महाराणा प्रताप की जीत से अकबर को मानसिंह पर संदेह हो गया! अकबर को शक था कि मानसिंह ने जानबूझ कर महाराणा प्रताप को जीतने का अवसर दिया है। अकबर पहले भी मानसिंह को खुले दरबार में यह उलाहना दे चुका था कि तुम हिंदुओं का पक्ष लेते हो!
जब कुंअर मानसिंह और आसफ खाँ मेवाड़ की पहाड़ियों से निकलकर अजमेर चले गए तब महाराणा प्रताप भी अनेक बादशाही थानों को उजाड़ता हुआ अपने थाने स्थापित करने लगा और अपनी सेना के साथ पुनः कुंभलगढ़ चला गया।
उधर जब मानसिंह और आसफ खाँ अजमेर पहुंचे तो अकबर ने उन दोनों की ड्यौढ़ी बंद कर दी। अर्थात् उन्हें अपने सामने आने से रोक दिया। मुल्ला बदायूंनी ने लिखा है कि मानसिंह और आसफ खाँ की गलतियों के कारण बादशाह ने उनकी ड्यौढ़ी बंद कर दी किंतु वह यह नहीं बताता कि वे कौनसी गलतियां थीं जिनके कारण मानसिंह तथा आसफ खाँ की ड्यौढ़ी बंद की गई? निश्चित रूप से अकबर को मानसिंह पर संदेह था कि उसने जानबूझ कर अपने पुराने स्वामी अर्थात् महाराणा प्रताप को जिताया है।
निजामुद्दीन अहमद बख्शी ने इस विषय में तबकाते अकबरी अर्थात् तारीखे निजामी में लिखा है कि मानसिंह वापस चले आने की आज्ञा पाते ही बादशाह के दरबार में उपस्थित हुआ।
जब सेना की दुर्दशा के सम्बन्ध में जांच की गई, तो पाया गया कि सैनिक बहुत बड़ी विपत्ति में थे तो भी कुंवर मानसिंह ने अपनी सेना को राणा कीका अर्थात् प्रतापसिंह का मुल्क नहीं लूटने दिया। इसी से बादशाह मानसिंह पर अप्रसन्न हुआ और उसे दरबार से निकाल कर उसकी ड्यौढ़ी बंद कर दी।
निजामुद्दीन अहमद बख्शी के उक्त कथन से इस बात का आभास हो जाता है कि अकबर भले ही अजमेर में ख्वाजा की दरगाह पर उपस्थित होकर अपनी जीत का जश्न मना रहा था किंतु वास्तव में उसे पता लग गया था कि अकबर की विजय नहीं हुई है अपितु हार हुई है! इस अप्रत्याशित हार के कारण ही अकबर को मानसिंह पर संदेह हो गया था।
अकबर को मानसिंह पर संदेह था अन्यथा वह विजयी सेनापतियों की ड्यौढ़ी क्यों बंद करता? अकबर को इस बात पर भी शक था कि मानसिंह ने जानबूझ कर महाराणा प्रताप को जीतने का अवसर दिया है। अकबर पहले भी मानसिंह को खुले दरबार में यह उलाहना दे चुका था कि तुम हिंदुओं का पक्ष लेते हो!
इस बात का प्रमाण आगे चलकर इस तथ्य से मिलता है कि अगले दस सालों तक अकबर मेवाड़ को जीतने के लिए अपनी सेनाएं भेजता रहा किंतु आगे के अभियानों में अकबर ने मानसिंह को कभी भी मेवाड़ के अभियान पर नहीं भेजा। इससे पुष्टि होती हे कि अकबर को मानसिंह पर संदेह केवल कुछ समय के लिए नहीं हुआ था अपितु उसका संदेह जीवन भर बना रहा।
अकबर के विश्वसनीय मुस्लिम सेनापतियों को ही मेवाड़ के विरुद्ध किए जाने वाले अभियानों की कमान सौंपी गई। यह अलग बात है कि आगे के समस्त अभियानों में भी अकबर के सेनापति मेवाड़ में पिटकर लौटते रहे।
जब हल्दीघाटी के युद्ध के 24 साल बाद अकबर की मृत्यु हुई तब उसे दो ही दुःख सालते थे। पहला यह कि वह महाराणा प्रताप को नहीं मार सका और दूसरा यह कि अकबर का पुत्र सलीम जीवन भर अकबर के विरुद्ध चलता रहा किंतु अकबर उसे अपने अनुकूल नहीं बना सका।
भारत की आजादी के बाद विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम के लिए जो पुस्तकें लिखी गईं उनमें वास्तविक ऐतिहासिक तथ्यों की अनदेखी करके हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की हार तथा अकबर की विजय को चित्रित किया गया।
इन पुस्तकों के माध्यम से भारतीयों को समझाने का प्रयास किया गया कि जहाँ भारत के अन्य राजाओं ने दूरदृष्टि रखते हुए अकबर से संधि की तथा अपनी प्रजा एवं सेना को युद्धों की विभीषिका से बचाया वहीं महाराणा प्रताप में दूरदृष्टि का अभाव था, उसने अपनी प्रजा एवं सेना को अनावश्यक युद्धों की आग में झौंक दिया।
आजाद भारत में लिखी गई इन पुस्तकों ने भारत की जनता के मन में इस बात को लेकर स्थाई संशय उत्पन्न कर दिया कि हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की जीत हुई थी कि हार! वस्तुतः इस प्रश्न की तथ्यपूर्ण विवेचना की जानी चाहिए।
संसार में बहुत से ऐसे युद्ध हुए हैं जिनके विवरण इतिहास के पन्नों पर बहुत विस्तार से लिखे गए और वे जनमानस में भी बहुत लोकप्रिय हुए किंतु उनमें जीत-हार का निर्णय स्पष्ट रूप से नहीं हो सका।
इन युद्धों में दोनों पक्षों ने बहुत-कुछ खोया किंतु सब-कुछ नहीं जिसके कारण न तो किसी पक्ष की स्पष्ट विजय हुई और न किसी पक्ष की स्पष्ट पराजय हुई।
हल्दीघाटी का युद्ध भी उन्हीं युद्धों में से एक था जिसमें दोनों पक्षों ने कुछ न कुछ खोया अवश्य था किंतु सब-कुछ नहीं। अकबर ने अपनी साख खोई थी और महाराणा ने अपने विश्वस्त सेनापति गंवाए थे। यही कारण था कि दोनों पक्षों के कवियों और लेखकों ने हल्दीघाटी के युद्ध में अपने-अपने स्वामियों की विजय बताते हुए उनका पक्ष स्पष्ट किया।
यदि तथ्यों की विवेचना की जाए तो हम पाते हैं कि इस युद्ध में अकबर ने केवल इतना प्राप्त किया था कि उसके अमीरों एवं सेनापतियों को मेवाड़ की भौगोलिक एवं सामरिक स्थिति से वास्तविक परिचय हो गया था जबकि महाराणा ने इस युद्ध के माध्यम से कालजयी ख्याति एवं देशवासियों की अटूट श्रद्धा प्राप्त की।
जैसे-जैसे समय बीतता गया, महाराणा प्रताप साहसी योद्धा से ऐतिहासिक योद्धा, ऐतिहासिक योद्धा से कालजयी योद्धा और कालजयी योद्धा से मिथकों का नायक बनता चला गया। आज भी बहुत से लोग महाराणा प्रताप में इतनी अधिक श्रद्धा रखते हैं जितनी कि वे अपने देवी-देवताओं में रखते हैं जबकि अकबर को समाज के किसी भी वर्ग में ऐसी श्रद्धा, ऐसा आदर और ऐसा प्रेम प्राप्त नहीं हो सका!
हल्दीघाटी के युद्ध में दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी जीत बताई है किंतु 18 जून 1576 में हल्दीघाटी का युद्ध होने से लेकर 19 जनवरी 1597 को महाराणा प्रताप का स्वर्गवास होने तक की समस्त घटनाओं का समग्र विश्लेषण करने से स्पष्ट है कि इस युद्ध में अकबर को विजय प्राप्त नहीं हुई थी।
युद्ध के मैदान में न तो महाराणा प्रताप रणखेत रहा, न युद्ध के पश्चात् महाराणा ने समर्पण किया और न ही, युद्ध के पश्चात् के महाराणा के लगभग 21 वर्ष के जीवन काल में महाराणा प्रताप और अकबर के बीच कोई संधि हुई जिससे यह कहा जा सके कि अकबर को विजय प्राप्त हुई।
न तो महाराणा प्रताप और न उसका पुत्र अमरसिंह कभी भी अकबर के दरबार में उपस्थित हुए। उनके बाद भी कोई महाराणा किसी मुगल बादशाह के दरबार में नहीं गया।
राणा रासौ आदि मेवाड़ से सम्बन्ध रखने वाली अनेक प्राचीन पुस्तकों में महाराणा प्रताप की विजय लिखी गई है। उदयपुर के जगदीश मंदिर की 13 मई 1652 की प्रशस्ति में लिखा है- अपनी प्यारी तलवार हाथ में लिये प्रतापसिंह प्रातःकाल युद्ध में आया तो मानसिंह वाली शत्रु की सेना ने छिन्न-भिन्न होकर पैर संकोचते हुए पीठ दिखाई-
कृत्वा करे खंगलतां स्ववल्लभां प्रतापसिंहे समुपागते प्रगे।
सा खंडिता मानवती द्विपंचमूः संकोचयन्ती चरणौ परांगमुखी।
निश्चित रूप से अकबर को मानसिंह पर संदेह हल्दीघाटी युद्ध में अकबर की पराजय और प्रताप की विजय सूचित करता है जिसकी आधुनिक इतिहासकारों ने पूरी तरह अनदेखी की है।
–डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!