Thursday, December 26, 2024
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अध्याय – 79 : भारत में किसान आन्दोलन

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कांग्रेस के नेतृत्व में किसान आंदोलन

(1.) चम्पारन का सत्याग्रह

अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1885 ई. में अपनी स्थापना होने के बाद लम्बे समय तक किसानों की स्थिति पर ध्यान नहीं दिया। गोपालकृष्ण गोखले ने अवश्य ही ब्रिटिश सरकार को एक ज्ञापन देकर सरकार का ध्यान अज्ञान, अकाल तथा ऋण-ग्रस्त्ता की ओर आकृष्ट करने का प्रयास किया था परन्तु उसका कोई परिणाम नहीं निकला। प्रथम विश्वयुद्ध (1914-19 ई.) के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कुछ नेताओं ने कृषि सम्बन्धी समस्याओं के प्रति चिन्ता व्यक्त करनी आरम्भ की। 1917 ई. के अन्त में देश के विभिन्न भागों में कृषक संघों की स्थापना की गई। उन दिनों उत्तरी बिहार में स्थित चम्पारन जिला नील की खेती के लिए प्रसिद्ध था। नील की खरीद करने वाले अँग्रेज व्यापारी नीलहे साहब कहलाते थे। उन्होंने पूरे क्षेत्र में अपनी कोठियां बना रखी थीं। वे लोग तिन काठिया प्रणाली के माध्यम से किसानों का जबरदस्त शोषण करते थे। इस प्रणाली के अंतर्गत प्रत्येक किसान को अपनी कुल कृषि भूमि के 3/20वें भाग पर नील की खेती करनी अनिवार्य थी। अँग्रेज व्यापारी नील की फसल को बहुत कम दामों पर खरीदते थे। जो किसान उनके आदेशों का उल्लंघन करता अथवा कम कीमत का विरोध करता तो उसके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था। उसके परिवार को बुरी तरह मारा-पीटा जाता और उनके घरों में आग लगा दी जाती। अँग्रेजों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों और शोषण के विरुद्ध कहीं शिकायत नहीं सुनी जाती थी। 1917 ई. में गंाधीजी के नेतृत्व में चम्पारन के किसानों ने आन्दोलन किया। उन्होंने नील की खेती करने से मना कर दिया। चम्पारन के लगभग 850 गांवों के 8000 से अधिक किसानों ने इस आंदोलन में भाग लिया। सरकार ने किसानों की निर्ममतापूर्वक पिटाई की तथा बड़ी संख्या में किसानों को बन्दी बना लिया परन्तु किसान डटे रहे। अन्त में सरकार ने एक जांच समिति गठित की। इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने चम्पारन कृषि अधिनियम पारित किया तथा नीलहे साहबों की मनमानी पर अंकुश लगा दिया।

(2.) खेड़ा सत्याग्रह आन्दोलन

1918-19 ई. में गुजरात के खेड़ा क्षेत्र में सूखा पड़ने से फसलें नष्ट हो गईं। सरकार का नियम था कि यदि 25 प्रतिशत पैदावार कम होगी तो किसानों का लगान माफ कर दिया जायेगा। इसी आधार पर खेड़ा के किसानों ने लगान माफी के लिये गुजरात सभा को एक ज्ञापन दिया। गुजरात सभा ने लगान माफी की अनुशंसा की परन्तु सरकार ने लगान माफ करने से मना कर दिया। इस पर मार्च 1919 में गांधीजी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, इन्दुलाल याज्ञिक और एन. एम. जोशी आदि के नेतृत्व में किसानों ने आन्दोलन किया। किसानों ने सरकार को लगान न देने की घोषणा कर दी। इस पर सरकार ने सैंकड़ों किसानों को जेलों में डाल दिया, उनके मकान जब्त कर लिये तथा पशुओं को नीलाम कर दिया। किसानों की खड़ी फसलों पर अधिकार कर लिया गया और उन्हें शारीरिक यातनाएं दी गईं। इन कार्यवाहियों के उपरान्त भी किसानों ने आन्दोलन जारी रखा। अंत में जून 1919 में सरकार को किसानों की मांगें माननी पड़ीं।

(3.) संयुक्त प्रदेश में किसान आन्देालन

संयुक्त प्रदेश  के किसानों को लम्बे समय से स्थानीय जमींदारों और सूदखोर साहूकारों के अत्याचारों का सामना करना पड़ रहा था। अधिकांश किसान खेतिहर श्रमिक थे जो जमींदारों, साहूकारों तथा सम्पन्न किसानों के खेतों पर मजदूरी करते थे। उनसे कठोर परिश्रम करवाया जाता था किंतु बहुत कम मजदूरी दी जाती थी। इस कारण उनकी आर्थिक दशा बहुत दयनीय थी। 1920-21 ई. में संयुक्त प्रदेश के किसानों ने असहयोग आन्दोलन आरम्भ करने का निश्चय किया। उन्होंने पं. जवाहरलाल नेहरू तथा अन्य कांग्रेसी नेताओं से सम्पर्क किया। इन नेताओं ने किसानों के आन्दोलन को अपना समर्थन प्रदान किया। फैजाबाद और रायबरेली जिलों के हजारों किसान आन्दोलन मे कूद पड़े। उन्होंने जमींदारों (ताल्लुकेदारों) की निजी फसलों को नष्ट करना आरम्भ कर दिया। इस पर पुलिस ने किसानों की भीड़ पर गोली चलाई। किसानों ने उत्तेजित होकर साहूकारों और ताल्लुकदारों के घरों और कार्यालयों को लूटना एवं जलाना आरम्भ कर दिया। सुल्तानपुर के किसान भी आन्दोलन में सम्मिलित हो गये। सरकार ने आंदोलन को कुचलने के लिये सेना बुलाई तथा हजारों किसानों को जेलों में डाल दिया। इसी बीच 5 फरवरी 1922 को गोरखपुर जिले में चौरा-चौरी की घटना हुई जिसमें आन्दोलनकारियों ने पुलिस की फायरिंग से उत्तेजित होकर 21 सिपाहियों एवं थानेदार को थाने में बन्द करके आग लगा दी। हिंसा की इस घटना से क्षुब्ध होकर गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन स्थगित कर दिया। इससे किसानों को भारी धक्का लगा। उन्हें लगा कि कांग्रेस ने किसानों की समस्याओं के हल के लिये किसानों का साथ नहीं दिया अपितु किसानों को अपने उपकरण की तरह इस्तेमाल किया तथा उन्हें बीच मंझधार में छोड़कर किसानों के साथ विश्वासघात किया। गांधीजी ने किसानों का साथ देने की बजाय उन्हें सलाह दी कि- ‘यदि जमींदार उन पर जोर-जुल्म करते हैं तो वे थोड़ा सहन करें। हम जमींदारों से नहीं लड़ना चाहते। जमींदार भी गुलाम हैं। हम उन्हें तंग नहीं करना नहीं चाहते…….।’ गांधीजी के इस कथन से किसानों को विश्वास हो गया कि कांग्रेस कभी भी किसानों की समस्याओं को हल नहीं करेगी। इसलिये किसानों ने पृथक् संगठन बनाया जो राका कहलाया। इसी संगठन ने आगे चलकर किसान आन्दोलन का नेतृत्व किया।

(4.) बारदौली सत्याग्रह आन्दोलन

जिस समय पूरे देश में साइमन कमीशन के विरुद्ध प्रदर्शन हो रहे थे, गुजरात के सूरत जिले में स्थित बारदौली के किसानों ने लगान वृद्धि के विरोध में आन्दोलन आरम्भ किया। बम्बई प्रान्त की सरकार ने 30 जूूून 1927 को बारदौली ताल्लुक का लगान 20 से 25 प्रतिशत बढ़ा दिया। यद्यपि बम्बई की विधायिका परिषद ने बढ़े हुए लगान की वसूली को रोकने का प्रस्ताव पारित कर दिया था तथापि प्रान्तीय सरकार अपने निर्णय पर अडिग रही। इससे किसानों में भारी असन्तोष फैल गया। किसानों ने एक विराट सभा आयोजित की तथा सरकार के राजस्व अधिकारी के पास शिष्टमण्डल भेजकर लगान वृद्धि को अनुचित बताते हुए उसे कम करने का अनुरोध किया परन्तु कोई परिणाम नहीं निकला। 6 दिसम्बर 1927 को किसानों ने पुनः सभा आयोजित की। इस सभा ने बढ़ा हुआ लगान न देने का निर्णय लिया। 4 फरवरी 1928 को पुनः सभा बुलाई गई और बढ़ा हुआ लगान नहीं देने का संकल्प, सर्वसम्मति से दोहराया गया। सरदार वल्लभ भाई पटेल को इस आन्दोलन का नेतृत्व सौंपा गया। सरकार ने बारदोली आंदोलन को कुचलने के लिये किसानों पर अत्याचार किये किंतु किसान डटे रहे। देश के विभिन्न भागों से मांग उठने लगी कि बारदौली के किसानों का लगान कम किया जाये। साथ ही अन्य प्रान्तों की किसान सभाओं ने भी बारदौली के समर्थन में आन्दोलन चलाने की धमकी दी। 12 जून 1928 को गंाधीजी की अपील पर पूरे देश में बारदौली दिवस मनाया गया। अन्त में सरकार को झुकना पड़ा और पुरानी लगान दर फिर से लागू करनी पड़ी।

स्वतन्त्र किसान संगठनों का निर्माण

असहयोग आन्दोलन की समाप्ति के बाद स्वतन्त्र किसान संगठनों के निर्माण का प्रयास किया गया। 1923 ई. में रैयत सभा तथा किसान एवं मजदूर सभा बनी। 1925 ई. में साम्यवादियों ने कामगार एवं किसान दल का गठन किया। पंजाब, संयुक्त प्रदेश तथा बिहार में भी इसी तरह संगठन बने। 1926 ई. में सोहनसिंह जोश ने भारतीय मजदूर एवं किसान पार्टी की स्थापना की। ये समस्त दल थोड़े ही दिनों में निष्क्रिय हो गये। 1927 ई. में बिहार किसान सभा स्थापित हुई। सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में यह एक व्यापक संगठन बन गया। 1935 ई. में संयुक्त प्रदेश में प्रादेशिक किसान सभा गठित हुई। इन किसान सभाओं ने सरकार के समक्ष जमींदारी प्रथा, ऋण-ग्रस्त्ता तथा अन्य समस्याओं के सम्बन्ध में मांग-पत्र प्रस्तुत किये। सरकार ने 1933 ई. में बंगाल में साहूकार अधिनियम; 1934 ई. में उत्तर प्रदेश ऋण राहत अधिनियिम; 1935 ई. में ऋण-ग्रस्त्ता राहत अधिनियम; 1935 ई. में पंजाब रैगुलेशंस ऑफ एकाउंट्स एक्ट पारित किया परन्तु इनसे किसानों को विशेष लाभ नहीं मिला।

1936 ई. में साम्यवादियों ने अखिल भारतीय किसान सभा स्थापित की। संगठित किसान आन्दोलन की दिशा में यह एक महत्त्वपूर्ण कदम था। इस संगठन का पहला अखिल भारतीय अधिवेशन दिसम्बर 1936 में राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन के साथ-साथ फैजपुर में हुआ। उसमें 20,000 किसानों ने भाग लिया। कांग्रेस ने फैजपुर अधिवेश में खेती-सम्बन्धी एक कार्यक्रम पारित किया और दोनों संगठनों के भाईचारे की घोषणा की। 1936 ई. में ही कलकत्ता में बंगीय प्रादेशिक किसान सभा की स्थापना हुई। इस सभा ने बंगाल में बटाईदारों की बेदखली तथा तरह-तरह के उप-करों के विरुद्ध कई आन्दोलन चलाये।

अखिल भारतीय किसान सभा का चौथा अधिवेशन अप्रैल 1939 में गया में हुआ। इस समय तक इसके सदस्यों की संख्या 8 लाख हो गई थी। इसके कुछ महीने बाद दूसरा विश्वयुद्ध आरम्भ हो गया। 1942-45 ई. का काल किसान आन्दोलनों के लिए अग्नि-परीक्षा का काल था। अगस्त 1942 में सरकार ने भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिये कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया तथा आंदोलनकारियों पर भयानक अत्याचार किये। फिर भी किसानों ने साम्राज्यवादी एवं सामन्ती व्यवथा के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा। कांग्रेसी नेताओं के जेल में होने से संगठित किसान संगठनों की जिम्मेदारी बढ़ गई। अखिल भारतीय किसान सभा और उसकी प्रान्तीय शाखाओं ने राष्ट्रीय नेताओं की रिहाई और राष्ट्रीय सरकार की स्थापना के लिए दृढ़तापूर्वक आन्दोलन चलाया। किसानों ने सरकार के दमनचक्र का बहादुरी से सामना किया। किसानों ने अँग्रेजों द्वारा युद्ध-कोष के लिए किसानों से की जा रही धन-वसूली का विरोध किया और गांव-गांव में नौकरशाहों, अनाज चोरों ओर चोर-बाजारियों की कार्यवाहियों के विरुद्ध आवाज उठाई।

(5.) तिभागा किसान आन्दोलन

तिभागा आन्दोलन, जोतदारों के विरुद्ध बटाईदारों (बर्गदारों) का आन्दोलन था। इसमें बंगाल के बटाईदार किसानों ने एक जुट होकर आन्दोलन किया। आन्दोलन की शुरुआत नौआखाली से सटे हुए हसनाबाद क्षेत्र से हुई। आन्दोलनकारियों ने घोषणा की कि वे जोतदारों तथा जमींदारों को अपनी फसल में से केवल एक-तिहाई हिस्सा बंटाई के रूप में देंगे तथा शेष भाग अपने पास रखेंगे। फसल बंटवारे के इसी अनुपात के कारण यह आन्दोलन ते-भागा अथवा तिभागा आन्दोलन कहलाता है। यह आन्दोलन बड़ी तेजी से दूर-दूर के गंावों में फैल गया। इस आन्दोलन में बंगाल के साम्यवादी नेताओं- मोवीसिंह, मुजफ्फर अहमद और सुनील सेन ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। किसान सभा के नेतृत्व में चलने वाला यह आन्दोलन बंगाल का सबसे व्यापक आन्दोलन था जिसमें लगभग 50 लाख किसानों ने भाग लिया। उन्होंने जोतदारों, जमींदारों, उनके लठैतों और पुलिस का डटकर मुकाबला किया। स्त्रियों ने भी इस आन्देालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह आन्देालन नवम्बर 1946 से फरवरी 1947 तक पूरे वेग से चला और स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी कुछ समय तक जारी रहा। इस आन्दोलन के दौरान पुलिस ने कई स्थानों पर गोली चलाई जिसमें 73 लोग मारे गये किंतु किसानों की मांगें नहीं मानी गईं।

(6.) तेलंगाना किसान आन्दोलन

हैदराबाद निजाम के राज्य में तेलंगाना क्षेत्र में रहने वाले देशमुखों ने पटेल एवं पटवारियों की सहायता से बड़ी संख्या में किसानों की भूमि पर कब्जा कर लिया था। देशमुखों को निजाम का संरक्षण प्राप्त होने से किसान उनके विरुद्ध कुछ नहीं कर पाते थे। इस कारण किसानों में देशमुखों के विरुद्ध आक्रोश व्याप्त था। द्वितीय विश्व युद्ध के समय तेलंगाना क्षेत्र के तेलुगू-भाषी किसानों से कम कीमत पर गल्ला वसूल किया जाने लगा। इसके विरोध में तेलुगू-भाषी किसानों ने आन्दोलन आरम्भ किया। 1946 ई. तक यह आन्दोलन नालगोंडा क्षेत्र के कई गाँवों में फैल चुका था। तेलंगाना किसानों के आन्दोलन का तात्कालिक कारण पुलिस द्वारा कमरय्या नामक व्यक्ति की हत्या करना था। कमरय्या साम्यवादी था और स्थानीय किसान सभा का सक्रिय पदाधिकारी था। किसानों ने उसके शव के साथ, विराट जुलूस निकाला। पुलिस और रजाकारों (मुसलमानों का एक विशेष संगठन) ने मिलकर इस जुलूस पर हमला कर दिया। किसानों ने भी पलटकर हमला किया। पुलिस वाले और रजाकर भागकर जमींदारों के घरों में जा छिपे। इसके बाद किसानों ने सूर्यपेट और आस-पास के कई गांवों पर अधिकार कर लिया। हैदराबाद के साम्यवादी नेताओं और आन्ध्र महासभा ने इस आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथों में ले लिया। निजाम ने किसानों का दमन करने के लिए पुलिस और रजाकारों को भेजा तो किसानों ने लड़ाकू दस्ते गठित कर लिये और अपने अधिकार वाले गाँवों की शासन-व्यवस्था चलाने के लिए ग्राम-पंचायतें गठित कर लीं। किसानों ने जमींदारों की जमीनों को छीनकर भूमिहीन किसानों तथा खेतिहर मजदूरों में बाँट दिया। 1947 ई. में यह सशस्त्र संघर्ष और भी व्यापक तथा खतरनाक बन गया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद कांग्रेस सरकार ने किसानों का पक्ष न लेकर निजाम तथा जमींदारों का पक्ष लिया, इसलिए तेलंगाना का किसान आन्दोलन साम्यवादियों के नेतृत्व में 1951 ई. तक चलता रहा।

(7) बर्ली किसान आन्दोलन

बम्बई के समीप स्थित बर्ली के किसान मूलतः आदिवासी थे। स्थानीय जमींदारों, साहूकारों और वन-विभाग के ठेकेदारों ने इन लोगों का जीना कठिन कर रखा था। बर्ली के किसान, साहूकारों के ऋण से दबकर बंधुआ मजदूर बन चुके थे। 1946 ई. में जब किसान सभा ने खेतिहर मजदूरों की हड़ताल करवाई तो उसमें बर्ली के किसान भी सम्मिलित हो गये। उन्होंने साहूकारों को बेगार देने से मना कर दिया तथा मांग की कि उनकी मजदूरी बढ़ाई जाये अन्यथा वे खेतों पर काम नहीं करेंगे। उनके पुराने ऋणों को माफ करके उन्हें बन्धुआ स्थिति से मुक्त किया जाये। पुलिस और गुण्डों के सामूहिक आक्रमणों के उपरान्त भी जब बर्ली के किसान डटे रहे तो साहूकारों को झुकना पड़ा और उन्होंने बेगार बन्द कर दी परन्तु मजदूरी और बन्धुआ स्थिति की समस्या लम्बे समय तक चलती रही।

(8.) राजस्थान में किसान आन्दोलन

देशी रियासतों में मुगल काल से ही भूमि का स्वामित्व दो भागों में बंट गया था- (1.) खालसा भूमि तथा (2.) जागीर भूमि। खालसा भूमि सीधे ही शासक के नियंत्रण में होती थी तथा जागीर भूमि जागीरदारों के पास होती थी। खालसा क्षेत्र के किसानों की अपेक्षा, जागीरी क्षेत्र के किसानों की हालत अधिक दयनीय थी। किसान, भू-स्वामी के आश्रित रहकर खेती करता था। जैसे-जैसे अँग्रेजों के कर बढ़ते गये, वैसे-वैसे राजाओं द्वारा जागीरदारों तथा ठिकाणेदारों पर लाग-बाग, खिराज, नजराना, कर भी बढ़ते गये। राजपूताना में जागीरदारों और ठिकाणेदारों ने किसानों पर करों की संख्या तथा मात्रा इतनी बढ़ा दी कि पूरे वर्ष कठोर परिश्रम करने के बाद भी किसान और उसके बच्चे भूखे मरते थे। कर न चुका पाने की स्थिति में किसानों और उनके परिवारों को जागीरदार तथा उसके कामदार के भय से खेती छोड़कर जंगलों में भाग जाना पड़ता था। 19वीं शताब्दी के अंत तक जागीरदार तथा किसानों के सम्बन्ध कटुतम स्तर पर थे। राजस्थान की अनेक रियासतों में समय-समय पर किसान आन्दोलन उठते रहे जिनमें बिजौलिया का किसान आन्दोलन, बेगूं का आन्दोलन, भोमट का भील आन्दोलन, मारवाड़ का किसान आन्दोलन, मेव आन्दोलन, सीकर का किसान आन्दोलन आदि प्रमुख हैं।

बिजोलिया किसान आंदोलन: बिजौलिया ठिकाना मेवाड़ के 19 ठिकानों में से एक था। बिजौलिया किसान आंदोलन का प्रथम चरण 1897 ई. में आरम्भ हुआ। वहाँ के जागीरदार ने जनता पर 84 प्रकार के लाग-बाग लगाये जिनके विरोध में बिजौलिया के किसानों ने महाराणा से अपील की। महाराणा ने जागीरदार को चेतावनी देकर छोड़ दिया। जागीरदार, शिकायत से रुष्ट होकर किसानों पर अत्याचार करने लगा। 1904 ई. में बिजौलिया के जागीरदार राव कृष्णसिंह ने किसानों को कुछ राहत दी किंतु उसके उत्तराधिकारी राव पृथ्वीसिंह ने 1906 ई. में उस छूट को समाप्त कर दिया तथा नये कर भी लगा दिये। 1913 ई. में बिजौलिया आंदोलन के प्रवर्तक साधु सीताराम दास, ब्रह्मदेव और फतहलाल चारण के नेतृत्व में लगभग एक हजार किसान राव के घर के बाहर एकत्रित हुए। वे, राव को एक प्रार्थना पत्र देना चाहते थे किंतु राव ने मिलने से मना कर दिया। इस पर किसानों ने तय किया कि वे जागीर की भूमि पर हल नहीं जोतकर, मेवाड़ की खालसा भूमि और ग्वालियर तथा बूंदी रियासतों की भूमि किराये पर लेकर उस पर हल जोतेंगे। इस कारण बिजौलिया जागीर के खेत खाली रहे और जागीर में अकाल पड़ गया। बिजौलिया जागीर को बड़ी आर्थिक हानि हुई। इन्हीं परिस्थितियों में राव पृथ्वीसिंह की मृत्यु हो गयी तथा उसका अल्पवयस्क पुत्र केसरीसिंह जागीरदार बना। मेवाड़ सरकार ने बिजौलिया का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। महाराणा ने किसानों को कुछ राहत दी तथा ठिकाने का भोग 2/5 के स्थान पर 1/3 कर दिया। फलों के कर में कमी कर दी तथा किसानों को अपने उपयोग के लिये बबूल के पेड़ काटने का अधिकार दे दिया। लकड़ी और घास जो किसान वर्षा ऋतु में ठिकाने को बेगार में देता था, उसे बंद कर दिया किंतु ठिकाने के अधिकारी महाराणा के आदेश की परवाह न करके किसानों से बेगार लेते रहे तथा पहले की तरह ही लाग-बाग मांगने लगे। 1916 ई. में बिजौलिया में सूखा पड़ा किंतु ठिकाने ने किसानों से प्रथम विश्वयुद्ध के लिये वारफण्ड का चंदा वसूलना आरम्भ कर दिया। इससे किसानों में असंतोष और भड़का तथा आंदोलन का नेतृत्व गुर्जर विजयसिंह पथिक ने अपने हाथों में ले लिया। बिजौलिया ठिकाने के कहने पर मेवाड़ राज्य ने पथिक को बंदी बनाने का आदेश जारी कर दिया। पथिक भूमिगत हो गये और किसान आंदोलन को गुप्त रूप से संचालित करने लगे। उनके सहयोगियों ने गाँव-गाँव जाकर किसानों का आह्वान किया कि वे वारफण्ड के लिये चंदा न दें।

