Saturday, February 22, 2025
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मानसिंह पर संदेह (130)

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मानसिंह पर संदेह

महाराणा प्रताप की जीत से अकबर को मानसिंह पर संदेह हो गया! अकबर को शक था कि मानसिंह ने जानबूझ कर महाराणा प्रताप को जीतने का अवसर दिया है। अकबर पहले भी मानसिंह को खुले दरबार में यह उलाहना दे चुका था कि तुम हिंदुओं का पक्ष लेते हो!

जब कुंअर मानसिंह और आसफ खाँ मेवाड़ की पहाड़ियों से निकलकर अजमेर चले गए तब महाराणा प्रताप भी अनेक बादशाही थानों को उजाड़ता हुआ अपने थाने स्थापित करने लगा और अपनी सेना के साथ पुनः कुंभलगढ़ चला गया।

उधर जब मानसिंह और आसफ खाँ अजमेर पहुंचे तो अकबर ने उन दोनों की ड्यौढ़ी बंद कर दी। अर्थात् उन्हें अपने सामने आने से रोक दिया। मुल्ला बदायूंनी ने लिखा है कि मानसिंह और आसफ खाँ की गलतियों के कारण बादशाह ने उनकी ड्यौढ़ी बंद कर दी किंतु वह यह नहीं बताता कि वे कौनसी गलतियां थीं जिनके कारण मानसिंह तथा आसफ खाँ की ड्यौढ़ी बंद की गई? निश्चित रूप से अकबर को मानसिंह पर संदेह था कि उसने जानबूझ कर अपने पुराने स्वामी अर्थात् महाराणा प्रताप को जिताया है।

निजामुद्दीन अहमद बख्शी ने इस विषय में तबकाते अकबरी अर्थात् तारीखे निजामी में लिखा है कि मानसिंह वापस चले आने की आज्ञा पाते ही बादशाह के दरबार में उपस्थित हुआ।

जब सेना की दुर्दशा के सम्बन्ध में जांच की गई, तो पाया गया कि सैनिक बहुत बड़ी विपत्ति में थे तो भी कुंवर मानसिंह ने अपनी सेना को राणा कीका अर्थात् प्रतापसिंह का मुल्क नहीं लूटने दिया। इसी से बादशाह मानसिंह पर अप्रसन्न हुआ और उसे दरबार से निकाल कर उसकी ड्यौढ़ी बंद कर दी।

निजामुद्दीन अहमद बख्शी के उक्त कथन से इस बात का आभास हो जाता है कि अकबर भले ही अजमेर में ख्वाजा की दरगाह पर उपस्थित होकर अपनी जीत का जश्न मना रहा था किंतु वास्तव में उसे पता लग गया था कि अकबर की विजय नहीं हुई है अपितु हार हुई है! इस अप्रत्याशित हार के कारण ही अकबर को मानसिंह पर संदेह हो गया था।

अकबर को मानसिंह पर संदेह था अन्यथा वह विजयी सेनापतियों की ड्यौढ़ी क्यों बंद करता? अकबर को इस बात पर भी शक था कि मानसिंह ने जानबूझ कर महाराणा प्रताप को जीतने का अवसर दिया है। अकबर पहले भी मानसिंह को खुले दरबार में यह उलाहना दे चुका था कि तुम हिंदुओं का पक्ष लेते हो!

इस बात का प्रमाण आगे चलकर इस तथ्य से मिलता है कि अगले दस सालों तक अकबर मेवाड़ को जीतने के लिए अपनी सेनाएं भेजता रहा किंतु आगे के अभियानों में अकबर ने मानसिंह को कभी भी मेवाड़ के अभियान पर नहीं भेजा। इससे पुष्टि होती हे कि अकबर को मानसिंह पर संदेह केवल कुछ समय के लिए नहीं हुआ था अपितु उसका संदेह जीवन भर बना रहा।

अकबर के विश्वसनीय मुस्लिम सेनापतियों को ही मेवाड़ के विरुद्ध किए जाने वाले अभियानों की कमान सौंपी गई। यह अलग बात है कि आगे के समस्त अभियानों में भी अकबर के सेनापति मेवाड़ में पिटकर लौटते रहे।

जब हल्दीघाटी के युद्ध के 24 साल बाद अकबर की मृत्यु हुई तब उसे दो ही दुःख सालते थे। पहला यह कि वह महाराणा प्रताप को नहीं मार सका और दूसरा यह कि अकबर का पुत्र सलीम जीवन भर अकबर के विरुद्ध चलता रहा किंतु अकबर उसे अपने अनुकूल नहीं बना सका।

भारत की आजादी के बाद विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम के लिए जो पुस्तकें लिखी गईं उनमें वास्तविक ऐतिहासिक तथ्यों की अनदेखी करके हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की हार तथा अकबर की विजय को चित्रित किया गया।

इन पुस्तकों के माध्यम से भारतीयों को समझाने का प्रयास किया गया कि जहाँ भारत के अन्य राजाओं ने दूरदृष्टि रखते हुए अकबर से संधि की तथा अपनी प्रजा एवं सेना को युद्धों की विभीषिका से बचाया वहीं महाराणा प्रताप में दूरदृष्टि का अभाव था, उसने अपनी प्रजा एवं सेना को अनावश्यक युद्धों की आग में झौंक दिया।

आजाद भारत में लिखी गई इन पुस्तकों ने भारत की जनता के मन में इस बात को लेकर स्थाई संशय उत्पन्न कर दिया कि हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की जीत हुई थी कि हार! वस्तुतः इस प्रश्न की तथ्यपूर्ण विवेचना की जानी चाहिए।

संसार में बहुत से ऐसे युद्ध हुए हैं जिनके विवरण इतिहास के पन्नों पर बहुत विस्तार से लिखे गए और वे जनमानस में भी बहुत लोकप्रिय हुए किंतु उनमें जीत-हार का निर्णय स्पष्ट रूप से नहीं हो सका।

इन युद्धों में दोनों पक्षों ने बहुत-कुछ खोया किंतु सब-कुछ नहीं जिसके कारण न तो किसी पक्ष की स्पष्ट विजय हुई और न किसी पक्ष की स्पष्ट पराजय हुई।

हल्दीघाटी का युद्ध भी उन्हीं युद्धों में से एक था जिसमें दोनों पक्षों ने कुछ न कुछ खोया अवश्य था किंतु सब-कुछ नहीं। अकबर ने अपनी साख खोई थी और महाराणा ने अपने विश्वस्त सेनापति गंवाए थे। यही कारण था कि दोनों पक्षों के कवियों और लेखकों ने हल्दीघाटी के युद्ध में अपने-अपने स्वामियों की विजय बताते हुए उनका पक्ष स्पष्ट किया।

यदि तथ्यों की विवेचना की जाए तो हम पाते हैं कि इस युद्ध में अकबर ने केवल इतना प्राप्त किया था कि उसके अमीरों एवं सेनापतियों को मेवाड़ की भौगोलिक एवं सामरिक स्थिति से वास्तविक परिचय हो गया था जबकि महाराणा ने इस युद्ध के माध्यम से कालजयी ख्याति एवं देशवासियों की अटूट श्रद्धा प्राप्त की।

जैसे-जैसे समय बीतता गया, महाराणा प्रताप साहसी योद्धा से ऐतिहासिक योद्धा, ऐतिहासिक योद्धा से कालजयी योद्धा और कालजयी योद्धा से मिथकों का नायक बनता चला गया। आज भी बहुत से लोग महाराणा प्रताप में इतनी अधिक श्रद्धा रखते हैं जितनी कि वे अपने देवी-देवताओं में रखते हैं जबकि अकबर को समाज के किसी भी वर्ग में ऐसी श्रद्धा, ऐसा आदर और ऐसा प्रेम प्राप्त नहीं हो सका!

हल्दीघाटी के युद्ध में दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी जीत बताई है किंतु 18 जून 1576 में हल्दीघाटी का युद्ध होने से लेकर 19 जनवरी 1597 को महाराणा प्रताप का स्वर्गवास होने तक की समस्त घटनाओं का समग्र विश्लेषण करने से स्पष्ट है कि इस युद्ध में अकबर को विजय प्राप्त नहीं हुई थी।

युद्ध के मैदान में न तो महाराणा प्रताप रणखेत रहा, न युद्ध के पश्चात् महाराणा ने समर्पण किया और न ही, युद्ध के पश्चात् के महाराणा के लगभग 21 वर्ष के जीवन काल में महाराणा प्रताप और अकबर के बीच कोई संधि हुई जिससे यह कहा जा सके कि अकबर को विजय प्राप्त हुई।

न तो महाराणा प्रताप और न उसका पुत्र अमरसिंह कभी भी अकबर के दरबार में उपस्थित हुए। उनके बाद भी कोई महाराणा किसी मुगल बादशाह के दरबार में नहीं गया।

राणा रासौ आदि मेवाड़ से सम्बन्ध रखने वाली अनेक प्राचीन पुस्तकों में महाराणा प्रताप की विजय लिखी गई है। उदयपुर के जगदीश मंदिर की 13 मई 1652 की प्रशस्ति में लिखा है- अपनी प्यारी तलवार हाथ में लिये प्रतापसिंह प्रातःकाल युद्ध में आया तो मानसिंह वाली शत्रु की सेना ने छिन्न-भिन्न होकर पैर संकोचते हुए पीठ दिखाई-

कृत्वा करे खंगलतां स्ववल्लभां प्रतापसिंहे समुपागते प्रगे।

सा खंडिता मानवती द्विपंचमूः संकोचयन्ती चरणौ परांगमुखी।

निश्चित रूप से अकबर को मानसिंह पर संदेह हल्दीघाटी युद्ध में अकबर की पराजय और प्रताप की विजय सूचित करता है जिसकी आधुनिक इतिहासकारों ने पूरी तरह अनदेखी की है।

डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

हल्दीघाटी युद्ध का परिणाम (131)

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हल्दीघाटी युद्ध का परिणाम

हल्दीघाटी युद्ध का परिणाम क्या निकला? इस विषय पर इतिहासकारों ने बहुत कुछ लिखा है किंतु उसके सूक्ष्म तत्वों पर विचार नहीं किया है। कोई युद्ध कैसे लड़ा जाता है, उसका कैसे अंत होता है और युद्ध के बाद दोनों पक्षों का आचरण क्या रहता है, यही वे सूक्ष्म तत्व हैं जिनके आधार पर किसी युद्ध का परिणाम तय होता है। हल्दीघाटी युद्ध का परिणाम भी इसी आधार पर निकाला जाना चाहिए!

हल्दीघाटी के युद्ध में दोनों पक्षों के लेखकों एवं कवियों ने अपने-अपने पक्ष की जीत के दावे किए। इस आलेख में हम उन दावों में निहित तथ्यों की समीक्षा करेंगे। उदयपुर राज्य का इतिहास लिखने वाले महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपना मत प्रस्तुत करते हुए लिखा है-

उस समय के संसार के सबसे सम्पन्न और प्रतापी बादशाह अकबर के सामने एक छोटे से प्रदेश का स्वामी प्रतापसिंह कुछ भी न था क्योंकि मेवाड़ के बहुत से नामी-नामी सरदार बहादुरशाह और अकबर की चित्तौड़ की चढ़ाइयों में पहले ही मर चुके थे, जिससे थोड़े ही स्वामिभक्त सरदार प्रतापसिंह की तरफ से लड़ने के लिये रह गये थे।

मेवाड़ का सारा पूर्वी उपजाऊ इलाका अकबर की चित्तौड़ विजय के समय से ही बादशाही अधिकार में चला गया था, केवल पश्चिमी पहाड़ी प्रदेश ही प्रताप के अधिकार में था, तो भी प्रताप का कुलाभिमान, बादशाह के आगे दूसरे राजाओं के समान सिर न झुकाने का अटल व्रत, अनेक आपत्तियाँ सहकर भी अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने का प्रण और उसका वीरत्व, ये ही उसको उत्साहित करते रहे थे।

हिन्दुओं के विरुद्ध मुसलमान बादशाहों की लड़ाइयों में मुसलमान लेखकों का लिखा हुआ वर्णन एकपक्षीय होता है, तो भी मुसलमान लेखकों के कथन से ही निश्चित है कि शाही सेना की बुरी तरह दुर्दशा हुई और प्रतापसिंह के लौटते समय भी मुगल सेना की स्थिति ऐसी न रही कि वह उसका पीछा कर सके और उसका भय तो उस सेना पर यहाँ तक छा गया कि वह यही स्वप्न देखती थी कि राणा पहाड़ के पीछे रहकर, हमारे मारने की घात में लगा हुआ होगा। दूसरे दिन गोगूंदा पहुँचने पर भी शाही अफसरों को यही भय बना रहा कि राणा आकर हमारे पर टूट न पड़े।

मेवाड़ी सैनिकों के भय से मुगलों ने उस गांव के चौतरफ खाई खुदवाकर घोड़ा न फांद सके, इतनी ऊँची दीवार बनवाई और गांव के तमाम मौहल्लों में आड़ खड़ी करवा दी गई।

फिर भी शाही सेना गोगूंदे में कैदी की भांति सीमाबद्ध ही रही और अन्न तक न ला सकी जिससे उसकी और भी दुर्दशा हुई। इन सब बातों पर विचार करते हुए यही मानना पड़ता है कि इस युद्ध में प्रतापसिंह की ही प्रबलता रही थी।

मौलाना मुहम्मद हुसैन आजाद ने अकबरी दरबार में हल्दीघाटी युद्ध का वर्णन करते हुए लिखा है-

नमक हलाल मुगल और मेवाड़ के सूरमा ऐसे जान तोड़कर लड़े कि हल्दीघाटी के पत्थर इंगुर हो गये। यह वीरता ऐसे शत्रुओं के सामने क्या काम कर सकती थी जिसके साथ असंख्य तोपें और रहकले आग बरसाते थे और ऊँटों के रिसाले आंधी की तरह दौड़ते थे। यह सही है कि अकबर की सेना के सामने महाराणा की सैन्य संख्या कुछ भी न थी किंतु सैन्य संख्या तो जीत-हार का निर्णय नहीं करती।

