इस आलेख में हम राम कालीन जातियाँ विषय पर प्रकाश डाल रहे हैं। भगवान राम के समय भारत में कितनी जातियाँ निवास करती थीं, इसके सम्बन्ध में किसी ग्रंथ में प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती किंतु विभिन्न प्राचीन ग्रंथों के आधार पर भगवान राम के काल की जातियों का अनुमान लगाया जा सकता है।
आज भारत में निवास करने वाले हिन्दुओं में कई हजार जातियाँ पाई जाती हैं किंतु हिन्दू जाति अत्यंत प्राचीन काल में जातियों में विभक्त नहीं थी। भारत में विभिन्न भागों में निवास करने वाले लोग अपने समुदाय की अलग पहचान रखते थे, उन्हें ही उस काल की जातियां कहा जा सकता है।
इस आलेख में हम राम कालीन जातियाँ विषय पर प्रकाश डाल रहे हैं। भगवान राम के समय भारत में कितनी जातियाँ निवास करती थीं, इसके सम्बन्ध में किसी ग्रंथ में प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती किंतु विभिन्न प्राचीन ग्रंथों के आधार पर भगवान राम के काल की जातियों का अनुमान लगाया जा सकता है।
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उस काल में कम से कम पंद्रह बड़ी जातियाँ भारत के विभिन्न क्षेत्रों में निवास करती थीं।
हिमालय पर्वत पर निवास करने वाली देव जाति सबसे विकसित एवम् शक्तिशाली थी।
देवों के बाद आर्य जाति सबसे विकसित एवम् शक्तिशाली थी। आर्यों को देव जाति की ही संतान माना जाता है।
आर्यों ने मनुष्य के कार्य के आधार पर आर्य जाति को वर्णों में समायोजित किया था।
रामजी के काल में यक्ष, गंधर्व एवम् किन्नर जातियों के भी उल्लेख मिलते हैं जो पहाड़ियों में छिपकर रहती थीं।
ये जातियां भी देवों एवम् मानवों की मित्र थीं। ये देवों की उपजातियां थीं
देव, आर्य, यक्ष, गंधर्व एवम् किन्नर जातियों में परस्पर मित्रता थी।
नाग जाति पूरे देश में फैली हुई थी। उस काल में यह भी एक विकसित जाति थी।
वनों में निवास करने वाली जातियों में वानर, ऋक्ष, गरुड़ एवम् गीध जातियाँ प्रमुख थीं।
भारत के दक्षिण-पूर्व में स्थित समुद्री द्वीपों में निवास करने वाली प्रमुख जाति का नाम रक्ष अथवा राक्षस था। इन्हें असुर, दैत्य एवम् दानव भी कहते थे।
नागों एवम् राक्षसों में मित्रता थी। भगवान राम ने मानवों एवम् वानरों में मित्रता स्थापित की।
इन जातियों के साथ-साथ कोल, किरात, भिल्ल, शबर एवम् निषाद आदि जातियों के उल्लेख भी मिलते हैं। निषाद जाति को केवट भी कहते थे। भगवान राम ने आर्यों एवं निषादों में मित्रता स्थापित करवाई थी।
उस काल में देव एवम् आर्यों को छोड़कर शेष जातीय समुदायों के मुख पूरी तरह विकसित नहीं हुए थे। इस कारण जिस मानव समुदाय की मुखाकृति प्रकृृति के जिस जीव से साम्य रखती थी, उसी प्राणी के नाम पर उस मानव समुदाय का नामकरण हो गया था। यथा गीध, गरुड़, वानर, ऋक्ष आदि।
आज भी भारत में हिमालय से लेकर समुद्र तक तरह-तरह के मुंह वाले मानव देखने को मिलते हैं। यदि निवास स्थल के अनुसार इन जातियों का अवलोकन करें तो हम पाते हैं कि भारत के धुर उत्तर में स्थित हिमालय पर्वत पर सुर, हिमालय से विंध्याचल तक नर, विंध्याचल से समुद्र तक की भूमि पर वानर और समुद्र में स्थित द्वीपों में असुर जातियां रहती थीं।
इन्हीं सब जातियों को राम कालीन जातियाँ कहा जा सकता है।
जब-जब सनातन धर्म पर संकट आया है, तब-तब सनातन धर्म की रक्षा के लिए भारत के साधु-संतों एवं संन्यासियों ने अपने साधना स्थलों से बाहर निकल कर भारत की जनता का उद्धार किया है। आज फिर से सनातन धर्म संकट में है तथा साधु-संतों एवं संन्यासियों को अपने मठों, आश्रमों, तपोस्थलियों से बाहर निकल कर हिन्दू जनता के बीच आकर हिन्दू जनता का उद्धार किए जाने की आवश्यता है।
सनातन धर्म पर प्रहार करके उसे नष्ट करने का सिलसिला उस समय से ही आरम्भ हो गया था जिस समय हयग्रवीव नामक असुर ब्रह्माजी के हाथों से वेद छीनकर पाताल में छिप गया था। तब भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी को नींद में सोया हुआ जानकर स्वयं वेद की रक्षा करने का निश्चय किया तथा हयग्रीव नामक असुर को मारने के लिए विष्णु ने स्वयं भी हयग्रीव के रूप में अवतार लिया तथा हयग्रीव नामक असुर को मारकर वेद का उद्धार किया था।
तब से लेकर आज तक सनातन वैदिक धर्म पर असुरों, दैत्यों, विधर्मियों आदि के प्रहार होते ही रहे हैं। इसी कारण समय-समय पर सनातन वैदिक धर्म की रक्षा के लिए प्रयास भी उच्च स्तर पर होते रहे हैं।
भगवान विष्णु ने मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम और कृष्ण के रूप में अवतार लेकर हिन्दू धर्म को बचाया।
जिस समय रावण ने वैदिक संस्कृति एवं धर्म को मिटाने के लिए देवताओं एवं लोकपालों को बंदी बना लिया और जंगलों में तप कर रहे ऋषि-मुनियों को नष्ट करना आरम्भ किया, तब मुनि विश्वामित्र ने श्रीराम को अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देकर तथा महर्षि अगस्त्य ने श्रीराम को दिव्य अस्त्र-शस्त्र देकर लेकर असुरों का वध करवाया।
महाभारत काल में जब कंस, जरासंध, शिशुपाल, दुर्योधन आदि दुष्ट राजाओं के कारण हिन्दू धर्म एवं संस्कृति पर महाविनाश का खतरा उत्पन्न हो गया तब श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर, द्रुपद, विराट, त्रितर्ग एवं पाण्ड्य आदि समस्त अच्छी शक्तियों को एक करके दुष्ट राजाओं का विनाश करवाया। इसीलिए श्रीकृष्ण की वंदना कृष्णम् वंदे जगद्गुरुम् कहकर की जाती है।
जिस समय बौद्धों ने मौर्य राजाओं का संरक्षण पाकर सनातन वैदिक धर्म को पूरी तरह समाप्त करने की तैयारी की, उस समय पूरे भारत में बौद्ध मठ बन गए। लोग अपना नियत कर्म त्यागकर मठों में जाकर रहने लगे। देश में तंत्र-मंत्र और अभिचार का बोलबाला हो गया। बौद्धों के इस पाखण्ड में वेदों की आवाज दब सी गई।
तब केरल के एक छोटे से गांव का संन्यासी शंकराचार्य केवल आठ वर्ष की आयु में अपने गुरु से दीक्षा लेकर भारत की आत्मा को जगाने के लिए निकला। वह जंगलों, पर्वतों एवं नदियों को पार करता हुआ सम्पूर्ण भारत में घूमा।
आचार्य शंकर ने गांव-गांव जाकर लोगों को वैदिक धर्म का ज्ञान दिया। बौद्धों को शास्त्रार्थों में पराजित किया। चार दिशाओं में चार मठों की स्थापना की जिन्होंने धर्म रूपी समुद्र में यात्रा कर रही भारत की जनता को सदियों तक ज्ञान का प्रकाश स्तम्भ बनकर धर्म के सच्चे स्वरूप का ज्ञान करवाया।
बौद्धों के पाखण्ड का नाश करने के लिए गुरु मत्स्येंद्रनाथ, गोरखनाथ, भर्तरीनाथ एवं गोपीचंद आदि नौ नाथों ने अपने जीवन हिन्दू धर्म के उद्धार के लिए झौंक दिए। ये नाथ भारत के गांव-गांव फिरे और उन्होंने लोगों को बौद्ध धर्म के पाखण्ड से बाहर निकलकर हिन्दू धर्म की तरफ लौटाया।
नाथों में ही सरहपा आदि चौरासी सिद्ध हुए। उन्होंने भी सैंकड़ों साल तक गुरु मत्स्येंद्रनाथ एवं गोरखनाथ के काम को आगे बढ़ाया और भारत की जनता सनातन वैदिक हिन्दू धर्म में लौट आई। सरहपा को भी बौद्धों ने बौद्ध बना लिया था किंतु वे अपनी आत्मा के प्रकाश से पुनः हिन्दू धर्म में लौटे तथा उन्होंने भारत, नेपाल एवं तिब्बत में निवास करने वाली हिन्दू जतना का उद्धार किया।
जिस समय सातवीं शताब्दी ईस्वी में अरब की धरती पर इस्लाम ने जन्म लिया और आठवीं शताब्दी ईस्वी से खलीफाओं की सेनाएं भारत के लोगों को बलपूर्वक मुसलमान बनाने के लिए आने लगीं, तब दक्षिण भारत में आलवार संतों ने भारत के लोगों को विष्णु-भक्ति का मार्ग सुझाया। कुल 12 आलवार संतों ने तीन सौ साल की अवधि में पूरे दक्षिण को भक्तिमय कर दिया। घर-घर आरती और कीर्तन होने लगे।
आलवार संतों ने दक्षिण भारत में विष्णु धर्म की जड़ को इतना मजबूत कर दिया कि उसे किसी लालच, भय एवं मीठी बातों से हिला पाना संभव नहीं रहा।
इन्हीं आलवारों की परम्परा में रामानुजाचार्य हुए। रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य और निम्बार्काचार्य ने भी सैंकड़ों साल तक भारत की जनता का अध्यात्मिक नेतृत्व किया तथा उसमें विष्णु भक्ति के प्रति नवीन चेतना का संचार किया।
रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में रामानंदाचार्य हुए। उनके काल में महमूद गजनवी एवं उनके कुछ समय बाद मुहम्मद गौरी आदि के नेतृत्व में भारत की जनता का संहार हुआ। उत्तर भारत की जनता अपना धर्म बचाने के लिए कुओं में छलांगें लगाने लगी। बहुत से भयभीत हिन्दू तलवार के जोर पर मुसलमान बनाए गए।
इस काल में रामानुजाचार्य के शिष्य रामानंद ने मोर्चा संभाला। उन्होंने, उनके श्ष्यिों ने तथा उनके शिष्यों के शिष्यों ने उत्तर भारत में भक्ति की ऐसी रसधारा बहाई कि लोग अपने धर्म की रक्षा करने के लिए आततायी सेनाओं का मुकाबला करने के लिए तैयार होने लगे।
रामानंद की प्रेरणा से उत्तर भारत में वैष्णव भक्त-कवियों की झड़ी लग गई। कबीर, तुलसी, मीरा, रैदास, दादू आदि संतों ने भारत की आत्मा को धर्ममय बना दिया। तुलसीदास ने धनुर्धारी राम का ऐसा स्वरूप भारत की जनता के सामने रखा, जैसा पहले कोई भी नहीं रख सका था।
तुलसी के राम हाथ में धनुष लेकर ताड़का, सुबाहू, मारीच और रावण को मारते थे तो शबरी के झूठे बेर खाकर, गीध की अंत्येष्टि करके, बिना किसी अपराध के ही समाज की दृष्टि से नीचे गिरी हुई अहिल्या का उद्धार करके सम्पूर्ण भारतीय समाज को सम्बल देते थे और जंगलों में स्थित संत-महात्माओं के आश्रमों में जाकर उन्हें निर्भय होकर तप करने का संदेश देते थे।
जिस समय देश पर सिकंदर लोदी भारत के लोगों को तेजी से मुसलमान बनाने लगा, उस काल में वल्लभाचार्य और उनके शिष्यों ने मोर्चा संभाला। उन्होंने वृंदावन क्षेत्र से उन मूर्तियों का उद्धार किया जो आतताइयों के भय से धरती में दबी पड़ी थीं। वल्लभाचार्य के शिष्य सूरदास ने पूरी भारत भूमि को कृष्णमय बना दिया। आज भी करोड़ों भारतीय सूरदास के बाल कृष्ण को भोग लगाए बिना मुंह में अन्न नहीं रखते।
सिकंदर लोदी के शासन काल में ही बंगाल से चैतन्य महाप्रभु अपने शिष्यों की मण्डली लेकर बंगाल से निकले। वे भारत के सैंकड़ों गांवों से हरिकीर्तन करते हुए और भक्ति में मग्न होकर नाचते हुए निकले तथा वृंदावन तक पहुंचे। उनके गौड़ीय सम्प्रदाय ने बड़ी संख्या में बंगाल, बिहार, उड़ीसा एवं उत्तर प्रदेश के लोगों को मुसलमान बनने से रोका।
जब इस्लामी सेनाओं ने महाराष्ट्र में प्रवेश किया, तब संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम, रामदास आदि सैंकड़ों संतकवि घरों का त्याग करके जनता के बीच घूमने लगे।