बिजौलिया किसान आंदोलन के दूसरे चरण में विजयसिंह पथिक ने बारीसल गाँव में किसान पंचायत बोर्ड की स्थापना की तथा बिजौलिया किसानों का हस्ताक्षर-युक्त पत्र उदयपुर महाराणा के सम्मुख रखा। बिजौलिया जागीर के विभिन्न स्थानों पर आम सभाएं की गयीं तथा अनेक गाँवों में पंचायत बोर्ड की शाखाएं स्थापित की गयीं। किसानों को उत्साहित करने के लिये खेतों और जंगलों में रात को गुप्त सभाएं होती थीं। उदयपुर महाराणा ने पंचायतों से प्राप्त पत्रों पर ध्यान नहीं दिया तथा बिजौलिया के ठिकाणेदार ने किसान नेताओं को बंदी बनाकर बुरी तरह पीटा तथा उनके घरों को लूट लिया। उनकी स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार किया गया। अप्रेल 1919 में मेवाड़ सरकार ने जाँच कमीशन नियुक्त किया। इस कमीशन ने माणिक्यलाल वर्मा तथा साधु सीताराम को जेल से मुक्त करवाया। इन नेताओं ने कमीशन को बताया कि इस समय खेती से उनकी वार्षिक आय 13.25 रुपये मात्र है जिससे गुजारा नहीं चल सकता। इस पर कमीशन ने किसानों के साथ सहानुभूति दर्शाते हुए 51 किसानों को जेलों से मुक्त कर दिया। कमीशन ने मेवाड़ सरकार को कई उपाय सुझाये किंतु महाराणा ने कोई कदम नहीं उठाया और बिजोलिया किसान आंदोलन चलता रहा।

इस आंदोलन के तृतीय चरण में 1923 से 1926 ई. की अवधि में किसानों की दशा अत्यंत शोचनीय हो गयी और वे भूराजस्व देने की स्थिति में नहीं रहे। 1927 ई. में मेवाड़ राज्य के सेटलमेंट ऑफीसर जी. सी. ट्रेंच ने बिजौलिया ठिकाने में असिंचित भूमि के कर की दर अन्य ठिकानों की अपेक्षा अत्यधिक ऊंची कर दी। किसानों ने इसका भी विरोध किया जिसके बाद कुछ रियायत की गयी। आंदोलन के चतुर्थ चरण में अप्रेल 1938 में माणिक्यलाल द्वारा मेवाड़ में प्रजामण्डल की स्थापना की गयी। यह आंदोलन शीघ्र ही पूरे राज्य में फैल गया। 24 नवम्बर 1938 को बिजौलिया के किसानों ने उमाजी का खेरा की सभा में एक प्रस्ताव पारित किया कि यदि उनकी असिंचित भूमि उन्हें वापिस मिल जाती है तो वे मेवाड़ के प्रजामंडल आंदोलन में भाग नहीं लंेगे। मेवाड़ सरकार ने किसानों को प्रजामंडल के आंदोलन से दूर रखने के लिये उनसे समझौता कर लिया किंतु किसानों को अगले दो वर्ष तक कोई राहत नहीं मिली। 25 दिसम्बर 1939 को टी. राघवाचार्य मेवाड़ के नये प्रधानमंत्री नियुक्त हुए। उनके समय में 1941 ई. में यह आंदोलन समाप्त हुआ।

बेगूं आंदोलन: 1921 ई. में बेगूं के किसानों ने अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाई। इस पर बेगूं ठिकाणे के कर्मचारियों ने किसानों पर और अधिक जुल्म किये। किसानों की अपील पर तत्कालीन रेवेन्यू कमिश्नर ट्रेंच 13 जुलाई 1923 को बेगूं ठिकाणे के गोविंदपुरा गाँव आया। उसने किसानों पर गोली चलाई तथा गाँव में आग लगा दी। कई किसान घटना स्थल पर ही मर गये। पुलिस ने घरों में घुसकर स्त्रियों का सतीत्व भंग किया। इस पर विजयसिंह पथिक ने बेगूं आकर किसानों को ढाढ़स बंधाया तथा उनसे साहस बनाये रखने की अपील की। इस पर पथिक को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें 1928 ई. में मुक्त किया गया। इसी तरह का असहनीय अत्याचार धंगडमउ तथा भंडावरी में भी हुआ। पारसोली तथा काछोला में किसानों ने आंदोलन किये।

बूंदी आंदोलन: 1926 ई. में बूंदी के किसानों ने लाग-बाग व बैठ बेगार के विरुद्ध आंदोलन छेड़ा। स्त्रियां भी पीछे नहीं रहीं। सरकार द्वारा आंदोलनकारियों पर सख्ती की गयी। बूंदी के बरड़ गाँव में हाकिम इकराम हुसैन के निर्देशों पर बूंदी रियासत की पुलिस द्वारा एक समारोह में एकत्र भीड़ पर गोली चलायी गयी जिससे नानक भील की मृत्यु हो गयी। नयनूराम को बंदी बना लिया गया। कई स्त्रियां एवं बच्चे भी घायल हो गये। माणिक्यलाल वर्मा ने आंदोलनकारी किसानों का साथ दिया। बूंदी का किसान आंदोलन लगभग 17 वर्ष तक चलता रहा। अंत में 1943 ई. में बूंदी रियासत की सरकार ने किसानों की मांगें स्वीकार कीं और यह आंदोलन समाप्त हुआ।

अलवर आंदोलन: अलवर में जंगली सूअर खेतों में घुसकर फसल नष्ट कर देते थे। किसानों ने इन सूअरों को मारना चाहा किंतु राज्य सरकार ने उन्हें मारने पर पाबंदी लगा दी। इस पर 1921 ई. में अलवर के किसानों ने आंदोलन किया। अंत में अलवर के शासक ने किसानों की मांगें स्वीकार कर लीं। 1925 ई. में एक बार फिर अलवर राज्य में किसानों का जोरदार आंदोलन हुआ। यह आंदोलन 1923-24 ई. में अलवर के शासक द्वारा लगान दर बढ़ाये जाने के विरोध में हुआ। किसानों ने अलवर सरकार से लगान फिर से पुरानी दर पर करने की अपील की किंतु अलवर के शासक ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। किसानों ने सरकार को लगान देने से मना कर दिया तथा अनाज अपने घर ले गये। लगान वृद्धि के विरोध में नीमूचाना गाँव में एक किसान सभा का आयोजन किया गया। अलवर के कुछ राज्याधिकारियों ने अलवर महाराजा जयसिंह को बदनाम करने की नीयत से, सम्मेलन पर गोली चला दी। इस गोली काण्ड में सैंकड़ों किसान, बच्चे, वृद्ध तथा स्त्रियां मारी गयीं। बहुत से पशु, चारा, घर, अनाज भण्डार जल कर राख हो गये। बहुत से किसान गिरफ्तार कर लिये गये। यह सामंती जुल्मों की कड़ी में जोड़ा गया एक बहुत ही भयावह हादसा था। इसने भारत की अंतरात्मा को हिला कर रख दिया। कांग्रेस ने इस नर संहार की तुलना जलियांवाला काण्ड से की। ऐसा किया।

सीकर आंदोलन: सीकर तथा शेखावाटी क्षेत्र में भी किसानों ने लगान, लाग-बाग तथा करों में वृद्धि के विरोध में आंदोलन किया। ठिकानेदार ने किसानों के दमन के लिये कठोर नीति अपनायी। जयपुर राज्य ने सीकर के सामंत को लगान में कमी करने के निर्देश दिये किंतु सामंत ने इन आदेशों को ठुकरा दिया। 1932 ई. में भारतीय जाट महासभा ने सीकर के जाटों को अपना आंदोलन और भी तेज करने के लिये प्रेरित किया। 1934 ई. में प्रजापति जाट महायज्ञ के माध्यम से आंदोलन को तेज किया गया। इस पर ठिकाणेदार ने किसानों पर निर्मम अत्याचार किये। 1935 ई. में सीकर के शांतिपूर्ण किसान प्रदर्शन पर गोलियां दागी गयीं जिससे कुछ किसान मौके पर ही मर गये। बहुत से किसान घायल हुए।

शेखावाटी आंदोलन: सीकर की तरह शेखावाटी क्षेत्र के अन्य जागीरदार भी किसानों पर अत्याचार करने में पीछे नहीं रहे। 1922 ई. में मास्टर प्यारेलाल गुप्ता ने चिड़ावा में अमर सेवा समिति की स्थापना की। मास्टर प्यारेलाल गुप्ता उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले का रहने वाला था तथा चिड़ावा का गांधी कहलाता था। उसी साल खेतड़ी नरेश अमरसिंह ने चिड़ावा का दौरा किया। खेतड़ी नरेश की सेवा के लिये जब अमर सेवा समिति के सदस्यों को बेगार करने के लिये बुलाया गया तो सदस्यों ने बेगार करने से मना कर दिया। राजा के आदेश पर मास्टर प्यारेलाल गुप्ता सहित समिति के सात सदस्यों को बंदी बनाकर भयानक अत्याचार किये गये। चिड़ावा अत्याचार की सूचना पूरे देश में फैल गयी। चांद करण शारदा तत्काल चिड़ावा आये। सेठ जमनालाल बजाज, सेठ घनश्याम दास बिड़ला तथा सेठ वेणी प्रसाद डालमियां आदि नेताओं ने खेतड़ी के राजा को कठोर चिट्ठियां लिखकर कड़ा विरोध जताया। 23 दिन बाद सभी बंदियों को छोड़ा गया।

झुंझुनूं किसान आंदोलन: 1925 ई. में पं. मदन मोहन मालवीय के मुख्य आतिथ्य में अखिल भारतीय जाट सम्मेलन हुआ। पण्डितजी के ओजस्वी वक्तव्य से प्रभावित होकर झुंझुनूं जाट पंचायत की स्थापना की गयी। 1932 ई. में झुंझुनूं जाट महासभा अधिवेशन हुआ जिसमें निर्णय लिया गया कि किसान अपने साथ हथियार रखें ताकि उन्हें कमजोर नहीं समझा जाये। लोगों ने रिवॉल्वर तथा बंदूकें रखने प्रारंभ कर दिये। 1938 ई. तक इस क्षेत्र में हथियारों का प्रदर्शन करना साधारण बात हो गया। 11 मार्च 1938 को झूंझुनूं में वृहत् महिला सम्मेलन बुलाया गया। जब 1939 ई. में सेठ जमनालाल बजाज को जयपुर की सीमा पर गिरफ्तार करके आगरा भेज दिया गया तो शेखावाटी क्षेत्र में किसानों ने विरोध प्रदर्शन किये। झूंझुनूं, सीकर तथा चौमूं में बड़ी-बड़ी सभायें हुईं। जयपुर नरेश के नेतृत्व में जागीरदारों और ठिकानेदारों ने किसानों का मनोबल तोड़ने के लिये किसानों पर बड़े अत्याचार किये। यदि कोई व्यक्ति हाथ में तिरंगा लेकर निकलता तो सिपाही उसे गोली मार देते या नंगा करके पीटते, उन पर थूकते, उल्टा लिटाकर डण्डों की बरसात करते। इन अत्याचारों के विरोध में गाँव-गाँव में चंग बजने लगे जिन पर गाया जाता था- आठ फिरंगी नौ गौरा। लड़े जाट का दो छोरा। सत्याग्रही लोग होली की धमाल इस तरह गाया करते थे- गोरा हटज्या, भरतपुर गढ़ बांको। तू कै जाणैं गोरा, लड़े रे जाट को। ज्याणो बेटो दशरथ को, गोरा हटज्या।

15 मार्च 1939 को झूंझुनूं शहर में सरदार हरलाल सिंह ने गिरफ्तारी दी। झूंझुनूं में पुलिस ने पाशविकता का नंगा नाच किया। झूंझुनूं पहुंचने वाले मार्ग पर कई किलोमीटर तक पुलिस तैनात कर दी गयी किंतु बहुत बड़ी संख्या में लोग हाथों में झण्डा लेकर सड़कों पर निकल आये। पुलिस भूखे भेड़ियों की तरह उन पर टूट पड़ी। उस दिन लगभग 1 लाख किसान झूंझुनूं पहुंचे जिन्हें पुलिस ने पीट-पीट कर अधमरा कर दिया। महिलाओं के जत्थों पर भी लाठियां बरसाई गईं किंतु महिलाओं ने पुलिस को झण्डे तक नहीं पहुंचने दिया। पुलिस ने लोगों पर घोड़े दौड़ाये। जब ये समाचार पूरे देश को मिले तो देश स्तब्ध रह गया। इतना होने पर भी जयपुर नरेश मानसिंह ने अपनी टेक नहीं छोड़ी। उसने 29 मार्च 1941 को झूंझुनूं का दौरा किया। पंचपाना के सरदारों ने जयपुर नरेश का महानायक की तरह स्वागत किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही यह आंदोलन समाप्त हो सका।

निष्कर्ष

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध एवं बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में हुए किसान आन्दोलन भारतीय इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना है। भारत में अँग्रेजी शासन की स्थापना से ही भारत में किसान आंदोलन आरम्भ हुए जो भारत की आजादी तक चलते रहे। प्रारम्भ में किसानों का गुस्सा साहूकारों और जमींदारों से बदला लेने के लिये आंदोलन का रूप लेता था किंतु बाद में उनके आंदोलन अधिक व्यापक एवं उग्र हो गये। भारत सरकार, प्रांतीय सरकारों, राजाओं एवं जागीरदारों ने किसान आंदोलनों पर लाठियां और गोलियां चलाने से परहेज नहीं किया। इन आंदोलनों से प्रजा और शासकों के सम्बन्ध हमेशा के लिये खराब हो गये। अब उनके बीच किसी तरह की समरसता का उत्पन्न होना संभव नहीं रह गया। किसानों ने पूर्णतः संगठित न होते हुए भी जोरदार आन्दोलन किये। कांग्रेस ने किसानों का साथ नहीं दिया। साम्यवादियों ने किसानों को समर्थन तो दिया किंतु वे किसानों को सरकार की गोलियों से मरने से नहीं बचा पाये। भारत की आजादी की लड़ाई में यद्यपि किसान आंदोलनों की भूमिका को महत्त्व नहीं दिया जाता है किंतु यह उचित नहीं है। वास्तविकता यह है कि आजादी के पौधे को क्रांतिकारियों, किसानों एवं मजदूरों ने भी अपने रक्त से सींचा था।

अध्याय – 80 : भारत में दलित आन्दोलनों का उदय

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हिन्दू समाज में उत्तर वैदिक काल में जिस वर्ण व्यवस्था का उद्भव हुआ, उस वर्ण व्यवस्था ने कालांतर में श्रम विभाजन के आधार को त्यागकर कर्म एवं उसकी श्रेणी के आधार पर जाति व्यवस्था को जन्म दिया। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र वर्ण के साथ-साथ एक अन्य वर्ग भी अस्तित्व में आया जिसे अन्त्यज कहा जाता था। इस वर्ग में डोम, मच्छीमार, चिड़ीमार, मातंग, चाण्डाल, चमार, सरगरा, ढोली, रैगर, खटीक, मेहतर, नट, जुलाहे आदि आते थे। इस वर्ग को शूद्रों से भी नीचा माना जाता था इस कारण उन्हें अस्पृश्य माना जाता था। अर्थात् उच्च वर्ण वालों के लिये इस वर्ग के लोगों का स्पर्श करना वर्जित था। यदि कोई व्यक्ति अस्पृश्य जाति के व्यक्ति को छूता था तो स्वयं अपवित्र हो जाता था। उसे अपवित्रता से मुक्त होने के लिये स्नान करना पड़ता था। ये लोग गांव की बाहरी सीमा पर रहते थे। हिन्दू समाज की इस कुप्रथा ने इन जातियों को नीच तथा अछूत कहकर तिरस्कृत एवं बहिष्कृत जैसी स्थिति में पटक दिया था। उन्नीसवी सदी में भी हिन्दू समाज में भेदभाव एवं ऊँच-नीच की भावना व्याप्त थी। निम्न जातियों को शिक्षा प्राप्त करने, अपना परम्परागत कार्य छोड़कर अन्य कार्य करने, सामाजिक उत्सवों में भाग लेने तथा राजनीति में भाग लेने का अधिकार नहीं था। वे सार्वजनिक कुओं, तालाबों और जलाशयों से स्वयं जल नहीं ले सकते थे। उनके लिये मंदिरों में प्रवेश करना, देवता की प्रतिमा को हाथ लगाना, वेद पढ़ना आदि कार्य पूरी तरह वर्जित थे। वे सामाजिक अधिकारों से वंचित थे तथा अन्य जातियों के साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन नहीं कर सकते थे।

यदि कोई अस्पृश्य जाति का व्यक्ति सामाजिक वर्जनाओं का उल्लंघन करता था तो उसे बुरी तरह मारा-पीटा जाता था। विरोध करने पर उसकी तथा उसके परिवार की हत्या भी कर दी जाती थी। इन कारणों से अस्पृश्यता की कुप्रथा, हिन्दू समाज के लिये कलंक बन गई तथा भारतीय समाज का बहुत बड़ा भाग दयनीय अवस्था को प्राप्त हो गया। शिक्षा एवं संस्कारों के आलोक से वंचित रह जाने से इस वर्ग के लोग निर्धन, कुसंस्कारित, अशिक्षित तथा असभ्य हो गये। उनका कार्य उच्च समझी जाने वाली जातियों की सेवा करना मात्र था। समाज में उन्हें घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। उनकी आर्थिक दशा अत्यंत खराब थी। उन्हें पर्याप्त भोजन तथा वस्त्र नहीं मिलता था। उन्हें आध्यात्मिक उन्नति के अवसर भी उपलब्ध नहीं थे। उनके कानों में वेदों के मंत्रों का प्रवेश निषेध था। वे मोक्ष के भी भागीदार नहीं थे।

निर्योग्यताएँ दूर करने के प्रयास

अछूतों अथवा दलितों की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक दशा सुधारने के लिये सबसे पहले महात्मा बुद्ध तथा महावीर स्वामी आगे आये। उन्होंने जाति प्रथा का खण्डन कर दलितों को भी अन्य मनुष्यों के ही समान बताया। बुद्ध एवं महावीर की शिक्षाओं के कारण दलितों को भी मोक्ष का भागी समझा जाने लगा। कोई भी दलित, बौद्ध धर्म का अनुयायी होकर बौद्ध आश्रम में एवं जैन धर्म का अनुयायी होकर जैन उपाश्रय में बराबरी के अधिकार से प्रवेश पा सकता था। सिद्धों एवं नाथों ने भी वर्ण व्यवस्था को निरर्थक बताया। वैष्णव संतों ने समाज के लिये भक्ति, प्रपत्ति एवं शरणागति के मार्गों का प्रतिपादन करके अछूतों के लिये भी भगवत् प्राप्ति का मार्ग खोला।

मध्य काल में रामानन्द ने जाति-व्यवस्था को दूर करने का प्रयत्न किया। उन्होंने दलितों को भी अपना शिष्य बनाया। उनके बाद कबीर, नानक, तुकाराम, एकनाथ, नामदेव आदि सन्तों ने भी अस्पृश्यता दूर करने के प्रयत्न किये। इस युग के संतों ने घोषणा की- ‘जांत-पांत पूछे नहीं कोई, हरि भजे सो हरि को होई।’ इससे धर्म-भीरू हिन्दू समाज में दलितों के प्रति करुणा और सहानुभूति का भाव तो उत्पन्न हुआ किंतु अस्पृश्यता की भावना को समाप्त नहीं किया जा सका। इस काल में जुलाहे और मोची भी भगवान के बड़े भक्त हुए और उन्हें संत का दर्जा दिया गया। 

जब मुसलमानों ने भारत में प्रवेश किया तो दलितों को अपने लिये नई राह दिखाई दी। इस्लाम में जाति भेद, छुआछूत तथा अस्पृश्यता जैसी बुराइयां नहीं थीं। इस्लाम को मानने वाले समस्त मनुष्य बराबर थे। यही कारण था कि बहुत से दलित, मुस्लिम शासकों के काल में स्वेच्छा से मुसलमान बन गये किंतु उन्हें शीघ्र ही अनुमान हो गया कि विदेशी मुसलमानों ने किसी भी भारतीय मुसलमान को बराबरी का दर्जा नहीं दिया, भले ही वह हिन्दुओं की किसी भी जाति से क्यों न आया हो। इसलिये दलितों के मुसलमान बनने की प्रक्रिया रुक गई। वे हिन्दू धर्म के किनारे पर ही सही किंतु अपने धर्म में बने रहे।

आधुनिक काल में दलितोत्थान के लिये किये गये प्रयास

आधुनिक युग में सर्वप्रथम राजा राममोहन राय ने ब्रह्म-समाज के माध्यम से जाति-व्यवस्था के बन्धन शिथिल करके अस्पृश्यता दूर करने का प्रयत्न किया। इसके बाद स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज के माध्यम से जाति-प्रथा, छुआछूत आदि बुराइयों का खण्डन किया। उन्होंने शुद्धि संगठन का सूत्रपात किया जिसके माध्यम से उन मुसलमानों को फिर से हिन्दू धर्म में लौट आने के लिये प्रेरित किया जो ना-ना कारणों से मुसलमान अथवा ईसाई हो गये थे। आर्य समाज ने दलितों की दशा सुधारने का अथक प्रयास किया और उन्हें उत्तर भारत के अनेक प्रांतों में कुछ सफलता भी मिली। उन्होंने अछूतों में शिक्षा का प्रसार करके उनमें नई स्फूर्ति फूंकने का प्रयास किया। महाराष्ट्र में ज्योति राव फूले ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने सत्य शोधक समाज के माध्यम से दलितों में स्त्री-शिक्षा का प्रसार किया, अस्पृश्यता का जोरदार विरोध किया तथा ब्राह्मणवाद को चुनौती दी।

ईसाई मिशनरियों के प्रयास

1876-77 ई. में देश में भयंकर अकाल पड़ा जिसके कारण निर्धन अवस्था में जी रहे दलित, बड़ी संख्या में मरने लगे। इस अवस्था में ईसाई मिशनरियों ने आगे बढ़कर दलितों की बड़ी सहायता की। इससे प्रभावित होकर 1880 ई. से दलित जातियाँ बड़ी संख्या में धर्म परिवर्तन कर ईसाई बनने लगीं। आर्य समाज ने इस खतरे का अनुभव करते हुये इनके उद्धार के लिये प्रयत्न किये।