हल्दीघाटी युद्ध का परिणाम यदि कोई निकला था तो वह इतना ही था कि अकबर ने अल्प समय के लिये मेवाड़ के बड़े भू-भाग पर अधिकार कर लिया था। इस भू-भाग में से भी केवल माण्डलगढ़ को छोड़कर शेष धरती, महाराणा प्रताप ने अकबर के जीवन काल में ही मुगलों से वापस छीन ली थी।

वैसे भी युद्ध के समय किसी पक्ष द्वारा, शत्रु पक्ष का भू-भाग, दुर्ग, धन-सम्पत्ति तथा पशु छीन लेने से अथवा शत्रु पक्ष के परिवार को बंदी बना लेने से उसकी विजय सिद्ध नहीं होती।

ई.1948 एवं 1965 में पाकिस्तान ने भारत का भू-भाग दबा लिया किंतु जीत निश्चत रूप से भारत की हुई थी। ठीक वही स्थिति हल्दीघाटी के युद्ध की थी। अकबर ने मेवाड़ का बहुत सा भू-भाग दबा लिया किंतु जीत महाराणा की हुई।

युद्ध के मैदान में अकबर की सेना के भय की स्थिति यह थी कि प्रताप के घोड़े ने मानसिंह के हाथी के मस्तक पर अपने दोनों पांव टिका दिये और महाराणा ने अपना भाला मानसिंह पर देकर मारा।

मानसिंह झुक गया और महाराणा ने उसे मरा हुआ जानकर अपने घोड़े को मानसिंह के हाथी से हटा लिया। इस पूरे घटनाक्रम में कोई भी मुगल सैनिक महाराणा पर हमला करने का दुस्साहस नहीं कर सका।

युद्ध के दौरान मुगल सेना की स्थिति इतनी बुरी थी कि जब महाराणा प्रताप हल्दीघाटी से बाहर निकल गया तब अकबर की भयभीत सेना, महाराणा का पीछा तक न कर सकी।

युद्ध के पश्चात् की स्थिति यह थी कि जब तक अकबर जीवित रहा, वह महाराणा प्रताप को जान से मारने तथा महाराणा प्रताप के बाद महाराणा अमरसिंह को युद्ध अथवा संधि के माध्यम से अपनी अधीनता अथवा मित्रता स्वीकार करवाने के लिये तरसता रहा।

मुहम्मद हुसैन आजाद ने लिखा है कि 5 अक्टूबर 1605 को आगरा के महलों में जब अकबर की मृत्यु हुई तो उसकी दो ही अधूरी आशाएं थीं। पहली यह कि वह महाराणा प्रताप को काबू में न ला सका और दूसरी यह कि वह मानबाई तथा जहांगीर के पुत्र खुसरो को अपना उत्तराधिकारी न बना सका।

यह भी हल्दीघाटी युद्ध का परिणाम था कि मेवाड़ के महाराणाओं ने कभी भी मुगलों, मराठों एवं अंग्रेजों के दरबार में उपस्थिति नहीं दी। यहाँ तक कि ई.1881 में जब अंग्रेजों ने महाराणा सज्जनसिंह को ग्रैण्ड कमाण्डर ऑफ दी स्टार ऑफ इण्डिया का खिताब देना चाहा तो महाराणा ने अपने वंश के प्राचीन गौरव तथा पूर्वजों का बड़प्पन बताते हुए यह सम्मान लेने से मना कर दिया।

अंत में वायसराय एवं गवर्नर जनरल लॉर्ड रिपन स्वयं यह खिताब लेकर मेवाड़ आया और उसने 23 नवम्बर 1881 को महाराणा के दरबार में हाजिर होकर उसे यह खिताब दिया।

ई.1903 में जब दिल्ली में इंग्लैण्ड के सम्राट एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण के उपलक्ष्य में वायसराय एवं गवर्नर जनरल द्वारा दरबार का आयोजन किया गया तब महाराणा फतहसिंह दिल्ली तो पहुँचा किंतु उसने दरबार में भाग नहीं लिया।

ई.1911 में जब इंग्लैण्ड का सम्राट जार्ज पंचम दिल्ली आया तो भी महाराणा फतहसिंह दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर जार्ज पंचम का स्वागत करके, उसके जुलूस तथा दरबार में भाग लिये बिना ही उदयपुर लौट आया। ई.1921 में जब प्रिंस ऑफ वेल्स उदयपुर आया तो महाराणा फतहसिंह ने उससे भेंट तक नहीं की।

इस प्रकार हल्दीघाटी के युद्ध के सैंकड़ों साल बाद भी भारत के राजनीतिक गगन में हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप की विजय की गूंज सुनाई देती रही। ये समस्त ऐतिहासिक घटनाएं इस तथ्य को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त हैं कि हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर पराजित हुआ था, किसी भी रूप में उसकी विजय नहीं हुई थी।

जबकि दूसरी तरफ इस युद्ध में महाराणा प्रताप निश्चित रूप से विजयी रहा था, किसी भी अंश में उसकी पराजय नहीं हुई थी। हल्दीघाटी युद्ध का परिणाम यही निकला था, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं! आधुनिक साम्यवादी लेखकों ने हल्दीघाटी के युद्ध के वास्तविक इतिहास पर जो धूल बिछाई है, आशा है कि इस तथ्यपरक विवेचन के बाद वह धूल छंट जाएगी।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

अकबर का गोगूंदा अभियान (132)

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अकबर का गोगूंदा अभियान - www.bharatkaitihas.com
अकबर का गोगूंदा अभियान

जब अकबर के सारे सेनापति मिलकर भी महाराणा प्रताप को नहीं घेर सके तो महाराणा प्रताप को ढूंढने अकबर स्वयं गोगूंदा आया! अकबर का गोगूंदा अभियान भी कुछ काम न आया। अकबर महाराणा प्रताप की हत्या करना चाहता था किंतु हत्या करना तो दूर वह महाराणा की छाया को भी नहीं छू पा रहा था।

हल्दीघाटी के युद्ध से पहले, हल्दीघाटी के युद्ध के दौरान तथा युद्ध समाप्ति के बाद अकबर की सेना के भय का स्तर क्या था? अबुल फजल तथा मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी ने अकबर की सेना के भय का उल्लेख किया है जिससे इस बात का अनुमान लगाया जाना सहज है कि इस युद्ध में अकबर के सैनिक बड़ी संख्या में मरे थे।

महाराणा प्रताप तथा उसकी सेना मानसिंह तथा उसकी सेना को ठोक-पीट कर पहाड़ियों में चली गई थी जबकि मानसिंह की सेना गोगूंदा की पहाड़ियों में कैद होकर रह गई थी।

मुहम्मद हुसैन आजाद ने अपनी रचना अकबरी दरबार में हल्दीघाटी के युद्ध का वर्णन करते हुए यह लिखकर अकबर की सेना की हार की पुष्टि की है कि भले ही अकबर की सेना महाराणा की सेना से बहुत बड़ी थी किंतु सैनिकों की संख्या युद्ध में जीत-हार का निर्णय नहीं कर सकती। इस पंक्ति का सीधा-सीधा अर्थ यह है कि अकबर नहीं महाराणा जीता था।

हल्दीघाटी की विफलता के बाद अकबर की क्रोधाग्नि और भी भड़क उठी। अकबर किसी भी कीमत पर महाराणा प्रताप हत्या करना चाहता था जबकि उसके सेनापति प्रताप को छू भी नहीं पा रहे थे।

इधर शाही सेनाओं के मेवाड़ से अजमेर चले जाने के बाद महाराणा प्रतापसिंह ने अपनी सेना के साथ गुजरात की तरफ अभियान किया तथा बादशाही थानों को लूटकर हल्दीघाटी के युद्ध में हुए व्यय की क्षतिपूर्ति करने लगा। इस पर अकबर ने स्वयं गोगूंदा जाने का विचार किया ताकि महाराणा प्रताप को ढूंढकर मारा जा सके।

अकबर के दरबारी लेखक अबुल फजल ने अकबरनामा में लिखा है कि 13 अक्टूबर 1576 को अकबर अजमेर से गोगूंदा के लिये रवाना हुआ। उसके गोगुंदा पहुँचने से पहले ही महाराणा प्रताप पहाड़ों में चला गया। अकबर ने गोगूंदा पहुँचकर कुतुबुद्दीन खाँ, राजा भगवंतदास और कुंवर मानसिंह को महाराणा प्रताप को ढूंढने के लिए पहाड़ों में भेजा।

कुतुबुद्दीन खाँ, राजा भगवंतदास और कुंवर मानसिंह जहाँ-जहाँ गये, वहाँ-वहाँ महाराणा उन पर हमला करता रहा। अंत में उन्हें परास्त होकर बादशाह के पास लौटना पड़ा।

अबुलफजल ने उनकी पराजय का हाल छिपाकर इतना ही लिखा है- ‘वे राणा के प्रदेश में गये परन्तु उसका कुछ पता न लगने से बिना आज्ञा ही लौट आये जिस पर अकबर ने अप्रसन्न होकर उनकी ड्यौढ़ी बंद कर दी। जो माफी मांगने पर बहाल की गई।’

मुंशी देवी प्रसाद ने ‘महाराणा श्री प्रतापसिंहजी का जीवन चरित्र’ में लिखा है कि इसके बाद अकबर बांसवाड़ा की तरफ गया। वह 6 माह तक राणा के मुल्क में या उसके निकट रहा परन्तु राणा ने उसकी परवाह तक न की। बादशाह के मेवाड़ से चले जाने पर राणा भी पहाड़ों से उतरकर शाही थानों पर हमला करने लगा और मेवाड़ में होकर जाने वाले शाही लश्कर का आगरे का रास्ता बंद कर दिया। अकबर का गोगूंदा अभियान विफल हो गया।

अबुल फजल लिखता है कि यह समाचार पाकर बादशाह ने भगवन्तदास, कुंवर मानसिंह, बैराम खाँ के पुत्र मिर्जा खाँ अर्थात् अब्दुर्रहीम खानखाना, कासिम खाँ और मीरबहर आदि को राणा पर भेजा।

मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी ने लिखा है कि मैं उस समय बीमारी के कारण बसावर में रह गया था और बांसवाड़ा के रास्ते से लश्कर में जाना चाहता था किंतु अब्दुल खाँ ने वह रास्ता बंद और कठिनतापूर्ण बताकर मुझे लौटा दिया। फिर मैं सारंगपुर, उज्जैन के रास्ते से दिवालपुर में जाकर बादशाह के पास उपस्थित हुआ।

मुंशी देवी प्रसाद ने लिखा है कि मुगल सेनापति महाराणा को काबू में न ला सके। वे महाराणा को पकड़ने का बहुत प्रयास करते थे परन्तु कभी भी सफल न हो सके। मुगल सेनापति, किसी पहाड़ पर राणा के पड़ाव की सूचना पाकर उसे घेरते किंतु महाराणा दूसरे पहाड़ से निकलकर मुगलों पर छापा मारता था।

इस दौड़-धूप का फल यह हुआ कि उदयपुर और गोगूंदा से शाही थाने उठ गये और मोही का थानेदार मुजाहिद बेग मारा गया।

राजप्रशस्ति महाकाव्य सर्ग 4 के संदर्भ से मुंशी देवी प्रसाद ने लिखा है कि एक बार महाराणा के सैनिकों ने शाही सेना पर आक्रमण किया जिसमें मिर्जा खाँ अर्थात् अब्दुर्रहीम खानखाना की औरतें कुंवर अमरसिंह के द्वारा पकड़ी गईं।

महाराणा ने उनका बहिन-बेटी की तरह सम्मान कर प्रतिष्ठा के साथ उन्हें अपने पति के पास पहुँचा दिया। महाराणा के इस उत्तम बर्ताव के कारण मिर्जा खाँ उस समय से ही मेवाड़ के महाराणाओं के प्रति सद्भाव रखने लगा।

हल्दीघाटी की पराजय की कसक अकबर के हृदय से जाती नहीं थी। वह अपने जीवन काल में महाराणा को मृत देखना चाहता था।

मुल्ला बदायूंनी ने लिखा है कि 15 अक्टूबर 1578 को अकबर ने पुनः भारी सैन्य तैयारी के साथ शाहबाज खाँ मीरबख्शी को कुंवर मानसिंह, राजा भगवन्तदास, पायन्द खाँ मुगल, सैय्यद कासिम, सैय्यद हाशिम, सैय्यद राजू, उलगअसद तुर्कमान, गाजी खाँ बदख्शी, शरीफ खाँ अतगह, मिर्जा खाँ अर्थात् अब्दुर्रहीम खानखाना और गजरा चौहान आदि के साथ मेवाड़ पर चढ़ाई करने भेजा।

मुंशी देवीप्रसाद ने लिखा है कि अकबर की लगभग समस्त सेना शाहबाज खाँ मीरबख्शी को दे दी गई किंतु भयभीत मीरबख्शी ने इस सेना को भी अपर्याप्त समझा तथा अकबर से और सेना की मांग की। अकबर ने अपनी बची-खुची सेनाओं को शेख इब्राहीम फतहपुरी के नेतृत्व में मेवाड़ के लिये रवाना किया।

अबुल फजल ने लिखा है- ‘शाहबाज खाँ कुम्भलगढ़ को विजय करने का विचार करके आगे बढ़ा। उसने राजा भगवानदास तथा कुंवर मानसिंह को इस विचार से कि वे राजपूत होने के कारण राणा से लड़ने में सुस्ती करेंगे, उन्हें बादशाह के पास भेज दिया। इस तरह उसने हिन्दू सेनापतियों को इस युद्ध से पूरी तरह अलग कर दिया और शरीफ खाँ, गाजी खाँ आदि को साथ लेकर कुम्भलगढ़ की ओर बढ़ा तथा कुम्भलगढ़ के नीचे की समतल भूमि पर स्थित केलवाड़ा पर अधिकार कर लिया।’

