Thursday, April 24, 2025
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राजा गणपति का सिर काटकर दाऊद को भिजवाया अकबर ने (113)

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राजा गणपति - www.bharatkaitihas.com
राजा गणपति का सिर काटकर दाऊद को भिजवाया अकबर ने

गाजीपुर के राजा गणपति की रक्षापंक्ति टूट गई तथा मुगल सेना ने पंचपहाड़ के किले घुसकर राजा गणपति का सिर काटकर अकबर को भिजवा दिया। फतह खाँ बारहा का सिर भी काट लिया गया। अकबर ने इन दोनों सिरों को एक नाव में रखकर पटना भिजवा दिया, जहाँ ये सिर बंगाल के सुल्तान दाउद को भेंट किए गए।  

अकबर ने ई.1574 में अपने शासन में कुछ बड़े बदलाव किए। गुजरात के प्रांतपति मुजफ्फर खाँ को आगरा बुलाकर उसे प्रधानमंत्री बना दिया तथा राजा टोडरमल को उसके नीचे वित्तमंत्री बनाया।

मुल्ला बदायूंनी ने लिखा है कि उसी वर्ष अकबर के आदेश से आगरा से अजमेर जाने वाली सड़क पर एक भव्य मदरसा तथा एक ऊंचा एवं भव्य महल बनाया गया ताकि अकबर आगरा से अजमेर जाते समय इस महल में पड़ाव कर सके। अकबर ने आगरा से अजमेर के बीच प्रत्येक एक कोस पर मजबूती से गड़ा एक स्तम्भ लगावाने के आदेश दिए।

ये स्तंभ गोल मीनार की शक्ल में बनाए गए थे जो आधार पर चौड़े तथा शिखर पर पतले थे। इन स्तंभों पर उन हजारों हिरणों, बारहसिंगों एवं अन्य पशुओं के सींग लगवाए गए जिन्हें अकबर तथा उसके अमीरों ने शिकार करके मार डाला था।

ये स्तम्भ वर्तमान समय में सड़कों पर लगाए जाने वाले मील के पत्थर अर्थात् माइलस्टोन की तरह कार्य करते थे। इनमें से अधिकांश स्तंभ अब नष्ट हो चुके हैं। फिर भी कुछ स्तंभ आज भी देखे जा सकते हैं। एक स्तंभ, जब अजमेर की तरफ से जयपुर नगर में प्रवेश करते हैं तो अच्छी अवस्था में खड़ा हुआ है।

इस मीनार पर लगे सींगों के निशान तो अब मिट गए हैं तथा उस पर सीमेंट का प्लास्टर करके भूरे रंग से पोत दिया गया है। मैंने आगरा से जयपुर के बीच में भी अपने बचपन में इनमें से कुछ स्तंभों को देखा था किंतु अब उनमें से एकाध ही दिखाई देता है।

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शहंशाह के आदेश से इन मीनारों अर्थात् स्तंभों के पास कुएं खुदवाये गये। बाद में इन मीनारों के पास उद्यान लगाने एवं यात्रियों के लिये सराय बनाने के भी निर्देश दिये गये। अकबर के आदेश से निर्मित एक विश्राम स्थल आज भी अच्छी अवस्था में खड़ा है। इसी समय अकबर को अपना ध्यान बंगाल में चल रहे अफगान-विद्रोह पर केन्द्रित करना पड़ा। अकबर ने देखा कि खानखाना मुनीम खाँ बंगाल के विद्रोहियों को दबा नहीं पा रहा है तो अकबर ने ई.1574 में राजा टोडरमल को खानखाना मुनीम खाँ की सहायता करने के लिए बंगाल के अभियान पर भेज दिया। कुछ समय बाद बादशाह स्वयं भी अपने दो बड़े बेटों के साथ किश्तियों एवं जहाजों में बैठकर बंगाल के लिए चल दिया। उसकी सेना में इतनी सारी नावें एवं जहाज थे कि उनसे नदिया का जल ढक गया। मुल्ला बदायूंनी ने लिखा है कि जब बादशाह नदी से यात्रा कर रहा था, तब नाविकों ने पक्षियों एवं मछलियों की भाषा में गीत गाए जिन्हें सुनकर हवा की चिड़ियां एवं जल की मछलियां नाचने लगी। ऐसा दृश्य उत्पन्न हो गया जिसका वर्णन करना असंभव है। मार्ग में प्रत्येक दिन शहंशाह नाव से नीचे उतरकर शिकार खेलता, रात को लंगर डाला जाता। तब ज्ञान-विज्ञान की चर्चा एवं शायरी की महफिल होती।

मुल्ला बदायूंनी ने लिखा है- ‘कुछ दिन बाद बादशाह की नावों का काफिला प्रयाग पहुंचा। इसे उन दिनों इलाहाबास कहा जाता था, जहाँ गंगा एवं यमुना का संगम होता था। काफिर लोग इस स्थान को पवित्र मानते हैं। वे इस स्थान पर आकर पुनर्जन्म पाने के लिए अपने बिना दिमाग वाले सिर आरी के नीचे रख देते हैं, कुछ लोग जीभ को दो हिस्सों में फाड़ देते हैं, कुछ ऊँचे दरख्तों से गहरे पानी में कूदकर जहन्नुम को चले जाते हैं।’

मुल्ला लिखता है कि अकबर ने प्रयाग में बड़ी इमारत की नींव रखी तथा शहर का नाम बदलकर इलाहाबास से इलाहाबाद कर दिया। इलाहाबाद से चलकर अकबर पंचपहाड़ी नामक स्थान पर पहुंचा जो पटना से दो-तीन कोस की दूरी पर है। यहाँ खानखाना मुनीम खाँ अकबर की सेवा में उपस्थित हुआ तथा उसने अकबर के समक्ष बहुमूल्य उपहारों के डिब्बे प्रस्तुत किए।

यहाँ से अकबर ने खानखाना को गाजीपुर पर हमला करने भेजा जहाँ का राजा गणपति दो साल से खानखाना को अपने राज्य के निकट नहीं फटकने दे रहा था। अकबर ने खानखाना मुनीम खाँ के साथ तीन हजार घुड़सवार पूरे लाव-लश्कर एवं हथियारों के साथ नावों में सवार करके भिजवाए।

अकबर ने अपने एक अन्य सेनापति खानेआलम को भी बहुत बड़ी सेना देकर मुनीम खाँ की सहायता के लिए भेजा। मुल्ला बदायूंनी लिखता है कि इस सेना में घोड़े-घोड़ियां एवं इंसान इतनी अधिक संख्या में थे कि वे टिड्डीदल की तरह दिखाई देते थे।

खानखाना तथा खानेआलम दोनों ने गाजीपुर को जल एवं थल की तरफ से घेर लिया। दोनों तरफ से जंग शुरू हो गई। शहंशाह ने स्वयं को पानी वाली जंग के निरीक्षण की तरफ अपनी सेनाओं से कुछ दूरी पर रखा। उन दिनों राजा गणपति गाजीपुर का शासक था। वह अपनी सेना लेकर बड़ी बहादुरी से अकबर का सामना करने के लिए डट गया।

जिस दिन जंग आरम्भ हुई उस दिन बहुत कोहरा था इस कारण अकबर को युद्ध का कोई दृश्य दिखाई नहीं दिया। इसलिए अकबर ने दोपहर बाद अपनी कुछ नावें युद्ध के वास्तविक समाचार लेने के लिए भिजवाईं। उसी दिन खानेआलम ने अफगान नेता फतह खाँ बारहा को परास्त कर दिया।

इससे गाजीपुर के राजा गणपति की रक्षापंक्ति टूट गई तथा मुगल सेना ने पंचपहाड़ के किले घुसकर राजा का सिर काटकर अकबर को भिजवा दिया। फतह खाँ बारहा का सिर भी काट लिया गया। अकबर ने इन दोनों सिरों को एक नाव में रखकर पटना भिजवा दिया, जहाँ ये सिर बंगाल के सुल्तान दाउद को भेंट किए गए।

अगले दिन अकबर पटना के किले की स्थिति का अवलोकन करने के लिए पंचपहाड़ी पर चढ़ा। अफगानों ने मरने तक लड़ने का इरादा करके बंदूकें दागना जारी रखा जो अकबर के पड़ाव से तीन कोस की दूरी पर थीं।

मुल्ला बदायूंनी ने लिखा है कि दाऊद के पास बीस हजार घुड़सवार, अनगिनत जंगी हाथी और शक्तिशाली तोपखाना था किंतु वह अकबर की सेना से पराजित हो गया तथा रात के समय नाव में बैठकर बंगाल की राजधानी गौड़ की तरफ भाग गया।

उसका प्रधान सहायक श्रीधर जिसे विक्रमादित्य की उपाधि प्राप्त थी, दाऊद का खजाना एक नाव में रखकर उसके पीछे चला। दाऊद का सेनापति गूजर खाँ कर्रानी दाऊद के हाथियों को लेकर थल मार्ग से भागा।

उसके बहुत से सैनिक डर के मारे दरिया में कूदे और डूबकर मर गए। कुछ सैनिक टुकड़ियों ने पागलों की तरह किले की बुर्ज एवं दीवारों से कूदकर जान दे दी और खाई को लाशों से भर दिया। संकरी तंग गलियों में कुछ आदमी हाथियों के पैरों तले दब कर मर गए।

जब गूजर खाँ कर्रानी हाथियों को लेकर नदी पर बने पुल से निकलने लगा तो पुल टूट गया तथा बहुत से लोग नदी में डूबकर मर गए। शाम के समय अकबर को दाऊद के भाग जाने की सूचना मिली। इस पर अकबर ने पटना नगर में प्रवेश किया।                                        

 -डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

सिवाना दुर्ग पर अकबर ने कब्जा कर लिया (114)

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सिवाना दुर्ग पर अकबर ने कब्जा कर लिया

सिवाना दुर्ग थार मरुस्थल में ऊँची पहाड़ी पर स्थित था। इस दुर्ग को चौदहवीं शताब्दी ईस्वी के आरम्भ में यह जालोर के चौहानों के अधिकार में था। अल्लाऊद्दीन खिलजी ने इसे बहुत मुश्किल से जीता था। जब सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में अकबर ने सिवाना दुर्ग पर आक्रमण किया, तब यह दुर्ग जोधपुर के राठौड़ों के अधिकार में था।

ई.1574 में अकबर ने स्वयं पटना के निकट पंचमहल पहुंचकर बंगाल के सुल्तान दाऊद के विरुद्ध सैनिक अभियान का संचालन किया जिसके कारण दाऊद पटना छोड़कर भाग गया।

इस पर अकबर ने खानखाना मुनीम खाँ को पटना का शासक बना दिया तथा स्वयं गूजर खाँ के पीछे भागा जो दाऊद के हाथियों को लेकर निकल गया था।

अकबर ने घोड़े पर बैठकर ही पनपन नदी पार की ओर पटना से छब्बीस कोस दूर गंगा किनारे दरियापुर पहुंचकर रुक गया। अकबर के घुड़वारों ने गूजर खाँ का पीछा किया।

गूजर खाँ हाथियों के विशाल समूह को हांक कर ले जा रहा था, इस कारण वह बहुत धीमे चल पा रहा था। इस भागमभाग में गूजर खाँ के बहुत से हाथी पीछे छूटते जा रहे थे। अकबर के सैनिक इन हाथियों को पकड़कर इकट्ठा कर रहे थे। इस प्रकार गूजर खाँ के चार सौ हाथी अकबर की सेना द्वारा पकड़ लिए गए।

गूजर खाँ जान बचाकर भागने में सफल रहा किंतु इस भागमभाग में जब गूजर खाँ ने बलभूंडी नामक एक छोटी नदी को पार करने का प्रयास किया तो गूजर खाँ के बहुत से सैनिक नदी में डूबकर मर गए। इस दलदली क्षेत्र में अकबर की सेना भी तेजी से घट रही थी।

