कांग्रेस के उग्रवादी नेता उग्र आंदोलन के समर्थक थे जिनमें असहयोग, प्रदर्शन, भाषण, बहिष्कार आदि उग्र उपायों का सहारा लिया जाता था। वे किसी भी स्थिति में हिंसक उपायों के समर्थक नहीं थे परन्तु आजादी के मतवाले कुछ युवाओं ने उग्रवादियों के संघर्ष के सिद्धान्त की व्याख्या न्याय-संगत हिंसा के रूप में की। इस विचारधारा को अपनाने वालों को भारतीयों द्वारा क्रान्तिकारी तथा गोरी सरकार द्वारा आतंकवादी कहा गया। क्रान्तिकारी, भारत से ब्रिटिश शासन का अन्त करने के लिए हिंसा, लूट, हत्या जैसे किसी भी साधन का प्रयोग करना उचित मानते थे। अँग्रेज सरकार की दृष्टि में क्रान्तिकारी आतंकवाद, उग्र राष्ट्रवाद का ही एक पक्ष था किन्तु दोनों की भिन्न कार्यपद्धति से स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि क्रांति का पथ, राजनीतिक उग्रवाद से सर्वथा भिन्न था।
क्रान्तिकारी आन्दोलन का उद्भव
माना जाता है कि कांग्रेस के उग्रवादी आन्दोलन के विरुद्ध ब्रिटिश शासन का दमनचक्र तेज होने पर देशभक्तों के मन में तीव्र प्रतिक्रिया हुई तथा युवाओं के पास क्रान्तिकारी आन्दोलन के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं रह गया। इस कारण भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन आरम्भ हुआ किंतु वास्तविकता यह है कि कांग्रेस के उग्रवादी आंदोलन आरम्भ होने पूर्व ही क्रान्तिकारी आन्दोलन का बिगुल बज उठा था। बहावियों द्वारा सितम्बर 1871 में कलकत्ता में मुख्य न्यायधीश नार्मन की हत्या और फरवरी 1872 में अंडमान में वायसराय लॉर्ड मेयो की हत्या को क्रांतिकारी आंदोलन की शुरुआत तो नहीं कहा जा सकता किंतु ये हिंसक घटनायें युवा पीढ़ी को क्रांति के मार्ग पर ले जाने में प्रेरक सिद्ध हुईं। 1876 ई. में वासुदेव बलवन्त फड़के द्वारा सरकार के विरुद्ध सशस्त्र क्रान्ति की घटना ने देश में क्रांतिकारी आंदोलन को जन्म दिया। उन्नीसवीं सदी के अन्त तक क्रांतिकारी आंदोलन का स्वरूप स्पष्ट होने लगा।
लन्दन टाइम्स के संवाददाता वेलेन्टाइन शिरोल ने लिखा है- ‘क्रान्तिकारी एवं आतंकवादी आन्दोलन पश्चिम के विरुद्ध ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया थी और उसे कट्टरवादी हिन्दुओं ने प्रेरित किया था। गुप्त संगठन, जो हिंसा का प्रचार करते थे, धर्म से प्रेरणा लेते थे …..दक्षिण का ब्राह्मणवाद अत्यन्त लड़ाकू था और तिलक इसके नेता थे।’
शिरोल का यह कथन सही नहीं माना जा सकता क्योंकि पंजाब और बंगाल में गैर-ब्राह्मणों ने क्रान्तिकारी आन्दोलन चलाया था। आयोध्यासिंह ने लिखा है- ‘रूस और आयरलैण्ड के आतंकवादी आन्दोलन ने भारत के आतंकवादी आन्दोलन को पैदा करने और संगठित होने में बड़ा काम किया।’
क्रान्तिकारी आन्दोलन के उदय के कारण
भारत में क्रान्तिकारी एवं आतंकवादी आन्दोलन का उदय लगभग उन कारणों से हूआ जिनके कारण उग्रवाद का उदय हुआ था। उग्रवादियों के विरुद्ध सरकार की दमनकारी नीति तथा कुछ अन्य घटनाओं ने इसे विशेष बल प्रदान किया। क्रान्तिकारी आन्दोलन को बढ़ावा देने में निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे-
