Thursday, December 26, 2024
spot_img
Home Blog Page 167

अध्याय – 59 : भारत में क्रांतिकारी आन्दोलन – 1

0

कांग्रेस के उग्रवादी नेता उग्र आंदोलन के समर्थक थे जिनमें असहयोग, प्रदर्शन, भाषण, बहिष्कार आदि उग्र उपायों का सहारा लिया जाता था। वे किसी भी स्थिति में हिंसक उपायों के समर्थक नहीं थे परन्तु आजादी के मतवाले कुछ युवाओं ने उग्रवादियों के संघर्ष के सिद्धान्त की व्याख्या न्याय-संगत हिंसा के रूप में की। इस विचारधारा को अपनाने वालों को भारतीयों द्वारा क्रान्तिकारी तथा गोरी सरकार द्वारा आतंकवादी कहा गया। क्रान्तिकारी, भारत से ब्रिटिश शासन का अन्त करने के लिए हिंसा, लूट, हत्या जैसे किसी भी साधन का प्रयोग करना उचित मानते थे। अँग्रेज सरकार की दृष्टि में क्रान्तिकारी आतंकवाद, उग्र राष्ट्रवाद का ही एक पक्ष था किन्तु दोनों की भिन्न कार्यपद्धति से स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि क्रांति का पथ, राजनीतिक उग्रवाद से सर्वथा भिन्न था।

क्रान्तिकारी आन्दोलन का उद्भव

माना जाता है कि कांग्रेस के उग्रवादी आन्दोलन के विरुद्ध ब्रिटिश शासन का दमनचक्र तेज होने पर देशभक्तों के मन में तीव्र प्रतिक्रिया हुई तथा युवाओं के पास क्रान्तिकारी आन्दोलन के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं रह गया। इस कारण भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन आरम्भ हुआ किंतु वास्तविकता यह है कि कांग्रेस के उग्रवादी आंदोलन आरम्भ होने पूर्व ही क्रान्तिकारी आन्दोलन का बिगुल बज उठा था। बहावियों द्वारा सितम्बर 1871 में कलकत्ता में मुख्य न्यायधीश नार्मन की हत्या और फरवरी 1872 में अंडमान में वायसराय लॉर्ड मेयो की हत्या को क्रांतिकारी आंदोलन की शुरुआत तो नहीं कहा जा सकता किंतु ये हिंसक घटनायें युवा पीढ़ी को क्रांति के मार्ग पर ले जाने में प्रेरक सिद्ध हुईं। 1876 ई. में वासुदेव बलवन्त फड़के द्वारा सरकार के विरुद्ध सशस्त्र क्रान्ति की घटना ने देश में क्रांतिकारी आंदोलन को जन्म दिया। उन्नीसवीं सदी के अन्त तक क्रांतिकारी आंदोलन का स्वरूप स्पष्ट होने लगा।

लन्दन टाइम्स के संवाददाता वेलेन्टाइन शिरोल ने लिखा है- ‘क्रान्तिकारी एवं आतंकवादी आन्दोलन पश्चिम के विरुद्ध ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया थी और उसे कट्टरवादी हिन्दुओं ने प्रेरित किया था। गुप्त संगठन, जो हिंसा का प्रचार करते थे, धर्म से प्रेरणा लेते थे …..दक्षिण का ब्राह्मणवाद अत्यन्त लड़ाकू था और तिलक इसके नेता थे।’

शिरोल का यह कथन सही नहीं माना जा सकता क्योंकि पंजाब और बंगाल में गैर-ब्राह्मणों ने क्रान्तिकारी आन्दोलन चलाया था। आयोध्यासिंह ने लिखा है- ‘रूस और आयरलैण्ड के आतंकवादी आन्दोलन ने भारत के आतंकवादी आन्दोलन को पैदा करने और संगठित होने में बड़ा काम किया।’

क्रान्तिकारी आन्दोलन के उदय के कारण

भारत में क्रान्तिकारी एवं आतंकवादी आन्दोलन का उदय लगभग उन कारणों से हूआ जिनके कारण उग्रवाद का उदय हुआ था। उग्रवादियों के विरुद्ध सरकार की दमनकारी नीति तथा कुछ अन्य घटनाओं ने इसे विशेष बल प्रदान किया। क्रान्तिकारी आन्दोलन को बढ़ावा देने में निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे-

(1.) उदारवादियों की विफलता: उदारवादियों के संवैधानिक उपायों की असफलता के कारण भारतीय नवयुवकों में वैधानिक मार्ग के प्रति विश्वास नहीं रहा। उन्हें लगने लगा था कि सरकार के समक्ष गिड़गिड़ाने और हाथ-पैर जोड़ने से ब्रिटिश सरकार, भारतीयों को स्वतन्त्रता देने वाली नहीं है। इसके लिए क्रान्तिकारी उपायों से अँग्रेजों में भय उत्पन्न करना होगा।

(2.) सरकार द्वारा भारतीयों का शोषण: उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशकों में, देश के भीतर सरकारी नीतियों के विरुद्ध प्रबल असन्तोष व्याप्त था। जनता भुखमरी, बेरोजगारी, अकाल और महामारी से त्रस्त थी। क्रांति का मार्ग पकड़ने वाले वासुदेव बलवन्त फड़के ने न्यायालय में अपने वक्तव्य में कहा था- ‘भारतीय आज मृत्यु के द्वार पर खड़े हैं। ब्रिटिश सरकार ने जनता को इतना अधिक कुचल दिया है कि वे सदा अकाल और खाद्य पदार्थों की कमी से दुःखी रहते हैं। जहाँ दृष्टि डालो, वहीं ऐसे दृश्य दिखाई देंगे जिनसे हिन्दू और मुसलमानों के सिर लज्जा से झुक जाते हैं।’ ब्रिटिश शासन द्वारा किये गये आर्थिक शोषण तथा अकाल और प्राकृतिक प्रकोपों के समय में सरकार द्वारा राहत कार्य न किये जाने की घटनाओं ने युवाओं को क्रान्ति के लिए प्रेरित किया।

(3.) मध्यम वर्ग में असंतोष: क्रान्तिकारी आन्दोलन मध्यम वर्ग में तेजी से फैला। इस मार्ग पर चलने वालों में अधिकांशतः पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त नवयुवक थे। इनमें से अधिकांश नवयुवक बेराजगार थे। सरकार की आर्थिक शोषण की नीति ने मध्यम वर्ग को बुरी तरह से प्रभावित किया था और उसे समाज में अपनी प्रतिष्ठा को बनाये रखना कठिन हो गया था। बड़ी संख्या में मध्यमवर्गीय परिवार निर्धन होने लगे थे। सरकार द्वारा किये जा रहे शोषण एवं कांग्रेस की असफलताओं ने नवयुवकों में क्रान्तिकारी प्रवृत्ति पैदा कर दी। यह क्रान्तिकारी भावना स्वतन्त्रता प्राप्ति की लालसा तथा भावी सुखी जीवन के स्वप्न से प्रेरित थी।

(4.) सरकार की स्वार्थपूर्ण नीतियाँ: भारतीय क्रांतिकारी आन्दोलन, सरकार की स्वार्थपूर्ण नीतियों का परिणाम था। मॉडर्न रिव्यू ने लिखा था- ‘आतंकवाद के अन्तिम कारण को सरकार की सोलह आने स्वार्थी, स्वेच्छाचारी और अत्याचारी नीतियों में खोजना होगा….. ब्रिटिश शासकों ने जब राष्ट्रीय आन्दोलन को दबाने के लिए जारशाही के निरंकुश तरीकों को अपनाया तो क्रांतिकारियों ने उसका सामना करने के लिए रूसी आतंवादियों का रास्ता अपनाया।’

लॉर्ड कर्जन की नीतियों ने क्रांतिकारी आन्दोलन को विशेष रूप से प्रोत्साहित किया। उसके शासनकाल में दो बार अकाल पड़ा परन्तु अकाल-राहत कार्यों में सरकार का दृष्टिकोण अत्यन्त कठोर एवं अमानवीय रहा। कर्जन ने कलकत्ता निगम अधिनियम पारित करके निगम की स्वायत्तता छीन ली तथा विश्वविद्यालय अधिनियम पारित कर भारतीय विश्वविद्यालयों पर सरकारी शिकंजा कस दिया। ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट ने अभिव्यक्ति पर अंकुश लगा दिया। कर्जन की जातीय भेद नीति ने लोगों को और अधिक उग्र बना दिया। कर्जन ने घोषणा की- ‘केवल अँग्रेज ही भारत पर शासन करने के योग्य है।’ कर्जन ने बंगाल का विभाजन कर दिया। बंग-भंग के विरोध में जो आन्दोलन चला, सरकार ने उसे भी कठोरता से कुचलने का प्रयास किया।

भारत सरकार द्वारा अपनाई जा रही नीतियों पर चिंता व्यक्त करते हुए भारत सचिव लॉर्ड मार्ले ने वायसराय को पत्र लिखकर सूचित किया- ‘राजद्रोह और अन्य अपराधों के सम्बन्ध में जो दिल दहलाने वाले दंड दिये जा रहे हैं, उनके कारण मैं अत्यन्त चिन्तित हूँ। हम व्यवस्था चाहते हैं किन्तु इसके लिए घोर कठोरता के उपयोग से सफलता नहीं मिलेगी। इसका परिणाम उल्टा होगा और लोग बम का सहारा लेंगे।’

भारत सचिव का अनुमान सही था। जब लोगों को सार्वजनिक रूप से आंदोलन चलाने की छूट नहीं मिली तो वे छिपकर आंदोलन चलाने लगे। मांटेग्यू चैम्सफोर्ड ने स्वीकार किया है- ‘दण्ड-संहिता की सजाओं और चाकू चलाने की नीति ने साधारण और बिगड़े नवयुवकों को शहीद बनाया और विप्लवकारी लोगों की संख्या बढ़ा दी।’

(5.) भारतीय संस्कृति का अपमान: अँग्रेजों ने भारतीयों के साथ-साथ भारतीय संस्कृति का भी सार्वजनिक रूप से अपमान किया। 1883 ई. में बंगाल में एक अँग्रेज जज ने अदालत में हिन्दू देवता ठाकुरजी की प्रतिमा को कोर्ट में हाजिर करने के आदेश दिये। जब सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इस बात का विरोध किया तो उन्हें न्यायालय की मानहानि का दोषी ठहराकर दो माह की कैद की गई। पंजाब में गायों के सरकारी बूचड़खाने खोलने के लिये मुसलमानों को आगे किया गया। इन सब बातों ने युवकों को हत्या और मारकाट का मार्ग पकड़ने के लिये प्रेरित किया।

क्रांतिकारी आन्दोलन के उद्देश्य

प्रारंभिक क्रांतिकारियों का भावी कार्यक्रम स्पष्ट नहीं था फिर भी वे जानते थे कि ब्रिटिश शासन को न तो संवैधानिक आन्दोलनों से हटाया जा सकता है और न कुछ बमों के बल पर। कुछ अँग्रेजों की हत्या कर देने से भारत स्वाधीन नहीं होगा। फिर भी, वे इस मार्ग को इसलिये आवश्यक समझते थे कि इससे भारतीयों में देश की स्वन्त्रता के लिए साहसपूर्ण काम करने की भावना उत्पन्न होगी तथा अंग्रेजों के मन में भय उत्पन्न होगा। सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी वारीन्द्र घोष ने क्रांतिकारियों का लक्ष्य स्पष्ट करते हुए कहा था– ‘कुछ अँग्रेजों को मारकर अपने देश को मुक्त करने की न तो हम आशा करते हैं और न हमारा वैसा मतलब ही है। हम लोगों को यह दिखाना चाहते हैं कि किस प्रकार सहसपूर्ण कार्य करना और मरना चाहिए।’

मदनलाल धींगरा ने अपने मुकदमे की सुनवाई के समय न्यायालय में वक्तव्य देकर अपने लक्ष्य को स्पष्ट करने का प्रयास किया- ‘मेरे जैसे निर्बल पुत्र के पास माता को भेंट चढ़ाने के लिए अपने रुधिर के अतिरिक्त कुछ नहीं। मैंने वही भेंट दे दी। भारत में आज एक ही पाठ पढ़ाने की आवश्यकता है, वह यह कि मरा कैसे जाता है! उसे सिखाने का सर्वोत्तम उपाय यह है कि हम स्वयं मर कर दिखाएं।’

डॉ. सत्या एम. राय ने लिखा है- ‘आतंकवादियों में इस समय दो विचारधाराएं थीं और उनके क्रिया-कलापों के दो केन्द्र थे। कुछ नेता अँग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र आन्दोलन करने के लिए भारतीय सेना से और यदि संभव हो तो अँग्रेजों की विरोधी विदेशी ताकतों से भी सहायता लेने में विश्वास रखते थे। दूसरी विचारधारा के नेता देश में हिंसात्मक कार्यक्रम जैसे, ब्रिटिश शासकों, पुलिस अधिकारियों एवं क्रांतिकारियों के विरुद्ध सूचना देने वाले मुखबिरों को कत्ल करने की नीति में विश्वास रखते थे।’

पहली विचारधारा को पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में और दूसरी विचारधारा को बंगाल और महाराष्ट्र में समर्थन मिला।

क्रांतिकारी आन्दोलन के दूसरे चरण में उसका स्वरूप भिन्न हो गया। क्रांतिकारियों ने आजादी के बाद भारत में समाजवादी समाज स्थापित करने की घोषणा की और लोगों के सामने गांधीवादी विचारधारा से अलग, दूसरा विकल्प रखा। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के वक्तव्यों से स्पष्ट होता है कि क्रांतिकारी देश को पराधीनता से मुक्त कराकर देश में सच्चा लोकतंत्र स्थापित करना चाहते थे। वे समाज से समस्त प्रकार की आर्थिक व सामाजिक असमानताओं का अन्त करना चाहते थे।

क्रांतिकारियों का मानना था कि विदेशी शक्तियों के हाथों पराधीन राष्ट्र के नागरिकों के लिये उनकी आर्थिक, मानसिक, शारीरिक, नैतिक और आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग अवरुद्ध होता है। पराधीन व्यक्ति को स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता। क्रांतिकारियों की दृष्टि में भारत को पराधीन बनाने वाली ब्रिटिश सरकार अत्याचारी, शोषक तथा अन्यायी थी। उस पर कांग्रेस तथा अन्य संस्थाओं के शांतिपूर्ण आंदोलनों का प्रभाव नहीं हो रहा था इसलिये हिंसात्मक उपायों से ही सरकार के मन में भारतवासियों के प्रति सम्मान का भाव उत्पन्न किया जा सकता था। इसलिये क्रांतिकारी, अँग्रेज अधिकारियों तथा देशद्रोहियों की हत्या करना तथा सरकारी खजाने को लूटना अपराध नहीं मानते थे। उनका व्यक्तिगत हत्याओं और डकैतियों में विश्वास नहीं था। व्यक्तिगत स्वार्थवश उन्होंने कभी किसी की हत्या नहीं की। उनका उद्देश्य समाज में आतंक फैलाना नहीं था, अपितु अत्याचारी अँग्रेज अधिकारियों के मन में भय उत्पन्न करना था तथा उन्हें चेतावनी देना था कि यदि उन्होंने भारतीय जनता पर अत्याचार करना बंद नहीं किया तो उन्हें भारतीयों द्वारा पाठ पढ़ाया जायेगा। 

क्रांतिकारियों की कार्यप्रणाली

क्रांतिकारियों के लक्ष्य की तरह उनकी कार्य प्रणाली भी स्पष्ट थी। उनका एक मात्र लक्ष्य ब्रिटिश शासकों के मन में भय उत्पन्न करना था। उनकी कार्यप्रणाली में वे समस्त हिंसात्मक उपाय सम्मिलित थे जिनसे ब्रिटिश सरकार एवं उसके अधिकारियों के मन में भय उत्पन्न हो सके। उन्होंने निम्नलिखित प्रमुख कार्य किये-

(1.) जन सामान्य में राष्ट्र-प्रेम तथा स्वतंत्रता सम्बन्धी विचारों का प्रचार करके उनके मन में दासता से मुक्ति पाने की इच्छा उत्पन्न करना।

(2.) बेकारी और भुखमरी से त्रस्त लोगों को संगीत, नाटक और साहित्य के माध्यम से निर्भय होने का संदेश देना एवं उनमें अपनी स्थिति को बदलने के लिये प्रयत्नशील होने की प्रेरणा देना।

(3.) आन्दोलनों एवं धमकियों के माध्यम से ब्रिटिश सरकार को, अपनी शक्ति एवं संगठन का अनुमान कराना।

(4.) जनता से चन्दा एवं दान एकत्रित करके जनता को क्रांतिकारियों की गतिविधियों से जोड़ना। सरकारी कोष को लूटकर धन एकत्रित करना।

(5.) रेल लाइन, रेलवे स्टेशन, पुल, सरकारी कार्यालय, संसद आदि महत्वपूर्ण स्थलों तथा सरकारी अधिकारियों के वाहनों पर बम फैंककर देश की जनता का ध्यान अपनी ओर खींचना तथा सरकार में भय उत्पन्न करना।

(6.) भारतीयों पर अत्याचार करने वाले अँग्रेज अधिकारियों एवं उनके मुखबिरों को जान से मारकर भारतीयों पर हुए अत्याचारों का बदला लेना।

(7.) गुप्त स्थलों पर क्रांतिकारियों का प्रशिक्षण आयोजित करना।

(8.) जनता में प्रसार के लिये गुप्त स्थानों पर साहित्य का मुद्रण करवाना।

(9.) क्रांतिकारी घटनाओं को कार्यरूप देने के लिये दूरस्थ स्थानों पर मुद्रित सामग्री, हथियार, बम एवं धन को पहुंचाना।

(10.) सार्वजनिक स्थलों पर पोस्टर एवं क्रांतिकारी साहित्य चिपकाना तथा वितरित करना।

(11.) क्रांतिकारी घटना को कार्यरूप देते हुए पकड़े जाने पर भागने का प्रयास करने के स्थान पर स्वयं को गिरफ्तार करवाना तथा न्यायालय में अपने कृत्य को देशभक्ति के लिये किया गया कार्य सिद्ध करना।

अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्रांतिकारियों ने अनुशीलन समितियां स्थापित कीं जिनमें क्रांतिकारी सदस्यों को भारतीय इतिहास और संस्कृति का ज्ञान कराया जाता था। राजद्रोह के सिद्धान्तों की शिक्षा और घातक शस्त्रों के संचालन का प्रशिक्षण दिया जाता था। प्रत्येक सदस्य को माँ काली के समक्ष शपथ दिलाई जाती थी कि वह अपना कार्य पूर्ण ईमानदारी और निष्ठा से करेगा तथा किसी भी स्थिति में दल की गतिविधियों को उजागर नहीं करेगा। पुलिस हिरासत में दी जाने वाली यातनाओं को सहन करेगा तथा सरकारी गवाह नहीं बनेगा। नये क्रांतिकारी सदस्यों को वरिष्ठ क्रांतिकारियों के निर्देशन में काम करना होता था।

क्रांतिकारी आन्दोलन का विकास

भारत में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का आरम्भ 1857 ई. से माना जा सकता है जिसे अँग्रेजों द्वारा बलपूर्वक कुचल दिया गया। 1872 ई. में पंजाब के नामधारी सिक्खों ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध कूका आन्दोलन चलाया। इसे भी अँग्रेजों ने क्रूरता पूर्वक कुचला। 1876 ई. में वासुदेव बलवंत फड़के द्वारा ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का छोटा सा प्रयास हुआ। 1894 ई. में चापेकर बन्धुओं ने महाराष्ट्र में हिन्दू धर्म संरक्षण सभा की स्थापना की। इस अवसर पर उन्होंने कहा- ‘हमें शिवाजी और बाजीराव (प्रथम) की भांति कमर कसकर भयानक कार्यों में जुट जाना चाहिए। मित्रों, अब आपको ढाल-तलवार उठा लेनी होगी, हमें शत्रु के सैकड़ों सिरों को काट डालना होगा। हमें राष्ट्र-युद्ध के रण-क्षेत्र में अपने प्राणों की आहुति दे देनी होगी। हमारे देश का नाम हिन्दुस्तान है; फिर यहाँ अँग्रेज राज्य क्यों कर रहे हैं?’