इसलिए अकबर ने अपने सैनिकों का वेतन तीन से चार गुना बढ़ा दिया ताकि अकबर के सैनिक अकबर की सेना छोड़कर न भाग जाएं।

इसके बाद अकबर ने पटना आकर दाऊद की इमारतों का अवलोकन किया। मुल्ला बदायूंनी ने लिखा है कि इन इमारतों में एक खास बात थी कि वे छप्परबंद कहलाते थे। प्रत्येक छप्परबंद इमारत तीस या चालीस हजार रुपए की बनती थी। हालांकि वे सिर्फ लकड़ी से ढके हुए थे।

पटना से अकबर जौनपुर तथा बनारस होता हुआ खानपुर आया जहाँ उसने काजी निजाम बदख्शी सूफी से भेंट की तथा उसे रत्नजड़ित तलवार पट्टा और पांच हजार रुपए नगद ईनाम दिया। अकबर ने काजी निजाम बदख्शी को गाजी खान का खिताब दिया तथा उसे तीन हजार का मनसब भी दिया। इसके बाद अकबर टांडा होता हुआ कन्नौज आ गया।

जब अकबर कन्नौज से आगरा जा रहा था और आगरा केवल तीन कोस दूर रह गया था, तब अचानक अकबर ने मार्ग बदल दिया और वह दिल्ली चला गया। दिल्ली में कुछ दिनों तक विभिन्न दरगाहों के दर्शन करते रहने के बाद अकबर अजमेर चला गया। मार्ग में नारनौल नामक स्थान पर हुसैन कुली खाँ अकबर से आकर मिला जिसने नगरकोट के मंदिर को बुरी तरह से तहस-नहस किया था।

इस समय तक खानखाना मुनीम खाँ और राजा टोडरमल ने दाऊद खाँ के नगाड़े छीनकर अकबर के पास भेज दिए थे। अकबर ने वे नगाड़े ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर भेंट कर दिए। जब गुजरात के शासक खानेआजम को बादशाह के अजमेर आने की सूचना मिली तो वह भी अहमदाबाद से अजमेर आकर अकबर से मिला।

मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी लिखता है कि अजमेर में दरगाह पर कव्वाली एवं कलाम गाने वालों पर अकबर ने दिरहमों एवं दीनारों की बरसात कर दी।

अजमेर में अकबर को सूचना मिली कि जोधपुर का अपदस्थ राव चंद्रसेन सिवाना दुर्ग से निकल कर जोधपुर के आसपास मुगल थानों को उजाड़ रहा है तो अकबर ने कई मुगल एवं हिंदू सेनापतियों को राव चंद्रसेन के विरुद्ध कार्यवाही करने भेजा।

चंद्रसेन को सिवाना दुर्ग छोड़कर जंगलों में चले जाना पड़ा। इस पर अकबर ने शाह कुली खाँ महरम तथा जलाल खाँ कुर्ची को सिवाना दुर्ग पर अभियान करने के लिए भेजा। इनमें से शाह कुली खाँ महरम अकबर का रिश्तेदार था और जलाल खाँ अकबर का खास दोस्त था।

चौदहवीं शताब्दी ईस्वी के आरम्भ में अल्लाऊद्दीन खिलजी ने थार मरुस्थल के मध्य में स्थित सिवाना का दुर्ग बहुत लम्बी अवधि तक घेरा रखने के बाद जीता था। तब सिवाना दुर्ग में बड़ा जौहर एवं साका हुआ था। उस समय यह किला चौहानों के अधिकार में था।

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अकबर के समय में मारवाड़ के राठौड़ इस दुर्ग पर शासन करते थे। वास्तव में सिवाना दुर्ग पर अकबर की सेनाओं का अभियान ई.1572 से चल रहा था, जिस समय अकबर ने गुजरात का अभियान आरम्भ किया था। जिला गजेटियर बाड़मेर में लिखा है कि ई.1572 में अकबर ने बीकानेर नरेश रायसिंह को जोधपुर के अपदस्थ राव चंद्रसेन के विरुद्ध भेजा। शाही सेना में मुगल सेनापति शाह कुली खाँ के साथ-साथ केशवदास मेड़तिया, जगतराय तथा राव रायसिंह आदि अनेक वीर हिन्दू शासक भी थे।

राव चन्द्रसेन के भतीजे कल्ला राठौड़ ने सोजत में अकबर की सेना का मार्ग रोका किंतु अकबर की सेना ने कल्ला राठौड़ को पराजित कर दिया तथा अकबर की सेना सिवाना की ओर बढ़ी। राव चंद्रसेन ने सिवाना का दुर्ग अपने सेनापति राठौड़ पत्ता की देख-रेख में छोड़ दिया तथा स्वयं पहाड़ों में चला गया। जब शाही सेना ने सिवाना दुर्ग पर आक्रमण किया तो दुर्ग में स्थित राठौड़ों ने अकबर की सेना से डटकर मुकाबला किया। चंद्रसेन भी पहाड़ों से निकलकर मुगल सेना पर धावे करने लगा। अंत में ई.1574 में रायसिंह, अकबर के पास अजमेर चला गया और उसने अपनी विफलता स्वीकार कर ली।

इस पर अकबर ने तैय्यब खाँ, सैयद बेग तोखई, सुभान कुली खाँ, तुर्क, खुर्रम, अजमल खाँ, शिवदास, एवं अन्य सेनापतियों के साथ एक बड़ी सेना सिवाना के विरुद्ध भेजी। चन्द्रसेन पुनः पहाड़ियों में चला गया जिससे शाही सेना उसे सम्मुख युद्ध में नहीं उतार सकी।

अकबर ने नाराज होकर अपने सेनापतियों को खरी-खोटी सुनाई तथा अगले वर्ष ई.1575 में जलाल खाँ को सिवाना जाने का आदेश दिया तथा उसके साथ सैयद अहमद, सैयद हमिश, शिमाल खाँ तथा अन्य अमीरों को भेजा।

चंद्रसेन ने इस सेना पर मार्ग में ही धावा करने का निर्णय किया परन्तु शत्रु को उसकी योजना का पता चल गया, इस कारण शत्रु ने चन्द्रसेन पर आकस्मिक आक्रमण कर दिया। चंद्रसेन को भारी क्षति उठानी पड़ी। चंद्रसेन ने अपनी सेना का पुनर्गठन किया तथा एक दिन अचानक शत्रु पर आक्रमण करके मुगल सेना के मुख्य सेनापति जलाल खाँ का वध कर दिया।

इस पर अकबर ने शाहबाज खाँ कम्बू को सिवाना अभियान पर भेजा तथा उसे निर्देश दिए कि सिवाना विजय पर ही ध्यान केन्द्रित किया जाए। मार्ग में उसने दुनाड़ा में राठौड़ों को परास्त किया। एकदम धावा बोलकर सिवाना को जीतने में कठिनाई देखकर उसने रसद रोकने की नीति अपनाई तथा लम्बी घेराबंदी के बाद दुर्ग रक्षकों को विवश करके समर्पण करने पर विवश कर दिया।

इस प्रकार अंततः सिवाना का रेगिस्तानी दुर्ग अकबर के अधिकार में चला गया। इसके पश्चात् यह सारा क्षेत्र मुगलों के नियंत्रण में चला गया। इस प्रकार गंगा किनारे स्थित पटना के किले से लेकर थार रेगिस्तान के सिवाना किले तक अकबर का अधिकार हो गया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

जगमाल को चित्तौड़ का दुर्ग सौंप दिया अकबर ने (115)

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जगमाल को चित्तौड़ का दुर्ग सौंप दिया अकबर ने

जिन दिनों अकबर अपने समस्त शत्रुओं पर विजय पाकर अत्यंत शक्तिशाली होकर फतहपुर सीकरी में स्थापित हो चुका था, उन्हीं दिनों मेवाड़ का मेवाड़ के महाराणा प्रताप का बड़रा भाई जगमाल राज्य पाने की लालसा से अकबर की सेवा में पहुंचा।

अकबर के गाजीपुर तथा पटना से लौट आने के बाद भी खानखाना मुनीम खाँ और राजा टोडरमल ने बंगाल के सुल्तान दाऊद खाँ का पीछा करना जारी रखा। राजा टोडरमल ने इस अभियान में बहुत वीरता दिखाई जिसका इतिहास हम आलेख संख्या 37 तथा 73 में विस्तार से बता चुके हैं।

राजा टोडरमल ई.1576 में बंगाल का अभियान पूरा करके फतेहपुर सीकरी लौट आया। उसने अफगानों की सेना से लूटे गए 304 हाथी अकबर को भेंट किए। अकबर इस भेंट को पाकर प्रसन्न हुआ और उसने टोडरमल को तत्काल ही गुजरात के शासक वजीर खाँ की सहायता के लिए भेज दिया तथा टोडरमल की जगह ख्वाजा शाह मंसूर शिराजी को वित्तमंत्री बना दिया।

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जब ई.1577 के अंत में टोडरमल गुजरात में शांति स्थापित करके तथा सैंकड़ों लोगों को बंदी बनकर लौटा तो अकबर ने टोडरमल को फिर से वित्तमंत्री बना दिया। इसके साथ ही मुगल सल्तनत के समस्त प्रांतीय राजस्व मंत्रियों जिन्हें उन दिनों दीवान कहा जाता था, टोडरमल के अधीन कर दिया। अब तक अकबर के लगभग समस्त विरोधी या तो उनके राज्यों से बाहर निकाले जा चुके थे या फिर उन्हें संसार से ही बाहर भेज दिया था। इसलिए अकबर की रुचि युद्धों से कम होने लगी तथा वह स्वयं युद्धक्षेत्र में जाने की बजाय अपने सेनापतियों को ही विभिन्न अभियानों की कमान सौंपने लगा था। अब अकबर मजहब के क्षेत्र में कुछ बड़ा करके दिखाना चाहता था। इसलिए अकबर ने सीकरी में इबादतखाना का निर्माण करवाया जिसे भारत में पनप रहे विभिन्न धर्मों के धर्माचायों के साथ विचार-विमर्श एवं बहस-मुसाहिबे के लिए बनाया गया था। इबादत खाने में हुई गतिविधियों की चर्चा करने से पहले हमें इतिहास के घटनाक्रम को संसार की प्राचीनतम पर्वतमालाओं में से एक अरावली में स्थित हल्दीघाटी की ओर ले चलना पड़ेगा। अरावली पर्वतमाला उत्तर-पूर्व में दिल्ली से आरंभ होकर दक्षिण-पश्चिम गुजरात के पालनपुर कस्बे के निकट खेड़ब्रह्मा तक विस्तृत है।

कभी यह संसार की विशालतम एवं उच्चतम पर्वतमालाओं में से एक थी किंतु वर्तमान में इस पर्वतमला की कुल लम्बाई 692 किलोमीटर ही बची है। इसकी पहाड़ियों की ऊंचाई भी हवा एवं पानी से घिसकर बहुत कम रह गई है। 692 किलोमीटर में से 550 किलोमीटर पर्वतमाला राजस्थान में स्थित है।

मेवाड़ का यशस्वी राज्य इसी अरावली पर्वतमाला की गोद में स्थित था जिसके शासक भगवान राम के वंशज थे। मेवाड़ के शासकों की वंश परम्परा में बप्पा रावल, खुमाण (तृतीय), गुहिल, राणा हमीर, राणा कुंभा तथा राणा सांगा जैसे प्रातःवंदनीय शासक हुए थे जो न केवल अप्रतिम योद्धा थे अपितु देश के उद्धारक, हिन्दू धर्म के उन्नायक, प्रजापालक एवं अपने वचनों पर दृढ़ रहने के लिए विख्यात थे। इस कुल के राजा आठवीं शताब्दी ईस्वी से खलीफा की सेनाओं से लड़ते आए थे।

