कि यदि प्रांतीय गवर्नरों की सेनाएं विजयी होने के बाद दिल्ली में प्रवेश करेंगी तो वे अपनी पसंद का सुल्तान नियुक्त करेंगी और वह सुल्तान दिल्ली के अमीरों की बजाय उनके दुश्मनों को बढ़ावा देगा। इसलिए दिल्ली के अमीरों ने रजिया से समझौता कर लिया और उसे अपनी सुल्तान स्वीकार कर लिया।
इस रोचक इतिहास का वीडियो देखें-
चालीसा के अमीरों ने दिल्ली की जनता के समक्ष ऐसा भाव प्रस्तुत किया मानो रजिया को सुल्तान स्वीकार करना अमीरों की मजबूरी नहीं है अपितु वे तो मरहूम सुल्तान इल्तुतमिश की इच्छा की पूर्ति कर रहे हैं तथा मरहूम सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक के प्रति स्वामिभक्ति का प्रदर्शन कर रहे हैं।
जब रुकुनुद्दीन फीरोजशाह ने सुना कि अमीरों ने रजिया को सुल्तान बना दिया है तो वह प्रांतीय गवर्नरों के साथ चल रही लड़ाई का कोई निर्णय हुए बिना ही दिल्ली लौट आया। रजिया ने अपने भाई रुकनुद्दीन फीरोजशाह को बंदी बना लिया तथा 9 नवम्बर 1236 को उसकी हत्या कर दी। इस प्रकार इस शराबी और विलासी सुल्तान की सल्तनत केवल सात महीने ही चल पाई।
जब रुकनुद्दीन मोर्चा छोड़कर दिल्ली चला गया तो विद्रोही गवर्नरों ने बदली हुई परिस्थिति पर विचार किया कि अब क्या करना चाहिए! सल्तनत का वजीर कमालुद्दीन जुनैदी भी दिल्ली से भागकर इन विद्रोही गवर्नरों के पास आ गया। वह स्वयं दिल्ली का सुल्तान बनना चाहता था। इसलिए उसने प्रांतीय गवर्नरों को दिल्ली पर आक्रमण करने के लिए उकसाया ताकि रजिया को तख्त से उतारकर जुनैदी को सुल्तान बनाया जा सके।
विद्रोही प्रांतीय गवर्नर वजीर कमालुद्दीन जुनैदी के इस प्रस्ताव से सहमत हो गए तथा अपनी सेनाओं के साथ दिल्ली की तरफ बढ़ने लगे। बहुत कम समय में उन्होंने दिल्ली घेर ली। रजिया अभी सुल्तान बनी ही थी, इसलिए स्थितियां पूरी तरह से उसके नियंत्रण में नहीं आ पाई थीं। फिर भी कुछ युवा तुर्क और दिल्ली के सामान्य नागरिक रजिया के साथ थे। वे लोग वजीर कमालुद्दीन जुनैदी तथा विद्रोही सरदारों का विरोध करने करने को उद्धत हो गए।
दिल्ली के वे तुर्की अमीर जिन्हें न तो रजिया के सुल्तान बनने में लाभ था और न कमालुद्दीन जुनैदी के सुल्तान बनने में लाभ था, उन्होंने एक नया षड़यंत्र रचा। उनके अलग-अलग दल इल्तुतमिश के अलग-अलग पुत्रों का समर्थन करने लगे और अपने पक्ष के शहजादे को सुल्तान बनाने का प्रयास करने लगे।
अधिकतर तुर्की अमीर, कट्टर सुन्नी थे। उन्हें एक औरत के अधीन रहकर काम करना सहन नहीं था। इसलिये वे रजिया को राजपद के लिए सर्वथा अनुपयुक्त समझते थे। इन अमीरों द्वारा भी रजिया सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह किये जाने की पूरी संभावना थी।
दिल्ली के शासन में आंतरिक संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होते ही चौहान राजपूतों ने फिर से अपने राज्य प्राप्त करने का प्रयास आरम्भ कर दिए तथा रणथम्भौर दुर्ग पर घेरा डाल दिया जिसे इल्तुतमिश ने बड़ी कठिनाई से अपने अधीन किया था।
इन कठिनाइयों का निस्तारण किये बिना रजिया दिल्ली पर शासन नहीं कर सकती थी किंतु अपने नाना के समय से ही दिल्ली की राजनीति को निकट से देखने और समझने के कारण वह इन परिस्थितियों से निबटने की समझ रखती थी।
इब्नबतूता, इसामी, फरिश्ता, निजामुद्दीन तथा बदायूनीं आदि मुस्लिम इतिहासकारों ने रजिया के स्त्री होने के कारण उसके इस आचरण को निंदनीय ठहराया है कि वह औरत होकर भी सुल्तान बन गई थी। इन लेखकों में से अधिकतर स्वयं कट्टर सुन्नी उलेमा थे और औरत के शासन को हिकारत की दृष्टि से देखते थे।
रूढ़िवादी मुस्लिम इतिहासकार रजिया के विरुद्ध कुछ भी क्यों न कहें किंतु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि तेरहवीं सदी की तुर्की राजनीति में अपनी जगह बनाने के लिए एक औरत में जिस प्रतिभा की आवश्यकता थी, रजिया उस प्रतिभा से सम्पन्न थी। उसमें अपने विरोधियों का सामना करने तथा अपने साम्राज्य को सुदृढ़़ बनाने की इच्छाशक्ति भी उपलब्ध थी।
सुल्तान बनने के बाद रजिया ने पर्दे का पूरी तरह परित्याग कर दिया। वह स्त्रियों के वस्त्र त्यागकर पुरुषों के वस्त्र धारण करने लगी। वह शाही दरबार से लेकर सैनिक छावनी में राज्य के कार्यों को स्वयं देखने लगी। वह स्वयं सेना का संचालन करने लगी और युद्ध में भाग लेने लगी। वह घोड़े पर बैठकर सेना का निरीक्षण करती तथा तख्त पर बैठकर अपने नाना कुतुबुद्दीन ऐबक और पिता इल्तुतमिश की तरह पूरे आत्मविश्वास के साथ आदेश देती थी।
रजिया तुर्की अमीरों की कमजोरियों को अच्छी तरह समझती थी। इसलिए उसने बड़े से बड़े अमीर की आँख में आँख डालकर बात की तथा उसे बेझिझक आदेश दिए। जिन बूढ़े अमीरों के सामने इल्तुतमिश तख्त पर बैठने में संकोच किया करता था, रजिया ने उन बूढ़े अमीरों के दिलों में भी सुल्तान के पद की दहशत भर दी। सुल्तान के आदेश के प्रति असम्मान दिखाने वाले अमीर को फटकारने एवं दण्डित करने में भी रजिया पीछे नहीं रहती थी।
राज्यकार्य से अवसर मिलते ही वह घोड़े पर बैठकर दिल्ली की गलियों में निकल पड़ती। दिल्ली के बहुत सारे लोग उसे सल्तनत में चल रही गतिविधियों की जानकारी देते थे। इस कारण दिल्ली की गलियों में रजिया के हजारों समर्थक तैयार हो गए थे। इस प्रकार रजिया ने अपनी योग्यता तथा शासन क्षमता से न केवल अमीरों को अपितु दिल्ली की जनता को प्रभावित कर लिया किंतु विद्रोहों की आंधी थमने का नाम नहीं ले रही थी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता