Tuesday, March 25, 2025
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अकबर और महाराणा प्रताप एक-दूसरे के प्राण लेना चाहते थे (118)

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अकबर और महाराणा प्रताप - www.bharatkaitihas.com
अकबर और महाराणा प्रताप

अकबर और महाराणा प्रताप एक-दूसरे के प्राण लेना चाहते थे अंतर केवल इतना था कि अकबर महाराणा का राज्य छीनने के लिए महाराणा का दुश्मन हुआ बैठा था तो महाराणा अपनी भूमि को म्लेच्छों के हाथों में जाने से रोकने के लिए ऐसा कर रहे थे।

अकबर तथा महाराणा प्रताप के बीच आदि से अंत तक जो भी घटनाएं हुईं उनसे यह सिद्ध होता है कि न तो अकबर महाराणा प्रताप से संधि चाहता था और न महाराणा प्रताप किसी भी कीमत पर अकबर से संधि करना चाहता था।

अकबर भारत के राजाओं के मन से स्वातंत्र्य भावों को हमेशा के लिए समाप्त करने के उद्देश्य से महाराणा के प्राण लेना चाहता था क्योंकि महाराणा प्रताप भारत की स्वातंत्र्य चेतना का राष्ट्र-व्यापी प्रतीक बन गया था।

दूसरी ओर महाराणा प्रताप इसलिए अकबर के रक्त का प्यासा था क्योंकि अकबर तथा उसके पूर्वजों ने न केवल प्रताप के पूर्वजों को महान् कष्ट दिए थे अपितु उसने गुहिलों के प्यारे चित्तौड़ पर कब्जा कर रखा था। धरती, धर्म और धेनु के रक्षक प्रताप के पूर्वजों की आत्मा प्रतापसिंह को शांति से बैठने नहीं देती थी।

जब महाराणा प्रताप ने कुंअर मानसिंह के साथ भोजन करने से इन्कार कर दिया तो मानसिंह ने इसे अपना घोर अपमान समझा। मानसिंह समझ गया कि महाराणा ने उसे क्यों अपमानित किया है! इसलिए मानसिंह क्रोध से तिलमिला गया।

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राजा श्यामलदास ने वीर विनोद में लिखा है कि जब मानसिंह ने बादशाह के पास पहुँचकर अपने अपमान का सारा हाल कहा, तो अकबर ने क्रुद्ध होकर महाराणा का गर्वभंजन कर उसे सर्वतोभावेन अपने अधीन करने का विचार करके कुंवर मानसिंह को ही महाराणा प्रताप के विरुद्ध भेजने का निश्चय किया। राजप्रशस्ति महाकाव्य और राजपूताने की विभिन्न ख्यातों में इस घटना का वर्णन कई प्रकार से मिलता है। अकबर के दरबारी लेखक अबुल फजल ने अन्य समस्त स्रोतों से बिल्कुल अलग हटकर लिखा है कि राणा ने मानसिंह का स्वागत कर अधीनता के साथ शाही खिलअत पहन ली और मानसिंह को अपने महलों में ले जाकर उसके साथ दगा करना चाहा, जिसका हाल मालूम होते ही मानसिंह वहाँ से चला गया। महामहोपध्याय गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अबुल फजल के वर्णन को मिथ्या मानते हुए लिखा है कि महाराणा का अधीनता के साथ खिलअत पहनना तो दूर रहा, वह तो अकबर को बादशाह नहीं, तुर्क कहा करता था। किसी कवि ने भी लिखा है- तुरक कहासी मुख पतौ, इण तन सूं इकलिंग। अर्थात्- एकलिंग भगवान महाराणा प्रताप के मुख से अकबर को तुर्क ही कहलवाएंगे।

सदा की तरह से कोई भी नया अभियान आरम्भ करने से पहले अकबर अजमेर आया तथा उसने ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर पहुँचकर अपनी जीत की कामना तथा महाराणा प्रताप की पराजय की कामना की। यहीं से उसने 2 अप्रेल 1576 को मानसिंह कच्छवाहा को मेवाड़ के लिये रवाना किया।

बदायूंनी लिखता है कि अकबर ने मानसिंह को पांच हजार घुड़सवार दिए तथा उसके साथ गाजी खाँ बदख्शी, ख्वाजा मुहम्मद रफी बदख्शी, शियाबुद्दीन गुरोह, पायन्दा कज्जाक, अली मुराद उजबक, काजी खाँ, इब्राहीम चिश्ती, शेख मंसूर, ख्वाजा गयासुद्दीन, अली आसिफ खाँ, सैयद अहमद खाँ, सैयद हाशिम खाँ, जगन्नाथ कच्छवाहा, सैयद राजू, महतर खाँ, माधोसिंह कच्छवाहा, मुजाहिद बेग, खंगार और लूणकर्ण आदि अमीर, उमराव तथा 5,000 सवार भेजे।

आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि मानसिंह की सेना में 10 हजार घुड़सवार थे। इनमें 4,000 कच्छवाहे राजपूत थे। 1,000 अन्य जातियों के राजपूत तथा शेष मध्यएशिया के तुर्क, उजबेग, कज्जाक, बारहा के सैय्यद और फतेहपुर के शेखजादे थे।

बदायूंनी लिखता है- ‘मेरे मन में भी काफिर से लड़ने की उत्कंठा जगी। मैंने शहंशाह के समक्ष दरख्वास्त लगाई कि मुझे भी मानसिंह के साथ महाराणा प्रताप के विरुद्ध भेजा जाए।’

इस पर अकबर ने कहा- ‘उसे तो अभी-अभी शाही दरबार में इमाम बनाया गया है। वह कैसे जा सकता है?’

नकीब खाँ ने शहंशाह से कहा- ‘बदायूंनी को जिहाद में भाग लेने की बड़ी इच्छा है।’

इस पर शहंशाह ने बदायूंनी को बुलाया और पूछा- ‘क्या तुम इच्छुक हो?’

बदायूंनी ने जवाब दिया- ‘हाँ।’

तब बादशाह ने पूछा- ‘क्यों?’

बदायूंनी ने कहा- ‘मैं चाहता हूं कि मेरी काली दाढ़ी और मूंछें निष्ठा के लहू से रंग जाएं। आपकी बंदगी जोखिम भरी है, फिर भी मैं करना चाहता हूँ। ताकि मैं प्रसिद्धि पा सकूं, या मर सकूं। आपके खातिर।’

बादशाह ने खुश होकर कहा- ‘खुदा ने चाहा तो तुम फतेह की खबर लेकर लौटोगे।’

बादशाह की यह बात सुनकर बदायूंनी ने बादशाह का पैर चूमने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया किंतु बादशाह ने अपना पैर पीछे खींच लिया। बादशाह ने अपने दोनों हाथों में भरकर छप्पन अशर्फियां बदायूंनी को दीं और उसे विदा किया।

मानसिंह, माण्डलगढ़ पहुँचकर लड़ने की तैयारी करने लगा। जब महाराणा को कुंअर मानसिंह के माण्डलगढ़ आने की जानकारी हुई तो महाराणा भी कुम्भलगढ़ से चलकर गोगूंदा आ गया। उसका विचार था कि माण्डलगढ़ पहुँचकर ही मानसिंह पर आक्रमण करे किंतु सरदारों ने कहा कि इस समय कुंवर, अकबर के बल पर आया है इसलिये पहाड़ों के सहारे ही शाही सेना का मुकाबला करना चाहिये।

महाराणा ने इस सलाह को पसंद किया और युद्ध की तैयारी आरम्भ कर दी।

गोगूंदा और खमनौर के बीच अरावली की विकट पहाड़ी श्रेणियाँ स्थित हैं जिनमें नाथद्वारा का विश्वविख्यात मंदिर बना हुआ है। नाथद्वारा से लगभग 13 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में खमनौर गांव स्थित है।

इससे चार किलोमीटर के अंतर पर हल्दीघाटी स्थित है। यहाँ की मिट्टी हल्दी जैसे पीले रंग की है। इस कारण इसे हल्दीघाटी कहते हैं। यहाँ के पत्थरों पर पीली मिट्टी लगने से वे भी पीले दिखाई देते हैं। हल्दीघाटी कुंभलगढ़ की पहाड़ियों में बालीचा गांव से लेकर खमनौर के पास भागल की झौंपड़ियों तक पूरे तीन मील की लम्बाई में फैली है।

इस घाटी का मार्ग बहुत संकरा था किंतु कहीं-कहीं घाटी इतनी चौड़ी थी कि पूरी फौज आराम से निकल जाए। इन चौड़े स्थानों में गांव बसे हुए थे। इसी हल्दीघाटी को मुगलों और गुहिलों के बीच होने वाले युद्ध के लिए चुना गया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

महाराणा प्रताप की सेना (119)

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महाराणा प्रताप की सेना
महाराणा प्रताप की सेना

जब मानसिंह की सेना बनास नदी के तट पर स्थित खमनौर गांव के निकट आकर ठहर गई तब महाराणा प्रताप की सेना ने भी खमनौर से लगभग 10 किलोमीटर दूर आकर अपने खेमे गाढ़ लिए। अब युद्ध अत्यंत निकट दिखाई देने लगा।

कविराज श्यामलदास ने अपने ग्रंथ वीर विनोद में लिखा है कि जब कुंअर मानसिंह को ज्ञात हुआ कि महाराणा प्रताप, कुम्भलगढ़ से निकलकर गोगूंदा आ गया है तो मानसिंह, माण्डलगढ़ से चलकर मोही गांव होते हुए खमनौर के समीप आ गया और उसने हल्दीघाटी से कुछ दूर बनास नदी के किनारे डेरा डाला।

इधर महाराणा भी अपनी सेना तैयार करके गोगूंदा से चला और मानसिंह से तीन कोस अर्थात् लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर आ ठहरा। इस प्रकार हल्दीघाटी के दोनों ओर सेनाएं सजकर बैठ गईं।

गोगूंदा और हल्दीघाटी के बीच स्थित भूताला गांव से लगभग तीन किलोमीटर दूर ‘पोलामगरा’ नामक पहाड़ में बनी गुफा में महाराणा ने अपना राजकोष एवं शस्त्रागार स्थापित किया ताकि संकट काल में, मेवाड़ का कोष एवं आपातकालीन शस्त्रागार, शत्रु की दृष्टि से छिपा हुआ रह सके।