पूना में गणेशखण्ड नामक स्थान है जहाँ पर शिवाजी उत्सव का आयोजन किया गया। इस उत्सव के कुछ दिन बाद ठीक उसी स्थान पर पूना के प्लेग कमिश्नर रैण्ड ने विक्टोरिया की 60वी वर्षगांठ का उत्सव मनाया। यह बात भारतीय युवकों को अच्छी नहीं लगी। इसलिये 22 जून 1897 को दामोदर चापेकर ने पूना के प्लेग कमिश्नर रैण्ड तथा उसके सहायक आयर्स्ट को गोली मार दी। चापेकर बन्धुओं को फांसी हो गई। जिन लोगों ने मुखबिरी करके सरकार को चापेकर बंधुओं को जानकारी दी थी उन्हें चापेकर के दो अन्य भाइयों एवं नाटु-बंधुओं ने मिलकर मार डाला। ये घटनाएं, क्रांतिकारी आन्दोलन के आरम्भिक चरण का अंग थीं। 1905 ई. में लॉर्ड कर्जन द्वारा किये गये बंग-भंग के बाद भारत में उग्र राष्ट्रवाद का उदय हुआ। इसके बाद ही भारत के विभिन्न प्रांतों में क्रांतिकारी आन्दोलन का व्यापक स्तर पर एवं संगठित रूप से प्रसार हुआ।

अध्याय – 60 : भारत में क्रांतिकारी आन्दोलन – 2

1

बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

बंगाल में सशस्त्र क्रांति का मंत्र समाचार पत्रों के माध्यम से प्रसारित हुआ। 1906 ई. में वारीन्द्र कुमार घोष  और भूपेन्द्र दत्त  ने मिलकर युगान्तर समाचार पत्र आरम्भ किया। इसका मुख्य उद्देश्य क्रांतिकारी भावना का प्रचार करना था। शीघ्र ही यह पत्र इतना लोकप्रिय हो गया कि इसकी 50,000 प्रतियां प्रतिदिन बिकने लगीं। संध्या और नवशक्ति जैसे दूसरे पत्र भी क्रांतिकारी विचारों का प्रसार करते थे। इन पत्रों में देशभक्ति से ओत-प्रोत गीत और साहित्यिक रचनाएं छपती थीं। वारीन्द्र घोष के लेख पाठकों की धमनियों में उबाल लाने में का काम करते थे। एक लेख में उन्होंने लिखा- ‘मित्रो! सैकड़ों और हजारों व्यक्तियों की दासता अपने रुधिर की धार से बहाने को तैयार हो जाओ।’

अनुशीलन समिति की स्थापना

बंगाल में सबसे पहले स्थापित होने वाला क्रांतिकारियों का प्रमुख संगठन अनुशीलन समिति था। इसकी स्थापना 24 मार्च 1903 को सतीशचन्द्र बसु ने की। बाद में बैरिस्टर प्रमथनाथ मित्र ने इसका नेतृत्व संभाला। बंगाल में इसकी लगभग 500 शाखाएं स्थापित हो गईं। अरविन्द घोष, जतींद्रनाथ वंद्योपाध्याय (जतीन उपाध्याय), चितरंजन दास, सिस्टर निवेदिता, वारीन्द्र घोष, अविनाश भट्टाचार्य आदि अनेक क्रांतिकारी, अनुशीलन समिति से जुड़ गये। अनुशीलन समिति की स्थापना एक व्यायामशाला के रूप में हुई। प्रकट रूप से समिति स्थान-स्थान पर क्लब अथवा केन्द्र खेलकर नौजवानों को ड्रिल और तरह-तरह के व्यायाम, लाठी संचालन, तलवारबाजी, कटार चलाने, घुड़सवारी करने, तैरने तथा मुक्केबाजी का प्रशिक्षण देती थी। इन्हीं नौजवानों में से चुने हुए कुछ लोगों को गुप्त क्रांतिवादी कार्यों में लगाया जाता था। 1905 ई. में बंग-भंग विरोधी आंदोलन तथा स्वदेशी आन्दोलन से गुप्त क्रांतिकारी कार्यों को बल मिला। सैकड़ों नौजवान अनुशीलन समिति के सदस्य बन गये और बंगाल के विभिन्न हिस्सों में उसकी सैकड़ों शाखाएं खुल गईं परन्तु इन्हीं दिनों में विपिनचन्द्र पाल तथा चितरंजनदास आदि कुछ बड़े नेता अनुशीलन समिति से अलग हो गए।

क्रांतिकारी साहित्य का प्रकाशन

समिति ने कुछ पुस्तकों का प्रकाशन करवा कर उन्हें जन सामान्य में वितरित किया। 1905 ई. में भवानी मन्दिर नामक पुस्तक प्रकाशित की गई जिसमें शक्ति की देवी काली की पूजा का महत्त्व प्रतिपादित किया गया। दूसरी पुस्तक वर्तमान रणनीति थी जिसके माध्यम से यह संदेश दिया गया कि भारत की स्वतंत्रता के लिए सैनिक शिक्षा और युद्ध आवश्यक है। मुक्ति कौन पथे? नामक पुस्तक में युगान्तर के कई चुने हुए लेखों का संग्रह प्रकाशित किया गया। बकिंमचन्द्र चट्टोपाध्याय के आनन्दमठ नामक उपन्यास को भी काफी प्रचारित किया गया। वन्देमातरम, न्यू इण्डिया आदि क्रांतिकारी समाचार पत्र भी निकाले गये।

बैमफील्ड फुलर पर बम फैंकने की कार्यवाही

क्रांतिकारियों ने गोपनीय रूप से बड़ी मात्रा में अस्त्र-शस्त्र एकत्र किया। वारीन्द्र घोष और उनके साथियों ने 11 रिवाल्वर, 4 राइफलें और 1 बन्दूक इकट्ठी कीं। इस गुट में सम्मिलित होने वाले उल्लासकर दत्त ने बम बनाने का छोटा कारखाना खोला। उनके साथ हेमचन्द्र दास (कानूनगो) भी इस काम में लग गये। वे पेरिस से बम बनाने का प्रशिक्षण लेकर आये थे। जब सरकार ने क्रांतिकारियों को तंग करना आरम्भ किया तो क्रांतिकारियों ने कुछ अँग्रेज अधिकारियों को मार देने का निश्चय किया। पहला बम पूर्वी बंगाल के गवर्नर सर बैमफील्ड फुलर को मारने के लिए बनाया गया। बम फैंकने का दायित्व प्रफुल्ल चाकी को सौंपा गया। प्रफुल्ल चाकी अपने काम में असफल रहा।

गवर्नर की ट्रेन पर बम फैंकने की कार्यवाही

6 दिसम्बर 1907 को बंगाल के गवर्नर की ट्रेन को मेदिनीपुर के पास उड़ाने का प्रयास किया गया। ट्रेन सिर्फ पटरी से उतर कर रह गई। कोई हताहत नहीं हुआ।

ढाका के मजिस्ट्रेट की हत्या

23 दिसम्बर 1907 को ढाका के मजिस्ट्रेट को गोली मार दी गई।

अलीपुर षड़यन्त्र तथा मानिकतल्ला केस

30 अप्रैल 1908 को मुजफ्फरपुर में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने जिला जज डी. एच. किंग्सफोर्ड पर बम फेंका। किंग्सफोर्ड पहले कलकत्ता में चीफ प्रेसीडेन्सी मजिस्ट्रेट रह चुका था और उसने क्रांतिकारियों को अमानवीय दण्ड दिये थे। उसने युगान्तर, वंदेमातरम्, संध्या और नवशक्ति समाचार पत्रों के पत्रकारों को सजाएं दी थीं। उसने क्रांतिकारी सुशील कुमार सेन को 15 बेंत मारने की सजा दी जबकि उसने कोई अपराध नहीं किया था। दुर्भाग्यवश जिस घोड़ागाड़ी पर बम फेंका गया था, वह किंग्सफोर्ड की गाड़ी से मिलती-जुलती मिस्टर कैनेडी की गाड़ी थी और गाड़ी में उसकी पत्नी और पुत्री बैठी थीं। वे दोनों मारी गईं। खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी घटनास्थल से भाग निकले। 1 मई 1908 को खुदीराम बोस को वाइनी स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें 11 मई 1908 को फांसी दे दी गई। प्रफुल्ल चाकी को समस्तीपुर स्टेशन पर पहचान लिया गया। जब उन्होंने देखा कि पुलिस से बचना सम्भव नहीं है तो उन्होंने स्वयं को गोली मार ली। क्रांतिकारियों ने नन्दलाल नामक उस पुलिस दरोगा को गोली मार दी जिसने खुदीराम बोस को पकड़ा था। इस पर कलकत्ता पुलिस ने क्रांतिकारियों के अनेक अड्डों पर छापे मारे तथा मानिकतल्ला के कारखाने से हथियार जब्त कर लिये। ब्रिटिश साम्राजय के विरुद्ध षड़यन्त्र करने के अपराध में 30 लोगों पर अभियोग लगाये गये। बाद में 6-7 और लोगों को भी सम्मिलित कर लिया गया। यह मुकदमा अलीपुर षड़यन्त्र तथा मानिकतल्ला केस के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

इस अभियोग की सुनवाई के दौरान नरेन्द्रनाथ गोसाईं, पुलिस का मुखबिर बन गया। वह अपनी गवाही देता उससे पहले ही कन्हाईलाल दत्त और सत्येन्द्रनाथ बोस ने उसे जेल में ही मौत के घाट उतार दिया। उन दोनों को बाद में फांसी की सजा दी गई। मुकदमे की सुनवाई के समय अदालत से बाहर निकलते हुए पुलिस के डिप्टी सुपरिन्टेन्डेट को गोली मार दी गई। मुकदमे की पैरवी करने वाले सरकारी वकील आशुतोष विश्वास को भी क्रांतिकारियों ने गोली से उड़ा दिया। मुकदमे के फैसले के अनुसार वारीन्द्र कुमार घोष, उल्लासकर दत्त, हेमचन्द्र दास और उपेन्द्रनाथ बनर्जी को आजीवन काला पानी, विभूति भूषण सरकार, ऋषिकेश, फौजीलाल और इन्द्रभूषण राय को दस-दस साल तथा अन्य लोगों को सात-सात साल की काला पानी की सजा दी गई। अरविन्द घोष को साक्ष्यों के अभाव में छोड़ दिया गया। अलीपुर षड़यन्त्र केस ने कुछ दिनों के लिए क्रांतिकारियों के कलकत्ता केन्द्र की रीढ़ तोड़ दी। उनके प्रमुख नेता गिरफ्तार हो गये। सरकारी आतंक ने उनके संगठन को छिन्न-भिन्न कर दिया।

ढाका में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

अलीपुर षड़यन्त्र केस के बाद क्रांतिकारी कार्यों का केन्द्र ढाका बन गया। पुलिनदास और यतीन्द्रनाथ मुकर्जी क्रांतिकारियों के नेता थे। अगस्त 1910 में पुलिनदास को ढाका षड़यन्त्र केस में गिरफ्तार किया गया। इस केस में उन्हें सात साल की काले पानी की सजा दी गई। अब बारीसाल, क्रांतिकारियों का केन्द्र बन गया। मई 1913 में बारीसाल षड़यन्त्र केस चला और कई क्रांतिकारियों को सख्त सजाएं दी गईं। यद्यपि सरकार क्रांतिकारियों की शक्ति को तोड़ने की पूरी कोशिश करती रही, फिर भी वे अपना काम करते रहे।

महाराष्ट्र में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

महाराष्ट्र अँग्रेजों के आगमन के समय से ही राजनीतिक हलचलों का केन्द्र बना हुआ था। महाराष्ट्र की जनता में राजनीतिक जागृति भी दूसरे क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक थी। माना जाता है कि 1857 की क्रांति असफल होने के बाद भारत में सशस्त्र क्रांति का मार्ग सर्वप्रथम महाराष्ट्र में ही अंगीकार किया गया।

व्यायाम-मण्डल

1896-97 ई. में पूना में चापेकर बन्धुओं- दामोदर हरि चापेकर और बालकृष्ण हरि चापेकर ने व्यायाम-मण्डल की स्थापना की। वे कांग्रेस की नीतियों के घोर विरोधी थे। उनका मानना था कि कांग्रेस के अधिवेशनों में की जा रही भाषणबाजी से देश को कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। देश की भलाई के लिए करोड़ों लोगों को युद्ध क्षेत्र में प्राणों की बाजी लगानी होगी। उन्होंने ऐसे नौजवानों को शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण दिया जो सशस्त्र क्रांति के मार्ग पर चलने को तैयार हों। 22 जून 1897 की रात को उन्होंने पूना के प्लेग कमिश्नर रैण्ड और उसके सहायक आयर्स्ट की हत्या कर दी। दामोदर चापेकर पकड़ा गया। 18 अप्रैल 1898 को उसे फांसी दे दी गई। 8 फरवरी 1899 को व्यायाम मण्डल के सदस्यों ने उन द्रविड़ बन्धुओं को मौत के घाट उतार दिया जिन्होंने पुरस्कार के लालच में चापेकर बन्धुओं को पकड़वाया था। इस पर सरकार ने व्यायाम-मण्डल के अनेक सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया। बालकृष्ण चापेकर तथा वासुदेव चापेकर को भी फांसी दे दी गई। पूना के नाटू बन्धुओं को देश-निकाला दिया गया। बाल गंगाधर तिलक को केसरी में भड़काऊ लेख लिखने के आरोप में 18 माह की जेल हुई।

अभिनव भारत

महाराष्ट्र के सर्वाधिक चर्चित क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर हुए। उनका जन्म 28 मई 1883 को महाराष्ट्र में नासिक के निकट एक गांव में चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ। 1901 ई. में उन्होंने पूना के फर्ग्यूसन कॉलेज में प्रवेश लिया और क्रांतिकारी विचारों का प्रसार करने के लिए अभिनव भारत नामक गुप्त संस्था स्थापित की। उन्होंने दुर्गा की प्रतिमा के समक्ष, देश को अँग्रेजों से मुक्त कराने का संकल्प लिया। यह संस्था सारे पश्चिम तथा मध्य भारत में सक्रिय रही। सावरकर, तिलक के शिष्य थे। बम्बई विश्वविद्यालय से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद तिलक की अनुशंसा पर उन्हें सरदारसिंहजी राणा द्वारा संचालित छत्रपति शिवाजी छात्रवृत्ति मिली। 1906 ई. में वे बैरिस्ट्री पढ़ने लन्दन चले गये। लन्दन प्रवास में भी सावरकर ने क्रांतिकारी विचारों का प्रचार किया तथा भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम नामक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने यह सिद्ध किया कि 1857 की क्रांति, सैनिक विद्रोह न होकर भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। ब्रिटिश सरकार ने इस पुस्तक पर पाबन्दी लगा दी।

विनायक दामोदर सावरकर के लन्दन चले जाने के बाद भी अभिनव भारत संस्था काम करती रही। पूरे महाराष्ट्र में स्थान-स्थान पर उसकी शाखाएं स्थापित हो गईं। इस संस्था ने सार्वजनिक सभाओं, मुद्रित पुस्तिकाओं, गणपति पूजन और शिवाजी उत्सव, आदि का आयोजन करके लोगों को सशस्त्र क्रांति के लिये प्रेरित किया। यह संस्था अपने सदस्यों को सैनिक प्रशिक्षण देकर ब्रिटिश शासकों से मोर्चा लेने को तैयार करती थी। सदस्यों को ड्रिल करना, लाठी चलाना, तलवार चलाना, घुड़सवारी करना, तैरना, पहाड़ों पर चढ़ना और लम्बी दूर तक दौड़ना आदि का प्रशिक्षण दिया जाता था। पूना और बम्बई के बहुत से कॉलेजों और स्कूलों में भी अभिनव भारत की शाखाएं थीं। उसके अनेक सदस्य महत्त्वपूर्ण सरकारी पदों पर भी थे। वे अत्यधिक गोपनीय रूप से अभिनव भारत से सम्पर्क में थे। अभिनव भारत का वार्षिक सम्मेलन भी गुप्त रूप से आयोजित होता था। इस संस्था का सम्बन्ध बंगाल के क्रांतिकारियों के साथ भी था।

अभिनव भारत ने देश और विदेश से तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र एकत्र करने का प्रयास किया। सावरकर ने लन्दन से, विश्वस्त साथियों के माध्यम से कई पिस्तौलें भेजीं। पांडुरंग महादेव को रूसी क्रांतिकारियों से बम बनाने की कला सीखने के लिए पेरिस भेजा गया। अभिनव भारत के अतिरिक्त और भी बहुत सी गुप्त संस्थाएं बम्बई, पूना, नासिक, कोल्हापुर, सतारा, नागपुर आदि स्थानों में सक्रिय थीं। उनमें से कुछ संस्थाओं का अभिनव भारत से सम्पर्क था।

1908 ई. में तिलक की गिरफ्तारी और 6 साल के माण्डले निर्वासन से क्रांतिकारियों का आक्रोश अत्यधिक बढ़ गया। दामोदर जोशी ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर कोल्हापुर में बहुत बड़ी संख्या में बम बनाने के लिए एक कारखाना खोला। दुर्भाग्यवश एक बम के फट जाने से भेद खुल गया। बहुत से लोगों को गिरफ्तार करके उन्हें लम्बी सजाएं दी गईं। इसे कोल्हापुर बम केस कहा जाता है।

विनायक दामोदर सावरकर के बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर को क्रांतिकारी गीत लिखने के अपराध में 1909 ई. में आजीवन निर्वासन का दण्ड दिया गया। 1909-10 ई. में नासिक षड़यन्त्र केस चला। नासिक के जिस जिला मजिस्ट्रेट ने गणेश सावरकर के मुकदमे का फैसला सुनाया, उसे 21 दिसम्बर 1909 को गोली मार दी गई। इस प्रकार, क्रांतिकारियों ने गणेश सावरकर के निर्वासन का बदला चुकाया। सावरकर को फंसाने में अँग्रेज अधिकारी जैक्सन ने विशेष भूमिका निभाई थी। इसलिये क्रांतिकारियों ने 21 दिसम्बर 1909 को उसे भी मार डाला। इस मुकदमे में 38 लोग बंदी बनाये गये। इनमें से 37 लोग महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मण थे। 38 आरोपियों में से 27 को कठोर कारावास तथा 3 को कालेपानी की सजा हुई। अनन्त लक्ष्मण कन्हारे, कृष्णजी गोपाल कर्वे और विनायक नारायण देशपांडे को फांसी दी गई। भारत सरकार ने विनायक दामोदर सावरकर को समस्त उत्पात की जड़ मानकर उन्हें बंदी बनाने के आदेश जारी किये। 13 मार्च 19010 को सावरकर पेरिस से लंदन आये तथा विक्टोरिया स्टेशन पर उतरे। उसी समय लंदन की पुलिस ने उन्हें बंदी बना लिया तथा सैनिक जहाज में बैठाकर समुद्र के रास्ते, भारत के लिये रवाना कर दिया। जब यह जहाज फ्रांसीसी अधिकार वाले मार्सिली बंदरगाह के निकट पहुंचा तो सावरकर पुलिस को चकमा देकर पोटहोल से समुद्र में कूद गये तथा तैरकर फ्रांसीसी बंदरगाह पर पहुंच गये किंतु फ्रांसीसी तटरक्षकों ने समझा कि सावरकर जहाज पर से चोरी करके भाग रहे हैं, सावरकर को फ्रैंच भाषा नहीं आती थी और तटरक्षकों को अँग्रेजी भाषा नहीं आती थी इसलिये तटरक्षकों ने सावरकर की बात को समझे बिना ही, उन्हें अँग्रेज पुलिस के हवाले कर दिया।

सावरकर को नासिक लाया गया और जैक्सन हत्याकाण्ड के 37 आदमियों के साथ उन पर भी नासिक षड़यन्त्र केस चलाया गया। दिसम्बर 1910 में विनायक सावरकर को आजीवन निर्वासन का दण्ड दिया गया। उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली गई। उन्हें बैरिस्टर की मान्यता नहीं मिली और बी.ए. की डिग्री भी रद्द कर दी गई। सावरकर को अण्डमान की जेल में भी भीषण यातनाएं दी गईं। 1921 ई. में उन्हें तथा उनके बड़े भाई को, अण्डमान से निकालकर रत्नागिरी जेल में रखा गया। भारत में उनकी रिहाई के लिए निरन्तर आन्दोलन चलता रहा। अन्ततः 27 वर्ष की जेल भगुतने के बाद 1937 ई. में उन्हें जेल से रिहा किया गया। 

नासिक षड़यंत्र केस में अनेक क्रांतिकारियों को जेल में डाला गया। इससे महाराष्ट्र के क्रांतिकारियों के मनोबल में कमी आई। फिर भी, उन्होंने कई घटनाओं को कार्यरूप दिया। गणेश सावरकर को देश-निर्वासन का दण्ड दिलवाने में भारत सचिव के मुख्य परामर्शदाता सर कर्जन वाइली का बड़ा हाथ था। 1 जुलाई 1909 को मदनलाल धींगरा ने लन्दन में वाइली को गोली से उड़ा दिया।  धींगरा को गिरफ्तार करके 16 अगस्त 1909 को फांसी दी गई। मुकदमे की कार्यवाही के समय धींगरा ने कहा- ‘मैं स्वीकार करता हूँ कि उस दिन मैंने एक अँग्रेज का खून बहाने का प्रयास किया था। देश-भक्त भारतीय नौजवानों को दी जाने वाली अमानुषिक फांसियों और निर्वासनों का थोड़ा-सा बदला लेने के लिए मैंने ऐसा किया था।’