महात्मा गाँधी के अछूतोद्धार कार्य

1920 ई. के बाद महात्मा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने अस्पृश्यता निवारण को अपने रचनात्मक कार्यक्रम का अंग बनाया। इसी काल में बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर का भी इस क्षेत्र में पदार्पण हुआ। गाँधी और अम्बेडकर के प्रयासों से हरिजनों के मन्दिर प्रवेश के लिये कानून बना। अम्बेडकर द्वारा दलितों को सवर्ण हिन्दुओं से अलग मानते हुये उनके लिये अलग स्थान आरक्षित करने की माँग की गई। इसके परिणाम स्वरूप 1932 ई. में ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक पंचाट की घोषणा की जिसके अनुसार हरिजनों को हिन्दुओं से अलग मानकर विधान मण्डलों में  अलग प्रतिनिधित्व दिया गया। गाँधीजी ने इसके विरोध में पूना में अनशन किया। अन्त में गाँधीजी और अम्बेडकर के बीच पूना पैक्ट हुआ जिसमें गाँधीजी ने दलितों के लिये अलग प्रतिनिधित्व की बात स्वीकार करते हुए हिन्दुओं व दलितों का निर्वाचन संयुक्त रखा। इसी समय गाँधीजी ने दलितों को हरिजन अर्थात् ईश्वर का व्यक्ति, नाम दिया। गाँधीजी ने हरिजनों की दशा सुधारने के लिये हरिजन सेवक संघ की स्थापना की तथा हरिजन नामक समाचार पत्र निकाला जिसमें अस्पृश्यता निवारण एवं हरिजनोद्धार सम्बन्धी लेख प्रकाशित होते थे। गाँधीजी ने हरिजनोद्धार के लिये पूरे देश का दौरा किया तथा हिन्दू समाज में हरिजनों के प्रति नई दृष्टि विकसित की। 1937 ई. में ब्रिटिश प्रान्तों में कांग्रेसी सरकारें स्थापित होने के बाद हरिजनों की उन्नति, शिक्षा तथा सामाजिक प्रतिबन्धों को दूर करने की ओर ध्यान दिया गया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सरकार द्वारा इस दिशा में कुछ और कार्य किये गये।

डॉ. भीमराव अम्बेडकर (1891-1965 ई.) के प्रयास

दलितों के मसीहा माने जाने वाले डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रेल 1891 को हुआ। 1927 ई. में उन्होंने बम्बई से बहिष्कृत भारत नामक पाक्षिक पत्र निकाला। 1930 ई. में वे अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ के अध्यक्ष बने तथा 1930-31 ई. में दलितों के प्रतिनिधि बनकर लन्दन में आयोजित प्रथम एवं द्वितीय गोलमेज सम्मेलनों में भाग लेने गये। वहाँ उन्होंने अछूतों को हिन्दू-समाज से पृथक् प्रतिनिधित्व दिलाने में सफलता प्राप्त की। दलितों को अलग प्रतिनिधित्च दिलवाने के विषय पर अम्बेडकर का गाँधीजी से टकराव रहा। 1936 ई. में अम्बेडकर ने इंडिपेन्डेन्ट लेबर पार्टी की स्थापना की और दलितों, मजदूरों तथा किसानों की माँगों के लिये संघर्ष किया। बाद में उन्होंने इस पार्टी को अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ में बदल दिया। 1946 ई. में उन्हें संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया। 3 अगस्त 1949 को उन्हें भारत सरकार में विधि मन्त्री बनाया गया। वे अछूत मानी जाने वाली जातियों की स्थिति में सुधार नहीं आने के कारण असंतुष्ट थे। इस कारण सितम्बर 1951 में उन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। अक्टूबर 1950 में अम्बेडकर ने अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। उनकी दृष्टि में विदेशी धरती से आये किसी भी धर्म का अनुयायी होने के स्थान पर, भारत की भूमि पर उत्पन्न किसी भी धर्म का अनुयायी हो जाना अधिक श्रेयस्कर था। 6 दिसम्बर 1965 को बाबा साहब का निधन हो गया।

डॉ. अम्बेडकर ने ब्राह्मणवाद, सवर्णों एवं उच्च जातियों के दम्भ और पाखण्ड के विरुद्ध आजीवन संघर्ष किया। उन्होंने इस संघर्ष को प्रचार आन्दोलन, शास्त्रार्थ, कानूनी लड़ाई, राजनीतिक आंदोलन और अंहिसा के दायरे में रखा। बाबा साहब द्वारा आरम्भ किया गया दलितोद्धार आन्दोलन, ब्रह्म-समाज, आर्य-समाज, विवेकानन्द और गाँधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम से अधिक प्रभावी एवं अधिक रचनात्मक था। उनकी दृष्टि में वर्ण व्यवस्था ही अस्पृश्यता की जड़ थी। इसी वर्ण-व्यवस्था के आधार पर हिन्दू समाज, दलितों के प्रति अन्यायपूर्ण, अव्यवहारिक, अमानवीय तथा शोषणकारी व्यवहार करता था। उनका कहना था कि संसार के अन्य किसी धर्म, देश और समुदाय में ऐसी आत्मघाती व्यवस्था नहीं पायी जाती। श्रम-विभाजन और विशेषीकरण की स्वाभाविक योजना से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। मनुष्यों को किसी भी आधार पर स्पष्टतः चार वर्णों में विभाजित नहीं किया जा सकता। पुरूष-सूक्त के अतिरिक्त कहीं भी चार वर्णों का उल्लेख नही मिलता किंतु मनु तथा याज्ञवल्क्य आदि स्मृतिकारों ने अपने ग्रन्थों में स्थायी रूप से शूद्रों को हीन स्थिति में डाल दिया और उन्हें धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक अधिकारों से वंचित कर दिया। अस्पृश्यता निवारण के लिये ब्राह्मणवाद तथा ब्राह्मण-शास्त्रों की समाप्ति आवश्यक है। यह केवल राज्य की सहायता से ही किया जा सकता है। उनका मानना था कि अछूतों को सभी सार्वजनिक स्थानों के प्रयोग का अधिकार हो। स्वयं डॉ. अम्बेडकर ने 1927 ई. में महद तालाब सत्याग्रह तथा बाद में गंगासागर तालाब सत्याग्रह और 1930 ई. में कालाराम मन्दिर प्रवेश आन्दोलन चलाये। अस्पृश्यता एवं जाति-प्रथा के विरुद्ध उनका संघर्ष सफल रहा। इससे समाज में छुआछूत की भावना बहुत हद तक कम हो गई। उनके दलितोद्धार कार्यक्रम ने हिन्दू समाज और भारत राष्ट्र की महान् सेवा की है।

स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद समाज-सुधार के कार्य

दलितों के कल्याण के सार्थक प्रयास, भारत के स्वतंत्र होने के बाद ही आरम्भ किये जा सके। आजादी के बाद भारत सरकार एवं प्रांतीय सरकारों ने दलितों के उत्थान के लिये अनेक कार्यक्रम आरम्भ किये जो आज तक चल रहे हैं। भारत के संविधान ने धर्म, जाति, लिंग, भाषा, वर्ण इत्यादि के भेदभाव से परे सभी नागरिकों को समान राजनीतिक अधिकार प्रदान किये। इसमें दलित एवं वनवासी जनजातियाँ भी सम्मिलित थीं। संविधान की धारा 17 में कहा गया है- ‘अस्पृश्यता समाप्त कर दी गई है और इसके किसी भी रूप में अमल पर पाबन्दी है। छुआछूत से सम्बन्धित कोई भी भेदभाव कानून की नजरों में दण्डनीय अपराध होगा।’

1955 ई. में संसद ने अस्पृश्यता (अपराध) एक्ट पारित किया। इसमें स्पष्ट किया गया कि ऐसे अपराधों के लिये दण्ड, लाइसेन्स रद्द किया जाना एवं सार्वजनिक सहायता बन्द करना आदि प्रावधान सम्मिलित हैं। 1976 ई. में नागरिक अधिकार संरक्षण (संशोधन) एक्ट पारित करके, अस्पृश्यता करने वालों के लिये और भी कठोर सजा का प्रावधान किया। इस कानून की पालना करवाने के लिये विशेष अधिकारियों, विशेष न्यायालयों, विधिक सहायता आदि के प्रावधान किये गये। संविधान में जनजातियों के लिये विधायिकाओं, शैक्षणिक संस्थाओं और सरकारी सेवाओं में सीटों के आरक्षण का प्रावधान भी जोड़ा गया। आरम्भ में आरक्षण दस वर्षों के लिए किया गया किंतु तब से इसे लगातार बढ़ाया जाता रहा है। दलितों की शिक्षा के लिये शिक्षण-संस्थाओं में भी सीटों के आरक्षण की व्यवस्था की गई तथा दलित विद्यार्थियों के लिये विशेष छात्रवृत्तियों की योजनाएं आरम्भ की गईं। उनके लिये अलग से विद्यालय एवं छात्रावास खोले गये। इन उपायों के परिणामस्वरूप दलितों में शिक्षा का तेजी से प्रसार हुआ। सरकारी सेवाओं में उनके आरक्षण की व्यवस्था से उनके लिये रोजगार के अवसर बढ़े जिससे लाखों दलित परिवारों की आर्थिक स्थिति में जबरदस्त बदलाव आया है।

दलितोद्धार कार्यक्रमों का भावी स्वरूप

विगत तिहत्तर वर्षों के दलितोद्धार कार्यक्रमों को चलाये जाने के बाद भी यह अनुभव किया जा रहा है कि दलितों के उद्धार के लिये चलाये जा रहे कार्यक्रमों का लाभ बहुत बड़ी संख्या में दलित परिवारों तक नहीं पहुंच पा रहा है। इसलिये सर्वशिक्षा जैसे अभियान प्रारम्भ किये गये हैं ताकि समाज का कोई भी परिवार शिक्षा के आलोक से वंचित न रहे। यदि सम्पूर्ण भारतीय समाज शिक्षित होगा तो निश्चित रूप से समाज में कोई दलित नहीं रह जायेगा।

अध्याय – 81 : भारत सरकार अधिनियम 1919

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 भारत की गोरी सरकार का 1909 ई. का अधिनियम मार्ले-मिण्टो सुधार एक्ट कहलाता है। यह कांग्रेस की 1907 ई. की सूरत फूट का लाभ उठाने, कांग्रेस के उग्रवादी नेताओं को हतोत्साहित करने, उदारवादी नेताओं की पीठ थपथपाने, क्रांतिकारी आंदोलन को कुचलने और अलगाववादी-मुसलमानों को प्रसन्न करके उन्हें कांग्रेस तथा राष्ट्रीय आन्दोलन से दूर रखने की एक सोची-समझी तथा सुनिश्चित रणनीति थी। भारतीयों को 1909 ई. के सुधारों से सन्तोष नहीं हुआ और देश में दिन-प्रतिदिन राजनीतिक असन्तोष के साथ-साथ क्रान्तिकारी एवं आतंकवादी गतिविधियों में वृद्धि होती चली गई। 1914 ई. में प्रथम विश्व युद्ध आरम्भ हुआ। तिलक और ऐनीबीसेंट ने मिलकर होमरूल आन्दोलन चलाया। भारतीय जनता पुनः संघर्ष के रास्ते पर चल पड़ी। सरकार को विश्व युद्ध में भारतीयों के सहयोग की आवश्यकता थी। कांग्रेस की अपील पर भारतीयों ने इस युद्ध में अँग्रेजों का पूरा सहयोग दिया।

1916 ई. में इतिहास का पहिया एक बार फिर से सीधी दिशा में घूम गया जब बाल गंगाधर तिलक के प्रयासों से कांग्रेस के नरम दल और गरम दल (उदारवादी एवं उग्रवादी) पुनः एक हो गये। इसी काल में कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग दोनों एक ही मंच पर आकर अँग्रेजों से अधिक सुधारों की मांग करने लगीं। इस बीच इंग्लैण्ड की सरकार ने मेसोपोटामिया में तुर्की के विरुद्ध युद्ध का संचालन भारत सरकार को सौंपा। भारत सरकार मेसोपोटामिया के मोर्चे पर असफल रही। इस पर इंग्लैण्ड में बड़ा विवाद उठा और मेसोपोटामिया कमीशन की नियुक्ति की गई। इस कमीशन ने भारत सरकार को दोषी ठहराया, उसकी कड़ी आलोचना की तथा उसे सर्वथा अयोग्य बताया। उसने तत्कालीन भारतीय शासन-प्रणाली को त्रुटिपूर्ण बताते हुए उसमें सुधारों की मांग की। फलस्वरूप भारत सचिव चेम्बरलेन को त्यागपत्र देना पड़ा और मांटेग्यू ने उसका स्थान ग्रहण किया।

भारत सरकार अधिनियम-1919 (मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार)

प्रथम विश्व युद्ध जीतने के लिये इंग्लैण्ड को हर हालत में भारतीयों के सहयोग की आवश्यकता थी। इसलिये भारत सचिव मांटेग्यू ने 20 अगस्त, 1917 को इंग्लैण्ड के हाउस ऑफ कॉमन्स में एक ऐतिहासिक घोषणा की। उसने कहा- ‘सम्राट की सरकार की नीति जिससे भारत सरकार भी पूर्णतः सहमत है, यह है कि भारतीय शासन के प्रत्येक विभाग में भारतीयों का सम्पर्क उत्तरोत्तर बढ़े और उत्तरदायी शासन प्रणाली का क्रमिक विकास हो, जिसमें अधिकाधिक प्रगति करते हुए भारत में स्वशासन प्रणाली स्थापित हो और वह ब्रिटिश साम्राज्य का एक अंग बनकर रहे। उन्होंने यह तय कर लिया है कि जितना शीघ्र हो इस दिशा में ठोस रूप में कुछ कदम उठाये जाएं।’

इस घोषणा में कोई ठोस एवं स्पष्ट व्यवस्था नहीं थी कि कौनसे कदम उठाये जायेंगे। भारत के विभिन्न पक्षों में इस घोषणा पर मिलीजुली प्रतिक्रिया हुई। कांग्रेस के नरम दल ने उसका स्वागत मैग्नाकार्टा के रूप में किया, जबकि गरम दल नेताओं ने इसको शब्दों का जाल बताकर राष्ट्रीयता को अवरुद्ध करने की दिशा में एक षड़यन्त्र बताया। जन-साधारण ने इसे संवैधानिक सुधारों की दिशा में महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखा। जब इसके प्रारूप का प्रकाशन हुआ तो भारतीयों को आशा की अपेक्षा निराशा अधिक हुई क्योंकि प्रस्तावित योजना में भारतीयों की प्रगति का मूल्यांकन, ब्रिटिश सरकार के हाथों में रखा गया और एकदम उत्तरदायी सरकार की स्थापना नहीं की गयी, जो कि भारतीयों की प्रमुख मांग थी। मांटेग्यू की रिपोर्ट के आधार पर 2 जून 1919 को एक विधेयक ब्रिटिश संसद में रखा गया। 18 दिसम्बर 1919 को यह विधेयक संसद द्वारा पारित कर दिया गया तथा 23 दिसम्बर 1919 को इंग्लैण्ड के बादशाह ने इसे स्वीकृति प्रदान कर दी जिससे यह कानून बन गया।

अधिनियम को पारित करने के कारण

1919 ई. के सुधार अधिनियम को पारित करने के निम्नलिखित कारण थे-

(1.) मार्ले-मिन्टो सुधार अधिनियम-1909 के द्वारा गोरी सरकार ने मुसलमानों की निष्ठा क्रय करने और हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य उत्पन्न करने का प्रयास किया था परन्तु बाद में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं जिनके कारण मुसलमान भी अँग्रेजों के विरोधी बन गये और 1916 ई. में वे कांग्रेस के साथ मिलकर स्वराज की मांग करने लगे।

(2.) तिलक और ऐनीबीसेंट के होमरूल आन्दोलन ने भारतीयों में नवीन आशा का संचार किया। सरकार ने आन्दोलन को क्रूर तरीके से दबाने का प्रयास किया। इससे जन असन्तोष और अधिक भड़क उठा। इसे शान्त करना आवश्यक था।

(3.) केन्द्रीय विधान परिषद् के 19 निर्वाचित सदस्यों ने भारत मंत्री को भारत में सुधारों के सम्बन्ध में एक प्रस्ताव भिजवाया था।

(4.) कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने ब्रिटिश सरकार के समक्ष कांग्रेस लीग योजना के नाम से सुधारों की एक योजना प्रस्तुत की थी।

(5.) मेसोपोटामिया कमीशन की रिपोर्ट में भारतीय शासन प्रणाली को त्रुटिपूर्ण बताते हुए उसमें सुधारों की मांग की गई थी।

(6.) प्रथम विश्व युद्ध के काल में भारतीयों का सहयोग प्राप्त करने के लिये ब्रिटिश सरकार ने, युद्ध समाप्ति के बाद भारतीयों को स्वराज्य देने की बात कही थी। युद्ध समाप्ति के बाद जब भारतीयों को कुछ भी नहीं मिला तो उनका आक्रोश चरम पर पहुंच गया। भारतीयों के असन्तोष को कम करने के लिये मार्ले-मिन्टो सुधार अधिनियम के माध्यम से उत्तरदायी शासन की स्थापना का नाटक रचा गया।

मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट

नवम्बर 1917 में भारत सचिव मांटेग्यू दिल्ली आये। उन्होंने गवर्नर जनरल चेम्सफोर्ड के साथ भारत के प्रमुख नगरों का दौरा किया। मांटेग्यू ने भारतीय सेना के प्रमुख अधिकारियों तथा विभिन्न प्रतिनिधि मण्डलों से विचार-विमर्श करके प्रस्तावित सुधारों के बारे में उनके सुझाव प्राप्त किये। तत्पश्चात् एक रिपोर्ट तैयार की गई जिसे मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट कहते हैं। 8 जुलाई 1918 को यह रिपोर्ट प्रकाशित कर दी गई। इस रिपोर्ट के मुख्य बिन्दु इस प्रकार से थे-

(1.) जहाँ तक सम्भव हो, स्थानीय संस्थाओं पर जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों का नियन्त्रण हो, सरकार का हस्तक्षेप कम से कम हो।

(2.) प्रान्तों में आंशिक उत्तरदायी सरकारें स्थापित की जायें और प्रान्तों को पहले की अपेक्षा अधिक शक्तियां दी जायें।

(3.) ब्रिटिश संसद के प्रति भारत सरकार की जिम्मेदारी ज्यों की त्यों बनी रहे किन्तु केन्द्रीय विधान परिषद् का विस्तार किया जाये ताकि यह भारत सरकार को पहले से अधिक प्रभावित कर सके।               

(4.) भारत सरकार पर, भारत सचिव का नियन्त्रण कम कर दिया जाये।

(5.) सिक्ख, ईसाई और आंग्ल-भारतीयों को भी अलग प्रतिनिधित्व दिया जाये।

भारत सरकार अधिनियम 1919

मांटेग्यू-चैम्सफोर्ड रिपोर्ट के आधार पर 1919 ई. में ब्रिटिश संसद में एक विधेयक पारित किया गया। इसे मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार अधिनियम अथवा भारत सरकार अधिनियम 1919 कहते हैं। इस अधिनियम को 1921 ई. में लागू किया गया। इस अधिनियम के अन्तर्गत निम्नलिखित संवैधानिक परिवर्तन किये गये-

(क) गृह सरकार

भारत सचिव: भारत में ब्रिटिश शासन प्रणाली के अंतर्गत भारत के शासन को दो भागों में बांटा गया था- एक भाग इंग्लैण्ड में कार्य करता था और दूसरा भारत में। शासन का इंग्लैण्ड वाला भाग गृह सरकार कहलाता था। इसके पांच मुख्य अंग थे- बादशाह, मन्त्रिमण्डल, संसद, भारत सचिव और भारत परिषद् (इण्डिया कौंसिल)। इनमें भारत सचिव और भारत परिषद् सर्वाधिक महत्त्वूपर्ण थे। भारत सचिव, भारत के शासन सम्बन्धी मामलों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी था। अब तक भारत सचिव को भारतीय राजस्व में से वेतन मिलता था। भारतीयों ने इस प्रणाली के विरुद्ध अनेक बार विरोध प्रदर्शित किया था। अतः 1919 ई. के अधिनियम द्वारा भारत सचिव का वेतन इंग्लैण्ड के कोष से दिये जाने की व्यवस्था की गई। 1919 के अधिनियम के द्वारा भारत सचिव की शक्तियों में मामूली कमी की गई। प्रान्तों में जो विषय भारतीय मंत्रियों को दिये गये, उन्हें हस्तान्तरित विषय कहा गया तथा जो विषय गवर्नर के पास रखे गये, उन्हें रक्षित विषय कहा गया। हस्तान्तरित विषयों में भारत सचिव का हस्तक्षेप निम्नलिखित बातों तक सीमित कर दिया गया –

(1.) ब्रिटिश साम्राज्य के हितों की रक्षा करना।

(2.) गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद् को 1919 के अधिनियम के अन्तर्गत जो कार्य सौंपे गये है, उनकी देखभाल करना तथा उनके उचित कार्यों का समर्थन करना।

(3.) केन्द्रीय विषयों के शासन की देखभाल करना।

(4.) भारतीय हाईकमिश्नर, भारतीय नौकरियों और अपने ऋण लेने के अधिकारों की रक्षा करना।

(5.) केन्द्र तथा प्रान्तों के रक्षित विषयों पर भी भारत सचिव का नियन्त्रण कुछ ढीला कर दिया गया। इस अधिनियम के पूर्व जो भी विधेयक केन्द्रीय अथवा प्रान्तीय विधान सभाओं में प्रस्तुत किये जाते थे, उनमें भारत सचिव की पूर्व स्वीकृति आवश्यक थी। इस अधिनियम में यह व्यवस्था की गई कि कुछ विशेष मामलों से सम्बन्धित विधेयक जैसे- विदेशी मामले, सीमा शुल्क, सैनिक मामले, मुद्रा तथा सार्वजनिक ऋण आदि को छोड़कर शेष विषयों में भारत सचिव की पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होगी। प्रान्तों के मामलों के सम्बन्ध में यह निश्चित कर दिया गया कि किसी भी बिल को भारत सचिव के पास तब तक नहीं भेजा जायेगा, जब तक कि गवर्नर जनरल उसकी स्वीकृति के बारे में कोई रुकावट उत्पन्न न करे।

(6.) भारत सचिव की पूर्व-स्वीकृति के बिना, गवर्नर जनरल, भारत में कोई भी महत्त्वपूर्ण नियुक्ति नहीं करेगा तथा कोई भी महत्त्वपूर्ण पद कम नहीं करेगा।

भारत परिषद्: भारत परिषद् के संगठन में भी सुधार किया गया। अधिनियम के पूर्व भारत परिषद् का सारा व्यय भारत के राजस्व से वसूल किया जाता था। अब इस परिषद् के अधिकारियों, कर्मचारियों तथा कार्यकाल के समस्त खर्चे इंग्लैण्ड के खजाने से देने की व्यवस्था की गई। यह भी व्यवस्था की गई कि भारत परिषद् में कम से कम आठ तथा अधिक से अधिक बारह सदस्य होंगे। इनमें से आधे सदस्य ऐसे होंगे जिन्हें भारत में सेवा करने का कम से कम दस वर्ष का अनुभव हो। भारत परिषद् के सदस्यों का कार्यकाल 7 वर्ष से घटाकर 5 वर्ष कर दिया गया तथा उनका वेतन 1000 पौंड से बढ़ाकर 1200 पौंड वार्षिक कर दिया गया।

हाई कमिश्नर: इस अधिनियम के अन्तर्गत पहली बार हाई कमिश्नर के पद का सृजन किया गया। इससे पूर्व भारत सरकार के लिए भण्डारों की समस्त आवश्यक वस्तुएं और मशीनें भारत सचिव लन्दन में खरीदता था। इस अधिनियम में यह तय किया गया कि हाई कमिश्नर, भारत सरकार की समस्त आवश्यक वस्तुएं लन्दन में खरीदेगा। इसके अतिरिक्त वह इंग्लैण्ड में पढ़ने वाले भारतीय विद्यार्थियों की सुविधाओं और आवश्यकताओं पर ध्यान देगा। हाई कमिश्नर की नियुक्ति सपरिषद् गवर्नर जनरल करेगा। उसका वेतन भारतीय कोष से दिया जायेगा। उसे साधारणतः 6 वर्ष के लिये नियुक्त किया जायेगा।