महाराणा नहीं चाहता था कि ये दोनों चीजें किसी भी हालत में शत्रु के हाथों में जाएं। इसलिए इस गुफा की रक्षा का भार महाराणा प्रताप के कुंवर अमरसिंह को दिया गया। अमरसिंह की सहायता के लिये सहसमल एवं कल्याणसिंह को नियुक्त किया गया। भामाशाह का पुत्र जीवाशाह तथा झाला मान का पुत्र शत्रुशाल भी अमरसिंह की सेवा में नियत किये गये।

यद्यपि आम्बेर के कच्छवाहे और बीकानेर के राठौड़, गुहिलों से दोस्ती तोड़ चुके थे तथापि महाराणा के शेष बचे मित्र, महाराणा के लिये मरने-मारने को तैयार थे। ग्वालियर के स्वर्गीय राजा विक्रमादित्य का पुत्र राजा रामशाह तंवर, अपने पुत्रों शालिवाहन, भवानीसिंह तथा प्रतापसिंह को साथ लेकर महाराणा की ओर से लड़ने के लिये आया।

भामाशाह और उसका भाई ताराचंद ओसवाल भी अपनी सेनाएं लेकर आ गये। झाला मानसिंह सज्जावत, झाला बीदा (सुलतानोत), सोनगरा मानसिंह अखैराजोत, डोडिया भीमसिंह, रावत कृष्णदास चूण्डावत, रावत नेतसिंह सारंगदेवोत, रावत सांगा, राठौड़ रामदास, मेरपुर का राणा पुंजा, पुरोहित गोपीनाथ, पुरोहित जगन्नाथ, पडिहार कल्याण, बच्छावत महता जयमल, महता रत्नचंद खेतावत, महासानी जगन्नाथ, राठौड़ शंकरदास, सौदा बारहठ के वंशज चारण जैसा और केशव आदि भी आ गये।

इनमें से बहुत से वीरों के पूर्वज महाराणा सांगा के साथ खानवा के मैदान में लड़ते हुए काम आए थे। बहुतों के बाप-दादे कुछ वर्ष पहले ही चित्तौड़ के साके में वीरगति को प्राप्त हुए थे। हकीम खाँ सूरी भी मुगलों की सेना से लड़ने के लिये राणा की सेना में सम्मिलित हुआ क्योंकि अकबर के पूर्वजों ने भारत से अफगानों की राज्यशक्ति समाप्त की थी।

मेवाड़ की ख्यातों में मानसिंह के साथ 80,000 और महाराणा के साथ 20,000 सवार होना लिखा है। मुहणोत नैणसी ने अपनी ख्यात में कुंवर मानसिंह के साथ 40,000 और महाराणा प्रतापसिंह के साथ 9-10 हजार सवार होना बताया है।

अल्बदायूंनी (मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी) ने जो कि इस लड़ाई में मानसिंह के साथ था, मानसिंह के पास 5,000 और महाराणा के पास 3,000 सवार होना लिखा है।

आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव के अनुसार मेवाड़ी सेना में 3,000 से अधिक घुड़सवार और कई सौ भील प्यादों से अधिक नहीं थे। मेवाड़ की छोटी सी सेना के अगले दस्ते में लगभग 800 घुड़सवार थे और यह दस्ता हकीम खाँ सूर, भीमसिंह डोडिया, जयमल के पुत्र रामदास राठौड़ तथा कुछ अन्य वीरों की देख-रेख में रखा गया था।

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उसके दायें अंग में 500 घुड़सवार थे और ये ग्वालियर के रामशाह तंवर एवं भामाशाह की अधीनता में थे। इस सेना का बायां अंग झाला ‘माना’ की अधीनता में था और बीच के भाग की अध्यक्षता स्वयं महाराणा के हाथ में थी। पुंजा के भील तथा कुछ सैनिक इस सेना के पिछले भाग में नियुक्त किये गये थे। महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपनी पुस्तक उदयपुर राज्य का इतिहास में लिखा है कि युद्ध छिड़ने से कुछ दिन पहले कुंवर मानसिंह अपने कुछ साथियों के साथ निकटवर्ती जंगल में शिकार खेलने गया। महाराणा प्रताप के गुप्तचरों ने उसे देख लिया तथा उन्होंने यह सूचना महाराणा को दी। इस पर मेवाड़ के कुछ सामंतों ने महाराणा प्रताप को सलाह दी कि इस अच्छे अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिये और शत्रु को मार देना चाहिये परन्तु महाराणा ने, उत्तर दिया कि इस तरह छल और धोखे से शत्रु को मारना क्षत्रियों का काम नहीं है। राजेन्द्रशंकर भट्ट ने अपनी पुस्तक ‘उदयसिंह, प्रतापसिंह, अमरसिंह, मेवाड़ के महाराणा और शांहशाह अकबर’ में लिखा है कि वि.सं.1633 ज्येष्ठ सुदि द्वितीया  अर्थात् 18 जून 1576 को हल्दीघाटी और खमनौर के बीच, दोनों सेनाओं का भीषण युद्ध आरम्भ हुआ। कुंअर मानसिंह मोलेला में ठहरा हुआ था।

लड़ाई के दिन बहुत सवेरे वह अपने 6000 जवानों के साथ आगे आया और युद्ध के लिये पंक्तियां संगठित कीं। सैयद हाशिम बारहा के नेतृत्व में 80 नामी युवा सैनिक सबसे आगे खड़े किये गये।

उसके बाद सेना की मुख्य अग्रिम पंक्ति थी जिसका संचालन आसफ खाँ और राजा जगन्नाथ कर रहे थे। दक्षिण पार्श्व की सेना, सैयद अहमद खाँ के अधीन खड़ी की गई। बारहा के सैयद, युद्ध कौशल और साहस के लिये प्रसिद्ध थे इसलिये इन्हें सेनापति के दाहिनी ओर खड़ा किया जाता था।

बाएं पार्श्व की सेना गाजी खाँ बदख्शी तथा लूणकरण कच्छवाहा की देख-रेख में खड़ी की गई। मानसिंह स्वयं इनके बीच में, समस्त सेना के मध्य में रहा। मानसिंह के पीछे मिहतर खाँ के नेतृत्व में सेना का पिछला भाग था। इसके पीछे एक सैनिक दल माधोसिंह के नेतृत्व में आपात स्थिति के लिये सुरक्षित रखा गया। हाथी अगल-बगल किंतु पीछे की ओर खड़े किये गये थे।

दूसरी ओर महाराणा प्रताप की सेना के हरावल का नेतृत्व हकीम खाँ सूर के हाथ में था। उसकी सहायता के लिये सलूम्बर का चूण्डावत किशनदास, सरदारगढ़ का डोडिया भीमसिंह, देवगढ़ का रावत सांगा तथा बदनोर का रामदास नियुक्त किये गये।

दक्षिण पार्श्व में राजा रामशाह तोमर, उसके तीन पुत्र एवं अन्य चुने हुए वीर रखे गये। भामाशाह तथा ताराचंद, दोनों भाई भी यहीं नियुक्त किये गये। वाम पार्श्व झाला मानसिंह के अधीन था। उसकी सहायता के लिये सादड़ी का झाला बीदा तथा सोनगरा मानसिंह नियुक्त किये गये।

महाराणा प्रताप अपनी सेना के ठीक बीच में था। सबसे पीछे पानरवा का राणा पूंजा, पुरोहित गोपीनाथ, जगन्नाथ, महता रत्नचंद, महसानी जगन्नाथ, केशव तथा जैसा चारण नियुक्त किये गये। ज्ञातव्य है कि महता, पुरोहित एवं चारण विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये सेना के साथ रहते थे किंतु समय आने पर तलवार उठाने में भी पीछे नहीं रहते थे।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

मानसिंह की दुविधा (120)

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मानसिंह की दुविधा

अकबर ने मानसिंह को महाराणा प्रताप पर आक्रमण करने भेज तो दिया था किंतु मानसिंह की दुविधा ने मानसिंह को महाराणा पर आक्रमण करने से रोक दिया। महाराणा ने मानसिंह की दुविधा को समझ कर पहला आक्रमण अपनी ओर से करने का निश्चय किया।

जून 1576 में मुगल बादशाह अकबर का सेनापति कुंअर मानसिंह तथा मेवाड़ का महाराणा प्रतापसिंह हल्दीघाटी के दोनों ओर अपनी-अपनी सेनाओं के साथ पहुंच गए ताकि दोनों पक्षों में सन्मुख युद्ध के पश्चात् जीत-हार का निर्णय हो सके।

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18 जून 1576 को सेनाएं सजा लेने के बाद दोनों पक्ष एक दूसरे की सेनाओं द्वारा पहल किए जाने की प्रतीक्षा करने लगे। कुंअर मानसिंह निश्चय ही वीर योद्धा था और वह अकबर की सेनाओं के साथ हल्दीघाटी में मरने-मारने के लिए आया था। उसने इस युद्ध से पहले भी बड़े-बड़े सूरमाओं को परास्त किया था, फिर भी महाराणाओं के इतिहास में कुछ ऐसा जादू था कि मानसिंह की हिम्मत आगे बढ़कर आक्रमण करने की नहीं हुई। मानसिंह की दुविधा के कई कारण थे। मानसिंह जानता था कि प्रताप के भील सैनिक हर पहाड़ी पर तीर-कमान लिये बैठे हैं, यदि मानसिंह अपने स्थान से हिला तो उसके सैनिक बात की बात में मार दिये जायेंगे। इसलिये वह चाहता था कि महाराणा प्रताप, मानसिंह पर आक्रमण करने की पहल करे और मानसिंह के घुड़सवारों तथा हाथियों की सेना के जाल में फंस जाये। यह पहाड़ी क्षेत्र था जिसमें अकबर की तोपें अधिक कारगर सिद्ध नहीं हो सकती थीं। इसीलिये भालों से लड़ने वाले गुहिलों और भीलों के विरुद्ध तलवारों से लड़ने वाले कच्छवाहों को भेजा गया था। मानसिंह की दुविधा का एक कारण यह भी था कि वह अपने पुराने स्वामियों के बल को भूला नहीं था, इसलिये आगे बढ़कर आक्रमण करने की भूल कदापि नहीं कर सकता था।

मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी ने अपनी पुस्तक मुंतखब उत् तवारीख में लिखा है कि युद्ध आरम्भ होने से पहले मैंने खुदा से प्रार्थना की-

‘ए खुदा, जो आप में यकीन करने करते हैं

आप उन नर-नारियों को क्षमा करें।

जो मुहम्मद के दीन की रक्षा करता है, उसकी आप रक्षा करें।

जो मुहम्मद के मजहब की रक्षा नहीं करता,

उसकी आप रक्षा मत करें।

मुहम्मद आपको शांति प्राप्त हो!’