क्रांतिकारियों को बड़ी संख्या में अस्त्र-शस्त्र प्राप्त करने तथा बम बनाने के लिए धन की आवश्यकता थी। कर्वे गुट ने छोटी-मोटी चोरियां करके धन एकत्रित करने का मार्ग अपनाया किंतु शीघ्र ही उन्होंने इस मार्ग को त्याग दिया क्योंकि अपने ही देशवासियों को लूटना उन्हें पसंद नहीं आया। इस प्रकार धन के अभाव में 1910 ई. तक महाराष्ट्र में क्रांतिकारियों का संगठन बिखरने लगा।

अध्याय – 61 : भारत में क्रांतिकारी आन्दोलन – 3

1

पंजाब में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

1904 ई. में जोतीन्द्र मोहन चटर्जी और कुछ नौजवानों ने मिलकर एक गुप्त संगठन बनाया। इस संगठन का मुख्यालय रुड़की में स्थापित किया गया। यहीं पर लाला हरदयाल, अजीतसिंह और सूफी अम्बा प्रसाद भी इस संगठन से जुड़े। इससे पंजाब में क्रांतिकारी गतिविधियों में हलचल आई। पंजाब के क्रांतिकारी, लाला हरदयाल के नेतृत्व में काम करते थे और लाला लाजपतराय भी समय-समय पर उनकी सहायता करते रहते थे। उन्हीं दिनों पंजाब सरकार ने उपनिवेशन अधिनियम द्वारा भूमि की चकबन्दी को हतोत्साहित किया तथा सम्पत्ति के विभाजन के अधिकारों में भी हस्तक्षेप का प्रयास किया। इससे पंजाब की जनता में आक्रोश फैल गया। क्रांतिकारियों ने स्थान-स्थान पर घूमकर संदेश दिया कि आप लोगों ने 1857 ई. में अँग्रेजों का राज बचाया था। आज वही अँग्रेज आपको नष्ट कर रहे हैं। अब समय आ गया है जब आप क्रांति करें, अँग्रेजों पर धावा बोल दें और स्वतंत्र हो जायें।

गांव के लोगों से कहा जाता था कि अँग्रेज आपके कपास और गन्ने के बढ़ते उद्योगों को नष्ट करना चाहते हैं। उन्होंने आप लोगों का सोना-चांदी लेकर बदले में कागज के नोट थमा दिये हैं। जब अँग्रेज चले जायेंगे तो कागजी नोटों के बदले में रुपया कौन देगा? इस प्रचार में आर्य समाज की गुप्त समितियों का भी हाथ था। ब्रिटिश अधिकारी, लाला लाजपतराय को क्रांतिकारी आन्दोलन का मस्तिष्क और अजीतसिंह को उनका दाहिना हाथ कहते थे। 9 मई 1907 को लाहौर में लालाजी को बंदी बना लिया गया। इससे पंजाब की जनता का आक्रोश तीव्र हो उठा। सरकार ने उपनिवेशन अधिनियम को निरस्त करके जन-आक्रोश को कम किया। नवम्बर में लालाजी को भी मांडले से लाहौर वापस लाकर रिहा कर दिया गया। इसके बाद कुछ समय के लिए पंजाब में क्रांतिकारियों की गतिविधियों को भी विराम लग गया।

पंजाब में बंगाली क्रांतिकारियों का आगमन

1908 ई. में लाला हरदयाल के भारत छोड़कर यूरोप चले जाने के बाद उनके क्रांतिकारी संगठन का नेतृत्व दिल्ली के मास्टर अमीरचन्द और लाहौर के दीनानाथ ने संभाला। थोड़े दिनों बाद दीनानाथ का सम्पर्क विख्यात क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से हुआ। 1910 ई. में रासबिहारी बोस,  जे. एन. चटर्जी के साथ लाहौर आ गये। उन्होंने लाला हरदयाल के गुट का नेतृत्व अपने हाथों में ले लिया। रासबिहारी ने पंजाब के विभिन्न भागों में गुप्त समितियां स्थापित कीं। इन समितियों में सम्मिलित होने वाले नवयुवकों को विधिवत् प्रशिक्षण दिया जाता था। रासबिहारी बोस ने पंजाब की गुप्त समितियों को मजबूत बनाने के लिए बंगाल से क्रांतिकारी अमरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय के माध्यम से बसन्त विश्वास और मन्मथ विश्वास नामक दो नवयुवकों को पंजाब बुलवाया। बंगाल के क्रांतिकारियों ने पंजाब की गुप्त समितियों को आर्थिक सहायता भी भिजवाई।

क्रांतिकारी साहित्य का प्रकाशन

1909 ई. में पंजाब में फिर से क्रांतिकारियों की गतिविधियाँ आरम्भ हुईं। लाहौर से बड़ी संख्या में क्रांतिकारी साहित्य प्रकाशित हुआ जो लोगों को अँग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिये उकसाता था। लालचन्द फलक, अजीतसिंह, उनके दो भाई किशनसिंह एवं सोवरनसिंह तथा सूफी अम्बाप्रसाद आदि कट्टर क्रांतिकारी इस साहित्य का प्रकाशन एवं वितरण करवाते थे। लालचन्द ने लाहौर में, वंदेमातरम् बुक एजेन्सी और अजीतसिंह ने भारत माता बुक एजेन्सी खोल रखी थी। जब सरकार को क्रांतिकारी साहित्य के प्रकाशन एवं वितरण की गोपनीय सूचना मिली तो उसने धर-पकड़ आरम्भ की किंतु अजीतसिंह और अम्बाप्रसाद समय रहते फरार हो गये। सोवरनसिंह सख्त बीमार थे, अतः उनके ऊपर से मुकदमा हटा लिया गया। लालचन्द फलक को चार वर्ष की और किशनसिंह को 10 माह की जेल हुई। कुछ सम्पादकों को भी राजद्रोहपूर्ण लेख लिखने के अपराध में सजा दी गई। पेशवा में एक लेख के लिए जिया उल हक को पांच साल का काला पानी , बेदारी में एक लेख के लिए मुंशी रामसेवक को सात साल का काला पानी दिया गया। सरकार की की कठोर कार्यवाही से पंजाब में क्रांतिकारी साहित्य का प्रकाशन एवं वितरण लगभग बंद हो गया। बहुत कम मात्रा में छपने वाला क्रांतिकारी साहित्य, क्रांतिकारी संगठनों के विशेष सदस्यों में ही वितरित होता था।

लाहौर षड़यंत्र केस

17 मई 1913 को लाहौर के लारेन्स बाग में कुछ अँग्रेज, शराब पीकर सार्वजनिक स्थल पर दुष्ट प्रदर्शन कर रहे थे। बसंत विश्वास ने उन पर बम फैंका। बसंत का निशाना चूक गया और बम एक भारतीय सरकारी अर्दली पर जा गिरा जो उस समय साइकिल पर बैठकर वहाँ से जा रहा था। इस प्रकरण में बसंत विश्वास को फांसी हो गई। इसे लाहौर षड़यंत्र केस कहते हैं।

कोमागाटामारू प्रकरण

1913 ई. में कनाडा में लगभग चार हजार भारतीय रहते थे, जिनमें सिक्खों की संख्या सर्वाधिक थी। बहुत से भारतीय बर्मा, हांगकांग और शंघाई होते हुए कनाडा तथा अमेरिका जाते थे। भारतीयों की बढ़ती संख्या से कनाडा सरकार चिन्तित हो गई। उसने भारतीयों को कनाडा में आने से रोकने के लिए एक कानून बनाया जिसके अनुसार वही भारतीय कनाडा में उतर सकता था जो भारत से किसी जहाज से सीधा आया हो। उन दिनों कोई भी जहाज भारत से सीधा कनाडा नहीं जाता था। अतः इस नये कानून से कनाडा जाने वाले भारतीयों के लिये मार्ग बंद हो गया। अमृतसर के एक व्यापारी ने गुरुनानक स्टीम नेवीगेशन कम्पनी की स्थापना की और एक जापानी जहाज किराये पर लिया, जिसका नाम कोमागाटामारू था। इस जहाज में कनाडा जाने के इच्छुक 376 भारतीयों को बैठा दिया गया।

22 मई 1914 को कोमागाटामारू जहाज कनाडा के मुख्य बंदरगाह बैंकूवर पहुँचा किन्तु कनाडा सरकार ने जहाज के यात्रियों को उतरने की अनुमति नहीं दी और जहाज को लौट जाने के आदेश दिये। बाबा गुरुदत्त सिंह ने आदेश को मानने से मना कर दिया; क्योंकि जहाज में यात्रियों के लिए भोजन-पानी नहीं था। अनेक यात्री बीमार भी थे। कनाडा पुलिस ने जहाज को लौटाने के लिए यात्रियों पर उबलता हुआ पानी फेंका। इसके उत्तर में यात्रियों ने कनाडा पुलिस पर जलते हुए कोयले फेंके। भारतीयों के जहाज को खदेड़ने के लिए कनाडा का एक जंगी बेड़ा आ गया। विवश होकर कोमागाटामारू जहाज को वापिस भारत की ओर लौटना पड़ा। मार्ग में ब्रिटिश सरकार ने इस जहाज को कहीं भी ठहरने की अनुमति नहीं दी। भोजन-पानी और दवाईयों के अभाव में जहाज के यात्रियों को अमानवीय कष्ट सहन करने पड़े। 29 सितम्बर 1914 को यह जहाज कलकत्ता के बजबज बन्दरगाह पहुँचा।

भारत सरकार को जहाज पर सवार यात्रियों की विद्रोही गतिविधियों के बारे में ज्ञात हो चुका था। बाबा गुरुदत्त सिंह स्वयं क्रांतिकारी थे तथा उनकी लाल हरदयाल के क्रांतिकारी आन्दोलन से बड़ी सहानुभूति थी। अतः भारत सरकार ने, बाबा गुरुदत्त सिंह सहित समस्त यात्रियों को बंदी बनाने के लिये उन्हें बलपूर्वक सरकारी गाड़ी में चढ़ाने का प्रयास किया किंतु यात्रियों ने सरकार की कार्यवाही का विरोध किया। इस पर पुलिस ने गोलियां चलाईं। यात्रियों ने भी पुलिस पर गोलियां चलाईं। इस संघर्ष में 18 सिक्ख मारे गये। बाबा गुरुदत्त सिंह घायल हो गये। बचे हुए यात्री गोलियों की बौछारों में से बाबा को उठाकर भाग गये। सरकार ने बाबा गुरुदत्त सिंह को पकड़वाने वाले के लिए भारी पुरस्कार घोषित किया किन्तु उनका पता नहीं लग सका।

तोशामारू प्रकरण

29 अक्टूबर 1914 को तोशामारू नामक जहाज कलकत्ता पहुंचा। इसमें हांगकांग, शंघाई, मनीला आदि स्थानों से आये 173 भारतीय सवार थे। इनमें से अधिकतर सिक्ख थे। भारत सरकार को सूचना दी गई कि ये लोग भारत में पहुंचकर उपद्रव करेंगे। इसलिये सरकार ने 100 यात्रियों को जहाज से उतरते ही बंदी बना लिया। शेष यात्री पंजाब पहुंच गये। ये लोग 21 फरवरी 1915 की क्रांति की योजना में भाग लेने आये थे किंतु इस क्रांति की योजना का भेद खुल जाने से योजना असफल हो गई।

अध्याय – 62 : भारत में क्रांतिकारी आन्दोलन – 4

0

दिल्ली में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

दिल्ली षड़यन्त्र केस: 1912 ई. में भारत सरकार अपनी राजधानी, कलकत्ता से हटाकर दिल्ली ले आई।  23 दिसम्बर 1912 को जब वायसराय लॉर्ड हार्डिंग तथा उनकी पत्नी ने हाथी पर बैठकर नई राजधानी में प्रवेश किया तो चांदनी चौक में क्रांतिकारियों ने वायसराय के हाथी पर बम फेंक दिया। वायसराय के पीछे बैठे अंगरक्षक की तत्काल मृत्यु हो गई। स्वयं वायसराय भी बम और हौदे के टुकड़ों से घायल हो गया तथा घबराहट में बेहोश हो गया। लेडी हार्डिंग ने तत्काल जुलूस स्थगित करवा दिया और वायसराय को चिकित्सा के लिये राजकीय आवास ले जाया गया। पुलिस ने बम फेंकने के सन्देह में मास्टर अमीर चन्द, सुल्तान चन्द्र, दीनानाथ, अवध बिहारी, बाल मुकुन्द, बसन्त कुमार, हनुमन्त सहाय, चरनदास आदि 13 क्रांतिकारियों को पकड़ लिया। इन लोगों पर दो वर्ष तक मुकदमा चला। यह मुकदमा दिल्ली षड़यन्त्र केस के नाम से प्रसिद्ध है। दीनानाथ सरकारी गवाह बन गया। मई 1915 में अमीरचन्द, अवधबिहारी और बालमुकुन्द को दिल्ली में तथा बसन्त कुमार विश्वास को अम्बाला में फांसी दी गई। चरणदास को आजीवन काला पानी की सजा दी गई। शेष अभियुक्तों को लम्बा कारावास हुआ।

इस प्रकरण में पुलिस ने कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की। क्रांतिकारियों द्वारा भी इसके बारे में अधिक नहीं लिखा गया। फिर भी प्राप्त तथ्यों के आधार पर माना जाता है कि वायसराय पर बम फेंकने की योजना रासबिहारी बोस ने बनाई थी। ठाकुर जोरवरसिंह बारहठ तथा उनके भतीजे प्रतापसिंह बारहठ बम लेकर दिल्ली पहुंचे थे। जोरावरसिंह ने बुर्का ओढ़कर, वायसराय पर बम फंेका और फिर वे चुपचाप स्त्रियों की भीड़ में से खिसक कर मध्यप्रदेश के जंगलों में चले गये। प्रतापसिंह भी फरार हो गये किंतु बाद में एक सहपाठी की धोखे-बाजी से आसारानाडा स्टेशन पर पुलिस के हाथों पकड़े गये। उन्हें जेल में रखा गया जहां पुलिस ने उन पर बर्बर अत्याचार किये जिनके कारण जेल में ही उनकी मृत्यु हो गई। जोरावरसिंह आजीवन गिरफ्तार नहीं हुए किंतु जिस दिन समाचार पत्रों में यह छपा कि न्यायालय ने जोरावरसिंह को वायसराय पर बम फैंकने के आरोप से बरी कर दिया है, उसके अगले दिन ही जोरावरसिंह का निधन हो गया।

सरकार ने रासबिहारी बोस की गिरफ्तारी पर 7500 रुपये का पुरस्कार घोषित किया। रासबिहारी बोस भारत से जापान चले गये। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने जापानी सरकार की सहायता से आजाद हिन्द फौज का गठन किया जिसे बाद में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का नेतृत्व प्राप्त हुआ। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इस बम को फेंकने वाले बसन्त विश्वास और मन्मथ विश्वास थे। इन दोनों बंगाली नवयुवकों ने महिलाओं का भेष धारण किया था और छत पर सवारी देखने को बैठी स्त्रियों के बीच में जा बैठे थे। वहीं से उन्होंने निशाना साधकर वायसराय के हाथी पर बम फेंका था। भाग्यवश वायसराय बच गया और अंगरक्षक मारा गया।

संयुक्त प्रदेश, आगरा एवं अवध में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

महाराष्ट्र, बंगाल और पंजाब की क्रांतिकारी गतिविधियों से संयुक्त प्रदेश , आगरा एवं अवध में भी उबाल आया। इस क्षेत्र के क्रांतिकारियों ने बनारस को अपना केन्द्र बनाया। वे बंगाल और महाराष्ट्र के क्रांतिकारियों से सम्पर्क में थे। 1907 ई. में बनारस में भी शिवाजी उत्सव मनाया गया और एक जुलूस निकाला गया जिसमें पं. सुन्दरलाल ने राजद्रोह से भरा जोशीला भाषण दिया। संयुक्त प्रदेश में क्रांतिकारी आन्दोलन की भूमि तैयार करने में पं. सुन्दरलाल का बड़ा हाथ था। उन्होंने लाला लाजपतराय, तिलक और अरविन्द घोष के साथ भी काम किया। 1909 ई. में उन्होंने इलाहाबाद से कर्मयोगी नामक समाचार पत्र निकाला जिसमें महर्षि अरविन्द योगी और बाल गंगाधर तिलक के लेखों एवं भाषणों के अनुवाद प्रकाशित होते थे। सुंदरलाल की प्रेरणा से इलाहाबाद से स्वराज्य नामक पत्र भी निकला गया जिसमें उग्र राष्ट्रवादी विचार प्रकाशित होते थे। बाद में सरकार ने इन दोनों समाचार पत्रों को बन्द करवा दिया। दिल्ली षड़यन्त्र केस में भी सुन्दरलाल का नाम जोड़ा गया परन्तु पुलिस उनके विरुद्ध साक्ष्य नहीं जुटा सकी। 1910 ई. में बंगाल के कुछ क्रांतिकारियों के सहयोग से बनारस में युवक समिति स्थापित हुई जो बंगाल की अनुशीलन समिति की शाखा थी। प्रकट रूप से इस समिति में युवकों को शारीरिक, धार्मिक और साहित्यिक प्रशिक्षण दिया जाता था परन्तु गुप्त रूप से यह समिति क्रांतिकारी कार्य करती थी। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इस क्षेत्र के क्रांतिकारी भी व्यापक सशस्त्र क्रांति की योजना बनाने लगे किंतु वह कार्यरूप में परिणित नहीं हो सकी।

बिहार और उड़ीसा में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

सरकार की गुप्त रिपोर्टों से ज्ञात होता है कि बिहार के पटना, देवघर आदि शहरों में बंगाल से भागकर आये क्रांतिकारियों ने स्थानीय नवयुवकों को साथ लेकर, गुप्त समितियां गठित कीं और उनके माध्यम से बिहार की जनता में क्रांतिकारी विचारों को फैलाने का प्रयास किया। यहाँ के क्रांतिकारियों ने धन एकत्र करने के लिए कुछ डकैतियां भी कीं। बिहारी नेशनल कॉलेज के अँग्रेजी के अध्यापक कामाख्या नाथ मित्र ने अपने भाषणों से अनेक बिहारी छात्रों में क्रांतिकारी भावना जागृत की। इस पर सरकार ने उन्हें कॉलेज छोड़ने को विवश कर दिया। कामाख्या बाबू के एक शिष्य सुधीर कुमार सिंह ने उनके काम को आगे बढ़ाया। उन्होंने बांकीपुर के छात्रों के सहयोग से एक गुप्त समिति गठित की। इस समिति का बंगाल की अनुशीलन समिति के साथ सम्पर्क स्थापित हो गया। बंगाल से कई क्रांतिकारी विद्यार्थी, बिहार में आने-जाने लगे और बिहारी छात्रों को क्रांतिकारी भावना के साथ जोड़ने का काम करने लगे। बिहार में कोई महत्त्वपूर्ण क्रांतिकारी घटना नहीं घटी।

मद्रास में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

1907 ई. में विपिनचन्द्र पाल ने मद्रास का दौरा किया तथा मद्रास प्रवास में उन्होंने विभिन्न स्थानों पर जो भाषण दिये जिनका सार यह था कि हम ब्रिटिश शासन को समाप्त करके पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करना चाहते हैं। उनके भाषणों ने मद्रासी नवयुवकों में क्रांतिकारी भावना का संचार किया। जब सरकार ने विपिनचन्द्र पाल को बंदी बना लिया तब उनकी रिहाई के लिए मद्रास में भी प्रदर्शन हुए। पाल की रिहाई के अवसर पर एक सार्वजनिक सभा का आयोजन किया गया। इस पर सरकार ने सभा के प्रमुख आयोजकों को बन्दी बना लिया। इसकी प्रतिक्रिया में टिनेवली में उपद्रव हुए। सरकार ने मद्रास से प्रकाशित होने वाले अनेक समाचार पत्रों के सम्पादकों तथा आन्दोलनकारी नेताओं को बन्दी बनाकर उन पर मुकदमा चलाया। इस कारण जनता, सरकार के विरुद्ध एकजुट होने लगी। वीर सावरकर के शिष्य तथा त्रावणकोर के जंगलात विभाग के कर्मचारी, वांची एयर ने टिनेवली के जिला अधिकारी मि. एश को गोली से उड़ा दिया जिसने टिनेवली में आतंक मचा रखा था। मजिस्ट्रेट की हत्या करने के बाद उन्होंने स्वयं को भी गोली मार ली। उनका साथी शंकर कृष्ण अय्यर पकड़ा गया। उसे चार साल की जेल हुई।