औरंगजेब के काल में हजारों सतनामियों ने मीनाक्षी माता से प्रेरणा पाकर पंजाब से लेकर आगरा एवं दिल्ली तक के क्षेत्र में औरंगजेब की सेना द्वारा किए जा रहे अत्याचारों का विरोध किया तथा औरंगजेब की सेना को परास्त किया।
जो इतिहास हमें अंग्रेजी शासन के काल में तथा उसके बाद कांग्रेस के काल में पढ़ाया गया है, उसमें भारत के साधु-संतों एवं संन्यासियों के योगदान को उपेक्षित किया गया है ताकि भारत की जनता में जो धर्म रूपी एकता का सूत्र है उसे नष्ट करके उस पर शासन किया जा सके।
धर्म रूपी सूत्र की एकता के बल पर भारत की जनता ने मुहम्मद बिन कासिम से लेकर, महमूद गजनवी, मुहम्मद गौरी, तैमूर लंग, अहमदशाह अब्दाली, बख्तियार खिलजी आदि सैंकड़ों आतताइयों का सामना किया। हिन्दू वीर रणखेत में अमर हुए किंतु उन्होंने अपना धर्म नहीं छोड़ा।
इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि यदि भारत के हिन्दुओं ने हिन्दू धर्म छोड़ दिया होता तो आज भारत में हिन्दुओं का वही हाल होता जो ईरान में पारसियों का हुआ और अफगानिस्तान में बौद्धों का हुआ। उन देशों में अब न कोई पारसी बचा है और न कोई बौद्ध।
अंग्रेजों के समय में संन्यासियों ने भारत की जनता में विदेशी शासन के विरुद्ध अलख जगाने का कार्य किया जो कि भारत की जनता को ईसाई बनाने का प्रयास कर रहा था। हिन्दू संन्यासियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति करने का प्रयास किया जिसे कुचलने के लिए अंग्रेज सरकार ने हजारों संन्यासियों की हत्याएं करवाईं। इसी संन्यासी आंदोलन को कलकत्ता के हिन्दू डिप्टी कलक्टर बंकिमचंद्र चटर्जी ने आनंद मठ नामक उपन्यास की रचना की जिसका एक गीत वंदे मातरम् भारत भूमि के लिए वरदान सिद्ध हुआ।
वंदे मातरम् भारत की आत्मा में समा गया। वंदे मातरम् को उद्घोष करते हुए सैंकड़ों हजारों हिन्दू अंग्रेजी गोलियों के सामने छाती ठोककर खड़े हो जाते थे। आज भी हम वंदे मातरम् को सुनकर जैसी अनूभति करते हैं, वैसी किसी अन्य गीत को सुनकर नहीं करते।
दुनिया में 195 देश हैं, उनमें से 57 देशों में आज इस्लाम का शासन है। शायद ही कोई देश बचा हो जहाँ मुसलमान नहीं रहते या उन देशों की जनता को मुसलमान बनाने के प्रयास नहीं चलते।
इस्लाम के नाम पर 1947 में भारत के तीन टुकड़े करवाए गए। आज उन्हीं देशों से इस्लाम को मानने वाले लोग भारत में चोरी-छिपे प्रवेश कर रहे हैं, हिन्दू लड़कियों को लव जेहाद में फंसाकर हिन्दू धर्म से दूर कर रहे हैं। उनकी कोख से ऐसी संतान उत्पन्न होती है जो हिन्दू धर्म के लिए और भी बड़ा खतरा है।
इसीलिए आज एक बार फिर मठों से बाहर निकलने का समय आ गया है! साधु-संत और संन्यासी अपने मठों, आश्रमों, तपोस्थलियों से बाहर निकलें। गांव-गांव जाएं, लोगों को हिन्दू धर्म की आत्मा के दर्शन करवाएं। उन्हें शांति और अहिंसा का संदेश देते हुए अपने धर्म में बने रहने के लिए प्रेरित करें। सनातन धर्म की रक्षा के लिए उन्हें अपने पुरखों का गौरव स्मरण करवाएं।
भारत की जनता को अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा भारत में इस्लाम के प्रसार के लिए चलाए जा रहे षड़यंत्रों का ही सामना नहीं करना है, उन्हें उन ईसाई मिशनरियों का भी सामना करना है जो आदिवासियों, निर्धनों एवं भोलेभाले लोगों को चमत्कारों में फंसाकर हिन्दू धर्म से दूर कर रहे हैं। सनातन धर्म की रक्षा के लिए इन पाखण्डों एवं षड़यंत्रों का भाण्डाफोड़ करना आवश्यक है।
खतरा बाहर से ही नहीं अंदर से भी है। यदि भारत के साधु-संत और संन्यासी अपने मठों, आश्रमों, तपोस्थलियों से बाहर निकल कर भारत की जनता तक नहीं पहुंचे तो भारत की भोलीभाली जनता रामरहीम इंसां, नित्यानंद और आसाराम बापू जैसे ठगों, हत्यारों एवं दुराचारियों के चंगुल में फंसकर अपना इहलोक एवं परलोक दोनों ही नष्ट करती रहेगी।
भारत में अरबपति सेठों की कमी नहीं है, वे भी भारत के साधु-संत एवं संन्यासियों की सहायता करें जिससे साधु-संत गांव-गांव में मण्डलियों के रूप में पहुंचकर वहाँ के सरपंचों एवं प्रभावशाली लोगों से सम्पर्क करके गांवों में जनसभाएं करके लोगों को हिन्दू धर्म के व्यावहारिक स्वरूप का उपदेश दें।
साधु-संत एवं संन्यासियों को कोई राजनीतिक बात नहीं करनी है, कोई आंदोलन नहीं खड़ा करना है, विशुद्ध रूप से वही कार्य करना है जिसके लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित किया है। वे अपनी तपस्या भी करें और शंकराचार्य तथा चैतन्य महाप्रभु बनकर गांवों में जाएं। आज पढ़ी लिखी नई पीढ़ी हिन्दू धर्म की बातों को हेय समझती है तो उसका कारण केवल यही है कि कोई उन्हें पथ दिखाने वाला नहीं है। सनातन धर्म की रक्षा के लिए साधु-संत यह कार्य कर सकते हैं।
यदि साधु-संन्यासियों की मण्डलियां गांवों में कोई उपदेश न भी करें तथा केवल हरिकीर्तन करती हुई एक गांव से दूसरे गांव तक जाएं तो भी भारत में ऐसा अद्भुत वातावरण तैयार होगा कि पूरा संसार दांतों तले अंगुली दबाएगा।
हम साधु-संतों एवं संन्यासियों को कोई निर्देश, सुझाव या मार्गदर्शन नहीं दे सकते, हम केवल उनसे करबद्ध होकर प्रार्थना कर सकते हैं कि वे मठों से निकलकर हमारे बीच आएं और हमें हिन्दू धर्म में बने रहने के लिए प्रेरित करें।
आरक्षण का लाभ केवल गरीब परिवारों को देकर गरीबी दूर की जा सकती है!
1947 के विभाजन के बाद भारत में 34 करोड़ 50 लाख लोग रह गए थे। उस समय देश में 80 प्रतिशत लोग अर्थात् 27 करोड़ 60 लाख लोग गरीब थे।
संविधान निर्माताओं ने गरीबी का कारण सामाजिक पिछड़ेपन को माना और जाति आधारित आरक्षण की व्यवस्था दी ताकि पिछड़े लोगों की गरीबी को दूर किया जा सके।
वर्ष 1950 से देश में अनूसूचित जातियों एवं जनजातियों को शिक्षण संस्थाओं, नौकरियों एवं राजनीतिक पदों पर आरक्षण दिया गया।
वर्ष 1990 में भारत में मण्डल कमीशन की रिपोर्ट लागू हुई जिससे अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था लागू हुई।
यह बात सही है कि सामाजिक पिछड़ेपन से देश में न केवल गरीबी आती है अपितु धन का असमान वितरण भी होता है।
लगभग 75 वर्षों से चली आ रही आरक्षण व्यवस्था के कारण देश के पिछड़े लोगों को भी शिक्षा, नौकरी एवं राजनीतिक पद पाने का अवसर मिला।
आज जबकि देश अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, बताया जा रहा है कि देश में केवल 16.4 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे हैं। अर्थात् विगत पिचहत्तर सालों में देश में गरीबी का प्रतिशत 80 से घटकर केवल 16.4 प्रतिशत रह गया।
यह कमाल की उपलब्धि है।
प्रश्न यह है कि यह कमाल की उपलब्धि क्या आरक्षण का लाभ के अंतर्गत दी गई सरकारी नौकरियों के बल पर प्राप्त की गई?
निश्चित रूप से नहीं।
इस समय भारत में केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारों में कुल 1 करोड़ 40 लाख लोग नौकरियां कर रहे हैं। इस हिसाब से भारत में प्रत्येक 100 में से 1 आदमी ही सरकारी नौकरी में है।
इनमें से आरक्षित वर्ग के कर्मचारी लगभग 70 लाख के आसपास हैं या इससे भी कम हैं।
इन 70 लाख लोगों के परिवारों के सदस्यों की संख्या साढ़े तीन करोड़ के आसपास है।
स्पष्ट है कि आरक्षित वर्ग के 70 लाख परिवारों को सरकारी नौकरी देने से केवल साढ़े तीन करोड़ लोगों की गरीबी दूर हुई है। न कि देश की।
कहा जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी सरकार के कार्यकाल में देश में 25 करोड़ लोगों को बहुआयामी गरीबी से बाहर निकाला गया है। निश्चित रूप से यह उपलब्धि केवल सरकारी नौकरियों के बल पर हासिल नहीं की गई है।
देश की गरीबी कम करने में सरकार द्वारा सामाजिक क्षेत्र में दी जा रही पेंशनों, निशुल्क चिकित्सा, निशुल्क शिक्षा, निशुल्क आवास तथा अन्य लाभकारी योजनाओं का बहुत बड़ा योगदान है।
भारत में निजी क्षेत्र में अर्थात् गैर-सरकारी कम्पनियों, कारखानों, दुकानों आदि में लगभग 14 करोड़ लोग काम करते हैं।
अर्थात् देश की लगभग 10 प्रतिशत जनसंख्या प्राइवेट सेक्टर में काम करती है। इस प्रकार देश से गरीबी कम करने में निजी क्षेत्र का योगदान बहुत बड़ा है।
वर्तमान समय में देश में 140 करोड़ लोग रहते हैं जिनमें से 16.4 प्रतिशत अर्थात् लगभग 23 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे हैं।
ऐसा क्या किया जाए कि देश के 23 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से ऊपर खींच लिए जाएं?
23 करोड़ लोगों का अर्थ है लगभग 5 करोड़ परिवार। यदि प्रत्येक परिवार से एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी दी जाए तो 5 करोड़ सरकारी नौकरियों का सृजन करना होगा, जो कि संभव नहीं है। सरकारें प्रतिवर्ष केवल 1 दो लाख युवाओं को नौकरियां दे सकती हैं।
फिर भी यदि आरक्षित वर्ग की समस्त नौकरियां उन्हीं जातियों के गरीब परिवारों के लिए आरक्षित कर दी जाएं तो गरीब परिवारों को से गरीबी से बाहर निकलने का मौका अवश्य मिलेगा।
आरक्षित जातियों के वे लोग जो गरीबी की रेखा से ऊपर जीवन यापन कर रहे हैं, वे सामान्य वर्ग की नौकरियों के लिए प्रयास कर सकते हैं।
यदि भारत की राजनीतिक पार्टियां अपने निजी स्वार्थों को छोड़कर, सत्ता में बने रहने अथवा सत्ता छीनने की गंदी राजनीति छोड़कर गरीब जनता की उन्नति के लिए ठोस काम करना चाहती हैं तो उन्हें ऐसा कानून बनाना चाहिए जिससे वर्तमान में उपलब्ध 49.5 प्रतिशत आरक्षण देश के 16.4 प्रतिशत गरीब लोगों को मिल जाए।
आरक्षित जातियों के जो परिवार गरीबी की रेखा से ऊपर उठ गए हैं, उन्हें आरक्षण का लाभ छोड़ देना चाहिए जिससे वे अपनी ही जाति के गरीब परिवारों की उन्नति में योगदान कर सकें।
यह तय है कि इस व्यवस्था से समस्त गरीब परिवारों के युवा सदस्यों को सरकारी नौकरियां नहीं मिलेंगी किंतु यह भी तय है कि इस उपाय से देश में जातिवाद का ताण्डव कम होगा, राजनीतिक पार्टियों द्वारा देश के वोटरों को जाति के आधार पर लामबंद करने पर रोक लगेगी तथा निर्धन परिवार अधिक तेजी से अर्थव्यवस्था की मूल धारा में आ सकेंगे।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अकबर को भारत के दो महान शासकों में से एक माना है किंतु जब हम अकबर के काल में लिखी गई फारसी पुस्तकों पर दृष्टि डालते हैं तो जवाहर लाल नेहरू का दावा सही जान नहीं पड़ता। हमें इतिहास से बार-बार यह प्रश्न पूछना पड़ता है कि क्या अकबर महान् था!