उधर मानसिंह की दुविधा बढ़ती जा रही थी और इधर महाराणा प्रताप अपनी भूमि पर शत्रु की सेना को पंक्तिबद्ध हुआ देखकर क्रोध से उबल रहा था। वह शत्रु के विरुद्ध तत्काल कार्यवाही करने को उत्सुक था। जब मानसिंह अपने स्थान से नहीं हिला तो प्रतापसिंह ने आगे बढ़कर धावा बोलने का निर्णय लिया।

सूर्यदेव, आकाश की मुंडेर पर चढ़कर हल्दीघाटी में हो रही हलचल को देखने का प्रयास कर ही रहे थे कि अचानक हल्दीघाटी में ‘हर-हर महादेव’ का घोष हुआ और प्रताप की सेना, मानसिंह की सेना की तरफ दौड़ पड़ी।

भाले चमक उठे और बख्तरबंदों की जंजीरें खनखना उठीं। रणभेरी बजने लगी और घोड़ों ने जोर से हिनहिनाना आरम्भ कर दिया। हाथी भी अपनी विकराल सूण्डें उठाकर चिंघाड़ उठे।

महाराणा अपनी मातृभूमि को शत्रुओं से रहित करने के लिये अपना भाला उठाये, म्लेच्छ सेना का काल बनकर दौड़ पड़ा था। आकाश में मण्डराती चीलों, अरावली की टेकरियों पर डेरा जमाये बैठे गिद्धों तथा पेड़ों के झुरमुट में छिपे सियारों, जंगली कुत्तों तथा भेड़ियों में भी उत्साह का संचरण हो गया।

अभी मानसिंह के सिपाही भौंचक्के होकर स्थिति को समझने का प्रयास कर ही रहे थे कि राणा के योद्धा एकाएक मानसिंह की सेना पर आक्रमण करने लगे। जिस प्रकार मेघ समूह जल की वर्षा करते हैं, उसी प्रकार उन योद्धाओं ने शत्रुदल पर तीरों, तलवारों, भालों एवं परशुओं की वर्षा कर दी।

जिस प्रकार सिंह महान हाथी को मारने की इच्छा रखता है, उसी प्रकार प्रताप पक्ष के योद्धाओं के प्रताप को देखकर राजा मान ने अपनी सेना को, युद्ध के लिये ललकारा। दिन निकलने के कोई तीन घण्टे बाद, प्रताप की सेना का हाथी मेवाड़ का केसरिया झण्डा फहराता हुआ घाटी के मुहाने में से निकला।

उसके पीछे सेना की अग्रिम पंक्ति थी जिसका नेतृत्व हकीम खाँ सूरी कर रहा था। रणवाद्य अर्थात् रणभूमि में बजने वाले बाजे तथा चारण गायक मिलकर वातावरण को बड़ा उत्तेजक बनाये हुए थे।

महाराणा की सेना का आक्रमण आरम्भ हुआ जानकर मानसिंह की दुविधा खत्म हो गई। अब तलवार चलाने का समय आ गया था। राणा ने मुगल सेना पर सीधा आक्रमण किया। उस समय मुगलों की सेना, हल्दीघाटी के प्रवेश स्थान की पगडण्डी के उत्तर-पश्चिम के मैदान में लड़ने के लिये खड़ी थी जो अब बादशाह का बाग कहलाता है।

राणा का आक्रमण इतना जबर्दस्त था कि मुगलों के आगे की सेना का अगला और बायें अंग का दस्ता दोनों के दोनों तितर-बितर हो गये और उनका दाहिना एवं बीच का दस्ता संकट में पड़ गये।

राणा की सेना बहुत छोटी थी। उसके पास न तो कोतल सेना थी और न अल्तमश (मध्यसेना का अग्रिम भाग) था जो उसकी आरम्भिक सफलता का लाभ उठाता। अतः राणा ने शत्रु के मध्य की सेना तथा बायें अंग की सेना को हराने के लिये हाथियों से प्रहार किया क्योंकि दूसरी ओर से आते हुए तीर और गोलियों ने सिसोदियों को बहुत क्षति पहुँचाई थी।

देवीलाल पालीवाल द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘हल्दीघाटी युद्ध’ में जदुनाथ सरकार के आलेख ‘हल्दीघाटी की लड़ाई’ में लिखा है कि इस प्रकार पहली मुठभेड़ में महाराणा प्रताप ने मुगल सेना पर अपनी धाक बना ली। मुगल सैनिक, बादशाही बाग के उत्तर-पूर्व में हल्दीघाटी के बाहरी सिरे पर जमा हो गये।

जदुनाथ सरकार ने लिखा है कि महाराणा ने आनन-फानन में मुगलों पर दूसरे आक्रमण की योजना बनाई और अपने हाथी लोना को आगे का रास्ता साफ करने के लिये भेजा। लोना को देखकर मुगलों की सेना में दहशत फैल गई तथा मुगल सैनिक उसके लिए रास्ता छोड़कर भागने लगे।

लोना का आक्रमण रोकने के लिये मुगलों ने गजमुक्ता नामक विकराल हाथी को आगे बढ़ाया। पहाड़ की आकृति वाले इन दो हाथियों के प्रहार से सैनिकों में आतंक छा गया। मुगलों का हाथी घायल होकर गिरने ही वाला था कि इसी समय राणा के हाथी के महाबत को मुगल सैनिकों ने गोली मार दी।

इस पर राणा का हाथी लौट गया तथा ग्वालियर नरेश रामशाह तंवर के पुत्र प्रतापशाह तंवर ने रामप्रसाद नामक हाथी आगे बढ़ाया। इस हाथी का मुकाबला करने के लिये मुगलों ने गजराज तथा रणमदार नामक दो हाथी आगे बढ़ाये।

मुगलों द्वारा रामप्रसाद के महाबत को भी मार डाला गया। जैसे ही महाबत धरती पर गिरा, मुगल सेना के हाथियों का फौजदार हुसैन खाँ अपने हाथी से रामप्रसाद पर कूद गया।

यह राणा की सेना का प्रसिद्ध हाथी था। उसे मुगलों ने बंदी बना लिया। उसके बंदी होते ही हाथियों की लड़ाई समाप्त हो गई तथा मुगल सेना एवं मेवाड़ी सेना के योद्धाओं ने आगे बढ़कर निकट युद्ध आरम्भ किया।

       -डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

चेतक हल्दीघाटी में चक्कर काटने लगा! (121)

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चेतक हल्दीघाटी में चक्कर काटने लगा!

जब महाराणा प्रताप अपने प्रिय अश्व चेतक पर बैठकर युद्धक्षेत्र में प्रकट हुआ तब शत्रुओं की परवाह किए बिना चेतक हल्दीघाटी में चक्कर काटने लगा।

18 जून 1576 को हल्दीघाटी का युद्ध आरम्भ होते ही दोनों पक्षों के हाथी अपनी-अपनी सेना के आगे आकर एक दूसरे पर जोर-आजमाइश करने लगे। मुगल पक्ष के सैनिकों ने महाराणा के हाथियों के महावतों को बंदूकों की गोलियों से छलपूर्वक मार डाला तथा महाराणा के प्रसिद्ध हाथी रामप्रसाद को पकड़ लिया।

यदि महाराणा प्रताप के सैनिक चाहते तो वे भी अकबर की सेना के हाथियों एवं उनके महावतों को गोली मार सकते थे। इस समय हाथियों की लड़ाई हो रही थी इसलिए हाथियों अथवा उनके महावतों को सैनिकों द्वारा गोली मारना अनैतिक कार्य था किंतु मुगल पक्ष के सैनिकों ने नैतिकता की परवाह किए बिना, महाराणा के हाथियों एवं महावतों को गोली मार दी।

महामहोपध्याय गौरी शंकर हीराचंद ओझा ने उदयपुर राज्य का इतिहास में लिखा है कि दोनों सेनाओं के मस्त हाथी अपनी-अपनी फौज में से निकलकर एक दूसरे से खूब लड़े और हाथियों का दरोगा हुसैन खाँ, जो मानसिंह के पीछे वाले हाथी पर सवार था, हाथियों की लड़ाई में सम्मिलित हो गया।

इस समय मानसिंह ने महावत की जगह बैठकर बहुत वीरता दिखाई। मानसिंह के जवान अंगरक्षक बहादुरों ने भी बड़ी वीरता दिखाई। ओझाजी ने लिखा है कि इस दिन से मानसिंह के सेनापतित्व के सम्बन्ध में मुल्ला शीरी का यह कथन ‘हिन्दू इस्लाम की सहायता के लिये तलवार खींचता है’, चरितार्थ हुआ।

मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी ने मुंतखत उत् तवारीख में लिखा है कि मुसलमानों ने बिना सोचे-विचारे कि राजपूत उनके पक्ष के हैं अथवा राणा के, उन पर तीर तथा गोलियां बरसाना आरम्भ कर दिया। राजा रामशाह तंवर, महाराणा प्रताप की सुरक्षा करता हुआ महाराणा के ठीक आगे चल रहा था, उसे जगन्नाथ कच्छवाहा ने मौत के घाट उतार दिया।

जगन्नाथ कच्छवाहा ने जयमल के पुत्र रामदास राठौड़ को भी मार डाला। जब जगन्नाथ अपने जीवन का बलिदान देने वाला ही था कि मुगल सेना का इल्तमश आ गया। मुगल सेना में मध्य स्थान के अग्रगामी संरक्षक दल को इल्तमश कहते थे। अर्थात् वह सैनिक टुकड़ी जो हरावल के ठीक पीछे रहकर हरावल की पीठ मजबूत करती थी।

अबुल फजल ने अकबरनामा में लिखा है कि सैयद हाशिम घोड़े से गिर गया किंतु सैयद राजू ने उसे फिर से घोड़े पर बैठा दिया। गाजी खाँ बदख्शी आगे बढ़ा और आक्रामक युद्ध में सम्मिलित हो गया।

मुल्ला बदायूंनी ने लिखा है- ‘युद्ध-क्षेत्र की भूमि ऊँची-नीची, रास्ते टेढ़े-मेढ़े और कांटों वाले होने के कारण हमारी सेना के हरावल में गड़बड़ी मच गई, जिससे हमारी हरावल की पूरी तौर से हार हुई।

हमारी सेना के राजपूत, जिनका मुखिया राजा लूणकरण था और जिनमें से अधिकतर वामपार्श्व में थे, भेड़ों के झुण्ड की तरह भाग निकले और हरावल को चीरते हुए अपनी रक्षा के लिये दक्षिणपार्श्व की तरफ दौड़े।

इस समय मैंने अर्थात् अल्बदायूंनी ने, जो कि हरावल के खास सैन्य के साथ था, आसफ खाँ से पूछा कि ऐसी अवस्था में हम अपने और शत्रु के राजपूतों की पहचान कैसे करें?