अध्याय – 63 : भारत में क्रांतिकारी आन्दोलन – 5

0

विदेशों में क्रांतिकारी आन्दोलन

देशभक्त क्रांतिकारियों ने अन्य देशों के क्रांतिकारियों से सम्पर्क स्थापित करके उनसे भारत की स्वाधीनता के लिये समर्थन, सहायता एवं हथियार प्राप्त किये। विदेशों में काम करने वाले प्रमुख क्रांतिकारी इस प्रकार से थे-

 (1.) श्यामजी कृष्ण वर्मा

श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म काठियावाड़ के मांडवी नामक गांव में एक निर्धन परिवार में 1857 ई. में हुआ था। 1879 ई. में वे कानून की शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैण्ड गये। 1884 ई. में उन्होंने बैरिस्टरी की परीक्षा उत्तीर्ण की और वे भारत लौट आये। कुछ वर्षों बाद वे राजस्थान की उदयपुर रियासत में उच्च पद पर नौकरी करने करने लगे। 1893 से जनवरी 1895 ई. तक वे उदयपुर रियासत की स्टेट कौंसिल के सदस्य रहे। ब्रिटिश रेजीडेंट के दबाव के कारण उन्हें यह नौकरी छोड़नी पड़ी। इसके बाद वे जूनागढ़़ रियासत की सेवा में चले गये किन्तु वहाँ से भी उन्हें हटना पड़ा। 1897 ई. में श्यामजी वापस इंग्लैंड चले गये क्योंकि पूना के प्लेग कमिश्नर रैण्ड तथा उसके सहायक आयर्स्ट की हत्या में सरकार को श्यामजी कृष्ण वर्मा का हाथ होने का भी सन्देह था। इंग्लैण्ड में उन्होंने व्यापार के माध्यम से बहुत धन कमाया और सारा धन इंग्लैंण्ड में भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रचार में लगा दिया। जनवरी 1905 में लन्दन में श्यामजी कृष्ण वर्मा ने इण्डियन होमरूल सोसाइटी की स्थापना की और इण्डियन सोशियोलॉजिस्ट शीर्षक से मुखपत्र निकालना आरम्भ किया। इस पत्र में क्रांतिकारी विचारों से ओतप्रोत लेख प्रकाशित होते थे। 1905 ई. में उन्होंने लन्दन में इंडिया हाउस नामक हॉस्टल की स्थापना की, जो शीघ्र ही भारतीय क्रांतिकारियों का मुख्य केन्द्र बन गया। इंडिया हाउस में जमा होने वाले युवकों में विनायक दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल और मदनलाल धींगरा प्रमुख थे। इण्डियन होमरूल सोसायटी द्वारा प्रतिवर्ष इंग्लैण्ड में 1857 की क्रांति की वर्षगांठ बड़ी धूमधाम से मनाई जाती थी जिसमें जोशीले भाषण होते थे। ऐसी सभाओं में इंग्लैंड में पढ़ने जाने वाले भारतीय नवयुवकों की टोलियां सम्मिलित होती थीं। उनकी इन गतिविधियों को देखकर ब्रिटिश सरकार श्यामजी कृष्ण वर्मा को तंग करने लगी। इस पर श्यामजी ने इंग्लैण्ड छोड़ दिया और 1907 ई. में पेरिस चले गये। 1914 ई. में वे फ्रांस से स्विट्जरलैंड चले गये। 30 मार्च 1930 को स्विट्जरलैंड में उनका देहान्त हुआ। इस प्रकार, श्यामजी कृष्ण वर्मा पहले व्यक्ति थे जिन्होंने विदेशों में क्रांतिकारी गतिविधियां आरम्भ कीं। 

(2.) विनायक दामोदर सावरकर

श्यामजी कृष्ण वर्मा के लन्दन से पेरिस चले जाने के बाद विनायक दामोदर सावरकर ने लन्दन के इंडिया हाउस का काम संभाला। उनके नेतृतव में पहले की ही भांति सन् 1857 की क्रांति की वर्षगांठ धूमधाम से मनाई जाती रही और क्रांतिकारी परचे छपवा कर भारत के विभिन्न हिस्सों में भिजवाये जाते रहे। आर्थर एफ. हार्सली के सहयोग से इण्डियन सोशियोलाजिस्ट भी छपता रहा। जुलाई 1909 में हार्सली को जेल में डाल दिया गया। तब गाई अल्फ्रेड ने पत्र के प्रकाशन का दायित्व संभाला। सितम्बर 1909 में अल्फ्रेड को भी एक साल के लिये जेल भेज दिया गया। इसके बाद इण्डियन सोशियोलाजिस्ट छपना बन्द हो गया। ब्रिटिश सरकार द्वारा सावरकर के भाई गणेश सावरकर को अनुचित रूप से दण्डित किया गया था। इसका बदला लेने के लिये 1 जुलाई 1909 को मदनलाल धींगरा ने सर वाइली की गोली मार दी। अँग्रेज अधिकारियों का मानना था कि वाइली की हत्या की योजना विनायक दामोदर सावरकर ने बनाई थी परन्तु आरोप सिद्ध करने के लिए साक्ष्य नहीं मिल सके। इसके बाद सावरकर पर अपने रसोइये चतुर्भुज अमीन के हाथ फरवरी 1909 में 20 ब्राउनिंग पिस्तौलें और कारतूस भारत भेजने का आरोप लगाया गया। मार्च 1910 में सावरकर को बंदी बनाकर भारत भेज दिया गया जहाँ उन्हें 37 अन्य व्यक्तियों के साथ नासिक षड़यंत्र केस का अभियुक्त बनाया गया। 22 मार्च 1911 को सावरकर को 50 वर्ष की कैद की सजा देकर अण्डमान भेज दिया गया, जहाँ उन्हें कोल्हू में बैल की जगह जोता गया और अमानवीय यातनाएं दी गईं। 1937 ई. में जब बम्बई में नया मंत्रिमण्डल बना तब उन्हें 10 मई 1937 को जेल से मुक्त किया गया। दिसम्बर 1937 में उन्हें हिन्दू महासभा के अहमदाबाद अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया।

(3.) सरदारसिंहजी रेवा भाई राना

जब मार्च 1910 में विनायक दामोदर सावरकर को लन्दन में बंदी बनाया गया तब भारतीय क्रांतिकारियों ने लंदन के स्थान पर पेरिस को अपने कार्यों का केन्द्र बनाया। पेरिस में श्यामजी कृष्ण वर्मा को अपने सहयोगी मिल गये जिनमें सरदारसिंहजी रेवा भाई राना और श्रीमती भीखाजी रूस्तम कामा प्रमुख थे। राना, बम्बई के एल्फिंस्टन कॉलेज से 1898 ई. में स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद कानून की पढ़ाई के लिये लन्दन गये। पढ़ाई के साथ-साथ वे व्यापार भी करने लगे और पेरिस में जाकर बस गये। उन्हें भारतीय क्रांतिकारियों से सहानुभूति थी, वे क्रांतिकारियों को आर्थिक सहायता देते रहते थे। ब्रिटिश सरकार को इसकी जानकारी मिलते ही उसने फ्रांसीसी सरकार पर राना को गिरफ्तार करने के लिए दबाव डाला। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान फ्रांसीसी सरकार ने राना को बन्दी बनाकर मार्टिनिक द्वीप भिजवा दिया।

(4.) श्रीमती भीखाजी रुस्तम कामा

श्रीमती कामा का जन्म 1875 ई. के लगभग एक भारतीय पारसी परिवार में हुआ। उनके पति सफल वकील थे। 1902 ई. में वे यूरोप गईं। उन्होंने इंग्लैण्ड के क्रांतिकारियों को यथा संभव आर्थिक सहायता प्रदान की। इसीलिए उन्हें भारतीय क्रांति की माता भी कहा जाता है। राना और कामा ने अगस्त 1907 में जर्मनी के स्टुटगार्ट में आयोजित इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांग्रेस में भारत का प्रतिनिधित्व किया। श्रीमती कामा ने सम्मेलन के मंच से भारत में ब्रिटिश शासन के अत्याचारों एवं निरंकुशता की भर्त्सना करते हुए भारत की स्वतंत्रता का जोरदार समर्थन किया। 1909 ई. के मध्य में श्रीमती कामा पेरिस वापस आ गईं और श्यामजी कृष्ण वर्मा के साथ मिलकर काम करने लगीं। उन्होंने क्रांतिकारी साहित्य के प्रकाशन एवं वितरण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। सितम्बर 1909 में कामा ने जेनेवा से वंदेमातरम् नामक मासिक पत्र निकाला जो शीघ्र ही प्रवासी भारतीय क्रांतिकारियों का मुखपत्र बन गया। 1909-10 ई. की अवधि में लाला हरदयाल ने भी इस पत्र का सम्पादन किया। श्रीमती कामा ने जर्मनी में आयोजित एक अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में प्रभम भारतीय तिरंगा फहराया।

(4.) गदर पार्टी और इण्डिया लीग

जिस प्रकार श्यामजी कृष्ण वर्मा ने इंग्लैण्ड, फ्रांस व जर्मनी में कार्य किया था, उसी प्रकार भाई परमानन्द ने अमेरिका और इंग्लैण्ड में कार्य किया। 1911 के आरम्भ में लाला हरदयाल अमरीका पहुँचे। 1913 ई. में उन्होंने वहाँ कार्यरत भारतीय क्रांतिकारियों के साथ मिलकर गदर पार्टी की स्थापना की। कनाडा की सरकार इस समय पंजाबी अप्रवासियों के विरुद्ध रंगभेद की नीति अपना रही थी। पंजाबियों को तिरस्कार का सामना करना पड़ता था। इसलिए लाला हरदयाल ने बाबा सोहनसिंह भखना की अध्यक्षता में पोर्टलैंड में हिन्दुस्तान एसोसिएशन ऑफ दि पैसिफिक फोस्ट नामक संस्था स्थापित की। इसका उद्देश्य विदेशों में भारतीयों के अधिकारों की रक्षा करना और भारत की आजादी के लिए भारतीयों में चेतना पैदा करना था। इस संस्था का नाम भी गदर पार्टी पड़ गया। इस गदर पार्टी के सभापति बाबा सोहनसिंह, उप सभापति बाबा केसरसिंह, मंत्री लाला हरदयाल और कोषाध्यक्ष पं. काशीराम चुने गये। इस पार्टी ने 1 नवम्बर 1913 से एक साप्ताहिक अँग्रेजी पत्रिका गदर का प्रकाशन आरम्भ किया। इस पत्रिका का अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित होता था। यह पत्रिका, भारत तथा भारत से बाहर उन देशों में भेजी जाती थी जहाँ बड़ी संख्या में भारतीय रहते थे। इस पत्रिका में क्रांति और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के सम्बन्ध में प्रचुर सामग्री रहती थी। विदेशों में बसे भारतीय, इस सामग्री को बड़ी रुचि के साथ पढ़ते थे। गदर पार्टी ने गुरिल्ला युद्ध के द्वारा भारत को स्वतंत्र कराने की योजना बनाई।

अमेरिका में पहले गदर पार्टी ने और बाद में इण्डिया लीग ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किया। जे. जे. सिंह कई वर्षों तक अमेरिका स्थित इण्डिया लीग के प्रधान रहे। जब अमेरिका में कोमागाटामारू की घटना का समाचार पहुँचा तब गदर पार्टी ने कनाडा और भारत सरकार के विरुद्ध क्रांति कराने के उद्देश्य से हजारों स्वयंसेवकों को भर्ती कर लिया।

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान लाला हरदयाल जर्मनी गये। उन्होंने जर्मनी के बादशाह विलियम कैसर से सहायता प्राप्त करने का प्रयास किया परन्तु उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली। इन्हीं दिनों लाला हरदयाल की प्रेरणा से राजा महेन्द्रप्रताप ने काबुल में एक अस्थाई सरकार का गठन किया। राजा महेन्द्रप्रताप के मंत्रिमण्डल में बरकतुल्ला को प्रधानमंत्री, मौलाना अब्दुल्ला, मौलाना बशीर, सी. पिल्ले, शमशेरसिंह, डॉ. मथुरासिंह, खुदाबख्श और मुहम्मद अली को मंत्री बनाया गया। अस्थायी सरकार ने निश्चय किया कि जर्मनी और तुर्की की सहायता से ईरान, इराक, अरब और अफगानिस्तान के मुसलमान विद्रोह कर दें और उधर पंजाब में सिक्ख उनका साथ दंे। लाला हरदयाल ने इस कार्य के लिए सैकड़ों क्रांतिकारी और बहुत सा गोला बारूद भारत भिजवाया। लाला हरदयाल ने जर्मनी में भारत स्वतंत्रता समिति स्थापित की जो क्रांतिकारियों को अस्त्र-शस्त्र तथा आर्थिक सहायता उपलब्ध कराती थी।

राष्ट्रीय स्तर पर क्रांति की योजना

रासबिहारी बोस, करतारसिंह, पिंगले और शचीन्द्र सान्याल ने ढाका से लाहौर तक एक साथ विद्रोह कराने की एक योजना तैयार की। 21 फरवरी 1915 को क्रांति का दिन निश्चित किया गया किन्तु कृपालसिंह नामक सैनिक ने यह योजना समय से पूर्व ही, ब्रिटिश अधिकारियों के सामने उजागर कर दी। इससे योजना बुरी तरह विफल हो गई।

अध्याय – 64 : भारत में क्रांतिकारी आन्दोलन – 6

0

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद क्रांतिकारी आन्दोलन

प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद गांधीजी ने रोलट एक्ट, जलियांवाला बाग हत्याकांड और खिलाफत के प्रश्न को लेकर असहयोग आन्दोलन चलाया। यह आन्दोलन 1920 से 1922 ई. तक चला किन्तु इसका कोई लाभदायक परिणाम नहीं निकला। इस अवधि में क्रांतिकारियों ने अपनी गतिविधियों को स्थगित रखा। वे इस अहिंसात्मक आन्दोलन का परिणाम देखने को उत्सुक थे किंतु जब उन्होंने देखा कि अहिंसात्मक आन्दोलन का कोई लाभदायक परिणाम नहीं निकला है, तब उन्होंने पुनः क्रांतिकारी संगठनों को सक्रिय किया। क्रांतिकारी शचीन्द्र सान्याल आम माफी मिलने पर फरवरी 1920 में जेल से बाहर आ गये थे। उन्होंने विभिन्न क्रांतिकारी दलों को संगठित करके हिन्दुस्तान प्रजातांत्रिक संघ की स्थापना की।

काकोरी षड़यंत्र केस

क्रांतिकारियों ने अपने कार्यकर्ताओं को बम बनाने का प्रशिक्षण देने के लिए बंगाल के क्रांतिकारियों को बुलाने और पैसा इकट्ठा करने के लिए बैंक, डाकखाने और सरकारी खजानों पर धावा बोलने का निश्चय किया। 9 अगस्त 1925 को हरदोई से लखनऊ जाने वाली रेलगाड़ी से काकोरी ग्राम के निकट सरकारी खजाना लूट लिया गया। सरकारी पुलिस व गुप्तचर विभाग ने इसका कुछ सुराग लगाया और 40 व्यक्तियों को गिरफ्तार कर उन पर ट्रेन डकैती का मुकदमा चलाया। इसे काकोरी षड़यंत्र केस कहा जाता है। दो साल की सुनवाई के बाद इस केस में पं. रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशनसिंह सान्याल को आजीवन कारावास की सजा हुई। मन्मथनाथ गुप्त को 14 वर्ष जेल हुई। अशफाक उल्लाह को फांसी की सजा हुई। फांसी के तख्ते पर चढ़ने से पूर्व अशफाक उल्लाह ने देशवासियों के नाम यह संदेश छोड़ा- ‘भारतवासियो! चाहे आप किसी सम्प्रदाय या धर्म के अनुयायी हों किन्तु आप देशहित के कार्यों में एक होकर योग दीजिए। आप लोग व्यर्थ झगड़ रहे हैं। सब धर्म एक हैं, चाहे रास्ते भिन्न हों परन्तु सबका लक्ष्य एक है। इसलिए आप सब एक होकर नौकरशाही का मुकाबला कीजिए। मैं हत्यारा नहीं हूँ, जैसाकि मुझे साबित किया गया है। मैं पहला भारतीय मुसलमान हूँ जो स्वतंत्रता के लिए फांसी के तख्ते पर चढ़ रहा हूँ।’

लालाजी की हत्या

क्रांतिकारी आन्दोलनों एवं स्वराज्य दल की गतिविधियों से विवश होकर ब्रिटिश सरकार ने भारत में संवैधानिक सुधारों के बारे में सलाह देने के लिए 1927 में साइमन कमीशन की नियुक्ति की। इस कमीशन के समस्त सदस्य अँग्रेज थे। इसलिये इसे व्हाइट कमीशन भी कहते हैं। कांग्रेस ने इसका बहिष्कार करने का निश्चय किया। 30 अक्टूबर 1928 को कमीशन का बहिष्कार करने के लिए लाहौर में लाला लाजपतराय के नेतृत्व में एक विशाल जुलूस निकला। अँग्रेज पुलिस अधिकारी साण्डर्स ने लालाजी पर लाठियों के अनेक प्रहार करके उन्हें गम्भीर चोटें पहुँचाई। इन चोटों के कारण 17 नवम्बर 1928 को लालाजी का निधन हो गया। लालाजी द्वारा 1921 ई. में लाहौर में स्थापित नेशनल कॉलेज के छात्र रहे भगतसिंह तथा उनके साथियों ने इस घटना को राष्ट्रीय अपमान समझा और इसका बदला लेने का निर्णय लिया।

नौजवान सभा

1926 ई. में भगतसिंह, छबीलदास तथा यशपाल आदि नवयुवकों ने नौजवान सभा की स्थापना की। इस सभा के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार से थे- (1.) देश के युवकों में देशभक्ति की भावना जगाना, (2.) मजदूरों और किसानों को संगठित करना, (3.) ब्रिटिश शासन का अन्त करके सम्पूर्ण भारत में मजदूर और किसानों का राज्य स्थापित करना। इस सभा के कार्यकर्ताओं में केदारनाथ सहगल, शार्दूलसिंह, आनन्द किशोर, सोढ़ी पिंडीदास आदि प्रसिद्ध आन्दोलनकारी सम्मिलित थे। नौजवान सभा द्वारा आयोजित सभाओं में भूपेन्द्रनाथ दत्त, श्रीपाद डांगे, जवाहरलाल नेहरू आदि बड़े नेताओं ने भी भाषण दिये। नौजवान सभा ने अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए कई कदम उठाये। सभा ने पंजाब की किरती किसान पार्टी के सहयोग से पंजाब के प्रत्येक गांव में अपनी शाखा खोलने तथा नौजवानों में क्रांतिकारी विचारों का प्रसार करने का निर्णय लिया। यह 1928-29 ई. की विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी का दौर था। पंजाब के लोगों में भी असंतोष की लहर थी। इस कारण जन साधारण में नौजवान सभा को तेजी से लोकप्रियता मिली।

नौजवान सभा के क्रांतिकारियों- भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, राजगुरु और जयगोपाल ने लाला लाजपतराय की हत्या का प्रतिशोध लेने का निश्चय किया। 17 दिसम्बर 1928 को पुलिस कार्यालय के ठीक सामने साण्डर्स को गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया गया। साण्डर्स को गोली मारने के बाद क्रांतिकारी वहाँ से भागकर लाहौर के डी. ए. वी. कॉलेज में जा छुपे। पुलिस ने उन्हें पकड़ने का भरसक प्रयास किया परन्तु असफल रही। क्रांतिकारी युवक भेष बदलकर लाहौर से दिल्ली आ गये। इसके बाद उनकी तरफ से एक इश्तिहार जारी किया गया जिसमें कहा गया था- ‘साण्डर्स मारा गया, लालजी की मृत्यु का बदला ले लिया गया।’ इससे सारे देश में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई।

साण्डर्स की हत्या के बाद एक और घटना हुई। केन्द्रीय विधानसभा में सरकार की ओर से लोक-सुरक्षा विधेयक और व्यापारी-विवाद अधिनियम प्रस्तुत किये गये। केन्द्रीय विधानसभा ने दोनों विधेयकों को अस्वीकृत कर दिया। गवर्नर जनरल ने केन्द्रीय विधानसभा की अस्वीकृति के उपरांत भी अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग करते हुए दोनों अधिनियम लागू कर दिये। इससे सम्पूर्ण भारत में असन्तोष भड़क उठा। क्रांतिकारियों ने परिस्थितियांे का लाभ उठाते हुए, ससंदीय मार्ग और संघर्ष की संवैधानिक विधियों की र्व्यथता को जनता के समक्ष रखा। उनका नारा था- ‘हम दया की भीख नहीं मांगते हैं। हमारी लड़ाई आखिरी फैसला होने तक की लड़ाई है, यह फैसला है- जीत अथवा मौत।’