कविराज श्यामलदास ने वीर विनोद में लिखा है कि- ‘इसके बाद मुगल सैनिक, पहाड़ी पर चढ़ने लगे।’

कुम्भलगढ़ का दुर्ग चित्तौड़ के समान एक अलग पहाड़ी पर स्थित नहीं है किंतु पहाड़ी की विस्तृत श्रेणी के सबसे ऊँचे स्थान पर बना हुआ है जिससे उस पर घेरा डालना सहज काम नहीं है। राजपूत शाही फौज पर पहाड़ों की घाटियों से आक्रमण करने लगे।

एक रात उन्होंने मुगलों की सेना पर छापा मारा और मुगलों के चार हाथी दुर्ग में लाकर महाराणा को भेंट किये। शाही सेना ने नाडोल एवं केलवाड़ा की तरफ से नाकाबंदी करके दुर्ग को घेरना आरम्भ किया।

तब महाराणा ने यह सोचकर कि किले में रसद का आना कठिन हो जायेगा, वह राव अखैयराज सोनगरा के पुत्र भाण सोनगरा को कुंभलगढ़ का दुर्गपति नियुक्त करके राणपुर चला गया। महाराणा प्रताप की माँ अखैराज सोनगरा की पुत्री थी और भाण सोनगरा महाराणा प्रताप का मामा था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

महाराणा प्रताप की हत्या करना चाहता था अकबर ! (133)

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महाराणा प्रताप की हत्या

अकबर किसी भी कीमत पर महाराणा प्रताप की हत्या करना चाहता था किंतु उसके सेनापति इस कार्य में सफल नहीं हो पा रहे थे। इस कारण अकबर अत्यंत निराश रहा करता था। अकबर ने सेनापतियों से कहा महाराणा को मारे बिना आओगे तो तुम्हारा सिर कलम होगा!

अकबर के सेनापति शाहबाज खाँ ने महाराणा प्रताप को कुंभलगढ़ के दुर्ग में घेर लिया किंतु महाराणा प्रताप ने अखैराज सोनगरा के पुत्र भाण सोनगरा को कुंभलगढ़ का दुर्गपति बनाकर दुर्ग उसे सौंप दिया तथा स्वयं राण चला गया। अबुल फजल ने लिखा है कि महाराणा प्रताप के दुर्ग से चले जाने के बाद कुंभलगढ़ के दुर्ग में अकस्मात ही एक बड़ी तोप फट गई जिससे दुर्ग में रखा हुआ लड़ाई का सामान जल गया।

इस पर भाण सोनगरा ने दुर्ग के द्वार खोल दिये। कविराज श्यामलदास ने लिखा है कि भाण सोनगरा मुगलों पर काल बनकर टूट पड़ा। इस युद्ध में भाण सोनगरा एवं बहुत से नामी राजपूत, दुर्ग के द्वार एवं मंदिरों पर लड़ते हुए काम आये। कुंभलगढ़ दुर्ग पर शाहबाज खाँ का अधिकार हो गया।

डॉ. गिरीशनाथ माथुर ने अपने शोधपत्र ‘महाराणा प्रतापकालीन दीवेर युद्ध’ में लिखा है कि महाराणा को कुंभलगढ़ दुर्ग में न पाकर शाहबाज खाँ ने अगले दिन दोपहर में गोगूंदा पर आक्रमण किया। महाराणा को वहाँ भी न पाकर शाहबाज खाँ आधी रात को उदयपुर में घुस गया और वहाँ भारी लूटपाट मचाई किंतु महाराणा वहाँ भी नहीं था। महाराणा इस दौरान गोड़वाड़ क्षेत्र में स्थित सूंधा के पहाड़ों में चला गया।

इधर शाहबाज खाँ की हताशा बढ़ती जा रही थी और उधर अकबर की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वह जल्द से जल्द महाराणा प्रताप की हत्या का समाचार सुनना चाहता था। गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने लिखा है कि शाहबाज खाँ महाराणा प्रताप को ढूंढने बांसवाड़ा की तरफ चला गया। वह दिन और रात बांसवाड़ा की तरफ के पहाड़ों में महाराणा को ढूंढता रहा किंतु महाराणा की छाया को भी नहीं छू सका और थक-हार कर पंजाब की तरफ चला गया जहाँ उन दिनों बादशाह का डेरा था। 

शाहबाज खाँ के जाते ही महाराणा प्रताप फिर से पहाड़ों से निकल आया। कविराज श्यामलदास ने लिखा है कि जब छप्पन की तरफ स्थित चावण्ड के राठौड़ उत्पात करने लगे तो महाराणा ने राठौड़ों के स्वामी लूणा को चावण्ड से निकाल दिया तथा स्वयं अपना निवास नियत करके, चावण्ड में रहने लगा। महाराणा प्रताप ने चावण्ड में अपने महल तथा चामुण्डा माता का मंदिर बनवाया जो आज भी विद्यमान हैं।

गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने लिखा है कि इन्हीं दिनों भामाशाह ने अकबर के अधिकार वाले मालवा प्रांत पर आक्रमण करके मुगलों से 25 लाख रुपये तथा 20 हजार अशर्फियां वसूल कीं। भामाशाह ने वे अशर्फियां चूलियां ग्राम में महाराणा को भेंट की।

इस धन से 25 हजार सैनिक 12 वर्ष तक जीवन निर्वाह कर सकते थे। भामाशाह द्वारा दी गई इस धनराशि के कारण भामाशाह मेवाड़ के इतिहास में अमर हो गया। उसे अद्भुत दानवीर के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त हो गई।

अकबर इन दिनों पंजाब में था। जब उसने महाराणा प्रताप की इन कार्यवाहियों के बारे में सुना तो वह क्रोध से तिलमिला गया। अबुल फजल ने लिखा है कि अकबर ने शाहबाज खाँ को बुलाकर कहा कि तुम अभी मेवाड़ जाओ। महाराणा प्रताप की हत्या अब अकबर की एकमात्र इच्छा बन गया था।

उसके साथ मुहम्मद हुसैन, शेख तीमूर बदख्शी और मीरजादा अली खाँ को भी भेजा गया। इन सेनापतियों से कहा गया कि यदि तुम प्रताप का दमन किये बिना वापस आओगे तो तुम्हारा सिर कलम कर दिया जायेगा। शाहबाज खाँ को, नई सेनाओं की भर्ती के लिये बहुत बड़ा खजाना भी दिया गया।

दिसम्बर 1578 में शाहबाज खाँ पुनः मेवाड़ के लिये रवाना हुआ। उसके आते ही प्रताप फिर से पहाड़ों में चला गया। मुगल सेनाएं तीन महीने तक पहाड़ों में भटकती रहीं और महाराणा प्रताप को ढूंढती रहीं किंतु महाराणा प्रताप मुगल सेना के हाथ नहीं लगा। इस पर ई.1580 के आरम्भ में शाहबाज खाँ मैदानी क्षेत्र के थानों पर मुगल अधिकारी नियुक्त करके मेवाड़ से चला गया।

शाहबाज खाँ, प्रताप को मारे या पकड़े बिना ही फिर से अकबर के दरबार में लौटा था। इस कारण अकबर शाहबाज खाँ से बहुत नाराज हुआ। अकबर ने शाहबाज खाँ का सिर तो कलम नहीं किया किंतु उससे अजमेर की सूबेदारी छीन ली तथा मिर्जा खाँ अर्थात् अब्दुर्रहीम खानखाना को अजमेर का सूबेदार बना दिया।

अकबर के इस कदम से शाहबाज खाँ असंतुष्ट हो गया। मुंशी देवी प्रसाद ने लिखा है कि एक दिन शाहबाज खाँ ने बादशाह के दरबार में अवज्ञा की तो अकबर ने उसे रायसल दरबारी के पहरे में रखवा दिया।

डॉ. गिरीशनाथ माथुर ने लिखा है कि शाहबाज खाँ के चले जाने पर महाराणा ई.1580 में पुनः मेवाड़ आया तथा एक वर्ष तक गोगूंदा से 16 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित ढोल गांव में रहा।

तत्पश्चात् महाराणा, तीन वर्ष तक गोगूंदा से पांच किलोमीटर दूर बांसड़ा गांव में रहा। इस बीच प्रताप ने पूरे मेवाड़ में राजाज्ञा प्रचारित करवाई कि मेवाड़ी प्रजा मैदानी भाग में खेती न करे। यदि किसी ने एक बिस्वा भूमि पर भी खेती करके मुसलमानों को हासिल दिया तो उसका सिर तलवार से उड़ा दिया जायेगा। इस आज्ञा के बाद मेवाड़ के किसान मैदानी क्षेत्रों को खाली करके पहाड़ों पर चले गये और वहाँ किसी तरह अपना पेट पालने लगे।

कविराज श्यामलदास ने लिखा है कि जब मेवाड़ से अनाज का एक दाना भी नहीं मिला तो मुगल सेनाएं देश के दूसरे हिस्सों से अनाज मंगवाने लगीं। इस अनाज को प्रताप के सैनिक लूट लिया करते थे। एक बार प्रताप को सूचना मिली कि ऊँटाले के एक किसान ने शाही थानेदार की आज्ञा से अपने खेत में सब्जी बोई है।

उस किसान को रात के समय मुगल सेना के शिविर में रखा जाता था ताकि महाराणा उसका सिर न काट सके। महाराणा प्रताप ने एक रात शाही फौज में घुसकर किसान का सिर काट डाला और लड़ता-भिड़ता फिर से पहाड़ों में चला गया। प्रताप की इस कार्यवाही के बाद उस सम्पूर्ण प्रदेश में खेती पूरी तरह बंद हो गई जिसमें मुगल सेना का शिविर लगा हुआ था।

कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है कि उन दिनों आगरा से यूरोप के बीच का व्यापार सूरत बंदरगाह के माध्यम से होता था। प्रताप के भय से यह समस्त व्यापार बंद हो गया क्योंकि आगरा से सूरत तक जाने के लिये मेवाड़ से होकर जाना पड़ता था और प्रताप के सिपाही इस माल को लूट लेते थे।

इस बीच हल्दीघाटी के युद्ध को हुए सात साल बीत गए। चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, गोगूंदा और उदयपुर पर अब भी मुगलों का अधिकार था और महाराणा प्रताप पहाड़ी गांवों में रह रहा था। अकबर अपनी सारी शक्ति मेवाड़ के विरुद्ध झौंककर पूरी तरह निराश हो गया था। अक्टूबर 1583 में महाराणा ने कुंभलगढ़ पर फिर से अधिकार करने की योजना बनाई। सबसे पहले उसने दिवेर थाने पर आक्रमण किया जहाँ अकबर की ओर से सुल्तान खाँ नामक थानेदार नियुक्त था।

 प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान उदयपुर में उपलब्ध ‘सूर्यवंश’ नामक ग्रंथ में लिखा है कि जब प्रताप की सेना ने दिवेर पर आक्रमण किया तो आसपास के पांच और मुगल थानेदार अपनी-अपनी सेनाएं लेकर दिवेर पहुँच गये। महाराणा प्रताप की हत्या अब तक नहीं हो पाई थी।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

पीथल और पाथल (134)

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पीथल और पाथल

पीथल और पाथल बीकानेर के राजकुमार पृथ्वीसिंह और मेवाड़ के महाराणा प्रतापसिंह को कहा जाता है। कन्हैयालाल सेठिया ने इसी शीर्षक से एक कविता लिखकर पीथल और पाथल के बीच हुए संवाद का काव्यमय वर्णन किया है। यह घटना डिंगल के कवियों में विशेष लोकप्रिय है जिसमें कहा गया है कि प्रताप रूपी सिंह अकबर रूपी गीदड़ के साथ नहीं बैठेगा!