जवाहरलाल नेहरू ने क्यों केवल दो शासकों को भारत का महान् पुत्र माना! भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू एवं आजादी के बाद के लेखक डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव के अनुसार अकबर ने दूसरे मजहबों के प्रति उदारता का प्रदर्शन करके उनका विश्वास अर्जित किया तथा अपने ही मजहब एवं अपने ही कुल के उन शहजादों एवं अफगान विरोधियों को दबा दिया जो अकबर के राज्य पर कब्जा करना चाहते थे।
नेहरू ने अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘अकबर का नाम भारत के इतिहास में जगमगा रहा है और कभी-कभी कुछ बातों में वह हमें अशोक की याद दिलाता है।’
नेहरू ने अपनी पुत्री इंदिरा प्रियदर्शिनी के नाम लिखे अपने पत्रों में लिखा है- ‘यह एक अजीब बात है कि ईसा से तीन सौ वर्ष पहले का एक बौद्ध सम्राट और ईसा के बाद सोलहवीं सदी में एक मुसलमान सम्राट दोनों एक ही ढंग से और करीब-करीब एक ही आवाज में बोल रहे हैं। ताज्जुब नहीं कि यह खुद भारत की ही आवाज हो जो उसके दो महान् पुत्रों के जरिए बोल रही हो! एक तरह से अकबर भारतीय राष्ट्रीयता का जन्मदाता माना जा सकता है।’
हालांकि पण्डित नेहरू ने अकबर को सम्राट अशोक के समकक्ष ठहराते हुए उसे भारत का महान् पुत्र लिखा है किंतु वास्तविकता यह है कि अकबर की नसों में बहने वाले रक्त की एक भी बूंद भारतीय नहीं थी। उसकी माता हमीदा बानू खुरासान की रहने वाली थी और पिता हुमायूँ काबुल का रहने वाला था। उसके पूर्वजों की जड़ें मध्य-एशिया के ट्रांसऑक्सियाना क्षेत्र अर्थात् समरकंद एवं उज्बेकिस्तान में थीं। अकबर की माता और पिता के पूर्वजों की जितनी भी पीढ़ियों के नाम इतिहास में उपलब्ध हैं, उनमें से कोई भी भारतीय नहीं था।
यदि नेहरू की पुस्तक के अनुसार अकबर को भारत का महान् पुत्र मान लिया जाए तो फिर उन अंग्रेज अधिकारियों को विदेशी कैसे माना जा सकता है, जिन्हें 15 अगस्त 1947 को जहाजों में बैठाकर इंग्लैण्ड के लिए रवाना कर दिया गया। जहाँ तक महानता का प्रश्न है, वह अकबर की अपेक्षा उन अंग्रेज अधिकारियों में अधिक पाई जाती है, जिन्होंने भारत में रेल चलाई, पुल एवं सड़कें बनवाईं, विद्यालय एवं चिकित्सालय बनवाए, नहरों एवं बांधों का निर्माण करवाया, नागरिक प्रशासन की आधुनिक पद्धतियां लागू कीं, अकबर ने इनमें से कुछ भी नहीं किया।
जहाँ तक अकबर की महानता और धर्म-सहिष्णुता का प्रश्न है, उसका उत्तर कुरुक्षेत्र में अकबर द्वारा साधुओं का एक-दूसरे के हाथों रक्तपात करवाने, चित्तौड़ के दुर्ग में तीस हजार निर्दोष लोगों का कत्लेआम करवाने, गुजरात में साबरमती के तट पर दो हजार कटे हुए सिरों की मीनार बनवाने और शराब के नशे में राजकुमार मानसिंह का गला दबाने की घटनाओं में स्वतः मिल जाता है।
हालांकि पानीपत के मैदान में बेहोश पड़े महाराज हेमचंद्र का गला काटने एवं नगरकोट मंदिर में हुसैन कुली खाँ की सेना द्वारा 200 काली गायों का संहार करवाने की घटनओं में अकबर का प्रत्यक्ष हाथ नहीं था, फिर भी ये घटनाएं अकबर के सेनापतियों की मानसिकता का पूरा परिचय देती हैं।
पं. नेहरू ने लिखा है- ‘एक तरह से अकबर भारतीय राष्ट्रीयता का जन्मदाता माना जा सकता है। ऐसे समय में जबकि देश में राष्ट्रीयता का कुछ भी निशान नहीं था और मजहब लोगों को एक दूसरे से अलग कर रहा था, अकबर ने समझ-बूझ कर समान भारतीय राष्ट्रीयता के आदर्श को फूट डालने वाले मजहबी दावों के ऊपर रख दिया।’
अकबर महान् था, यह सिद्ध करने के लिए नेहरू ने अकबर की तरफ से सफाई देते हुए लिखा है- ‘अकबर अपनी कोशिश में पूरी तरह तो सफल नहीं हुआ किंतु यह अचंभे की बात है कि वह कितना आगे बढ़ गया और उसकी कोशिशों को कितनी ज्यादा सफलता मिली! फिर भी अकबर को जो कुछ भी सफलता मिली वह अकेले उसी की नहीं थी। जब तक कि ठीक समय ना आ गया हो और आसपास के हालात मदद ना करें तब तक कोई भी मनुष्य महान कामों में सफल नहीं हो सकता। महापुरुष खुद अपना चौगिर्द तैयार करके जमाने को जल्दी बदल सकता है किंतु महापुरुष खुद भी तो जमाने का और जमाने के चौगिर्द का ही फल होता है। इस तरह अकबर भी भारत के उस जमाने का फल है।’
नेहरू ने लिखा है- ‘अकबर हिंदुओं की सद्भावना हासिल करने में सफल हुआ। अकबर की नौकरी करने और उसको सम्मान देने के लिए चारों ओर से लगभग सभी राजपूत इकट्ठे होने लगे सिावाय मेवाड़ के राणा प्रताप के जिसने कभी सिर नहीं झुकाया। जिंदगी भर यह अभिमानी राजपूत दिल्ली के महान सम्राट से लड़ता रहा और उसने उसके सामने सिर झुकाना मंजूर नहीं किया।’
नेहरू ने लिखा है- ‘अकबर हिन्दू सरदारों और हिन्दू जनता का स्नेह हासिल करने में जुट गया। राजा मानसिंह को तो अकबर ने कुछ दिनों के लिए काबुल का सूबेदार बनाकर भेजा। इस तरह अकबर ने राजपूतों को अपनी तरफ कर लिया और वह जनता का प्यारा बन गया।…. शरीर में अकबर असाधारण बलवान और चुस्त था और वह जंगली और खूंख्वार जानवरों के शिकार से ज्यादा और किसी चीज से प्रेम नहीं करता था। एक सिपाही की हैसियत से तो वह इतना बहादुर था कि उसे अपनी जान तक की बिल्कुल परवाह नहीं थी।’
नेहरू ने लिखा है- ‘मैंने अकबर की तुलना अशोक से की है किंतु तुम इस तुलना से भ्रम में न पड़ जाना। बहुत सी बातों में अकबर अशोक से बिल्कुल अलग था। अकबर बड़ी ऊंची उमंगों वाला बादशाह था और अपने जीवन के अंत समय तक वह अपना साम्राज्य बढ़ाने की धुन में चढ़ाइयां करता रहा।…. देखा जाए तो राजपूतों को और अपनी हिंदू प्रजा को मनाने के लिए कभी-कभी तो वह इतना आगे बढ़ जाता था कि मुसलमान प्रजा के साथ अक्सर अन्याय हो जाता था।’
पण्डित नेहरू के उपरोक्त कथनों में कितनी सच्चाई है, इस पर हम अगले आलेख में चर्चा करेंगे।
विभिन्न इतिहासकार भले ही अकबर की धार्मिक सहिष्णुता के कितने ही गीत क्यों न गा लें, ऐतिहासिक तथ्यों से केवल इस बात की पुष्टि होती है कि अकबर को भारत पर राज्य करने तथा अपने ही कुल के शहजादों एवं अफगान लड़ाकों से लड़ने के लिए वीर हिन्दू जाति के सहयोग की आवश्यकता थी, इसलिए उसने विधर्मियों के प्रति धार्मिक सहिष्णुता के प्रदर्शन का मार्ग चुना था न कि हृदय की किसी उच्च भावना से प्रेरित होकर!
जवाहर लाल नेहरू के किसी भी तर्क से यह सिद्ध नहीं होता कि अकबर महान् था।
जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम की अनुशंसा भारत सरकार के लिए बाध्यकारी है या नहीं, जब से इस विषय पर चर्चा उठी है, तब से जनता में यह प्रश्न उठने लगा है कि ताकतवर कौन है, सुप्रीम कोर्ट या भारत सरकार?
सुप्रीम कोर्ट और भारत सरकार में से कौन अधिक ताकतवर है, इसका कानूनी पक्ष तो संविधान के बड़े-बड़े जानकार जिन्हें संविधान विशेषज्ञ कहा जाता है, कई सालों की बहस के बाद भी शायद ही एक-मत हो सकें किंतु लोकतंत्र में हर मामले पर जनता की कुछ न कुछ धारणा अवश्य होती है। भले ही यह धारणा लिखित रूप में नहीं होती किंतु इस धारणा की अपनी ताकत बहुत होती है।
जनता की धारणा इतनी ताकतवर होती है कि उसके सामने बड़ी से बड़ी शक्ति को नतमस्तक होना पड़ता है। हम यहाँ सुप्रीम कोर्ट तथा भारत सरकार की ताकत पर जनता की धारणा की बात कर रहे हैं कि इस विषय पर जनता क्या सोचती है!