8 अप्रेल 1929 को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने विधानसभा के केन्द्रीय हॉल में बम फैंक कर इन अधिनियमों के विरुद्ध भारतीय रोष और विरोध का परिचय दिया। बम का धमाका करने के बाद उन्होंने इश्तिहार फैंके तथा क्रांति जिन्दाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद के नारे लगाये और पूर्व योजनानुसार स्वयं को पुलिस के हवाले कर दिया। इस घटना पर टिप्पणी करते हुए पं. नेहरू ने लिखा- ‘यह बम देशवासियों का ध्यान आकर्षित करने के लिए एक बहुत बड़ा धमाका था।’

सरकार ने भगतसिंह और उसके साथियों पर मुकदमा चलाया। मुकदमे के दौरान दिये गये अपने वक्तव्य में क्रांतिकारियों ने कहा कि उनका उद्देश्य किसी व्यक्ति की हत्या करना नहीं था अपितु इस गैर-जिम्मेदार और निरंकुश राज्य के विरुद्ध लोगों को सावधान करना था। जनता को अहिंसा और संवैधानिक संघर्ष की व्यर्थता के बारे में बताना था। सरकार को चेतावनी देना था कि अध्यादेश और सुरक्षा अधिनियम भारत में स्वतंत्रता की भड़की हुई आग को दबा नहीं सकते। इस मुकदमे के दौरान ही ज्ञात हुआ कि साण्डर्स की हत्या में भगतसिंह का भी हाथ था। अतः भगतसिंह और उसके दो साथियों- राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गई। बी. के. दत्त को आजीवन कारावास की सजा मिली। 23 मार्च 1931 को लाहौर जेल में भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी गई और पुलिस ने उनके शव फिरोजपुर में ले जाकर रात्रि में जला दिये। इन क्रांतिकारियों की मृत्यु से क्रांतिकारी दल, विशेषकर नौजवान सभा को बड़ी क्षति पहुँची और समूचा देश शोक में डूब गया। भगतसिंह को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए सुभाषचन्द्र बोस ने कहा- ‘भगतसिंह जिंदाबाद और इन्कलाब जिन्दाबाद का एक ही अर्थ है।’

काकोरी षड़यंत्र केस में चन्द्रशेखर अजाद भी सम्मिलित थे तथा साण्डर्स की हत्या में भी उन्होंने सरदार भगतसिंह का साथ दिया था। जिस समय भगतसिंह जेल में थे तब चन्द्रशेखर आजाद ने उन्हें जेल से छुड़ाने के लिए एक योजना बनाई परन्तु उसमें सफलता नहीं मिली। वायसराय लॉर्ड इरविन ने जनमत के भारी दबाव के उपरान्त भी भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी की सजा को कम नहीं किया। चनद्रशेखर आजाद और यशपाल ने वासराय की ट्रेन को उड़ाने का निश्चय किया। अतः निजामुद्दीन स्टेशन के पास दिल्ली-मथुरा रेल लाइन की पटरियों के नीचे बम गाड़ दिये गये और उनका सम्बन्ध तारों से कई सौ गज दूरी पर रखी एक बैटरी से कर दिया गया। जब वायसराय की ट्रेन उस जगह पहुँची तो स्विच दबा दिया गया। बड़े जोर का धमाका हुआ और रेलगाड़ी पटरी से नीचे उतर गई। गाड़ी के तीन डिब्बे क्षतिग्रस्त हो गये किंतु वायसराय इरविन बाल-बाल बच गया। इसी दिन, क्रतिकारियों ने पंजाब के गवर्नर को भी मारने की योजना बनाई थी। जब गवर्नर, पंजाब विश्वविद्यालय में दीक्षान्त भाषण देने आया तब हरकिशन नामक क्रतिकारी ने उन पर गोली चला दी। गवर्नर घायल हो गया तथा हरकिशन पकड़ा गया। 9 जून 1931 को उसे फांसी पर लटका दिया गया।

भगतसिंह की मृत्यु के बाद चन्द्रशेखर आजाद ने संघर्ष जारी रखा। कुछ दिनों बाद पुलिस ने आजाद के बहुत से साथियों को पकड़ लिया। आजाद उत्तर प्रदेश की ओर चले गये। 27 फरवरी 1931 को चन्द्रशेखर आजाद, यशपाल और सुरेन्द्र पाण्डे इलाहाबाद आये। चंद्रशेखर आजाद पर सरकार ने 10 हजार रुपये का इनाम घोषित कर रखा था। जब वे अल्फ्रेड पार्क में थे तब किसी ने पुलिस को सूचना दे दी। पुलिस ने आजाद को चारों तरफ से घेर लिया और उन पर अंधाधुंध गोलियां चलानी आरम्भ कर दीं। प्रत्युत्तर में आजाद ने भी गोलियां चलाईं जिनसे कई पुलिस कर्मी घायल हो गये। अन्त में आजाद ने पुलिस के हाथों में पड़ने से बचने के लिये स्वयं को गोली मार ली क्योंकि उन्होंने शपथ ली थी कि वे आजाद ही मरेंगे।

23 जनवरी 1932 को क्रांतिकारी यशपाल इलाहाबाद गये। पुलिस को उनकी भनक लग गई और उन्हें बंदी बना लिया गया। उन्हें 14 वर्ष की जेल हुई। 1937 ई. में जब उत्तरप्रदेश में कांग्रेस का मंत्रिमण्डल बना तब मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पंत ने 2 मार्च 1938 को उन्हें बिना शर्त रिहा किया।

पूर्वी बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

पूर्वी बंगाल का चटगांव बन्दरगाह क्रांतिकारियों का केन्द्र बना हुआ था। इनके संगठन का नाम चटगांव रिपब्लिकन आर्मी था। इसके नेता सूर्यसेन थे। इस संगठन के सदस्य जन-साधारण के बीच क्रांति का प्रचार करते थे। इस संगठन ने बम बनाने का कारखाना और गैरकानूनी छापाखाना भी खोल रखा था। 18 अप्रैल 1930 की रात्रि में सूर्यसेन के नेतृत्व में लगभग 50 युवक-युवतियों ने फौजी वेशभूषा पहनी और रिवाल्वरों तथा बमों से लैस होकर चटगांव के पुलिस शस्त्रागार पर आक्रमण किया। एक अधिकारी को मौत के घाट उतार कर उन्होंने वहाँ रखी समस्त बन्दूकों को लूट लिया। इन क्रांतिकारियों ने चटगांव के समस्त थानों पर कब्जा करके सड़कों पर नाकेबन्दी कर दी और कई दिनों तक शहर पर कब्जा बनाए रखा…… किन्तु क्रांतिकारियों की योजना में एक त्रुटि रह गई थी। उन्होंने चटागांव के बन्दरगाह पर कब्जा नहीं किया था। इससे अँग्रेजों को कलकत्ता से शीघ्र ही सैनिक सहायता पहुँच गई। तब क्रांतिकारियों ने शस्त्रागार में आग लगा दी और क्रांतिकारी, सूर्यसेन के नेतृत्व में जलाालबाद की पहाड़ियों में चले गये। अँग्रेजी सेना ने पहाड़ियों को चारों तरफ से घेरना आरम्भ कर दिया। इस पर बहुत से क्रांतिकारी वहाँ से भाग निकले। सूर्यसेन भी भागने में सफल रहे। बाद में एक साथी के विश्वासघात के कारण पकड़े गये। बाद में कई और क्रांतिकाकारी भी पकड़ लिये गये। प्रीतिलता बाडेदर ने गिरफ्तार होने से बचने के लिए आत्महत्या कर ली। कल्पना दत्त पकड़ी गई। एक अन्य क्रांतिकारी नेता टेगराबल लड़ते-लड़ते शहीद हो गये। सरकार ने समस्त बंदियों पर मुकदमा चलाया, जो चटगांव आर्मरी रेड के नाम से मशहूर हुआ। सूर्यसेन को फांसी हो गई तथा अम्बिका चक्रवती, अनंतसिंह, गणेश घोष, लोकनाथ और अन्य क्रांतिकारियों को लम्बी काले पानी की सजाएं हुईं। सूर्यसेन की फांसी के बाद पूर्वी बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियाँ कम हो गईं।

पेशावर में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

पेशावर में पुलिस ने एक जुलूस पर गोली चलाई जिससे लोगों में आक्रोश फैल गया। लोगों को नियंत्रित करने के लिये सेना बुलाई गई। इस सेना में पंजाबियों की प्रधानता थी तथा क्रांतिकारियों के गुप्त संगठन भी सेना के भीतर सक्रिय थे। ऐसी स्थिति में ब्रिटिश सरकार ने 18वीं रॉयल गढ़वाली राइफल्स को बुलवाया परन्तु चन्द्रसिंह गढ़वाली की अपील पर गढ़वालियों ने पठानों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया और अपनी राइफलें भी उन्हें सौंप दी। 25 अप्रैल को जनता ने पेशावर पर कब्जा कर लिया जो 4 मई तक स्थापित रहा। बाद में अन्य सैनिकों की सहायता से पेशावर पर पुनः अधिकार किया गया। चनद्रसिंह गढ़वाली को आजीवन कालेपानी की और 16 अन्यों को 3 से लेकर 15 साल तक की कड़ी सजा दी गई। 1937 ई. में कांग्रेस सरकारों के दबाव से वे सब रिहा कर दिये गये।

उत्तर-पूर्वी सीमान्त क्षेत्र में क्रांतिकारी गतिविधियाँ

उत्तर-पूर्वी सीमान्त क्षेत्र भी क्रांतिकारी गतिविधियों से अलग नहीं रहा। यहाँ के नागाओं ने ब्रिटिश शासन का अन्त कर नागा राज्य की स्थापना करने का प्रयास किया। उन्होंने यदुनाग के नेतृत्व में अँग्रेजों से लोहा लिया। अँग्रेजों ने यहाँ भी कठोर दमन का साहरा लिया। 1930 ई. में यदुनाग को गिरफ्तार करके फांसी दे दी गई। उसके बाद संगठन का नेतृत्व उसकी सहायिका गाइडिलिउ ने संभाला। उसके नेतृत्व में 1931-32 ई. में विद्रोही नागाओं ने ब्रिटिश अधिकारियों को बहुत तंग किया। गाइडिलिउ को पकड़ने के लिए लोगों को तरह-तरह के पुरस्कारों का प्रलोभन दिया गया। जब इसमें सफलता नहीं मिली तो बड़े पैमाने पर सैनिक कार्रवाही की गई। अक्टूबर 1932 में उसे पकड़कर आजीवन कारावास की सजा दी गई। आजादी के बाद इस वीरांगना को रिहा किया गया।

सामान्यतः यह माना जाता है कि 1934 के आस-पास क्रांतिकारी आन्दोलन समाप्त हो गया परन्तु यह सत्य नहीं है। 1942 ई. के भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान यह फिर सक्रिय हो उठा था।

जल सेना और वायु सेना में विद्रोह

जब आजाद हिन्द फौज के अधिकारियों पर लाल किले में मुकदमे चल रहे थे और जनता उनकी रिहाई के लिए आन्दोलन चला रही थी, उस समय भारतीय सेना में भी ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आवाज उठी। अँग्रेज अधिकारियों के दुर्व्यवहार से तंग आकर 20 जनवरी 1946 को कराची में वायुसेना के सैनिकों ने हड़ताल कर दी जो बम्बई, लाहौर और दिल्ली स्थित वायुसेना मुख्यालयों पर भी फैल गई। नौ-सेना ने भी वायु सेना का अनुसरण किया। 19 फरवरी 1946 को भारतीय नौ-सैनिकों ने भी हड़ताल कर दी। 21 फरवरी 1946 को यह हड़ताल क्रांति के रूप में बदलने लगी तथा बम्बई के साथ-साथ कलकत्ता, कराची और मद्रास में भी फैल गई। अँग्रेज अधिकारियों ने इस क्रांति का दमन करने के लिए गोलियां चलाईं। क्रांतिकारी सैनिकों ने भी गोली का जवाब गोली से दिया। इससे ब्रिटिश सरकार घबरा गई। बड़ी कठिनाई से सरदार पटेल ने सरकार और नौ-सैनिकों के बीच समझौता करवाया। इस विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार को अनुमान हो गया कि अब उनके लिये भारत पर शासन करना संभव नहीं रह गया है।

अध्याय – 65 : क्रांतिकारी आन्दोलन – 7

0

क्रांतिकारी आन्दोलन की असफलता के कारण

क्रांतिकारी आंदोलन भारत को अँग्रेजी शासन से मुक्त करवाने के उद्देश्य से आरम्भ किया गया था परन्तु यह आंदोलन अँग्रेजों से सत्ता नहीं छीन सका। यद्यपि यह कहना उचित नहीं है कि भारत में क्रांतिकारी आंदोलन सफल नहीं रहा तथापि इस बात पर विचार किया जाना आवश्यक है कि भारत का क्रांतिकारी आन्दोलन, अपने मूल उद्देश्य को प्राप्त क्यों नहीं कर सका!

(1.) केन्द्रीय संगठन का अभाव: क्रांतिकारियों की असफलता का मुख्य कारण उनके केन्द्रीय संगठन का अभाव था। इस कारण विभिन्न प्रान्तों के क्रांतिकारियों की गतिविधियों में सहयोग और समन्वय स्थापति नहीं हो सका। विभिन्न प्रान्तों के क्रांतिकारी अपने-अपने क्षेत्र में भिन्न-भिन्न समय में अलग-अलग क्रांतिकारी गतिविधियां चलाते थे जिनके माध्यम से शक्ति-सम्पन्न ब्रिटिश सत्ता का अन्त किया जाना सम्भव नहीं था।

(2.) समाज के सहयोग का अभाव: भारतीय समाज के अत्यंन्त सीमित वर्ग ने क्रांतिकारियों को सहयोग एवं समर्थन दिया। उन्हें किसानों, श्रमिकों, व्यापारियों, मध्यम वर्ग तथा कांग्रेस का समर्थन नहीं मिला। समाज का उच्च वर्ग हिंसा के मार्ग से भय खाता था और खुले रूप से क्रांतिकारियों का विरोध करता था। मध्यम वर्ग अपने बच्चों को  हत्या, डकैती, लूट, तोड़-फोड़ के मार्ग पर नहीं जाने देना चाहता था। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और आशुतोष मुकर्जी जैसे नेताओं ने तो सरकार से क्रांतिकारियों का दमन करने के लिए कठोर कदम उठाने का आग्रह किया।

(3.) साधनों का अभाव: क्रांतिकारियों के पास साधनों का अभाव हर समय बना रहा। वे बड़ी कठिनाई से अस्त्र-शस्त्र जुटा पाते थे। उन्हें गुप्त रूप से कार्य करना पड़ता था, जबकि सरकार का खुफिया विभाग इतना कुशल और जागरूक था कि क्रांतिकारियों की अधिकांश गतिविधियों का सरकार को पता लगा जाता था और सरकार क्रांतिकारियों की योजनाओं को विफल बना देती थी।

(4.) कांग्रेसी नेताओं द्वारा कड़ा विरोध: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी स्वतंत्रता का आंदोलन चला रही थी। इसके नेताओं में लाला लाजपत राय, विपिनचंद्र पाल तथा सुभाष चंद्र बोस ही ऐसे गिने-चुने कांग्रेसी थे जो क्रांतिकारियों से सहानुभूति रखते थे। कांग्रेस के उदारवादी नेता तो अपने ही दल के उग्रवादी नेताओं को ही सहन करने को तैयार नहीं थे ऐसी स्थिति में वे क्रांतिकारियों को कैसे सहन कर सकते थे। बाद में जब मोहनदास गांधी कांग्रेस के नेता हो गये तब उन्होंने क्रांतिकारियों की गतिविधियों का कड़ा विरोध किया क्योंकि उनका अहिंसा का सिद्धान्त क्रांतिकारियों के किसी भी सिद्धांत से मेल नहीं खाता था। 

(5.) सरकार द्वारा क्रांतिकारियों का कठोर दमन: भारत की गोरी सरकार क्रांतिकारियों का कठोरता से दमन कर रही थी और उन्हें फांसी पर चढ़ा रही थी। इस कारण क्रांतिकारी आंदोलन को जनता का वैसा समर्थन नहीं मिला जैसा समर्थन कांग्रेस के अहिंसावादी आंदोलन को मिला जिसमें अधिकतम सजा पुलिस की लाठियां और कुछ दिनों की जेल थी। सरकार ने 1907 ई. में सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबन्ध लगा दिया। 1908 ई. में विद्रोही सभा अधिनियम पारित किया तथा फौजदारी कानून को अधिक कठोर बनाकर उसका सख्ती से पालन करने की आज्ञा दी। 1908 ई. एवं 1910 ई. में प्रेस अधिनियम द्वारा समाचार पत्रों पर कई तरह के प्रतिबन्ध लगाये गये। 1911 ई. में सरकारी अधिकारियों को सार्वजनिक सभाओं पर नियंत्रण रखने के लिये अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग करने का अधिकार दिया गया। क्रांतिकारियों को फांसी, आजीवन कारावास तथा निर्वासन से कम सजा नहीं दी जाती थी। ऐसी दमनकारी नीति के सामने क्रांतिकारी अधिक समय तक टिके नहीं रह सके।

(6.) साथियों द्वारा विश्वासघात: कुछ क्रांतिकारी पकड़े जाने पर, पुलिस की ज्यादतियों का सामना नहीं कर पाते थे और अपने संगठन के गुप्त भेद पुलिस को दे देते थे। इस कारण क्रांतिकारियों की बहुत सी योजनाएं विफल हो जाती थीं तथा बड़ी संख्या में क्रांतिकारी पकड़ लिये जाते थे। कई बार जनता में से भी कोई व्यक्ति पुरस्कार के लालच में पुलिस का मुखबिर बनकर क्रांतिकारियों को पकड़वा देता था। 

राष्ट्रीय आन्दोलन में क्रांतिकारियों का योगदान

कांग्रेस समर्थक इतिहासकारों का मानना है कि राष्ट्रीय आन्दोलन में क्रांतिकारी आन्दोलन की कोई भूमिका नहीं है, क्योंकि इन्हें कोई सफलता नहीं मिली परन्तु ऐसा कहना देशभक्त क्रांतिकारियों के प्रति घोर अन्याय करना है। सफलता ही किसी आंदोलन के योगदान की एकमात्र कसौटी नहीं हो सकती। कांग्रेस द्वारा समर्थित खिलाफत आंदोलन (नवम्बर 1919-24 ई.), कांग्रेस द्वारा संचालित असहयोग आंदोलन (अगस्त 1920-फरवरी 1922 ई.) और कांग्रेस द्वारा प्रेरित भारत छोड़ो आंदोलन (1942 ई.) आदि आंदोलनों के उद्देश्य पूरे नहीं हो सके थे। इसका अर्थ यह नहीं है कि भारत की आजादी में इन आंदोलनों को कोई योगदान नहीं था। भारत में बंग-भंग (1905 ई.) से लेकर भारत छोड़ो आंदोलन (1942 ई.) तक चले क्रांतिकारी आंदोलन की प्रमुख उपलब्धियाँ इस प्रकार से हैं-

(1.) नौजवानों को लाठी खाने और जेल जाने की प्रेरणा: क्रांतिकारी भले ही देश को आजाद नहीं करवा पाये किंतु उन्होंने देश को तेजी से आजादी की तरफ बढ़ाया। उन्होंने अपने देश को स्वतंत्र करवाने के लिये लोगों को अपने प्राण न्यौछावर करने की प्रेरणा दी। क्रांतिकारियों द्वारा अपने प्राणों का त्याग करके जन-साधारण के के समक्ष आदर्श उत्पन्न किया ताकि वे राजनीतिक दलों द्वारा संचालित आंदोलनों में खुल कर भाग ले सकें और अपने शरीर पर पुलिस के डण्डों का वार सह सकें। हजारों नौजवान अपनी नौकरियां छोड़कर जेल जाने की हिम्मत भी इसलिये कर सके क्योंकि उनके जैसे सैंकड़ों नौजवान, देश को आजाद करवाने के लिये फांसी के फंदों पर झूल रहे थे। वे मरने के बाद फिर से जन्म लेकर अँग्रेजों को देश से भगाने की शपथ लेते थे। जब युवा क्रांतिकारियों के समूह आजादी के गीत गाते हुए फांसी के फंदों तक जाते थे तो उन युवाओं की रगों में भी खून उबलने लगता था जो क्रांति का मार्ग नहीं अपना सके थे। वस्तुतः कांग्रेस के आंदोलनों में जन साधारण का जुड़ाव क्रांतिकारियों के ही बलिदान का प्रतिफलन था।

