अकबर और महाराणा प्रताप एक-दूसरे के प्राण लेना चाहते थे अंतर केवल इतना था कि अकबर महाराणा का राज्य छीनने के लिए महाराणा का दुश्मन हुआ बैठा था तो महाराणा अपनी भूमि को म्लेच्छों के हाथों में जाने से रोकने के लिए ऐसा कर रहे थे।
अकबर तथा महाराणा प्रताप के बीच आदि से अंत तक जो भी घटनाएं हुईं उनसे यह सिद्ध होता है कि न तो अकबर महाराणा प्रताप से संधि चाहता था और न महाराणा प्रताप किसी भी कीमत पर अकबर से संधि करना चाहता था।
अकबर भारत के राजाओं के मन से स्वातंत्र्य भावों को हमेशा के लिए समाप्त करने के उद्देश्य से महाराणा के प्राण लेना चाहता था क्योंकि महाराणा प्रताप भारत की स्वातंत्र्य चेतना का राष्ट्र-व्यापी प्रतीक बन गया था।
दूसरी ओर महाराणा प्रताप इसलिए अकबर के रक्त का प्यासा था क्योंकि अकबर तथा उसके पूर्वजों ने न केवल प्रताप के पूर्वजों को महान् कष्ट दिए थे अपितु उसने गुहिलों के प्यारे चित्तौड़ पर कब्जा कर रखा था। धरती, धर्म और धेनु के रक्षक प्रताप के पूर्वजों की आत्मा प्रतापसिंह को शांति से बैठने नहीं देती थी।
जब महाराणा प्रताप ने कुंअर मानसिंह के साथ भोजन करने से इन्कार कर दिया तो मानसिंह ने इसे अपना घोर अपमान समझा। मानसिंह समझ गया कि महाराणा ने उसे क्यों अपमानित किया है! इसलिए मानसिंह क्रोध से तिलमिला गया।
राजा श्यामलदास ने वीर विनोद में लिखा है कि जब मानसिंह ने बादशाह के पास पहुँचकर अपने अपमान का सारा हाल कहा, तो अकबर ने क्रुद्ध होकर महाराणा का गर्वभंजन कर उसे सर्वतोभावेन अपने अधीन करने का विचार करके कुंवर मानसिंह को ही महाराणा प्रताप के विरुद्ध भेजने का निश्चय किया। राजप्रशस्ति महाकाव्य और राजपूताने की विभिन्न ख्यातों में इस घटना का वर्णन कई प्रकार से मिलता है। अकबर के दरबारी लेखक अबुल फजल ने अन्य समस्त स्रोतों से बिल्कुल अलग हटकर लिखा है कि राणा ने मानसिंह का स्वागत कर अधीनता के साथ शाही खिलअत पहन ली और मानसिंह को अपने महलों में ले जाकर उसके साथ दगा करना चाहा, जिसका हाल मालूम होते ही मानसिंह वहाँ से चला गया। महामहोपध्याय गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अबुल फजल के वर्णन को मिथ्या मानते हुए लिखा है कि महाराणा का अधीनता के साथ खिलअत पहनना तो दूर रहा, वह तो अकबर को बादशाह नहीं, तुर्क कहा करता था। किसी कवि ने भी लिखा है- तुरक कहासी मुख पतौ, इण तन सूं इकलिंग। अर्थात्- एकलिंग भगवान महाराणा प्रताप के मुख से अकबर को तुर्क ही कहलवाएंगे।
सदा की तरह से कोई भी नया अभियान आरम्भ करने से पहले अकबर अजमेर आया तथा उसने ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर पहुँचकर अपनी जीत की कामना तथा महाराणा प्रताप की पराजय की कामना की। यहीं से उसने 2 अप्रेल 1576 को मानसिंह कच्छवाहा को मेवाड़ के लिये रवाना किया।
बदायूंनी लिखता है कि अकबर ने मानसिंह को पांच हजार घुड़सवार दिए तथा उसके साथ गाजी खाँ बदख्शी, ख्वाजा मुहम्मद रफी बदख्शी, शियाबुद्दीन गुरोह, पायन्दा कज्जाक, अली मुराद उजबक, काजी खाँ, इब्राहीम चिश्ती, शेख मंसूर, ख्वाजा गयासुद्दीन, अली आसिफ खाँ, सैयद अहमद खाँ, सैयद हाशिम खाँ, जगन्नाथ कच्छवाहा, सैयद राजू, महतर खाँ, माधोसिंह कच्छवाहा, मुजाहिद बेग, खंगार और लूणकर्ण आदि अमीर, उमराव तथा 5,000 सवार भेजे।
आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि मानसिंह की सेना में 10 हजार घुड़सवार थे। इनमें 4,000 कच्छवाहे राजपूत थे। 1,000 अन्य जातियों के राजपूत तथा शेष मध्यएशिया के तुर्क, उजबेग, कज्जाक, बारहा के सैय्यद और फतेहपुर के शेखजादे थे।
बदायूंनी लिखता है- ‘मेरे मन में भी काफिर से लड़ने की उत्कंठा जगी। मैंने शहंशाह के समक्ष दरख्वास्त लगाई कि मुझे भी मानसिंह के साथ महाराणा प्रताप के विरुद्ध भेजा जाए।’
इस पर अकबर ने कहा- ‘उसे तो अभी-अभी शाही दरबार में इमाम बनाया गया है। वह कैसे जा सकता है?’