राजस्थान में यह जनश्रुति प्रचलित है कि एक दिन अकबर ने अपने दरबार में रहने वाले बीकानेर के राजा रायसिंह राठौड़ के छोटे भाई पृथ्वीराज राठौड़ से कहा कि राणा प्रताप अब हमें बादशाह कहने लगा है और हमारी अधीनता स्वीकार करने पर उतारू हो गया है।

कुंअर पृथ्वीराज, भगवान श्रीकृष्ण का अनन्य भक्त था तथा अपने समय का श्रेष्ठ कवि था। जब उसने अकबर के मुँह से यह बात सुनी तो उसे विश्वास नहीं हुआ। उसने अकबर से कहा कि यह सूचना असत्य है। इस पर अकबर ने कहा कि तुम सत्य सूचना मंगवाकर मुझे सूचित करो।

मलसीसर ठाकुर भूरसिंह शेखावत ने ‘महाराणा यश प्रकाश’ में लिखा है कि इस पर पृथ्वीराज राठौड़ ने नीचे लिखे हुए दो दोहे बनाकर महाराणा के पास भेजे-

पातल जो पतसाह, बोलै, मुख हूंतां बयण।

मिहर पछम दिस मांह, ऊगे कासप राव उत।।

पटकूं मूंछां पाण, के पटकूं निज तन करद।

दीजे लिख दीवाण, इण दो महली बात इक।।

अर्थात्- यदि पातल (महाराणा प्रताप) अकबर को अपने मुख से बादशाह कहे तो कश्यप का पुत्र (सूर्य) पश्चिम दिशा में उग जावे। अर्थात् यह असंभव है। हे दीवाण! (महाराणा) मैं अपनी मूंछों पर ताव दूँ अथवा अपनी तलवार से अपने ही शरीर पर प्रहार करूं, इन दो में से एक बात लिख दीजिये।

ज्ञातव्य है कि उदयपुर के महाराणा, भगवान एकलिंगजी को मेवाड़ का राजा और स्वयं को उनका दीवान अर्थात् मंत्री कहते थे। भूरसिंह शेखावत ने महाराणा यशप्रकाश में लिखा है कि महाराणा ने इन दोहों का उत्तर इस प्रकार भिजवाया-

तुरक कहासी मुख पतौ, इण तन सूं इकलिंग।

ऊगै जांही ऊगसी, प्राची बीच पतंग।।

खुसी हूंत पीथल कमध, पटको मूंछां पाण।

पछटण है जेतै पतौ, कलमाँ सिर केवाण।

सांग मूंड सहसी सको, समजस जहर सवाद।

भड़ पीथल जीतो भलां, वैण तुरक सूं बाद।।

अर्थात्- भगवान् एकलिंगजी इस शरीर से (प्रतापसिंह के) मुख से अकबर को तुर्क ही कहलवायेंगे और सूर्य यथावत् पूर्व दिशा में उदय होता रहेगा। हे राठौड़ पृथ्वीराज! जब तक प्रतापसिंह की तलवार यवनों के सिर पर है तब तक आप अपनी मूछों पर खुशी से ताव देते रहिये।

प्रताप अपने सिर पर सांग (भाले) का प्रहार सहेगा क्योंकि अपने बराबर वाले का यश जहर के समान कटु होता है। हे वीर पृथ्वीराज! उस तुर्क अर्थात् अकबर के साथ के वचन रूपी विवाद में आप भलीभांति विजयी हों।

कन्हैयालाल सेठिया ने भी महाराणा द्वारा कष्ट सहन करके भी संघर्ष जारी रखने के संदर्भ में पीथल और पाथल शीर्षक से एक बड़ी भावप्रवण काव्य की रचना की है। उन्होंने लिखा है कि एक बार महाराणा ने अपने परिवार के दुःखों से घबराकर अकबर को पत्र लिखा कि मैं तुम्हारी अधीनता स्वीकार करने को तैयार हूँ। 

अरे घास री रोटी ही जद बन बिलावड़ो ले भाग्यो।

नान्हों सो अमर्यो चीख पड़्यो राणा रो सोयो दुःख जाग्यो।

     हूँ लड़्यो घणो हूँ सह्यो घणो मेवाड़ी मान बचावण नै।

     मैं पाछ नहीं राखी रण में बैर्यां रो खून बहावण नै।

जब याद करूँ हल्दीघाटी नैणां में रगत उतर आवै।

सुखदृदुख रो साथी चेतकड़ो सूती सी हूक जगा जावै।

     पण आज बिलखतो देखूँ हूँ जद राजकंवर नैॉ रोटी नै।

     तो क्षात्र धर्म नै भूलूँ हूँ भूलूँ हिंदवाणी चोटी नै।

आ सोच हुई दो टूक तड़कॉ राणा री भीम बजर छाती।

आँख्यां मैं आँसू भर बोल्यो हूँ लिखस्यूँ अकबर नै पाती।

     राणा रो कागद बाँच हुयो अकबर रो सपनो सो सांचो।

     पण नैण कर्या बिसवास नहीं जद् बाँच बाँच नै फिर बाँच्यो।

बस दूत इसारो पा भाज्यो पीथल नै तुरत बुलावण नै।

किरणां रो पीथल आ पूग्यो अकबर रो भरम मिटावण नै।

     म्हें बांध लियो है पीथल! सुणॉ पिंजरा में जंगली सेर पकड़।

     यो देख हाथ रो कागद है तू देखां फिरसी कियां अकड़।

हूँ आज पातस्या धरती रो मेवाड़ी पाग पगां में है।

अब बता मनै किण रजवट नैॉ रजपूती खून रगां में है।

     जद पीथल कागद ले देखी राणा री सागी सैनांणी।

     नीचै सूं धरती खिसक गयी आख्यों मैं भर आयो पाणी।

पण फेर कही तत्काल संभल आ बात सफा ही झूठी है।

राणा री पाग सदा ऊंची राणा री आन अटूटी है।

     ज्यो हुकुम होय तो लिख पूछूँ, राणा नै कागद रै खातर।

     लै पूछ भला ही पीथल! तूॉ आ बात सही बोल्यो अकबर।

म्हें आज सुणी हैॉ नाहरियो, स्याळां रै सागै सोवैलो।

म्हें आज सुणी हैॉ सूरजड़ो बादल री ओटां खोवैलो

     पीथल रा आखर पढ़ता ही राणा री आँख्यां लाल हुई।

     धिक्कार मनैॉ हूँ कायर हूँ नाहर री एक दकाल हुई।

हूँ भूख मरूं हूँ प्यास मरूं मेवाड़ धरा आजाद रहै।

हूँ घोर उजाड़ां मैं भटकूँ पण मन में माँ री याद रह्वै

     पीथल के खिमता बादल री जो रोकै सूर उगाली नै।

     सिंहा री हाथल सह लेवै वा कूंख मिली कद स्याळी ने।

जद राणा रो संदेश गयो पीथल री छाती दूणी ही।

हिंदवाणों सूरज चमके हो अकबर री दुनियां सूनी ही।

यह एक श्रेष्ठ साहित्यिक रचना है जिसमें शौर्य के उच्च भावों की सृष्टि की गई है किंतु इस कविता का इतिहास की सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं है।

न तो कभी महाराणा अपने परिवार के दुःखों से घबराया, न कभी महाराणा के परिवार ने घास की रोटी खाई, न महाराणा कभी इतना निर्धन हुआ कि उसके पास खाने को अनाज भी न रहा।

न कभी महाराणा ने अकबर को लिखा कि वह अकबर की अधीनता स्वीकार करने को तैयार है। यह तो अकबर के द्वारा रचा गया केवल एक झूठ था जिस पर पृथ्वीराज राठौड़ ने महाराणा प्रताप को पत्र लिखकर वस्तुस्थिति पूछी थी और महाराणा ने उस पत्र का समुचित उत्तर भिजवाकर स्पष्ट कर दिया था कि मैंने कभी भी अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए पत्र नहीं लिखा।

ऐसा एक पत्राचार महाराणा प्रताप की मृत्यु के बाद महाराणा प्रताप के पुत्र अमरसिंह तथा अब्दुर्रहीम खानखाना के बीच हुआ था जिसकी चर्चा हम यथा-समय करेंगे।

 -डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

मीना बाजार (135)

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मीना बाजार

हिन्दू कवियों की दृष्टि में जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर गौरवहीन पुरुष और निर्लज्जा नारियों को खरीदने के लिए मीना बाजार लगाने वाला निर्लज्ज ग्राहक था!

जब कुंअर पृथ्वीराज राठौड़ को महाराणा की ओर से समुचित उत्तर मिल गया तो कुंअर पृथ्वीराज राठौड़ बहुत प्रसन्न हुआ और महाराणा की प्रशंसा में उसका उत्साह बढ़ाने के लिये उसने यह गीत लिखकर भेजा-

नर जेथ निमाणा निलजी नारी, अकबर गाहक बट अबट।

चोहटै तिण जायर चीतोड़ो, बेचै किम रजपूत घट।।

रोजायतां तणैं नवरोजै, जेथ मसाणा जणो जण।

हींदू नाथ दिलीचे हाटे, पतो न खरचै खत्रीपण।।

परपंच लाज दीठ नह व्यापण, खोटो लाभ अलाभ खरो।

रज बेचबा न आवै राणो, हाटे मीर हमीर हरो।।

पेखे आपतणा पुरसोतम, रह अणियाल तणैं बळ राण।

खत्र बेचिया अनेक खत्रियां, खत्रवट थिर राखी खुम्माण।।

जासी हाट बात रहसी जग, अकबर ठग जासी एकार।

है राख्यो खत्री ध्रम राणै, सारा ले बरतो संसार।।

अर्थात्-

जहाँ गौरवहीन पुरुष और निर्लज्ज नारियां हैं और जैसा चाहिये वैसा ग्राहक अकबर है, उस बाजार में चित्तौड़ का स्वामी राणा प्रताप रजपूती को कैसे बेचेगा?

 मुसलमानों के नौरोज में प्रत्येक व्यक्ति लुट गया किंतु हिन्दुओं का स्वामी प्रतापसिंह दिल्ली के उस बाजार में अपने क्षात्रत्व को नहीं बेचता।

राणा हम्मीर का वंशधर प्रताप, प्रपंची अकबर की लज्जाजनक दृष्टि को अपने ऊपर नहीं पड़ने देता और पराधीनता के सुख के लाभ को बुरा तथा अलाभ को अच्छा समझकर बादशाही दुकान पर रजपूती बेचने कदापि नहीं आता।

अपने पुरखों के उत्तम कर्त्तव्य देखते हुए महाराणा प्रताप ने भाले के बल से क्षत्रिय धर्म को अचल रक्खा, जबकि अन्य क्षत्रियों ने अपने क्षत्रियत्व को बेच डाला।

अकबर रूपी ठग भी एक दिन इस संसार से चला जायेगा और उसकी यह हाट भी उठ जायेगी परन्तु संसार में यह बात अमर रह जायगी कि क्षत्रियों के धर्म में रहकर उस धर्म को केवल राणा प्रतापसिंह ने ही निभाया।

अब पृथ्वी भर में सबको उचित है कि उस क्षत्रियत्व को अपने बर्ताव में लावें अर्थात् राणा प्रतापसिंह की भांति विपत्ति भोगकर भी पुरुषार्थ से धर्म की रक्षा करें।

इस पद में नौरोज के उत्सव में अपने वाले गौरवहीन पुरुषों, निर्लज्ज नारियों एवं अकबर जैसे ग्राहक का उल्लेख किया गया है। यह बताना समीचीन होगा कि नौरोज का उत्सव ईरानी प्रथा के अनुसार प्रत्येक नये सौर वर्ष के प्रारंभ में 1 फरवरी से 19 दिन तक मनाया जाता था।

मुगल बादशाह भी यह उत्सव बहुत धूमधाम से मनाते थे। अकबर इस दौरान हिन्दू राजाओं की तरह भव्य पोषाक धारण करके एवं ब्राह्मणों से तिलक लगवाकर शामियाने में बैठ जाता था।

इस अवसर पर अकबर के आदेश से मीना बाजार सजाया जाता था जिसमें मुसलमान अमीरों एवं हिन्दू उमरावों की औरतें दुकानें लगाती थीं जिन पर बादशाह तथा उसके हरम की औरतें खरीददारी करती थीं। रात भर नाच-गाना होता था।

कहीं-कहीं लिखा है कि इस बाजार में केवल अकबर तथा मुगल शहजादे ही सामान खरीदने आते थे जबकि कहीं-कहीं यह भी लिखा है कि इस मेले में अकबर ही एकमात्र पुरुष होता था, शेष सब महिलाएं होती थीं।

कुछ लोगों का मानना है कि अकबर देश-विदेश की स्त्रियों से अपनी हवस बुझाता था। उसके हरम में देश-विदेश की पांच हजार औरतें थीं जो उसकी वासना-पूर्ति का खिलौना भर थीं। इन औरतों से भी अकबर को संतुष्टि नहीं होती थी। इसलिए उसने मीना बाजार का चलन आरम्भ किया जहाँ से वह अपनी पसंद की शहजादियों, अमीर जादियों एवं हिन्दू कुमारियों को अपने महल में बुलाता और अपने हरम में डाल लेता था।

विंसेट स्मिथ तथा अबुल फजल आदि ने अकबर के हरम का विस्तार से उल्लेख किया है। पी. एन. ओक ने अकबर के हरम में औरतों की स्थिति पशु-समूह के समान बताई है।

अबुल फजल के हवाले से सर जदुनाथ सरकार ने लिखा है कि जब किसी मुगल अथवा हिन्दू अमीर की पत्नी अथवा पुत्री को अकबर के हरम में प्रवेश करने की इच्छा होती थी तब उसे लिखित में अनुमति मांगनी होती थी और उसे एक महीने तक शहंशाह के हरम में रहकर शहंशाह की सेवा करने के बाद अपने पति अथवा परिवार के पास लौट जाना होता था।

हालांकि मुझे इतिहास की किसी पुस्तक में उल्लेख नहीं मिला किंतु आधुनिक समय में डॉ. विवेक आर्य एवं नसीब सैनी आदि बहुत से लेखक हिन्दू वीरांगना किरण देवी का उल्लेख करते हैं।

उनके अनुसार जब अकबर ने बीकानेर के राजकुमार पृथ्वीराज की रानी किरण देवी को अपनी हवस की शिकार बनाना चाहा तो किरण देवी ने अपनी कटार निकालकर अकबर पर आक्रमण कर दिया। बड़ी कठिनाई से अकबर के प्राण बच सके।

यद्यपि आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव, जवाहर लालनेहरू एवं राहुल सांकृत्यायन आदि आधुनिक लेखकों ने अकबर के मीना बाजार का उल्लेख नहीं किया है तथापि भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अकबर द्वारा लगाए जाने वाले मीना बाजार को धिक्कारते हुए लिखा है- 

मैं वीर पुत्र, मेरी जननी के जगती में जौहर अपार।

अकबर के पुत्रों से पूछो, क्या याद उन्हें मीना बाजार?

क्या याद उन्हें चित्तौड़ दुर्ग में जलने वाला आग प्रखर?

जब हाय सहस्रों माताएं, तिल-तिल जलकर हो गईं अमर।

वह बुझने वाली आग नहीं, रग-रग में उसे समाए हूँ।

यदि कभी अचानक फूट पड़े विप्लव लेकर तो क्या विस्मय?

हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!

सिराजुद्दौला जिंदा होकर लौटा आया है!