आसफ खाँ ने उत्तर दिया कि तुम तो तीर चलाये जाओ, चाहे जिस पक्ष के आदमी मारे जावें, इस्लाम को तो उससे लाभ ही होगा। इसलिये हम तीर चलाते रहे। भीड़ ऐसी थी कि हमारा एक भी वार खाली नहीं गया और काफिरों को मारने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ।

इस लड़ाई में बारहा के सैय्यदों तथा कुछ जवान वीरों ने रुस्तम जैसी वीरता दिखाई। दोनों पक्षों के मरे हुए वीरों से रणखेत छा गया।’

मुल्ला बदायूंनी लिखता है-

‘राणा कीका अर्थात् महाराणा प्रताप की सेना के दूसरे हिस्से ने, जिसका संचालक राणा स्वयं था, घाटी से निकलकर काजी खाँ की सेना पर हमला किया जो घाटी के द्वार पर था। चेतक हल्दीघाटी में चक्कर काटने लगा।’

मानसिंह के दरबारी कवि द्वारा लिखित मानप्रकाश नामक ग्रंथ में लिखा है कि इस समय महाराणा प्रताप दो मुख वाले व्यक्ति के समान बड़े वेग से आगे तथा पीछे देखता हुआ युद्ध कर रहा था। महाराणा प्रताप काजी खाँ की सेना का संहार करता हुआ, उसके मध्य तक पहुँच गया, जिससे सब के सब सीकरी के शेखजादे भाग निकले और उनके मुखिया शेख मन्सूर के शरीर में एक तीर ऐसा लगा कि बहुत दिनों तक उसका घाव न भरा। शेख मंसूर शेख इब्राहीम का दामाद था।’

मुल्ला बदायूंनी लिखता है- ‘काजी खाँ मुल्ला होने पर भी कुछ देर तक डटा रहा परन्तु दाहिने हाथ का अंगूठा तलवार से कट जाने पर वह भी अपने साथियों के पीछे भाग गया। ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर के पोते रामशाह तोमर ने, जो हमेशा राणा की हरावल में रहता था, ऐसी वीरता दिखाई, जिसका वर्णन करना लेखनी की शक्ति के बाहर है। मानसिंह कच्छवाहा के राजपूत, जो हरावल के वामपार्श्व में थे, भागे, जिससे आसफ खाँ को भी भागना पड़ा और उन्होंने दाहिने पार्श्व के सैयदों की शरण ली।’

मुल्ला बदायूंनी इस युद्ध में आसफ खाँ के साथ था परंतु आसफ खाँ के भागने के साथ वह अपने भागने का उल्लेख नहीं करता, मुंतखब उत तवारीख का अंग्रेजी अनुवादक टिप्पणी करता है कि मुल्ला बदायूंनी भी अवश्य ही आसफ खाँ के साथ भागा होगा।

मुल्ला बदायूंनी लिखता है- ‘यदि इस अवसर पर सैय्यद लोग टिके न रहते तो हरावल के भागे हुए सैन्य ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी थी कि बदनामी के साथ हमारी हार होती। हमारी फौज पहले हमले में ही भाग निकली थी। वह बनास नदी को पार कर 5-6 कोस तक भागती रही।

इस तबाही के समय मिहतर खाँ अपनी सहायक सेना सहित चंदावल से निकल आया। उसने ढोल बजाया और हल्ला मचाकर फौज को एकत्र होने के लिये कहा। उसकी इस कार्यवाही ने भागती हुई सेना में आशा का संचार कराया जिससे उसके पैर टिक गये।’

मिहतर खाँ ने हल्ला मचाकर क्या कहा, इस विषय में बदायूंनी ने कुछ नहीं लिखा, परंतु अबुल फजल ने अकबरनामा में लिखा है-

‘सरसरी तौर से देखने वालों की दृष्टि में तो राणा की जीत नजर आती थी, इतने में एकाएक शाही फौज की जीत होने लगी, जिसका कारण यह हुआ कि सेना में यह अफवाह फैल गई कि बादशाह स्वयं आ पहुँचा है। इससे बादशाही सेना में हिम्मत आ गई और शत्रु सेना की, जो जीत पर जीत प्राप्त कर रही थी, हिम्मत टूट गई।’

मुल्ला बदायूंनी के इस कथन से अनुमान होता है कि मिहतर खाँ ने सेना को एकत्रित करके उससे कहा होगा कि शहंशाह अकबर स्वयं सेना लेकर आ गया है, इसलिए मुगल सेना को लड़ाई छोड़कर भागने की जरूरत नहीं है। इस प्रकार युद्ध अपने चरम पर पहुँच गया।

अकबर के आने की सूचना से बेखबर चेतक हल्दीघाटी में अब भी एक सिरे से दूसरे सिरे तक चक्कर लगा रहा था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

महाराणा प्रताप का शौर्य (122)

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महाराणा प्रताप का शौर्य

हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप का शौर्य देखते ही बनता था। भारतीय राजा स्वयं युद्ध के मैदान में उतरकर लड़ते थे और अपने सैनिकों तथा सामंतों के समक्ष उच्च आदर्श प्रस्तुत करते थे। महाराणा प्रताप का शौर्य इसी उच्च आदर्श का प्रदर्शन था।

18 जून 1576 को हल्दीघाटी का युद्ध आरम्भ हुआ जिसकी पहल महाराणा प्रताप ने की और वह युद्ध के प्रारंभिक भाग में ही मुगलों पर भारी पड़ गया। महाराणा की सेना के हरावल में हकीम खाँ सूरी की सेना थी जो मुगलों की सेना में धंसकर आगे बढ़ गई।

इस पर महाराणा की सेना का मध्य भाग मुगलों पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ा। मेवाड़ी सेना के इस भाग की अध्यक्षता स्वयं महाराणा प्रताप के हाथों में थी।

यह लड़ाई हल्दीघाटी में आरम्भ हुई थी और लड़ाई का मध्य आते-आते दोनों पक्षों के सैनिक लड़ते-लड़ते रक्ततलाई में पहुंच गये जहाँ युद्ध का तीसरा और सबसे भयानक चरण आरम्भ हुआ।

बड़ी संख्या में सैनिक कट-कट कर मैदान में गिरने लगे। मैदान मनुष्यों, हाथियों एवं अश्वों के कटे अंगों तथा शवों से भर गया और रक्त की नदी बह निकली। रक्त तथा मिट्टी से बनी कीचड़ में पैदल सैनिक तथा घोड़े फिसलने लगे। इस कारण लड़ाई और भी कठिन हो गई।

महाराणा लगातार अपने शत्रुओं को गाजर मूली की तरह काटता हुआ आगे बढ़ रहा था। उसका निश्चय अकबर के सेनापति मानसिंह कच्छवाहे को सम्मुख युद्ध में मार डालने का था।

महाराणा अपने नीले घोड़े पर सवार था जो विश्व-इतिहास में चेटक (चेतक) के नाम से विख्यात है। महाराणा प्रताप को देखते ही मुगल सेना में भगदड़ सी मची जिसके कारण महाराणा प्रताप तेजी से आगे बढ़ता हुआ मानसिंह के हाथी के सामने जा पहुंचा। महाराणा प्रताप का शौर्य देखते ही बनता था।

देवीसिंह मंडावा ने अपनी पुस्तक स्वतंत्रता के पुजारी महाराणा प्रताप में लिखा है कि मुगल अमीर बहलोल खाँ, कच्छवाहा मानसिंह के ठीक आगे उसकी रक्षा करता हुआ चल रहा था। जब महाराणा प्रताप का घोड़ा कुंअर मानसिंह की तरफ बढ़ने लगा तो बहलोल खाँ ने महाराणा प्रताप पर वार करने के लिये अपनी तलवार ऊपर उठायी।

उसी समय महाराणा प्रताप ने अपना घोड़ा बहलोल खाँ पर कुदा दिया तथा उस पर अपना भाला दे मारा जिससे बहलोल खाँ का बख्तरबंद फट गया और बहलोल खाँ वहीं पर मृत्यु को प्राप्त हुआ। इस प्रकार प्रताप का घोड़ा चेटक मुगल सेनापति मानसिंह के हाथी के ठीक सामने पहुँच गया।

महाराणा ने चेटक को चक्कर दिलाकर कुंवर मानसिंह के हाथी के सामने स्थिर किया तथा मानसिंह से कहा कि तुमसे जहाँ तक हो सके, बहादुरी दिखाओ, प्रतापसिंह आ पहुँचा है। इसी के साथ महाराणा प्रताप का शौर्य अपने चरम पर पहुंच गया।

महाराणा के घोड़े ने अपने स्वामी का संकेत पाकर मानसिंह के हाथी की सूण्ड पर अपने दोनों अगले पैर टिका दिये और महाराणा ने मानसिंह पर भाले का भरपूर वार किया परन्तु मानसिंह हाथी के हौदे में झुक गया जिससे महाराणा का भाला उसके कवच में लगा और मानसिंह बच गया।

कुछ लोग मानते हैं कि महाराणा का भाला लोहे के हौदे में लगा जिससे मानसिंह बच गया परन्तु नीचे लिखे एक प्राचीन पद्य के अनुसार भाला बख्तरबंद में लगा था-

      वाही  राण  प्रतापसी  बखतर में बर्छी।

     जाणे झींगरन जाळ में मुँह काढ़े मच्छी।

अर्थात्- महाराणा प्रताप ने मानसिंह के बख्तरबंद में अपनी बर्छी का प्रवेश करवाया। वह इस प्रकार दिखाई देने लगी जैसे कोई मछली किसी जाल के छेद में से मुँह निकाले पड़ी हो!