सुप्रीम कोर्ट ताकतवर इसलिए हैं क्योंकि उसे चुनाव नहीं लड़ना है। भारत सरकार ताकतवर इसलिए हैै क्योंकि वह चुनावों से अस्तित्व में आती है।
सुप्रीम कोर्ट ताकतवर है इसलिए वह सीबीआई को पिंजरे में बंद तोता कहता है। भारत सरकार ताकतवर इसलिए है क्योंकि उसके पास ऐसे कई पिंजरे हैं जिनमें सीबीआई जैसे बहुत से तोते बंद हैं। ये तोते सरकार के असली उपकरण हैं, यदि ये तोते पिंजरे से बाहर निकाल दिए जाएं तो देश में अराजकता मच जाए।
सुप्रीम कोर्ट ताकतवर इसलिए है क्योंकि वह सरकार के बुलडोजर पर रोक लगा सकती है। सरकार ताकतवर इसलिए है क्योंकि उसे अवैध कब्जों को हटाने के लिए बुलडोजर चलाने की संवैधिानिक शक्ति प्राप्त है।
सुप्रीम कोर्ट ताकतवर इसलिए है क्योंकि उसने स्वयं ही कॉलेजियम की व्यवस्था कर ली है। सरकार ताकतवर इसलिए है कि वह कॉलेजियम की स्वयंभू व्यवस्था को अस्वीकार करके उसी पद्धति से जजों की नियुक्ति करना चाहती है जिस तरह से उनकी नियुक्ति का प्रावधान भारत के संविधान में किया गया है तथा 1993 तक जिस पद्धति से जजों की नियुक्ति होती आई थी।
न्यायालयों में जजों की नियुक्ति के मामले को छोड़कर भारत में एक भी पद ऐसा नहीं है जो अपनी नियुक्ति स्वयं कर ले। प्रत्येक पद के लिए किसी भी व्यक्ति का चयन संविधान सम्मत किसी अन्य संस्था द्वारा किया जाता है किंतु सुप्रीम कोर्ट जजों की नियुक्ति का अधिकार अपने पास रखना चाहती है और एक ऐसे कॉलेजियम के माध्यम से अपनी अनुशंसा को भारत सरकार के लिए बाध्यकारी मानती है जिसमें कोई चुना हुआ प्रतिनिधि शामिल नहीं है। इसी कारण जनता में यह बहस छिड़ी है कि ताकतवर कौन है, सुप्रीम कोर्ट या भारत सरकार।
न तो सुप्रीम कोर्ट, और न भारत सरकार, कोई भी जनता में आकर कॉलेजियम की बात नहीं करता किंतु सुप्रीम कोर्ट के वकीलों एवं सरकार के मंत्रियों के माध्यम से मीडिया में छन-छन कर कुछ बातें आती हैं जिनसे लगता है कि कॉलेजियम को लेकर दोनों संस्थाएं अपनी-अपनी ताकत को तौल रही हैं।
सुप्रीम कोर्ट ताकतवर इसलिए है क्योंकि संविधान सभा द्वारा बनाए गए संविधान ने सुप्रीम कोर्ट को बनाया है तथा उसे कुछ निश्चित ताकत दी है। भारत सरकार ताकतवर इसलिए है क्योंकि भारत सरकार ने ही संविधान सभा द्वारा बनाए गए संविधान को स्वीकार किया है, लागू किया है तथा भारत सरकार ही संसद के माध्यम से संविधान को हर समय जन-आकांक्षाओं के अनुरूप ढालती रहती है।
अब जबकि संविधान सभा अस्तित्व में नहीं है, तब उसकी उत्तराधिकारी संस्था संसद के रूप में विद्यमान है। संविधान की वास्तविक कस्टोडियन संसद ही है। वह इस कार्य में अपनी सुविधा के लिए सुप्रीम कोर्ट की भी सहायता लेती है।
सुप्रीम कोर्ट तथा भारत सरकार तो उस समय भी थे जब भारत पर अंग्रेजों का राज्य था किंतु तब के सुप्रीम कोर्ट तथा भारत सरकार की ताकत का स्रोत लंदन में लगने वाली संसद थी। जब ब्रिटिश वायसराय की सरकार भारत छोड़कर इंग्लैण्ड चली गई तब तत्कालीन सुप्रीम कोर्ट भी उस सरकार के साथ इंग्लैण्ड चला गया।
15 अगस्त 1947 से 25 जनवरी 1950 तक उस सुप्रीम कोर्ट की एक छाया भारत में काम करती रही, ठीक उसी तरह, जिस तरह 2 सितम्बर 1946 से भारत में जवाहर लाल नेहरू की अंतरिम सरकार काम करती थी। इस अवधि में सुप्रीम कोर्ट तथा भारत सरकार दोनों के पास 1935 में ब्रिटिश संसद से पारित कानून था जिससे दोनों संस्थाओं का संचालन होता था।
6 दिसम्बर 1946 को जवाहर लाल नेहरू की अंतरिम सरकार ने ही नया संविधान बनाने के लिए संविधान सभा की स्थापना की तथा इसके लिए सुप्रीम कोर्ट से कोई आदेश नहीं लिया।
जवाहर लाल नेहरू की अंतरिम सरकार ने ही 26 जनवरी 1950 से भारत का नया संविधान लागू किया और सुप्रीम कोर्ट का वर्तमान स्वरूप सामने आया।
जवाहर लाल नेहरू के समय में यह प्रश्न शायद ही कभी उठा हो कि कौन बड़ा है, सुप्रीम कोर्ट या भारत सरकार! लाल बहादुर शास्त्री केवल 19 महीने प्रधानमंत्री रहे, इस संक्षिप्त अवधि में ताकत का प्रश्न उठे, ऐसी कोई परिस्थिति बनी ही नहीं।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय में न्यायालय एवं सरकार के बीच यह प्रश्न कई बार उठा। इंदिरा गांधी जबर्दस्त जननेता थीं, उनकी अपनी ताकत थी, अपनी एक सोच थी। सामान्यतः वे संविधान सम्मत ढंग से सरकार चलाती थीं किंतु इंदिरा गांधी सरकार को मनमाने ढंग से भी चलाती थीं। इस कारण न्यायालय एवं सरकार के बीच कई बार ठनी।
12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी को चुनावों में धांधली करके जीतने के 14 प्रकार से कदाचार का दोषी पाया तथा उनका निर्वाचन अवैध घोषित कर दिया। इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को ही मान्य रखा किंतु इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बने रहने की अनुमति दे दी। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी रहीं और उन्होंने अगले ही दिन अर्थात् 25 जून 1975 को देश में इमरजेंसी लगा दी।
इस घटनाक्रम से ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट सरकार पर भारी पड़ा क्योंकि चुनाव अवैध घोषित हो जाने के बाद भी इंदिरा गांधी सुप्रीम कोर्ट की इच्छा से प्रधानमंत्री बनी रहीं किंतु इंदिरा गांधी ने अगले दिन ही इमरजेंसी लगाकर देश पर मजबूती से शिकंजा कस लिया। इतना ही नहीं, इंदिरा गांधी की सरकार ने 38वां संविधान संशोधन करके न्यायपालिका से आपातकाल की न्यायिक समीक्षा करने का अधिकार ही छीन लिया।
कुछ समय बाद ही इंदिरा गांधी की सरकार ने 42वां संविधान संशोधन करके कानूनों की संवैधानिक वैधता पर निर्णय देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों की शक्ति को कम कर दिया।
42वें संविधान संशोधन ने संविधान में इतने बड़े परिवर्तन किए कि इसके आकार के कारण, इसे लघु-संविधान कहा गया। इंदिरा गांधी की सरकार ने संविधान के कई हिस्से, जिनमें प्रस्तावना और संविधान संशोधन खंड भी शामिल हैं, बदल दिए और कई नए अनुच्छेद और धाराएं लगा दीं। संशोधन के 39 खंडों ने सर्वोच्च न्यायालय की कई शक्तियां छीन लीं और न्यायिक व्यवस्था पर कई प्रकार से संसदीय संप्रभुता स्थापित कर दी।
इंदिरा गांधी की सरकार ने 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में लोकतांत्रिक अधिकारों में कटौती की और प्रधानमंत्री कार्यालय ने व्यापक शक्तियां प्राप्त कर लीं। संसद को न्यायिक समीक्षा के बिना, संविधान के किसी भी हिस्से को संशोधित करने की असीमित शक्ति भी दे दी। इस संशोधन ने राज्य सरकारों की कुछ शक्तियां भी केंद्र सरकार को हस्तांतरित कर दीं।
सरकार ने 42वें संविधान संशोधन के द्वारा प्रस्तावना में भी संशोधन करके भारत की पहचान ‘संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य’ के स्थान पर ‘संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य’ बना दी।
सरकार द्वारा किए गए संविधान के इस अतिक्रमण पर सुप्रीम कोर्ट के पास मौन रह जाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं बचा। क्योंकि यह सारी प्रक्रिया संसद के माध्यम से हुई।
1977 में हुए आम चुनावों में इंदिर गांधी हारीं। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी सरकार ने इंदिरा गांधी द्वारा किए गए संविधान संशोधनों पर हो-हल्ला तो खूब मचाया तथा इंदिरा गांधी को जेल तक भेज दिया किंतु इससे पहले कि मोरारजी की सरकार कुछ ठोस काम कर पाती, स्वयं ही गिर गई। 1980 में हुए मध्यावधि चुनावों में इंदिरा गांधी चुनाव जीतकर फिर से प्रधानमंत्री बन गईं।
इस प्रकार 1975 में इंदिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय के जो अधिकार सीमित किए थे, वे फिर से बहाल नहीं किए गए और आज भी संवैधानिक रूप से इंदिरा गांधी द्वारा किए गए संशोधन अस्तित्व में हैं।
इस ऐतिहासिक विवेचना के बाद एक दृष्टि अमरीका पर डालते हैं। अमरीका में संघीय न्यायालय ही नहीं, प्रांतीय न्यायालय भी सरकार की तुलना में बहुत अधिक ताकतवर दिखाई देते हैं किंतु वास्तव में हैं नहीं। वहाँ भी सरकारें ही ताकतवर हैं। संघीय सरकार तथा प्रांतीय सरकारें ही जनता की आकांक्षाओं की प्रतिनिधि हैं।
अमरीका में सरकार की ताकत का एक उदाहरण लेना ही पर्याप्त होगा कि अमरीका के राष्ट्रपति को अपनी स्वयं की किसी भी गलती को क्षमा करने का अधिकार प्राप्त है।
भारत में भी न्यायालय द्वारा किसी अपराधी को फांसी की सजा सुनाए जाने पर भारत के राष्ट्रपति को क्षमादान देने का अधिकार प्राप्त है।
एक दृष्टि भारत के पड़ौसी देशों पर डालते हैं। पाकिस्तान का सुप्रीम कोर्ट भारत के सुप्रीम कोर्ट की तरह ताकतवर दिखाई तो देता है किंतु है नहीं। पाकिस्तनी सुप्रीम कोर्ट को बड़े राजनीतिक फैसले पाकिस्तान की सरकार की मंशा के अनुसार ही देने होते हैं जिनके चलते पाकिस्तान का प्रत्येक पूर्व प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति या तो जेल में पटक दिया जाता है, या फिर देश छोड़कर भाग जाता है। या फिर फांसी पर भी चढ़ा दिया जाता है जैसे कि जुल्फिकार अली भुट्टो।
पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट में जो जज सरकार की मंशा के विरुद्ध कार्य करते हैं, उन्हें किसी न किसी बहाने से उनके पदों से हटा दिया जाता है। हाल ही में पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बनने जा रहे इजाज उल अहसन ने इसलिए चीफ जस्टिस के पद की शपथ लेने से मना कर दिया क्योंकि वहाँ नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ की सरकार है और इस जज ने ही 2017 में पूर्व प्रधामंत्री नवाज शरीफ के विरुद्ध फैसला सुनाया था और शरीफ को पाकिस्तान छोड़कर लंदन में जाकर रहना पड़ा था।
पाकिस्तान में तो सरकार ही नहीं मिलिट्री भी जजों का भाग्य तय कर देती है। हालांकि जजों को नियंत्रित करने के लिए पाकिस्तान की मिलिट्री ने आज तक एक भी गोली नहीं चलाई है। उन्हें केवल आंख दिखाकर ही भगा दिया जाता है।
हमारे दूसरे पड़ौसी अर्थात् बांगलादेश में भी सुप्रीम कोर्ट की हालत लगभग पाकिस्तान जैसी ही है। हाल ही में अराजक तत्वों ने जजों के घरों का घेराव करके उनसे बलपूर्वक इस्तीफ लिए। क्योंकि शेख हसीना की सरकार हट चुकी थी और मोहम्मद यूनुस की सरकार ने जजों का बचाव नहीं किया।
सौभाग्य से भारत में पाकिस्तान और बांगलादेश जैसी स्थितियां नहीं हैं तथा सुप्रीम कोर्ट और भारत सरकार बिना किसी विशेष विवाद के अपना-अपना संविधान सम्मत काम कर रहे हैं।
जनता, सरकार और न्यायपालिका के सम्बन्ध एक रूपक के माध्यम से इस तरह समझे जा सकते हैं कि जनता महावत है जिसने अपनी सुविधा के लिए सरकार रूपी हाथी पाल रखा है और उस हाथी ने स्वयं को नियंत्रित करने के लिए न्यायपालिका रूपी अंकुश बनाया है। अंकुश अपनी मर्जी से हाथी को नियंत्रित नहीं कर सकता। अंकुश महावत के हाथ में है, और महावत की भूमिका में केवल और केवल जनता है। न्यायपालिका एक ऐसा अंकुश है जो न केवल हाथी पर अपितु महावत पर भी कुछ न कुछ नियंत्रण स्थापित करता है।
सारांश रूप में केवल यही कहा जा सकता है कि भारत की जनता की सेवा करने के लिए ही भारत सरकार तथा सुप्रीम कोर्ट नामक दोनों संस्थाएं बनी हैं। भारत की जनता ही सुप्रीम कोर्ट और भारत सरकार की मालिक है। जनता की धारणा ही दोनों के लिए बाध्यकारी है।
जनता की अपेक्षा केवल इतनी है कि ये दोनों संस्थाएं जनता के कल्याण के लिए एक-दूसरे की शक्ति बनें, एक-दूसरे की पूरक बनें तथा किसी भी स्थिति में शक्ति के दो अलग-अलग तथा प्रतिस्पर्द्धी केन्द्र न बनें।
सिद्धांत कुछ भी कहते रहें, धरातल की कड़वी सच्चाई यह है कि कोई भी अंकुश हाथी को नियंत्रित नहीं कर सकता। यदि हाथी बिगड़ गया तो महावत और अंकुश दोनों धरे रह जाते हैं। अतः हर स्थिति में सरकार की इच्छा से चुनी गई सरकार का सम्मान ही सर्वोपरि है।
उस सरकार का सम्मान कोई नहीं करना चाहेगा जो बिगड़े हुए हाथी की तरह व्यवहार करती है, उस अंकुश का भी कोई सम्मान नहीं करना चाहेगा जो हाथी को अपनी मर्जी से नियंत्रित करने का प्रयास करता है। उस महावत का भी कोई सम्मान नहीं करना चाहेगा जो हाथी और अंकुश दोनों को प्रेम और बुद्धिमानी से संचालित करने में असमर्थ है।
कांग्रेस की घटती हैसियत का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अब उसे आप जैसी पिद्दी पार्टियाँ भी मुँह लगाने से बचती हैं!