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सिराजुद्दौला

बंगाल का नवाब सिराजुद्दौला ईस्वी 1757 में मर गया था किंतु पूरे 267 साल बाद फिर से जीवित होकर भारत में घुसने की कोशिश कर रहा है।

बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के अधीन वर्तमान बांग्लादेश के साथ-साथ पश्चिमी बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा के क्षेत्र भी शामिल थे। बांग्लादेश के मुसलमानों ने मांग की है कि सिराजुद्दौला के शासन वाले पूरे क्षेत्र बांग्लादेश को मिलने चाहिए।

बांग्लादेश के मुसलमानों की इस बात के दो अर्थ निकलते हैं, पहला यह कि नवाब सिराजुद्दौला जैसे घृणित लोग कभी मरते नहीं, वे हर काल में जीवित होकर लौट कर आते हैं और दूसरा यह कि बांगलादेश के मुसलमान स्वयं को सिराजुद्दौला के वंशज और उत्तराधिकारी समझते हैं।

ठीक वैसे ही जैसे पाकिस्तान में कुछ लोग स्वयं को महमूद गजनवी और मुहम्मद गौरी की औलाद मानते हैं तथा उनके नामों से तोपें और मिसाइलें बनाकर दुनिया को मारना चाहते हैं।

ठीक वैसे ही जैसे भारत में कुछ लोग स्वयं को बाबर के वंशज और उत्तराधिकारी मानते हैं, और वक्फ के माध्यम से पूरे भारत को हड़प जाना चाहते हैं।

आज के भारत में वक्फ बोर्ड के पास दस लाख एकड़ धरती है, इतनी धरती तो स्वयं महमूद गजनवी, मुहम्मद गौरी, बाबर या सिराजुद्दौला के पास भी नहीं थी।

बांगलादेश के मुसलमानों की इस खतरनाक मांग पर मीठी सी प्रतिक्रिया देते हुए पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बांग्लादेश के उन मुसलमानों को खुश एवं सुखी रहने की शुभकामनाएं देते हुए कहा है- ‘आम्ही लॉलीपॉप खात बसणार नाही।’ अर्थात् हम लॉलीपॉप खाकर बैठे नहीं रहेंगे।

ममता बनर्जी ने यह लॉलपॉप छाप प्रतिक्रिया इसलिए दी है कि कहीं पश्चिमी बंगाल में बैठे उनके मुस्लिम वोटर नाराज न हो जाएं। ये वही ममता बनर्जी हैं जो अपने मुस्लिम मतदाओं को खुश करने के लिए भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दीपावली पर मिठाई के स्थान पर पत्थर भेजने की इच्छा व्यक्त कर चुकी हैं तथा नरेन्द्र मोदी की कमर में रस्सी बांधकर बांगलादेश भेजने का इरादा भी जता चुकी हैं।

हैरानी होती है ममता बनर्जी के मुस्लिम-मतदाता प्रेम को देखकर! क्या उनकी प्रतिक्रिया केवल इतनी सी होनी चाहिए थी कि हम बैठकर लॉलीपॉप नहीं खाएंगे! क्या उन्हें ऐसा कुछ नहीं कहना चाहिए था कि भारत माता की तरफ बढ़ने वाले हाथ काट दिए जाएंगे, भारत के विरुद्ध बोलने वालों की जीभ खींची ली जाएगी! जब तक मेरे शरीर में रक्त की एक बूंद है, तब तक कोई बांग्लादेशी भारत की एक इंच भूमि भी नहीं ले सकता!

ममता बनर्जी को यहीं पर छोड़ देते हैं, क्योंकि उनके लिए इतना ही काफी है। अब  थोड़ी सी चर्चा उस सिराजुद्दौला की करते हैं जो मरने के बाद जीवित होकर एक बार फिर से भारत में घुसना चाहता है।

ईस्वी 1748 में दिल्ली का निकम्मा और अय्याश बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला घृणित यौन रोगों की पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए अत्यधिक शराब पीकर मर गया। उसके मरते ही बंगाल के सूबेदार अली वर्दी खाँ ने स्वयं को बंगाल का स्वतंत्र नवाब घोषित कर दिया।

उस समय बंगाल सूबे में आज का बांग्लादेश, पश्चिमी बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा के क्षेत्र आते थे। अलीवर्दी खाँ के कोई पुत्र नहीं था इसलिए उसने अपनी छोटी पुत्री के पुत्र सिराजुद्दौला को अपना उत्तराधिकारी बनाया। जब ईस्वी 1756 में अलीवर्दी खाँ मर गया तो अलीवर्दी खाँ का यही नवासा सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना।

इसी सिराजुद्दौला और ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेना के बीच 23 जून 1757 को कलकत्ता के पास प्लासी के मैदान में प्लासी का युद्ध लड़ा गया था। सिराजुद्दौला की सेना में 50,000 सैनिक थे। जबकि ईस्ट इण्डिया कम्पनी के गवर्नर लॉर्ड क्लाइव के पास केवल 800 यूरोपियन तथा 2200 भारतीय सैनिक थे।

नवाब सिराजुद्दौला ने अंग्रेजों पर चारों तरफ से आक्रमण करने के लिए अपनी सेना के चार टुकड़े किए तथा प्रत्येक टुकड़े को एक मुस्लिम सेनापति के अधीन रखा। जब युद्ध आरम्भ होने ही वाला था, तब नवाब सिराजुद्दौला के चार में से तीन सेनापति सिराजुद्दौला को छोड़कर लॉर्ड क्लाइव की ओर चले गए। इन बागी सेनापतियों का नेतृत्व नवाब सिराजुद्दौला का जवांई मीर जाफर कर रहा।

नवाब सिराजुद्दौला भी युद्ध का मैदान छोड़कर पटना की ओर भाग गया। अंग्रेजों ने उसे पटना पहुंचने से पहले ही पकड़कर कैद कर लिया। 28 जून 1757 को अँग्रेजों ने मीर जाफर को बंगाल का नवाब बना दिया।

2 जुलाई 1757 को मीर जाफर के पुत्र मीरन ने अपने नाना नवाब सिराजुद्दौला की हत्या कर दी। इतिहासकार के. एम. पणिक्कर ने लिखा है- ‘प्लासी एक ऐसा सौदा था, जिसमें बंगाल के धनी लोगों और मीर जाफर ने नवाब को अँग्रेजों के हाथों बेच दिया था।’

इस युद्ध के बाद अंग्रजों ने भारत में राजनीतिक सत्ता स्थापित की। इसी बंगाल से आगे बढ़कर अंग्रेजों ने पहले अवध पर, बाद में दिल्ली पर और अंत में लगभग पूरे भारत पर कब्जा किया था।

जब अंग्रेजों ने भारत में 11 ब्रिटिश प्रांत स्थापित किए, तब बंगाल को भी एक प्रांत बनाया गया था। उस बंगाल प्रांत में आज का बांग्लादेश, पश्चिमी बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा के क्षेत्र आते थे।

ईस्वी 1905 में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल प्रांत के दो टुकड़े किए। उसने पूर्वी बंगाल नामक प्रांत में मुसलमानों की संख्या अधिक रखकर बंगाली हिन्दुओं को अल्पसंख्यक बनाया और पश्चिमी बंगाल में बिहारी एवं उड़िया भाषी लोगों की संख्या रखकर बंगाली हिन्दुओं का अल्पंख्यक बनााया।

कर्जन का उद्देश्य यह था कि पूर्वी बंगाल के लोग मजहब के नाम पर बंगाली हिन्दुओं को मारें तथा पश्चिमी बंगाल के लोग भाषा के नाम पर बंगाली हिन्दुओं को मारें।

उस समय बंगाली हिन्दुओं ने ऐसी अद्भुत एकता दिखाई तथा इतना बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया कि ईस्वी 1911 में अंग्रेजों को बंगाल का विभाजन रद्द करके फिर से एक प्रांत बनाना पड़ा।

ईस्वी 1947 में जब जिन्ना ने भारत का विभाजन करवाया, तब वह पूरा का पूरा बंगाल पूर्वी पाकिस्तान के नाम से चाहता था किंतु सरदार पटेल तथा उनके सचिव वी. पी. मेनन, वायसराय लॉर्ड माउण्टबेटन को यह समझाने में सफल रहे कि यदि पूरा बंगाल पाकिस्तान को दिया गया तो बंगाल में हिन्दुओं का नर-संहार होगा। इसलिए यह तय किया गया कि पूर्वी बंगाल अर्थात् मुस्लिम बहुल क्षेत्र पाकिस्तान को दिया जाए तथा पश्चिमी बंगाल अर्थात् हिन्दू बहुल क्षेत्र भारत में रहने दिया जाए।

इस विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान अर्थात् आज के बांगलादेश से हिन्दुओं को भारत अर्थात् आज के पश्चिमी बंगाल में आना था और यहाँ के मुसलमानों को पूर्वी पाकिस्तान में जाना था किंतु गांधी की जिद पर ऐसा नहीं हो सका। इस कारण बहुत बड़ी संख्या में हिन्दू जनसंख्या पूर्वी पाकिस्तान में रह गई जिन्हें 1947 के बाद सेे ही समाप्त किया जा रहा है।

1947 में बांग्लादेश में 22 प्रतिशत हिन्दू थे। जब भारत विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दुओं का नरसंहार हुआ तब वहां के हिन्दुओं ने पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दुओं के लिए एक अलग देश की मांग की किंतु नेहरू ने लियाकत अली से समझौता कर लिया तथा बंगाली हिन्दुओं की इस मांग को ठुकरा दिया।

अब बांग्लादेश में केवल 8 प्रतिशत बंगाली हिन्दू रह गए हैं। बांग्लादेश के मुसलमान न केवल इन 8 प्रतिशत हिन्दुओं का सफाया करना चाहते हैं, अपितु पश्चिमी बंगाल, बिहार और उड़ीसा को बांग्लादेश में लेकर इन क्षेत्रों के हिन्दुओं का भी सफाया करना चाहते हैं।

इसी निश्चय के साथ पूरे 267 साल के बाद बंगाल का नवाब सिराजुद्दौला न जाने किस कब्र से निकलकर बाहर आ गया है और पूरा बंगाल मांग रहा है। वही सिराजुद्दौला जिसे उसके ही दौहित्र मीरन ने अपनी ही तलवार से कतल कर दिया था।

ममता बनर्जी लॉलीपॉप खाने की बात करके, सिराजुद्दौला को रोकने की बजाय लीपापोती कर रही हैं ताकि ममता बनर्जी पर कोई देशद्रोही होने का आरोप न लगा सके। कानूनी रूप से देशद्रोही न सही, किंतु व्यावहारिक रूप से वे क्या हैं, कोई भी समझदार आदमी यह आसानी से समझ सकता है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

हिन्दू धर्म के सिद्धांत ही बचा सकते हैं दुनिया को!

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हिन्दू धर्म के सिद्धांत

आज दुनिया भर में जिस तरह बमों और मिसाइलों की बरसात की जा रही है, उनसे मानव जाति का भविष्य अंधकारमय दिखाई देता है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि ऐसी स्थिति में केवल हिन्दू धर्म के सिद्धांत ही दुनिया को बचा सकते हैं!

विगत चौदह सौ साल से इस्लाम ने पूरी दुनिया में जेहाद छेड़ रखा है, इस कारण पूरी दुनिया मजहबी उन्माद की शिकार होती रही है। यदि संसार भर की सभ्यताओं को मजहबी उन्माद से बचने का तरीका यदि कोई बता सकता है, तो वह केवल हिन्दू धर्म के सिद्धांत ही हैं।

क्योंकि हिन्दू धर्म के सिद्धांत मनुष्य को प्राणी मात्र से प्रेम करने का सिद्धांत देते हैं। वे किसी रिलीजन, मजहब या पंथ की काराओं में बंद नहीं हैं। हिन्दुओं ने आज तक धरती के किसी कोने में किसी भी प्राणी को धर्म के प्रचार के लिए नहीं मारा है।

आज से लगभग दो हजार साल पहले जब ईसाई रिलीजन का उदय हुआ था तो ईसाइयों ने प्राचीन रोमन धर्म को मानने वाले लोगों का बेरहमी से कत्ल किया था और केवल उन्हीं लोगों को जीवित छोड़ा था जो ईसाई रिलीजन में आने को तैयार हुए। जनता की तो कौन कहे, उन रोमन सम्राटों को भी जहर देकर मार डाला गया जो ईसाई रिलीजन मानने को तैयार नहीं हुए। इस तरीके से ही सम्पूर्ण यूरोप को ईसाई बनाया गया। इसी तरीके से अमरीकी महाद्वीपों, अफ्रीकी महाद्वीप तथा ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप के आदिवासियों को बलपूर्वक इसाई बनाया गया तथा एशिया महाद्वीप के बहुत से देशों में इसाइयत का प्रचार और प्रसार किया गया।

आज संसार की एक तिहाई जनसंख्या ईसाई रिलीजन को मानती है तथा दुनिया भर में ईसाइयों की कुल आबादी 238 करोड़ है। 30 देशों ने स्वयं को ईसाई देश घोषित कर रखा है। सम्पूर्ण यूरोप, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया के दशों की प्रजा बहुसंख्यक है। अफ्रीका और एशिया में भी बहुत से देशों की बहुसंख्यक जनता ईसाई है।  भारत और चीन सहित अनेक देशों में इसाई रिलीजन तेजी से पैर पसार रहा है।

आज से लगभग 1400 साल पहले जब इस्लाम का उदय हुआ, तब इस्लाम के प्रचारकों ने भी वही नीति अपनाई जो ईसाई रिलीजन ने अपनाई थी। अन्य मजहब वालों को मारो और उन्हें बलपूर्वक अपने मजहब में लाओ। आज दुनिया भर में 190 करोड़ से अधिक मुसलमान रहते हैं। 57 देशों ने स्वयं को इस्लामिक देश घोषित कर रखा है।