जब मानसिंह हौदे में गिर पड़ा तो महाराणा प्रताप ने समझा कि मानसिंह मर गया। महाराणा के घोड़े ने अपने दोनों अगले पैर मानसिंह के हाथी की सूण्ड से हटा लिए। इसी समय मानसिंह के हाथी की सूण्ड में पकड़ी हुई तलवार से चेटक का पिछला एक पैर जख्मी हो गया। महाराणा ने मानसिंह को मारा गया समझ कर घोड़े को पीछे मोड़ लिया।

इस युद्ध का उस समय का बना हुआ एक बड़ा चित्र उदयपुर में मौजूद है जो ई.1911 में दिल्ली दरबार के समय आयोजित प्रदर्शनी में रखा गया था। चित्र में हाथी पर बैठे मानसिंह पर महाराणा प्रताप द्वारा भाले का प्रहार करना अंकित है। इस चित्र में महाराणा प्रताप का शौर्य बहुत खूबसूरती से अंकित किया गया है।

रक्ततलाई में चल रहा युद्ध का तीसरा चरण भी महाराणा प्रताप के पक्ष में जा रहा था इसलिये मुगल सेना में भयानक निराशा छा गई और उसके पैर उखड़ने लगे। अचानक मुगल सेना में यह अफवाह फैल गई कि शहंशाह अकबर स्वयं अपनी सेना लेकर आ रहा है।

मुगल सेना जब भी परास्त होने लगती थी या उसमें भगदड़ मच जाती थी, तब मुगल अधिकारियों द्वारा सुनियोजित रूप से मुगल सैनिकों एवं शत्रुपक्ष के सैनिकों में यह अफवाह फैलाई जाती थी कि बादशाह अपनी विशाल सेना लेकर आ पहुँचा है।

इस अफवाह को सुनकर भागते हुए मुगल सैनिक थम जाते थे और दुगुने जोश से लड़ने लगते थे। इस चाल से कई बार, हारी हुई बाजी पलट जाती थी।

हल्दीघाटी के युद्ध में भी जब मुगल सेना में भगदड़ मच गई तो मुगलों की चंदावल सेना के बीच यह अफवाह उड़ाई गई। यह चाल सफल रही तथा भागती हुई मुगल सेना ने पलटकर राणा को घेर लिया। इससे महाराणा के प्राण संकट में आ गये।

अबुल फजल ने लिखा है- ‘अल्लाह की ओर से सहायता आयी, विजय की वायु इस्लाम वालों की आशाओं के गुलाब के पौधों को हिलोरें देने लगी और स्वामिभक्ति में अपने को न्यौछावर करने को उत्सुक लोगों की सफलता की गुलाब-कलियां खिल उठीं।

अहंकार और अपने को ऊँचा मानने का स्वभाव अपमान में बदल गया। सदा-सर्वदा रहने वाले सौभाग्य की एक और नयी परीक्षा हुई। सच्चे हृदय वालों की भक्ति बढ़ गई। जो सीधे-सादे थे, उनके दिल सच्चाई से भर गये।

 जो शंकाएं किया करते थे उनके लिये स्वीकार-शक्ति और विश्वास की प्रातःकालीन पवित्र वायु बहने लगी, शत्रु के विनाश का रात का गहन अन्धकार आ गया। लगभग 150 गाजी रणक्षेत्र में काम आये और शत्रु पक्ष के 500 विशिष्ट वीरों पर विनाश की धूल के धब्बे पड़े।’

महाराणा पर चारों ओर से भयानक प्रहार होने लगे। इस चौथी और अंतिम मुठभेड़ में महाराणा प्रताप के शरीर पर सात घाव लगे, तीन घाव भाले से, एक घाव बंदूक की गोली से तथा तीन घाव तलवारों से। शत्रु उस पर बाज की तरह गिरते थे परंतु वह अपना छत्र नहीं छोड़ता था। वह तीन बार शत्रुओं के समूह में से निकला। संकट की इस घड़ी में महाराणा प्रताप का शौर्य ही उसकी रक्षा कर रहा था।

एक बार जब महाराणा प्रताप सैनिकों की भीड़ में दब कर कुचल जाने ही वाला था कि झाला सरदार मानसिंह तेजी से महाराणा की ओर दौड़ा और महाराणा को इस विपत्ति से निकाल कर ले गया।

आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव, जदुनाथ सरकार तथा वॉल्टर ने इस मेवाड़ी सामंत का नाम झाला बीदा लिखा है जबकि कर्नल टॉड ने इसका नाम झाला मन्ना लिखा है। वस्तुतः झाला मानसिंह को ही झाला बीदा एवं झाला मन्ना के नामों से जाना जाता था।

झाला मानसिंह ने प्रताप के घोड़े पर लगा राजकीय छत्र उतारकर स्वयं अपने घोड़े पर लगा लिया और शत्रुओं को ललकार कर बोला- ‘मैं महाराणा हूँ!’                                              

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

किन्नर अथवा किम्पुरुष – भारतीय साहित्य एवं मूर्तिकला के संदर्भ में !

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किन्नर-अथवा-किम्पुरुष

भारतीय साहित्य, चित्रकला एवं मूर्तिकला में किन्नर अथवा किम्पुरुष अत्यंत प्राचीन काल से उपस्थित हैं। पुराणों में भी किन्नर अथवा किम्पुरुष मौजूद हैं तथा प्राचीन मंदिरों के बार बनी मूर्तियों में प्रुखता के साथ स्थान लिए हुए हैं।

किन्नर (किं नरः) का शाब्दिक अर्थ है- ‘क्या (यह) नर है?’ अर्थात् किन्नर शब्द से ही ऐसा आभास होता है कि किन्नर में नर के होने का संकेत है। साहित्य में किन्नर, शब्द का पर्यायवाची शब्द ‘ किम्पुरुष ’ भी मिलता है।

कुछ पुराणों में मुनि कर्दम के पुत्र इल की कथा मिलती है जिसने माता पार्वती के द्वारा शापित होने पर स्त्री योनि पाई और पार्वती की कृपा से वह अपने जीवन में आधा समय स्त्री बनकर तथा आधा समय पुरुष बनकर जिया। राजा इल के साथ जो सैनिक थे, वे भी माता पार्वती के श्राप से स्त्री हो गए थे किंतु बाद में देवी पार्वती ने उन्हें किन्नरी बनाकर पर्वत पर निवास करने तथा कुछ काल के बाद किम्पुरुषों को पति के रूप में पाने का वरदान दिया। इस प्रकार किन्नर एवं किम्पुरुष जाति अस्तित्व में आई।

रामायण तथा कुमार सम्भव में ‘किन्नर-किन्नरी’ तथा ‘किम्पुरुष-किम्पुरुषी’ शब्दों से सम्बोधित किया गया है। इससे आभास होता है कि इन ग्रंथों के रचयिताओं की दृष्टि में न केवल ‘किन्नर’ और ‘किम्पुरुष’ शब्द पर्यायवाची थे अपितु वे एक ही प्रकार के जीवों पर समान रूप से लागू भी होते थे।

भारतीय साहित्य में मानव तथा अश्व के मिले-जुले शरीर वाले जीव को ‘किन्नर’ माना गया है। इसीलिए उन्हें ‘तुरग-नर’ भी कहा गया है। प्रायः इन्हें ‘अश्वमुखी मानव’ माना जाता है। अर्थात् गले तक मानव के धड़ पर अश्व का मुख। अश्वमुखी यक्षी (किन्नरी) के उल्लेख बौद्ध जातक कथाओं में मिलते हैं। गुप्तकाल तक भारतीय वाङ्मय में प्रायः किन्नर की केवल एक प्रकार की आकृति (अश्वमुखी मानव) की ही कल्पना की गई थी। गुप्तकालीन शिल्पग्रंथ ‘विष्णुधर्माेत्तर पुराण’ में कहा गया है कि किन्नर दो प्रकार के थे- (1) पहले वे जिनके मुख अश्व के और धड़ मानव के थे, (2) दूसरे वे जिनके सिर मानव के और शेष शरीर अश्व के थे-

किन्नराः द्विविधाः प्रोक्ताः नृवक्त्राहयविग्रहाः। नृदेहाश्चाश्ववक्त्राश्च तथान्ये परिकीर्तिताः।।

मुख

विष्णुधर्माेत्तरपुराण में इन दोनों प्रकार के जीवों को किन्नर ही कहा गया है। आगे चलकर कतिपय कोशकारों ने ‘अश्वमुखी मानव’ को किन्नर तथा ‘मानवमुखी अश्व’ को किम्पुरुष कहा-

किंपुरुषः स च अश्वाकारजघनः नराकारमुखः।

किन्नरस्तु अश्वाकारवदनः नराकारजघनः इतितयोर्भेदः।।

कोशकारों ने किन्नर अथवा किम्पुरुष की इस पहचान के पीछे किसी प्रकार का आधार अथवा तर्क प्रस्तुत नहीं किया है।

विष्णुधर्माेत्तर पुराण की रचना गुप्तकाल में हुई किंतु इससे भी बहुत पहले से इन दोनों प्रकार के किन्नरों के अंकन भारतीय मूर्ति कला तथा मृण्मूर्ति कला में होते थे। शुंग कालीन मूर्तियों में इन्हें स्पष्ट देखा जा सकता है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण का शिल्पशास्त्री भारतीय कला में उपलब्ध किन्नरों के दोनों स्वरूपों से परिचित था। इसीलिए उसने उन दोनों का वर्णन किन्नराः द्विविधाः प्रोक्ताः नृवक्त्राहयविग्रहाः। नृदेहाश्चाश्ववक्त्राश्च तथान्ये परिकीर्तिताः।। कहकर उन दोनों स्वरूपों की भिन्नता प्रकट कर दी ।