(1.) उदारवादियों की विफलता: उदारवादियों के संवैधानिक उपायों की असफलता के कारण भारतीय नवयुवकों में वैधानिक मार्ग के प्रति विश्वास नहीं रहा। उन्हें लगने लगा था कि सरकार के समक्ष गिड़गिड़ाने और हाथ-पैर जोड़ने से ब्रिटिश सरकार, भारतीयों को स्वतन्त्रता देने वाली नहीं है। इसके लिए क्रान्तिकारी उपायों से अँग्रेजों में भय उत्पन्न करना होगा।
(2.) सरकार द्वारा भारतीयों का शोषण: उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशकों में, देश के भीतर सरकारी नीतियों के विरुद्ध प्रबल असन्तोष व्याप्त था। जनता भुखमरी, बेरोजगारी, अकाल और महामारी से त्रस्त थी। क्रांति का मार्ग पकड़ने वाले वासुदेव बलवन्त फड़के ने न्यायालय में अपने वक्तव्य में कहा था- ‘भारतीय आज मृत्यु के द्वार पर खड़े हैं। ब्रिटिश सरकार ने जनता को इतना अधिक कुचल दिया है कि वे सदा अकाल और खाद्य पदार्थों की कमी से दुःखी रहते हैं। जहाँ दृष्टि डालो, वहीं ऐसे दृश्य दिखाई देंगे जिनसे हिन्दू और मुसलमानों के सिर लज्जा से झुक जाते हैं।’ ब्रिटिश शासन द्वारा किये गये आर्थिक शोषण तथा अकाल और प्राकृतिक प्रकोपों के समय में सरकार द्वारा राहत कार्य न किये जाने की घटनाओं ने युवाओं को क्रान्ति के लिए प्रेरित किया।
(3.) मध्यम वर्ग में असंतोष: क्रान्तिकारी आन्दोलन मध्यम वर्ग में तेजी से फैला। इस मार्ग पर चलने वालों में अधिकांशतः पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त नवयुवक थे। इनमें से अधिकांश नवयुवक बेराजगार थे। सरकार की आर्थिक शोषण की नीति ने मध्यम वर्ग को बुरी तरह से प्रभावित किया था और उसे समाज में अपनी प्रतिष्ठा को बनाये रखना कठिन हो गया था। बड़ी संख्या में मध्यमवर्गीय परिवार निर्धन होने लगे थे। सरकार द्वारा किये जा रहे शोषण एवं कांग्रेस की असफलताओं ने नवयुवकों में क्रान्तिकारी प्रवृत्ति पैदा कर दी। यह क्रान्तिकारी भावना स्वतन्त्रता प्राप्ति की लालसा तथा भावी सुखी जीवन के स्वप्न से प्रेरित थी।
(4.) सरकार की स्वार्थपूर्ण नीतियाँ: भारतीय क्रांतिकारी आन्दोलन, सरकार की स्वार्थपूर्ण नीतियों का परिणाम था। मॉडर्न रिव्यू ने लिखा था- ‘आतंकवाद के अन्तिम कारण को सरकार की सोलह आने स्वार्थी, स्वेच्छाचारी और अत्याचारी नीतियों में खोजना होगा….. ब्रिटिश शासकों ने जब राष्ट्रीय आन्दोलन को दबाने के लिए जारशाही के निरंकुश तरीकों को अपनाया तो क्रांतिकारियों ने उसका सामना करने के लिए रूसी आतंवादियों का रास्ता अपनाया।’
लॉर्ड कर्जन की नीतियों ने क्रांतिकारी आन्दोलन को विशेष रूप से प्रोत्साहित किया। उसके शासनकाल में दो बार अकाल पड़ा परन्तु अकाल-राहत कार्यों में सरकार का दृष्टिकोण अत्यन्त कठोर एवं अमानवीय रहा। कर्जन ने कलकत्ता निगम अधिनियम पारित करके निगम की स्वायत्तता छीन ली तथा विश्वविद्यालय अधिनियम पारित कर भारतीय विश्वविद्यालयों पर सरकारी शिकंजा कस दिया। ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट ने अभिव्यक्ति पर अंकुश लगा दिया। कर्जन की जातीय भेद नीति ने लोगों को और अधिक उग्र बना दिया। कर्जन ने घोषणा की- ‘केवल अँग्रेज ही भारत पर शासन करने के योग्य है।’ कर्जन ने बंगाल का विभाजन कर दिया। बंग-भंग के विरोध में जो आन्दोलन चला, सरकार ने उसे भी कठोरता से कुचलने का प्रयास किया।