आज दुनिया के कुल 193 देशों में से भारत सहित एशिया के कुछ ही देश बचे हैं जिनकी जनता ईसाई रिलीजन और इस्लाम मजहब के उदय से पहले प्रचलित धर्मों को मानती है। इनमें से इजराइल देश की बहुसंख्य जनता यहूदी धर्म को मानती है, भारत और नेपाल की बहुसंख्यक जनता हिन्दू धर्म को मानती है, चीन, जापान, कोरिया आदि एशियाई देशों की बहुसंख्य जनता बौद्ध धर्म को मानती है।

आज दुनिया में एक भी देश ऐसा नहीं है जिसने स्वयं को हिन्दू देश घोषित कर रखा हो। जिन-जिन देशों में इसाइयत का प्रसार बढ़ रहा है, उन-उन देशों में नास्तिकों की संख्या भी बढ़ रही है। चीन और कोरिया में नास्तिकों की बढ़ती हुई जनसंख्या को देखकर आश्चर्य होता है।

आज भी ईसाई रिलीजन एवं इस्लाम पूरी दुनिया को अपने-अपने मजहब में लेने के लिए प्रयासरत हैं। इनमें से अधिकतर प्रयास हिंसात्मक तरीकों से हो रहे हैं तो कुछ प्रयास भय, चमत्कार, लालच एवं अन्य तरीकों से हो रहे हैं। इन दो रिलीजन या मजहब वालों के अतिरिक्त दुनिया में तीसरा अन्य कोई रिलीजन या मजहब, दूसरे रिलीजन, मजहब या धर्म वालों को अपने भीतर लेने के प्रयास नहीं करता। अर्थात् जो यहूदी नहीं है, वह यहूदी नहीं बन सकता, जो पारसी नहीं है, वह पारसी नहीं बन सकता।

हिन्दू धर्म की ऐसी स्थिति नहीं है, कोई भी व्यक्ति हिन्दू बन सकता है किंतु हिन्दू धर्म किसी भी अन्य रिलीजन या मजहब वालों को अपने भीतर लेने के लिए न तो प्रोत्साहित करता है और न प्रयास करता है। यहाँ तक कि इस काम को बुरा भी समझता है। फिर भी यदि कोई व्यक्ति चाहे तो वह हिन्दू धर्म अपना सकता है, बौद्ध बन सकता है, जैन बन सकता है, सिक्ख बन सकता है।

आज से लगभग 1300 साल पहले अरब के खलीफाओं की सेनाओं ने भारत में घुसकर मारकाट मचानी आरम्भ की। इन सेनाओं का कार्य हिन्दुओं को मुसलमान बनाना या उन्हें मार डालना था। उस समय हिन्दू प्रजा ने अपनी सांस्कृतिक विरासत की रक्षा करने के लिए हिन्दू धर्म के दरवाजे भीतर से बंद करने आरम्भ कर लिए।

इस्लाम से बचने के लिए हिन्दुओं ने हिन्दू धर्म के दरवाजों पर मोटे-मोटे ताले लटका दिए। ये ताले केवल अपनी जाति के अंतर्गत विवाह करने, किसी अन्य जाति के व्यक्ति के साथ बैठकर भोजन नहीं करने, किसी अन्य के हाथ का स्पर्श किया हुआ भोजन नहीं खाने जैसी परम्पराओं के रूप में थे। इनमें आचरण की शुद्धता, गौपूजा, शाकाहार, ईशभक्ति आदि की परम्पराएं शामिल थीं। तभी से हिन्दू धर्म पर जाति, धर्म, पंथ आदि के ताले लगे हुए हैं। इन तालों के कारण ही आज तक हिन्दू धर्म के सिद्धांत जीवित बच पाए हैं।

हिन्दू धर्म के दरवाजे पर सबसे बड़ा ताला यह लगाया गया कि जो व्यक्ति किसी भी प्रकार से या किसी भी कारण से एक बार ईसाई या मुसलमान हो जाता है, उसे हिन्दू धर्म में वापस स्वीकार नहीं किया जाए। हालांकि आर्य समाज ने इन तालों को खोलने के प्रयास किए, किंतु आर्य समाज ने हिन्दू धर्म में होने वाली मूर्तिपूजा का इतना घनघोर विरोध किया कि सनातनी हिन्दुओं ने आर्यसमाज के प्रयासों को विफल कर दिया।

विगत चौदह सौ सालों में 57 देशों की लगभग सम्पूर्ण प्रजा इस्लाम स्वीकार कर चुकी है तथा बहुत से देशों में जनता का तेजी सी इस्लामीकरण हो रहा है। ऐसी स्थिति में हिन्दुओं का चिंतित होना स्वाभाविक है कि वे हिन्दू धर्म के सिद्धांत कैसे बचाएं? अपनी संस्कृति एवं परम्पराओं की रक्षा कैसे करें?

भारत में यद्यपि 2011 के बाद से जनगणना नहीं हुई है तथापि बहुत सी डेमाग्राफी सम्बन्धी रिपोर्टें भारत सरकार को चेतावनी देती रही हैं कि कितने साल बाद भारत में मुसलमानों की संख्या कितनी हो जाएगी तथा कितने साल बाद भारत इस्लामिक देश हो जाएगा।

इस्लामिक कट्टरपंथियों ने भारत में गजवा ए हिन्द नामक कार्यक्रम चला रखा है जो पीएफआई, वक्फ बोर्ड, अल्पसंख्यक बोर्ड, लव जिहाद, लैण्ड जिहाद, थूक जिहाद, मूत्र जिहाद आदि उपकरणों के माध्यम से भारत में इस्लामीकरण का काम आगे बढ़ाता है। इण्डोनेशिया में बैठे जाकिर नाइक जैसे कट्टरपंथी लोग पूरी दुनिया में इस्लामीकरण को बढ़ावा देने के प्रयास कर रहे हैं।

इन कट्टरपंथियों के प्रयासों को विफल करने के लिए आवश्यक है कि हिन्दू जाति अपने दरवाजों पर लगे सांस्कृतिक तालों को फिर से खोले तथा उन कन्वर्टेड हिन्दुओं को वापस हिन्दू धर्म में लाने का प्रयास करे जिनके पुरखे विगत 1400 सालों में मुसलमान या इसाई बन गए।

वर्ष 2024 के अंतिम महीनों में उत्तर प्रदेश के जौनपुर नगर में 100 कन्वर्टेड परिवारों ने फिर से हिन्दू धर्म में वापसी की है। इन लोगों के पूर्वज ब्राह्मण थे और जजिया न दे पाने के कारण इस्लाम स्वीकार करने को विवश हुए थे। ये 100 परिवार अब फिर से सत्य-सनातन धर्म में लौट आए हैं। घर वापसी के लिए इन परिवारों के समक्ष क्या चुनौतियां थीं, उनका समाजशास्त्रीय अध्ययन करवाया जाना चाहिए।

हिन्दू धर्म में वापसी करने वालों को बताया जाना चाहिए कि हिन्दू बनने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता है, केवल मंदिर या तीर्थ में जाकर या अपने ही घर में रहकर मन में यह स्वीकार करना पड़ता है कि मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं। मैं आज के बाद किसी भी मनुष्य या जीव के प्रति हिंसा नहीं करूंगा और दूसरों को भी हिंसा न करने के लिए प्रेरित करूंगा। समस्त प्राणियों में अपने भगवान को देखूंगा। मेरे लिए कोई पराया नहीं है, मैं सबका हूँ और सब मेरे हैं। हिन्दू होने का अर्थ अपने भीतर केवल इतना परिवर्तन करना ही है।

हिन्दू धर्म में वापसी करने वाला कोई जनेऊ पहने या न पहने, तिलक लगाए या न लगाए, मूर्ति पूजा करे या न करे, कोई व्रत करे या न करे, किसी तीर्थ में जाए या न जाए, केवल और केवल श्रीहरि विष्णु या शिवशंकर या भगवती दुर्गा के प्रति स्वयं को समर्पित करे, उनके चरणों का ध्यान करके सबसे उदारता का व्यवहार करे। वेदों और गायों को नमस्कार करे, बस इतने भर से आदमी हिन्दू हो जाता है और हिन्दू बना रहता है। आज जो एक सौ करोड़ से अधिक हिन्दू धरती पर रहते हैं, उनमें से अधिकांश ऐसे ही हैं। हिन्दू धर्म के सिद्धांत हिन्दुओं को यही सिखाते हैं।

हिन्दुओं की घर वापसी के कार्य में कोई भय, लालच या दबाव से कार्य नहीं लिया जाना चाहिए। जो भी कट्टरपंथी चाहे वे हिन्दू हों, मुसलमान हों, ईसाई हों या किसी अन्य पंथ या मजहबी विचारों के हों, यदि इस कार्य में बाधा उत्पन्न करें तो उनके साथ कानूनी तरीके से निबटा जाना चाहिए।

केवल जौनपुर का अकेला प्रकरण नहीं है, विगत 10-15 वर्षों में घर वापसी के ऐसे सैंकड़ों प्रकरण निजी एवं सामूहिक स्तर पर हुए हैं। देश भर में हजारों ऐसे लोग, गांव एवं समुदाय हैं जो अब हिन्दू धर्म में वापसी करना चाहते हैं किंतु इन लोगों को अपने ही परिवार एवं समाज वालों द्वारा अत्याचार किए जाते हैं।

यदि कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति द्वारा स्वेच्छा से की जा रही हिन्दू धर्म में वापसी में बाधा उत्पन्न करता है, अत्याचार करता है, हिंसा करता है तो घर वापसी करने वाले की रक्षा के लिए विशेष कानून बनना चाहिए तथा पीड़ित व्यक्ति को सरकार की ओर से निशुल्क कानूनी सहायता दी जानी चाहिए।

यदि भारतीय जनता पार्टी की सरकार इन कार्यों को करती है राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता को बढ़ावा मिलेगा। मजहबी कलह कम होगी तथा पूरे संसार के सामने एक मिसाल कायम होगी।

विगत पिचहत्तर साल की भारतीय राजनीति ने सिद्ध कर दिया है कि अनेकता में एकता जैसे नारे किसी काम के नहीं होते, एकता में ही एकता है। जब किसी देश की जनता में राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं धार्मिक एकता नहीं होती है, तभी अनेकता में एकता जैसे झूठे नारे लगाने पड़ते हैं। इसी लिए योगीजी ने बंटेंगे तो कटेंगे तथा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे जैसे नारे दिए हैं।

हिन्दू धर्म सबका है, यह किसी की बपौती नहीं है। हिन्दू धर्म किसी प्रकार के कन्वर्जन में विश्वास नहीं रखता किंतु अब उसे अपने दरवाजे कम से कम उन लोगों के लिए तो खोल ही देने चाहिए जो अपने पुरखों की परम्परा में लौटना चाहते हैं।

भारत के लोगों को शायद यह पता नहीं होगा कि गाजा में हमास की स्थापना करने वाले शेख इस्माइल अहमद यासीन के पुत्र शिन बेथ ने इसलिए इस्लाम छोड़कर ईसाइयत स्वीकार कर ली है कि वह मजहब के नाम पर इंसानों की हत्या होते हुए नहीं देखना चाहता। उसने भारत के हिन्दुओं का आह्वान किया है कि वे मध्य-एशिया में आएं और हमें गीता का उपदेश देकर युद्धों की विभीषिकाओं से बाहर निकालें।

इस्माइल अहमद यासीन के पुत्र शिन बेथ केवल और केवल हिन्दू धर्म के सिद्धांत ही आज मध्य एशिया में शांति स्थापित कर सकते हैं। जब विदेशी मुसमान इस बात को समझ सकते हैं तो वे लोग क्यों नहीं समझ सकते जिनके पुरखे हिन्दू थे और जो लोग विगत 800 सालों से हिन्दुओं के बीच में, हिन्दुओं के साथ रह रहे हैं।

देश को एक करने का हमारे सामने यही उज्जवल समय है। हम अपने दिलों और दिमागों के दरवाजे खोलें। जो घर छोड़कर चले गए हैं, उन्हें प्रेम से बुलाएं और इज्जत देकर बैठाएं। मेरी समझ में तो सुख और शांति की बस यही राह निकलती है। 

यदि हिन्दू जाति अपनी सांस्कृतिक विरासत एवं परम्परा को बचाना चाहती है तो हिन्दू धर्म को अपने दरवाजे उन लोगों के लिए खोलने होंगे जो विगत एक हजार सालों में अन्य मजहबों में चले गए हैं।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

प्रियंका गांधी का भाषण क्या गांधियों के गौरव की पुनर्स्थापना है?

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प्रियंका गांधी का भाषण

लोकसभा में पहली बार हुआ कांग्रेस की नेता प्रियंका गांधी का भाषण गांधी परिवार के अतीत के गौरव की पुनर्स्थापना की चेष्टा से भरा हुआ था। यह स्वाभाविक ही है कि प्रत्येक नेता अपने, अपने परिवार के और अपने दल के गौरव का ही बखान करता है किंतु यह एक विचित्र सी बात थी कि प्रियंका गांधी का भाषण वर्तमान सरकार को कायर सिद्ध करने पर तुला हुआ था। क्या प्रियंका गांधी अपने परिवार के गौरव की पुनर्स्थापना इस तरह प्राप्त करना चाहती हैं?

प्रियंका गांधी का भाषण जिस किसी ने भी ध्यान से सुना, वह यह सुनकर हैरान रहा गया कि ‘भारत लंबे समय तक ‘कायरों के हाथ में कभी नहीं रहा, यह देश उठेगा और लड़ेगा।’ प्रियंका गांधी ने कायर किसे कहा, भारत के इतिहास को, भारतीय जनता पार्टी को या सीधे-सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को?

प्रियंका गांधी ने गिरा हुआ किसे कहा? क्या भारत को या भारत की जनता को? भारत कहाँ गिर गया है, उसे उठकर कहाँ जाना है?