चूँकि किन्नर और किम्पुरुष शब्द पर्यायवाची थे और पूर्ववर्ती ग्रंथों-रामायण तथा कुमारसम्भव में दोनों शब्दों का प्रयोग एक ही अवसर पर एक ही प्रकार के लिए किया जा चुका था, संभवतः इसीलिए विष्णुधर्माेत्तरपुराण के रचयिता ने उनके दो भिन्न-भिन्न प्रकार बतलाकर भी उन दोनों को किन्नर ही कहा। परवर्ती कोशकारों को साहित्य के इन दो शब्दों (किन्नर अथवा किम्पुरुष) की तथा भारतीय मूर्तिकला में किन्नरों के दो प्रकार की भिन्न आकृतियों के अंकनों की जानकारी थी, इसीलिए उन्होंने एक को ‘किन्नर’ और दूसरे को ‘किम्पुरुष’ कहकर दोनों की भिन्न-भिन्न पहचान सुनिश्चित कर दी और इस प्रकार विष्णुधर्माेत्तर पुराण में उल्लिखित किन्नराः द्विविधाः प्रोक्ताः, की पुष्टि कर दी।

आकृति-भिन्नता के आधार पर इन कोशकारों ने किन्नर और किम्पुरुष में जो भेद बताए हैं उसके पीछे संभवतः पूर्ववर्ती ऐसे साक्ष्यों को ध्यान में रखा होगा जिनमें अश्वमुखी मानव को किन्नर कहा गया है। जातक कथाओं तथा बौद्ध साहित्य में अश्वमुखी यक्षी को किन्नरी भी कहा गया है। इसी आधार पर मोनिअर विलियम्स और गुनवेडेल जैसे विद्वानों ने भी किन्नरों की पहचान अश्वमुखी मानव से की है। चूँकि अश्वमुखी मानव के रूप में किन्नर की पहचान पहले से मानी गई थी, शायद इसीलिए इन कोशकारों ने मानवमुखी अश्व को किम्पुरुष कहकर इन दोनों को अलग-अलग कर दिया। 

‘अश्वमुखी नारी’ तथा ‘पुरुष सवार से संयुक्त मानवमुखी अश्विनी’ के मृण्फलक विभिन्न स्थानों पर पाए गए हैं। मानव पुरुष के साथ अश्वमुखी नारी को अंकित करने वाला एक मृण्फलक बड़ौदा-संग्रहालय में है। मानव सवार को अपनी पीठ पर बिठाए मानवमुखी अश्विनी वाले गोल मृण्फलक कौशाम्बी, मथुरा तथा राजघाट (सभी उत्तर प्रदेश) से मिले हैं।

ऐसा ही एक गोल मृण्फलक रोम (इटली) के राष्ट्रीय संग्रहालय में है। अहिच्छत्रा (उत्तर प्रदेश के बरेली) से भी इसी विषय को अंकित करने वाला एक मृण्फलक मिला है जो गोल न होकर चौकोर है। रजघाट और अहिच्छत्रा के मृण्फलकों को कुछ विद्वान गुप्तकाल का तथा कुछ अन्य शुंगकाल का मानते हैं। इन दो को छोड़कर शेष सभी प्रस्तर तथा मृण्फलक शुंगकाल के माने गए हैं।

प्रस्तर मूर्तिकला तथा मृण्मूर्तिकला के इन फलकों में अश्व की गर्दन के ऊपर एक नारी का कटि से लेकर मुख तक का भाग दिखाई देता है। ये नारियाँ आकर्षक केशसज्जा तथा नाना प्रकार के आभूषणों से अलंकृत दिखायी गयी हैं। उनके हाथों में मालाएँ और दर्पण हैं जो उनकी शृंगार-प्रियता के प्रतीक हैं।

अश्वमुखी नारी (यक्षी) के अंकन भाजा (महाराष्ट्र), साँची (मध्य प्रदेश), मथुरा (उत्तर प्रदेश) तथा बोधगया (बिहार) के उत्कीर्ण शिल्प में और मानवमुखी अश्विनी के अंकन नासिक (महाराष्ट्र), साँची तथा मथुरा के उत्कीर्ण शिल्प में देखे जा सकते हैं। मानवमुखी अश्विनी की पीठ पर मानव सवार भी दिखाया गया है। साँची-शिल्प में कुछ अंकन ऐसे भी मिले हैं जिनमें मानवमुखी अश्व की पीठ पर एक नारी को बैठे दिखाया गया है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

पशु-काठियों के लोकनृत्य

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बाली द्वीप का बारोंग नृत्य

भारतीय संस्कृति में त्यौहारों एवं शादी-विवाहों में विभिन्न पशु-काठियों के लोकनृत्य आोजित किए जाते हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, उड़ीसा एवं तमिलनाडु सहित भारत के विभिन्न प्रदेशों में लकड़ी की घोड़ी बनाकर कच्छी घोड़ी अथवा लिल्ली घोड़ी का नृत्य किया जाता है। गुजरात में घोड़ी के साथ-साथ बैल तथा ऊँट की काठियां बनाई जाती हैं तथा उन्हें विशेष अवसरों पर नचाया जाता है।

पशु-काठियों के लोकनृत्य तथा कठपुतलियों के नृत्य में अंतर होता है। पशु-काठियों के लोकनृत्य में विभिन्न पशुओं की काठियां बनाई जाती हैं तथा उन काठियों को अपने शरीर पर बांधकर लोकनर्तक स्वयं नृत्य करता है जबकि कठपुतलियों के नृत्य में पशु की काठी बहुत छोटी बनाई जाती है जिसे लोकनर्तक अपनी अंगुलि पर धागा बांधकर कठपुतली को नृत्य करवाता है। इसमें कलाकार दर्शक के सामने नहीं आता है।

10वीं शताब्दी ईस्वी में सौराष्ट्र के सागरकांठा क्षेत्र में सूर्यपूजा के अवसर पर लकड़ी के अश्व की सजावट करके उसे नचाया जाता था। जिस प्रकार सूर्यपूजा में अश्व का महत्त्व है, उसी प्रकार शिवपूजा में वृषभ अर्थात् बैल का महत्व है। बहुरूपिये कलाकार भगवान शंकर के वाहन नन्दी (बैल) को काठ तथा बाँस की खपच्चियों से बनाकर और कमर में बाँधकर नाचते हैं।

बैल की काठी को भी कच्छी घोड़ी की भाँति ही रंग-बिरंगे कपड़ों, फूल-मालाओं तथा घण्टियों से सजाया जाता है। बैल की काठी बनाकर और सजाकर नचाने की परम्परा महाराष्ट्र में भी है जहाँ इसे ‘भारुण्ड खेल’ कहते हैं। कलाकार अपनी कमर में नन्दी की काठी बांधकर नृत्य करता है।

गुजरात के बड़ोदरा जिले में आदिवासियों में ऊँटनी नचाने का ‘रास’ (तमाशा) प्रचलित है। इस ऊँटनी का ठाट भी काठ और बाँस से बनाकर रंगीन कपड़ों से सजाया जाता है। ऊँटनी बने नर्तक के पैर में घुँघरू बाँध दिए जाते हैं। इस प्रकार गुजरात में घोड़े, बैल तथा ऊँटनी की कठियां बनाकर नृत्य किया जाता है।

इण्डोनेशिया के हिन्दुओं में भी गुलंगान पर्व के अवसर पर शूकर की आकृति बनाई जाती है और सार्वजनिक रूपों से नचाई जाती है। इस आकृति में एक बड़ा सा काला कपड़ा होता है जिसमें आगे की ओर शूकर का बड़ा सा मुखौटा लगा होता है। इस कपड़े में दो कलाकार थोड़ी दूरी पर एक साथ छिपे रहते हैं, एक मुंह की तरफ तथा दूसरा पूंछ की तरफ। यह शूकर घर-घर जाकर नृत्य का प्रदर्शन करता है। इसे बारोंग कहा जाता है। मान्यता है कि ‘बारोंग’ गलुंगान के पर्व पर धरती से बुरी आत्माओं के सफाए के लिए हर वर्ष धरती पर आता है। इसे लिल्ली घोड़ी का ही एक रूप माना जा सकता है।

इस प्रकार पशु-काठियों के लोकनृत्य भारतीय संस्कृति की अत्यंत प्राचीन परम्परा है जो आज तक विभिन्न रूपों में जीवित है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

लिल्ली घोड़ी

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लिल्ली घोड़ी

लिल्ली घोड़ी भारत का एक प्राचीन लोकनृत्य है जिसे सार्वजनिक समारोहों में खुले मंच पर अथवा लोगों की भीड़ के बीच में सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया जाता है। लिल्ली घोड़ी लोकनृत्य में लोकगीत, लोकाख्यान, लोकवाद्य और लोकसंगीत का अद्भुत सामंजस्य होता है। यह एक सामूहिक नृत्य है जिसमें दो या दो से अधिक नर्तक भाग लेते हैं। कभी-कभी कोई कलाकार अकेले ही इस कला का प्रदर्शन करता है। यह विवाह समारोहों से लेकर होली, दीपावली जैसे पर्वों पर भी आयोजित किया जाता है।

लिल्ली घोड़ी नृत्य के नाम

लिल्ली घोड़ी नृत्य को भारत के विभिन्न प्रांतों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के कुछ भागों में इसे लिल्ली घोड़ी कहा जाता है तथा राजस्थान एवं गुजरात में कच्छी घोड़ी कहा जाता है। ‘लिल्ली’ शब्द ‘लीला’ से बना है जिसका अर्थ है- अभिनय अथवा क्रीड़ा। इस प्रकार लिल्ली घोड़ी का अर्थ हुआ- ‘लीला करने वाली घोड़ी’।