उपर्युक्त परिवर्तनों से गृह-सरकार पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि इस अधिनियम के बाद भी उसकी वैधानिक सर्वोच्चता ज्यों की त्यों बनी रही। गवर्नर जनरल और उसकी सरकार के समस्त सदस्यों को गृह-सरकार का आदेश मानना तथा उनके द्वारा निर्धारित नीति पर चलना अनिवार्य था।

(ख) केन्द्रीय सरकार

गवर्नर जनरल और उसकी कार्यकारिणी: इस अधिनियम द्वारा केन्द्रीय कार्यकारिणी परिषद् की रचना और उसकी शक्तियों में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं किया गया। भारत की समस्त कार्यकारिणी शक्ति सपरिषद् गवर्नर जनरल में निहित थी। गवर्नर जनरल की शक्तियां पहले की भांति असीमित, निरंकुश और अनुत्तरदायी थीं। भारत की शान्ति एवं व्यवस्था के लिए वह भारत सचिव के प्रति उत्तरदायी था और भारत सचिव ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था। अपने विशेषाधिकारों, कार्यपालिका, व्यवस्थापिका तथा वित्तीय शक्तियों के कारण गवर्नर जनरल तानाशाह कहा जा सकता था। वह भारत में ब्रिटिश ताज का प्रतिनिधि था। उसकी नियुक्ति इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री की अनुशंसा पर इंग्लैण्ड के मुकुट द्वारा पांच वर्ष के लिए की जाती थी। गवर्नर जनरल अपनी कार्यकारिणी परिषद् का प्रधान होता था तथा उसकी अनुशंसा पर भारत सचिव कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों की नियुक्ति करता था। गवर्नर जनरल अपनी इच्छानुसार कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों में कार्य का विभाजन करता था और कार्यकारिणी परिषद् की बैठक बुलाता था। गवर्नर जनरल को ब्रिटिश भारत के हित, उसकी शान्ति और सुरक्षा आदि विषयों में अपनी कार्यकारिणी परिषद् की सम्मति मानने से मना करने का भी अधिकार था।

1919 ई. के अधिनियम में विदेश विभाग और राजनीतिक विभाग पर गवर्नर जनरल का सीधा नियंत्रण स्थापित किया गया। केन्द्रीय व्यवस्थापिका (विधान मण्डल) में कोई ऐसा प्रस्ताव जिसका सम्बन्ध सेना अथवा देशी राजाओं आदि से हो, बिना गवर्नर जनरल की पूर्व स्वीकृति के प्रस्तुत नहीं किया जा सकता था। असाधारण परिस्थितियों में ब्रिटिश भारत तथा उसके किसी भाग की शान्ति एवं उत्तम शासन के लिए गवर्नर जनरल को 6 मास के लिये अध्यादेश जारी करने का अधिकार था।

गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद् में प्रधान सेनापति सहित 7 सदस्य थे। कार्यकारिणी के प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल पांच वर्ष था। 1919 ई. के अधिनियम के अन्तर्गत विधि-सदस्य की अर्हता में परिवर्तन किया गया। अब उसी व्यक्ति को इस पद पर नियुक्त किया जा सकता था जो भारत के उच्च न्यायालयों में कम से कम दस वर्ष तक एडवोकेट रहा हो। इस अधिनियम में यह भी कहा गया कि कार्यकारिणी में तीन सदस्य ऐसे होने चाहिए जिन्होंने ब्रिटिश ताज के अधीन कम से कम दस वर्ष सेवा की हो। इसके परिणामस्वरूप कार्यकारिणी में तीन भारतीय सदस्यों की नियुक्ति की गई किन्तु इन भारतीयों के हाथों में कोई वास्तविक शक्ति नहीं थी। कार्यकारिणी परिषद् केन्द्रीय विधान मण्डल के प्रति उत्तरदायी नहीं थी। कार्यकारिणी परिषद् के सदस्य अपनी भावी उन्नति के लिए गवर्नर जनरल की अनुशंसाओं पर निर्भर रहते थे। इसलिये वे किसी भी मामले में गवर्नर जनरल को असन्तुष्ट नहीं करते थे। इस प्रकार कार्यकारिणी पर गवर्नर जनरल का पूरा नियंत्रण था।

 केन्द्रीय व्यवस्थापिका: इस अधिनियम द्वारा पहली बार दो सदनों वाली केन्द्रीय व्यवस्थापिका की स्थापना की गई। पहले सदन को विधान सभा और दूसरे सदन को राज्य सभा कहा जाता था। विधान सभा 3 वर्ष के कार्यकाल के लिए तथा राज्य सभा 5 वर्ष के कार्यकाल के लिए निर्वाचित होती थी। गवर्नर जनरल इन सदनों को कार्यकाल समाप्त होने से पूर्व भी भंग कर सकता था। इनका संगठन इस प्रकार से किया गया था-

(1.) विधान सभा: विधान सभा में 145 सदस्य थे जिनमें 104 निर्वाचित सदस्य थे। निर्वाचित सदस्यों में से 52 सदस्य सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों से, 30 मुस्लिम, 2 सिक्ख, 9 यूरोपियन, 7 जमींदार तथा 4 भारतीय वाणिज्य के हितों का प्रतिनिधित्व करते थे। 41 मनोनीत सदस्यों में 26 सरकारी अधिकारी और 15 गैर-सरकारी सदस्य होते थे।

(2) राज्य सभा: इसकी अधिकतम संख्या 60 थी। इनमें से सरकारी सदस्यों की अधिकतम संख्या 20 हो सकती थी। शेष 40 सदस्यों में से 34 निर्वाचित (19 सामान्य निर्वाचन क्षेत्र से, 12 साम्प्रदायिक क्षेत्रों में से और 3 विशेष निर्वाचन क्षेत्रों से) होते थे। 6 गैर-सरकारी सदस्यों की नियुक्ति गवर्नर जनरल द्वारा की जाती थी।

विधान मण्डल का कार्यक्षेत्र: विधान सभा, केन्द्रीय सूची में उल्लिखित विषयों पर ब्रिटिश भारत के लिए कानून बना सकती थी। गवर्नर जनरल की पूर्व स्वीकृति से यह प्रान्तों के लिए भी कानून बना सकती थी किन्तु यह 1919 के अधिनियम में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती थी तथा ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती थी जो ब्रिटिश संसद के किसी कानून के विरुद्ध हो। केन्द्रीय बजट पहले विधान सभा में प्रस्तुत किया जाता था और फिर राज्य सभा में भेजा जाता था। बजट के लगभग 85 प्रतिशत भाग पर विधान सभा बहस तो कर सकती थी किन्तु मतदान नहीं कर सकती थी। शेष 15 प्रतिशत भाग के बारे में विधान सभा किसी खर्च के लिए मना कर सकती थी अथवा कोई कटौती कर सकती थी किन्तु यह किसी रकम को बढ़ा नहीं सकती थी।

कोई भी बिल, जब तक दोनों सदनों द्वारा पारित नहीं हो जाता था, कानून नहीं बन सकता था। बजट; राज्य सभा में उसी दिन प्रस्तुत किया जाता था, जिस दिन विधान सभा में प्रस्तुत किया जाता था। अन्य वित्त विधेयक पहले विधान सभा में प्रस्तुत किये जाते थे। राज्य सभा, वित्त विधेयक को अस्वीकार कर सकती थी अथवा संशोधनों के लिए लौटा सकती थी। यदि विधान सभा, राज्य सभा की अस्वीकृति या संशोधनों के सुझाव से सहमत न हो तो गवर्नर जनरल अपनी विशेष शक्तियों का उपयोग करके उसे स्वीकार कर सकता था।

केन्द्रीय विधान मण्डल का ढांचा अत्यन्त दोषपूर्ण था। गवर्नर जनरल तथा उसकी कार्यकारिणी, विधान मण्डल के प्रति उत्तरदायी नहीं थी। विधान मण्डल, गवर्नर जनरल तथा उसकी कार्यकारिणी के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करके उन्हें त्यागपत्र देने को बाध्य नहीं कर सकता था। वह केवल सार्वजनिक हितों के मामलों में प्रस्ताव कर सकता था किन्तु इन प्रस्तावों को मानना या न मानना गवर्नर जनरल की इच्छा पर निर्भर था। अतः विधान मण्डल के पास प्रभुत्व शक्ति का अभाव था। यह केवल कार्यकारिणी को प्रभावित कर सकता था। गवर्नर जनरल, विधान मण्डल द्वारा पारित किसी भी विधेयक को अस्वीकार अथवा संशोधित कर सकता था। आपातकाल में वह अध्यादेश प्रसारित कर सकता था। इससे स्पष्ट है कि गवर्नर जनरल भारतीय प्रशासन में सर्वेसर्वा था और केन्द्रीय विधान मण्डल उसके सामने असहाय था।

कार्य-शक्तियों का विभाजन: इस अधिनियम द्वारा प्रान्तों में आंशिक उत्तरदायी सरकारें स्थापित की गई थीं। अतः शासन सम्बन्धी समस्त विषयों को दो सूचियों मे विभाजित किया गया- केन्द्रीय सूची और प्रान्तीय सूची। जो विषय दोनों सूचियों में सम्मिलित होने से रह गये थे; वे केन्द्रीय सरकार के अर्न्तगत आ जाते थे। जिन विषयों के सम्बन्ध में सम्पूर्ण भारत अथवा एक से अधिक प्रान्तों में समान कानून की आवश्यकता अनुभव की गई, उन्हें केन्द्रीय सूची में रखा गया और प्रान्तीय हित के विषय प्रान्तीय सूची में रखे गये। केन्द्रीय सूची में 47 विषय थे, जैसे- प्रतिरक्षा, वैदेशिक सम्बन्ध, देशी रियासतों से सम्बन्ध, रेल, डाक व तार, सिक्के तथा नोट, सैन्य सम्बन्धी विषय, सार्वजनिक ऋण, दीवानी तथा फौजदारी कानून, सीमा शुल्क, रुई पर उत्पादन कर, नमक कर, आयकर आदि। प्रान्तीय सूची में 50 विषय रखे गये, जैसे- स्थानीय स्वशासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा चिकित्सा, शिक्षा, सार्वजनिक निर्माण कार्य, पुलिस तथा जेल, वन, सिंचाई, अकाल राहत, कृषि, भूमि कर, सहकारी संस्थाएं आदि। दोनों सूचियों के किसी विषय के सम्बन्ध में मतभेद होने पर उनका निर्णय गवर्नर जनरल करता था।

राजस्व विभाजन: प्रशासनिक अधिकारों की भांति राजस्व के साधनों को भी दो भागों- केन्द्रीय राजस्व तथा प्रान्तीय राजस्व में विभाजित किया गया। केन्द्रीय राजस्व में चुंगी, आयकर, रेल, डाक व तार, नमक, अफीम आदि रखे गये। प्रान्तीय राजस्व में भूमि कर, चुंगी, सिंचाई, स्टाम्प व रजिस्ट्रेशन आदि रखे गये। इस प्रकार राजस्व के प्रमुख स्रोत केन्द्र सरकार के पास थे।

(ग) प्रान्तीय शासन व्यवस्था

20 अगस्त 1917 को ब्रिटिश ताज की राजकीय घोषणा का लक्ष्य भारत को क्रमिक रूप से उत्तरदायी सरकार प्रदान करना था। इस दिशा में अग्रसर होने के लिए सबसे अधिक उपर्युक्त क्षेत्र प्रान्त ही थे परन्तु प्रान्तों में भी 1919 के अधिनियम द्वारा आंशिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त को ही अपनाया गया, पूर्ण उत्तरदायित्व के सिद्धान्त को नहीं। द्वैध शासन, केवल उन प्रान्तों में लागू किया गया जिनमें गवर्नर होते थे। जिन छोटे प्रान्तों में चीफ कमिश्नर थे, उनमें यह लागू नहीं किया गया।

द्वैध शासन प्रणाली: 1919 के अधिनियम के अन्तर्गत प्रान्तों में जो शासन व्यवस्था स्थापित की गई उसे द्वैध शासन प्रणाली कहा जाता है। द्वैध शासन का अर्थ है- दो शासकों का शासन। सम्पूर्ण प्रशासनिक विषयों को केन्द्रीय सूची और प्रान्तीय सूची में विभाजित किया गया। इस अधिनियम द्वारा पहली बार प्रान्तीय विषयों को भी दो भागों में बांटा गया- रक्षित विषय और हस्तान्तरित विषय। जिन विषयों को भारतीयों के हाथों में देने से ब्रिटिश सरकार को हानि नहीं थी, उन विषयों को हस्तान्तरित किया गया था तथा उनका शासन भारतीय मंत्रियों को सौंपा गया। उदाहरणार्थ- स्थानीय स्वशासन, चिकित्सा, सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं सफाई, यूरोपियनों एवं आंग्ल-भारतीयों की शिक्षा को छोड़कर शेष जनता की शिक्षा, सार्वजनिक कार्य, कृषि, सहकारी समितियां, मछली क्षेत्र, उद्योग-धन्धे, खाद्य वस्तुओं में मिलावट, जन्म तथा मृत्यु सम्बन्धी आंकड़े, तौल और माप आदि 22 विषय हस्तान्तरित रखे गये। शेष 28 विषय जो अधिक महत्त्वपूर्ण थे, वे रक्षित सूची में रखे गये, जैसे- भूमि कर, अकाल सहायता, न्यायिक प्रशासन, खनिज विकास, पुलिस, समाचार पत्र एवं छापाखानों पर नियन्त्रण, प्रान्तीय वित्त आदि।

दायित्व हस्तान्तरण: हस्तान्तरित विषयों का दायित्व भारतीय मंत्रियों को सौंपा गया, जो प्रान्तीय विधान परिषद् के प्रति उत्तरदायी होते थे। रक्षित विषयों का दायित्व गवर्नर तथा उसकी कार्यकारिणी परिषद् को सौंपा गया जो प्रान्तीय विधान परिषद् के प्रति उत्तरदायी न होकर भारत सचिव के प्रति उत्तरदायी होते थे। रक्षित विषयों पर प्रान्तीय विधान परिषद् का कोई नियन्त्रण नहीं था। जहाँ यह विवाद उत्पन्न हो जाता कि कोई विषय रक्षित है अथवा हस्तान्तरित, वहाँ गवर्नर अन्तिम निर्णय देता था। इस प्रकार, हस्तान्तरित विषयों के सम्बन्ध में केन्द्रीय नियंत्रण में शिथिलता दी गई।

द्वैध शासन प्रणाली की असफलता: इस अधिनियम के माध्यम से यह अपेक्षा की गई थी कि शासन के दोनों भाग (एक ओर गवर्नर तथा कार्यकारिणी परिषद् और दूसरी ओर गवर्नर तथा मंत्रिमण्डल) आपसी सहयोग से शासन का संचालन करेंगे परन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं होने से द्वैध शासन व्यवस्था असफल हो गई। संयुक्त प्रवर समिति का मत था कि मन्त्रियों को संयुक्त उत्तरदायित्व के अनुसार काम करना चाहिए। इसलिए 1919 ई. के अधिनियम की एक धारा में, ‘हस्तान्तरित विषयों के सम्बन्ध में गवर्नर अपने मन्त्रियों की सलाह से कार्य करेगा’ की व्यवस्था की गई परन्तु अधिनियम में ‘मंत्री संयुक्त रूप से उत्तरदायी होंगे’ के लिए कोई नियम नहीं बनाया गया। अतः गवर्नर ने इसका लाभ उठाते हुए अलग-अलग मन्त्रियों से पृथक् विचार-विमर्श का तरीका अपनाया ताकि मन्त्रियों को दबा कर रखा जा सके।

प्रान्तीय कार्यपालिका: प्रान्तीय कार्यपालिका को भी दो भागों में बांटा गया। एक भाग तो गवर्नर और कार्यकारिणी परिषद् थी और दूसरा भाग गवर्नर और भारतीय मन्त्री थे। कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में कार्यकारिणी परिषद् में चार सदस्य थे, अन्य प्रान्तों में केवल दो सदस्य थे। यह व्यवस्था की गई कि कार्यकारिणी परिषद् में आधे सदस्य गैर-सरकारी भारतीय होंगे। कार्यकारिणी के समस्त सदस्य पांच वर्ष के लिए ब्रिटिश ताज द्वारा भारत सचिव की अनुंशसा पर नियुक्त किये जाते थे। व्यवहार में जिन व्यक्तियों के नाम की अनुंशसा गवर्नर जनरल करता था, भारत सचिव उन्हीं को स्वीकृति दे देता था। गवर्नर, प्रांतीय कार्यकारिणी परिषद् का प्रधान होता था तथा वह कार्यकारिणी के किसी भी निर्णय की उपेक्षा कर सकता था।

हस्तान्तरित विषयों का शासन चलाने के लिए मन्त्री नियुक्त किये गये। उनकी अधिकतम संख्या निश्चित नहीं की गई। बम्बई, कलकत्ता एवं मद्रास में तीन मन्त्री नियुक्त किये गये और शेष प्रान्तों में दो मन्त्री नियुक्त किये गये थे। मन्त्रियों की नियुक्ति गवर्नर द्वारा की जाती थी तथा उसकी इच्छा रहने तक ही वे अपने पद पर बने रह सकते थे। मन्त्रियों की नियुक्ति विधान परिषद् के सदस्यों में से की जाती थी। यदि किसी ऐसे व्यक्ति को मन्त्री नियुक्त कर दिया जाता जो विधान परिषद् का सदस्य नहीं होता था, तो उसे 6 महीने में विधान परिषद् का सदस्य बनना होता था अथवा मन्त्री पद छोड़ना होता था। जिस मन्त्री में विधान परिषद् का विश्वास नहीं होता था, उसे भी पद छोड़ना होता था। गवर्नर को बिना कारण बताये मन्त्रियों को हटाने का अधिकार था। इस प्रकार, मन्त्रियों को विधान परिषद् तथा गवर्नर की दया पर छोड़ दिया गया था। इसलिए मन्त्रियों को अपने दो स्वामियों को प्रसन्न रखना पड़ता था। यदि मन्त्रियों की सलाह से प्रान्त की शान्ति या सुरक्षा में बाधा उत्पन्न होती हो अथवा अल्पसंख्यकों के हितों के विरुद्ध हो अथवा भारत सचिव व गवर्नर जनरल के आदेशों के विरुद्ध हो तो गवर्नर, मन्त्रियों की सलाह की उपेक्षा करके अपनी इच्छानुसार कार्य कर सकता था। यदि किसी कारण से हस्तान्तरित विषयों का शासन इस अधिनियम के अनुसार नहीं चलाया जा सकता था, तो गवर्नर भारत सचिव की पूर्व स्वीकृति से इस अधिनियम को, अनिश्चित अवधि के लिये स्थगित कर सकता था। ऐसी स्थिति में हस्तान्तरित विषयों का प्रशासन रक्षित विषयों की तरह चलाया जा सकता था।

प्रान्तीय विधान मण्डल: 1919 के अधिनियम के द्वारा केन्द्र में कानून बनाने के लिए दो सदन रखे गये किंतु प्रान्तों में केवल एक ही सदन रखा गया। अतः प्रान्तीय विधान मण्डल से अभिप्राय केवल विधान परिषद् से है। इस अधिनियम के अन्तर्गत विधान परिषद के सदस्यों की संख्या में वृद्धि हो गई। प्रत्येक प्रान्त में इसके सदस्यों की संख्या भिन्न-भिन्न थी। मद्रास की विधान परिषद् के कुल सदस्यों की संख्या 132 थी, बम्बई 114, बंगाल 140, उत्तर प्रदेश 123, पंजाब 94, बिहार और उड़ीसा 103, मध्य प्रान्त 73, असम 531. यह व्यवस्था की गई कि विधान परिषद् में कम से कम 70 प्रतिशत सदस्य निर्वाचित होंगे। 20 प्रतिशत से अधिक सरकारी अधिकारी नहीं होंगे। कुछ मनोनीत गैर-सरकारी सदस्य होते थे। गवर्नर की कार्यकारिणी के सदस्य विधान परिषद् के पदेन सदस्य होते थे। विधान परिषद् का कार्यकाल तीन वर्ष था किन्तु गवर्नर उसे, अवधि से पूर्व भी भंग कर सकता था और विशेष परिस्थिति में उसकी अवधि एक वर्ष के लिए बढ़ा भी सकता था।

यद्यपि प्रान्तों  में निर्वाचित सदस्यों का बहुमत स्थापित कर दिया गया परन्तु मताधिकार इतना सीमित रखा गया कि 1920 ई. में ब्रिटिश भारत की 24 करोड़ 17 लाख जनसंख्या में से केवल 53 लाख लोगों को ही मताधिकार दिया गया। मताधिकार के लिए प्रत्येक प्रान्त में अलग अर्हताएं निर्धारित की गईं। सामान्यतः जो लोग देहाती क्षेत्रों में 10 रुपये से लेकर 50 रुपये तक प्रतिवर्ष भूमि कर देते थे, उन्हें मत देने का आधिकार दे दिया गया। नगरों में जो कम से कम 2000 रुपये वार्षिक आय पर आयकर देते थे या जिन्हें अपने मकान से कम से कम 36 रुपये वार्षिक किराया मिलता था या जो 36 रुपये वार्षिक किराया देते थे या जो नगरपालिका को कम से कम 3 रुपये वार्षिक टैक्स देते थे, वे अपना नाम मतदाता सूची में लिखवा सकते थे।

प्रान्तीय विधान परिषद् को यह अधिकार दिया गया कि वह अपने प्रान्त में अच्छी सरकार के लिए कानून बनाये। इस अधिनियम से पूर्व प्रत्येक बिल के लिए गवर्नर जनरल की आज्ञा लेना आवश्यक था किन्तु इस अधिनियम में यह तय किया गया कि कुछ विशेष मामलों को छोड़कर शेष के लिए गवर्नर जनरल की आज्ञा की आवश्यकता नहीं रहेगी परन्तु गवर्नर तथा गवर्नर जनरल को विशेष शक्तियां देकर विधान परिषद् के अधिकारों को सीमित कर दिया गया। विधान परिषद् को कई वित्तीय शक्तियां दी गईं परन्तु गवर्नर की विशेष शक्तियों द्वारा उन पर अनेक प्रतिबंध लगा दिये गये ताकि यदि विधान परिषद् गवर्नर की इच्छानुसार किसी मांग को पारित न करेे, तो गवर्नर अपनी विशेष शक्ति द्वारा पारित कर सके। बजट को दो भागों में बांट दिया जाता था। पहले भाग में वे रकमें सम्मिलित की जाती थीं जिन पर विधान परिषद् केवल बहस कर सकती थी, अपना मत नहीं दे सकती थी।