प्रियंका गांधी ने नाम तो किसी का नहीं लिया। इसलिए हमें स्वयं ही वे संदर्भ जुटाने होंगे जिनसे यह समझा जा सके कि प्रियंका गांधी ने कायर किसे कहा और गिरा हुआ किसे कहा?

प्रियंका की बातों के संदर्भ ढूंढने से पहले हमें मेरा दागिस्तान नामक एक पुस्तक के कज्जाक लेखक रसूल हमजातोव के एक विख्यात कोटेशन का स्मरण करना उचित होगा। उन्होंने अपनी पुस्तक के आरंभ में लिखा है कि यदि तुम अतीत पर पिस्तौल से गोलियां चलाओगे तो भविष्य तुम पर तोप से गोली चलाएगा।

प्रियंका गांधी का भाषण अपने अतीत पर पिस्तौल से गोलियां चला रहा है? देश पर शासन करने वालों की बात ऋग्वैदिक काल से आरम्भ करते हैं क्योंकि ऋग्वेद में उन राजाओं के नाम हैं जिन्होंने भारत में शासन व्यवस्था आरम्भ की। हिन्दू राजाओं ने भारत पर लगभग 10 हजार साल तक शासन किया। इस अवधि में ऋग्वेद की रचना आरम्भ होने से लेकर ईस्वी 1192 में मुहम्मद गौरी द्वारा पृथ्वीराज चौहान की हत्या किए जाने तक का समय गिना गया है।

ईस्वी 1192 से 1290 तक अर्थात् 98 साल तक अफगानिस्तान गजनी से आए तुर्क गुलामों ने, ईस्वी 1290 से 1320 तक अर्थात् 40 साल तक अफगानिस्तान के खिलजी कबीले ने, ईस्वी 1320 से 1414 तक अर्थात् 94 साल तक अफगानिस्तान के तुगलक कबीले ने, ईस्वी 1414 से 1451 तक अर्थात् 37 साल तक ईरान से आए सैयदों ने, ईस्वी 1451 से 1526 तक अर्थात् 75 साल तक अफगानिस्तान के लोदी कबीले ने भारत पर शासन किया।

प्रियंका गांधी इनमें से किस कबीले को वीर मानती हैं?

ईस्वी 1526 से 1540 तक अर्थात् केवल 13 साल तक उज्बेकिस्तान से आए बाबर तथा हुमायूं ने, ईस्वी 1540 से 1555 तक अर्थात् केवल 15 साल तक शेरशाह सूरी तथा उसकी औलादों ने, ईस्वी 1555 से 1765 तक बाबर की औलादों ने शासन किया।

प्रियंका गांधी इनमें से किसे वीर मानती हैं?

ईस्वी 1757 में प्लासी की लड़ाई के बाद भारत में सात समंदर पार से आई मसाला बेचने वाले कम्पनी के नौकरों ने भारत पर शासन आरम्भ किया। उनका राज्य 1858 तक अर्थात् पूरे 101 साल तक चला। इसके बाद भारत में इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया का शासन आरम्भ हुआ। विक्टोरिया तथा उसकी औलादें ईस्वी 1947 तक अर्थात् 89 वर्ष तक भारत पर शासन करती रहीं।

क्या प्रियंका गांधी सात समंदर पार के इन गोरों को वीर मानती हैं? प्रियंका गांधी का भाषण इसे स्पष्ट नहीं करता कि उनकी दृष्टि में वीर कौन था!

अब आते हैं भारत की आजादी से कुछ महीने पहले अर्थात् ईस्वी 1946 में बनी अंतरिम सरकार पर। अंतरिम सरकार का गठन करने से पहले कांग्रेस ने अपने अध्यक्ष के चुनाव करवाए। इसी अध्यक्ष को अंग्रेज प्रधानमंत्री बनने का निमंत्रण देने वाले थे। यह चुनाव प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों द्वारा किया जाना था।

उस समय कांग्रेस में 16 प्रांतीय कांग्रेस कमेटियां काम करती थीं। इनमें से 13 ने सरदार पटेल को, 2 ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को तथा 1 ने गांधीजी को अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव भेजा। प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों का यह निर्णय नेहरू को स्वीकार नहीं हुआ। तब गांधीजी कांग्रेस पर अपना निर्णय थोपा तथा सरदार पटेल की बजाय नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष बनवा दिया। क्या यह वीरता का काम था?

यदि नेहरूजी और गांधीजी वीर थे तो उन्हें एक भी काले पानी की सजा क्यों नहीं हुई? जबकि विनायक दामोदर सावरकर जैसे स्वतंत्रता सेनानियों को दो काले पानी की सजा हुई। नेहरू और गांधी ने मिलकर जितना चरखा नहीं घुमाया था, उससे अधिक तो सावरकर ने अण्डमान की जेल में कोल्हू फेरा था।

भगतसिंह, सुखदेव राजगुरु को अंग्रेजों ने जेल में फांसी दी थी, चंद्रशेखर आजाद को अंग्रेजों ने उस समय गोली मारी जब वे नेहरू से मिलकर उनके घर से बाहर निकले थे। अंग्रेजों ने सुभाषचंद्र बोस का विमान रहस्यमय तरीके से मार गिराया था।

प्रियंका गांधी का भाषण यह नहीं बताता कि प्रियंका गांधी इनमें से किस को वीर कहना चाहेंगी?

जब 1951 में चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया, तब भारत में जवाहरलाल नेहरू ही प्रधानमंत्री थे, जब 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया था तब भी नेहरू ही प्रधानमंत्री थे। उन्होंने भारतीय सेना को लड़ने का आदेश देने की बजाय भारतीय सेना के हाथ बांध दिए थे।

चीन ने कांग्रेस के शासन में भारत की 38 हजार वर्ग किलोमीटर धरती पर कब्जा जमा लिया है, यह वीरता का काम है क्या?

पाकिस्तान ने कांग्रेस के शासन में हमारी 13 हजार 296 वर्ग किलोमीटर भूमि पर कब्जा कर लिया, यह वीरता का काम है क्या?

एक फिल्मी गीत में एक पंक्ति आती है- रंग अमन का वीर जवाहर है? प्रियंका गांधी क्या सचमुच ही जवाहरलाल नेहरू को फिल्मी गीतों का वीर मानती हैं?

1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया था। तब के प्रधानमंत्री लाल बहादुर ने तीन काम किए। पहला काम यह किया कि भारत का एयरफ्रंट तुरंत खोल दिया। उनके इस कदम से दुनिया भौंचक्की रह गई। किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि भारत का प्रधानमंत्री ऐसा त्वरित निर्णय लेगा जबकि देश के पास खाने के लिए गेहूं भी नहीं था।

शास्त्रीजी का दूसरा काम यह था कि उन्होंने सेना का आह्वान बड़े जोशीले शब्दों में किया- जवानों बढ़े चलो! ऐसी बात सुनकर किस देश की सेना का खून नहीं खौल उठेगा?

शस्त्रीजी का तीसरा काम एक नारे के रूप में सामने आया। उन्होंने कहा- जय जवान, जय किसान। उस नारे ने भारत के प्रत्येक नागरिक को नींद से जगा दिया। भले ही भारत को इस युद्ध में भी हानि उठानी पड़ी किंतु इस युद्ध में भारत में पाकिस्तान में जो मार लगाई, उससे घबराकर ही शास्त्रीजी को ताशकंद में बुलाकर उनकी हत्या करवाई गई।

क्या प्रियंका गांधी लालबहादुर शास्त्री को वीर कहने का साहस जुटा पाएंगी? उनके पास तो प्रधानमंत्री की कुर्सी केवल 19 महीने रही थी!

1971 का युद्ध जीतने वाली, पाकिस्तान का विभाजन करवाने वाली, बांग्लादेश का निर्माण करने वाली तथा दुनिया भर के नेताओं की आंख में आंख डालकर बात करने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी निश्चित रूप से वीर थीं किंतु उन्हीं इंदिरा गांधी को युद्ध के तुरंत बाद हुए चुनाव जीतने भारी पड़ गए। उन्होंने चुनाव तो जीत लिया किंतु इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उन्हें चुनाव जीतने के लिए 14 प्रकार के कदाचारों का दोषी मानकर उनका निर्वाचन रद्द कर दिया। इंदिरा गांधी ने देश पर इमरजेंसी थोप दी।

प्रियंकाजी क्या आप स्वीकार करेंगी कि वीरता का मार्ग और सत्ता पाने या सत्ता में बने रहने का मार्ग अलग-अलग हैं?

मोरारजी भाई की सरकार के समय संभल में 1978 का भीषण नरसंहार हुआ तथा 178 हिन्दुओं को काट डाला गया, यह बहुत वीरता का काम था क्या?

अब बात करते हैं राजीव गांधी की। जब शाहबानो प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने देश को एक दिशा दिखाई तब राजीव गांधी संसद में चिल्लाने लगे आरएसएस वालों की चड्डियां जला दो, क्या यह वीरता का काम था?

अपना वोट बैंक बचाने के लिए वीरवर राजीव गांधी ने संसद में कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को मानने से मना कर दिया। दुखिया वृद्धा शाहबानो को न्याय नहीं देने वाले राजीव गांधी क्या सचमुच ही वीर थे?

वर्ष 1990 में मुलायम सिंह ने कार सेवकों पर गोलियां चलाकर सैंकड़ों निहत्थे हिन्दुओं को मारकर बहुत वीरता का काम किया क्या?

तब के प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने अयोध्या के नरसंहार को समर्थन देकर तथा देश को मण्डल कमीशन की आग में झौंककर बहुत वीरता का काम किया क्या?

अब बात करते हैं पी वी नरसिम्हाराव की जो अपने गुप्त मित्रों को खुश करके अपनी सरकार बचाते थे और गुप्त मित्रों को प्रसन्न करने के लिए वक्फ बोर्ड जैसा घिनौना कानून बनाकर गए, प्लेसेज ऑफ वरशिप एक्ट जैसा कानून बनाकर हिन्दुओं की पीठ में घाव बना गए। क्या पी वी नरसिम्हाराव को वीर मानें?

अब बात करें डॉ. मनमोहनसिंह की। इस वीर पुरुष ने कहा कि उनकी सरकार पार्टी के प्रति जवाबदेह है। इस वीर पुरुष ने अपनी सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह ही नहीं माना। ऐसा तो सचमुच कोई वीर पुरुष ही कह सकता है। इसी वीर पुरुष ने कहा कि देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला अधिकार है। प्रियंका गांधीजी को शायद ऐसे ही किसी अन्य वीर पुरुष की तलाश है जिसे देश की सत्ता अधिक से अधिक समय के लिए सौंपी जा सके!

ज्यादा लम्बी बात नहीं करके अब सीधे ही उनकी तरफ आते हैं जिनकी तरफ प्रियंका गांधी ने कायरता का संकेत किया है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कश्मीर से धारा 370 हटाकर और कश्मीर को अंतिम रूप से भारत में मिलाकर कायरता का काम किया है क्या?

नरेन्द्र मोदी सरकार ने पाकिस्तान से ट्रेन, बस, व्यापार, वार्ता बंद करके कायरता का काम किया है क्या?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने देश के 25 करोड़ लोगों को गरीबी की रेखा से ऊपर उठाकर कायरता का काम किया है क्या?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने कोराना की वैक्सीन बनाकर देश के लोगों के लोगों के प्राण बचाए, यह कायरता का काम है क्या?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने चीन के हजारों एप बंद करके कायरता का काम किया है क्या?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने डोकलाम, गलवान, देपसांग तथा देमचोक आदि से चीन को पीछे धकेलकर कायरता दिखाई है क्या?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने देश की सेना को अरबों रुपयों के संसाधन दिलवाकर कायरता दिखाई है क्या?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने पाकिस्तान के हाथ में कटोरा देकर अंतर्राष्ट्रीय भिखारी बना दिया है, इस कार्य में भारत सरकार की कायरता दिखती है क्या?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अयोध्या में राममंदिर बनवाकर, केदारनाथ धाम का उद्धार करवा कर, काशी विश्वनाथ कोरीडोर बनवाकर, उज्जैन महकाल परिसर बनवाकर कायरता के काम किये हैं क्या?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में देश में एक भी बड़ा साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ, यह कायरता है क्या? पाकिस्तान में घुसकर आतंकवादियों को मारने में कोई कायरता है क्या? इस ऑपरेशन में भारत का एक प्लेन पाकिस्तान में क्रैश नहीं हुआ था क्या, विंग कमाण्डर अभिनंदन वर्द्धमान को पाकिस्तान पर दबाव बनाकर वापस भारत लाया नहीं गया था क्या? ये सब कायरता की बातें हैं क्या?

राष्ट्रीय सुरक्षा के मसलों पर देश के प्रधानमंत्री के साथ-साथ देश की सेना पर झूठ बोलने का आरोप लगाना वीरता है क्या?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने देश में यूपीआई डिजीटल क्रांति करके, मेक इन इण्डिया की नीति लागू करके, सेना के हथियार देश में ही बनाने की शुरुआत करके, देश की अर्थव्यवस्था को गति देकर, करोड़ों परिवारों को निशुल्क खाद्यान्न देकर उन्हें गरीबी की रेखा से बाहर निकलने में सहायता करके, करोड़ों परिवारों को  शौचालय तथा लाखों परिवारों को घर उपलब्ध करवाकर कायरता के काम किए हैं क्या?

आज अमरीका बांग्लादेश में जिस घिनौने हिन्दू नरसंहार के माध्यम से भारत को बांग्लादेश पर आक्रमण करने तथा फिर उसे रूस की तरह एक लम्बी जंग में फंसा देने के लिए उकसावे की कार्यवाही कर रहा है किंतु नरेन्द्र मोदी सरकार ने देश को उसके जाल में फंसने से रोककर कायरता का काम किया है क्या?