इस लोकनृत्य में कलाकार अपनी कमर पर काठ से बनायी गई एक घोड़ी बांधता है जिसके कारण इसे ‘कट्ठी घोड़ी’ भी कहा जाता है। ‘कट्ठी घोड़ी’ शब्द ही घिसकर ‘कच्छी घोड़ी’ बन गया प्रतीत होता है। राजस्थान में इस लोकनृत्य को ‘धांचा घोड़ी’ अर्थात् नाचने वाली घोड़ी भी कहा जाता है। गोवा में इसे ‘घोड़मोदनी’ अर्थात् मनोरंजन करने वाली घोड़ी कहा जाता है।

उड़ीसा में इस लोकनृत्य का पारम्परिक नाम ‘चैती घोड़ी’ है। चैत्र माह में फसल पकने पर ग्रामवासी इस लोकनृत्य का आयोजन करते हैं, संभवतः इसीलिए इसे चैती घोड़ी कहा जाता है। बुन्देलखण्ड क्षेत्र में इसे ‘दुलदुल’ कहा जाता है। दक्षिण भारत में तमिलनाडु के तंजाउर तथा मदुरई क्षेत्रों में कच्छी घोड़ी लोकनृत्य अत्यन्त लोकप्रिय है। मदुरई में चार स्त्री-पुरुष मिलकर एक साथ कच्छी घोड़ी नृत्य करते हैं जिसे ‘पूर्वीअतम’ या पूर्वीओट्टम कहा जाता है।

लिल्ली घोड़ी का निर्माण

लिल्ली घोड़ी लकड़ी, बाँस, घास और कपड़े से बनाई जाती है। बिना पैरों वाली घोड़ी का एक खोखला ढांचा या पोली काठी बनाई जाती है जिसकी पीठ से लेकर पेट तक आरपार बड़ा गोल छेद रखा जाता है। यह छेद इतना चौड़ा बनाया जाता है कि इसमें से नर्तक पुरुष या स्त्री नीचे से सिर डालकर घुस सके तथा अपना कमर से ऊपर का भाग काठी के ऊपर निकाल सके।

घोड़ी की काठी का बाहरी भाग रंगीन कपड़ों की झूल एवं झालरों से सजाया जाता है। काले रंग की सूतली से पूँछ लगाई जाती है और कपड़े एवं खपच्चियों की सहायता से घोड़ी का मुख बनाया जाता है। घोड़ी के मुख को कपड़े से लपेटकर घोड़ी के अलंकरणों जैसे माला, नकेल, कलँगी आदि से सजाया जाता है। इस घोड़ी के मुख में लगाम भी डाल दी जाती है।

रंगीन बेल-बूटों वाली लम्बी-चौड़ी झूल को घोड़ी की काठी पर डाल दिया जाता है जो नर्तक के पैरों को ढकती हुई भूमि तक लटकती है। नृत्य करते समय नर्तक इस काठी में घुसकर अपना धड़ भाग काठी से ऊपर निकाल लेता है तथा काठी को कसकर अपनी कमर के चारों ओर बाँध लेता है। जब वाद्य बजते हैं तो नर्तक घोड़ी की लगाम अपने हाथों में पकड़कर इस प्रकार हिलाता है जैसे किसी घोड़ी को हांका जाता है।

नृतक अपने दूसरे हाथ में लकड़ी की एक तलवार पकड़े रहता है तथा उसे इस तरह घुमाता रहता है जैसे कोई योद्धा रणक्षेत्र में युद्ध कर रहा हो। इसके बाद नर्तक अपने पैरों पर नृत्य करता हुआ ऐसा अभिनय करता है मानो कोई घोड़ी अपनी पीठ पर घुड़सवार को बिठाकर स्वयं उछल-कूद कर नृत्य कर रही हो। नर्तक के पैरों में बँधे घुँघरू की रुनझुन, ढोल तथा मंजीरे की ध्वनि से मिलकर सम्मोहक वातावरण उत्पन्न करती है।

देशव्यापी परम्परा

लिल्ली घोड़ी अथवा कच्छी घोड़ी से मनोरंजन करने की परम्परा भारत के कई प्रांतों में देखने को मिलती है। उत्तरी भारत में कुछ लोग गांवों में घूम-घूमकर लिल्ली घोड़ी नृत्य दिखाते हैं और उससे अपनी आजीविका चलाते हैं। ग्रामवासी उन्हें अनाज अथवा पैसे देते हैं। विवाह के अवसर पर जनवासे से लड़की के घर तक बारात के आगे-आगे इन सजे-सजाए घोड़ों अथवा घोड़ियों को भाँति-भाँति से दौड़ाया, कुदाया और नचाया जाता है। पहले गांवों में लिल्ली घोड़ी का नृत्य वर्ष में कई बार देखने को मिल जाता था किंतु धीरे-धीरे लोगों में इसके प्रति रुझान कम होता जा रहा है।

राजस्थान में कच्छी घोड़ी लोकनृत्य की परम्परा सर्वाधिक लोकप्रिय है। वहाँ कई पिछड़ी जातियों में इस नृत्य के कलाकार मिलते हैं। राजस्थान में कच्छी घोड़ी के नर्तक योद्धा की वेशभूषा में हाथों में भाला तथा तलवार लेकर घोड़ी का नृत्य करते हैं जिससे उनमें रणवीर होने का भाव प्रकट होता है।

गुजरात में भी कच्छी घोड़ी की परम्परा बहुत लोकप्रिय है। वहाँ प्रायः आदिवासी जातियों के कलाकार इस नृत्य को करते हैं। उत्तरी गुजरात के वडगाम के निकट चांगा गांव में तथा दक्षिण गुजरात के डेडियापाड़ा तालुका के अलमावाड़ी ग्राम में ये आदिवासी कलाकार स्थायी बड़ी संख्या में रहते हैं। ये लोग होली पर कच्छी घोड़ी का नृत्य करने गांव-गांव जाते हैं।

होली माता की मनौती और पूजा में कच्छी घोड़ी, का नृत्य किया जाता है। विवाह के अवसर पर भी बारात के आगे-आगे सजे-सजाए घोड़े-घोड़ी की दौड़ और नृत्य की परम्परा देश के अन्य भागों की भाँति गुजरात में भी पाई जाती है। राजस्थान की भाँति उत्तरी गुजरात में भी घोड़ों के नर्तक योद्धा की वेशभूषा में हाथों में नंगी तलवार लेकर पुत्र-पौत्रों सहित कार्तिक पूर्णिमा को दौड़ते हैं।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

ओरछा के मंदिर एवं महल

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ओरछा के मंदिर एवं महल

ओरछा के मंदिर एवं महल ओरछा राजाओं की भक्ति, शक्ति और स्थापत्य प्रेम के जीवंत प्रमाण हैं। सम्पूर्ण ओरछा नगर पर बुंदेला राजाओं के इतिहास की गहरी छाप है।

ओरछा नगर की स्थापना 15वीं शताब्दी ईसवी में बुंदेला राजा रुद्रप्रताप सिंह जूदेव ने की थी। उस समय दिल्ली पर क्रूर सुल्तान सिकन्दर लोदी का शासन था। राजा रुद्रप्रताप सिंह जूदेव ने सिकंदर लोदी के अत्याचारों का विरोध किया एवं युद्धक्षेत्र में उतरकर भीषण युद्ध किया था। राजा रुद्रप्रताप सिंह देव ने ही ओरछा का किला भी बनवाया था।

सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में जब आगरा पर मुगलों का राज्य हुआ, तब भी ओरछा के राजा अपनी वीरता के लिए पूरे भारत में प्रसिद्ध रहे। जब मुगल बादशाह अकबर ने अपने विद्रोही पुत्र सलीम को समझाने के लिए अपने मित्र अबुल फजल को भेजा था, तब सलीम के कहने पर ओरछा के राजा वीरसिंह बुंदेला ने अबुल फजल की हत्या कर दी। इससे मुगलों एवं बुंदेलों के सम्बन्ध खराब हो गए।

ओरछा नगर में अनेक मंदिर, महल एवं उद्यान बने हुए हैं। बेतवा नदी के किनारे बने एक उद्यान में दो ऊँचे स्तम्भ सावन-भादों कहलाते हैं। नदी के दूसरी तरफ जहांगीर महल, राजमहल, शीशमहल और राय परवीन के महल स्थित हैं।

ओरछा नगर में स्थित राजमहल, रायप्रवीण महल, हरदौल बुंदेला की बैठक, हरदौल बुंदेला की समाधि, जहांगीर महल और उसकी चित्रकारी प्रमुख है।

ओरछा के महल बुंदेला राजाओं की वास्तुकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। महलों के खुले गलियारे, पत्थरों से बनी जालियाँ, पशु-पक्षियों की मूर्तियां, बेल-बूटे बहुत आकर्षक हैं। महल के प्रवेश द्वार पर दो झुके हुए हाथी बने हुए हैं। इस महल का निर्माण वीरसिंह बुंदला ने करवाया था।

राजमहल ओरछा के सबसे प्राचीन स्मारकों में एक है। इसका निर्माण मधुकर शाह बुंदेला ने 17वीं शताब्दी ईस्वी में करवाया था। राजा वीरसिंह जुदेव बुंदेला उन्हीं के उत्तराधिकारी थे। यह महल छतरियों और बेहतरीन आंतरिक भित्तिचित्रों के लिए प्रसिद्ध है। महल में धर्म ग्रन्थों से जुड़ी तस्वीरें भी देखी जा सकती हैं।

यह महल राजा इन्द्रमणि बुंदेला की खूबसूरत गणिका प्रवीणराय की याद में बनवाया गया था। वह अच्छी कवयित्री तथा संगीतज्ञ थी। जब अकबर को प्रवीणराय की सुंदरता के बारे में पता चला तो उसे दिल्ली बुलवाया गया किंतु प्रवीणराय बुंदेला राजा इन्द्रमणि से प्रेम करती थी। वह अकबर से अनुमति लेकर वापस ओरछा लौट आई। प्रवीणराय का दो-मंजिला महल प्राकृतिक उद्यान से घिरा है।

राजमहल के निकट चतुर्भुज मंदिर स्थित है जो ओरछा का मुख्य आकर्षण है। यह मंदिर चार भुजाधारी भगवान विष्णु को समर्पित है। इस मंदिर का निर्माण ओरछा के राजा मधुकरशाह बुंदेला (ई.1554-1591) ने करवाया था। मधुकरशाह बुंदेला की रानी गणेश कुंवरि के महल में रामराजा सरकार विराजमान हैं, उसी को रामराजा मंदिर कहा जाता है।