पिछले एक दशक में भारत की राजनीति पूरी तरह करवट ले चुकी है। इस कारण कांग्रेस अब भारत के राजनीतिक परिदृश्य में छुटभैया राजनीतिक दलों की छोटी बहिन बनकर जिएगी। कांग्रेस के लिए अब कभी भी जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, पी. वी. नरसिंहाराव और मनमोहनसिंह जैसे दौर लौट कर नहीं आएंगे।
कांग्रेस गठबंधन की सरकारों में पहले भी रही है किंतु तब वह क्षेत्रीय दलों की बड़ी बहिन हुआ करती थी। अब कम्युनिस्टों, अवसरवादी पार्टियों एवं क्षेत्रीय दलों की छोटी बहिन बन कर जी रही है। इससे कांग्रेस की घटती हैसियत का पता चलता है।
पिछले लोकसभा चुनावों तथा हाल ही में हुए जम्मू कश्मीर एवं हरियाणा विधान सभा के चुनावों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अब कांग्रेस का भविष्य छोटी बहिन के रूप में ही बचा है। छोटी बहिन होना कोई बुरी बात नहीं है किंतु लम्बे समय तक जो पार्टी बड़ी बहिन बनकर रही अब उसी को छोटी बहिनों की छोटी बहिन बनकर रहना पड़े तो निश्चित रूप से अच्छी बात तो कतई नहीं। कांग्रेस के साथ वही हुआ है।
जम्मू कश्मीर में कांग्रेस का फारुख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला की पार्टी से गठबंधन था। ये वही अब्दुल्ला लोग हैं जिनके पूर्वज शेख अब्दुल्ला कभी जवाहर लाल नेहरू के मित्र हुआ करते थे किंतु जवाहर लाल नेहरू ने शेख से तंग आकर उसे जेल में पटक दिया था।
उन्हीं अब्दुल्लाओं की छत्रछाया में कांग्रेस ने जम्मू कश्मीर में विधान सभा का चुनाव लड़ा। अब्दुल्लाओं की पार्टी ने 42 सीटें जीतकर पहला स्थान प्राप्त किया, बीजेपी 29 सीटों के साथ दूसरे स्थान पर रही, स्वतंत्र उम्मीदवार 7 सीटें जीतकर तीसरे स्थान पर रहे। जबकि सबसे छोटी बहिन की तरह कांग्रेस 6 सीटों के साथ चौथे नम्बर पर आकर बैठी।
हालांकि राहुल गांधी की तरह महबूबा मुफ्ती भी मुुंह खोलते ही अपनी आंख, नाक, कान से धुंआ निकालती हैं, फिर भी महूबबा की बात जाने दो, वह फिर कभी।
हरियाणा में बीजेपी ने 48 और कांग्रेस ने 37 सीटें जीतीं। हरियाणा में कांग्रेस को आप पार्टी की छोटी बहिन बनकर चुनाव लड़ना था किंतु आप पार्टी ने कांग्रेस को मुंह नहीं लगाया।
कुछ समय पहले हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने दिल्ली में आप पार्टी की छोटी बहिन बनकर चुनाव लड़ा था किंतु न तो बड़ी बहिन की भूमिका में 4 सीटों पर लड़ने वाली आप पार्टी और न छोटी बहिन की भूमिका में 3 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस एक भी सीट जीत सकी। इसी कारण आप पार्टी ने हरियाणा विधान सभा के चुनावों में कांग्रेस को मुंह नहीं लगाया।
वर्ष 2022 में हुए पंजाब विधान सभा के चुनावों में भी आप पार्टी ने कांग्रेस को मुंह नहीं लगाया। इन दोनों बहिनों ने आमने-सामने चुनाव लड़ा। आप पार्टी ने 117 में से 92 तथा कांग्रेस ने केवल 18 सीटों पर जीत हासिल की। इस प्रकार कांग्रेस ने हर जगह या तो छोटी बहिन बनकर चुनाव लड़ा, या फिर बड़ी बहिन बनने के प्रयास में हाथ-पांव तुड़वा कर औंधे मुंह गिर पड़ी।
2022 के हिमाचल प्रदेश विधान सभा चुनाव और 2023 के कर्नाटक विधान सभा चुनाव ही ऐसे रहे हैं जिनमें कांग्रेस ने अपने दमखम पर चुनाव लड़े और जीत हासिल की। इन दो चुनावों के अतिरिक्त कांग्रेस को कोई जीत हासिल नहीं हुई।
2024 का लोकसभा चुनाव तो कांग्रेस ने 24 दलों के साथ मिलकर लड़ा। हालांकि यहां उसने बड़ी बहिन बनने की चेष्टा की तथा 328 सीटों पर चुनाव लड़ी किंतु 99 सीटों पर जीत हासिल करके मुंह की खाकर बैठ गई।
इन 99 सीटों के बल पर कांग्रेस ने देश भर में ऐसा प्रदर्शन किया मानो वह लोकसभा में बहुमत पाकर सरकार बनाने में सफल हो गई है तथा बीजेपी तथा उसकी सहयोगी पार्टियां 293 सीटों पर सिमटकर अपना सब कुछ गंवा बैठी है।
कांग्रेस के नेताओं का इससे अधिक फूहड़ प्रदर्शन शायद ही कभी देखा गया हो। कांग्रेस की घटती हैसियत का इससे अधिक बड़ा प्रमाण क्या होगा!
दिन प्रति दिन कांग्रेस के पैरों के नीचे से जमीन खिसकती जा रही है और राहुल गांधी के हाथों में से राजनीतिक ताकत मुट्ठी में बंद रेत की तरह फिसलती जा रही है किंतु राहुल गांधी के हौंसलों की दाद देनी पड़ेगी। जब भी बोलते हैं, देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए, देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बीजेपी के लिए स्तरहीन शब्दों का ही प्रयोग करते हैं।
यह देखकर हैरानी होती है कि राहुल गांधी अपने वास्तविक प्रतिद्वंद्वियों से लड़ने की बजाय आरएसएस, अम्बानी और अडानी पर हमले करते रहते हैं। पता नहीं राहुल गांधी ने ये तीन प्रतिद्वंद्वी जबर्दस्ती क्यों खड़े कर लिए हैं। शायद राहुल गांधी ने आरएसएस, अम्बानी और अडानी हिन्दू शक्ति के प्रतीक मान लिए हैं जिन पर आक्रमण करे बिना राहुल गांधी की कोई जनसभा पूरी नहीं होती।
जो भी हो, आने वाले समय में हम देखेंगे कि न तो गांधी परिवार हिन्दू विरोधी राजनीति से दूर होगा और न कांग्रेस गांधी परिवार से अपना पीछा छुड़ा पाएगी। छोटी बहिन दिन पर दिन और छोटी होती चली जाएगी। कांग्रेस की घटती हैसियत उसे कितनी छोटी पार्टी बना देगी, इसका अनुमान भी कांग्रेस के नेताओं को नहीं है।
कानून धर्म के लिए होना चाहिए न कि धर्म निरपेक्षता की रक्षा के लिए! भारत देश का धर्म क्या है और भारत देश का कानून क्या है? क्या इन दोनों में तालमेल नहीं होना चाहिए?
जो हिन्दू धर्म पूरी दुनिया में जाकर शांति, अहिंसा और परस्पर सद्भाव से जीना सिखाता है, क्या उस धर्म की रक्षा नहीं होनी चाहिए? क्या ऐसे अहिंसक धर्म के प्रति भी कानून को निरपेक्ष अर्थात् उदासीन बने रहना चाहिए?
आज पूरी दुनिया की शांति खतरे में पड़ी हुई है। रूस-यूक्रेन युद्ध तथा मध्य-एशिया में चल रहे इजराइल-हिज्बुल्ला युद्ध की आग फैलती ही जा रही है। तालिबान से लेकर, आईसिस, हमास और हूती जैसे आतंकी संगठन तेजी से दुनिया में पैर पसार रहे हैं जिससे आदमी का अस्तित्व ही खतरे में दिखाई देता है।
न जाने किस क्षण धरती पर परमाणु बमों की वर्षा आरम्भ हो जाए और धरती भयभीत होकर अपनी धुरी से खिसक कर इस अनंत ब्रह्माण्ड में कहीं खो जाए! ऐसी धरती पर कोई प्राणी नहीं होगा, केवल खतरनाक परमाणु विकीरण का अस्तित्व होगा! भगवान जाने कि वह फिर कभी ऐसी सुंदर धरती बनाएगा भी या नहीं!
आज विश्व में अग्रणी अमरीका और इंग्लैण्ड जैसे देश भी युद्ध की विभीषिका को अपने दरवाजे पर देखकर भयभीत हैं। ऐसी भयंकर परिस्थितियों में केवल भारत ही ऐसा देश है जिसके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर युद्ध के विरुद्ध बोल रहे हैं तथा विश्व शांति की स्थापना का उद्घोष करते हुए घूम रहे हैं।
भारत के प्रधानमंत्री किस प्रतिष्ठा के बल पर विश्वशांति की बात करते हुए घूम रहे हैं? केवल हिन्दू धर्म की प्रतिष्ठा के बल पर! क्योंकि हिन्दू धर्म की ऐसी प्रतिष्ठा है कि वह शांति और सद्भाव में जीने का उपदेश दे सकता है। नरेन्द्र मोदी न केवल हिन्दुओं के देश भारत के प्रधानमंत्री हैं अपितु स्वयं भी हिन्दू हैं और हिन्दू धर्म के उदात्त सिद्धांतों पर जीते हैं।
क्या किसी मुस्लिम या ईसाई देश का राष्ट्राध्यक्ष कभी भी विश्वशांति के पक्ष में खड़ा हो पाया है? क्या रूस, अमरीका, यूक्रेन, ईरान, अफगानिस्तान, बांगलादेश, तुर्की जैसे देश शांति के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं?
केवल हिन्दुओं का देश, दुनिया का एकमात्र हिन्दू देश विश्वशांति के पक्ष में खड़ा है। जब तक हिन्दू धरती पर बचेगा, तब तक वह शांति के लिए खड़ा रहेगा।
जबसे नेपाल में हिन्दू राजा का राज्य समाप्त हुआ है और उसने चीन के कम्युनिस्टों को अपना स्वामी बनाया है, तब से न केवल नेपाल की शांति भंग हो गई है, अपितु सदियों से चले आ रहे भारत-नेपाल के शांतिपूर्ण सम्बन्ध भी खतरे में पड़ गए हैं। नेपाल के लोग फिर से हिन्दू धर्म के शासन की तरफ लौटना चाहते हैं।
चीनी कम्युनिस्टों ने तिब्बत का क्या हाल बनाया, हॉन्गकॉन्ग का क्या हाल बनाया? ताइवान का क्या हाल बनाना चाहता है।
उत्तर कोरिया दुनिया पर कैसी भयंकर विपत्ति लाना चाहता है!
जब से बर्मा ने धर्मविहीन चीन को अपना स्वामी बनाया, बर्मा से लोकतंत्र समाप्त हो गया, लोग बंदूकों के साए में जी रहे हैं।
जब से लंका ने चीनी कम्युनिस्टों को अपने देश की धरती पर पैर रखने दिए, तब से श्रीलंका जैसे शांतिप्रिय बौद्ध देश में भुखमरी और अशांति फैल गई।
ईसाई देश अमरीका द्वारा पाले हुए सांपों ने हाल ही में बांगलादेश की सड़कों पर मौत का जो नंगा नाच किया है, वह सबके सामने है।
ईसाई देश कनाडा ने खालिस्तानी आतंकियों को बढ़ावा देकर भारत में नए उपद्रवों का जो सिलसिला शुरू है, वह भी किसी से छिपा हुआ नहीं है।
हम आंखें मूंदकर बैठे हैं तो क्या हुआ, सच्चाई कुछ ही वर्षों में सामने आ जाएगी कि पंजाब के हालात कितने खराब हो चुके हैं। कुछ समय पहले हम इसका एक ट्रेलर देख भी चुके हैं जब भारत के प्रधानमंत्री को पंजाब की पुलिस द्वारा बीच सड़क पर रोक दिया गया और उन्हें प्रधानमंत्री के सुरक्षाकर्मियों द्वारा वहीं से वापस दिल्ली लाया गया।
पिछले लोकसभा चुनावों में ही जेल में बंद खालिस्तानी आतंकी अमृतपालसिंह को जेल में बंद होते हुए पंजाब की जनता ने लोकसभा का सदस्य चुना। क्या उस क्षेत्र में हिन्दू वोटरों की संख्या अधिक होती तो अमृतपालसिंह कभी भी सांसद चुना जाता?
काश्मीर का राशिद इंजीनियर जेल में बंद खतरनाक अपराधी था किंतु वह भी किस मजहब के मतदाताओं के बल पर भारत की लोकसभा का सदस्य चुन लिया गया? क्या उस क्षेत्र में हिन्दू वोटरों की संख्या अधिक होती तो राशिद इंजीनियर कभी भी सांसद चुना जाता?