आठवीं शताब्दी ईस्वी में बप्पा रावल ने, नौवीं शताब्दी ईस्वी में खुमांण (तृतीय) ने, बारहवीं शताब्दी ईस्वी में सामंतसिंह तथा जैत्रसिंह ने, तेरहवीं शताब्दी में रावल समरसिंह ने, चौदहवीं शताब्दी ईस्वी में रावल रत्नसिंह ने, पंद्रहवीं शताब्दी ईस्वी में महाराणा कुंभकर्ण ने, सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में महाराणा संग्रामसिंह तथा महाराणा उदयसिंह ने अरब से आने वाली खलीफा की सेनाओं से लेकर, अफगानी आक्रांताओं और दिल्ली, मालवा एवं गुजरात के मुस्लिम शासकों से बड़े-बड़े युद्ध किए थे और उनके कई-कई हजार सैनिकों को बारम्बार तलवार के घाट उतारा था।

पाठकों को स्मरण होगा कि अकबर ने ई.1568 में मेवाड़ राज्य की राजधानी चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया था। उस समय महाराणा उदयसिंह मेवाड़ का शासक था। ई.1572 में जिस समय अकबर गुजरात के अभियान पर जा रहा था, उस समय महाराणा उदयसिंह की मृत्यु हो गई।

महाराणा उदयसिंह ने अपनी प्रिय रानी भटियाणी के पुत्र जगमाल को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया किंतु मेवाड़ी सरदारों ने जगमाल को अपना राजा स्वीकार नहीं किया तथा स्वर्गीय महाराणा उदयसिंह के बड़े पुत्र प्रतापसिंह को महाराणा बनाया।

इस पर जगमाल अकबर की सेवा में पहुंचा। अकबर ऐसे अवसरों की तलाश में रहा करता था। इसलिए अकबर ने जगमाल को चित्तौड़ का दुर्ग देकर मेवाड़ का महाराणा घोषित कर दिया। कुम्भलगढ़ के विश्वविख्यात दुर्ग में महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक उत्सव हुआ। उस समय प्रताप की आयु 32 वर्ष थी।

जगमाल ने चित्तौड़ दुर्ग में आकर मेवाड़ के सरदारों को अपने पक्ष में आने के लिए आमंत्रित किया किंतु कोई भी मेवाड़ी सरदार जगमाल की तरफ नहीं गया। इस प्रकार मेवाड़ी सरदारों में फूट डालने का अकबर का षड़यंत्र विफल हो गया।

पाठकों को स्मरण होगा कि जिस समय महाराणा उदयसिंह जीवित था, उस समय ई.1567 में उदयसिंह का पुत्र शक्तिसिंह भी अपने पिता से नाराज होकर अकबर की सेवा में उपस्थित हुआ था।

गौरी शंकर हीराचंद ओझा ने लिखा है कि राणा उदयसिंह का पुत्र शक्तिसिंह अपने पिता से नाराज होकर अकबर की सेवा में उपस्थित हुआ। अकबर उस समय धौलपुर में शिविर लगाए पड़ा था।

अकबर ने कुंवर शक्तिसिंह से कहा- श्बड़े-बड़े जमींदार मेरे अधीन हो चुके हैं, केवल राणा उदयसिंह अभी तक नहीं हुआ। अतः मैं उस पर चढ़ाई करने वाला हूँ। क्या तुम इस कार्य में मेरी सहायता करोगे?श्

इस पर शक्तिसिंह ने विचार किया कि मेरे अकबर के पास आने से सब लोग यही समझेंगे कि मैं ही अकबर को मेवाड़ पर चढ़ा लाया हूँ। इससे मेरी बड़ी बदनामी होगी। इसलिए शक्तिसिंह उसी रात बिना कोई सूचना दिए अकबर के शिविर से निकल गया और चित्तौड़ पहुंच गया। इस प्रकार उस समय भी अकबर द्वारा मेवाड़ी राजपरिवार में फूट डालने का प्रयास विफल रहा था।

जब जगमाल द्वारा मेवाड़ी सरदारों को अपने पक्ष में किए जाने के सारे प्रयत्न निष्फल हो गए तो अकबर ने चित्तौड़ का किला जगमाल से वापस ले लिया तथा उसने अपनी सेनाओं का मुँह एक बार फिर से मेवाड़ की तरफ मोड़ दिया।

महाराणा प्रताप को इसी दिन की प्रतीक्षा थी। वह जानता था कि अकबर पूरे भारत को निगल जाने के लिए तत्पर है। महाराणा यह भी जानता था कि मेवाड़ का राज्य महाराणा सांगा के समय से ही मुगलों के निशाने पर है, केवल चित्तौड़ दुर्ग हासिल करके मुगल चौन से बैठने वाले नहीं हैं।

  -डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

मेवाड़ के महाराणा क्यों बन गए थे हिन्दू नरेशों के सिरमौर (116)

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मेवाड़ के महाराणा - www.bharatkaitihas.com
मेवाड़ के महाराणा

अत्यंत प्राचीन काल से ही भारत में एक से बढ़कर एक वीर राजकुल हुए जिन्होंने हिन्दू जाति को हजारों साल तक स्वतंत्र बनाए रखा तथा राजनीति एवं संस्कृति के उच्च मानदण्डों की स्थापना की। उन्हीं की परम्परा का पालन करते हुए मध्यकालीन भारत में मेवाड़ के महाराणा हिन्दुओं के सिरमौर बन गए।

ई.1576 में अकबर ने अपनी सेनाओं का मुँह मेवाड़ की ओर मोड़ दिया। इस समय तक अकबर उत्तर भारत के विशाल मैदानों पर अधिकार कर चुका था। पूर्व में समुद्र से लेकर पश्चिम में हिंदुकुश पर्वत से आगे काबुल-कांधार तक अकबर के नाम का खुतबा पढ़ा जा रहा था।

अकबर की इस विशाल सल्तनत के सम्मुख मेवाड़ रियासत बहुत ही छोटी थी। अकबर की सामरिक शक्ति के समक्ष मेवाड़ के महाराणा की सामरिक शक्ति कुछ भी नहीं थी। अकबर की सेना में जितने हाथी थे, उतने तो महाराणा की सेना में घोड़े भी नहीं थे।

मुगल सल्तनत एवं मेवाड़ राज्य के सैनिकों की संख्या की तुलना करना व्यर्थ है। यदि हल्दीघाटी के युद्ध से पहले के केवल पचास सालों को देखा जाए तो महाराणा के पूर्वज ई.1526 से लेकर ई.1576 तक मुगलों से हुए युद्धों में इतने सैनिक खो चुके थे कि अब मेवाड़ के महाराणा की छोटी सी सेना किसी भी हालत में अकबर जैसे शक्तिशाली बादशाह की विशाल सेना के सामने युद्ध करने की स्थिति में नहीं थी।

इस कारण महाराणा प्रतापसिंह के समक्ष विगत सैंकड़ों साल से चली आ रही मेवाड़ की स्वतंत्रता और अस्मिता को बचाने का प्रश्न आ खड़ा हुआ।

यह वही मेवाड़ था जिसके लिये गुहिल, विगत आठ सौ वर्षों से मरते-मारते आये थे और मेवाड़ को स्वतंत्र रखते आए थे किंतु अब समय बदल चुका था।

प्रताप के गद्दी पर बैठने से पूर्व, ई.1561 में मालवा, जौनपुर एवं चुनार, ई.1562 में आम्बेर, मेड़ता तथा नागौर, ई.1564 में गोंडवाना, ई.1568 में चित्तौड़, ई.1569 में रणथंभौर तथा कालिंजर, ई.1570 में जोधपुर तथा बीकानेर एवं ई.1571 में सिरोही आदि राज्य एवं दुर्ग अकबर के अधीन चले गये थे।

ई.1573 में गुजरात, अकबर के अधीन हो गया था। बंगाल, बिहार, उड़ीसा, कांगड़ा, काश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, सिंध और गक्खर प्रदेश अकबर के पैरों तले रौंदे जा चुके थे।

ई.1573 तक स्थिति यह हो गई थी कि मारवाड़ अर्थात् जोधपुर का राजा रावचंद्रसेन तथा मेवाड़ अर्थात् चित्तौड़ का राजा महाराणा प्रतापसिंह अपनी राजधानियों से वंचित होकर पहाड़ों एवं जंगलों में भटक रहे थे। उन्हें छोड़कर, राजपूताना के समस्त हिन्दू राजवंश, अकबर की अधीनता स्वीकार कर चुके थे।

मेवाड़ के महाराणा तथा उसके अधीन डूंगरपुर, बांसवाड़ा तथा प्रतापगढ़ राज्य अब भी अकबर के शिकंजे से मुक्त थे। ये चारों राजा उस प्रतापी गुहिल के वंशज थे जिसने गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद छठी शताब्दी ईस्वी में गुहिल राज्यवंश की स्थापना की थी।

वास्तविकता तो यह थी कि यह राजवंश सूर्य के पुत्र वैवस्वत मनु के समय से ही अस्तित्व में था किंतु गुहिल राजवंश के पूर्वज किन प्राचीन नामों से जाने जाते थे, उनकी पहचान अब नहीं की जा सकती। ये चारों गुहिल राज्य, अकबर की आँख की किरकिरी बने हुए थे।

राणा प्रताप के सिंहासनारूढ़ होते ही ई.1573 में अकबर ने तीन हिन्दू सेनापतियों कुंअर मानसिंह, राजा जगन्नाथ और राजा गोपाल तथा छः मुस्लिम अमीरों को आदेश दिया कि वे ईडर होते हुए डूंगरपुर जाएं तथा वहाँ के राजाओं को अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए समझाएं।

अकबर ने कच्छवाहा राजकुमार मानसिंह को आज्ञा दी कि जो राजा हमारी अधीनता स्वीकार करें उनका सम्मान करना और जो ऐसा न करें उन्हें दण्डित करना। शाही फौज ने सबसे पहले डूंगरपुर पर आक्रमण किया।

डूंगरपुर के रावल आसकरण ने मानसिंह से युद्ध किया किंतु अंत में अपनी राजधानी खाली करके गहन पहाड़ों में चला गया जिससे कुंवर मानसिंह रावल आसकरण का बाल भी बांका नहीं कर सका। इस प्रकार मेवाड़ के महाराणा तथा उसके अधीनस्थ डूंगरपुर, बांसवाड़ा तथा प्रतापगढ़ राज्य अब भी अकबर के लिए चुनौती बने हुए थे।

पाठक यह प्रश्न उठा सकते हैं कि जब मुगलों के समक्ष मेवाड़ के महाराणा की शक्ति कुछ भी नहीं थी तब मेवाड़ के गुहिल किसके बलबूते पर अकबर के लिए चुनौती बने हुए थे और किस शक्ति के बल पर मेवाड़ के महाराणा विगत कई शताब्दियों से राजपूताना के समस्त हिंदू राजाओं के सिरमौर बने हुए थे?

इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए हमें आठवीं शताब्दी ईस्वी में चलना होगा जब भारत पर खलीफा की सेना का प्रथम आक्रमण हुआ था। राजपूताना रियासतों का प्रामाणिक इतिहास लिखने वाले सुप्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने लिखा है कि देलवाड़ा के राजा के पास सुरक्षित एक प्राचीन इतिहास-ग्रंथ के अनुसार मेवाड़ के शासक बप्पा रावल ने इस्फहान, काश्मीर, ईराक, ईरान, तूरान, काफिरिस्तान आदि सब देशों को जीत लिया था।

यद्यपि कर्नल टॉड ने इस कथन को सत्य माना है तथापि आधुनिक काल में बहुत से इतिहासकार इस बात को सत्य नहीं मानते। फिर भी यह कहा जा सकता है कि इस कथन में न्यूनाधिक सच्चाई अवश्य है।

बप्पा रावल ने आठवीं शताब्दी ईस्वी में नए सिरे से गुहिलों के राजवंश की पुनर्स्थापना की थी, तभी से यह राजवंश खलीफा की सेनाओं से लड़ने लगा था, इस कारण गुहिल राजवंश को उत्तर भारत के हिन्दू राजाओं में श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाने लगा था।

गुहिलों तथा मुसलमानों के बीच एक बड़ी लड़ाई का उल्लेख ‘खुमांण रासो’ में मिलता है जिसके अनुसार आठवीं शताब्दी ईस्वी में खलीफा अलमामूं ने रावल खुमांण (तृतीय) के समय में चित्तौड़ पर आक्रमण किया था। तब रावल खुमांण के बुलावे पर चित्तौड़ की सहायता के लिये काश्मीर से सेतुबंध तक के अनेक हिन्दू राजा आये तथा खुमांण ने शत्रु को परास्त कर देश की रक्षा की।

कर्नल टॉड ने इतिहास की किसी प्राचीन पुस्तक के आधार पर उन राजाओं की सूची दी है जो खुमांण (तृतीय) की सहायता के लिये आये थे। इस सूचि में दक्षिण भारत के राजाओं के नाम भी मिलते हैं, यदि उन राजाओं को छोड़ दिया जाए तो भी उत्तर भारत के उन राजाओं की सूची काफी लम्बी है जो आठवीं शताब्दी ईस्वी में मेवाड़ के गुहिलों के झण्डे के नीचे रहकर, खलीफा द्वारा भेजी गई सेना से लड़े थे और विजयी रहे थे।

उस काल में खलीफा की सेनाएं पूरे संसार को रौंद रही थीं तथा पूरी दुनिया में इस्लाम के प्रसार का कार्य बड़ी तेजी से चल रहा था किंतु भारत में गुहिल, प्रतिहार तथा चौहान राजवंशों ने कई शताब्दियों तक अरब एवं सिंध से आने वाली मुस्लिम सेनाओं को भारत में पांव नहीं पसारने दिए थे।

 जब खुंमाण ने खलीफा की सेना को नष्ट कर दिया, तब से ही चित्तौड़ के गुहिल भारत के समस्त हिन्दू राजाओं के सिरमौर हो गए थे। जब भी मेवाड़ का कोई राजा किसी विदेशी आक्रांता से युद्ध करने के लिए हिन्दू राजाओं का आह्वान करता तो अनेक हिन्दू राजा मेवाड़ के झण्डे के तले युद्ध करने के लिए आते थे और देश की रक्षा में अपनी आहुति देते थे।

इन युद्धों का अधिकांश इतिहास सैंकड़ों साल के राजनीतिक पराभव के कारण नष्ट हो गया है। पहले तुर्कों ने, फिर मुगलों ने, उसके बाद अंग्रेजों ने और अंत में साम्यवादी लेखकों ने भारत के इतिहास को विकृत एवं नष्ट-भ्रष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। फिर भी उस इतिहास के कतिपय उल्लेख कुछ प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं।

दुर्भाग्य से देश की आजादी के बाद जिन लेखकों को भारत के विश्वविद्यालयों एवं विद्यालयों के लिए पाठ्यक्रमों की पुस्तकें लिखने का काम दिया गया, उन्होंने भारत के उज्जवल इतिहास के महत्वपूर्ण तथ्यों को, साम्प्रदायिक सद्भाव, सर्वधर्म समभाव एवं धर्मनिरपेक्षता आदि के लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अपनी पुस्तकों में स्थान नहीं दिया जिससे भारत के गौरवमयी इतिहास के बचे-खुचे हिस्से भी भुला दिए गए।      

विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों से अलग स्वतंत्र रूप से इतिहास लिखने वाले लेखकों ने मेवाड़ के महाराणा और उनके इतिहास को संभाल कर रखने का प्रयास किया जिसके कारण आज मेवाड़ के महाराणा भारतीय इतिहास के पन्नों में जगमगा रहे हैं।                               

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

मानसिंह की मेवाड़ यात्रा (117)

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मानसिंह की मेवाड़ यात्रा

मानसिंह की मेवाड़ यात्रा मध्यकालीन भारतीय राजनीति की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण थी। इस यात्रा में मानसिंह ने महाराणा प्रताप को समझाने का प्रयास किया कि महाराणा प्रताप अकबर की अधीनता स्वीकार कर लें किंतु  महाराणा प्रताप ने गरज कर कहा अपने फूफा को ले आना, हम सत्कार करेंगे!

आठवीं शताब्दी ईस्वी में भारत में यह परम्परा आरम्भ हुई थी कि जब भी कोई मुस्लिम आक्रांता चित्तौड़ पर आक्रमण करता था, तब बहुत से हिन्दू नरेश चित्तौड़ नरेश के आह्वान पर चित्तौड़ की सहायता के लिए आते थे।

मेवाड़ के गुहिलों के झण्डे के नीचे रहकर विदेशी आक्रांताओं से मोर्चा लेने की हिन्दू राजाओं की यह परम्परा ई.1527 में खानवा के युद्ध तक स्थापित रही जिसमें महाराणा सांगा के झण्डे के तले अनेक राजा लड़ने के लिए आए थे।

बाबर ने अपनी आत्मकथा ‘बाबरनामा’ में राणा सांगा की सेना का विवरण देते हुए लिखा है कि सांगा के पास कम से कम 2 लाख 22 हजार सैनिक थे जिनमें 1 लाख सैनिक राणा तथा उसके अधीन-सामंतों के थे और 1 लाख 22 हजार सैनिक मित्र-राजाओं के थे।

इनमें वागड़ अर्थात् डूंगरपुर के रावल उदयसिंह के पास 12 हजार, चंदेरी के शासक मेदिनीराय के पास 12 हजार, सलहदी के पास 30 हजार, हसन खाँ मेवाती के पास 12 हजार, ईडर के राजा वारमल के पास 4 हजार, नरपत हाड़ा के पास 7 हजार, कच्छ के राजा सत्रवी के पास 6 हजार, धर्मदेव के पास 4 हजार, वीरसिंह देव के पास 4 हजार और सिकंदर लोदी के पुत्र महमूद खाँ के पास 10 हजार घुड़सवार सैनिक थे।

बाबर ने सांगा की सेनाओं में मारवाड़ के राव गांगा राठौड़ की सेना, आम्बेर के राव पृथ्वीराज कच्छवाहा की सेना, बीकानेर के कुंवर कल्याणमल राठौड़ की सेना, अन्तरवेद के राजा चंद्रभाण चौहान और माणिकचंद चौहान आदि बड़े राजाओं की सेनाओं का उल्लेख ही नहीं किया है।

यदि सांगा की तरफ से लड़ने वाले इन राजाओं की सूची पर विचार किया जाए तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंच जाएंगे कि ई.1527 तक मेवाड़ के महाराणा भारत के हिन्दू राजाओं के सिरमौर बने हुए थे किंतु ई.1576 के आते-आते भारत भूमि के दुर्भाग्य से इनमें से अधिकांश राज्यों ने अकबर की चाकरी स्वीकार कर ली थी और मेवाड़ के महाराणा से सम्बन्ध तोड़ लिए थे।

श्रीराम शर्मा ने लिखा है कि अकबर के आदेश से कच्छवाहा राजकुमार मानसिंह, मेवाड़ आया ताकि महाराणा प्रताप को समझाकर बादशाही सेवा स्वीकार कराई जा सके। महाराणा प्रताप ने कुंवर मानसिंह के साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार किया किंतु दोनों राजाओं में विषमता का अंत नहीं था।

भड़कीली शाही पोशाक में मानसिंह और बिल्कुल मामूली कपड़े पहने प्रताप! बेहद रूखी-सूखी स्वाधीनता के मुकाबले विलासिता का वह चरम प्रदर्शन! एक ओर वह चिकना-चुपड़ा मुगल-दरबारी जिसे बारीकी से खराद कर तैयार किया गया था, और इधर ठोस राजपूती पत्थर का बिना घिसा या छिला एक खुरदुरा टुकड़ा। कछवाहा के विरुद्ध सिसोदिया।

कुंअर मानसिंह ने महाराणा प्रताप से बादशाही सेवा स्वीकार करवाने का बहुत उद्योग किया जो सब प्रकार से निष्फल सिद्ध हुआ। कुंअर मानसिंह की विदाई के समय महाराणा प्रताप ने उदयसागर की पाल पर दावत का प्रबंध किया। भोजन के समय महाराणा स्वयं उपस्थित न हुआ और कुंवर अमरसिंह को आज्ञा दी कि तुम मानसिंह को भोजन करा देना।

जब कुंअर मानसिंह ने महाराणा को भी भोजन में सम्मिलित होने का आग्रह किया तो कुंअर अमरसिंह ने उत्तर दिया- ‘महाराणा के पेट में कुछ दर्द है, इसलिये वे उपस्थित न हो सकेंगे, आप भोजन कीजिये।’

इस पर मानसिंह ने जोश में आकर कहा- ‘इस पेट के दर्द की दवा मैं खूब जानता हूँ, अब तक तो हमने आपकी भलाई चाही, परन्तु आगे के लिये सावधान रहना।’

राजपूताना रियासतों के विश्वसनीय इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपनी पुस्तक उदयपुर राज्य का इतिहास में लिखा है-

‘इस बात को सुनकर कुलाभिमानी महाराणा ने मानसिंह से कहलवाया कि जो आप अपने सैन्य सहित आवेंगे तो मालपुरा में हम आपका स्वागत करेंगे और यदि अपने फूफा अकबर के बल पर आवेंगे तो जहाँ मौका मिलेगा, वहीं आपका सत्कार करेंगे।

यह सुनते ही मानसिंह अप्रसन्न होकर वहाँ से चला गया। इस प्रकार दोनों के बीच वैमनस्य उत्पन्न हो गया। महाराणा ने मानसिंह को यवन सम्पर्क से दूषित समझकर भोजन तालाब में फिंकवा दिया और वहाँ की जमीन खुदवाकर उस पर गंगाजल छिड़कवा दिया।’

जयपुर के राजकवि राम ने जयसिंह चरित्र में लिखा है-

‘मानसिंह ने भोजन के समय कहा कि जब आप भोजन नहीं करते तो हम क्यों करें? राणा ने कहलवाया कि कुंवर आप भोजन कर लीजिये, अभी मुझे कुछ गिरानी है, पीछे से मैं भोजन कर लूंगा।

कुंवर ने कहा कि मैं आपकी इस गिरानी का चूर्ण दे दूंगा। फिर कुंवर कांसे (थाल) को हटाकर अपने साथियों सहित उठ खड़ा हुआ और रूमाल से हाथ पोंछकर उसने कहा कि चुल्लू तो फिर आने पर करूंगा।’

महाराणा प्रताप द्वारा इस प्रकार का रुख अपनाने से मानसिंह की मेवाड़ यात्रा भारत के इतिहास का वैसा ही गौरवगयी पन्ना बन गई जिस प्रकार आगे चलकर छत्रपति शिवाजी की आगरा यात्रा भारतीय इतिहास का सबसे चमकता हुआ पन्ना बनी थी। 

मानसिंह की मेवाड़ यात्रा के सम्बन्ध में जहांगीर के समकालीन लेखक मौतमिद खाँ ने इकबालनामा ए जहांगीरी में लिखा है-

‘कुंवर मानसिंह जो इसी मुगल दरबार का तैयार किया हुआ खास बहादुर आदमी है और जो फर्जन्द अर्थात् बेटा के खिताब से सम्मानित हो चुका है, अजमेर से कई मुसलमान और हिन्दू सरदारों के साथ राणा को पराजित करने के लिये भेजा गया।

इसको भेजने में बादशाह का अभिप्राय यह था कि वह राणा की ही जाति का है और मानसिंह के बाप-दादे अकबर के अधीन होने से पहले राणा के अधीन और खिराजगुजार रहे हैं, इसको भेजने से सम्भव है कि राणा इसे अपने सामने तुच्छ और अपना अधीनस्थ समझकर लज्जा और अपनी प्रतिष्ठा के ख्याल से लड़ाई में सामने आ जाये और युद्ध में मारा जाए