प्रियंका गांधीजी सत्ता में बैठे लोगों के लिए कायर शब्द का प्रयोग करने से पहले आपको क्षण भर भी ऐसा नहीं लगा कि इससे आपके रहे-सहे मतदाता भी आपसे दूर हो जाएंगे। न्याय एवं नीति क्या है, इसकी तो आपसे आशा ही नहीं की जा सकती।

कुल मिलाकर यदि यह कहा जाए कि लोकसभा में प्रियंका गांधी का भाषण मिथ्या संकल्पनाओं से भरा हुआ था, मिथ्या सूचनाओं से युक्त था और आरम्भ से अंत तक भारत तथा भारत की जनता को नीचा दिखाने वाला था जिसने कि गांधी परिवार से सत्ता छीनकर भारतीय जनता पार्टी को सौंप दी है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

हिन्दुओं का गौरवशाली अतीत लौटा पाएगी भाजपा?

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हिन्दुओं का गौरवशाली अतीत

जब से नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी देश की सत्ता में आई है, तब से भारत के हिन्दुओं की आशाएं पंख लगाकर उड़ रही हैं। क्या भाजपा हिन्दुओं का गौरवशाली अतीत लौटा पाएगी ?

लगभग आठ शताब्दियों तक अफगानी तुर्कों, समरकंद के मुगलों एवं सात समंदर पार से आए अंग्रेजों की गुलामी तथा लगभग आधी शताब्दी तक कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टिकरण का दर्द भोग चुकी हिन्दू जनता अब अपने गौरवशाली इतिहास को फिर से जीवित होते हुए देखना चाहती है।

भारतीय जनता पार्टी के शासन में हिन्दू जनता अपने हजारों साल पुराने मंदिरों के ऊपर से मस्जिदों, दरगाहों एवं तकियों का बोझ उतार कर धरती पर रखना चाहती है। इन सारे मंदिरों को हिन्दू जनता फिर से पाना चाहती है। अब हिन्दू जनता मथुरा का श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर, संभल का हरिहर मंदिर एवं कल्कि तीर्थ और वाराणसी का काशी विश्वनाथ मंदिर पूर्णतः मस्जिदों से मुक्त हुए देखना चाहती है।

हिन्दू जनता अपनी दस लाख एकड़ धरती वक्फ बोर्ड से मुक्त करवाना चाहती है। वह हज यात्रियों को दी जाने वाली सुविधाओं को समाप्त होते हुए देखना चाहती है और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग जैसी संस्थाओं को बंद होते हुए देखना चाहती है।

हिन्दू जनता अब देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का नहीं मानती तथा देश के संसाधनों पर देश के समस्त नागरिकों का न्याय संगत अधिकार चाहती है। अब हिन्दू जनता देश में अवैध रूप से रह रहे रोहिंग्याओं को देश से बाहर निकालना चाहती है। थूक और पेशाब जेहाद से मुक्ति चाहती है। देश की सीमाओं में घुस रहे घुसपैठियों को रोकना चाहती है और पाकिस्तान की ओर से आने वाले आतंकवादियों का पूरी तरह सफाया चाहती है।

अब हिन्दू जनता देश के समस्त लोगों के लिए एक समान कानून चाहती है और देश में रह रहे दूसरे नम्बर के सबसे बड़े बहुसंख्यक समुदाय को अल्पसंख्यक दर्जे से बाहर निकालकर देश की मुख्य धारा में लाना चाहती है। देश की जनता अपनी मुस्लिम बहिनों को हलाला की पीड़ा से मुक्त होते हुए देखना चाहती है जिस प्रकार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रयासों से मुस्लिम बहिनें तीन तलाक की पीड़ा से मुक्ति पा चुकी हैं।

हिन्दू जनता इतनी सारी चीजें यह जानते हुए भी भारतीय जनता पार्टी की सरकार से पाना चाहती है कि भारत में भीतर, बाहर, हर ओर प्रतिकूल परिस्थितियों का बोलबाला है।

देश की जनसंख्या का लगभग पांचवा हिस्सा गैर-हिन्दू है। देश में धर्मनिरपेक्ष संविधान लागू है। देश में मुस्लिम तुष्टिकरण की लम्बी परम्परा है। जैनों, बौद्धों और सिक्खों को हिन्दुओं से अलग करके ईसाइयों एवं मुसलमानों के साथ अल्पसंख्यक श्रेणी में डाला जा चुका है तथा मण्डल कमीशन के माध्यम से हिन्दुओं को छोटी-छोटी जातियों में बांटा जा चुका है।

संसद में विपक्षी पार्टियां सरकार के साथ हर प्रकार से असहयोग का रुख अपना कर बैठी हैं। देश भर में विपक्ष में बैठी राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों के वोटों के लिए तड़प रही हैं।

आरएसएस हिन्दुओं और मुसलानों का डीएनए मिलाने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंच चुकी है कि हर मस्जिद में शिवालय मत ढूंढो। आरएसएस के सरसंघ चालक मोहन भागवत पूरी तरह से हिन्दुओं की आकांक्षाओं के विपरीत वक्तव्य दे रहे हैं।

देश की सीमाओं पर पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन जैसी भारत विरोधी शक्तियां अशांति मचाए हुए हैं। पाकिस्तान में बैठे मसूद अजहर, इण्डोनेशिया में बैठे जाकिर नाइक तथा कनाडा में बैठे गुरपंतवंत सिंह पन्नू जैसे आतंकवादी, भारत के विरुद्ध घिनौने षड़यंत्र रच रहे हैं। अमरीका में बैठे सोरोस जैसे अरबपति भारत के उद्योगपतियों को बदनाम करके भारत की अर्थव्यवस्था को चौपट करने का प्रयत्न कर रहे हैं।

भारत के पड़ौसी देश पाकिस्तान, नेपाल, बर्मा, मालदीव और बांग्लादेश चीन की गोद में जाकर बैठ गए हैं जो भारत की सीमाओं को हड़पना चाहता है। पाकिस्तान से हिन्दू गायब हो चुके हैं और बांग्लादेश में खुलेआम हिन्दुओं का नरसंहार हो रहा है।

क्या भारतीय जनता पार्टी इतनी सारी विपरीत परिस्थितियों के चलते हिन्दुओं की इतनी सारी आंकाक्षाओं में से कुछ आकांक्षाएं भी पूरी करने में समर्थ है? क्या भारतीय जनता पार्टी हिन्दुओं का गौरवशाली अतीत लौटा पाने में सक्षम है? क्या वह हिन्दुओं को उनके मंदिर लौटाने में समर्थ है?

क्या भाजपा देश के लोगों को अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के अन्यायपूर्ण बंटवारे से मुक्ति दिलवाने में समर्थ है? इन प्रश्नों को समझने के लिए एक दृष्टि 1947 से 2021 तक के राजनीतिक परिदृश्य पर डालते हैं।

भारत की आजादी के बाद हिन्दुओं को लगता था कि मुसलमानों के शासन काल में भारत में जिन हिन्दू मंदिरों को तोड़ा गया था, या जिन पर मस्जिदें खड़ी की गई थीं, वे फिर से हिन्दुओं को मिलेंगे किंतु प्रथम कांग्रेसी प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर अंतिम कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव की सरकारों ने इस मार्ग में इतने रोड़े खड़े कर दिए कि आजादी के 75 साल बाद हिन्दू स्वयं को छले हुए से अनुभव करते हैं।

हिन्दुओं की यह खीझ, कांग्रेस के सिमटते अस्तित्व और बीजेपी को मिलने वाले वोटों में साफ दिखाई देती है किंतु हिन्दु आज भी इस प्रतीक्षा में है कि हिन्दुओं का गौरवशाली अतीत कब लौटेगा?

नरसिम्हाराव सरकार ने अपने गुप्त मित्रों की सहायता से अपनी सरकार को बचाए रखने के लिए प्लेसेज ऑफ वरशिप एक्ट 1991 के माध्यम से हिन्दू मंदिरों के पुनरुद्धार का मार्ग पूरी तरह बंद कर दिया गया। नरसिम्हाराव अपने इन गुप्त मित्रों का उल्लेख सार्वजनिक तौर पर इन शब्दों में करते थे- हमारे कुछ गुप्त मित्र हैं।

हिन्दू चाहते हैं कि प्लेसेज ऑफ वरशिप एक्ट 1991 को निरस्त किया जाए। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी लम्बे समय से चल रही है किंतु भारत सरकार उस याचिका पर अपना रुख स्पष्ट नहीं कर रही। इसलिए सुप्रीम कोर्ट उस पर निर्णय नहीं दे पा रही।

अब सुप्रीम कोर्ट ने चार हफ्ते में केन्द्र सरकार से जवाब मांगा है। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने देश भर की सभी अदालतों को निर्देश दिया है कि वे मौजूदा धार्मिक संरचनाओं के खिलाफ चल रहे मामलों में कोई भी अंतरिम या अंतिम आदेश अथवा सर्वेक्षण के आदेश नहीं दें। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि जब तक हम इस मुकदमे की सुनवाई कर रहे हैं, तब तक किसी भी न्यायालय में कोई मुकदमा दर्ज नहीं किया जाए।

हलांकि हिन्दू भारत भर में हजारों की संख्या में अपने पुराने धार्मिक स्थलों को फिर से पाना चाहते हैं किंतु वर्तमान में देश में केवल 10 मस्जिदों या दरगाहों के विरुद्ध 18 मामले लंबित हैं।

बहुत से लोग मानते हैं कि मंदिर हमारी आस्था के केन्द्र हैं किंतु हमारे मंदिर केवल आस्था के केन्द्र नहीं हैं, वे हमारे गौरव के केन्द्र भी हैं, वे हमारी प्रसन्नता के केन्द्र भी हैं, वे हमारे इतिहास के केन्द्र भी हैं, वे हमारी संस्कृति के केन्द्र भी हैं। मंदिर हमारी चेतना के केन्द्र भी हैं।

मंदिर हमारी राष्ट्रीय प्रगति एवं सामाजिक उत्थान के केन्द्र भी हैं। हिन्दू जाति ने कभी किसी के साथ किसी भी चीज के लिए छीना-झपटी नहीं की किंतु जो मंदिर हिन्दू जाति की धरोहर हैं, वे हिन्दुओं को वापस मिलने ही चाहिए।

विभिन्न पंथों एवं मजहबों के लोगों को भी हिन्दुओं की इस पीड़ा को समझना चाहिए और उदार एवं व्यावहारिक रुख अपनाते हुए प्राचीन हिन्दू मंदिर हिन्दुओं को वापस सौंपकर देश में सुख, शांति एवं समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।

कब तक हम मंदिर-मस्जिद के नाम पर लड़ते रहेंगे। उन मंदिरों की एक सूची बने जिन पर हिन्दुओं का दावा है, उनका सर्वे हो और उसके बाद हिन्दू प्रतीकों वाले धार्मिक स्थल हिन्दुओं को सौंप दिए जाएं। ताकि मंदिर-मस्जिद का झगड़ा हमेशा के लिए समाप्त हो।

राजनीतिक दलों की महत्वाकांक्षाएं, कानूनी जटिलताएं और सरकारी अमले की सुस्ती इस समस्या को 75 सालों से बढ़ा रहीं हैं। अब प्रत्येक पक्ष को ठण्डे मस्तिष्क एवं पूरी ईमानदारी से इस समस्या का अंतिम समाधान ढूंढना चाहिए।

भारत का संविधान इतना उदार और इतना विराट है कि प्रत्येक कोर्ट के दरवाजे देश के प्रत्येक नागरिक के लिए हर समय खुले हैं। इस कारण कोर्ट किसी के मार्ग की बाधा नहीं हैं, न हिन्दुओं के मार्ग की और न किन्ही अन्य मतावलम्बियों के मार्ग की। कोर्ट को संविधान के आलोक में एवं तथ्यों के आधार पर निर्णय देना है, बशर्ते कि नरेन्द्र मोदी की सरकार सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ सही तथ्य, सही कानूनी भाषा में कोर्ट के समक्ष रख सके।

यदि भारत सरकार चार हफ्तों की अवधि में सुप्रीम कोर्ट में दिए जाने वाले जवाब में हिन्दुओं की संतुष्टि के लिए न्यायपूर्वक समाधान प्रस्तुत नहीं कर पाती हैं तो पूरे देश के हिन्दू मतदाता भारतीय जनता पार्टी से भी उसी प्रकार निराश हो जाएंगे जिस प्रकार वे कांग्रेस की समस्त सरकारों से निराश होते थे या जिस प्रकार मोरारजी देसाई, वी. पी. सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारों से हमेशा-हमेशा के लिए निराश हुए थे।

विगत दस वर्षों में नरेन्द्र मोदी सरकार के समक्ष इससे पहले शायद ही कभी इतनी बड़ी चुनौती आई हो! देश के लोगों को आशा है कि जिस प्रकार हजार बाधाओं के विद्यमान होते हुए भी नरेन्द्र मोदी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर का प्रकरण सुलझा लिया था, उसी प्रकार वह अपने इस कार्यकाल में न केवल वक्फ बोर्ड के अन्यायपूर्ण कानूनी प्रावधानों को समाप्त करेगी, अपितु प्लेसेज ऑफ वरशिप एक्ट को समाप्त करवाकर हिन्दुओं को उनकी सांस्कृतिक आजादी वापस से लौटाएगी, हिन्दुओं का गौरवशाली इतिहास मंदिरों के रूप में फिर से जगमगाएगा। देश फिर से अध्यात्मिक चेतना का केन्द्र बनेगा।

हम सब विश्वगुरु बनने की बात तो करते हैं किंतु उसके लिए कुछ करते नहीं, विश्वगुरु बनने का मार्ग इन्हीं मंदिरों से होकर निकलता है। भारत के अधिकांश मुसलमानों एवं इसाइयों के पुरखे हिन्दू थे इसलिए हिन्दुओं का गौरवशाली अतीत देश के प्रत्येक नागरिक का गौरव है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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