थोड़ा पीछे चलकर देखें, 1947 में जब भारत आजादी की चौखट पर खड़ा था, भारत की शांति क्यों भंग हुई और देश में लाखों लोगों का कत्ल, लाखों स्त्रियों से बलात्कार, करोड़ों लोगों का पलायन किस मजहबी जिद के कारण हुआ? क्या मानवता के इतिहास ने उस नरसंहार को पूरी तरह भुला दिया है।
क्या हिन्दू धर्म ने कभी भी धरती के किसी भी हिस्से में अपने लिए अलग देश की मांग की? नहीं की क्योंकि हिन्दू को सहअस्तित्व में रहना आता है।
क्या दुनिया में कोई भी ऐसा देश है जिसने ईरान से जान बचाकर भागे पारसियों को अपनी छाती से लगाया? भारत के अतिरिक्त किसी ने नहीं लगाया। जब जर्मनी से यहूदी मारकर भगाए गए, तब भी भारत ही उनके लिए सद्भाव का हाथ बढ़ा सका।
क्या किसी भी देश में हिन्दुओं के कारण उस देश के कानून को, उस देश के धर्म को, उस देश की संस्कृति को, उस देश के लोगों को, उस देश की अर्थव्यवस्था को कोई आघात पहुंचा है? नहीं पहुंचा।
यदि इस्लामी देशों को छोड़ दें तो हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा कि जहाँ-जहाँ हिन्दू पहुंचा है, वहाँ-वहाँ शांति, सद्भावना और उदार भावों का संचार हुआ है। आज विश्वभर में लाखों ईसाई हैं जो हिन्दू धर्म का महत्व समझ रहे हैं और उसे अपना रहे हैं।
क्या हिन्दू धर्म कभी भी किसी अन्य धर्म के मनुष्यों को हिन्दू धर्म में कन्वर्ट करने के लिए किसी भी प्रकार का प्रयास करता है? क्या हिन्दू धर्म अन्य मजहबों के इंसानों को हिन्दू बनाने के लिए भय, लालच और षड़यंत्र का सहारा लेता है? नहीं लेता क्योंकि हिन्दू धर्म में किसी को कन्वर्ट किया ही नहीं जा सकता। ऐसा कोई विधान ही नहीं है। लोग स्वतः हिन्दू जीवन शैली अपना लेते हैं।
जिस प्रकार पारसी किसी को पारसी धर्म में कन्वर्ट नहीं करते, जिस प्रकार यहूदी किसी को यहूदी धर्म में कन्वर्ट नहंी करते, उसी प्रकार हिन्दू भी किसी अन्य धार्मिक विश्वास वाले मानव को अपने धर्म में कन्वर्ट नहीं करते। आज पारसी, हिन्दू और यहूदी तीनों ही खतरे में हैं!
कोई भी मजहब या पंथ किसी अन्य धर्मिक विश्वास के मानव समुदाय को अपने मजहब या पंथ में कन्वर्ट करता है, वह कभी भी विश्वशांति जैसी दुर्लभ बातें नहीं कर सकता।
विश्वशांति सबको अपनाने से होती है, किसी को कन्वर्ट करने से नहीं होती।
बिना किसी संकोच के, बिना किसी पूर्वाग्रह के, बिना किसी दंभ या पाखण्ड के यह कहा जा सकता है कि धरती पर सबसे अहिंसक और सबसे शांत मानव समुदाय केवल और केवल हिन्दू है जो मानवों को परस्पर सद्भाव से जीना सिखाता है, प्राणी मात्र में भगवान के स्थित होने का भाव रखता है, ऐसा दुर्लभ धार्मिक समुदाय आज अपने ही घर में खतरे में है।
क्या संसार के समझदार और गंभीर लोगों को यह दायित्व नहीं है कि वे विश्वशांति के लिए आधार भूमि तैयार करने में सक्षम हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए प्रयास करें। ऐसा करने के लिए उन्हें हिन्दू धर्म अपनाना नहीं होगा, केवल हिन्दू धर्म पर प्रहार करने वालों के खतरनाक इरादों का साथ देने से बचना होगा।
एक ऐसा संसार जिसमें सभी प्राणी शांति और सद्भावना के साथ रह सकें, तभी बन सकता है जब हिन्दू धर्म इस धरती पर सुरक्षित रहे।
ईश्वर न करे किंतु यदि कभी ऐसा दिन आया कि हिन्दू धर्म धरती से समाप्त हो जाए, तो विश्वशांति जैसी बातें करने वाला कोई भी नहीं बचेगा! वह धरती कैसी होगी, इसकी कल्पना मात्र से भय लगता है। शायद धरती होगी ही नहीं, वह परमाणु बमों की आग में झुलस कर नष्ट हो जाएगी।
क्या ऐसे उदार धर्म के प्रति उसी देश के कानून को निरपेक्ष भाव अर्थात् उदासीन भाव रखना चाहिए? क्या देश का धर्मनिरपेक्ष कानून यह कहता है कि भारत का कोई धर्म नहीं है, यदि वह ऐसा ही कहता है तो उसे धर्मनिरपेक्ष नहीं होना चाहिए। दुनिया में भारत और नेपाल के अतिरिक्त और कोई देश धर्मनिरपेक्ष नहीं है जबकि वास्तविकता यह है कि दोनों देश हिन्दू हैं। हिन्दू धर्म की ऊर्जा से बने हैं।
क्या भारत का धर्मनिरपेक्ष कानून हिन्दू धर्म की रक्षा करने में समर्थ है? या फिर देश का धर्मनिरपेक्ष कानून हिन्दुओं की रक्षा करने में समर्थ तो है किंतु जानबूझ कर नहीं कर रहा क्योंकि कानून का शासन चलाने वालों में, कानून की व्याख्या करने वालों में और कानून को कार्यान्वित करने वालों में हिन्दू धर्म की रक्षा करने का भाव ही मिट चुका है?
आज हर ओर से हिन्दू धर्म पर प्रहार हो रहे हैं जिनके चलते देश की डेमोग्राफी बदल रही है, बंगाल और असम जैसी सीमावर्ती राज्य ही नहीं हरियाणा, हिमाचल और उत्तराखण्ड जैसे प्रांतों की भी डेमाग्राफी तेजी से बदल चुकी है। इसे देखकर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि भारत का कानून भारत के अपने मूल धर्म की रक्षा के लिए क्यों नहीं बना है?
जिस कांग्रेस ने देश की आजादी की लड़ाई का नेतृत्व किया, उसी कांग्रेस ने आगे चलकर वक्फबोर्ड जैसी संस्थाएं खड़ी कीं और उनके पक्ष में अंधे कानून बनाकर हिन्दू धर्म को कमजोर करने का षड़यंत्र किया। उसी कांग्रेस ने धर्मस्थलों की 1947 वाली स्थिति बनाए रखने जैसा खतरनाक कानून बनाया।
उसी कांग्रेस ने देश में चारों तरफ से पाकिस्तानियों एवं बांग्लादेशियों को चोरी-छिपे घुसने के मार्ग तो बनाए किंतु उन देशों में आजादी के समय रह गए हिन्दुओं, बौद्धों, सिक्खों की रक्षा के लिए राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई प्रयास नहीं किया। जिसका परिणाम यह है कि आज अफगानिस्तान से आखिरी गुरुग्रंथ साहब भी भारत लौट आया है।
आज देश में लव जेहाद, लैण्ड जेहाद, थूक जेहाद, पेशाब जेहाद, वक्फ जेहाद अपने चरम पर हैं, अस्पतालों एवं रेलवे स्टेशनों पर मजारें बन चुकी हैं, सरकारी जमीनों पर हजारों मस्जिदें खड़ी हैं। ऐसे बहुत से उदाहरण दिए जा सकते हैं।
इन परिस्थितियों में हिन्दू धर्म अपना अस्तित्व कैसे बचाए रख सकता है? हिन्दू सड़कों पर लड़ने का अभ्यस्त नहीं है, न देश का कानून इसकी अनुमति देता है।
किसी भी देश में लोगों को सड़कों पर लड़ने की अनुमति होनी भी नहीं चाहिए किंतु कुछ तो ऐसा किया जाना चाहिए कि उस देश के लोगों को अपना मूल धर्म बचाने के लिए सड़कों पर आने की आवश्यकता ही अनुभव न हो!
जब हिन्दू धर्म का बाह्य शरीर ही खण्डित हो जाएगा, अर्थात् देश की जनसंख्या का स्वरूप ही बदल जाएगा तो हिन्दू धर्म का भीतरी स्वरूप भी बचा नहीं रहेगा।
यदि देश का कानून हिन्दू धर्म को बचाने में समर्थ होगा, तथी हिन्दू दुनिया भर में जाकर मानवों को शांति से रहने के लिए प्रेरित कर सकेगा।
भारत का कानून हिन्दू धर्म की रक्षा करने के आड़े कैसे आता है, इसके दो उदाहरण ही देने पर्याप्त हैं। आज यदि सरकार थूक जेहाद और पेशाब जेहाद रोकने के लिए केवल इतना सा आदेश देती है कि हर होटल, ढाबे और रेढ़ी वाला अपनी दुकान के सामने अपना नाम लिखे, तो कानून सामने आकर इस आदेश पर रोक लगा देता है।
यदि किसी ने सरकारी भूमि पर कब्जा कर रखा है, और वह आदमी दंगों या जघन्य अपराधों में लिप्त भी पाया जाता है और सरकार ऐसे मनुष्य के अवैध घर या दुकान को हटाने की कार्यवाही करती है तो कानून उस पर रोक लगा देता है।
देश में कानून का शासन होना चाहिए किंतु कानून भी तो अच्छा होना चाहिए। कानून को कार्यान्वित करने के लिए भावना भी तो अच्छी होनी चाहिए।
क्या कानून को केवल बहुसंख्यक के खिलाफ ही होना चाहिए, क्या उसे केवल अल्पसंख्य के पक्ष में ही खड़े होना चाहिए?
कानून को निष्प्राण नहीं होना चाहिए। प्राणवान होना चाहिए और केवल प्राणवान ही नहीं होना चाहिए, धर्मप्राण भी होना चाहिए।
कानून अंधा नहीं होना चाहिए, आंख वाला होना चाहिए!
कानून धर्म के लिए होना चाहिए न कि धर्म निरपेक्षता की रक्षा के लिए! भारत देश के धर्म एवं कानून में तालमेल होना चाहिए।
कुछ लोग हिन्दू धर्म की उदारता का गलत फायदा उठाकर हिन्दुओं से साईं बाबा की पूजा जबर्दस्ती करवाना चाहते हैं।
हिन्दू धर्म दुनिया का ऐसा उदार धर्म है जो मिट्टी, पानी, आग और पहाड़ से लेकर कुत्ते, सांप, गधे, साण्ड, उल्लू, गीध, कौए और कंटीली झाड़ी तक की पूजा करने की न केवल अनुमति देता है, अपितु परमात्मा को पाने के लिए इस तरह की पार्थिव पूजाओं को प्रोत्साहित भी करता है।
हम आकाश, वायु, अग्नि, जल, धरती की पूजा पंचमहाभूतों के रूप में करते हैं। आकाश में स्वतः उत्पन्न होने वाली ओंकार ध्वनि को को तो परम-पिता परमेश्वर की ही ध्वनि मानते हैं। आकाश में दिखने वाले नक्षत्रों को देवी-देवता मानकर उनकी पूजा करते हैं।
सदियों से हम सूर्य को विष्णु का साक्षात स्वरूप मानकर और चंद्रमा को चंद्रदेव मानकर अर्घ्य देते हैं। हम विविध नक्षत्रों की प्रसन्नता के लिए ना-ना प्रकार के अनुष्ठान करते हैं, सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के दिन दान-पुण्य करके सूर्यदेव और चंद्रदेव को कष्ट न हो, इस हेतु भगवान की पूजा करते हैं।
हम भगवान के विराटतम स्वरूप को वैश्वानर का रूप मानते हैं जिसका अर्थ है कि वह चींटी से लेकर हाथी तथा मनुष्य से लेकर देवताओं तक में एक जैसा ही विराजमान है।
हिन्दू जाति अनादि काल से नदी, वृक्ष एवं पर्वतों की पूजा देवी-देवताओं के रूप में करती है। नदी तटों और नदियों के संगम स्थलों को तीर्थों के रूप में पूजते हैं और अपने पूर्वजों के अवशेष नदियों को जाकर समर्पित करते हैं ताकि हमारे पूर्वजों की आत्मा को शांति और मुक्ति मिले।
करोड़ों हिन्दू अपने घर में बनने वाले भोजन का सर्वप्रथम अंश नित्य ही अग्नि को देव मानकर समर्पित करते हैं। उसे पंचयज्ञों में सम्मिलित करते हैं। गेहूँ की पहली बाली होली के दिन अग्नि देव को समर्पित करते हैं।
घर में आने वाली मिठाई का पहला अंश सब जीवों के निमित्त धरती पर गिराया जाता है। यह भी पंचयज्ञों में से एक यज्ञ माना जाता है।
हिन्दू जाति ने भगवान विष्णु का मत्स्यावतर मानकर मछली के रूप में पूजा, कूर्म अवतार मानकर कछुए के रूप में पूजा, वराह अवतार मानकर सूअर के रूप में पूजा, नृसिंह अवतार मानकर आधे सिंह के रूप में पूजा। पुराणों में भगवान विष्णु के हयग्रीव अवतार का उल्लेख है जो वेदों की रक्षा के लिए हुआ था। हयग्रीव का अर्थ होता है घोड़े की गर्दन वाला भगवान। हम बंदर में हनुमानजी के दर्शन करते हैं।
हिन्दू जाति नाग को देवता कहकर पूजती है। शेषनाग को विष्णु का सबसे बड़ा सेवक और छत्र मानती है जिसके फन पर धरती टिकी हुई है। शिवजी के गले में सांप झूलते हैं। इससे अधिक और क्या आदर सांप जैसे प्राणी को दिया जा सकता है!