……… कुंअर मानसिंह शाही फौज के साथ मांडलगढ़ पहुंचा और वहाँ सेना की तैयारी के लिये कुछ दिन ठहरा। राणा ने अपने गर्व के कारण उसे अपने अधीनस्थ जमींदार समझकर उसको उपेक्षा की दृष्टि से देखा और यह सोचा कि माण्डलगढ़ पहुँचकर ही लड़ें।’

मौतमिद खाँ के उपर्युक्त कथन में काफी अंश में सच्चाई दिखाई देती है क्योंकि आम्बेर के कच्छवाहे, वास्तव में मेवाड़ के गुहिलों के अधीन सामंत थे। कच्छवाहा राजा पृथ्वीराज, महाराणा सांगा की सेना में था।

भारमल का पुत्र भगवानदास भी पहले महाराणा उदयसिंह की सेवा में रहता था। बाद में जब राजा भारमल ने अकबर की अधीनता स्वीकार की तब से आम्बेर वालों ने मेवाड़ की अधीनता छोड़ दी थी।

निश्चित रूप से अकबर चाहता था कि महाराणा प्रताप से संधि न की जाये अपितु उसे सम्मुख युद्ध में मारा जाये और यह कार्य, महाराणाओं के पुराने अधीनस्थ अर्थात् कच्छवाहे अपने हाथों से करें। अकबर, अच्छी तरह समझता था कि अपने पुराने अधीनस्थ के हाथों, गुलामी का संदेश पाकर महाराणा अवश्य ही भड़क जायेगा और युद्ध करने पर उतारू हो जायेगा।

मानसिंह की मेवाड़ यात्रा के पीछे अकबर का असली उद्देश्य हिन्दु राजाओं को हिन्दू राजाओं से ही लड़वाकर मरवाना था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

अकबर और महाराणा प्रताप एक-दूसरे के प्राण लेना चाहते थे (118)

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अकबर और महाराणा प्रताप

अकबर और महाराणा प्रताप एक-दूसरे के प्राण लेना चाहते थे अंतर केवल इतना था कि अकबर महाराणा का राज्य छीनने के लिए महाराणा का दुश्मन हुआ बैठा था तो महाराणा अपनी भूमि को म्लेच्छों के हाथों में जाने से रोकने के लिए ऐसा कर रहे थे।

अकबर तथा महाराणा प्रताप के बीच आदि से अंत तक जो भी घटनाएं हुईं उनसे यह सिद्ध होता है कि न तो अकबर महाराणा प्रताप से संधि चाहता था और न महाराणा प्रताप किसी भी कीमत पर अकबर से संधि करना चाहता था।

अकबर भारत के राजाओं के मन से स्वातंत्र्य भावों को हमेशा के लिए समाप्त करने के उद्देश्य से महाराणा के प्राण लेना चाहता था क्योंकि महाराणा प्रताप भारत की स्वातंत्र्य चेतना का राष्ट्र-व्यापी प्रतीक बन गया था।

दूसरी ओर महाराणा प्रताप इसलिए अकबर के रक्त का प्यासा था क्योंकि अकबर तथा उसके पूर्वजों ने न केवल प्रताप के पूर्वजों को महान् कष्ट दिए थे अपितु उसने गुहिलों के प्यारे चित्तौड़ पर कब्जा कर रखा था। धरती, धर्म और धेनु के रक्षक प्रताप के पूर्वजों की आत्मा प्रतापसिंह को शांति से बैठने नहीं देती थी।

जब महाराणा प्रताप ने कुंअर मानसिंह के साथ भोजन करने से इन्कार कर दिया तो मानसिंह ने इसे अपना घोर अपमान समझा। मानसिंह समझ गया कि महाराणा ने उसे क्यों अपमानित किया है! इसलिए मानसिंह क्रोध से तिलमिला गया।

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राजा श्यामलदास ने वीर विनोद में लिखा है कि जब मानसिंह ने बादशाह के पास पहुँचकर अपने अपमान का सारा हाल कहा, तो अकबर ने क्रुद्ध होकर महाराणा का गर्वभंजन कर उसे सर्वतोभावेन अपने अधीन करने का विचार करके कुंवर मानसिंह को ही महाराणा प्रताप के विरुद्ध भेजने का निश्चय किया। राजप्रशस्ति महाकाव्य और राजपूताने की विभिन्न ख्यातों में इस घटना का वर्णन कई प्रकार से मिलता है। अकबर के दरबारी लेखक अबुल फजल ने अन्य समस्त स्रोतों से बिल्कुल अलग हटकर लिखा है कि राणा ने मानसिंह का स्वागत कर अधीनता के साथ शाही खिलअत पहन ली और मानसिंह को अपने महलों में ले जाकर उसके साथ दगा करना चाहा, जिसका हाल मालूम होते ही मानसिंह वहाँ से चला गया। महामहोपध्याय गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अबुल फजल के वर्णन को मिथ्या मानते हुए लिखा है कि महाराणा का अधीनता के साथ खिलअत पहनना तो दूर रहा, वह तो अकबर को बादशाह नहीं, तुर्क कहा करता था। किसी कवि ने भी लिखा है- तुरक कहासी मुख पतौ, इण तन सूं इकलिंग। अर्थात्- एकलिंग भगवान महाराणा प्रताप के मुख से अकबर को तुर्क ही कहलवाएंगे।

सदा की तरह से कोई भी नया अभियान आरम्भ करने से पहले अकबर अजमेर आया तथा उसने ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर पहुँचकर अपनी जीत की कामना तथा महाराणा प्रताप की पराजय की कामना की। यहीं से उसने 2 अप्रेल 1576 को मानसिंह कच्छवाहा को मेवाड़ के लिये रवाना किया।

बदायूंनी लिखता है कि अकबर ने मानसिंह को पांच हजार घुड़सवार दिए तथा उसके साथ गाजी खाँ बदख्शी, ख्वाजा मुहम्मद रफी बदख्शी, शियाबुद्दीन गुरोह, पायन्दा कज्जाक, अली मुराद उजबक, काजी खाँ, इब्राहीम चिश्ती, शेख मंसूर, ख्वाजा गयासुद्दीन, अली आसिफ खाँ, सैयद अहमद खाँ, सैयद हाशिम खाँ, जगन्नाथ कच्छवाहा, सैयद राजू, महतर खाँ, माधोसिंह कच्छवाहा, मुजाहिद बेग, खंगार और लूणकर्ण आदि अमीर, उमराव तथा 5,000 सवार भेजे।

आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि मानसिंह की सेना में 10 हजार घुड़सवार थे। इनमें 4,000 कच्छवाहे राजपूत थे। 1,000 अन्य जातियों के राजपूत तथा शेष मध्यएशिया के तुर्क, उजबेग, कज्जाक, बारहा के सैय्यद और फतेहपुर के शेखजादे थे।

बदायूंनी लिखता है- ‘मेरे मन में भी काफिर से लड़ने की उत्कंठा जगी। मैंने शहंशाह के समक्ष दरख्वास्त लगाई कि मुझे भी मानसिंह के साथ महाराणा प्रताप के विरुद्ध भेजा जाए।’

इस पर अकबर ने कहा- ‘उसे तो अभी-अभी शाही दरबार में इमाम बनाया गया है। वह कैसे जा सकता है?’

नकीब खाँ ने शहंशाह से कहा- ‘बदायूंनी को जिहाद में भाग लेने की बड़ी इच्छा है।’

इस पर शहंशाह ने बदायूंनी को बुलाया और पूछा- ‘क्या तुम इच्छुक हो?’

बदायूंनी ने जवाब दिया- ‘हाँ।’

तब बादशाह ने पूछा- ‘क्यों?’

बदायूंनी ने कहा- ‘मैं चाहता हूं कि मेरी काली दाढ़ी और मूंछें निष्ठा के लहू से रंग जाएं। आपकी बंदगी जोखिम भरी है, फिर भी मैं करना चाहता हूँ। ताकि मैं प्रसिद्धि पा सकूं, या मर सकूं। आपके खातिर।’

बादशाह ने खुश होकर कहा- ‘खुदा ने चाहा तो तुम फतेह की खबर लेकर लौटोगे।’

बादशाह की यह बात सुनकर बदायूंनी ने बादशाह का पैर चूमने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया किंतु बादशाह ने अपना पैर पीछे खींच लिया। बादशाह ने अपने दोनों हाथों में भरकर छप्पन अशर्फियां बदायूंनी को दीं और उसे विदा किया।

मानसिंह, माण्डलगढ़ पहुँचकर लड़ने की तैयारी करने लगा। जब महाराणा को कुंअर मानसिंह के माण्डलगढ़ आने की जानकारी हुई तो महाराणा भी कुम्भलगढ़ से चलकर गोगूंदा आ गया। उसका विचार था कि माण्डलगढ़ पहुँचकर ही मानसिंह पर आक्रमण करे किंतु सरदारों ने कहा कि इस समय कुंवर, अकबर के बल पर आया है इसलिये पहाड़ों के सहारे ही शाही सेना का मुकाबला करना चाहिये।

महाराणा ने इस सलाह को पसंद किया और युद्ध की तैयारी आरम्भ कर दी।

गोगूंदा और खमनौर के बीच अरावली की विकट पहाड़ी श्रेणियाँ स्थित हैं जिनमें नाथद्वारा का विश्वविख्यात मंदिर बना हुआ है। नाथद्वारा से लगभग 13 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में खमनौर गांव स्थित है।

इससे चार किलोमीटर के अंतर पर हल्दीघाटी स्थित है। यहाँ की मिट्टी हल्दी जैसे पीले रंग की है। इस कारण इसे हल्दीघाटी कहते हैं। यहाँ के पत्थरों पर पीली मिट्टी लगने से वे भी पीले दिखाई देते हैं। हल्दीघाटी कुंभलगढ़ की पहाड़ियों में बालीचा गांव से लेकर खमनौर के पास भागल की झौंपड़ियों तक पूरे तीन मील की लम्बाई में फैली है।

इस घाटी का मार्ग बहुत संकरा था किंतु कहीं-कहीं घाटी इतनी चौड़ी थी कि पूरी फौज आराम से निकल जाए। इन चौड़े स्थानों में गांव बसे हुए थे। इसी हल्दीघाटी को मुगलों और गुहिलों के बीच होने वाले युद्ध के लिए चुना गया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

महाराणा प्रताप की सेना (119)

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महाराणा प्रताप की सेना
महाराणा प्रताप की सेना

जब मानसिंह की सेना बनास नदी के तट पर स्थित खमनौर गांव के निकट आकर ठहर गई तब महाराणा प्रताप की सेना ने भी खमनौर से लगभग 10 किलोमीटर दूर आकर अपने खेमे गाढ़ लिए। अब युद्ध अत्यंत निकट दिखाई देने लगा।

कविराज श्यामलदास ने अपने ग्रंथ वीर विनोद में लिखा है कि जब कुंअर मानसिंह को ज्ञात हुआ कि महाराणा प्रताप, कुम्भलगढ़ से निकलकर गोगूंदा आ गया है तो मानसिंह, माण्डलगढ़ से चलकर मोही गांव होते हुए खमनौर के समीप आ गया और उसने हल्दीघाटी से कुछ दूर बनास नदी के किनारे डेरा डाला।

इधर महाराणा भी अपनी सेना तैयार करके गोगूंदा से चला और मानसिंह से तीन कोस अर्थात् लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर आ ठहरा। इस प्रकार हल्दीघाटी के दोनों ओर सेनाएं सजकर बैठ गईं।

गोगूंदा और हल्दीघाटी के बीच स्थित भूताला गांव से लगभग तीन किलोमीटर दूर ‘पोलामगरा’ नामक पहाड़ में बनी गुफा में महाराणा ने अपना राजकोष एवं शस्त्रागार स्थापित किया ताकि संकट काल में, मेवाड़ का कोष एवं आपातकालीन शस्त्रागार, शत्रु की दृष्टि से छिपा हुआ रह सके।