नकीब खाँ ने शहंशाह से कहा- ‘बदायूंनी को जिहाद में भाग लेने की बड़ी इच्छा है।’
इस पर शहंशाह ने बदायूंनी को बुलाया और पूछा- ‘क्या तुम इच्छुक हो?’
बदायूंनी ने जवाब दिया- ‘हाँ।’
तब बादशाह ने पूछा- ‘क्यों?’
बदायूंनी ने कहा- ‘मैं चाहता हूं कि मेरी काली दाढ़ी और मूंछें निष्ठा के लहू से रंग जाएं। आपकी बंदगी जोखिम भरी है, फिर भी मैं करना चाहता हूँ। ताकि मैं प्रसिद्धि पा सकूं, या मर सकूं। आपके खातिर।’
बादशाह ने खुश होकर कहा- ‘खुदा ने चाहा तो तुम फतेह की खबर लेकर लौटोगे।’
बादशाह की यह बात सुनकर बदायूंनी ने बादशाह का पैर चूमने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया किंतु बादशाह ने अपना पैर पीछे खींच लिया। बादशाह ने अपने दोनों हाथों में भरकर छप्पन अशर्फियां बदायूंनी को दीं और उसे विदा किया।
मानसिंह, माण्डलगढ़ पहुँचकर लड़ने की तैयारी करने लगा। जब महाराणा को कुंअर मानसिंह के माण्डलगढ़ आने की जानकारी हुई तो महाराणा भी कुम्भलगढ़ से चलकर गोगूंदा आ गया। उसका विचार था कि माण्डलगढ़ पहुँचकर ही मानसिंह पर आक्रमण करे किंतु सरदारों ने कहा कि इस समय कुंवर, अकबर के बल पर आया है इसलिये पहाड़ों के सहारे ही शाही सेना का मुकाबला करना चाहिये।
महाराणा ने इस सलाह को पसंद किया और युद्ध की तैयारी आरम्भ कर दी।
गोगूंदा और खमनौर के बीच अरावली की विकट पहाड़ी श्रेणियाँ स्थित हैं जिनमें नाथद्वारा का विश्वविख्यात मंदिर बना हुआ है। नाथद्वारा से लगभग 13 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में खमनौर गांव स्थित है।
इससे चार किलोमीटर के अंतर पर हल्दीघाटी स्थित है। यहाँ की मिट्टी हल्दी जैसे पीले रंग की है। इस कारण इसे हल्दीघाटी कहते हैं। यहाँ के पत्थरों पर पीली मिट्टी लगने से वे भी पीले दिखाई देते हैं। हल्दीघाटी कुंभलगढ़ की पहाड़ियों में बालीचा गांव से लेकर खमनौर के पास भागल की झौंपड़ियों तक पूरे तीन मील की लम्बाई में फैली है।
इस घाटी का मार्ग बहुत संकरा था किंतु कहीं-कहीं घाटी इतनी चौड़ी थी कि पूरी फौज आराम से निकल जाए। इन चौड़े स्थानों में गांव बसे हुए थे। इसी हल्दीघाटी को मुगलों और गुहिलों के बीच होने वाले युद्ध के लिए चुना गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता की पुस्तक तीसरा मुगल जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर से!