हिन्दू जाति साण्ड को नंदी बाबा कहकर धोकती है। धरती पर रहने वाले करोड़ों करोड़ हिन्दू गाय को न केवल इंसानों की अपितु देवताओं तक की माता मानते हैं। कृष्णजी को प्रसन्न करने के लिए बछड़ों की पूजा करते हैं।
हम बैल को भगवान भोले नाथ की सवारी मानते हैं और शेर को दुर्गाजी का वाहन मानकर पूजते हैं। कुत्ते को भैंरूजी का वाहन मानकर पुए खिलाते हैं। भैंसे को यमराज का वाहन मानकर आदर देते हैं।
शीतला सप्तमी के दिन हम गधे पर सवार शीतला माता की पूजा करते हैं। चींटियों के लिए कीड़ी नगरा सींचते हैं। पक्षियों के लिए नित्य ही धान उछालते हैं।
मोर को कार्तिकेय का वाहन मानकर मूंग चुगाते हैं। हंस को सरस्वती का वाहन मानकर नमस्कार करते हैं। गरुड़जी को न केवल भगवान विष्णु का वाहन मानकर अपितु भगवान विष्णु का सबसे बड़ा सेवक मानकर धोकते हैं। उल्लू तक को माता लक्ष्मी का वाहन मानकर आदर देते हैं।
करणीमाता के मंदिर में चूहों को देवी के भक्त मानकर आदर दिया जाता है।
हम पीपल के पेड़ को साक्षात् वासुदेव मानकर सींचते हैं। बड़ मावस के दिन वटवृक्ष को पूजते हैं और उसे पकवान समर्पित करते हैं। हम किसी भी पत्थर में भगवान की कल्पना करके पत्रं, पुष्पं, फलं, तोयं से उसकी पूजा करते हैं। किसी भी पत्थर पर सिंदूर चढ़ाकर उसे हनुमानजी और दुर्गाजी के रूप में पूजते हैं।
अपने हर देवालय में हमने पत्थर की मूर्ति रख रखी है और उसके समक्ष दण्डवत् होकर परमात्मा की शरण में जाते हैं।
पीली कनेर में दुर्गाजी का, लाल कनेर में लक्ष्मीजी का और सफेद कनेर में माँ सरस्वती का वास मानते हैं। केले के पेड़ को साक्षात् विष्णु मानकर पूजते हैं, यहाँ तक कि खेजड़ी के कंटीले पेड़ और बेर की कंटीली झाड़ियों तक की पूजा करते हैं।
हम वेदों को भी भगवान की वाणी मानते हैं, वेदों को साक्षात् भगवान मानते हैं, रामायण और गीता को भी देवियों की तरह मानकर उनका अभिनंदन करते हैं।
इन उदाहरणों के अतिरिक्त और जो कुछ भी आपको प्रकृति में दिखाई देने वाला जीव-जंतु, पेड़-पौधा और झाड़ी से लेकर किसी भी प्रकार की प्राकृतिक रचना दिखाई दे जाए, हिन्दू उस सबकी पूजा करता आया है और यही उसके हृदय की विशालता, चित्त की उदारता और मस्तिष्क का वैराट्य है।
हिन्दू धर्म में इतनी व्यापकता मौजूद होते हुए भी, हम किसी अहिन्दू फकीर अर्थात् साईं बाबा को भगवान की तरह नहीं पूज सकते! हमने अपने मंदिरों में पत्थरों को भगवान माना किंतु हाड़-मांस से बने किसी आदमी को भगवान नहीं माना। हमने शिव, विष्णु और दुर्गा के अवतारों को तो भगवान माना किंतु किसी फकीर, उपदेशक को भगवान नहीं माना।
राम चरित मानस में कहा गया है कि ईश्वर की आराधना के लिए स्मरण करते ही सरस्वती विधाता का घर छोड़कर दौड़ पड़ती है-
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवत धाई।
किंतु यदि सरस्वती देखती है कि मनुष्य ईश्वर को छोड़कर प्रकृति में उत्पन्न सामान्य मनुष्य का गुणगान कर रहा है तो वह सिर धुन कर पश्चाताप करने लगती है-
कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना, सिर धुनि गिरा लगत पछताना।
हिन्दू धर्म में बड़े-बड़े साधु-संतों की कमी नहीं है। हमने कपिल मुनि और वेदव्यास से लेकर शंकराचार्य, कबीर, मीरा, तुलसी, तुकाराम, ज्ञानेश्वर, एकनाथ और सूरदास आदि संतों को भगवान की तरह आदर दिया।
हमने रहीमदास, रसखान, चांदबीबी और ताज बीबी जैसे मुसलमान संतों पर कोटिन्ह हिन्दू वारिए कहकर उनके चरण पकड़े किंतु उन्हें मंदिरों में लाकर नहीं पूजा। ऐसे हजारों उदाहरण दिए जा सकते हैं।
ठीक इसी तरह चांद खाँ उर्फ साईं बाबा को हम फकीर मानकर आदर तो दे सकते हैं किंतु चांद खाँ को शिव, विष्णु और दुर्गा के समकक्ष बैठाकर पूज नहीं सकते। अपने सनातन धर्म के मंदिरों में स्थापित नहीं कर सकते।
संभवतः अब तक बात स्पष्ट हो गई होगी कि हम चांद खाँ उर्फ साईं बाबा को फकीर मानकर क्यों आदर दे सकते हैं किंतु ईश्वर मानकर क्यों नहीं पूज सकते! इस पर भी यदि किसी को उन्हें र्साईंबाबा मानकर पूजना ही है तो उन्हें कौन रोकता है, वे साईंबाबा के लिए अलग मंदिर बनवाएं।
कबीर पंथियों ने भी तो अपने अलग कबीर द्वारे बना रखे हैं। आर्य समाजियों ने भी तो अपने अलग आर्य समाज बना रखे हैं। सिक्खों ने भी अपने अलग गुरुद्वारे बना रखे हैं, बौद्धों ने बौद्धमंदिर बना रखे हैं। जैनों ने भी जैन मंदिर अलग बना रखे हैं।
अलग पूजा स्थलों के बावजूद हिन्दू जाति कबीर पंथियों, आर्य समाजियों, सिक्खों, बौद्धों, जैनों आदि को हम हिन्दू धर्म के अंदर ही मानते हैं और उन्हें पूरा सम्मान देते हैं।
यह कैसी हठधर्मिता है कि जो लोग किसी फकीर की पूजा नहीं करना चाहते और जिन्होंने सनातन धर्म की मूल अवधारणा के अनुसार देवी-देवताओं के मंदिर बनाए हैं, उन मंदिरों में जबर्दस्ती किसी फकीर की मूर्ति रखकर उसकी पूजा सनातनियों से कराना चाहते हैं।
जब सनातनी भक्त अहिन्दू फकीर की मूर्ति को अपने मंदिर में रखने पर आपत्ति करते हैं तो वे जबर्दस्ती करने लगते हैं।
कबीरपंथी, आर्य समाजी, जैन, बौद्ध, सिक्ख कोई भी अपने मत की मूर्तियों को सनातनियों के मंदिरों में रखने का दुराग्रह नहीं करता।
हिन्दू धर्म के लोग अहिन्दू फकीर की मूर्तियां हटाना चाहते हैं किंतु दो संस्थाएं इसमें बाधक बनती हैं, एक तो भारत की कानून व्यवस्था जो संविधान की कोई न कोई धारा बताकर और धर्मनिरपेक्षता का कानून दिखाकर, हिन्दूधर्म की उपेक्षा करती है और दूसरी है भारत की राजनीतिक व्यवस्था जो वोटों के लालच में किसी भी ऐसे व्यक्ति को नाराज नहीं करना चाहती जो हिन्दू धर्म का नुक्सान करता है।
यदि चांद खाँ उर्फ साईं बाबा के भक्तों को सब धर्मों में इतनी ही एकता दिखाई देती है तो ये साईंभक्त मस्जिदों, गिरजाघरों, गुरुद्वारों, कबीरद्वारों आदि में साईं की मूर्ति ले जाकर क्यों नहीं रखते। इनका सारा जोर सनातन मंदिरों का स्वरूप बदलने पर ही क्यों लगा हुआ है। लगता है कि इसके पीछे कोई दुराभिसंधि काम कर रही है!
देश और कानून की परिस्थितियां जो भी हों, सनातन धर्म को अपने मूल सिद्धांत पर दृढ़ रहना चाहिए। सनातन धर्म के मूल उद्घोषों में से एक यह भी है- धर्मो रक्षति रक्षितः। अर्थात् जो अपने धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।
कहा भी गया है- जो दृढ़ राखे धर्म को तेहि राखे करतार।
हिन्दू धर्म के बड़े रक्षक गुरु गोबिंदसिंह ने भी कहा है- सकल जगत में खालसा पंथ गाजै, जगै हिन्दू धर्म सब भण्ड भाजै।
साईं बाबा की पूजा करने से न तो यह लोक सुधरेगा और न परलोक। अपने धर्म में बने रहिए। गीता में कहा गया है- स्वधर्मे निधनं श्रेयं, परधर्मे मृत्यु भयावहाः।
नसरुल्ला का जनाजा कैसे निकलेगा, इस पर पूरी दुनिया की निगाहें टिकी हुई हैं। क्या नसरुल्ला का जनाजा दुनिया को किसी बड़े युद्ध में झौंक देगा, या फिर यह कार्य बिना किसी विघ्न के पूरा हो जाएगा!
हिज्बुल्ला का चीफ नसरुल्ला हजारों मुसलमानों को मरवाकर, लाखों मुसलमानों का अंग-भंग करवाकर तथा लाखों मुसलमानों को बेघर करवाकर चिर निद्रा में सो गया। मृत्यु की देवी ने उसे अपने अंक में शांति दी जहाँ अब वह कयामत होने तक सोता रहेगा।
इस बात से कोई इन्कार नहीं किया जा सकता कि लेबनान तथा बेरुत में जितने भी मुसलमानों का नुक्सान हुआ या उनकी मौत हुई, उनमें से अधिकांश निरीह थे, उनका कोई दोष नहीं था, वे किसी के विरुद्ध नहीं लड़ रहे थे, हमारी तरह सामान्य सी शांत जिंदगी जी रहे थे, अपने बच्चों को पाल रहे थे और उनके लिए सुखद जीवन की तलाश कर रहे थे।
वे इंसान ही थे किंतु हिज्बुल्ला ने उन्हें इंसान नहीं समझा, केवल मुसलमान समझा। हिज्बुल्ला के अनुसार उनमें से प्रत्येक का कर्तव्य था कि वह इजराइल के यहूदी काफिरों के विरुद्ध लड़े तथा लड़ता हुआ कौम के काम आए। हिज्बुल्ला की हरकतों के कारण लेबनान और बेरुत के निरीह लोग बिना लड़े ही कौम के काम आ गए।
यही कारण है कि लेबनान की जनता अब हिज्बुल्ला के आतंकवादी लड़ाकों को सड़कों पर पीट रही है। हिज्बुल्ला लेबनान के लोगों की सहानुभूति खो चुका है।
जब नसरुल्ला की मौत की खबर दुनिया भर में फैली तब यह बात कही गई कि 80 हजार किलो बारूद के नीचे दबकर या बारूद की आग में जलकर नसरुल्ला के शरीर का क्या हुआ, कुछ पता नहीं चला किंतु बाद में खबर आई कि नसरुल्ला का शव मिल गया है।
नसरुल्ला के शव पर एक खंरोच तक नहीं मिली। उसका शरीर पूरी तरह सुरक्षित है। दुनिया भर के लोगों का अनुमान है कि नसरुल्ला की मौत एक सुरक्षित बंकर में पहुंच रही बम धमाकों की आवाज सुनकर हृदयाघात से हुई।
अब नसरुल्ला का शव मिले भी कई दिन बीत चुके हैं किंतु अभी तक उसे कब्र तक नहीं पहुंचाया जा सका है। इसका कारण यह बताया जा रहा है कि हिज्बुल्ला के सभी बड़े कमाण्डरों को इस जनाजे में भाग लेना है जो लेबनान में अलग-अलग बंकरों में छिपे हुए हैं।
साथ ही ईरान के मजहबी नेता अली खामनेई को भी इस जनाजे में भाग लेना है जो इजराइली मिसाइलों के भय से किसी अत्यंत गुप्त स्थान में छिपा हुआ है।
यदि हिज्बुल्ला के बड़े कमाण्डर और अली खामनेई नसरुल्ला के जनाजे में चलेंगे तो इजराइल इसे अपने लिए अच्छा अवसर समझकर इस जनाजे पर मिसाइल देकर मारेगा जिससे इजराइल के सारे बड़े दुश्मन एक साथ ही समाप्त हो जाएंगे।
जनाजे पर मिसाइल मारना नैतिक रूप से गलत है। मानवता की दरकार है कि मरे हुए व्यक्ति से कोई दुश्मनी न रखी जाए किंतु इजराइल इस समय नैतिकता और मानवता की सीमाओं को स्वीकार करके अपने देश के सैनिकों को अनंत काल तक युद्ध की आग में झौंके हुए नहीं रखना चाहेगा।
इसलिए बहुत संभव है कि इजराइल नसरुल्ला के जनाजे पर बम या मिसाइल बरसाए। इस कारण हिज्बुल्ला नसरुल्ला का जनाजा उठाने में असमंजस की स्थिति में है।
पर्याप्त संभव है कि हिज्बुल्ला यूनाइटेड नेशन्स के माध्यम से या किसी और शक्ति के माध्यम से एक दिन के सीज फायर की कोशिश करे ताकि जनाजे पर मिसाइलें नहीं बरसें।
इजराइल ने यूएन के सेक्रेटरी जनरल अंटोनियो गुटेरस से पहले ही कह दिया है कि वह इजराइल की धरती पर पैर न रखे।
कोई नहीं जानता कि जनाजे के लिए की जा रही सीज फायर की कोशिशों का क्या परिणाम निकलेगा किंतु इस संदर्भ में भारत के धर्मशास्त्रों में वर्णित दो घटनाओं का उल्लेख किया जा सकता है।
जिस समय लक्ष्मणजी ने मेघनाद को मारा, उस समय मेघनाद की पत्नी सुलोचना अपने पीहर में थी। मेघनाद की मृत्यु की सूचना पाकर वह लंका आई किंतु लंका के चारों ओर बंदरों की सेना ने घेरा डाल रखा था।
सुलोचना ने बंदरों से प्रार्थना की कि वे मुझे लंका के भीतर जाने दें किंतु बंदरों ने उसे रोक लिया तथा हनुमानजी को सूचना दी। हनुमानजी ने सुलोचना को तत्काल लंका में प्रवेश करने की अनुमति दे दी।
दूसरी घटना रावण की मृत्यु के बाद की है। जैसे ही रावण मारा गया, वैसे ही रामजी ने विभीषणजी को आज्ञा दी कि वे लंका में प्रवेश करके राक्षसराज रावण की अंत्येष्टि करवाएं।
भारत की संस्कृति शत्रु के शव को शत्रु नहीं मानती है किंतु इजराइल की संस्कृति इस स्थिति में क्या करने को कहती है, यह तो समय ही बताएगा!