महाराणा नहीं चाहता था कि ये दोनों चीजें किसी भी हालत में शत्रु के हाथों में जाएं। इसलिए इस गुफा की रक्षा का भार महाराणा प्रताप के कुंवर अमरसिंह को दिया गया। अमरसिंह की सहायता के लिये सहसमल एवं कल्याणसिंह को नियुक्त किया गया। भामाशाह का पुत्र जीवाशाह तथा झाला मान का पुत्र शत्रुशाल भी अमरसिंह की सेवा में नियत किये गये।

यद्यपि आम्बेर के कच्छवाहे और बीकानेर के राठौड़, गुहिलों से दोस्ती तोड़ चुके थे तथापि महाराणा के शेष बचे मित्र, महाराणा के लिये मरने-मारने को तैयार थे। ग्वालियर के स्वर्गीय राजा विक्रमादित्य का पुत्र राजा रामशाह तंवर, अपने पुत्रों शालिवाहन, भवानीसिंह तथा प्रतापसिंह को साथ लेकर महाराणा की ओर से लड़ने के लिये आया।

भामाशाह और उसका भाई ताराचंद ओसवाल भी अपनी सेनाएं लेकर आ गये। झाला मानसिंह सज्जावत, झाला बीदा (सुलतानोत), सोनगरा मानसिंह अखैराजोत, डोडिया भीमसिंह, रावत कृष्णदास चूण्डावत, रावत नेतसिंह सारंगदेवोत, रावत सांगा, राठौड़ रामदास, मेरपुर का राणा पुंजा, पुरोहित गोपीनाथ, पुरोहित जगन्नाथ, पडिहार कल्याण, बच्छावत महता जयमल, महता रत्नचंद खेतावत, महासानी जगन्नाथ, राठौड़ शंकरदास, सौदा बारहठ के वंशज चारण जैसा और केशव आदि भी आ गये।

इनमें से बहुत से वीरों के पूर्वज महाराणा सांगा के साथ खानवा के मैदान में लड़ते हुए काम आए थे। बहुतों के बाप-दादे कुछ वर्ष पहले ही चित्तौड़ के साके में वीरगति को प्राप्त हुए थे। हकीम खाँ सूरी भी मुगलों की सेना से लड़ने के लिये राणा की सेना में सम्मिलित हुआ क्योंकि अकबर के पूर्वजों ने भारत से अफगानों की राज्यशक्ति समाप्त की थी।

मेवाड़ की ख्यातों में मानसिंह के साथ 80,000 और महाराणा के साथ 20,000 सवार होना लिखा है। मुहणोत नैणसी ने अपनी ख्यात में कुंवर मानसिंह के साथ 40,000 और महाराणा प्रतापसिंह के साथ 9-10 हजार सवार होना बताया है।

अल्बदायूंनी (मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी) ने जो कि इस लड़ाई में मानसिंह के साथ था, मानसिंह के पास 5,000 और महाराणा के पास 3,000 सवार होना लिखा है।

आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव के अनुसार मेवाड़ी सेना में 3,000 से अधिक घुड़सवार और कई सौ भील प्यादों से अधिक नहीं थे। मेवाड़ की छोटी सी सेना के अगले दस्ते में लगभग 800 घुड़सवार थे और यह दस्ता हकीम खाँ सूर, भीमसिंह डोडिया, जयमल के पुत्र रामदास राठौड़ तथा कुछ अन्य वीरों की देख-रेख में रखा गया था।

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उसके दायें अंग में 500 घुड़सवार थे और ये ग्वालियर के रामशाह तंवर एवं भामाशाह की अधीनता में थे। इस सेना का बायां अंग झाला ‘माना’ की अधीनता में था और बीच के भाग की अध्यक्षता स्वयं महाराणा के हाथ में थी। पुंजा के भील तथा कुछ सैनिक इस सेना के पिछले भाग में नियुक्त किये गये थे। महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपनी पुस्तक उदयपुर राज्य का इतिहास में लिखा है कि युद्ध छिड़ने से कुछ दिन पहले कुंवर मानसिंह अपने कुछ साथियों के साथ निकटवर्ती जंगल में शिकार खेलने गया। महाराणा प्रताप के गुप्तचरों ने उसे देख लिया तथा उन्होंने यह सूचना महाराणा को दी। इस पर मेवाड़ के कुछ सामंतों ने महाराणा प्रताप को सलाह दी कि इस अच्छे अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिये और शत्रु को मार देना चाहिये परन्तु महाराणा ने, उत्तर दिया कि इस तरह छल और धोखे से शत्रु को मारना क्षत्रियों का काम नहीं है। राजेन्द्रशंकर भट्ट ने अपनी पुस्तक ‘उदयसिंह, प्रतापसिंह, अमरसिंह, मेवाड़ के महाराणा और शांहशाह अकबर’ में लिखा है कि वि.सं.1633 ज्येष्ठ सुदि द्वितीया  अर्थात् 18 जून 1576 को हल्दीघाटी और खमनौर के बीच, दोनों सेनाओं का भीषण युद्ध आरम्भ हुआ। कुंअर मानसिंह मोलेला में ठहरा हुआ था।

लड़ाई के दिन बहुत सवेरे वह अपने 6000 जवानों के साथ आगे आया और युद्ध के लिये पंक्तियां संगठित कीं। सैयद हाशिम बारहा के नेतृत्व में 80 नामी युवा सैनिक सबसे आगे खड़े किये गये।

उसके बाद सेना की मुख्य अग्रिम पंक्ति थी जिसका संचालन आसफ खाँ और राजा जगन्नाथ कर रहे थे। दक्षिण पार्श्व की सेना, सैयद अहमद खाँ के अधीन खड़ी की गई। बारहा के सैयद, युद्ध कौशल और साहस के लिये प्रसिद्ध थे इसलिये इन्हें सेनापति के दाहिनी ओर खड़ा किया जाता था।

बाएं पार्श्व की सेना गाजी खाँ बदख्शी तथा लूणकरण कच्छवाहा की देख-रेख में खड़ी की गई। मानसिंह स्वयं इनके बीच में, समस्त सेना के मध्य में रहा। मानसिंह के पीछे मिहतर खाँ के नेतृत्व में सेना का पिछला भाग था। इसके पीछे एक सैनिक दल माधोसिंह के नेतृत्व में आपात स्थिति के लिये सुरक्षित रखा गया। हाथी अगल-बगल किंतु पीछे की ओर खड़े किये गये थे।

दूसरी ओर महाराणा प्रताप की सेना के हरावल का नेतृत्व हकीम खाँ सूर के हाथ में था। उसकी सहायता के लिये सलूम्बर का चूण्डावत किशनदास, सरदारगढ़ का डोडिया भीमसिंह, देवगढ़ का रावत सांगा तथा बदनोर का रामदास नियुक्त किये गये।

दक्षिण पार्श्व में राजा रामशाह तोमर, उसके तीन पुत्र एवं अन्य चुने हुए वीर रखे गये। भामाशाह तथा ताराचंद, दोनों भाई भी यहीं नियुक्त किये गये। वाम पार्श्व झाला मानसिंह के अधीन था। उसकी सहायता के लिये सादड़ी का झाला बीदा तथा सोनगरा मानसिंह नियुक्त किये गये।

महाराणा प्रताप अपनी सेना के ठीक बीच में था। सबसे पीछे पानरवा का राणा पूंजा, पुरोहित गोपीनाथ, जगन्नाथ, महता रत्नचंद, महसानी जगन्नाथ, केशव तथा जैसा चारण नियुक्त किये गये। ज्ञातव्य है कि महता, पुरोहित एवं चारण विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये सेना के साथ रहते थे किंतु समय आने पर तलवार उठाने में भी पीछे नहीं रहते थे।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

मानसिंह की दुविधा (120)

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मानसिंह की दुविधा

अकबर ने मानसिंह को महाराणा प्रताप पर आक्रमण करने भेज तो दिया था किंतु मानसिंह की दुविधा ने मानसिंह को महाराणा पर आक्रमण करने से रोक दिया। महाराणा ने मानसिंह की दुविधा को समझ कर पहला आक्रमण अपनी ओर से करने का निश्चय किया।

जून 1576 में मुगल बादशाह अकबर का सेनापति कुंअर मानसिंह तथा मेवाड़ का महाराणा प्रतापसिंह हल्दीघाटी के दोनों ओर अपनी-अपनी सेनाओं के साथ पहुंच गए ताकि दोनों पक्षों में सन्मुख युद्ध के पश्चात् जीत-हार का निर्णय हो सके।

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18 जून 1576 को सेनाएं सजा लेने के बाद दोनों पक्ष एक दूसरे की सेनाओं द्वारा पहल किए जाने की प्रतीक्षा करने लगे। कुंअर मानसिंह निश्चय ही वीर योद्धा था और वह अकबर की सेनाओं के साथ हल्दीघाटी में मरने-मारने के लिए आया था। उसने इस युद्ध से पहले भी बड़े-बड़े सूरमाओं को परास्त किया था, फिर भी महाराणाओं के इतिहास में कुछ ऐसा जादू था कि मानसिंह की हिम्मत आगे बढ़कर आक्रमण करने की नहीं हुई। मानसिंह की दुविधा के कई कारण थे। मानसिंह जानता था कि प्रताप के भील सैनिक हर पहाड़ी पर तीर-कमान लिये बैठे हैं, यदि मानसिंह अपने स्थान से हिला तो उसके सैनिक बात की बात में मार दिये जायेंगे। इसलिये वह चाहता था कि महाराणा प्रताप, मानसिंह पर आक्रमण करने की पहल करे और मानसिंह के घुड़सवारों तथा हाथियों की सेना के जाल में फंस जाये। यह पहाड़ी क्षेत्र था जिसमें अकबर की तोपें अधिक कारगर सिद्ध नहीं हो सकती थीं। इसीलिये भालों से लड़ने वाले गुहिलों और भीलों के विरुद्ध तलवारों से लड़ने वाले कच्छवाहों को भेजा गया था। मानसिंह की दुविधा का एक कारण यह भी था कि वह अपने पुराने स्वामियों के बल को भूला नहीं था, इसलिये आगे बढ़कर आक्रमण करने की भूल कदापि नहीं कर सकता था।

मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी ने अपनी पुस्तक मुंतखब उत् तवारीख में लिखा है कि युद्ध आरम्भ होने से पहले मैंने खुदा से प्रार्थना की-

‘ए खुदा, जो आप में यकीन करने करते हैं

आप उन नर-नारियों को क्षमा करें।

जो मुहम्मद के दीन की रक्षा करता है, उसकी आप रक्षा करें।

जो मुहम्मद के मजहब की रक्षा नहीं करता,

उसकी आप रक्षा मत करें।

मुहम्मद आपको शांति प्राप्त हो!’