ओरछा के राजाओं ने पालकी महल के निकट फूलबाग का निर्माण करवाया। फूलों का यह उद्यान चारों ओर पक्की दीवारों से घिरा है। यह उद्यान बुंदेला राजाओं का विश्रामगृह था। फूलबाग में एक भूमिगत महल और आठ स्तम्भों वाला मंडप है। यहाँ के चंदन कटोर से गिरता पानी झरने के समान दिखाई देता है।

राजा जुझार सिंह बुंदेला के पुत्र धुरभजन बुंदेला ने भी एक सुन्दर महल बनवाया था। धुरभजन की मृत्यु के बाद उन्हें संत के रूप में जाना गया। अब यह महल क्षतिग्रस्त अवस्था में है।

ईस्वी 1622 में वीरसिंह जुदेव बुंदेला ने लक्ष्मीनारायण मंदिर बनवाया। यह मंदिर ओरछा गांव के पश्चिम में एक पहाड़ी पर बना है। मंदिर में सत्रहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के भित्तिचित्र बने हुए हैं। चित्रों के चटकीले रंग आज भी अच्छी दशा में हैं। मंदिर में झांसी की लड़ाई के दृश्य और भगवान कृष्ण की आकृतियां भी बनी हुई हैं।

ईस्वी 1742 तक झांसी भी ओरछा राज्य में था किंतु मराठा सेनापति नारोशंकर मोतिवाले ने ओरछा पर हमला करके ओरछा नरेश पृथ्वीसिंह बुंदेला को बंदी बना लिया तथा अलग झांसी राज्य बनाया। ईस्वी 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में जिस प्रकार झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों से युद्ध किया था उसी प्रकार ओरछा की महारानी ने भी अंग्रेजों से युद्ध किया था। ओरछा झांसी से 15 किलोमीटर की दूरी पर है।

ओरछा में बेतवा नदी सात धाराओं में बंटती है, जिसे सतधारा कहते हैं। ओरछा में वन्यजीवों के सरंक्षण के लिए एक अभयारण्य स्थापित किया गया है जो लगभग 45 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

ओरछा के रामराजा सरकार

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ओरछा के रामराजा सरकार

ओरछा के रामराजा सरकार रानी गणेश कुंविर के पुत्र माने जाते हैं। रानी गणेश कुंवरि ने भगवान राम को पुत्र के रूप में पूजा और उन्हें अपना पुत्र बनाकर अयोध्या से ओरछा ले आईं! यह ऐतिहासिक घटना सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में घटित हुई।

भगवान के करोड़ों-करोड़ भक्तों ने भगवान को अपनी-अपनी आस्था के रूप में पूजा और पाया है। सांस्कृतिक परम्पराओं के प्रभाव के कारण हिन्दू महिलाओं में वात्सल्य एवं भक्ति दोनों ही प्रकार के भाव संसार की अन्य महिलाओं की अपेक्षा अधिक होते हैं। इसलिए हिन्दू महिलाओं में भावुकता की भी अधिकता होती है। कई बार यह भावुकता ऐसे अनोखे कार्य करवा देती है जो किसी प्रकार के बुद्धिबल, बाहुबल एवं धनबल से किए जाने संभव नहीं है।

ऐसी ही एक अनोखी घटना आज से चार सौ साल पहले ओरछा में घटित हुई थी जब ओरछा की रानी गणेश कुंवरि अयोध्या के राजा रामचंद्र को अपना पुत्र बनाकर ओरछा ले आई थीं। पुत्र होने के कारण राम ही ओरछा के राजसिंहासन पर बैठे तथा उन्हें ओरछा के रामराजा सरकार के नाम से जाना गया। इस घटना के पीछे एक अनोखा इतिहास छिपा हुआ है।

मधुकरशाह बुंदेला ईस्वी 1554 से 1592 तक ओरछा का राजा था। कहा जाता है कि एक दिन राजा मधुकरशाह बुंदेला ने अपनी रानी गणेश कुंवरि राजे से वृंदावन चलने को कहा किंतु रानी ने अयोध्या जाने के लिए कहा। राजा ने पुनः वृंदावन जाने की इच्छा व्यक्त की किंतु रानी ने अयोध्या जाने की जिद पकड़ ली। इस पर राजा मधुकरशाह ने झुंझलाकर कहा कि यदि तुम इतनी ही रामभक्त हो तो जाकर अपने राम को ओरछा ले आओ।

राजा के ऐसा कहने पर ओरछा की रानी गणेश कुंवरि भगवान को लाने के लिए अयोध्या चली गईं। उन्हें पूरा विश्वास था कि भगवान राम उनकी प्रार्थना स्वीकार कर लेंगे तथा राजा के सामने उनकी बात नहीं गिरेगी।

उन दिनों संत तुलसीदास भी अयोध्या में साधनारत थे। रानी गणेश कुंवरि ने तुलसीदासजी के दर्शन किए तथा उनसे आशीर्वाद लेकर सरयू नदी के किनारे स्थित लक्ष्मण टीले के निकट कुटी बनाकर साधना करने लगीं।

रानी ने भगवान राम से प्रार्थना की कि जिस तरह वे कौसल्या के पुत्र बनकर अयोध्या में रहे, उसी तरह वे मेरे पुत्र बनकर ओरछा चल कर रहें। रानी को कई महीनों तक रामराजा के दर्शन नहीं हुए। एक दिन जब रानी ने स्नान करते समय सरयू नदी में डुबकी लगाई तो नदी के तल में उन्हें रामराजा के एक विग्रह के दर्शन हुए। रानी ने भगवान से कहा कि वे मेरे पुत्र बनकर ओरछा चलें। रामराजा ने दो शर्तों पर ओरछा चलना स्वीकार किया। पहली शर्त यह थी कि अयोध्या से ओरछा तक पैदल यात्रा करनी होगी। दूसरी शर्त यह थी कि यात्रा केवल पुष्य नक्षत्र में होगी।

रानी ने भगवान की दोनों बातें शिरोधार्य कर लीं तथा ओरछा महाराज मधुकरशाह बुंदेला को संदेश भेजा कि वे रामराजा को लेकर ओरछा आ रहीं हैं। राजा मधुकरशाह बुंदेला ने रामराजा के लिए चतुर्भुज मंदिर का निर्माण करवाना आरम्भ किया।

जब रानी ओरछा पहुंची तो उन्होंने यह मूर्ति अपने महल की भोजनशाला में रखवा दी ताकि किसी शुभ मुर्हूत में रामाजा की प्रतिमा को चतुर्भुज मंदिर में रखकर प्राण प्रतिष्ठा की जा सके। जब मंदिर बनकर पूरा हो गया तब रामराजा के विग्रह को मंदिर में प्रतिष्ठित करने हेतु उठाया गया किंतु रामराजा का विग्रह वहाँ से नहीं उठा। मान्यता है कि चूंकि रानी भगवान को अपने पुत्र के रूप में ओरछा लाई थीं, इसलिए भगवान ने अपनी माता का महल छोड़ना स्वीकार नहीं किया।

रामराजा को उसी महल में प्रतिष्ठित रहने दिया गया जहाँ वे आज भी विराजमान हैं। ओरछा के रामराजा सरकार की प्रतिमा मंदिर की ओर मुंह न होकर महल की ओर मुंह किए हुए है। रामराजा के लिए बनाये गये चतुर्भुज मंदिर में आज भी कोई विग्रह नहीं है।

मान्यता है कि संवत 1631 में जिस दिन ओरछा के रामराजा सरकार का आगमन हुआ, उसी दिन गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरित मानस का लेखन प्रारंभ किया। यह भी मान्यता है कि भगवान विष्णु की जो मूर्ति ओरछा के रामराजा के रूप में विद्यमान है वह मूर्ति भगवान राम ने उस समय माता कौशल्या को दी थी, जब भगवान राम वनवास के लिए जा रहे थे। माँ कौशल्या उसी मूर्ति को भोग लगाया करती थीं। कुछ भक्तों की मान्यता है कि जब राम अयोध्या लौटे तो कौशल्याजी ने यह मूर्ति सरयू नदी में विसर्जित कर दी। वही मूर्ति रानी गणेश कुंवरि राजे को सरयू नदी में मिली थी।

वस्तुतः जब मुसलमानों ने अयोध्या पर आक्रमण किया था, उस समय भगवान राम एवं अन्य देवी-देवताओं की सैंकड़ों मूर्तियां सरयू नदी में छिपा दी गई थीं ताकि मुस्लिम आक्रांता उन्हें भंग न कर सकें। आज भी भक्तों को यदा-कदा ये मूर्तियां प्राप्त होती रहती हैं। ऐसी ही एक मूर्ति कुछ साधुओं को मिली थी जो रामलला के रूप में लगभग 80 साल तक रामजन्म भूमि मंदिर में प्रतिष्ठित रही।

ओरछा के रामराजा सरकार का मंदिर विश्व का एकमात्र मंदिर है, जहाँ भगवान राम की पूजा राजा के रूप में होती है तथा राजा की समस्त मर्यादाओं का पालन किया जाता है। ओरछा में रामचंद्रजी को ओरछाधीश तथा रामराजा सरकार भी कहा जाता है। सूर्याेदय एवं सूर्यास्त के समय भगवान को राजा की तरह गार्ड ऑफ ऑनर दिया जाता है।

ओरछा के रामराजा सरकार मंदिर के चारों तरफ हनुमानजी के कई मंदिर हैं जो रामराजा मंदिर के सुरक्षा चक्र के रूप में स्थित हैं। इनमें छडदारी हनुमान, बजरिया के हनुमान, लंका हनुमान आदि प्रमुख हैं। ओरछा में स्थित लक्ष्मी मंदिर, पंचमुखी महादेव, राधिका बिहारी मंदिर भी श्रद्धा के केन्द्र हैं।

ओरछा नगर रामराजा के इसी महल के चारों ओर बसा हुआ है। राम नवमी पर यहाँ देश भर से  हजारों श्रद्धालु आते हैं।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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