द्वैध शासन के दोष और उसकी असफलता के कारण

यद्यपि कांग्रेस ने द्वैध शासन प्रणाली का बहिष्कार किया था तथापि 1924 ई. में कांग्रेस की ओर से स्वराज पार्टी ने चुनावों में भाग लिया तथा विधान मण्डलों में प्रवेश कर इसे असफल बनाने का प्रयास किया। अतः सरकार ने मुडीमैन समिति की नियुक्ति की। इस समिति के यूरोपियन सदस्यों ने द्वैध शासन को मौलिक रूप से सही माना परन्तु समिति के भारतीय सदस्यों ने इसे गलत बताया। साइमन कमीशन ने भी द्वैध शासन प्रणाली के कई दोषों पर प्रकाश डाला। नेहरू रिपोर्ट में भी इसकी कटु आलोचना की गई। 1921 से 1937 ई. तक ब्रिटिश भारतीय प्रान्तों में द्वैध शासन पद्धति चालू रही परन्तु इसमें निहित दोषों के कारण इसका विफल होना निश्चित था। द्वैध शासन के निम्नलिखित दोष उसकी असफलता के कारण सिद्ध हुए-

(1.) सैद्धान्तिक दृष्टि से दोषपूर्ण: द्वैध शासन सैद्धान्तिक दृष्टि से दोषपूर्ण था। यह मान लिया गया था कि भारतीय अभी पूर्ण उत्तरदायी शासन के लिए अयोग्य हैं। इसलिए भारत में आरम्भ में आंशिक उत्तरदायी सरकार की स्थापना की जाये ताकि भारतीय मन्त्रियों को साधारण अधिकार मिल जायें और वास्तविक सत्ता अँग्रेजों के हाथों में बनी रहे। इसलिए भारतीयों का द्वैध शासन प्रणाली से असन्तुष्ट हो जाना स्वाभाविक था। प्रान्तीय सरकार को दो भागों में बांटना बिल्कुल गलत था जिसमें एक भाग विधान मण्डल के प्रति उत्तरदायी था और दूसरा अनुत्तरदायी था। इससे शासन की एकता तथा कार्यक्षमता नष्ट हो गई। सर रेजीनाल्ड क्राउक ने लिखा है- ‘द्वैध शासन एक प्रकार की वर्णसंकर व्यवस्था है जो कभी स्थाई नहीं रह सकती, क्योंकि किसी देश अथवा प्रांत के शासन का संचालन दो पृथक् अथवा स्वतंत्र मन्त्रिमण्डलों द्वरा सफलतापूर्वक नहीं किया जा सकता।’

(2.) विषयों का अवैज्ञानिक विभाजन: प्रान्तीय विषयों का रक्षित और हस्तांतरित विषयों में बंटवारा, सरकार की एकता को नष्ट करने वाला कदम था। इस विभाजन से नित्य नई समस्याएं उत्पन्न होती थीं। विषयों का बंटवारा भी अवैज्ञानिक ढंग से किया गया ताकि किसी भी मन्त्री के पास किसी भी समूचे विभाग का नियंत्रण न रहे और वे सदैव ही गवर्नर तथा उसकी कार्यकारिणी पर निर्भर रहें। उदाहराणार्थ, कृषि और सिंचाई का अभिन्न सम्बन्ध है किन्तु कृषि को हस्तान्तरित विषय और सिंचाई को रक्षित विषय रखा गया। मद्रास सरकार के व्यवसाय मंत्री सर के. वी. रेड्डी ने मुडीमैन कमेटी के समक्ष गवाही देते हुए कहा- ‘मैं कृषि मन्त्री था, पर सिंचाई से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं था। कृषि मन्त्री होते हुए भी मेरा मद्रास कृषक ऋण अधिनियम और मद्रास भूमि विकास ऋण अधिनियम से कोई सरोकार नहीं था। सिंचाई, कृषि ऋण, भूमि विकास ऋण और अकाल राहत के बिना कृषि मन्त्री की कार्यक्षमता और प्रभाव की केवल कल्पना ही की जा सकती है। मैं मन्त्री था उद्योग का परन्तु कारखाने, भाप यंत्र, जल-विद्युत तथा श्रम विभाग मेरे पास नहीं थे, क्योंकि ये सब रक्षित विषय थे।’

(3.) गवर्नर की विशेष शक्तियां: 1919 के अधिनियम के अन्तर्गत गवर्नरों को विशेष शक्तियां प्रदान की गईं जिसके कारण द्वैध शासन सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर पाया। गवर्नर ने तीन प्रकार से सारी शक्तियां अपने हाथों में ले लीं- (1.) गवर्नर को सरकार चलाने के लिये नियम बनाने तथा आदेश जारी करने का अधिकर था। उन्होंने नियम बना दिया कि सचिव अपने विभागीय कार्य के लिए सप्ताह में एक बार गवर्नर से मिले तथा उनके और मंत्रियों के मतभेद के प्रकरण गवर्नर के निर्णय हेतु प्रस्तुत करे। इससे मंत्री बिल्कुल शक्तिहीन हो गये और सचिव उनके विरुद्ध गवर्नर के कान भरने लगे। (2.) गवर्नरों ने मन्त्रियों से इकट्ठा मिलने की बजाय अलग-अलग मिलन आरम्भ कर दिया, इससे मन्त्रियों की बातों की उपेक्षा करना आसान हो गया। (3.) गवर्नरों ने यह सिद्धन्त अपना लिया कि मन्त्री केवल परामर्शदाता है और यह गवर्नर की इच्छा पर निर्भर है कि वह मन्त्रियों की किसी बात को माने या न माने। इसलिये गवर्नर मन्त्रियों की उचित सलाह की भी उपेक्षा करने लगे।

(4.) संयुक्त विचार-विमर्श का अभाव: अधिनियम के निर्माताओं ने प्रान्तीय सरकार के दोनों भागों (रक्षित तथा हस्तांतरित) के संयुक्त विचार-विमर्श की अनुशंसा की थी ताकि मन्त्रियों के माध्यम से गवर्नर की कार्यकारिणी को जन-इच्छाओं की जानकारी मिल सके और कार्यकारिणी के सदस्यों के अनुभव से मन्त्री भी कुछ सीख सकें। गवर्नरों को इस प्रकार के निर्देश भी दिये गये थे किन्तु मद्रास के गवर्नर को छोड़कर अन्य किसी भी गवर्नर ने इन निर्देशों का पालन नहीं किया। बजट पर विचार करने के अतिरिक्त कार्यकारिणी के सदस्य तथा मन्त्रिगण शासन सम्बन्धी मामलों पर विचार विमर्श के लिए कभी सम्मिलित नहीं होते थे। इससे उनमें निरन्तर अविश्वास और तनातनी रहती थी और वे सार्वजनिक रूप से एक दूसरे की निन्दा करते थे।

(5.) संयुक्त उत्तरदायित्व का अभाव: मन्त्री किसी भी संगठित दल के प्रतिनिधि नहीं थे, अतः वे किसी निश्चित कार्यक्रम से बंधे हुए नहीं थे। गवर्नरों ने उनमें संयुक्त उत्तरदायित्व की भावना उत्पन्न करने का प्रयास नहीं किया और न कभी सामूहिक विचार-विमर्श होने दिया। इसलिए विभिन्न समस्याओं पर उनके भिन्न-भिन्न विचार होते थे। कई बार एक मन्त्री, दूसरे मन्त्री की योजना की विधान परिषद् में आलोचना भी कर देता था। मन्त्रियों का कार्यकारिणी के साथ भी कोई समन्वय नहीं था। मन्त्री, विधान परिषद् के प्रति उत्तरदायी थे। जबकि कार्यकारिणी के सदस्य विधान परिषद् के प्रति उत्तरदायी नहीं थे। संयुक्त उत्तरदायित्व के अभाव में प्रशासन में अनेक कठिनाइयां उत्पन्न होने लगीं।

(6.) मन्त्रियों की कमजोर स्थिति: इस अधिनियम के अन्तर्गत मन्त्रियों को वास्तविक अधिकार नहीं दिये गये जिससे उनकी स्थिति काफी कमजोर बनी रही। वे राष्ट्र-निर्माण सम्बन्धी विभिन्न विभागों का संचालन करते थे परन्तु उनके पास कोष नहीं थे। प्रान्तों में वित्त विभाग रक्षित विषय था। अतः वित्त विभाग हर मामले में रक्षित विषयों का पक्ष लेता था और हस्तांतरित विषयों के मार्ग में अनेक प्रकार की बाधाएं उत्पन्न कर देता था, ताकि यह सिद्ध कर दिया जाये कि भारतीय मन्त्री अयोग्य हैं। वित्त विभाग का प्रयत्न रहता था कि हस्तान्तरित विभागों की मांगों पर विचार करने से पूर्व रक्षित विभागों की सारी मांगें पूरी कर दी जायें और फिर हस्तांतरित विभागों के सामने धन की कमी का बहाना लेकर उनकी मांगें अस्वीकार कर दी जायें। गवर्नर हस्तान्तरित विषयों में जब चाहे हस्तक्षेप कर सकता था और कारण बताये बिना, किसी भी मन्त्री को पदच्युत कर सकता था। इन कारणों से द्वैध शासन का असफलता हो जाना स्वभाविक ही था।

(7.) विधान परिषद् का दोषपूर्ण गठन: प्रान्तों की विधान परिषदों के गठन में दोष था। लगभग 30 प्रतिशत सदस्य सरकारी अधिकारी अथवा सरकार द्वारा मनोनीत गैर-सरकारी अधिकारी होते थे। जो सदस्य निर्वाचित थे, वे विभिन्न सम्प्रदायों तथा विशेषाधिकार प्राप्त तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करते थे। मतदान का अधिकार भी सम्पत्ति, आयकर तथा राजस्व सम्बन्धी योग्यता पर आधारित था। अतः विधान परिषद् के अधिकांश सदस्य सरकार को प्रसन्न रखने के पक्ष में थे, ताकि वे अपने-अपने सम्प्रदायों अथवा हितों के लिए अधिक सुविधाएं प्राप्त कर सकें।

(8.) बाह्य परिस्थितियों का योगदान: अनेक बाह्य परिस्थितियों ने भी इस अधिनियम को असफल बनाया। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद अनेक राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना हो गयी थी। ब्रिटेन ने भी अपने कुछ अधिराज्यों के साथ समानता का व्यवहार करना आरम्भ कर दिया था। एशिया में नई राष्ट्रीय जागृति उत्पन्न हो चुकी थी। ऐसी परिस्थितियों में भारतीयों को ब्रिटिश सरकार के ये सुधार अपर्याप्त और निराशाजनक प्रतीत हुए। स्वराज पार्टी ने विधान मण्डलों में प्रवेश किया परन्तु उसका ध्येय सरकार के मार्ग में रोड़े अटका कर द्वैध शासन को अव्यवहारिक सिद्ध करना था। 1930 ई. के बाद कांग्रेस का लक्ष्य पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना हो गया। ब्रिटिश सरकार ने विधान मण्डलों की इच्छाओं की अवहेलना कर उदारवादियों को भी असंतुष्ट कर दिया। डॉ. जकारिया ने लिखा है- ‘सरकार के इस निर्णय ने कि सुधारों पर इस तरह अमल किया जाय, जिससे लोगों को स्वशासन के कम से कम अधिकार मिलें और दूसरी तरफ स्वराज दल की इस नीति ने कि सरकार के संचालन में अधिक से अधिक रुकावटें लगाई जायें, 1919 के सुधारों के भाग्य का पहले से ही निर्णय कर दिया।’

कूपलैण्ड ने स्वीकार किया है कि द्वैध शासन असफल रहा, क्योंकि वह अपने रचयिताओं के मूल उद्देश्यों का पूरा न कर सका। द्वैध शासन की असफलता का एक कारण सिविल सेवकों पर मन्त्रियों का नियन्त्रण न होना भी था। अखिल भारतीय नौकरियों के सदस्य जो हस्तांतरित विभागों का संचालन करते थे, मन्त्रियों के अधीन नहीं थे। गवर्नर तक सिविल सेवकों की निजी पहुंच थी और उनके हित भारत सचिव द्वारा संरक्षित थे। मन्त्रियों तथा सिविल सेवकों में बनती ही नहीं थी। सिविल सेवकों के विरुद्ध मन्त्रियों की शिकायतें निरर्थक सिद्ध होती थीं। असहयोग आन्दोलन तथा खिलाफत आन्दोलन ने देश में कटुता, अविश्वास और असहयोग का ऐसा वातावरण पैदा कर दिया था कि शासन का चलना असम्भव था।

संसदीय शासन प्रणाली के लिये मील का पत्थर

मारिस जोंस, गुरुमुख निहालसिंह, एम. वी. वायली आदि विद्वानों का मत है कि द्वैध शासन प्रणाली ने भारत में संसदीय सरकार के विकास में योगदान दिया। 1920 से 1937 ई. की अवधि में भारत में चार आम चुनाव हुए। इन चुनावों के उपरान्त गठित विधान सभाओं में भारतीय नेताओं को संसदीय परम्पराओं का व्यक्तिगत अनुभव हुआ तथा भारतीय मन्त्रियों को स्वशासन का प्रशिक्षण मिला। उन्हें इस बात का अनुभव हुआ कि स्वशासन के मार्ग में कौनसी बाधाएं आ सकती हैं और उन्हें कैसे हल किया जा सकता है? मतदाताओं की दृष्टि से भी द्वैध शासन व्यवस्था की यह अवधि बिल्कुल बेकार नहीं गई। विधान सभाओं की दर्शक-दीर्घाएं सामान्यतः भरी रहती थीं। वदा-विवाद का पूरी तरह से प्रचार होता था और जनता उसे पढ़ती थी। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारत में संसदीय शासन का आरम्भ हो गया था। इस दृष्टि से द्वैध शासन को भारत में संसदीय शासन प्रणाली की दिशा में मील का पत्थर कहा जा सकता है। मारिस जोंस ने लिखा है- ‘प्रान्तीय स्तर पर प्रशासन के एक विशिष्ट क्षेत्र में उत्तरदायी शासन को मान्यता देकर 1919 के अधिनियम ने ससंदीय संस्थाओं का आरम्भ किया।’ 

अध्याय – 82 : भारत सरकार अधिनियम 1935

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कांग्रेस सहित समस्त राष्ट्रीय संस्थाओं ने 1919 ई. के सुधारों को अपर्याप्त, असन्तोषजनक और निराशापूर्ण घोषित किया। 1919 के सुधारों की जांच करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 1927 ई. में साइमन कमीशन को भारत भेजा। भारतीयों ने इस कमीशन का तीव्र विरोध किया। कांग्रेस ने साइमन रिपोर्ट के प्रत्युत्तर में नेहरू रिपोर्ट तैयार की किन्तु ब्रिटिश सरकार ने इस रिपोर्ट की उपेक्षा की। इससे राष्ट्रीय आन्दोलन तीव्र हो उठा। ब्रिटिश सरकार ने भावी सुधारों के बारे में विचार विमर्श करने के लिए लन्दन में तीन गोलमेज सम्मेलन आयोजित किये। इन गोलमेज सम्मेलनों में हुए विचार-विमर्श के आधार पर मार्च 1933 में ब्रिटिश सरकार ने भारत के भावी सुधारों का एक श्वेत-पत्र प्रकाशित किया। श्वेत-पत्र में दिये गये सरकारी निर्णयों एवं प्रस्तावों पर विचार करने के लिए एक संयुक्त संसदीय-समिति बनाई गई। 11 नवम्बर 1934 को इस समिति का प्रतिवेदन प्रकाशित हुआ। इस प्रतिवेदन में थोड़ा-बहुत परिवर्तन करके ब्रिटिश संसद ने एक अधिनियम पारित किया। अगस्त 1935 में इसे ब्रिटिश क्राउन की स्वीकृति प्राप्त हो गई। इस अधिनियम को भारत सरकार अधिनियम 1935 कहा जाता है। इस अधिनियम में 321 धाराएं और 10 परिशिष्ट हैं। इस अधिनियम में भी अनेक कमियां थीं फिर भी यह अधिनियम अत्यन्त महत्त्व का था। इसमें पहली बार ब्रिटिश प्रान्तों एवं देशी रियासतों को मिलाकर एक संघ स्थापित करने, प्रान्तों में द्वैध शासन के स्थान पर प्रान्तीय स्वराज्य प्रारम्भ करने और केन्द्र में द्वैध शासन की स्थापना किये जाने की व्यवस्था की गई थी।

अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ

भारत सरकार अधिनियम-1935 की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं-

(1.) गृह-सरकार के नियन्त्रण में ढील

इस अधिनियम के माध्यम से प्रान्तों में स्वायत्त शासन तथा केन्द्र में आंशिक उत्तरदायी सरकार की स्थापना की व्यवस्था की गई। इसलिए भारत सचिव के उन अधिकारों में कमी की गई जिनके द्वारा वह भारत सरकार पर प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण रखता था किन्तु गवर्नर जनरल तथा गवर्नरों के अधिकारों में वृद्धि कर दी गई। इससे भारत सचिव पहले की तरह ही शक्तिशाली हो गया क्योंकि गवर्नर जनरल और गवर्नर उसी के अधीन थे। इस प्रकार 1935 के अधिनियम से भारत सचिव के प्रत्यक्ष नियंत्रण में कमी अवश्य हुई परंतु उसकी वास्तविक सत्ता पूर्ववत् बनी रही।

1935 के अधिनियम द्वारा भारत परिषद् (इंडिया कौंसिल) को समाप्त करके सलाहकार परिषद् की स्थापना की गई। सलाहकारों की संख्या कम से कम तीन और अधिक से अधिक छः निश्चित की गई। इन सलाहकारों में से आधे ऐसे होने चाहिए थे जो भारत में 10 वर्ष तक ब्रिटिश सरकार के कर्मचारी रह चुके हों तथा अपनी नियुक्ति के समय उन्हें भारत छोड़े हुए दो वर्ष से अधिक नहीं हुए हों। सलाहकारों का कार्यकाल पांच वर्ष निश्चित किया गया। कुछ निश्चित बातों को छोड़कर यह भारत मंत्री (सचिव) की इच्छा पर निर्भर था कि वह उनसे परामर्श करे अथवा नहीं। यदि परामर्श करे तो सामूहिक रूप से अथवा व्यक्तिगत रूप से? इस प्रकार यह सलाहकार परिषद पहले की भारत परिषद् से कहीं अधिक व्यर्थ और शक्तिहीन थी।

1935 के अधिनियम के द्वारा हाई कमिश्नर का पद बना रहा। अब उसकी नियुक्ति गर्वनर जनरल के व्यक्तिगत निर्णय पर छोड़ दी गई। गवर्नर जनरल उसे पद से हटा भी सकता था, अतः वह ब्रिटिश हितों को ही संरक्षण देता था। भारत सचिव का हस्तान्तरित विषयों पर नियंत्रण लगभग समाप्त कर दिया गया तथा उसका शासन पूर्णतः, भारतीय मन्त्रियों को सौंप दिया गया परंतु जिन विषयों में गवर्नर जनरल और गवर्नर अपनी व्यक्तिगत इच्छा से काम करते थे, वहाँ भारत सचिव का नियंत्रण पूर्ववत बना रहा। व्यावहारिक रूप में इससे कोई अन्तर नहीं पड़ा, क्योंकि 1935 के अधिनियम का संघीय पक्ष कभी लागू ही नहीं हुआ तथा केन्द्र का प्रशासन 1919 के अधिनियम के अनुसार चलता रहा। केवल प्रान्तों में जहाँ पूर्ण स्वायत्तता दी गई, वहाँ गृह सरकार के नियंत्रण में कमी आ गई थी।

(2.) अखिल भारतीय संघ की स्थापना

इस अधिनियम के अन्तर्गत एक अखिल भारतीय संघ स्थापित करने की व्यवस्था की गई जिसमें 11 गवर्नरों के प्रान्त , 6 चीफ कमिश्नरों के प्रान्त  और भारत की 566 देशी रियासतों  को सम्मिलित करने की व्यवस्था की गई। ब्रिटिश भारत के प्रान्तों के लिए संघ में सम्मिलित होना अनिवार्य था परन्तु देशी रियासतों के लिए यह ऐच्छिक था। इसलिए प्रस्तावित संघ दो शर्तें पूरी होने के पश्चात् ही स्थापित किया जा सकता था-

(क.) संघीय संसद के दोनों सदन ब्रिटिश सम्राट से प्रार्थना करें कि संघ की स्थापना की जाये।

(ख.) कम से कम इतनी देशी रियासतें संघ में सम्मिलित होने की स्वीकृति दें कि उनकी जनसंख्या कुल रियासती जनसंख्या की आधी से अधिक हो तथा जो संघीय सभा में 53 स्थानों से अधिक स्थानों के अधिकारी हों।

संघ के दोनों सदनों में देशी राज्यों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया गया था। संघीय विधान सभा में 375 सदस्यों में से 125 सदस्य तथा संघीय राज्य सभा में 260 सदस्यों में से 140 सदस्य देशी रियासतों के प्रतिनिधि होनेे थे। चूंकि देशी रियासतों ने निर्धारित संख्या में संघ में सम्मिलित होना स्वीकार नहीं किया, अतः इस अधिनियम की संघीय योजना कार्यान्वित ही नहीं हो सकी।

(3.) केन्द्र में द्वैध शासन की स्थापना

1935 के अधिनियम द्वारा प्रान्तों में द्वैध शासन का अन्त कर दिया गया तथा केन्द्र में द्वैध शासन लागू कर दिया गया। संघीय विषयों को दो भागों में बांटा गया- रक्षित विषय तथा हस्तान्तरित विषय। रक्षित विषयों में प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, चर्च सम्बन्धी मामले और कबाइली क्षेत्र के मामले सम्मिलित थे। इनका शासन गवर्नर जनरल अपनी इच्छानुसार चला सकता था। रक्षित विषयों के प्रशासन में गवर्नर जनरल एक कार्यकारिणी परिषद् की सहायता लेता था, जिसमें सदस्यों की संख्या तीन से अधिक नहीं हो सकती थी। उनकी नियुक्ति सम्राट करता था और वे गवर्नर जनरल के प्रति उत्तरदायी होते थे। ये केन्द्रीय विधान मण्डल के दोनों सदनों के पदेन सदस्य होते थे और उनकी बैठकों में भाग लेते थे किन्तु उनके प्रति उत्तरदायी नहीं थे।

हस्तान्तरित विषयों का शासन चलाने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होती थी जो संघीय विधान मण्डल के प्रति उत्तरदायी थी। मन्त्रियों की नियुक्ति और पदमुक्ति गवर्नर जनरल द्वारा होती थी। इनकी अधिकतम संख्या 10 हो सकती थी। मन्त्रियों के लिए यह आवश्यक था कि वे संघीय विधान मण्डल के किसी भी सदन के सदस्य हों। न होने की स्थिति में 6 माह में सदन का सदस्य बनें या पद-त्याग करें। हस्तान्तरित विषयों के बारे में यह आशा की गई थी कि गवर्नर जनरल मन्त्रियों की सलाह से उनका शासन चलायेगा किंतु हस्तान्तरित विषयों के सम्बन्ध में गवर्नर जनरल को विशेषाधिकार दिये जाने से स्थिति पहले जैसी ही हो गई।