उधर मानसिंह की दुविधा बढ़ती जा रही थी और इधर महाराणा प्रताप अपनी भूमि पर शत्रु की सेना को पंक्तिबद्ध हुआ देखकर क्रोध से उबल रहा था। वह शत्रु के विरुद्ध तत्काल कार्यवाही करने को उत्सुक था। जब मानसिंह अपने स्थान से नहीं हिला तो प्रतापसिंह ने आगे बढ़कर धावा बोलने का निर्णय लिया।

सूर्यदेव, आकाश की मुंडेर पर चढ़कर हल्दीघाटी में हो रही हलचल को देखने का प्रयास कर ही रहे थे कि अचानक हल्दीघाटी में ‘हर-हर महादेव’ का घोष हुआ और प्रताप की सेना, मानसिंह की सेना की तरफ दौड़ पड़ी।

भाले चमक उठे और बख्तरबंदों की जंजीरें खनखना उठीं। रणभेरी बजने लगी और घोड़ों ने जोर से हिनहिनाना आरम्भ कर दिया। हाथी भी अपनी विकराल सूण्डें उठाकर चिंघाड़ उठे।

महाराणा अपनी मातृभूमि को शत्रुओं से रहित करने के लिये अपना भाला उठाये, म्लेच्छ सेना का काल बनकर दौड़ पड़ा था। आकाश में मण्डराती चीलों, अरावली की टेकरियों पर डेरा जमाये बैठे गिद्धों तथा पेड़ों के झुरमुट में छिपे सियारों, जंगली कुत्तों तथा भेड़ियों में भी उत्साह का संचरण हो गया।

अभी मानसिंह के सिपाही भौंचक्के होकर स्थिति को समझने का प्रयास कर ही रहे थे कि राणा के योद्धा एकाएक मानसिंह की सेना पर आक्रमण करने लगे। जिस प्रकार मेघ समूह जल की वर्षा करते हैं, उसी प्रकार उन योद्धाओं ने शत्रुदल पर तीरों, तलवारों, भालों एवं परशुओं की वर्षा कर दी।

जिस प्रकार सिंह महान हाथी को मारने की इच्छा रखता है, उसी प्रकार प्रताप पक्ष के योद्धाओं के प्रताप को देखकर राजा मान ने अपनी सेना को, युद्ध के लिये ललकारा। दिन निकलने के कोई तीन घण्टे बाद, प्रताप की सेना का हाथी मेवाड़ का केसरिया झण्डा फहराता हुआ घाटी के मुहाने में से निकला।

उसके पीछे सेना की अग्रिम पंक्ति थी जिसका नेतृत्व हकीम खाँ सूरी कर रहा था। रणवाद्य अर्थात् रणभूमि में बजने वाले बाजे तथा चारण गायक मिलकर वातावरण को बड़ा उत्तेजक बनाये हुए थे।

महाराणा की सेना का आक्रमण आरम्भ हुआ जानकर मानसिंह की दुविधा खत्म हो गई। अब तलवार चलाने का समय आ गया था। राणा ने मुगल सेना पर सीधा आक्रमण किया। उस समय मुगलों की सेना, हल्दीघाटी के प्रवेश स्थान की पगडण्डी के उत्तर-पश्चिम के मैदान में लड़ने के लिये खड़ी थी जो अब बादशाह का बाग कहलाता है।

राणा का आक्रमण इतना जबर्दस्त था कि मुगलों के आगे की सेना का अगला और बायें अंग का दस्ता दोनों के दोनों तितर-बितर हो गये और उनका दाहिना एवं बीच का दस्ता संकट में पड़ गये।

राणा की सेना बहुत छोटी थी। उसके पास न तो कोतल सेना थी और न अल्तमश (मध्यसेना का अग्रिम भाग) था जो उसकी आरम्भिक सफलता का लाभ उठाता। अतः राणा ने शत्रु के मध्य की सेना तथा बायें अंग की सेना को हराने के लिये हाथियों से प्रहार किया क्योंकि दूसरी ओर से आते हुए तीर और गोलियों ने सिसोदियों को बहुत क्षति पहुँचाई थी।

देवीलाल पालीवाल द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘हल्दीघाटी युद्ध’ में जदुनाथ सरकार के आलेख ‘हल्दीघाटी की लड़ाई’ में लिखा है कि इस प्रकार पहली मुठभेड़ में महाराणा प्रताप ने मुगल सेना पर अपनी धाक बना ली। मुगल सैनिक, बादशाही बाग के उत्तर-पूर्व में हल्दीघाटी के बाहरी सिरे पर जमा हो गये।

जदुनाथ सरकार ने लिखा है कि महाराणा ने आनन-फानन में मुगलों पर दूसरे आक्रमण की योजना बनाई और अपने हाथी लोना को आगे का रास्ता साफ करने के लिये भेजा। लोना को देखकर मुगलों की सेना में दहशत फैल गई तथा मुगल सैनिक उसके लिए रास्ता छोड़कर भागने लगे।

लोना का आक्रमण रोकने के लिये मुगलों ने गजमुक्ता नामक विकराल हाथी को आगे बढ़ाया। पहाड़ की आकृति वाले इन दो हाथियों के प्रहार से सैनिकों में आतंक छा गया। मुगलों का हाथी घायल होकर गिरने ही वाला था कि इसी समय राणा के हाथी के महाबत को मुगल सैनिकों ने गोली मार दी।

इस पर राणा का हाथी लौट गया तथा ग्वालियर नरेश रामशाह तंवर के पुत्र प्रतापशाह तंवर ने रामप्रसाद नामक हाथी आगे बढ़ाया। इस हाथी का मुकाबला करने के लिये मुगलों ने गजराज तथा रणमदार नामक दो हाथी आगे बढ़ाये।

मुगलों द्वारा रामप्रसाद के महाबत को भी मार डाला गया। जैसे ही महाबत धरती पर गिरा, मुगल सेना के हाथियों का फौजदार हुसैन खाँ अपने हाथी से रामप्रसाद पर कूद गया।

यह राणा की सेना का प्रसिद्ध हाथी था। उसे मुगलों ने बंदी बना लिया। उसके बंदी होते ही हाथियों की लड़ाई समाप्त हो गई तथा मुगल सेना एवं मेवाड़ी सेना के योद्धाओं ने आगे बढ़कर निकट युद्ध आरम्भ किया।

       -डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

चेतक हल्दीघाटी में चक्कर काटने लगा! (121)

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चेतक हल्दीघाटी में चक्कर काटने लगा!

जब महाराणा प्रताप अपने प्रिय अश्व चेतक पर बैठकर युद्धक्षेत्र में प्रकट हुआ तब शत्रुओं की परवाह किए बिना चेतक हल्दीघाटी में चक्कर काटने लगा।

18 जून 1576 को हल्दीघाटी का युद्ध आरम्भ होते ही दोनों पक्षों के हाथी अपनी-अपनी सेना के आगे आकर एक दूसरे पर जोर-आजमाइश करने लगे। मुगल पक्ष के सैनिकों ने महाराणा के हाथियों के महावतों को बंदूकों की गोलियों से छलपूर्वक मार डाला तथा महाराणा के प्रसिद्ध हाथी रामप्रसाद को पकड़ लिया।

यदि महाराणा प्रताप के सैनिक चाहते तो वे भी अकबर की सेना के हाथियों एवं उनके महावतों को गोली मार सकते थे। इस समय हाथियों की लड़ाई हो रही थी इसलिए हाथियों अथवा उनके महावतों को सैनिकों द्वारा गोली मारना अनैतिक कार्य था किंतु मुगल पक्ष के सैनिकों ने नैतिकता की परवाह किए बिना, महाराणा के हाथियों एवं महावतों को गोली मार दी।

महामहोपध्याय गौरी शंकर हीराचंद ओझा ने उदयपुर राज्य का इतिहास में लिखा है कि दोनों सेनाओं के मस्त हाथी अपनी-अपनी फौज में से निकलकर एक दूसरे से खूब लड़े और हाथियों का दरोगा हुसैन खाँ, जो मानसिंह के पीछे वाले हाथी पर सवार था, हाथियों की लड़ाई में सम्मिलित हो गया।

इस समय मानसिंह ने महावत की जगह बैठकर बहुत वीरता दिखाई। मानसिंह के जवान अंगरक्षक बहादुरों ने भी बड़ी वीरता दिखाई। ओझाजी ने लिखा है कि इस दिन से मानसिंह के सेनापतित्व के सम्बन्ध में मुल्ला शीरी का यह कथन ‘हिन्दू इस्लाम की सहायता के लिये तलवार खींचता है’, चरितार्थ हुआ।

मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी ने मुंतखत उत् तवारीख में लिखा है कि मुसलमानों ने बिना सोचे-विचारे कि राजपूत उनके पक्ष के हैं अथवा राणा के, उन पर तीर तथा गोलियां बरसाना आरम्भ कर दिया। राजा रामशाह तंवर, महाराणा प्रताप की सुरक्षा करता हुआ महाराणा के ठीक आगे चल रहा था, उसे जगन्नाथ कच्छवाहा ने मौत के घाट उतार दिया।

जगन्नाथ कच्छवाहा ने जयमल के पुत्र रामदास राठौड़ को भी मार डाला। जब जगन्नाथ अपने जीवन का बलिदान देने वाला ही था कि मुगल सेना का इल्तमश आ गया। मुगल सेना में मध्य स्थान के अग्रगामी संरक्षक दल को इल्तमश कहते थे। अर्थात् वह सैनिक टुकड़ी जो हरावल के ठीक पीछे रहकर हरावल की पीठ मजबूत करती थी।

अबुल फजल ने अकबरनामा में लिखा है कि सैयद हाशिम घोड़े से गिर गया किंतु सैयद राजू ने उसे फिर से घोड़े पर बैठा दिया। गाजी खाँ बदख्शी आगे बढ़ा और आक्रामक युद्ध में सम्मिलित हो गया।

मुल्ला बदायूंनी ने लिखा है- ‘युद्ध-क्षेत्र की भूमि ऊँची-नीची, रास्ते टेढ़े-मेढ़े और कांटों वाले होने के कारण हमारी सेना के हरावल में गड़बड़ी मच गई, जिससे हमारी हरावल की पूरी तौर से हार हुई।

हमारी सेना के राजपूत, जिनका मुखिया राजा लूणकरण था और जिनमें से अधिकतर वामपार्श्व में थे, भेड़ों के झुण्ड की तरह भाग निकले और हरावल को चीरते हुए अपनी रक्षा के लिये दक्षिणपार्श्व की तरफ दौड़े।

इस समय मैंने अर्थात् अल्बदायूंनी ने, जो कि हरावल के खास सैन्य के साथ था, आसफ खाँ से पूछा कि ऐसी अवस्था में हम अपने और शत्रु के राजपूतों की पहचान कैसे करें?

आसफ खाँ ने उत्तर दिया कि तुम तो तीर चलाये जाओ, चाहे जिस पक्ष के आदमी मारे जावें, इस्लाम को तो उससे लाभ ही होगा। इसलिये हम तीर चलाते रहे। भीड़ ऐसी थी कि हमारा एक भी वार खाली नहीं गया और काफिरों को मारने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ।

इस लड़ाई में बारहा के सैय्यदों तथा कुछ जवान वीरों ने रुस्तम जैसी वीरता दिखाई। दोनों पक्षों के मरे हुए वीरों से रणखेत छा गया।’

मुल्ला बदायूंनी लिखता है-

‘राणा कीका अर्थात् महाराणा प्रताप की सेना के दूसरे हिस्से ने, जिसका संचालक राणा स्वयं था, घाटी से निकलकर काजी खाँ की सेना पर हमला किया जो घाटी के द्वार पर था। चेतक हल्दीघाटी में चक्कर काटने लगा।’

मानसिंह के दरबारी कवि द्वारा लिखित मानप्रकाश नामक ग्रंथ में लिखा है कि इस समय महाराणा प्रताप दो मुख वाले व्यक्ति के समान बड़े वेग से आगे तथा पीछे देखता हुआ युद्ध कर रहा था। महाराणा प्रताप काजी खाँ की सेना का संहार करता हुआ, उसके मध्य तक पहुँच गया, जिससे सब के सब सीकरी के शेखजादे भाग निकले और उनके मुखिया शेख मन्सूर के शरीर में एक तीर ऐसा लगा कि बहुत दिनों तक उसका घाव न भरा। शेख मंसूर शेख इब्राहीम का दामाद था।’

मुल्ला बदायूंनी लिखता है- ‘काजी खाँ मुल्ला होने पर भी कुछ देर तक डटा रहा परन्तु दाहिने हाथ का अंगूठा तलवार से कट जाने पर वह भी अपने साथियों के पीछे भाग गया। ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर के पोते रामशाह तोमर ने, जो हमेशा राणा की हरावल में रहता था, ऐसी वीरता दिखाई, जिसका वर्णन करना लेखनी की शक्ति के बाहर है। मानसिंह कच्छवाहा के राजपूत, जो हरावल के वामपार्श्व में थे, भागे, जिससे आसफ खाँ को भी भागना पड़ा और उन्होंने दाहिने पार्श्व के सैयदों की शरण ली।’