(2.) बंग-भंग का निरस्तीकरण: क्रांतिकारियों द्वारा की गई हिंसात्मक कार्यवाहियों के बाद अनेक बार ब्रिटिश सरकार को अपनी नीतियों में परिवर्तन करना पड़ा। बंग-भंग के विरुद्ध केवल बंगालियों ने नहीं, अपितु देश के अन्य प्रान्तों के लोगों ने भी तीव्र आन्दोलन किया। सरकार ने इस आन्दोलन को निर्ममतापूर्वक कुचला। लाला लाजपतराय तथा बालगंगाधर तिलक को जेल में ठूँसा गया तथा प्रेस एक्ट द्वारा समाचार पत्रों का मुंह बन्द किया गया। सरकार की दमनात्मक कार्यवाहियों ने नवयुवकों को क्रांति के मार्ग पर धकेला। जब क्रांतिकारियों ने अनेक अँग्रेज अधिकारियों को मार डाला तो क्रांतिकारियों के भय से ही सरकार ने बंगाल का विभाजन रद्द किया।

 (3.) राजधानी का परिवर्तन: बंगाल के क्रांतिकारियों ने पूरे देश के क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया। उन्हें हथियार और धन उपलब्ध करवाया तथा हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया। रास बिहारी बोस ने महाराष्ट्र, राजस्थान, पंजाब तथा दिल्ली ही नहीं अपितु जापान में जाकर क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया। यही कारण था कि बंगाल के क्रांतिकारियों से भयभीत होकर ब्रिटिश सरकार 1911 ई. में अपनी राजधानी कलकत्ता से दिल्ली ले गई। यहाँ भी रास बिहारी बोस के साथियों ने गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग के जुलूस पर उस समय बम फैंका जब वे हाथी पर बैठकर ब्रिटिश राज की नई राजधानी में प्रवेश कर रहे थे।

(4.) पूर्ण स्वराज्य की मांग: कांग्रेस 1885 ई. में अपनी स्थापना से लेकर 1929 ई. तक औपनिवेशिक राज्य (डोमिनियन स्टेटस) का सपना पाले हुए थी जबकि क्रांतिकारियों ने 1905 में बंग-भंग के बाद ही पूर्ण स्वराज्य को अपना लक्ष्य घोषित किया। गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन आरम्भ करते समय 1920 ई. में कहा था कि- ‘यदि देश मेरे पीछे चले तो मैं एक वर्ष के भीतर स्वराज्य ला दूँगा।’ क्रांतिकारियों ने गांधी के नये प्रयोग को देखने के लिए दो वर्ष तक अपनी गतिविधियों को स्थगित रखा किन्तु जब गांधी का असहयोग आन्दोलन असफल सिद्ध हुआ तब क्रांतिकारियों को विश्वास हो गया कि अहिंसात्मक तथा संवैधानिक आन्दोलनों से सरकार कुछ भी देने वाली नहीं है। 8 अप्रेल 1929 को बहरी सरकार को जनता की आवाज सुनाने के लिए सरदार भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केन्द्रीय असेम्बली में बम का धमाका किया। ये दोनों क्रांतिकारी चाहते तो आसानी से भाग सकते थे किंतु वे वहीं खड़े हो गये ताकि पुलिस उन्हें बंदी बना ले। इस बम धमाके के बाद भारत ने आजादी की ओर तेजी से कदम बढ़ाये। जनवरी 1930 में कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित किया।

(5.) भारतीय सेनाओं में विद्रोह: क्रांतिकारी सदस्य निरंतर प्रयास करते रहते थे कि भारतीय सैनिक, विदेशी शासकों के विरुद्ध हथियार उठायें। अंत में 1946 ई. में जल-सेना और नौ-सेना में सशस्त्र विद्रोह हुए। भारतीय सैनिकों ने कई अँग्रेज अधिकारियों को मार डाला। यही वह बिंदु था जब गोरी सरकार ने भारत को सदैव के लिये छोड़ने का निर्णय लिया। इस सफलता का श्रेय केवल दो ही तत्त्वों को दिया जा सकता है- क्रांतिकारियों की प्रेरणा तथा विद्रोही सैनिकों की हिम्मत। इस सफलता का श्रेय अकेली कांग्रेस को किसी भी प्रकार नहीं दिया जा सकता। 

(6.) गांधीजी को समुचित उत्तर: गांधीजी ने बम की पूजा शीर्षक से एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने क्रांतिकारियों तथा उनके कृत्यों की घोर निन्दा की। इस पर क्रांतिकारियों ने बम का दर्शन नामक पर्चा जारी किया। इस पर्चे में गांधी को उनकी बातों का समुचित उत्तर दिया गया- ‘कांग्रेस ने 1928 ई. में ब्रिटिश सरकार से कई बातें करने को कहा परन्तु सरकार ने उनकी तनिक भी परवाह नहीं की और राष्ट्र का अपमान भी किया। इसलिए सरकार की नीति का विरोध करने और राष्ट्रीय अपमान का बदला लेने के लिए हमने वायसराय की ट्रेन के नीचे बम रखा। लॉर्ड इरविन द्वारा सम्पूर्ण देश का अपमान किये जाने पर भी गांधीजी 23 दिसम्बर 1929 को वायसराय से मुलाकात करने वाले थे। इसलिए हमने उसी दिन वायसराय की ट्रेन के नीचे बम रखा ताकि गांधी की वायसराय से भेंट न हो। वायसराय के बच जाने एवं गांधी तथा वायसराय की भेंट हो जाने पर भी क्या लाभ हुआ? स्वशासन, औपनिवेशिक स्वराज्य, आत्म-निर्णय का अधिकार आदि मांगें गुलामी की निशानी हैं। क्रांतिकारियों ने तो 25 वर्ष पहले ही पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति को अपना लक्ष्य घोषित कर दिया था, जबकि कांग्रेस ने केवल इस वर्ष स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित किया….. गांधीजी अहिंसात्मक आन्दोलन से ब्रिटिश शासकों के मन में परिवर्तन लाना चाहते हैं किन्तु इसका कोई प्रभाव नहीं हुआ है। अतः प्रेम और अहिंसा से ब्रिटिश जाति को जीतने की आशा करना व्यर्थ है।’

(7.) कांग्रेस के नेताओं से अधिक प्रसिद्धि: इसमें कोई संदेह नहीं कि भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, श्यामजी कृष्ण वर्मा, वीर सावरकर, मदनलाल धींगरा, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला आदि बहुत से क्रांतिकारियों को कांग्रेस के दिग्गज नेताओं से भी अधिक प्रसिद्धि एवं लोकप्रियता प्राप्त हुई। फांसी के फंदे पर झूलने वाले क्रांतिकारी, युवा दिलों की धड़कन बन गये। लोग अपने बच्चों को इन क्रांतिकारियों के किस्से, महानायकों के किस्सों की भांति सुनाने लगे। कांग्रेस के अध्यक्ष एवं कांग्रेस का इतिहास लिखने वाले पट्टाभि सीतारमैया ने बेहिचक स्वीकार किया है- ‘कराची में कांग्रेस अधिवेशन के समय सरदार भगतसिंह का नाम भारत में उतना ही सर्वप्रिय हो चुका था जितना गांधीजी का। कराची अधिवेशन के कुछ दिनों पूर्व ही सरदार भगतसिंह और उनके साथियों को फांसी दी गई थी। इसलिए कांग्रेस ने भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव के बलिदानों की सराहना में एक प्रस्ताव पारित किया।’ 

(8.) कांग्रेस से भी अधिक उपलब्धियाँ: वस्तुतः क्रांतिकारियों की कुछ सफलताएं तो कांग्रेस की सफलताओं से भी बहुत आगे थीं। गांधीजी ने जनता में जागृति फैलाने का कार्य किया जबकि क्रांतिकारियों ने जनता में जागृति और क्रांति दोनों फैलाने का कार्य किया। क्रांतिकारी आन्दोलन ने कांग्रेस के आंदोलन को मजबूती प्रदान की तथा उसके लिये पूरक आंदोलन के रूप में कार्य किया। ब्रिटिश सरकार क्रांतिकारियों से बहुत घबराती थी इसलिये वह कांग्रेस को राजनीतिक अधिकार प्रदान करती थी। जब सरकार वैधानिक आन्दोलन को कुचलने के लिए भारतीयों पर जुल्म करती तो क्रांतिकारी इसका प्रत्युत्तर बम और बंदूकों से देते थे। इसलिए सरकार कांग्रेस की कुछ बातें मान लेती थी तथा क्रांतिकारियों को कुचलने की नीति जारी रखती थी। क्रांतिकारियों का मार्ग अत्यंत कठिन था। कांग्रेस ने भारत की जनता से करोड़ों रुपयों का चंदा एकत्रित किया जबकि क्रांतिकारियों के पास आर्थिक संसाधनों का अभाव रहता था। सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त ने लिखा है- ‘हमारी जाति की मुरझाई हुई मनोवृत्ति पर शहीदों के खून की वह वर्षा काफी उत्तेजक सिद्ध हुई। जिस वन्देमातरम् के कहने पर लोग मारे जाते थे, जन आन्दोलन जब एक स्वप्न था, उस जमाने में इन लोगों ने जो हिम्मत की, उसे कोई अन्धा, मूर्ख, कायर भले ही छोटा बताये, किन्तु हमारी जाति के मन पर उसका जो असर पड़ा, वह बहुत महत्त्वपूर्ण था।’

उपरोक्त तथ्यों के आलोक में निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि क्रांतिकारी आन्दोलन के अभाव में, कांग्रेस द्वारा चलाये जा रहे राष्ट्रीय आन्दोलन की सफलता संदिग्ध थी। दक्षिण अफ्रीका सहित कई देशों का उदाहरण हमारे सामने है। यदि गोरी सरकार, सत्याग्रहों, असहयोग तथा उपवासों से डर कर आजादी देती तो इन देशों को अपनी स्वतंत्रता के लिये उतना रक्त नहीं बहाना पड़ता जितना कि उन्होंने बहाया। इसलिए भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में क्रांतिकारी आन्दोलन का उतना ही महत्त्व है जितना कांग्रेस द्वारा चलाये गये संवैधानिक आन्दोलन का।

अध्याय – 66 : भारतीय राजनीति में गांधीजी का योगदान – 1

0

बीसवीं सदी में भारत की राजनीति में गांधी का पदार्पण, बीसवीं शताब्दी की प्रमुख घटनाओं में से एक है। उन्होंने कांग्रेस के चरित्र एवं आंदोलन की दिशा को नया स्वरूप प्रदान किया तथा देश में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन को अपने विचारों के अनुसार नवीन दिशा दी।

भारत की राजनीति में गांधी के पदार्पण के समय दो महत्त्वपूर्ण घटनायें घटीं। इनमें से पहली घटना अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर थी जो अँग्रेजों द्वारा 11 नवम्बर 1918 को प्रथम विश्वयुद्ध में विजय प्राप्त करने के रूप में हुई। दूसरी घटना राष्ट्रीय स्तर पर थी जो 1 अगस्त 1920 को बालगंगाधर तिलक की मृत्यु के रूप में घटित हुई। 

इन दोनों ही घटनाओं ने अँग्रेजों को नया आत्म-विश्वास प्रदान किया। अब वे नई संभावनाओं के साथ भारत पर शासन कर सकते थे।

जन्म और शिक्षा

मोहनदास करमचन्द गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबन्दर कस्बे में एक वैश्य परिवार में हुआ। उनके पिता करमचन्द गांधी पोरबन्दर, राजकोट और बांकानेर रियासतों के दीवान रहे। इनकी माता पुतली बाई अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। गांधी के जीवन पर पुतली बाई का काफी प्रभाव पड़ा।

1876 ई. में मोहनदास, अपने माता-पिता के साथ राजकोट चले गये। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा वहीं हुई। 1881 ई. में उन्होंने हाई स्कूल में प्रवेश किया। 1883 ई. में कस्तूर बाई से उनका विवाह हुआ। 1887 ई. में गांधीजी ने मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। 1888 ई. में वे बैरिस्टर बनने के लिए इंग्लैण्ड गये।

1891 ई. में वे बैरिस्टर बनकर भारत लौटे। भारत लौटकर गांधी ने राजकोट तथा बम्बई में वकालत आरम्भ की किन्तु उन्हें इस कार्य में सफलता नहीं मिली। कुछ समय के लिये उन्होंने पोरबन्दर रियासत का न्यायिक कार्य भी किया परन्तु वहाँ उनका मन नहीं लगा। 1893 ई. में उन्हें दादा अब्दुल्ला एण्ड कम्पनी नामक मुस्लिम व्यापारिक संस्था के दक्षिण अफ्रीका के कानूनी कार्यों की देखरेख का काम मिला और वे दक्षिण अफ्रीका के डरबन नगर चले गये।

दक्षिण अफ्रीका में संघर्ष

मोहनदास गांधी, दक्षिण अफ्रीका के नाटाल सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में पंजीकृत होने वाले प्रथम भारतीय थे। उन दिनों दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार भारतीयों तथा अफ्रीकियों के प्रति रंगभेद की नीति अपनाती थी जिससे उन्हें कई प्रकार के कष्ट उठाने पड़ते थे। एक बार गांधी को रेल से प्रिटोरिया की यात्रा करने के दौरान, रंगभेद का व्यक्तिगत अनुभव हुआ।

उन्होंने दक्षिणी अफ्रीका सरकार की रंगभेद एवं दमन की नीति का विरोध किया। उन्होंने अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों को संगठित करके सत्याग्रह आन्दोलन छेड़ दिया। मई 1894 में गांधी जी ने नाटाल इण्डियन कांग्रेस की स्थापना की।

1896 ई. में गांधीजी कुछ समय के लिये भारत आये तथा उसी वर्ष वे अपने परिवार के साथ पुनः दक्षिण अफ्रीका चले गये। डरबन में उग्रवादी दक्षिण अफ्रीकी श्वेतों ने गांधीजी के साथ अत्यंत दुर्व्यवहार किया। इस पर गांधी ने लगातार आठ वर्षों तक गोरी सरकार के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा। उन्होंने अनिवार्य पंजीकरण, हस्त-मुद्रण, अन्तःप्रन्तीय प्रवास पर प्रतिबन्ध, बन्धक मजदूरों पर लगाये गये कर तथा ईसाई विवाहों के अतिरिक्त अन्य समस्त विवाहों को अमान्य ठहराने वाले कानूनों का विरोध किया।

1901 ई. में गांधी एक बार पुनः भारत लौटे परन्तु 1902 ई. में उन्हें ट्रांसवाल के एशिया वासियों तथा प्रवासी भारतीयों के निमन्त्रण पर पुनः दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा। इस बार गांधीजी ने फीनिक्स फार्म की स्थापना करके आन्दोलनकारियों को संगठित किया एवं उनके आश्रय का प्रबन्ध किया।

गांधीजी ने आन्दोलनकारियों को सरकार के काले कानून के विरुद्ध निष्क्रिय प्रतिरोध (सत्याग्रह) करने की शपथ दिलवाई। गांधीजी एक प्रतिनिधि मण्डल लेकर इंग्लैण्ड भी गये। 1907 ई. में उन्होंने निष्क्रिय प्रतिरोधी आन्दोलन चलाया जिसके लिए उन्हें दो माह के कारावास की सजा दी गई।

जनरल स्मट्स की सरकार के साथ समझौता हो जाने पर उन्हें जेल से रिहा किया गया किन्तु प्रवासी भारतीय पठानों ने इस समझौते को भारतीय हितों के विरुद्ध विश्वासघात मानते हुए गांधीजी पर प्राण-घातक हमला किया। गांधीजी बच गये, फिर भी उन्होंने हमलावरों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही नहीं की।

उधर जनरल स्मट्स की सरकार ने समझौते की शर्तों की अवहेलना करनी आरम्भ कर दी। इस पर गांधीजी ने पुनः सत्याग्रह आरम्भ कर दिया। इस बार उन्हें पुनः दो मास के कठोर कारावास की सजा दी गई। रिहाई के बाद जब गांधीजी ने फिर सत्याग्रह किया तो उन्हें पुनः गिरफ्तार करके तीन माह की सजा दी गई।

दक्षिण अफ्रीका की संघीय सरकार द्वारा तीन पौण्ड के पोल टैक्स को रद्द न करने के विरोध में नवम्बर 1913 में गांधीजी ने सत्याग्रह आन्दोलन आरम्भ किया तथा एक विशाल जुलूस का नेतृत्व करते हुए ट्रांसवाल में प्रवेश किया। इस पर उन्हें गिरफ्तार करके नौ माह के कठोर कारावास की सजा दी गई।

कुछ समय बाद ही सरकार ने उन्हें बिना शर्त रिहा कर दिया। इसके बाद जनरल स्मट्स के साथ हुए समझौते के कारण गांधीजी ने सत्याग्रह आन्दोलन समाप्त कर दिया। इसके बाद गांधीजी इंग्लैण्ड चले गये। 1914 ई. में प्रथम विश्वयुद्ध आरम्भ होने पर उन्होंने लन्दन में इण्डियन ऐम्बुलेंस कोर का गठन किया। इस संस्था ने युद्ध में घायल सैनिकों की बड़ी सेवा की। ब्रिटिश सरकार ने गांधी को युद्ध कालीन सेवा के लिये कैसरे हिन्द स्वर्ण पदक से सम्मानित किया।

भारत में वापसी

जनवरी 1915 में गांधी भारत लौट आये। 25 मई 1915 को गांधी ने अहमदाबाद में सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की जो बाद में साबरमती आश्रम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 1917 ई. में उन्होंने सत्याग्रह करके भारतीयों को बलपूर्वक ब्रिटिश उपनिवेशों में मजदूरी करने के लिए ले जाने की पद्धति बन्द करवाई तथा चम्पारन (बिहार) में नील की खेती में काम करने वाले मजदूरों और किसानों को गोरे मालिकों के अत्याचारों से मुक्ति दिलवाई।

अगले वर्ष खेड़ा में किसानों को लगान से छूट दिलवाने के लिये ‘कर नहीं’ आन्दोलन चलाया। इसी वर्ष अहमदाबाद में मिल-मजूदरों की मांगों के समर्थन में आमरण अनशन किया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

अध्याय – 67 : भारतीय राजनीति में गांधीजी का योगदान – 2

0

असहयोग आन्दोलन

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीयों ने ब्रिटिश सरकार को पूरा सहयोग दिया था और गोरी सरकार ने युद्ध समाप्ति के बाद भारतीयों को स्वशासन का अधिकार देने का आश्वासन दिया था परन्तु युद्ध की समाप्ति के बाद सरकार ने भारत सरकार अधिनियम, 1919 ई. के माध्यम से मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों की घोषणा की। यह भारतीय जनता के साथ विश्वासघात था क्योंकि इन सुधारों से भारतीयों को स्वशासन का अधिकार नहीं मिला। इससे गांधीजी को निराशा हुई किन्तु गांधीजी ने सरकार के साथ सहयोग की नीति को नहीं छोड़ा। 1919 ई. के सुधार अधिनियम से समस्त राष्ट्रवादी असन्तुष्ट थे किन्तु गांधीजी उसे कार्यान्वित करने के पक्ष में थे। उन्होंने अपने पत्र यंग इण्डिया के माध्यम से जनता से अपील की कि इन सुधारों को सफल बनाने के लिये कार्य करें।

रोलट एक्ट

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान क्रांतिकारियों को कुचलने के लिये सरकार ने भारत रक्षा अधिनियम पारित किया था। युद्ध समाप्ति के बाद इस अधिनियम की अवधि भी समाप्त होने वाली थी। फरवरी 1919 में भारत सरकार ने न्यायाधीश रोलट की अध्यक्षता में गठित समिति की रिपोर्ट के आधार पर एक विधेयक प्रस्तावित किया। यह रोलट एक्ट कहलाता है। इसके अनुसार किसी भी व्यक्ति पर सन्देह होने मात्र पर बन्दी बनाया जा सकता था और बिना मुकदमा चलाये, कितने ही समय तक जेल में रखा जा सकता था। उस पर गुप्त रूप से मुकदमा चलाकर उसे दण्डित किया जा सकता था। गांधीजी ने घोषणा की कि यदि यह विधेयक पारित किया गया तो वे इसके विरोध में सत्याग्रह करेंगे। भारत सरकार ने भारतीय नेताओं के विरोध की अनदेखी करके 21 मार्च 1919 को इस अधिनियम को लागू कर दिया। गांधीजी ने जनता से अपील की कि वे 6 अप्रैल 1919 को देशव्यापी हड़ताल करें। गांधीजी की अपील पर 6 अपै्रल को सारे देश में हड़ताल रखी गई तथा जुलूस निकाले गये। दिल्ली में जुलूस का नेतृत्व स्वामी श्रद्धानन्द ने किया। जब जुलूस दिल्ली रेलवे स्टेशन के निकट पहुँचा तब पुलिस ने जुलूस पर गोली चलाई। इससे 5 व्यक्तियों की मृत्यु हो गई तथा बहुत से लोग घायल हो गये। लाहौर में भी गोली चली। पंजाब में कई स्थानों पर उपद्रव हुए। पंजाब के उपद्रवों के समाचार सुनकर गाँधीजी 8 अप्रेल 1919 को दिल्ली की तरफ रवाना हुये। मार्ग में उन्हें सरकार का आदेश मिला कि वे दिल्ली और पंजाब में प्रविष्ट न हों। गाँधीजी ने इस आदेश को मानने से मना कर दिया। इस पर उन्हें पलवल में बंदी बनाकर वापिस भेज दिया गया।

जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड

9 अप्रेल 1919 को अमृतसर के दो लोकप्रिय नेताओं- डॉ. सत्यपाल और डॉ. किचलू को गिरफ्तार करके अज्ञात स्थान पर भेज दिया गया। इससे अमृतसर में उत्तेजना फैल गई और जनता ने अपने नेताओं के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिये जिला मजिस्ट्रेट के आवास की तरफ कूच किया। सेना ने लोगों को रोकने के लिये गोली चलाई जिससे दो व्यक्ति मर गये। जनता ने मृत व्यक्तियों के शवों को कन्धों पर डालकर जुलूस निकाला तथा अपना मार्च जारी रखा। जनता ने मार्ग में स्थित नेशनल बैंक के भवन में आग लगा दी और एक यूरोपियन मैनेजर की हत्या कर दी। जनता ने कुल पाँच अँग्रेजों की हत्या कर दी और कई भवनों में आग लगा दी। 10 अप्रेेल 1919 को ब्रिगेडियर जनरल डायर आंदोलन पर नियन्त्रण करने के लिये अमृतसर पहुँचा। उसने बहुत से लोगों को बंदी बना लिया।

13 अप्रैल 1919 को वैशाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक आम सभा आयोजित की गई। जनरल डायर ने इस सभा को असंवैधानिक घोषित कर दिया। सरकारी अधिकारियों ने सभा पर प्रतिबन्ध लगने का नोटिस नगर में अच्छी तरह नहीं घुमाया गया और हजारों लोगों को बाग में एकत्रित होने दिया। जब आठ-दस हजार लोग बाग में पहुँच गये तब जनरल डायर 200 भारतीय और 50 अँग्रेज सैनिकों के साथ जलियांवाला बाग पहुँचा। उस समय सभा की कार्यवाही शान्तिपूर्वक चल रही थी। जनरल डायर ने बिना कोई चेतावनी दिये जनता पर गोलियां चलवाईं। गोली चलाना तभी बन्द किया गया जब कारतूस समाप्त हो गये। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार इस गोलीकाण्ड में 379 लोग मारे गये और एक से दो हजार लोग घायल हुये। इस गोलीकाण्ड में मृत एवं घायल लोगों की वास्तविक संख्या अधिक थी।

इस हत्याकाण्ड से पूरे देश में अँग्रेजों के विरुद्ध घृणा फैल गई। सरकार ने इस काण्ड की जांच के लिये हण्टर समिति नियुक्त की। जनरल डायर ने हण्टर समिति के समक्ष स्वीकार किया कि उसने लोगों को तितर-बितर होने का आदेश देने के दो या तीन मिनट बाद गोली चलाने का आदेश दिया। स्पष्ट है कि इतने कम समय में आठ-दस हजार लोगों की भीड़ तितर-बितर नहीं हो सकती थी।

लाहौर, गुजरावालां, कसूर तथा अन्य स्थानों पर भी ऐसे अत्याचार किये गये। पंजाब में मार्शल-लॉ लागू कर दिया गया तथा मार्शल-लॉ के उल्लघंन के आरोप में लगभग 300 व्यक्तियों को बन्दी बनाया गया। इनमें से 15 व्यक्तियों को मृत्यु-दण्ड, 6 व्यक्तियों को हमेशा के लिये देश-निकाला और शेष व्यक्तियों को कठोर कारावास की सजा दी गई। मार्च 1920 में हण्टर समिति ने रिपोर्ट दी जिसमें सरकारी अधिकारियों के दृष्टिकोण को ठीक ठहराया गया किंतु जनरल डायर को नौकरी से हटा दिया गया। इंग्लैण्ड के समाचार पत्रों ने डायर को ब्रिटिश साम्राज्य का रक्षक घोषित किया। इंग्लैण्ड की जनता ने उसके गुजारे के लिये चन्दा एकत्रित किया। इंग्लैण्ड की सरकार ने जनरल डायर को साम्राज्य की सुरक्षा के लिए की गई सेवाओं के लिये सोर्ड ऑफ ऑनर (सम्मान की तलवार) तथा 2000 पौण्ड भेंट किये। इन कार्यवाहियों ने भारतीयों पर बहुत बुरा प्रभाव डाला। जो लोग अँग्रेजी सरकार के अच्छे शासन की प्रशंसा किया करते थे, वे भी अब सरकार से घृणा करने लगे।

खिलाफत आन्दोलन

तुर्की का सुल्तान विश्व के मुसलमानों का खलीफा कहलाता था। प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की ने इंग्लैण्ड के विरुद्ध, जर्मनी का साथ दिया था। युद्ध समाप्त होने के बाद 10 अगस्त 1919 को तुर्की के साथ सेब्रे की सन्धि हुई जिसके अनुसार तुर्की साम्राज्य का विघटन कर दिया गया तथा खलीफा को नजरबन्द कर दिया गया। अतः भारतीय मुसलमानों ने खिलाफत आन्दोलन आरम्भ किया। मौलाना मोहम्मद अली और शौकत अली इस आन्दोलन के प्रमुख नेता थे। गांधीजी ने इसे हिन्दू-मुस्लिम एकता का स्वर्णिम अवसर समझकर इस आन्दोलन का समर्थन किया। 24 नवम्बर 1919 को दिल्ली में अखिल भारतीय खिलाफत सम्मेलन हुआ जिसमें गंाधीजी को अध्यक्ष चुना गया। गांधीजी ने परामर्श दिया कि यदि अँग्रेज तुर्की-समस्या का उचित हल न निकालें तो असहयोग एवं बहिष्कार की नीति अपनाई जाये। 20 मई 1920 को खिलाफत समिति ने गांधीजी के असहयोग कार्यक्रम को स्वीकार कर लिया।

असहयोग आन्दोलन और उसकी प्रगति

जब गांधीजी को अँग्रेजों के विरुद्ध भारतीय मुसलमानों का सहयोग मिलने का पूरा विश्वास हो गया तो गांधीजी ने अँग्रेज सरकार के विरुद्ध असहयोग आन्दोलन चलाने का निश्चय किया। इसके लिए सितम्बर 1920 में कलकत्ता में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन बुलाया गया जिसकी अध्यक्षता लाला लाजपतराय ने की। इस अधिवेशन में गांधीजी के क्रमिक अहिंसक असहयोग आन्दोलन का कार्यक्रम स्वीकार किया गया। स्वयं गांधीजी द्वारा प्रस्तुत किये गये इस प्रस्ताव की तीन मांगें थीं-

(1.) खिलाफत के साथ की गई भूल सुधारी जायें,

(2.) पंजाब में की गई भूलें सुधारी जायें,

(3.) स्वराज स्थापित किया जाये। 

यदि सरकार इन मांगों को स्वीकार नहीं करती है तो जनता द्वारा असहयोग आंदोलन आरम्भ किया जाये जिसके अंतर्गत निम्नलिखित कार्य किये जायें-

(1.) सरकारी उपाधियाँ व अवैतनिक पदों को छोड़ दिया जाये तथा विभिन्न सरकारी संस्थाओं में जो लोग नामित हुए हैं, वे अपने पदों से त्यागपत्र दे दें।

(2.) सरकारी स्वागत समारोहों तथा सरकारी अधिकारियों द्वारा उनके सम्मान में किये जाने वाले अन्य सरकारी व अर्द्ध सरकारी उत्सवों में भाग न लें।

(3.) सरकारी तथा सरकारी मान्यता प्राप्त स्कूलों एवं कॉलेजों का बहिष्कार किया जाये तथा भारतीय छात्रों के लिए राष्ट्रीय विद्यापीठों की स्थापना की जाये।

(4.) वकीलों व मुवक्किलों द्वारा ब्रिटिश अदालतों का बहिष्कार किया जाये तथा आपसी विवादों के लिए पंचायती अदालतें स्थापित की जायें।

(5.) कौंसिलों के चुनाव में खड़े प्रत्याशी अपने नाम वापिस लें। यदि कोई प्रत्याशी चुनाव लड़े तो मतदाता उसे वोट न दें।

(6.) सैनिक, क्लर्क तथा श्रमिक, मेसोपोटामिया में सेवाएं देने से मना करें।

(7.) विदेशी सामान का बहिष्कार किया जाये।

देशबंधु चितरंजनदास, लाला लाजपतराय, श्रीमती ऐनीबेसेंट, विपिनचन्द्र पाल, मदनमोहन मालवीय तथा मुहम्मदअली जिन्ना आदि नेताओं ने गांधीजी द्वारा प्रस्तुत लगभग समस्त प्रस्तावों का विरोध किया। नई विधान परिषदों के बायकाट के प्रस्ताव पर इन नेताओं ने विशेष रूप से कड़ा विरोध जताया किन्तु गांधीजी ने पं. मोतीलाल नेहरू और अली बन्धुओं के समर्थन से प्रस्ताव पारित करवा लिया। इसके बाद गांधीजी और अली बन्धुओं ने असहयोग आन्दोलन के पक्ष में वातावरण तैयार करने के लिये देश के विभिन्न भागों का दौरा किया। नवम्बर 1920 में नये विधान मण्डलों के चुनाव हुए। देश के लगभग दो-तिहाई मतदाता वोट देने नहीं गये। स्पष्ट है कि कांग्रेस को जनता का भारी समर्थन मिला।

नागपुर अधिवेशन

दिसम्बर 1920 में नागपुर में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ जिसकी अध्यक्षता विजय राघवाचार्य ने की। इस अधिवेशन में असहयोग के प्रस्ताव को दोहराया गया तथा उसके कार्यक्रम के अन्त में एक धारा जोड़ दी गई कि यदि आवश्यकता पड़ी तो कर देने से मना किया जा सकता है। इस अधिवेशन के माध्यम से जन-साधारण का आह्वान किया गया कि वे चरखा कातें तथा कपड़ा बुनें। नागपुर अधिवेशन में मजदूरों और किसानों के सम्बन्ध में भी प्रस्ताव आये। उनकी न्यायोचित मांगों का समर्थन किया गया और सरकारी दमन की निन्दा की गई। इस अधिवेशन में भाषा के आधार पर प्रान्तों के गठन का प्रस्ताव भी पारित किया गया।

आन्दोलन की प्रगति

कांग्रेस अधिवेशन में असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिये जाने के बाद रवीन्द्रनाथ ठाकुर आदि ख्याति प्राप्त लोगों ने तथा जन साधारण ने सरकारी उपाधियाँ लौटा दीं। गांधीजी ने कैसरे-हिन्द स्वर्ण पदक तथा जुल युद्ध पदक लौटा दिये। गांधीजी और अली बन्धुओं ने देश भर में दौरे करके सार्वजनिक सभाएं कीं और स्थानीय लोगों से सम्पर्क करके असहयोग आंदोलन को समर्थन देने का आह्वान किया। चितरंजनदास, मोतीलाल नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, विट्ठलभाई एवं वल्लभभाई पटेल ने वकालत छोड़ दी। सरकारी स्कूलों व न्यायलायों का बहिष्कार होने लगा। कांग्रेस के आह्वान पर काशी विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ, तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ, राष्ट्रीय कॉलेज लाहौर, जामिया मिलिया इस्लामिया दिल्ली अािद शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की गई। सेठ जमनालाल बजाज ने उन वकीलों को जीवन निर्वाह के लिए एक लाख रुपया दिया जिन्होंने अपनी वकालत छोड़कर असहयोग आन्दोलन में भाग लिया था। जब ड्यूक ऑफ कनाट 1919 के सुधारों का उद्घाटन करने भारत आया तो उसका स्वागत हड़तालों से किया गया। स्थान-स्थान पर विदेशी कपड़ों की होलियां जलाई गईं और सार्वजनिक रूप से हजारों चरखे काते गये।

इस सफलता को देखकर गांधीजी ने भविष्यवाणी की कि 31 दिसम्बर 1921 तक स्वराज्य आ जायेगा। करोड़ों लोगों ने उनकी बात का विश्वास किया। जनता गांधीजी के आह्वान पर बड़े से बड़ा बलिदान करने को तैयार थी परन्तु कोई यह नहीं जानता था कि एक साल में स्वराज किस रास्ते से आयेगा? 1921 ई. में जब देश में असहयोग आन्दोलन चरम पर था, ब्रिटिश सरकार ने अपने युवराज प्रिन्स ऑफ वेल्स को भारत भेजा। 17 नवम्बर 1921 को प्रिन्स ऑफ वेल्स बम्बई पहुँचा। ब्रिटिश अधिकारियों ने उसके शाही स्वागत की तैयारी की किन्तु बम्बई की जनता ने उसका स्वागत हड़ताल और विरोध प्रदर्शनों से किया। इस हड़ताल में बम्बई के हजारों श्रमिकों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं जिससे बहुत से लोग मारे गये। सैंकड़ों लोगों को बंदी बनाया गया। सरकारी आंकड़ों के अनुसार पुलिस की गोली से 30 लोग मरे और 200 से अधिक लोगों को बंदी बनाया गया। प्रिन्स ऑफ वेल्स भारत में जहाँ भी गया, भारतवासियों ने उसका स्वागत इसी तरह से किया।

जब बम्बई में उग्र विरोध प्रदर्शन हुए तथा पुलिस ने गोली चलाई तो गांधीजी ने पांच दिन का उपवास कर प्रायश्चित किया और कांग्रेस वर्किंग कमेटी से मांग की कि बम्बई की घटनाओं के कारण आन्दोलन को वापस लेने के प्रश्न पर विचार करना चाहिए। वर्किंग कमेटी ने इस परिस्थिति पर विचार किया और कांग्रेस कमेटियों को पूर्ण अहिंसा का वातावरण स्थापित करने का आदेश दिया। उधर सरकार ने अपना दमन-चक्र तेज कर दिया। मुहम्मद अली, मौलाना शौकत अली, मोतीलाल नेहरू, चितरंजन दास, लाला लापतराय, डॉ. किचलू आदि नेताओं एवं हजारों स्वयं सेवक आदि को बंदी बना लिया गया। 1921 ई. के अन्त तक लगभग 20 हजार राजनीतिक कार्यकर्ता विभिन्न जेलों में बन्द थे। दिसम्बर 1921 में मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में एक शिष्ट मण्डल वायसराय से मिला। दोनों पक्षों के बीच एक समझौता वार्त्ता हुई परन्तु असफल रही। इसके बाद धर-पकड़ और तेज हो गई। 1922 ई. में देश की विभिन्न जेलों में 30 हजार राजनीतिक बंदी थे।

आन्दोलन का स्थगित किया जाना

दिसम्बर 1921 में अहमदाबाद में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ। निर्वाचित अध्यक्ष देशबन्धु चितरंजन दास के जेल में होने के कारण दिल्ली के हकीम अजमल खाँ ने इस अधिवेशन की अध्यक्षता की। अधिवेशन में घोषणा की गई कि देश में तब तक अहिंसक असहयोग आंदोलन जोरदार ढंग से चलाया जाये जब तक स्वराज स्थापित नहीं हो जाता। गांधीजी को कांग्रेस का डिक्टेटर नियुक्त किया गया और कांग्रेस महासमिति के सारे अधिकार उनको सौंप दिये गये। फरवरी 1922 में गांधीजी ने वायसराय लॉर्ड रीडिंग को पत्र लिखकर सूचित किया कि यदि एक सप्ताह में सरकार ने दमन चक्र बन्द नहीं किया तो कर न देने का आन्दोलन चलाया जायेगा। 5 फरवरी 1922 को गोरखपुर जिले में चौरी-चौरा नामक स्थान पर पुलिस ने अहिंसात्मक आन्दोलनकारियों पर गोली चलाई। जब उनकी गोलियां समाप्त हो गयीं, तब वे भागकर थाने में छिप गये। उत्तेजित भीड़ ने थाने को आग लगा दी जिससे एक पुलिस सब इंस्पेक्टर और 21 सिपाही जलकर राख हो गये। गांधीजी हिंसा के पक्ष में नहीं थे, अतः उन्होंने आन्दोलन स्थगित करने की घोषणा कर दी। अचानक आन्दोलन स्थगित करने के कारण अनेेक नेताओं ने गांधीजी की तीव्र आलोचना की।

सुभाषचन्द्र बोस ने लिखा है- ‘डिक्टेटर का फरमान उस वक्त मान लिया गया किन्तु कांग्रेस शिविर में नियमित विद्रोह फैल गया। कोई भी न समझ सका कि महात्मा ने चौरीचोरा की विच्छिन्न घटना का इस्तेमाल सारे देश के आन्दोलन का गला घोट देने में क्यों किया….. जबकि जनता का जोश उबल रहा था, उस वक्त पीछे हटने का आदेश देना राष्ट्र के दुर्भाग्य के अलावा और कुछ न था।’

पं. नेहरू ने लिखा है- ‘ऐसे समय, जबकि लगता था कि हम अपनी स्थिति मजबूत कर रहे हैं और सब मोर्चों पर आगे बढ़ रहे हैं, अपने संघर्ष के बन्द कर दिये जाने का समाचार हमें मिला तो हम बहुत नाराज हुए।’

यद्यपि प्रकट रूप से यह आन्दोलन केवल चौरी-चौरा की घटना के कारण स्थगित किया गया था तथापि वास्तविकता यह थी कि बाहर से शक्तिशाली दिखाई देने वाला यह आन्दोलन आंतरिक रूप से कमजोर हो रहा था। सरकार की दमनकारी नीति से जनता में निराशा और भय उत्पन्न हो रहा था। 1921 ई. के अन्त में मलाबार के मोपलाओं द्वारा हिन्दुओं पर किये गये अत्याचारों से भी आन्दोलन को क्षति पहुँची थी। आंदोलन स्थगित किये जाने के बाद सरकार ने 10 मार्च 1922 को गांधीजी को बंदी बना लिया और उन्हें राजद्रोह फैलाने के अपराध में 6 वर्ष का साधारण कारावास दिया गया। 3 फरवरी 1924 को बीमारी के कारण गांधीजी को छोड़ दिया गया।

आन्दोलन की असफलता के कारण

बहुत से इतिहासकारों ने स्वीकार किया है कि गांधीजी द्वारा आन्दोलन स्थगित किये जाने का अभिप्राय उसकी असफलता को स्वीकार करना था। आन्दोलन की असफलता के कुछ निश्चित कारण थे-

(1.) 1920-21 ई. में होने वाले विधानमंडलों के चुनाव का बहिष्कार किया गया। इस कारण कांग्रेसी सदस्यों ने निर्वाचन में भाग नहीं लिया किन्तु सरकार के वफादार और अन्य लोगों को निर्वाचन में भाग लेने से नहीं रोका जा सका और वे विधान मण्डलों में प्रवेश पा गए। विधान मण्डलों के बहिष्कार से कांग्रेस घाटे में रही।

(2.) गांधीजी ने अपने सहयोगियों से परामर्श किये बिना ही अचानक आन्दोलन स्थगित कर दिया। देशबन्धु चितरंजन दास, मोतीलाल नेहरू, लाला लाजपतराय, सुभाषचन्द्र बोस आदि नेताओं ने गांधीजी के इस कार्य की आलोचना की। आन्देालन को उस समय समाप्त करना बहुत बड़ी भूल था, जबकि वह अपने चरम पर था।

(3.) यह सही है कि आन्दोलन पूर्णतः अहिंसात्मक नहीं रह सका किन्तु हिंसा के लिए आन्दोलनकारी, उत्तरदायी नहीं थे। ब्रिटिश सरकार ने शान्तिपूर्ण सत्याग्रहियों पर अमानवीय अत्याचार करके उन्हें हिंसा करने के लिये उकसाया था।

(4.) गांधीजी ने ब्रिटिश शासकों की हिंसा, गोली वर्षा और उनके द्वारा की गई सैकड़ों भारतीयों की हत्या की निन्दा में एक शब्द भी नहीं कहकर अपनी लोकप्रियता को खो दिया। बहुत से विचारकों की मान्यता है कि यदि आन्दोलन कुछ दिन और चलता तो संकट-ग्रस्त अँग्रेज सरकार को कुछ समझौता करने के लिए विवश होना पड़ता किन्तु अचानक स्थगन से कुछ भी प्राप्त नहीं हो सका।

(5.) खिलाफत, मुसलमानों का धार्मिक मामला था। तुर्की के मुसलमान भी इसमें रुचि नहीं रखते थे किंतु गांधीजी ने मुसलमानों का सहयोग प्राप्त करने के लिए इसे अपना निजी मामला बना लिया। इस प्रकार गांधीजी इस राष्ट्रीय आन्दोलन को संर्कीणता की ओर ले गये। ऐसी स्थिति में इसका असफल होना स्वाभाविक था।