(4.) संघीय विधान मण्डल की निर्बलता

संघीय विधान मण्डल के दो सदन थे- संघीय विधान सभा और संघीय राज्य सभा। संघीय विधान सभा में 375 सदस्य थे जिनमें 125 स्थान देशी रियासतों को दिये गये। इनका मनोनयन देशी रियासतों के नरेशों को करना था। प्रान्तों के प्रतिनिधियों का चुनाव सामान्य स्थानों, मुसलमानों व सिक्खों के सुरक्षित स्थानों पर अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली द्वारा होना था। इनमें 82 स्थान मुसलमानों को प्राप्त थे। इस प्रकार, देशी रियासतों के मनोनीत प्रतिनिधियों और मुस्लिम प्रतिनिधियों को मिलाकर सरकार बड़ी सरलता से अपना स्थायी बहुमत स्थापित कर सकती थी। इसी प्रकार, संघीय राज्य सभा में कुल 260 स्थानों में से 140 स्थान देशी रियासतों को दिये गये और 6 स्थानों पर महिलाओं, अल्पमतों तथा दलित वर्ग को प्रतिनिधित्व देने के लिए गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत किये जाने थे। शेष सदस्यों का चुनाव साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली के आधार पर अप्रत्यक्ष रूप से होना था। अतः संघीय राज्य सभा में भी सरकार सरलता से अपना बहुमत स्थापित कर सकती थी।

संघीय विधान मण्डल की शक्तियों को सीमित करके उसे निर्बल बना दिया गया। विधान मण्डल 1935 के अधिनियम में संशोधन नहीं कर सकता था और न ब्रिटिश संसद के कानूनों के विरुद्ध कोई कानून पारित कर सकता था। विधान मण्डल द्वारा पारित किसी भी विधेयक को गवर्नर जनरल अस्वीकृत कर सकता था और गवर्नर जनरल द्वारा स्वीकृत विधेयक को इंग्लैण्ड की संसद रद्द कर सकती थी। विधान मण्डल की वित्तीय शक्तियाँ अत्यंन्त सीमित थीं। बजट के दो भाग थे- (1.) भारत के राजस्व से किया जाने वाला व्यय (2.) शेष व्यय। भारत के राजस्व से किया जाने वाला व्यय सम्पूर्ण बजट का लगभग 80 प्रतिशत होता था, जिस पर विधान मण्डल बहस तो कर सकता था किन्तु उसमें कोई कटौती नहीं कर सकता था। कोई भी वित्त विधेयक गवर्नर जनरल की पूर्व स्वीकृति के बिना विधान मण्डल में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता था। विधान मण्डल के अधिवेशन के दौरान भी गवर्नर जनरल को आपात-कालीन अधिकार थे। वह अधिनियम भी पारित कर सकता था। गवर्नर जनरल के आपात-कालीन अधिकार भी व्यापक थे। वह इस अधिनियम को स्थगित करके, न्यायालय के अतिरिक्त अन्य समस्त अधिकार अपने हाथ में ले सकता था।

विधान मण्डल को निर्बल बनाना, अँग्रेजों की सोची-समझी चाल थी। क्योंकि वे भारतीयों को वास्तविक शक्ति देना ही नहीं चाहते थे। प्रो. कीथ ने लिखा है- ‘इस अधिनियम द्वारा एक ओर तो भारतीयों को यह विश्वास दिलाने की चेष्टा की गई कि उन्हें सब कुछ दे दिया गया है और दूसरी ओर संरक्षणों और आरक्षणों की व्यवस्था कर अँग्रेजों को यह विश्वास दिलाया गया कि उन्होंने कुछ भी नहीं खोया है।’

(5.) अधिकारों के विभाजन की नई पद्धति

इस अधिनियम द्वारा विषयों का विभाजन किया गया। संघीय सूची में संघीय सरकार से सम्बन्धित 59 विषय थे। प्रान्तीय सूची में प्रान्तीय हितों के 54 विषय थे। जिन 36 विषयों के सम्बन्ध में संघ और प्रान्त, दोनों कानून बना सकते थे, उन्हें समवर्ती सूची में रखा गया। इस सूची में यदि प्रान्त और केन्द्रीय विधान मण्डल के कानून में किसी प्रकार का विरोध उत्पन्न हो जाये तो केन्द्रीय विधान मण्डल का कानून मान्य था। अवशिष्ट शक्तियों के बारे में यह व्यवस्था की गई कि गवर्नर जनरल अपनी इच्छा से केन्द्रीय विधान मण्डल अथवा प्रान्तीय विधान मण्डल को इन विषयों पर कानून बनाने की शक्ति दे सकता था।

विश्व के किसी भी संविधान में अधिकारों के विभाजन की ऐसी पद्धति नहीं थी। विश्व के संघीय संविधानों में दो पद्धतियां प्रचलित थीं- (1.) संघ के अधिकार क्षेत्रों की स्पष्ट व्याख्या करके अवशिष्ट शक्तियां संघीय इकाइयों को सौंप दी गई थीं। (2.) संघीय इकाईयों के अधिकार क्षेत्र की स्पष्ट व्याख्या करके अवशिष्ट शक्तियां संघ को सौप दी गई थीं।

1935 के अधिनियम में समवर्ती सूची के सम्बन्ध में संघ को उच्चता दे दी गई और अवशिष्ट शक्तियों के सम्बन्ध में गवर्नर जनरल को अधिकार दे दिया गया।

संघीय व्यवस्थापिका में साम्प्रदायिक निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था प्रजातंत्रीय भावना के प्रतिकूल थी। मताधिकार भी धनी तथा विशेष प्रकार के पदों पर आसीन व्यक्तियों को दिया गया था। शक्तियों के उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि व्यवस्थापिका की शक्तियां नाम-मात्र की थीं। गवर्नर जनरल तथा ब्रिटिश क्राउन के प्रतिबन्धों का क्षेत्र बहुत व्यापक था। व्यवस्थापिका के पास कार्यकारिणी पर नियंत्रण लगाने की शक्तियां भी नाममात्र की थीं। गवर्नर जनरल व्यवस्थापिका की इच्छा के विरुद्ध भी कानून और मांगों को स्वीकृत कर सकता था। ऐसी परिस्थितियों में मन्त्री, व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी न रहकर गवर्नर जनरल के प्रति ही उत्तरदायी थे।

(6.) संघीय न्यायालय की स्थापना

प्रस्तावित भारत संघ की विभिन्न इकाइयों के मध्य उठने वाले तथा संघ और उसकी इकाइयों के मध्य उठने वाले विवादों पर निर्णय पर निर्णय देने के लिये 1935 के अधिनियम द्वारा एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई। गवर्नर जनरल अपनी इच्छा से किसी भी कानूनी मामले पर संघीय न्यायालय से राय मांग सकता था। संघीय न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय नहीं था तथा उसके द्वारा की गई अधिनियम की व्याख्या अन्तिम नहीं थी। संघीय न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध कई मामलों में प्रिवी कौंसिल की न्याय-समिति को अपील की जा सकती थी-

(1.) ऐसे मामले जिनमें 1935 के अधिनियम की व्याख्या अथवा इस अधिनियम के अधीन जारी किये गये सपरिषद् आदेश की व्याख्या का प्रश्न उत्पन्न होता हो और संघीय न्यायालय द्वारा प्रारम्भिक अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत निर्णय दिया गया हो।

(2.) ऐसे मामले जिनमें किसी रियासत के प्रवेश पत्र (इन्स्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन) द्वारा संघीय सरकार को दी गई कानूनी और कार्यकारिणी शक्ति के विस्तार का प्रश्न उत्पन्न होता हो।

(3.) संघ में सम्मिलित होने वाली देशी रियासतों में संघीय विधान मण्डल द्वारा बनाये हुए कानूनों को लागू करने से जो विवाद उत्पन्न हों।

उपर्युक्त मामलों को छोड़कर शेष मामलों में प्रिवी काउंसिल की न्याय समिति की अपीलें केवल संघीय न्यायालय की आज्ञा से ही की जा सकती थीं।

(7.) प्रान्तीय स्वायत्तता की स्थापना

1935 के अधिनियम की समस्त व्यवस्थाओं में भारतीयों की दृष्टि से सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण व्यवस्था प्रान्तीय शासन से सम्बन्धित थी। इन व्यवस्थाओं के अन्तर्गत जिस प्रकार के शासनतंत्र की स्थापना की जानी थी, उसे प्रान्तीय स्वायत्तता कहा गया। भारतीयों ने समझा कि उन्हें अधिनियम के द्वारा प्रान्तों में शासन व्यवस्था चलाने में काफी स्वतंत्रता होगी परन्तु इस अधिनियम द्वारा प्रदत्त प्रान्तीय स्वायत्तता कल्पना मात्र थी। प्रान्तीय स्वशासन मन्त्रियों की अपेक्षा गवर्नरों के लिए अधिक था। इस अधिनियम के अन्तर्गत दिखावे के तौर पर प्रान्तों को अपने आन्तरिक मामलों में काफी हद तक स्वतंत्रता दे दी गई। प्रान्तों में द्वैध शासन का अन्त कर दिया गया। जो विषय प्रान्तीय सूची में दिये गये, उनके प्रशासन के सम्बन्ध में प्रान्तों को स्वशासन दे दिया गया और केन्द्रीय नियंत्रण को सीमित कर दिया गया। अब प्रान्तीय शासन के संचालन का भार मन्त्रियों पर आ पड़ा, जो विधान मण्डल के प्रति उत्तरदायी होते थे। इस प्रकार, सतही तौर पर प्रान्तों में पूर्ण उत्तरदायी शासन की व्यवस्था की गई।

1935 के अधिनियम के द्वारा गवर्नर को कानूनी और समस्त वास्तविक शक्तियां प्रदान की गईं। गवर्नर को कानून निर्माण के क्षेत्र में बहुत अधिक शक्तियां प्राप्त थीं। प्रत्येक विधेयक गवर्नर की स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किया जाता था। गवर्नर अपने विवेक से ब्रिटिश क्राउन की ओर से उस पर स्वीकृति प्रदान कर सकता था, उसे गवर्नर जनरल के पास भेज सकता था या विधान मण्डल को वापस भेज सकता था। गवर्नर को व्यवस्थापिका से स्वतंत्र कानून निर्माण के अधिकार भी प्राप्त थे। गवर्नर को दो प्रकार के अध्यादेश जारी करने के भी अधिकार थे-

(1.) उस समय जब प्रान्तीय विधान मण्डल का अधिवेशन हो रहा हो और आपात-कालीन परिस्थिति उत्पन्न हो जाए जिसमें तुरन्त कार्यवाही की आवश्यकता हो।

(2.) उस समय जब विधान मण्डल का सत्र चालू न हो। गवर्नर को आपातकालीन परिस्थितियों में प्रान्तीय शासन व्यवस्था को अपने हाथ में लेने का भी अधिकार था।

गवर्नर को वित्तीय क्षेत्र में भी कई अधिकार प्राप्त थे। गवर्नर की स्वीकृति के बिना कोई भी आर्थिक प्रस्ताव विधान मण्डल में प्रस्तावित नहीं किया जा सकता था। बजट के सुरक्षित भाग पर विधान मण्डल का कोई नियंत्रण नहीं था। बजट के शेष भाग पर विधान मण्डल स्वीकृति या अस्वीकृति दे सकते थे। गवर्नर को शासन के क्षेत्र में विशेष उत्तरदायित्व तथा व्यक्तिगत निर्णय सम्बन्धी अधिकार भी प्राप्त थे। 1935 के अधिनियम के अन्तर्गत मन्त्रियों की जो दशा थी वह द्वैध शासन की व्यवस्था के अन्तर्गत मन्त्रियों की दशा से अच्छी नहीं कही जा सकती। किसी भी वस्तु और किसी भी कार्य पर मन्त्रियों का पूर्ण अधिकार नहीं था। गवर्नर व्यक्तिगत निर्णय के अधिकार के अन्तर्गत मन्त्रियों की सलाह को अमान्य कर सकता था।

1935 के अधिनियम के अन्तर्गत गवर्नरों को बहुत शक्तियां दी गई थीं। इसलिए भारत के समस्त प्रमुख राजनीतिक दलों ने इसे अस्वीकार कर दिया किन्तु जब इस अधिनियम को प्रान्तों में 1 अप्रैल 1937 से लागू करने की घोषणा की गई तब समस्त दल चुनावों में भाग लेने को तैयार हो गये। चुनावों के बाद उस समय तक मन्त्रिमण्डल बनाना व्यर्थ था, जब तक गवर्नर जनरल द्वारा यह आश्वासन न दे दिया जाये कि गवर्नर, प्रान्तों के दैनिक प्रशासन में कोई विशेष हस्तक्षेप नहीं करेगा।

(8.) गवर्नरों और गवर्नर जनरल की मनमानी शक्यिाँ

इस अधिनियम ने देश में राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रबल दबाव होते हुए भी गवर्नरों और गवर्नर जनरल को मनमानी शक्तियां प्रदान करके उत्तरदायी सरकारों की स्थापना निरर्थक कर दी। इस अधिनियम द्वारा भारतीय विधान मण्डलों को आर्थिक मामलों में नियंत्रण देकर भी अन्तिम वास्तविक नियंत्रण अँग्रेजों ने अपने पास रख लिया। यद्यपि कानून और व्यवस्था विभाग, उत्तरदायी मन्त्रियों को सौंप दिया गया तथापि शान्ति स्थापित रखने का विशेष उत्तरदायित्व गवर्नर का था। इस विशेष उत्तरदायित्व का बहाना लेकर गवर्नर राष्ट्रीय आन्दोलन का दमन कर सकते थे।

भारत सरकार अधिनियम 1935 की आलोचना

अँग्रेज विद्वानों ने इस अधिनियम की अत्यधिक प्रशंसा की है। प्रो. कूपलैंण्ड ने इस अधिनियम को रचनात्मक तथा राजनैतिक विचार की एक महान् सफलता बताया है। उसके मत में, इस अधिनियम ने भारत के भाग्य को अँग्रेजों के हाथों से भारतीयों के हाथों में बदल दिया। कूपलैण्ड के इस विचार से भारतीय विद्वान सहमत नहीं हैं। इस अधिनियम के अन्तर्गत स्थापित संघीय व्यवस्था में निम्नलिखित दोष थे-

(1.) संघ का निर्माण भारतीयों की स्वतंत्र इच्छा से नहीं किया गया था।

(2.) इस अधिनियम में औपचारिक स्वराज्य की चर्चा तक नहीं की गई।

(3.) भारतीय संघ में सम्मिलित होने वाली इकाइयों में किसी प्रकार की समानता नहीं थी। ब्रिटिश प्रान्त, चीफ कमिश्नरों के प्रान्त और देशी रियासतों में क्षेत्रफल, शासन-पद्धति, जनसंख्या आदि की दृष्टि से बहुत अधिक असमानता थी।

(4.) संघीय सरकार का इकाइयों पर असमान अधिकार रखा गया था।

(5.) प्रांतों के लिए संघ में सम्मिलत होना अनिवार्य था परन्तु देशी रियासतों की इच्छा पर था कि वे संघ में सम्मिलित हों या नहीं।

(6.) देशी रियासतों की जनसंख्या भारत की कुल जनसंख्या की 33 प्रतिशत थी परन्तु देशी रियासतों को संघीय विधान मण्डल के दोनों सदनों में अधिक स्थान दिये गये।

(7.) गृह सरकार सम्बन्धी व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन नाममात्र का था। भारत सचिव के प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण रखने के अधिकारों में कमी की गई थी परन्तु गवर्नर जनरल तथा गवर्नरों के माध्यम से वह भारतीय शासन पर अप्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रण रखता था। इस प्रकार भारत सचिव की वास्तविक सत्ता पूर्ववत् ही रही।

(8.) भारत परिषद् की समाप्ति का कोई औचित्य नहीं था, उसके स्थान पर कमजोर सलाहकार परिषद आ गई।

(9.) केन्द्र में द्वैध शासन प्रारम्भ करने का निर्णय लिया गया था। प्रान्तों में 1919 के अधिनियम द्वारा स्थापित द्वैध शासन में जो कठिनाई पैदा हुई उसका केन्द्र में पैदा होना स्वाभाविक था। इस बात को जानते हुए भी कि भारतीय जनता द्वैध शासन से घृणा करती है; केन्द्र में द्वैध शासन लागू की गई।

(10.) इस अधिनियम में गवर्नर जनरल को विवेक से कार्य करने के अधिकार के साथ अनेक स्वेच्छाचारी शक्तियां प्रदान कर दी गईं। इस कारण, भारतीयों को जो थोड़े बहुत अधिकार मिले थे वे भी नगण्य-प्रायः हो गये।

(11.) संघीय विधान मण्डल का संगठन भी दोषपूर्ण था। साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली राष्ट्रवाद के लिए अहितकारी थी, फिर भी उसका विस्तार किया गया। हरिजनों को हिन्दुओं से अलग करके देश के राजनीतिक वातावरण को विषैला बना दिया गया।

(12.) अप्रत्यक्ष निर्वाचन की पद्धति प्रजातन्त्र के सिद्धान्तों के विरुद्ध थी। राज्यसभा को धनिकों, जमींदारों आदि उच्च वर्गों का सदन बना दिया गया।

(13.) इस अधिनियम के अन्तर्गत विधान मण्डल को स्वतंत्र संविधान बनाने अथवा 1935 के अधिनियम में संशोधन करने का अधिकार नहीं दिया गया।

(14.) प्रान्तीय गवर्नर के स्वेच्छापूर्ण अधिकारों के कारण प्रान्तीय स्वायत्तता प्रदर्शन मात्र, बनकर रह गई। गवर्नर के अधिकार तथा उत्तरदायित्व इतने अधिक थे कि प्रान्तीय विधान मण्डल एवं कार्यकारिणी के अधिकार पूर्णतः संकुचित हो गये।

पं. जवाहरलाल नेहरू ने 1935 के अधिनियम की आलोचना करते हुए लिखा है- ‘नया संविधान एक ऐसा यन्त्र था जिसकी ब्रेक तो दृढ़ थी परन्तु जिसका कोई इंजन नहीं था।’ जिन्ना ने लिखा है– ‘1935 की योजना पूर्ण रूप से स्वीकार न करने योग्य है।’ पं. मदनमोहन मालवीय ने लिखा है- ‘1935 का अधिनियम हमारे ऊपर जबरदस्ती लाद दिया गया था। यद्यपि बाहर से यह लोकतन्त्रीय दिखायी देता था परन्तु अन्दर से खोखला था।’ इंग्लैण्ड में मजदूर दल के नेता एटली ने कहा- ‘इस अधिनियम से संघीय स्तर पर रूढ़िवादी और प्रतिक्रियावादी तत्त्वों को इतनी अधिक प्रधानता दी गई कि किसी भी प्रकार का प्रजातन्त्रीय विकास सम्भव नहीं है।’

निस्सन्देह भारत जैसे विशाल देश के लिए संघ की नितान्त आवश्यकता थी और इसलिए भारतीयों द्वारा संघ योजना का स्वागत किया जाना चाहिए था किन्तु इसकी कमियों के कारण इसकी सर्वत्र आलोचना की गई। कांग्रेस, मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा आदि समस्त दलों ने इसे अस्वीकार कर दिया। देशी रियासतों के शासकों ने भी इसका विरोध किया। अतः 11 सितम्बर 1940 को गवर्नर जनरल ने घोषणा की कि इस अधिनियम का संघ सम्बन्धी भाग निलम्बित तथा निष्क्रिय कर दिया गया है।

अध्याय – 83 : भारत में साम्प्रदायिक राजनीति का विकास – 1

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साम्प्रदायिकता की समस्या

साम्प्रदायिकता की समस्या हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बन कर खड़ी हो गई। इस कारण जनता को आजादी प्राप्त करने में अधिक पसीना बहाना पड़ा तथा आजादी का रथ मंद गति से आगे बढ़ा। ऐसा कई बार हुआ जब निकट आती हुई आजादी, साम्प्रदायिक समस्या के कारण दूर खिसक गई। इस समस्या के कारण देश का विभाजन हुआ तब कहीं जाकर भारत को आजादी मिली किंतु साम्प्रदायिकता की समस्या का अंत देश की आजादी के बाद भी नहीं हो सका।

साम्प्रदायिकता का अर्थ

सम्प्रदाय शब्द की व्युत्त्पत्ति सम् तथा प्रदाय शब्दों से मिलकर हुई है। सम् का अर्थ है पूर्ण और प्रदाय का अर्थ होता है- देने वाला। इस प्रकार सम्प्रदाय का शाब्दिक अर्थ होता है- पूर्णता देने वाला। भारत में इस्लाम के प्रसार से पहले सनातन धर्म (हिन्दू धर्म) के भीतर तीन सम्प्रदाय माने जाते थे- शैव, शाक्त एवं वैष्णव। अर्थात् सम्प्रदाय, एक धर्म के भीतर उत्पन्न होने वाले मत थे। इस दृष्टि से शिया और सुन्नी, इस्लाम के; तथा कैथोलिक एवं प्रोटेस्टेण्ट, ईसाई धर्म के सम्प्रदाय माने जा सकते हैं।

साम्प्रदायिक समस्या का अर्थ

साम्प्रदायिक समस्या से तात्पर्य दो भिन्न सम्प्रदायों की आध्यात्मिक एवं दार्शनिक  मान्यताओं में अंतर होने से उनके अनुयायियों के बीच होने वाला संघर्ष है किंतु भारत की विशेष परिस्थितियों में साम्प्रदायिक समस्या का सम्बन्ध राजनीतिक संघर्ष से है।

भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या का स्वरूप

भारत में साम्प्रदायिक समस्या का आरम्भ मुसलमानों के भारत में प्रवेश के समय से हो गया था किन्तु ब्रिटिश शासन के दौरान इस समस्या ने एक नवीन रूप ग्रहण किया। इस परिप्रेक्ष्य में हिन्दू, इस्लाम एवं ईसाई, धर्म न रहकर सम्प्रदाय बन गये। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान धर्म के लिये सम्प्रदाय शब्द का प्रयोग किया जाना इस मानसिकता का परिचायक है कि सब मनुष्यों का धर्म तो एक ही है- मानव धर्म, किंतु बाह्य स्वरूप की भिन्नता के कारण अलग-अलग सम्प्रदाय खड़े हो गये हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार साम्प्रदायिकता वह मानसिकता है जो स्वयं को किसी धार्मिक सम्प्रदाय से सम्बद्ध करती है किन्तु जिसका वास्तविक उद्देश्य अपने समूह के लिए राजनीतिक शक्ति और संरक्षण प्राप्त करना होता है। एक अन्य विद्वान ने लिखा है कि किसी समुदाय विशेष के लोगों के, एक सामान्य धर्म के अनुयायी होने के नाते उनके राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हित भी एक जैसे ही होते हैं। इस मत के अनुसार भारत में हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख और इसाई अलग-अलग सम्प्रदायों के व्यक्ति हैं, जिनके हित उस सम्प्रदाय के सदस्यों के बीच, एक समान हैं।

साम्प्रदायकिता का आरम्भ साम्प्रदायिक हितों की पारस्परिक भिन्नता से होता है किन्तु सामान्यतः इसका अन्त विभिन्न धर्मानुयायियों में पारस्परिक विरोध तथा शत्रुता की भावना में होता है। जब यह भावना उग्र रूप धारण कर लेती है तो साम्प्रदायक दंगों में बदल जाती है जिनका अंत प्रायः सभ्यताओं, संस्कृतियांे एवं अंततः राष्ट्रों के विभाजन से होता है। भारत में स्वातंत्र्य संघर्ष के समय, विभिन्न सम्प्रदायों में अधिक शक्तियाँ प्राप्त करने की होड़ मची। यह होड़ पराधीन भारत की संवैधानिक संस्थाओं में अलग प्रतिनिधित्व अर्थात् आरक्षण प्राप्त करने से आरम्भ हुई तथा अलग राष्ट्रों का निर्माण करके उस शक्ति का उपभोग करने की लालसा पर जा पहुंची। इस प्रवृत्ति ने साम्प्रदायिक समस्या को उग्र स्वरूप प्रदान किया जिसकी परिणति लाखों लोगों की हत्या, करोड़ों लोगों के पलायन और भारत के विभाजन में हुई।