मुल्ला बदायूंनी इस युद्ध में आसफ खाँ के साथ था परंतु आसफ खाँ के भागने के साथ वह अपने भागने का उल्लेख नहीं करता, मुंतखब उत तवारीख का अंग्रेजी अनुवादक टिप्पणी करता है कि मुल्ला बदायूंनी भी अवश्य ही आसफ खाँ के साथ भागा होगा।

मुल्ला बदायूंनी लिखता है- ‘यदि इस अवसर पर सैय्यद लोग टिके न रहते तो हरावल के भागे हुए सैन्य ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी थी कि बदनामी के साथ हमारी हार होती। हमारी फौज पहले हमले में ही भाग निकली थी। वह बनास नदी को पार कर 5-6 कोस तक भागती रही।

इस तबाही के समय मिहतर खाँ अपनी सहायक सेना सहित चंदावल से निकल आया। उसने ढोल बजाया और हल्ला मचाकर फौज को एकत्र होने के लिये कहा। उसकी इस कार्यवाही ने भागती हुई सेना में आशा का संचार कराया जिससे उसके पैर टिक गये।’

मिहतर खाँ ने हल्ला मचाकर क्या कहा, इस विषय में बदायूंनी ने कुछ नहीं लिखा, परंतु अबुल फजल ने अकबरनामा में लिखा है-

‘सरसरी तौर से देखने वालों की दृष्टि में तो राणा की जीत नजर आती थी, इतने में एकाएक शाही फौज की जीत होने लगी, जिसका कारण यह हुआ कि सेना में यह अफवाह फैल गई कि बादशाह स्वयं आ पहुँचा है। इससे बादशाही सेना में हिम्मत आ गई और शत्रु सेना की, जो जीत पर जीत प्राप्त कर रही थी, हिम्मत टूट गई।’

मुल्ला बदायूंनी के इस कथन से अनुमान होता है कि मिहतर खाँ ने सेना को एकत्रित करके उससे कहा होगा कि शहंशाह अकबर स्वयं सेना लेकर आ गया है, इसलिए मुगल सेना को लड़ाई छोड़कर भागने की जरूरत नहीं है। इस प्रकार युद्ध अपने चरम पर पहुँच गया।

अकबर के आने की सूचना से बेखबर चेतक हल्दीघाटी में अब भी एक सिरे से दूसरे सिरे तक चक्कर लगा रहा था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

महाराणा प्रताप का शौर्य (122)

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महाराणा प्रताप का शौर्य

हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप का शौर्य देखते ही बनता था। भारतीय राजा स्वयं युद्ध के मैदान में उतरकर लड़ते थे और अपने सैनिकों तथा सामंतों के समक्ष उच्च आदर्श प्रस्तुत करते थे। महाराणा प्रताप का शौर्य इसी उच्च आदर्श का प्रदर्शन था।

18 जून 1576 को हल्दीघाटी का युद्ध आरम्भ हुआ जिसकी पहल महाराणा प्रताप ने की और वह युद्ध के प्रारंभिक भाग में ही मुगलों पर भारी पड़ गया। महाराणा की सेना के हरावल में हकीम खाँ सूरी की सेना थी जो मुगलों की सेना में धंसकर आगे बढ़ गई।

इस पर महाराणा की सेना का मध्य भाग मुगलों पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ा। मेवाड़ी सेना के इस भाग की अध्यक्षता स्वयं महाराणा प्रताप के हाथों में थी।

यह लड़ाई हल्दीघाटी में आरम्भ हुई थी और लड़ाई का मध्य आते-आते दोनों पक्षों के सैनिक लड़ते-लड़ते रक्ततलाई में पहुंच गये जहाँ युद्ध का तीसरा और सबसे भयानक चरण आरम्भ हुआ।

बड़ी संख्या में सैनिक कट-कट कर मैदान में गिरने लगे। मैदान मनुष्यों, हाथियों एवं अश्वों के कटे अंगों तथा शवों से भर गया और रक्त की नदी बह निकली। रक्त तथा मिट्टी से बनी कीचड़ में पैदल सैनिक तथा घोड़े फिसलने लगे। इस कारण लड़ाई और भी कठिन हो गई।

महाराणा लगातार अपने शत्रुओं को गाजर मूली की तरह काटता हुआ आगे बढ़ रहा था। उसका निश्चय अकबर के सेनापति मानसिंह कच्छवाहे को सम्मुख युद्ध में मार डालने का था।

महाराणा अपने नीले घोड़े पर सवार था जो विश्व-इतिहास में चेटक (चेतक) के नाम से विख्यात है। महाराणा प्रताप को देखते ही मुगल सेना में भगदड़ सी मची जिसके कारण महाराणा प्रताप तेजी से आगे बढ़ता हुआ मानसिंह के हाथी के सामने जा पहुंचा। महाराणा प्रताप का शौर्य देखते ही बनता था।

देवीसिंह मंडावा ने अपनी पुस्तक स्वतंत्रता के पुजारी महाराणा प्रताप में लिखा है कि मुगल अमीर बहलोल खाँ, कच्छवाहा मानसिंह के ठीक आगे उसकी रक्षा करता हुआ चल रहा था। जब महाराणा प्रताप का घोड़ा कुंअर मानसिंह की तरफ बढ़ने लगा तो बहलोल खाँ ने महाराणा प्रताप पर वार करने के लिये अपनी तलवार ऊपर उठायी।

उसी समय महाराणा प्रताप ने अपना घोड़ा बहलोल खाँ पर कुदा दिया तथा उस पर अपना भाला दे मारा जिससे बहलोल खाँ का बख्तरबंद फट गया और बहलोल खाँ वहीं पर मृत्यु को प्राप्त हुआ। इस प्रकार प्रताप का घोड़ा चेटक मुगल सेनापति मानसिंह के हाथी के ठीक सामने पहुँच गया।

महाराणा ने चेटक को चक्कर दिलाकर कुंवर मानसिंह के हाथी के सामने स्थिर किया तथा मानसिंह से कहा कि तुमसे जहाँ तक हो सके, बहादुरी दिखाओ, प्रतापसिंह आ पहुँचा है। इसी के साथ महाराणा प्रताप का शौर्य अपने चरम पर पहुंच गया।

महाराणा के घोड़े ने अपने स्वामी का संकेत पाकर मानसिंह के हाथी की सूण्ड पर अपने दोनों अगले पैर टिका दिये और महाराणा ने मानसिंह पर भाले का भरपूर वार किया परन्तु मानसिंह हाथी के हौदे में झुक गया जिससे महाराणा का भाला उसके कवच में लगा और मानसिंह बच गया।

कुछ लोग मानते हैं कि महाराणा का भाला लोहे के हौदे में लगा जिससे मानसिंह बच गया परन्तु नीचे लिखे एक प्राचीन पद्य के अनुसार भाला बख्तरबंद में लगा था-

      वाही  राण  प्रतापसी  बखतर में बर्छी।

     जाणे झींगरन जाळ में मुँह काढ़े मच्छी।

अर्थात्- महाराणा प्रताप ने मानसिंह के बख्तरबंद में अपनी बर्छी का प्रवेश करवाया। वह इस प्रकार दिखाई देने लगी जैसे कोई मछली किसी जाल के छेद में से मुँह निकाले पड़ी हो!

जब मानसिंह हौदे में गिर पड़ा तो महाराणा प्रताप ने समझा कि मानसिंह मर गया। महाराणा के घोड़े ने अपने दोनों अगले पैर मानसिंह के हाथी की सूण्ड से हटा लिए। इसी समय मानसिंह के हाथी की सूण्ड में पकड़ी हुई तलवार से चेटक का पिछला एक पैर जख्मी हो गया। महाराणा ने मानसिंह को मारा गया समझ कर घोड़े को पीछे मोड़ लिया।

इस युद्ध का उस समय का बना हुआ एक बड़ा चित्र उदयपुर में मौजूद है जो ई.1911 में दिल्ली दरबार के समय आयोजित प्रदर्शनी में रखा गया था। चित्र में हाथी पर बैठे मानसिंह पर महाराणा प्रताप द्वारा भाले का प्रहार करना अंकित है। इस चित्र में महाराणा प्रताप का शौर्य बहुत खूबसूरती से अंकित किया गया है।

रक्ततलाई में चल रहा युद्ध का तीसरा चरण भी महाराणा प्रताप के पक्ष में जा रहा था इसलिये मुगल सेना में भयानक निराशा छा गई और उसके पैर उखड़ने लगे। अचानक मुगल सेना में यह अफवाह फैल गई कि शहंशाह अकबर स्वयं अपनी सेना लेकर आ रहा है।

मुगल सेना जब भी परास्त होने लगती थी या उसमें भगदड़ मच जाती थी, तब मुगल अधिकारियों द्वारा सुनियोजित रूप से मुगल सैनिकों एवं शत्रुपक्ष के सैनिकों में यह अफवाह फैलाई जाती थी कि बादशाह अपनी विशाल सेना लेकर आ पहुँचा है।

इस अफवाह को सुनकर भागते हुए मुगल सैनिक थम जाते थे और दुगुने जोश से लड़ने लगते थे। इस चाल से कई बार, हारी हुई बाजी पलट जाती थी।

हल्दीघाटी के युद्ध में भी जब मुगल सेना में भगदड़ मच गई तो मुगलों की चंदावल सेना के बीच यह अफवाह उड़ाई गई। यह चाल सफल रही तथा भागती हुई मुगल सेना ने पलटकर राणा को घेर लिया। इससे महाराणा के प्राण संकट में आ गये।

अबुल फजल ने लिखा है- ‘अल्लाह की ओर से सहायता आयी, विजय की वायु इस्लाम वालों की आशाओं के गुलाब के पौधों को हिलोरें देने लगी और स्वामिभक्ति में अपने को न्यौछावर करने को उत्सुक लोगों की सफलता की गुलाब-कलियां खिल उठीं।

अहंकार और अपने को ऊँचा मानने का स्वभाव अपमान में बदल गया। सदा-सर्वदा रहने वाले सौभाग्य की एक और नयी परीक्षा हुई। सच्चे हृदय वालों की भक्ति बढ़ गई। जो सीधे-सादे थे, उनके दिल सच्चाई से भर गये।

 जो शंकाएं किया करते थे उनके लिये स्वीकार-शक्ति और विश्वास की प्रातःकालीन पवित्र वायु बहने लगी, शत्रु के विनाश का रात का गहन अन्धकार आ गया। लगभग 150 गाजी रणक्षेत्र में काम आये और शत्रु पक्ष के 500 विशिष्ट वीरों पर विनाश की धूल के धब्बे पड़े।’

महाराणा पर चारों ओर से भयानक प्रहार होने लगे। इस चौथी और अंतिम मुठभेड़ में महाराणा प्रताप के शरीर पर सात घाव लगे, तीन घाव भाले से, एक घाव बंदूक की गोली से तथा तीन घाव तलवारों से। शत्रु उस पर बाज की तरह गिरते थे परंतु वह अपना छत्र नहीं छोड़ता था। वह तीन बार शत्रुओं के समूह में से निकला। संकट की इस घड़ी में महाराणा प्रताप का शौर्य ही उसकी रक्षा कर रहा था।

एक बार जब महाराणा प्रताप सैनिकों की भीड़ में दब कर कुचल जाने ही वाला था कि झाला सरदार मानसिंह तेजी से महाराणा की ओर दौड़ा और महाराणा को इस विपत्ति से निकाल कर ले गया।

आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव, जदुनाथ सरकार तथा वॉल्टर ने इस मेवाड़ी सामंत का नाम झाला बीदा लिखा है जबकि कर्नल टॉड ने इसका नाम झाला मन्ना लिखा है। वस्तुतः झाला मानसिंह को ही झाला बीदा एवं झाला मन्ना के नामों से जाना जाता था।

झाला मानसिंह ने प्रताप के घोड़े पर लगा राजकीय छत्र उतारकर स्वयं अपने घोड़े पर लगा लिया और शत्रुओं को ललकार कर बोला- ‘मैं महाराणा हूँ!’                                              

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

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