भारत सरकार द्वारा अपनाई जा रही नीतियों पर चिंता व्यक्त करते हुए भारत सचिव लॉर्ड मार्ले ने वायसराय को पत्र लिखकर सूचित किया- ‘राजद्रोह और अन्य अपराधों के सम्बन्ध में जो दिल दहलाने वाले दंड दिये जा रहे हैं, उनके कारण मैं अत्यन्त चिन्तित हूँ। हम व्यवस्था चाहते हैं किन्तु इसके लिए घोर कठोरता के उपयोग से सफलता नहीं मिलेगी। इसका परिणाम उल्टा होगा और लोग बम का सहारा लेंगे।’
भारत सचिव का अनुमान सही था। जब लोगों को सार्वजनिक रूप से आंदोलन चलाने की छूट नहीं मिली तो वे छिपकर आंदोलन चलाने लगे। मांटेग्यू चैम्सफोर्ड ने स्वीकार किया है- ‘दण्ड-संहिता की सजाओं और चाकू चलाने की नीति ने साधारण और बिगड़े नवयुवकों को शहीद बनाया और विप्लवकारी लोगों की संख्या बढ़ा दी।’
(5.) भारतीय संस्कृति का अपमान: अँग्रेजों ने भारतीयों के साथ-साथ भारतीय संस्कृति का भी सार्वजनिक रूप से अपमान किया। 1883 ई. में बंगाल में एक अँग्रेज जज ने अदालत में हिन्दू देवता ठाकुरजी की प्रतिमा को कोर्ट में हाजिर करने के आदेश दिये। जब सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इस बात का विरोध किया तो उन्हें न्यायालय की मानहानि का दोषी ठहराकर दो माह की कैद की गई। पंजाब में गायों के सरकारी बूचड़खाने खोलने के लिये मुसलमानों को आगे किया गया। इन सब बातों ने युवकों को हत्या और मारकाट का मार्ग पकड़ने के लिये प्रेरित किया।
क्रांतिकारी आन्दोलन के उद्देश्य
प्रारंभिक क्रांतिकारियों का भावी कार्यक्रम स्पष्ट नहीं था फिर भी वे जानते थे कि ब्रिटिश शासन को न तो संवैधानिक आन्दोलनों से हटाया जा सकता है और न कुछ बमों के बल पर। कुछ अँग्रेजों की हत्या कर देने से भारत स्वाधीन नहीं होगा। फिर भी, वे इस मार्ग को इसलिये आवश्यक समझते थे कि इससे भारतीयों में देश की स्वन्त्रता के लिए साहसपूर्ण काम करने की भावना उत्पन्न होगी तथा अंग्रेजों के मन में भय उत्पन्न होगा। सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी वारीन्द्र घोष ने क्रांतिकारियों का लक्ष्य स्पष्ट करते हुए कहा था– ‘कुछ अँग्रेजों को मारकर अपने देश को मुक्त करने की न तो हम आशा करते हैं और न हमारा वैसा मतलब ही है। हम लोगों को यह दिखाना चाहते हैं कि किस प्रकार सहसपूर्ण कार्य करना और मरना चाहिए।’
मदनलाल धींगरा ने अपने मुकदमे की सुनवाई के समय न्यायालय में वक्तव्य देकर अपने लक्ष्य को स्पष्ट करने का प्रयास किया- ‘मेरे जैसे निर्बल पुत्र के पास माता को भेंट चढ़ाने के लिए अपने रुधिर के अतिरिक्त कुछ नहीं। मैंने वही भेंट दे दी। भारत में आज एक ही पाठ पढ़ाने की आवश्यकता है, वह यह कि मरा कैसे जाता है! उसे सिखाने का सर्वोत्तम उपाय यह है कि हम स्वयं मर कर दिखाएं।’
डॉ. सत्या एम. राय ने लिखा है- ‘आतंकवादियों में इस समय दो विचारधाराएं थीं और उनके क्रिया-कलापों के दो केन्द्र थे। कुछ नेता अँग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र आन्दोलन करने के लिए भारतीय सेना से और यदि संभव हो तो अँग्रेजों की विरोधी विदेशी ताकतों से भी सहायता लेने में विश्वास रखते थे। दूसरी विचारधारा के नेता देश में हिंसात्मक कार्यक्रम जैसे, ब्रिटिश शासकों, पुलिस अधिकारियों एवं क्रांतिकारियों के विरुद्ध सूचना देने वाले मुखबिरों को कत्ल करने की नीति में विश्वास रखते थे।’
पहली विचारधारा को पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में और दूसरी विचारधारा को बंगाल और महाराष्ट्र में समर्थन मिला।