इस प्रकार राष्ट्रीयता एवं साम्प्रदायिकता, एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं। राष्ट्रीयता अपने छोटे हितों को त्यागकर व्यापक हितों पर एकजुट होने के सिद्धांत पर आधारित है किंतु साम्प्रदायिकता, संकीर्णता, संकुचन तथा विभाजन की मानसिकता पर टिकी होती है। राष्ट्रीयता एक राष्ट्र में कई सम्प्रदायों को संजोये रख सकती है किंतु साम्प्रदायिकता एक राष्ट्र के कई टुकड़े कर सकती है। जब कांग्रेस ने भारत में राष्ट्रीय आंदोलन चलाया तो अँग्रेजों ने उसे साम्प्रदायिकता की तलवार से काटने का निर्णय लिया। दुर्भाग्य से भारत में साम्प्रदायिकता के विकास के लिये आवश्यक तत्त्व पहले से ही मौजूद थे।

आधुनिक भारत के इतिहास में मुस्लिम साम्प्रदायिकता का उदय एवं विकास तथा भारतीय राजनीति में उसकी भूमिका, एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। भारतीय उपमहाद्वीप में विशाल हिन्दू बहुसंख्यक जनसंख्या एवं विशाल मुस्लिम अल्पसंख्यक जनसंख्या मौजूद है। पश्चिम में भी बहुत से देश, अल्पसंख्यकों द्वारा उत्पन्न समस्याओं से ग्रस्त हैं परन्तु उनकी समस्याएं वर्ण, जातीयता, भाषाई-सांस्कृतिक समूह, राष्ट्र अथवा क्षेत्र विशेष से जुड़ी हुई हैं। जबकि भारत की साम्प्रदायिक समस्या मूलतः धार्मिक उन्माद से जुड़ी हुई है। भारत के हिन्दुओं तथा मुसलमानों या सिक्खों एवं ईसाइयों के अलग से अपने-अपने सामूहिक हित नहीं हैं। यहाँ हर धर्म का आदमी उस क्षेत्र की भाषा बोलता है जिसमें वह रहता है। प्रत्येक सम्प्रदाय में बेरोजगारी, अशिक्षा तथा निर्धनता की समस्या मौजूद है। इन समस्याओं के कारण समस्त भारतीय जनता के राजनीतिक एवं आर्थिक हित एक समान ही हैं परन्तु धूर्त राजनीतिक नेतृत्व, धार्मिक उन्माद तथा औपनिवेशिक शक्तियों के प्रेात्साहन के फलस्वरूप हिन्दुओं एवं मुसलमानों की धार्मिक चेतना ने साम्प्रदायिक समस्या का रूप धारण कर लिया। इस समस्या को जटिल बनाने में ब्रिटिश शासन की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही क्योंकि इसके माध्यम से वे लम्बे समय तक हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति को अवरुद्ध करने में सफल रहे।

ब्रिटिश शासनकाल के अन्तिम तीन दशकों में भारत में साम्प्रदायिकता का उफान अपने चरम पर पहुंच गया जिसकी अन्तिम परिणति द्वि-राष्ट्रीय सिद्धान्त के जन्म में हुई। इस सिद्धांत के अनुसार हिन्दू तथा मुसलमान दो राष्ट्र हैं जिन्हें एक राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता।

भारत में साम्प्रदायिकता के उदय के कारण

राष्ट्रीय आंदोलन में साम्प्रदायिकता की समस्या के उभार के लिये कई तत्त्व जिम्मेदार थे। साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले तत्कालीन मुस्लिम नेताओं ने इन तत्त्वों को एकत्रित करके अपने पक्ष में ऐसे तर्क जुटा लिये जिनके आधार पर वे अपने लिये प्रभावशाली राजनीति कर सकें। भारत में साम्प्रदायिकता के उदय के निम्नलिखित मुख्य कारण थे-

(1.) इस्लाम का भारत की भूमि में बाहर से आना

हिन्दू धर्म भारत की भूमि पर आकार लेने वाला प्रथम धर्म है जिसके लिये कहा जाता है कि यह धर्म नहीं, जीवन शैली है। इसी लिये इसे सनातन धर्म कहते हैं। बाद में बौद्ध, जैन, सिक्ख आदि कई पंथ इसी धर्म से निकले किंतु इस्लाम तथा इसाई धर्म भारत में बाहर से आये। इस्लाम ने आक्रांताओं के धर्म के रूप में भारत में प्रवेश किया। आक्रांता तो शक, कुषाण, हूण, बैक्ट्रियन तथा यूनानी भी थे किंतु उन्होंने इस देश में अपना धर्म थोपने के स्थान पर भारत के स्थानीय धर्मों को अपना लिया। उनमें से कुछ बौद्ध हो गये तो कुछ हिन्दू अथवा जैन। जबकि इस्लाम को मानने वाले आक्रांताओं ने ऐसा नहीं किया। वे न केवल स्वयं के लिये इस्लाम को एकमात्र विकल्प के रूप में देखते थे अपितु उन्होंने भारत की जनता में भी इस्लाम के प्रसार का प्रयास किया। यदि इस्लाम भारत की भूमि पर उत्पन्न हुआ होता तो संभवतः हिन्दुओं और मुसलमानों तथा सिक्खों और मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिक वैमनस्य नहीं उठ खड़ा होता। न तो मुसलमान कभी यह भूल पाये कि उनकी पहचान इस्लाम से है और न हिन्दू कभी भूल पाये कि उनकी पहचान हिन्दू धर्म से है। ऐसी परिस्थितियों में भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या मध्यकाल से ही मौजूद थी। उन्नीसवीं सदी में अँग्रेजों द्वारा हिन्दुओं एवं मुसलमानों में भेदभाव किये जाने से यह समस्या विकराल हो गई।

(2.) मुसलमानों का राजनीतिक एवं आर्थिक क्षेत्र में पिछड़ जाना

भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना के पूर्व, मुस्लिम समाज दो वर्गों में विभाजित था- प्रथम वर्ग में वे लोग थे जो विदेशों से आये आक्रांताओं, व्यापारियों तथा धर्म प्रचारकों के वंशज थे। दूसरे वर्ग में वे भारतीय थे जो भय अथवा लालच से ग्रस्त होकर, परिस्थिति वश, बल पूर्वक अथवा स्वेच्छा से धर्म-परिवर्तन करके मुसलमान बन गये थे अथवा ऐसे लोगों की सन्तान थे। प्रथम वर्ग के लोग शासन संभालते थे तथा उनका शासन एवं शासकीय नौकरियों पर एकाधिकार था। यह मुस्लिम अभिजात्य वर्ग था। दूसरे वर्ग के लोग खेती-बाड़ी या अन्य छोटे-मोटे काम करते थे। धर्म-परिवर्तन के बाद भी उनके आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक स्तर में कोई उल्लेखीय परिवर्तन नहीं हुआ था। प्रथम वर्ग अर्थात् मुस्लिम अभिजात्य वर्ग का राजनीतिक प्रभुत्व 18वीं और 19वीं शताब्दी में बंगाल, अवध तथा दिल्ली द्वारा अँग्रेजों के समक्ष घुटने टेक देने के साथ ही समाप्त हो चुका था। मुस्लिम अभिजात्य वर्ग, राजनीतिक प्रभुत्व का इतना अधिक अभ्यस्त था कि इसने कभी व्यापार अथवा किसी अन्य कार्य की ओर ध्यान नहीं दिया। सरलता से धन प्राप्त होते रहने से इस वर्ग में अकर्मण्यता व्याप्त थी। प्रतिष्ठा बनाये रखने के दिखावे ने इस वर्ग को भीतर और बाहर दोनों तरफ से खोखला कर दिया। भूमि के स्थायी बन्दोबस्त के कारण अभिजात्य वर्ग के मुसलमानों की आर्थिक स्थिति और भी दयनीय हो गई। अँग्रेजी शिक्षा-पद्धति ने भी मुसलमानों की सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रगति को अवरुद्ध कर दिया, क्योंकि मुसलमान अपनी परम्परागत शिक्षा-पद्धति से चिपके रहे। उन्हें सरकारी नौकरियां नहीं मिल सकीं क्योंकि अँग्रेजी राज में सरकारी नौकरियों के लिए अँग्रेजी शिक्षा की डिग्रियां आवश्यक थीं। इस क्षेत्र में हिन्दू उनसे आगे निकल गये। मुसलमानों की स्थिति के सम्बन्ध में विलियम हण्टर ने लिखा है- ‘एक अमीर, गौरव-पूर्ण तथा वीर जाति को निर्धन तथा निरक्षर जन-समूह में बदल दिया गया और उसके उत्साह तथा गर्व को मिट्टी में मिला दिया गया।’

अँग्रेजों के शासन में मुसलमानों के राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक जीवन में आई गिरावट के कारण मुसलमान स्वयं को उपेक्षित अनुभव करने लगे और उनमें असन्तोष तथा विद्रोह की भावना उत्पन्न होने लगी।

(3.) 1857 की क्रांति के बाद अँग्रेजों का मुसलमानों पर अविश्वास एवं हिंदुओं पर अधिक विश्वास करना

अँग्रेजों का मानना था कि 1857 का विद्रोह मुसलमानों द्वारा, अपने खोये हुए शासन की पुनर्प्राप्ति का प्रयास था। सर जेम्स आउट्रम का मत था- ‘यह मुसलमानों के षड़यंत्र का परिणाम था जो हिन्दुओं की शक्ति के बल पर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते थे।’ वी. ए. स्मिथ ने लिखा है- ‘यह हिन्दू शिकायतों की आड़ में मुस्लिम षड़यंत्र था।’ यद्यपि 1857 की क्रांति में हिन्दू एवं मुसलमानों ने संयुक्त रूप से भाग लिया था परन्तु यह भी सत्य है कि मुसलमानों ने हिन्दुओं से अधिक उत्साह दिखाया। इस कारण ब्रिटिश शासन ने क्रांति की समाप्ति के बाद मुसलमानों पर विश्वास करना बंद करके हिन्दुओं की तरफ झुकाव दिखाया। शासन के इस असमान व्यवहार के कारण हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच की दूरियां बढ़ीं।  जब-जब हिन्दुओं और मुसलमानों ने मिलकर देश की आजादी का बिगुल बजाया, तब-तब अँग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति पर चलते हुए मुसमलानों की साम्प्रदायिक भावना को भड़काया।

(4.) सर सैयद अहमदखाँ का अलीगढ़ आन्दोलन

1857 की क्रांति के असफल रहने के बाद अँग्रेजों के साथ सामंजस्य के प्रश्न पर मुस्लिम समाज में दो वर्ग उभर कर आये। एक वर्ग तो वह था जो किसी भी कीमत पर ब्रिटिश सत्ता से समझौता अथवा सहयोग करने के विरुद्ध था तथा हिंसात्मक साधनों से ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकना चाहता था। इसके विपरीत दूसरा वर्ग ब्रिटिश सत्ता की स्थिरता चाहता था तथा मुस्लिम समुदाय के विकास के लिए पश्चिमी शिक्षा को महत्त्वपूर्ण मानता था। पहले वर्ग का प्रतिनिधित्व सैयद अहमद बरेलवी ने किया, जबकि दूसरे वर्ग की विचारधारा ने अलीगढ़ आन्दोलन को जन्म दिया, जिसका नेतृत्व सर सैयद अहमदखाँ ने किया। उनका जन्म 17 अप्रैल 1817 को दिल्ली में हुआ। 1846 से 1854 ई. तक वे ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधीन दिल्ली के सदर अमीन रहे। 1855 ई. में उनका बिजनौर स्थानान्तरण हो गया। 1857 ई. की क्रांति के समय वह बिजनौर में थे। उन्होंने क्रांति के समय बहुत से अँग्रेजों के प्राण बचाये। इससे उन्हें अँग्रेजों की कृपा प्राप्त हो गई। इस कृपा का उपयोग उन्होंने भारतीय मुसलमानों के हितों के लिये किया। उस समय भारतीय मुसलमान अपने अतीत में खोये हुए थे और अँग्रेजों के साथ उनके अच्छे सम्बन्ध नहीं थे। मुसलमानों में अँग्रेजी शिक्षा के प्रति धार्मिक और सांस्कृतिक उदासीनता थी। सैयद अहमद खाँ ने अपने जीवन के प्रमुख दो उद्देश्य बनाये- पहला, अंग्रेजों व मुसलमानों के सम्बन्ध मधुर करना और दूसरा, मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा का प्रसार करना। उन्होंने मुसलमानों को समझाया कि ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादार रहने से ही उनके हितों की पूर्ति हो सकती है तथा अँग्रेज अधिकारियों को समझाया कि मुसलमान हृदय से अँग्रेजी शासन के विरुद्ध नहीं हैं। अँग्रेजों की थोड़ी सी सहानुभूति से वे सरकार के प्रति वफादार हो जायेंगे। अँग्रेजों ने भी मुसलमानों के प्रति सद्भावना प्रकट करना उचित समझा, क्योंकि हिन्दुओं में बढ़ती हुई राष्ट्रीयता के विरुद्ध वे मुस्लिम साम्प्रदायिकता का उपयोग कर सकते थे। अतः सर सैयद अहमदखाँ को अपने प्रथम उद्देश्य में शीघ्र ही सफलता मिल गई। वास्तविकता यह थी कि सर सैयद अहमद ने स्वयं को मुस्लिम कुलीन वर्ग के हित-चिंतन तक ही सीमित रखा था। जब उन्होंने मुसलमानों को हिन्दुओं से पृथक करने तथा उनमें हिन्दुओं के प्रति घृणा फैलाने का कार्य आरम्भ किया, तब अँग्रेजों ने सर सैयद का ऐसा प्रचार किया जैसे वे समस्त मुस्लिम सम्प्रदाय के एक-मात्र उन्नायक हों। भारत के अनपढ़ एवं संकीर्णतावादी मुसलमानों ने सर सैयद अहमदखाँ का साथ दिया परन्तु जागृत एवं प्रगतिशील मुसलमानों ने कांग्रेस को अपना समर्थन देकर सर सैयद की राष्ट्र-विरोधी एवं भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन को शिथिल करने की नीति का समर्थन नहीं किया।

दूसरे उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अपने विचारों और कार्यक्रमों का केन्द्र अलीगढ़ को बनाया। अलीगढ़ से किये गये समस्त प्रयासों को समग्र रूप से अलीगढ़ आन्दोलन कहा जाता है। अलीगढ़ आन्दोलन ने मुसलमानों की शिक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किया। 1875 ई. में सर सैयद अहमदखाँ ने अलीगढ़ में मोहम्मडन एंग्लो ओरियंटल कॉलेज की स्थापना की। जनवरी 1877 में लॉर्ड लिटन ने इस कॉलेज का विधिवत् उद्घाटन किया तथा उत्तर प्रदेश के गवर्नर म्यूर ने इस कॉलेज को भूमि प्रदान की। इस प्रकार, आरम्भ से ही इस संस्था पर अंग्रेजों की विशेष कृपा-दृष्टि रही। लॉर्ड लिटन को दिये गये स्मृति-पत्र के अनुसार इस कॉलेज ने ब्रिटिश ताज के प्रति नवचेतना लाने और उन्हें संगठित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अलीगढ़ आन्दोलन के विचारों को प्रचारित करने के लिए सर सैयद ने 1886 ई. में ऑल इंडिया मुहम्मडन एजुकेशनल कांग्रेस की स्थापना की। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से अन्तर स्पष्ट करने के लिए 1890 ई. में इसका नाम बदलकर ऑल इंडिया मुहम्मडन एजुकेशन कांफ्रेंस किया गया। अलीगढ़ कॉलेज का मुख्य उद्देश्य तो मुस्लिम युवाओं में पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार करना था किन्तु शीघ्र ही वहाँ का मुख्य काम राष्ट्रविरोधी और साम्प्रदायिक वातावरण तैयार करना हो गया। वहाँ से प्रकाशित अलीगढ़ इन्स्टीट्यूट गजट शैक्षणिक विषयों पर ध्यान केन्द्रित न करके राजनीतिक क्रिया-कलापों की खिल्ली उड़ाने और गाली-गलौच करने लगा।

यद्यपि कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश अधिकारियों के प्रोत्साहन एवं सहयोग से हुई थी तथापि जब कांग्रेस उनके द्वारा निर्देशित मार्ग पर न जाकर उलटे ब्रिटिश शासन की आलोचना का मंच बन गई तो ब्रिटिश नौकरशाही का रुख कांग्रेस-विरोधी हो गया। सैयद अहमद खाँ ने कांग्रेस का विरोध आरम्भ से ही किया था। जब ब्रिटिश शासकों का रुख कांग्रेस के विरुद्ध होने लगा तो सैयद अहमद ने कांग्रेस पर हमला और भी तेज कर दिया। उन्होंने मुसलमानों को कांग्रेस से दूर रखने का प्रयास किया। 1887 ई. में सर सैयद ने कहा कि- ‘कांग्रेस में हिन्दू, बंगालियों के साथ मिलकर अपनी शक्ति बढ़ाना चाहते थे जिससे वे मुसलमानों के धर्म-विरोधी कार्यों को दबा सकें।’

सर सैयद अहमद मुसलमानों के ऐतिहासिक महत्त्व का बखान करके हिन्दुओं तथा मुसलमानों में गहरी खाई उत्पन्न करना चाहते थे ताकि मुसलमानों को पृथकतावादी राजनीति के लिये तैयार किया जा सके। उन्होंने इस बात का प्रचार करना आरम्भ किया कि यदि प्रतिनिधि मूलक जनतांत्रिक सरकार बन गई और ब्रिटिश शासन का अन्त हो गया और सत्ता भारतीयों को हस्तांतरित कर दी गई तो हिन्दू, मुसलमानों पर शासन करेंगे। उन्होंने प्रतियोगी परीक्षाओं के समकालिक करने की कांग्रेस की मांग को मुसलमानों के हितों के विरुद्ध बताया, क्योंकि शिक्षा के क्षेत्र में मुस्लिम समुदाय काफी पिछड़ा हुआ था।

1887 ई. में उन्होंने मुसलमानों के पिछड़ेपन को लेकर लिखा- ‘जितना अनुभव और जितना विचार किया जाता है, सबका निर्णय यह निकलता है कि अब भारत के मुसलमानों को भारत की अन्य कौमों से समानता कर पाना असम्भव सा लगता है। बंगाली तो अब इतना आगे बढ़ गये कि यदि बंगाल, हिन्दुस्तान और पंजाब के मुसलमान पंख लगाकर भी उड़ें तो उनको पकड़ नहीं सकते। भारत की हिन्दू कौमों ने भी उन्नति करके मैदान में मुसलमानों को बहुत पीछे छोड़ दिया है। यदि मुसलमान दौड़कर भी चलें तो भी उनको पकड़ नहीं सकते।’

इस प्रकार सैयद अहमद ने भारत की राजनीति में साम्प्रदायिक रंग घोल दिया। उन्होंने मुसलमानों के हितों की राजनीति करने के नाम पर जिन उपायों एवं वक्तव्यों का सहारा लिया, वे राष्ट्रीय जीवन के मार्ग को अवरुद्ध करने वाले सिद्ध हुए। उनकी साम्प्रदायिक राजनीति के दो हथियार थे- (1.) ब्रिटिश राज्य के प्रति अटूट स्वामि-भक्ति और (2.) मुसलमानों की पृथक् राजनीति।

अलीगढ़ आन्दोलन ने जिस मुस्लिम बौद्धिक जागरूकता का विकास किया उससे भारतीय मुसलमानों को अपनी अलग पहचान स्थापित करने में सहायता मिली। इसी कारण आगे चलकर उन्हें राजनैतिक रूप से संगठित होने का अवसर मिला।

(5.) थियोडर बेक का कांग्रेस विरोधी अभियान

अलीगढ़ कॉलेज के प्रिंसीपल थियोडर बेक ने कांग्रेस-विरोधी अभियान में सर सैयद को महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया। बेक ने अलीगढ़ के छात्रों को कांग्रेस से दूर रखने के लिए छात्रावासों में जाकर तथा छात्रों को अपने घर बुलाकर उनके मस्तिष्क में कांग्रेस विरोधी जहर भरा। कांग्रेस-विरोधी राजनीतिक विचारों को इंग्लैण्ड में प्रचारित करने के लिए बेक की सहायता से अगस्त 1888 में यूनाइटेड इण्डियन पेट्रियाटिक एसोसिएशन की स्थापना की गई। बेक द्वारा कांग्रेस की नीतियों के विरोध में की जा रही कार्यवाहियों का एक मात्र लक्ष्य यह था कि ब्रिटिश सरकार कांग्रेस की मांगों को स्वीकार न करे। फिर भी 1892 ई. में भारतीय परिषद् अधिनियम पारित हो गया। अतः पुनः मुस्लिम हितों की रक्षा के लिए बेक ने सर सैयद के सहयोग से दिसम्बर 1893 में मुहम्मडन एंगलो-ओरियंटल डिफेन्स एसोसिएशन की स्थापना की। वे इस संस्था के माध्यम से भारतीय मुसलमानों को एक राजनीतिक शक्ति के रूप में प्रस्तुत कर अँग्रेजी राज्य से उनके लिए अधिक से अधिक लाभ उठाने का प्रयास कर रहे थे। एसोसिएशन द्वारा मुसलमानों को बिना किसी प्रवेश-परीक्षा के तकनीकी शिक्षा संस्थानों में प्रवेश, व्यवस्थापिका सभा तथा अन्य स्थानीय स्वशासी निकायों में मुसलमानों के समुचित प्रतिनिधित्व तथा साम्प्रदायिक प्रणाली के आधार पर पृथक् निर्वाचन-पद्धति की स्थापना की मांग की गई। इन मांगों के लिए प्रस्तुत आधारभूत सिद्धान्त इस प्रकार थे-

(क.) जिन नगरों में मुस्लिम जनसंख्या 15 प्रतिशत थी, वहाँ कम-से-कम एक मुस्लिम सदस्य अवश्य होना चाहिए।

(ख.) जिन नगरों में मुस्लिम जनसंख्या 15 प्रतिशत से 25 प्रतिशत तक थी, वहाँ मुसलमान सदस्यों की संख्या यथासम्भव आधी होनी चाहिए।

(ग.) जिन नगरों में मुस्लिम जनसंख्या 25 प्रतिशत से अधिक हो, वहाँ आधे सदस्य अवश्य मुसलमान होने चाहिए।

एसोसिएशन के उद्घाटन भाषण में बेक ने कहा- ‘इस समय देश में दो आन्दोलन चल रहे हैं- पहला, राष्ट्रीय कांग्रेस का और दूसरा गो-हत्या विरोधी। पहला आन्दोलन ब्रिटिश-विरोधी है और दूसरा मुस्लिम-विरोधी।’