(6.) मुसलमानों ने आन्दोलन के अहिंसात्मक स्वरूप को ठीक से समझा ही नहीं था। अतः अचानक आन्दोलन समाप्त करने पर मुसलमानों ने यह प्रचार करना आरम्भ किया कि गांधीजी ने अपने स्वार्थों की सिद्धि के लिए मुसलमानों को गुमराह किया। इससे देश में उत्तेजना फैल गई और साम्प्रदायिक दंगे आरम्भ हो गये।

(7.) सरकार का दमन-चक्र अत्यंत कठोर था। सरकार द्वारा दी जाने वाली अमानवीय यातनाएं सहन करना आम आदमी के लिये कठिन था। अतः आन्दोलन का गतिशील रहना असम्भव था।

असहयोग आन्दोलन का महत्त्व

असहयोग आन्दोलन एक वर्ष के भीतर स्वराज प्राप्त करने में असफल रहा। इससे जनता में गांधीजी के विरुद्ध असन्तोष और निराशा की लहर फैल गई। फिर भी, इस आन्दोलन के महत्त्व से इन्कार नहीं किया जा सकता। अनेक क्षेत्रों में इसके अच्छे परिणाम निकले-

(1.) असहयोग आन्दोलन ने राष्ट्रीय आन्दोलन को नया स्वरूप दिया। राष्ट्रीय आन्दोलन के पहले चरण में नौरोजी तथा गोखले आदि नरमपंथी नेताओं ने भारतीयों को यह मार्ग दिखाया कि सरकार को याचिकाएं देकर अपनी बात मनवाई जाये। दूसरे चरण में लाल, बाल तथा पाल ने राजनीतिक भिक्षावृत्ति त्यागने का मार्ग दिखाया। इस तीसरे चरण में गांधी ने भारतीयों को सरकार के विरुद्ध सत्याग्रह का मार्ग दिखाया।

(2.) इस आन्दोलन से भारतीयों में राजनीतिक जागृति का और अधिक विकास हुआ तथा स्वराज की मांग प्रबल हुई। पं. जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है- ‘गांधी के असहयोग आन्दोलन ने आत्मनिर्भरता एवं अपनी शक्ति संचित करने का पाठ पढ़ाया। सरकार भारतीयों के ऐच्छिक अथवा अनैच्छिक सहयोग पर निर्भर करती है और यदि यह सहयोग नहीं दिया गया तो सरकार का सम्पूर्ण ढांचा कम से कम सिद्धान्ततः लड़खड़ा जायेगा। सरकार पर दबाव डालने का यही सर्वाधिक प्रभावशाली ढंग है।’

(3.) इस आंदोलन में पहली बार कांग्रेस ने सविनय प्रार्थना पत्र भेजने की नीति का परित्याग करके ब्रिटिश सरकार से सीधी टक्कर ली। अतः प्रत्येक व्यक्ति में राष्ट्रीय आन्दोलन में सहयोग देने तथा देश के लिए कुछ बलिदान करने की भावना जागृत हुई। इससे कांग्रेस का आन्दोनल जन-साधारण में गहराई तक प्रवेश कर गया।

(4.) असहयोग आंदोलन के माध्यम से गांधीजी ने देशवासियों को सरकार की आलोचना करना सिखाया। इससे पूर्व जनता, सरकार की आलोचना करने से डरती थी किन्तु अब वह निर्भीक हो गयी तथा अब जेल जाना देश-भक्ति का प्रतीक बन गया।

(5.) गांधीजी ने स्वराज प्राप्ति के लिए अहिंसात्मक सत्याग्रह का जो अस्त्र हाथ में लिया, उसका अँग्रेज सरकार के पास कोई उत्तर नहीं था। शान्त सत्याग्रहियों पर गोली चलाना, अथवा लाठियां बरसाना घृणित समझा गया। इससे जनमत, सरकार के प्रबल विरुद्ध हो गया।

(6.) इस आंदोलन ने सरकार के मन में जनता का भय उत्पन्न कर दिया। बम्बई के तत्कालीन गवर्नर लॉर्ड लायड ने लिखा है- ‘गांधीजी ने हमें डरा दिया था। उनके कार्यक्रम ने हमारी जेलें भर दी थीं। आप, लोगों को सदैव गिरफ्तार करते नहीं रह सकते, तब जबकि उनकी संख्या 31,90,00,000 हो। अगर उन लोगों ने गांधीजी का दूसरा कदम उठाया होता तथा टैक्स देने से इन्कार कर दिया होता तो ईश्वर जाने, तब हम कहाँ होते।’

अतः भविष्य में होने वाले राष्ट्रीय आन्दोलन के लिये यह हथियार महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ।

(7.) आन्दोलन के दौरान कांग्रेस ने राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाओं की स्थापना, चरखा चलाना व खादी तैयार करना, स्वदेशी माल को अपनाना आदि कई रचनात्मक कार्य हाथ में लिये। विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार से भारतीयों के आर्थिक शोषण में कमी आई।

अध्याय – 68 : भारतीय राजनीति में गांधीजी का योगदान – 3

0

असहयोग आन्दोलन के बाद भारतीय राजनीति

भारत में 1920 ई. में असहयोग आंदोलन आरम्भ हुआ जो लगभग विफल हो गया। इसके दस साल बाद 1930 ई. में सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारम्भ हुआ। इन दो बड़े आंदोलनों के बीच के 10 साल के अंतराल में भारत में अनेक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक घटनाएं घटित हुईं। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार से है-

(1.) स्वराज्य दल का गठन

मोतीलाल नेहरू और चितरंजन दास आदि बहुत से नेताओं का विचार था कि कांग्रेसी नेताओं को विधान मण्डलों में प्रवेश करना चाहिये। क्योंकि ऐसा करने से सरकार के वफादार एवं उदारवादी लोगों को विधान मण्डलों में जाने का अवसर नहीं मिलेगा तथा कांग्रेस द्वारा असहयोग का कार्यक्रम कौंसिलों में भी ले जाया जा सकेगा। अतः विधानमंडलों का बहिष्कार सम्बन्धी निर्णय रद्द किया जाना चाहिए। इस समय गांधीजी जेल में थे। इसलिये दिसम्बर 1922 के गया अधिवेशन में चितरंजन दास ने इसके सम्बन्ध में प्रस्ताव रखा किन्तु राजगोपालचारी, डॉ. अन्सारी तथा सरदार पटेल आदि नेताओं के विरोध के कारण चितरंजन दास का प्रस्ताव पारित नहीं हो सका। अतः चितरंजनदास तथा मोतीलाल नेहरू आदि नेताओं ने कांग्रेस से त्यागपत्र देकर मार्च 1923 में स्वराज्य पार्टी की स्थापना की। सितम्बर 1923 में दिल्ली में कांग्रेस का एक विशेष अधिवेशन बुलाया गया जिसमें कांग्रेस ने अपने सदस्यों को आगामी निर्वाचन में मतदान करने तथा चुनाव लड़ने की स्वीकृति प्रदान की तथा स्वराज्य दल के कार्यक्रम को स्वीकार कर लिया। 1924 ई. में जेल से रिहा होने के बाद गांधीजी ने भी स्वराज्य दल के कार्यक्रम को समर्थन दे दिया।

स्वराज्य दल का मुख्य उद्देश्य विधान मण्डलों में प्रवेश करके सरकार के समक्ष बाधाएं खड़ी करना तथा सरकारी तंत्र को असफल बनाना था। 1923 ई. के चुनावों में स्वराज्य दल को आशातीत सफलता मिली। स्वराज्य दल के नेता मोतीलाल नेहरू ने केन्द्रीय विधान मण्डल में 8 फरवरी 1924 को भारत के लिये उत्तरदायी सरकार स्थापित करने, गोलमेज सम्मेलन बुलाने तथा भारत के लिए नये संविधान का निर्माण करवाने का प्रस्ताव पारित करवा लिया। साथ ही वार्षिक बजट की मांगों को अस्वीकार कर दिया। इस कारण गवर्नर जनरल को अपनी शक्तियों का प्रयोग करके वार्षिक बजट को पारित करना पड़ा। सरकार के कड़े विरोध के उपरांत भी विधान मण्डल में 1918 ई. के दमनकारी कानूनों के विरुद्ध राजनीतिक नेताओं की रिहाई के प्रस्ताव पारित किये गये। फरवरी 1924 के प्रस्तावों में सरकार ने 1919 के द्वैध शासन को मौलिक रूप से ठीक बताया। मुडिमैन समिति की रिपोर्ट केन्द्रीय विधान मण्डल के समक्ष प्रस्तुत की गई। सरकार द्वारा कड़ा विरोध किये जाने पर भी, मोतीलाल नेहरू, मुडिमैन समिति की रिपोर्ट के विरुद्ध प्रस्ताव पारित करवाने में सफल रहे। 1925 ई. में देशबन्धु चितरंजन दास की मृत्यु हो जाने से स्वराज्य दल कमजोर पड़ गया। मार्च 1926 में कांग्रेस ने पुनः विधान मण्डलों के बहिष्कार की घोषणा की। अतः स्वराज्य दल ने भी विधान मण्डलों में प्रवेश का कार्यक्रम स्थगित कर दिया। इसके बाद भारतीय राजनीति से स्वराज्य दल का अस्तित्त्व समाप्त हो गया।

(2.) साइमन कमीशन की नियुक्ति

8 नवम्बर 1927 को ब्रिटिश सरकार ने भारत में उत्तरदायी सरकार की प्रगति की जांच के लिये सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में ब्रिटिश संसदों का एक कमीशन नियुक्त किया। इसमें साइमन सहित सातों सदस्य अँग्रेज थे। इस कारण इसे व्हाइट कमीशन भी कहा जाता है। इस कमीशन में किसी भारतीय को न लिये जाने से भारतीयों को असंतोष हुआ और भारत के समस्त राजनीतिक दलों ने साइमन कमीशन का बहिष्कार किया। जहाँ भी साइमन कमीशन गया, वहाँ काले झण्डों, हड़तालों, प्रदर्शनों और ‘साइमन कमीशन वापस जाओ’ के नारे से उसका विरोध किया गया। लाहौर में साइमन कमीशन के विरोध में लाला लाजपतराय के नेतृत्व में एक जुलूस निकाला गया। पुलिस अधिकारी साण्डर्स ने लालाजी के सिर पर लाठी के प्रहार किये जिससे लालाजी बुरी तरह घायल हो गये और 17 नवम्बर 1928 को उनका निधन हो गया। इस पर भगतसिंह आदि क्रांतिकारियों ने 17 दिसम्बर 1928 को साण्डर्स की हत्या करके लालाजी की मृत्यु का बदला लिया।

मई 1930 में साइमन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट दी जिसे 7 जून 1930 को प्रकाशित किया गया। इस रिपोर्ट में औपनिवेशिक स्वराज्य का कहीं उल्लेख नहीं था और केन्द्र में उत्तरदायी सरकार की स्थापना के लिये कुछ नहीं कहा गया था। प्रतिरक्षा को भारतीयों के हाथों में नहीं सौंपा गया था। प्रान्तों को स्वायत्तता देने की बात कही गई किंतु गवर्नर की विशेष शक्तियों के माध्यम से उस स्वायत्तता को सीमित कर दिया गया। सर शिवस्वामी अय्यर ने इस रिपोर्ट को रद्दी की टोकरी में फैंकने योग्य बताया। कूपलैंड ने इसे राजनीतिशास्त्र के पुस्तकालय हेतु उच्चकोटि की रचना बताया। फिर भी 1935 के भारत सरकार अधिनियम में इस रिपोर्ट की अनेक बातें ली गईं।

(3.) नेहरू रिपोर्ट

जब भारत में साइमन कमीशन का सर्वत्र बहिष्कार हुआ तब भारत सचिव लॉर्ड ब्रेकन हेड ने भारतीयों को ऐसा संविधान बनाने की चुनौती दी जिससे समस्त भारतीय पक्ष सहमत हों। कांग्रेस ने इस चुनौती को स्वीकार कर लिया तथा 28 फरवरी 1928 को दिल्ली में एक सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया। इस सम्मेलन की 25 बैठकें हुईं परन्तु हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग के विरोधी रुख के कारण साम्प्रदायिक प्रश्नों के सम्बन्ध में कुछ भी निर्णय नहीं हो सका। फिर भी, कुछ मूलभूत बातों पर सहमति हो गई और 10 मई 1928 को बम्बई में दुबारा सर्वदलीय बैठक हुई जिसमें भारत के संविधान का मसविदा तैयार करने के लिए मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की गई। इस समिति में सुभाषचन्द्र बोस, सर तेजबहादुर सप्रू, शुऐब कुरेशी, सरदार मंगलसिंह, एम. एम. अणे, सर अली इमाम और जी. आर. प्रधान सहित कुल आठ सदस्य थे। इस समिति की रिपोर्ट को नेहरू रिपोर्ट कहा जाता है। इस रिपोर्ट की मुख्य बातें इस प्रकार से थीं-

(1.) भारत को तत्काल औपनिवेशिक स्वराज प्रदान किया जाये। केन्द्र व प्रान्तों में पूर्ण उत्तरदायी शासन स्थापित किया जाये तथा कार्यकारिणी को विधान मण्डल के प्रति उत्तरदायी बनाया जाये।

(2.) भारत में संघीय व्यवस्था लागू की जाये और संघीय आधार पर शक्तियों का विभाजन किया जाये। अवशिष्ट शक्तियां केन्द्र के पास रखी जायें।

(3.) साम्प्रदायिक चुनाव पद्धति तथा अति-प्रतिनिधित्व (जनसंख्या से अधिक स्थान) को स्वीकृत किया जाये किन्तु अल्पसंख्यकों को सांस्कृतिक, स्वायत्तता तथा सुरक्षा आदि की गारण्टी दी जाये।

(4.) सिन्ध प्रांत को बम्बई प्रांत से पृथक किया जाये तथा उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त को अन्य प्रान्तों के समकक्ष दर्जा दिया जाये।

(5.) भारत सरकार की कानूनी शक्तियां संसद के पास रहें जो ब्रिटिश सम्राट, सीनेट और प्रतिनिधि सभा से मिलकर बनें। प्रतिनिधि सभा तथा प्रान्तीय विधान परिषदों के चुनावों में 22 वर्ष या अधिक आयु के व्यक्ति को भाग लेने का अधिकार हो जो कानून द्वारा अयोग्य घोषित न किया गया हो।

(6.) शासन की कार्यकारिणी शक्ति बादशाह के पास रहे और गर्वनर जनरल, ब्रिटिश एम्परर के प्रतिनिधि की हैसियत से, कानून और संविधान के अनुसार उस शक्ति का प्रयोग करे। गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद् में प्रधानमंत्री सहित सात मंत्री हों। प्रधानमंत्री की नियुक्ति गवर्नर जनरल द्वारा और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति प्रधानमंत्री की सलाह के अनुसार गवर्नर जनरल द्वारा की जाये। कार्यकारिणी परिषद् सामूहिक रूप से संसद के प्रति उत्तरदायी हो।

(7.) एक प्रतिरक्षा समिति बनाई जाये। प्रतिरक्षा सम्बन्धी व्यय की स्वीकृति प्रतिनिधि सभा से लेने की व्यवस्था हो किन्तु भारत पर विदेशी आक्रमण होने या इसकी संभावना होने पर कार्यकारिणी को किसी भी धनराशि को खर्च करने का अधिकार हो।

(8.) प्रिवी कौंसिल की तमाम अपीलें बन्द करके भारत में एक उच्चतम न्यायालय स्थापित किया जाये जो संविधान की व्याख्या करे तथा प्रान्तीय विवादों पर निर्णय दे।

यद्यपि नेहरू रिपोर्ट को तैयार करते समय भारत के समस्त पक्षों से विचार-विमर्श किया गया था किंतु रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद विभिन्न दलों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से सोचना आरम्भ कर दिया। मुस्लिम लीग में इस रिपोर्ट को स्वीकार किये जाने के सम्बन्ध में तीव्र मतभेद उठ खड़े हुए। अली बन्धुओं ने विभिन्न प्रान्तीय मुस्लिम संगठनों को इसे स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित किया जबकि मुहम्मद अली जिन्ना इसमें कुछ ऐसे मौलिक परिवर्तन चाहते थे जिससे इसका स्वरूप ही बदल जाये। स्वयं कांग्रेस में भी काफी मतभेद उत्पन्न हो गये। दिसम्बर 1928 में कलकत्ता कांग्रेस के अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में युवा कांग्रेसियों ने यह प्रस्ताव पारित करवा लिया कि यदि ब्रिटिश संसद 31 दिसम्बर 1929 तक इस रिपोर्ट को स्वीकार नहीं करती है तो कांग्रेस का लक्ष्य डोमिनियन स्टेटस की बजाय पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करना हो जायेगा।

(4.) पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव

 मई 1929 में इंग्लैण्ड में चुनाव हुए जिनमें अनुदार टोरी दल की पराजय हुई और रेम्जे मेक्डोनल्ड के नेतृत्व में मजदूर दल की सरकार बनी। चुनाव के बाद मेक्डोनल्ड ने भारत को अधिराज्य स्थिति देने की घोषणा की तथा अक्टूबर 1929 में भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड इरविन को विचार-विमर्श के लिए इंग्लैंण्ड बुलाया। इंग्लैण्ड से लौटने के बाद इरविन ने भी अधिराज्य स्थिति का दर्जा देने तथा गोलमेज सम्मेलन बुलाये जाने का संकेत दिया परन्तु उन्होंने यह नहीं बताया कि ऐसा कब तक हो पायेगा। इंग्लैण्ड में अनुदार दल इस योजना का घोर विरोध कर रहा था। गांधीजी ने गवर्नर जनरल से भेंट करके वास्तविक स्थिति की जानकारी चाही परन्तु उन्हें निराश होना पड़ा। इसी बीच ब्रिटिश सरकार ने नेहरू रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।

दिसम्बर 1929 में अत्यंत तनावपूर्ण वातावरण में कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन आयोजित हुआ। कांग्रेस अब तक औपनिवेशिक स्वराज की मांग करती रही थी किंतु इस अधिवेशन में कांग्रेस ने अब तक की नीति का परित्याग करते हुए पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पारित किया।  कांग्रेस कमेटी को यह अधिकार दिया गया कि वह उपयुक्त समय पर सविनय अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ करे। रावी नदी के तट पर 31 दिसम्बर 1929 को युवा जवाहरलाल नेहरू ने स्वतंत्रता का प्रतीक तिरंगा झंडा फहराया। यह निर्णय लिया गया कि प्रत्येक वर्ष 26 जनवरी का दिन स्वाधीनता दिवस के रूप में मनाया जाये।

- Advertisement -

Latest articles

राहुल गांधी का आचरण - www.bharatkaitihas.cim

राहुल गांधी का आचरण

0
कांग्रेसी सांसद राहुल गांधी का आचरण एक बार फिर से सवालों के घेरे में है। राहुल गांधी वर्ष 2004 से सार्वजनिक जीवन में हैं।...
भारत का भाग्य - www.bharatkaitihas.com

भारत का भाग्य नरेन्द्र मोदी के संकल्प की प्रतीक्षा कर रहा है!

0
हिन्दुओं को नरेन्द्र मोदी सरकार से सबसे पहली अपेक्षा यह है कि भारत में अवैध रूप से निवास कर रहे प्रत्येक रोहिंग्या को देश से बाहर निकालकर उनके अपने देशों बांगलादेश या बर्मा में धकेल दिया जाए।
राम कालीन जातियाँ - www.bharatkaitihas.com

राम कालीन जातियाँ

0
इस आलेख में हम राम कालीन जातियाँ विषय पर प्रकाश डाल रहे हैं। भगवान राम के समय भारत में कितनी जातियाँ निवास करती थीं,...
सनातन धर्म की रक्षा - www.bharatkaitihas.com

सनातन धर्म की रक्षा के लिए मठों से बाहर निकलने का समय आ गया!

0
भारत की जनता को अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा भारत में इस्लाम के प्रसार के लिए चलाए जा रहे षड़यंत्रों का ही सामना नहीं करना है, उन्हें उन ईसाई मिशनरियों का भी सामना करना है जो आदिवासियों, निर्धनों एवं भोलेभाले लोगों को चमत्कारों में फंसाकर हिन्दू धर्म से दूर कर रहे हैं।
आरक्षण का लाभ - www.bharatkaitihas.com

आरक्षण का लाभ गरीबों को देकर गरीबी दूर की जा सकती है

0
आरक्षण का लाभ केवल गरीब परिवारों को देकर गरीबी दूर की जा सकती है! 1947 के विभाजन के बाद भारत में 34 करोड़ 50 लाख...
// disable viewing page source