क्रांतिकारी आन्दोलन के दूसरे चरण में उसका स्वरूप भिन्न हो गया। क्रांतिकारियों ने आजादी के बाद भारत में समाजवादी समाज स्थापित करने की घोषणा की और लोगों के सामने गांधीवादी विचारधारा से अलग, दूसरा विकल्प रखा। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के वक्तव्यों से स्पष्ट होता है कि क्रांतिकारी देश को पराधीनता से मुक्त कराकर देश में सच्चा लोकतंत्र स्थापित करना चाहते थे। वे समाज से समस्त प्रकार की आर्थिक व सामाजिक असमानताओं का अन्त करना चाहते थे।
क्रांतिकारियों का मानना था कि विदेशी शक्तियों के हाथों पराधीन राष्ट्र के नागरिकों के लिये उनकी आर्थिक, मानसिक, शारीरिक, नैतिक और आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग अवरुद्ध होता है। पराधीन व्यक्ति को स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता। क्रांतिकारियों की दृष्टि में भारत को पराधीन बनाने वाली ब्रिटिश सरकार अत्याचारी, शोषक तथा अन्यायी थी। उस पर कांग्रेस तथा अन्य संस्थाओं के शांतिपूर्ण आंदोलनों का प्रभाव नहीं हो रहा था इसलिये हिंसात्मक उपायों से ही सरकार के मन में भारतवासियों के प्रति सम्मान का भाव उत्पन्न किया जा सकता था। इसलिये क्रांतिकारी, अँग्रेज अधिकारियों तथा देशद्रोहियों की हत्या करना तथा सरकारी खजाने को लूटना अपराध नहीं मानते थे। उनका व्यक्तिगत हत्याओं और डकैतियों में विश्वास नहीं था। व्यक्तिगत स्वार्थवश उन्होंने कभी किसी की हत्या नहीं की। उनका उद्देश्य समाज में आतंक फैलाना नहीं था, अपितु अत्याचारी अँग्रेज अधिकारियों के मन में भय उत्पन्न करना था तथा उन्हें चेतावनी देना था कि यदि उन्होंने भारतीय जनता पर अत्याचार करना बंद नहीं किया तो उन्हें भारतीयों द्वारा पाठ पढ़ाया जायेगा।
क्रांतिकारियों की कार्यप्रणाली
क्रांतिकारियों के लक्ष्य की तरह उनकी कार्य प्रणाली भी स्पष्ट थी। उनका एक मात्र लक्ष्य ब्रिटिश शासकों के मन में भय उत्पन्न करना था। उनकी कार्यप्रणाली में वे समस्त हिंसात्मक उपाय सम्मिलित थे जिनसे ब्रिटिश सरकार एवं उसके अधिकारियों के मन में भय उत्पन्न हो सके। उन्होंने निम्नलिखित प्रमुख कार्य किये-
(1.) जन सामान्य में राष्ट्र-प्रेम तथा स्वतंत्रता सम्बन्धी विचारों का प्रचार करके उनके मन में दासता से मुक्ति पाने की इच्छा उत्पन्न करना।
(2.) बेकारी और भुखमरी से त्रस्त लोगों को संगीत, नाटक और साहित्य के माध्यम से निर्भय होने का संदेश देना एवं उनमें अपनी स्थिति को बदलने के लिये प्रयत्नशील होने की प्रेरणा देना।
(3.) आन्दोलनों एवं धमकियों के माध्यम से ब्रिटिश सरकार को, अपनी शक्ति एवं संगठन का अनुमान कराना।
(4.) जनता से चन्दा एवं दान एकत्रित करके जनता को क्रांतिकारियों की गतिविधियों से जोड़ना। सरकारी कोष को लूटकर धन एकत्रित करना।
(5.) रेल लाइन, रेलवे स्टेशन, पुल, सरकारी कार्यालय, संसद आदि महत्वपूर्ण स्थलों तथा सरकारी अधिकारियों के वाहनों पर बम फैंककर देश की जनता का ध्यान अपनी ओर खींचना तथा सरकार में भय उत्पन्न करना।
(6.) भारतीयों पर अत्याचार करने वाले अँग्रेज अधिकारियों एवं उनके मुखबिरों को जान से मारकर भारतीयों पर हुए अत्याचारों का बदला लेना।