ऐश्वर्या राय एक फिल्म अभिनेत्री हैं और राहुल गांधी भारत की लोकसभा में विपक्ष के नेता हैं, दोनों एक दूसरे के रास्ते कहीं नहीं काटते, फिर भी राहुल गांधी ऐश्वर्या राय से क्यों नाराज हैं, यह समझ से परे है!
राहुल गांधी का अयोध्या के राम मंदिर से क्या रिश्ता है, इसे समझना अधिक कठिन नहीं है, राहुल गांधी का अयोध्या के सांसद अवधेश प्रसाद से क्या रिश्ता है, इसे समझना भी कठिन नहीं है, राहुल गांधी का नरेन्द्र मोदी, गौतम अडानी तथा मुकेश अम्बानी से क्या रिश्ता है, इसे भी समझना कठिन नहीं है किंतु राहुल गांधी का ऐश्वर्या राय एवं उनके परिवार से क्या रिश्ता है, यह समझ में नहीं आता!
राहुल गांधी जनसभाओं में राम मंदिर उद्घाटन पर अमिताभ बच्चन तथा ऐश्वर्या बच्चन की उपस्थिति का उल्लेख जितने क्रोध, व्यथा, निराशा और शिकायत के साथ करते हैं, उसे देखकर मन में यह स्वाभाविक सा प्रश्न उठता है कि बच्चन परिवार और राहुल गांधी के बीच का ये रिश्ता क्या कहलाता है?
अयोध्या जन्मभूमि मंदिर का ताला राहुल गांधी के पिता राजीव गांधी की सरकार के समय में खुला, सब जानते हैं!
जन्मभूमि पर विवादित ढांचा कांग्रेसी प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हाराव के समय में टूटा, सब जानते हैं!
जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के समय गांधी और बच्चन परिवार के कितने गहरे सम्बन्ध थे, सब जानते हैं!
रिश्तों की इतनी गहराइयों के बावजूद राहुल गांधी न तो कभी अयोध्या मंदिर का उल्लेख श्रद्धा के साथ करते हैं और न बच्चन परिवार का उल्लेख आदर के साथ करते हैं।
राहुल गांधी किसमें श्रद्धा रखें और किसमें नहीं, किसका नाम आदर से लें और किसका नहीं, यह उनका व्यक्तिगत मामला हो सकता है किंतु जब वे जनसभाओं में रामंदिर तथा उसके साथ बच्चन परिवार का उल्लेख जिस गुस्से और तिरस्कार पूर्ण ढंग से करते हैं, उसे देखकर यह मामला व्यक्तिगत नहीं रह जाता, अपितु राजनीतिक हो जाता है।
हालांकि गांधी और बच्चन परिवार के पुराने सम्बन्धों का विवरण पब्लिक डोमेन में उपलब्ध है तथापि राहुल गांधी और बच्चन परिवार का रिश्ता क्या कहलाता है, इसे समझने से पहले गांधी और बच्चन परिवार के रिश्तों पर थोड़ी सी दृष्टि डालनी आवश्यक है।
जिस समय राहुल गांधी का जन्म भी नहीं हुआ था और संभवतः राहुल की माता सोनिया गांधी का भी जन्म नहीं हुआ था, उस समय भी नेहरू और हरिवंशराय बच्चन के सम्बन्ध तथा इंदिरा गांधी और तेजी बच्चन के सम्बन्ध बहुत अच्छे हुआ करते थे।
तेजी बच्चन सरदार खजानसिंह सूरी की पुत्री थीं तथा लाहौर के खूबचंद डिग्री कॉलेज में साइकॉलोजी पढ़ाया करती थीं। 1942 में उन्होंने बाबूपट्टी के कायस्थ लड़के हरिवंश राय श्रीवास्तव से विवाह किया जो अपना नाम हरिवंशराय बच्चन लिखा करते थे। तेजी बच्चन हरिवंश राय की दूसरी पत्नी थीं क्योंकि हरिवंश की पहली पत्नी श्यामा का निधन 1936 में हो गया था।
हरिवंश राय बच्चन विदेश मंत्रालय में हिन्दी अधिकारी थे। वे हिन्दी के अच्छे कवि थे और अंग्रेजी भी अच्छी जानते थे। इन कारणों से प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू हरिवंश राय बच्चन को पसंद करते थे और आदर भी दिया करते थे।
हरिवंशराय बच्चन और जवाहर लाल नेहरू की निकटता के कारण हरिवंशराय बच्चन की पत्नी तेजी बच्चन तथा नेहरू की पुत्री इंदिरा गांधी अच्छी मित्र बन गईं।
इस प्रकार गांधी परिवार और बच्चन परिवार के सम्बन्ध बरसों-बरस चलते रहे। जब राजीव गांधी सोनिया गांधी को भारत में लाए तो उन्होंने सोनिया गांधी को तेजी बच्चन के घर में रखा। इंदिरा गांधी नहीं चाहती थीं कि राजीव गांधी का विवाह किसी विदेशी लड़की से हो किंतु तेजी बच्चन के मनाने पर इंदिरा गांधी अपने पुत्र का विवाह एक विदेशी लड़की से करने को तैयार हो गईं।
इंदिरा गांधी की हत्या होने तक गांधी परिवार और बच्चन परिवार के सम्बन्ध मधुर बने रहे किंतु जैसे ही इंदिरा गांधी दृश्य से हटीं, गांधी परिवार और बच्चन परिवार के सम्बन्ध बदलने लगे। ये सम्बन्ध यहाँ तक बदले कि कुछ बातें पब्लिक डोमेन में भी आ गईं। फिर भी सम्बन्ध चलते रहे।
राजीव गांधी ने 1984 में अमिताभ बच्चन को कांग्रेस से सांसद का चुनाव लड़वाया किंतु कुछ समय बाद अमिताभ बच्चन ने लोकसभा से त्यागपत्र दे दिया। पब्लिक डोमेन में यह धारणा है कि अमिताभ बच्चन की लोकप्रियता को देखकर ही राजीव गांधी ने अमिताभ बच्चन से त्यागपत्र लिया था। संभवतः तभी से गांधी परिवार और बच्चन परिवार के सम्बन्ध पूरी तरह टूट गए। दोनों परिवारों में बोलचाल समाप्त हो गई।
1999 में समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव ने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। इसके बाद बच्चन परिवार समाजवादी पार्टी की तरफ मुड़ा। परिणाम यह हुआ कि वर्ष 2004 में अमिताभ बच्चन की अभिनेत्री पत्नी जया बच्चन को समाजवादी पार्टी ने राज्यसभा में सांसद बनाया। तब से लेकर अब तक वे पांचवीं बार राज्यसभा में सांसद हैं। राज्यसभा में उनका पूरा नाम जया अमिताभ बच्चन हैं।
जब राममंदिर का उद्घाटन हुआ तो राहुल गांधी ने बड़े कड़वे अंदाज में कहा कि मैंने उद्घाटन समारोह में अडानी और अम्बानी को देखा, अमिताभ बच्चन को देखा, ऐश्वर्या राय को नाचते हुए देखा। लोगों ने राहुल की बात पर हैरानी जताई कि न तो ऐश्वर्या राय वहाँ नाच रही थी और न राहुल को किसी ऐसी महिला पर ऐसी टिप्पणी करनी चाहिए जो कि विवाद में है ही नहीं!
राममंदिर के उद्घाटन को कुछ महीने ही बीते होंगे कि टेलिविजन पर ये हैरानी भरी दृश्य देखे गए कि जया बच्चन ने राज्यसभा के सभापति एवं उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ से तथा एक उपसभापति से इस बात पर वाक्युद्ध किया कि मेरे नाम के साथ मेरे पति का नाम लेकर मुझे अपमानित क्यों लिया जाता है। जया बच्चन ने इस बात पर इतनी गर्मी दिखाई कि लोगों ने यह कहना शुरु कर दिया कि जया बच्चन को अमिताभ बच्चन से परेशानी है। इसलिए वे ऐसा कर रही हैं।
जया बच्चन के वाक्युद्ध के दिन या उसके एक-दो दिन बाद विपक्षी दलों ने संसद से निकलकर सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन किया और नारे लगाए। लोगों ने बड़ी हैरानी से देखा कि सोनिया गांधी और जया बच्चन एक साथ खड़ी होकर सरकार के विरुद्ध नारे लगा रही थीं और मीडिया को बाइट दे रही थीं।
इस घटना को भी अभी अधिक दिन नहीं बीते हैं कि कल अर्थात् 28 सितम्बर 2024 को हरियाणा में एक जनसभा में राहुल गांधी ने फिर से बड़े तल्ख अंदाज में टिप्पणी की कि मैंने राममंदिर के उद्घाटन में अडानी और अम्बानी को देखा, करोड़पतियों को देखा, अमिताभ बच्चन और ऐश्वर्या राय को देखा। उद्घाटन के नाम पर नाच-गाना हो रहा था।
इस प्रकार एक ओर तो जया बच्चन अपने साथ अपने पति का नाम लिए जाने पर ऐतराज करती हैं, दूसरी ओर वे सोनिया गांधी के साथ खड़ी होकर सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन करती हैं और तीसरी ओर राहुल गांधी जया बच्चन के पति एवं पुत्रवधू का विरोध सार्वजनिक मंचों से करते हैं।
समझ में ही नहीं आता कि ये रिश्ते क्या कहलाते हैं!
राहुल गांधी नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को शत्रु समझें तो बात समझ में आती है, आर एस एस पर प्रहार करें, बात समझ में आती है, गौतम अडानी और मुकेश अम्बानी को बर्बाद करने पर उतारू रहें, बात समझ में आती है किंतु अमिताभ बच्चन और ऐश्वर्या राय पर बार-बार जहर उगलें, यह बात समझ में नहीं आती। इन दोनों ने राहुल गांधी का क्या दबा लिया है! न तो ये सरकार में या राजनीति में हैं, न ये किसी राजनीतिक पार्टी को चंदा देते हैं, फिर इनसे इतनी परेशानी क्यों?
अच्छा हो यदि राहुल गांधी ऐश्वर्या राय के प्रति अपनी कड़वाहट का रहस्य उजागर करें। इसलिए करें क्योंकि वे इस मुद्दे को बार-बार सार्वजनिक सभाओं में उठा रहे हैं।
भारत की जनता को अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा भारत में इस्लाम के प्रसार के लिए चलाए जा रहे षड़यंत्रों का ही सामना नहीं करना है, उन्हें उन ईसाई मिशनरियों का भी सामना करना है जो आदिवासियों, निर्धनों एवं भोलेभाले लोगों को चमत्कारों में फंसाकर हिन्दू धर्म से दूर कर रहे हैं।