(7.) गुप्त स्थलों पर क्रांतिकारियों का प्रशिक्षण आयोजित करना।
(8.) जनता में प्रसार के लिये गुप्त स्थानों पर साहित्य का मुद्रण करवाना।
(9.) क्रांतिकारी घटनाओं को कार्यरूप देने के लिये दूरस्थ स्थानों पर मुद्रित सामग्री, हथियार, बम एवं धन को पहुंचाना।
(10.) सार्वजनिक स्थलों पर पोस्टर एवं क्रांतिकारी साहित्य चिपकाना तथा वितरित करना।
(11.) क्रांतिकारी घटना को कार्यरूप देते हुए पकड़े जाने पर भागने का प्रयास करने के स्थान पर स्वयं को गिरफ्तार करवाना तथा न्यायालय में अपने कृत्य को देशभक्ति के लिये किया गया कार्य सिद्ध करना।
अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्रांतिकारियों ने अनुशीलन समितियां स्थापित कीं जिनमें क्रांतिकारी सदस्यों को भारतीय इतिहास और संस्कृति का ज्ञान कराया जाता था। राजद्रोह के सिद्धान्तों की शिक्षा और घातक शस्त्रों के संचालन का प्रशिक्षण दिया जाता था। प्रत्येक सदस्य को माँ काली के समक्ष शपथ दिलाई जाती थी कि वह अपना कार्य पूर्ण ईमानदारी और निष्ठा से करेगा तथा किसी भी स्थिति में दल की गतिविधियों को उजागर नहीं करेगा। पुलिस हिरासत में दी जाने वाली यातनाओं को सहन करेगा तथा सरकारी गवाह नहीं बनेगा। नये क्रांतिकारी सदस्यों को वरिष्ठ क्रांतिकारियों के निर्देशन में काम करना होता था।
क्रांतिकारी आन्दोलन का विकास
भारत में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का आरम्भ 1857 ई. से माना जा सकता है जिसे अँग्रेजों द्वारा बलपूर्वक कुचल दिया गया। 1872 ई. में पंजाब के नामधारी सिक्खों ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध कूका आन्दोलन चलाया। इसे भी अँग्रेजों ने क्रूरता पूर्वक कुचला। 1876 ई. में वासुदेव बलवंत फड़के द्वारा ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का छोटा सा प्रयास हुआ। 1894 ई. में चापेकर बन्धुओं ने महाराष्ट्र में हिन्दू धर्म संरक्षण सभा की स्थापना की। इस अवसर पर उन्होंने कहा- ‘हमें शिवाजी और बाजीराव (प्रथम) की भांति कमर कसकर भयानक कार्यों में जुट जाना चाहिए। मित्रों, अब आपको ढाल-तलवार उठा लेनी होगी, हमें शत्रु के सैकड़ों सिरों को काट डालना होगा। हमें राष्ट्र-युद्ध के रण-क्षेत्र में अपने प्राणों की आहुति दे देनी होगी। हमारे देश का नाम हिन्दुस्तान है; फिर यहाँ अँग्रेज राज्य क्यों कर रहे हैं?’
पूना में गणेशखण्ड नामक स्थान है जहाँ पर शिवाजी उत्सव का आयोजन किया गया। इस उत्सव के कुछ दिन बाद ठीक उसी स्थान पर पूना के प्लेग कमिश्नर रैण्ड ने विक्टोरिया की 60वी वर्षगांठ का उत्सव मनाया। यह बात भारतीय युवकों को अच्छी नहीं लगी। इसलिये 22 जून 1897 को दामोदर चापेकर ने पूना के प्लेग कमिश्नर रैण्ड तथा उसके सहायक आयर्स्ट को गोली मार दी। चापेकर बन्धुओं को फांसी हो गई। जिन लोगों ने मुखबिरी करके सरकार को चापेकर बंधुओं को जानकारी दी थी उन्हें चापेकर के दो अन्य भाइयों एवं नाटु-बंधुओं ने मिलकर मार डाला। ये घटनाएं, क्रांतिकारी आन्दोलन के आरम्भिक चरण का अंग थीं। 1905 ई. में लॉर्ड कर्जन द्वारा किये गये बंग-भंग के बाद भारत में उग्र राष्ट्रवाद का उदय हुआ। इसके बाद ही भारत के विभिन्न प्रांतों में क्रांतिकारी आन्दोलन का व्यापक स्तर पर एवं संगठित रूप से प्रसार हुआ।