बेक ने अपने एक लेख में गृह-सरकार की इस बात के लिए निन्दा की कि वह देशद्रोही आन्दोलनकारियों के दबाव में आकर उनकी मांगें स्वीकार करती जा रही है। 1898 ई. में सर सैयद अहमद खाँ का और अगले वर्ष बेक का देहान्त हो गया। उनके देहान्त के बाद उनकी कांग्रेस विरोधी राजनीति को थियोडर मॉरिसन ने आगे बढ़ाया। उसने घोषणा की कि यदि भारत में प्रजातन्त्र की स्थापना होती है तो यहाँ अल्पसंख्यकों की स्थिति लकड़हारों एवं भिश्तियों जैसी हो जायेगी।

(6.) हिन्दुओं द्वारा अपने सांस्कृतिक उत्थान के प्रयास

ब्रिटिश काल में हिन्दू समाज में नई चेतना उत्पन्न हुई। मुसलमानों के शासन काल में हिन्दू अपने समस्त राजनीतिक अधिकार खो चुके थे तथा उनमें शासन का विरोध करने का भी साहस नहीं बचा था किंतु अँग्रेजों के शासन काल में पाश्चात्य शिक्षा के कारण हिन्दुओं में शासन के विरुद्ध संघर्ष करने का नवीन साहस उत्पन्न हुआ तथा हिन्दू समाज में राष्ट्रीयता की भावना का फिर से उदय हुआ। यही कारण है कि राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व प्रायः हिन्दू नेताओं के हाथों में रहा।

(क.) गौ-रक्षा आंदोलन: 1882 ई. में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने गौ रक्षिणी सभा की स्थापना की तथा आर्य समाज ने देश भर में गौ-हत्या के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ा। मुसलमानों ने इस आंदोलन का विरोध किया जिसके फलस्वरूप देश के बहुत बड़े हिस्से में साम्प्रदायिक दंगे हुए। इन दंगों में बहुत से मन्दिर, मस्जिद और दुकानें नष्ट कर दी गईं। दोनों सम्प्रदायों के सैंकड़ों लोग घायल हुए।

(ख.) बाल गंगाधर तिलक के आंदोलन: महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक ने विदेशी सत्ता के विरुद्ध जनमत तैयार करने के लिए छत्रपति शिवाजी एवं भगवान गणेश के नाम पर उत्सव आरम्भ किये। इस कारण मुस्लिम समुदाय, हिन्दुओं के विरुद्ध भड़क गया।

(ग.) उर्दू विरोधी आंदोलन: उत्तर-पश्चिमी प्रान्त के न्यायालयों एवं शासन के निम्न स्तरों पर उर्दू भाषा का प्रयोग लम्बे समय से किया जा रहा था किन्तु 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उर्दू के स्थान पर, हिन्दी को शासन की भाषा के रूप में प्रयोग करने की मांग की जाने लगी। 1900 ई. में प्रान्त के लेफ्टिनेन्ट गवर्नर एन्थोनी मेक्डोनेल ने हिन्दी को न्यायालयों की वैकल्पिक भाषा के रूप में स्वीकार कर लिया। उसके इस कदम से मुसलमान, हिन्दुओं के विरुद्ध लामबन्द हो गये।

(7.) कांग्रेस की स्थापना के बाद ब्रिटिश नौकरशाहों द्वारा हिन्दुओं पर अविश्वास एवं मुसलमानों के प्रति विश्वास की नीति अपनाना

साम्प्रदायिकता की समस्या को उलझाने में ब्रिटिश नौकरशाहों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपने शासन के प्रारम्भ में वे मुसलमानों को उच्च पदों पर नियुक्त नहीं करते थे तथा अँग्रेजी शिक्षा प्राप्त हिन्दुओं को प्राथमिकता देते थे। इस कारण ब्रिटिश राज में मुसलमानों की आर्थिक दशा, हिन्दुओं की अपेक्षा अधिक तेजी से खराब हुई। ज्यों-ज्यों राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्रता आने लगी, त्यों-त्यों अँग्रेज यह अनुभव करने लगे कि अपनी सत्ता की सुरक्षा के लिए उन्हें मुसलमानों को अपने पक्ष में लेना चाहिये तथा मुसलमानों को हिन्दुओं से दूर किया जाना चाहिये। 1905 ई. का बंगाल-विभाजन हिन्दुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे से दूर करने के लिए ही किया गया था। लॉर्ड कर्जन ने पूर्वी बंगाल के मुसलमानों को यह भरोसा दिया था कि नये सूबे में उनकी वही प्रधानता स्थापित होगी जो कभी मुस्लिम सूबेदारों के युग में होती थी। 1911 ई. में बंगाल विभाजन को निरस्त करने से मुस्लिम साम्प्रदायिकता में अत्यधिक वृद्धि हुई क्योंकि अँग्रेज, मुसलमानों को यह समझाने में सफल रहे कि हिन्दुओं के आंदोलन के कारण ही मुसलमान अपना मुस्लिम बहुल प्रांत खो बैठे।

(8.) सरकारी नौकरियों में मुसलमानों का कम प्रतिनिधित्व

ब्रिटिश भारत में मुसलमानों की जनसंख्या 23 प्रतिशत थी किंतु 1893 ई. से 1907 ई. के मध्य विभिन्न विधान सभाओं में मुसलमानों को केवल 12 प्रतिशत स्थान प्राप्त हुए। 1904 ई. में किये गये एक सरकारी सर्वेक्षण के अनुसार देश में 75 रुपये या इससे अधिक वेतन पर काम करने वाले हिन्दुओं की संख्या 1427 थी और मुसलमानों की संख्या केवल 213 थी। जब भारत सचिव लॉर्ड मार्ले ने संवैधानिक सुधारों की घोषणा करके भारत में प्रतिनिधि-शासन-प्रणाली के विस्तार का समर्थन किया तो मुसलमानों में चिन्ता व्याप्त हो गई। उनमें हिन्दुओं के प्रति ईर्ष्या का भाव उत्पन्न हुआ जो अँग्रेजी पढ़-लिखकर अधिक संख्या में नौकरियां पा गये थे।

(9.) अँग्रेजों द्वारा साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन

अँग्रेज नौकरशाहों ने मुसलमानों की चिंताओं का लाभ उठाने का निश्चय किया। वायसराय के निजी सचिव स्मिथ ने अलीगढ़ कॉलेज के प्रिंसिपल आर्किबाल्ड को लिखा- ‘यदि आगामी सुधारों के बारे में मुसलमानों का एक प्रतिनिधि मण्डल मुसलमानों के लिए अलग अधिकारों की मांग करे और इसके लिए वायसराय से मिले तो वायसराय को उनसे मिलने में प्रसन्नता होगी।’

इस पर 36 मुस्लिम नेताओं का एक प्रतिनिधि मण्डल सर आगा खाँ के नेतृत्व में 1 अक्टूबर 1906 को शिमला में लॉर्ड मिन्टो से मिला और उन्हें एक आवेदन पत्र दिया जिसमें मुख्य रूप से निम्नलिखित मांगें थीं-

1. मुसलमानों को सरकारी सेवाओं में उचित अनुपात में स्थान मिले।

2. नौकरियों में प्रतियोगी तत्त्व की समाप्ति हो।

3. प्रत्येक उच्च न्यायालय और मुख्य न्यायालय में मुसलमानों को भी न्यायाधीश का पद मिले।

4. नगरपालिकाओं में दोनों समुदायों को अपने-अपने प्रतिनिधि भेजने की वैसी ही सुविधा मिले, जैसी पंजाब के कुछ नगरों में है।

5. विधान परिषद के चुनाव के लिए मुख्य मुस्लिम जमींदारों, वकीलों, व्यापारियों, अन्य महत्त्वपूर्ण हितों के प्रतिनिधियों, जिला परिषदों और नगर पालिकाओं के मुस्लिम सदस्यों तथा पांच वर्षों अथवा किसी ऐसी ही अवधि के पुराने मुसलमान स्नातकों के निर्वाचक-मण्डल बनाये जायें।

इस प्रार्थना-पत्र में इस तथ्य पर विशेष जोर दिया गया कि भविष्य में किये जाने वाले किसी संवैधानिक परिवर्तन में न केवल मुसलमानों की संख्या, वरन् उनके राजनीतिक और ऐतिहासिक महत्त्व को भी ध्यान में रखा जाये।

वायसराय मिन्टो ने मुस्लिम प्रतिनिधि मण्डल के प्रार्थना-पत्र की प्रशंसा की तथा उनकी मांगों को उचित बताया। मिण्टो ने कहा- ‘आपका यह दावा बिल्कुल उचित है कि आपके स्थान का अनुमान सिर्फ आपकी जनसंख्या के आधार पर नहीं, अपितु आपके समाज के राजनीतिक महत्त्व और उसके द्वारा की गई साम्राज्य की सेवा के आधार पर लगाया जाना चाहिए।’ मिन्टो ने यह आश्वासन भी दिया कि भावी प्रशासनिक पुनर्गठन में मुसलमानों के अधिकार और हित सुरक्षित रहेंगे।

इस प्रकार ब्रिटिश नौकरशाही ने मुसलमानों को अपने जाल में फंसाने तथा साम्प्रदायिकता की खाई को चौड़ा करने का काम किया। इस प्रतिनिधि मण्डल की उत्तेजना को देखकर अँग्रेज नौकरशाह अच्छी तरह जान गये कि वे 6.2 करोड़ मुसलमानों को राष्ट्रीय आन्दोलन से अलग करने में समर्थ हो गये हैं। इसकी पुष्टि खुद लेडी मिन्टो की डायरी से होती है। अक्टूबर 1906 का मुस्लिम शिष्ट मण्डल, एक मुस्लिम राजनैतिक दल के गठन का पूर्वाभ्यास था, इसका आभास मिलते ही ब्रिटिश नौकरशाही वर्ग में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई।

उसी शाम एक ब्रिटिश अधिकारी ने वायसराय की पत्नी मेरी मिन्टो को पत्र लिखकर सूचित किया- ‘मैं आपको संक्षेप में सूचित करता हूँ कि आज एक बहुत बड़ी बात हुई है। आज राजनीतिज्ञतापूर्ण एक ऐसा कार्य हुआ जिसका प्रभाव भारत तथा उसकी राजनीति पर चिरकाल तक पड़ता रहेगा। 6 करोड़ 20 लाख लोगों को हमने विद्रोही पक्ष में सम्मिलित होने से रोक लिया है।’

इंग्लैण्ड के समाचार पत्रों ने भी इसे एक बहुत बड़ी विजय बताया और मुसलमानों की बुद्धिमत्ता की प्रशंसा की। यह प्रथम अवसर था जब वायसराय के निमंत्रण पर भारत के विभिन्न भागों के मुसलमान शिमला में एकत्र हुए थे।  जब वे वापिस अपने-अपने घर लौटे तब वे पूरे राजनीतिज्ञ बन चुके थे। अब उनके कंधों पर अलीगढ़ की राजनीति को सारे देश में फैलाने की जिम्मेदारी थी।

मुसलमानों को हिन्दुओं के विरुद्ध खड़ा करने के इस काम के लिए भारत सचिव मार्ले ने 16 अक्टूबर 1906 को गवर्नर जनरल लॉर्ड मिन्टो को पत्र लिखकर बधाई दी। ब्रिटिश सरकार ने अपना आश्वासन पूरा किया और 1909 ई. के भारतीय परिषद् अधिनियम के अन्तर्गत ब्रिटिश भारत की प्रत्येक विधान सभा के लिए मुसलमानों को अपने समुदाय पर आधारित चुनाव मण्डलों से अपने प्रतिनिधियों को, अपनी जनसंख्या के अनुपात से कहीं अधिक अनुपात में चुनने का अधिकार दिया। इस प्रकार, मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया जाता रहा।

अध्याय – 84 : भारत में साम्प्रदायिक राजनीति का विकास – 2

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भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिकता का विकास

(1.) मुस्लिम लीग की स्थापना

30 दिसम्बर 1906 को ढाका के नवाब सलीमउल्ला खाँ के निमंत्रण पर ढाका में, अलीगढ़ की मोहम्मडन एज्युकेशनल कॉन्फ्रेन्स की वार्षिक सभा आयोजित की गई। इस सभा में सलीमुल्ला ने मुसलमानों के अलग राजनीतिक संगठन की योजना प्रस्तुत की तथा कहा कि इसका उद्देश्य ब्रिटिश सरकार का समर्थन करना, मुसलमानों के अधिकारों और हितों की रक्षा करना, कांग्रेस के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकना और मुस्लिम नौजवानों को राजनीतिक मंच प्रदान करना है ताकि उन्हें भारतीय कांग्रेस से दूर रखा जा सके। सलीमउल्ला ने इस संस्था का नाम मुस्लिम ऑल इण्डिया कान्फेडरेसी सुझाया। इस प्रस्ताव को उसी दिन स्वीकार कर लिया गया। इस प्रकार 30 दिसम्बर 1906 को अखिल भारतीय मुस्लिम संगठन अस्तित्व में आया जिसका नाम ऑल इंडिया मुस्लिम लीग रखा गया। नवाब विकुर-उल-मुल्क को इसका सभापति चुना गया। लीग के संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए समिति गठित की गई जिसके संयुक्त सचिव मोहिसिन-उल-मुल्क तथा विकुर-उल-मुल्क नियुक्त किये गये। 1907 ई. में, कराची में लीग का वार्षिक अधिवेशन आयोजित हुआ जिसमें लीग का संविधान स्वीकार किया गया। इस संविधान में मुस्लिम लीग के निम्नलिखित लक्ष्य और उद्देश्य निर्धारित किये गये-

(क.) भारतीय मुसलमानों में ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा की भावना पैदा करना और किसी भी योजना के सम्बन्ध में मुसलमानों के प्रति होने वाली सरकारी कुधारणाओं को दूर करना।

(ख.) भारतीय मुसलमानों के राजनीतिक तथा अन्य अधिकारों की रक्षा करना और उनकी आवश्यकताओं तथा उच्च आकांक्षाओं को संयत भाषा में सरकार के समक्ष रखना।

(ग.) जहाँ तक हो सके, उक्त उद्देश्यों को हानि पहुँचाये बिना, मुसलमानों तथा भारत के अन्य समाजों में मित्रतापूर्ण भावना उत्पन्न करना।

मुस्लिम लीग के संविधान में स्थायी अध्यक्ष की व्यवस्था की गई और खोजा सम्प्रदाय के धार्मिक नेता प्रिन्स आगा खाँ को अध्यक्ष बनाया गया। आगा खाँ के पास पहले से ही इतने काम थे कि उन्हें लीग के अध्यक्ष के कार्यालय का दैनिक कार्य देखने का समय नहीं था। इसलिए लीग के हर वार्षिक अधिवेशन में एक कार्यकारी अध्यक्ष चुना जाता था। लीगी नेता, भारत के मुसलमानों में अपने देश के प्रति नहीं, अपितु अँग्रेजों के प्रति वफादारी की भावना बढ़ाना चाहते थे। वे भारत के अन्य निवासियों के साथ नहीं अपितु अँग्रेजों के साथ एकता स्थापित करना चाहते थे। लीग के सचिव जकाउल्ला ने स्पष्ट कहा- ‘कांग्रेस के साथ हमारी एकता सम्भव नहीं हो सकती क्योंकि हमारे और कांग्रेसियों के उद्देश्य एक नहीं। वे प्रतिनिधि सरकार चाहते हैं, मुसलमानों के लिए जिसका मतलब मौत है। वे सरकारी नौकरियों में नियुक्ति के लिए प्रतियोगी परीक्षा चाहते हैं और इसका मतलब होगा कि मुसलमान सरकारी नौकरियों से हाथ धो बैठेंगे। इसलिए हम लोगों को (हिन्दुओं के साथ) राजनीतिक एकता के नजदीक जाने की आवश्यकता नहीं।’

1908 ई. में सर अली इमाम, लीग का कार्यकारी अध्यक्ष हुआ। उसने कांग्रेस की कटु आलोचना करते हुए कहा- ‘जब तक कांग्रेस के नेता इस तरह की व्यावहारिक नीति नहीं अपनाते, तब तक ऑल इंण्डिया मुस्लिम लीग को अपना पवित्र कर्त्तव्य निभाना है। यह कर्त्तव्य है- मुस्लिम समुदाय को राजनीतिक भूल करने से रोकना अर्थात् उसे ऐसे संगठन में मिलने से रोकना जो लॉर्ड मार्ले के शब्दों में, चन्द्रमा को पकड़ने के लिए चिल्ला रहा है।’

इसी प्रकार अलीगढ़ में विद्यार्थियों की एक सभा में नवाब विकुर-उल-मुल्क ने कहा- ‘अगर हिन्दुस्तान से ब्रिटिश हुकूमत खत्म हो गई तो उस पर हिन्दू राज करेंगे और तब हमारी जिन्दगी, जायदाद और इज्जत पर सदैव खतरा मंडराया करेगा। इस खतरे से बचने के लिए मुसलमानों के लिए एकमात्र उपाय है- ब्रिटिश हुकूमत जरूर बनी रहे। मुसलमान अपने को ब्रिटिश फौज समझे और ब्रिटिश ताज के लिए अपना खून बहाने और अपनी जिन्दगी कुर्बान कर देने के लिए तैयार रहें…..आपका नाम ब्रिटिश हिन्दुस्तान की तवारीख में सुनहरे हर्फों में लिखा जायेगा। आने वाली पीढ़ियां आपका अहसान मानेंगी।’

(2.) 1909 के मार्ले मिण्टो सुधार में साम्प्रदायिक विभाजन के बीज

1909 ई. के मार्ले-मिण्टो सुधारों के द्वारा सरकार ने मुसलमानों, जमींदारों और व्यापारियों को अलग प्रतिनिधित्व प्रदान किया। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार द्वारा पहली बार हिन्दुओं और मुसलमानों को पृथक इकाई स्वीकार करके उन्हें अलग-अलग प्रतिनिधित्व दिया गया।

गणेशप्रसाद बरनवाल ने लिखा है- ‘1909 ई. के मार्ले मिण्टो सुधार से मुस्लिम-मुखी द्विराष्ट्रवाद की फसल बीमा कर दी जाती है।’

वाई. पी. सिंह ने लिखा है- ‘अँग्रेजों ने भारतीय परिषद् अधिनियम, 1909 के द्वारा साम्प्रदायिक विद्वेष के बीज बोये।’

दुर्गादास ने लिखा है- ‘व्हाइट हॉल ने पृथक निर्वाचन एवं सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व को स्वीकार करके अनजाने में ही सर्वप्रथम विभाजन के बीज बोये। मिण्टो के शब्दों में- मुस्लिम नेशन।’

(3.) लखनऊ समझौते से देश में शांति

1911 ई. के बाद अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं के प्रभाव से, जिनमें बाल्कन युद्ध और तुर्की में युवा तुर्क आन्दोलन सम्मिलित थे, भारतीय मुसलमानों में ब्रिटिश शासन के प्रति राजभक्ति कम होने लगी। युवा मुस्लिम वर्ग कांग्रेस के लक्ष्य से सहानुभूति रखने लगा। इसलिये 1913 ई. में मुस्लिम लीग ने अपने संविधान में संशोधन करके कांग्रेस की ही तरह अपना लक्ष्य भारत में औपनिवेशिक स्वशासन प्राप्त करना निश्चित किया। जब दोनों पार्टियों के लक्ष्य एक हो गये तो उनमें निकटता आनी भी स्वाभाविक थी। कांग्रेस भी अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मुसलमानों का सहयोग चाहती थी। फलस्वरूप 1916 ई. में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के मध्य समझौता हुआ जिसे लखनऊ समझौता कहते हैं। यह समझौता कराने में बाल गंगाधर तिलक और मुहम्मद अली जिन्ना की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही। इस समझौते में तीन बातें मुख्य थीं-

(क.) मुस्लिम लीग ने भी कांग्रेस की तरह भारत को उत्तरदायित्व-पूर्ण शासन देने की मांग की।

(ख.) कांग्रेस ने मुसलमानों के पृथक् निर्वाचन-मण्डल की प्रथा को स्वीकार कर लिया और विभिन्न प्रान्तों में उनके अनुपात को भी मान लिया।

(ग.) यह स्वीकार कर लिया गया कि यदि विधान सभाओं में किसी गैर-सरकारी सदस्य द्वारा प्रस्तुत किसी प्रस्ताव का विरोध किसी एक सम्प्रदाय के तीन चौथाई सदस्य करेंगे तो उस प्रस्ताव पर विचार नहीं किया जायेगा।

पं. मदनमोहन मालवीय, सी. वाई. चिंतामणि आदि कई कांग्रेसी नेताओं को लगा कि इस समझौते में मुसलमानों को अत्यधिक सुविधाएं दे दी गई हैं। कुछ इतिहासकार तो इन सुविधाओं को साम्प्रदायिकता के विकास की महत्त्वपूर्ण कड़ी मानते हैं जिसकी परिणति पाकिस्तान के रूप में हुई। तिलक का कहना था- ‘कुछ लोगों का विचार है कि हमारे मुसलमान भाइयों को अत्यधिक रियायतें दे दी गई हैं किन्तु स्वराज्य की मांग के लिए उनका हार्दिक समर्थन प्राप्त करने के लिए वह आवश्यक था; भले ही कठोर न्याय की दृष्टि से वह सही हो या गलत। उनकी सहायता और सहयोग के बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते।’ अयोध्यासिंह के अनुसार इस पैक्ट से जिन्हें सबसे अधिक आघात लगा था वे थे, ब्रिटिश साम्राज्यवादी और उनके दलाल। लखनऊ समझौते के परिणाम स्वरूप कुछ समय के लिए देश में साम्प्रदायिक एकता स्थापित हुई।

(4.) खिलाफत आन्दोलन की विफलता

प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की, इंग्लैण्ड के विरुद्ध लड़ा। भारतीय मुसलमानों को आशंका थी कि यदि तुर्की युद्ध में हार गया तो तुर्की साम्राज्य का विघटन कर दिया जायेगा तथा खलीफा की शक्तियां भी समाप्त कर दी जायेंगी। अतः भारतीय मुसलमानों ने खिलाफत आन्दोलन चलाया। गांधीजी ने मुसलमानों से अपील की कि वे सरकार के प्रति असहयोग का कार्यक्रम अपनायें। मुसलमानों ने गांधीजी के असहयोग आन्दोलन में सहयोग दिया और कांग्रेस ने खिलाफत आन्दोलन में मुसलमानों का। इस प्रकार दोनों आन्दोलन मिलकर एक हो गये किन्तु जब गांधीजी ने चौरी-चौरा काण्ड के कारण 1922 ई. में अचानक असहयोग आन्दोलन स्थगित कर दिया तब मुसलमानों ने गांधीजी की कटु आलोचना की और लखनऊ समझौते से स्थापित साम्प्रदायिक एकता पुनः नष्ट हो गई। मुसलमानों का एक वर्ग लखनऊ समझौते का घोर विरोधी था। इस वर्ग को भय था कि गांधीजी का नेतृत्व, मुसलमानों के भिन्न अस्तित्त्व को समाप्त कर देगा। खिलाफत एवं असहयोग आन्दोलन के दौरान ये नेता अनुभव करने लगे थे कि इस एकता से उनके अपने स्वार्थ पूरे नहीं हो रहे हैं; इससे भी एकता को आघात पहुँचा।

(5.) गांधीजी के नेतृत्व के प्रति संदेह

कांग्रेस में हिन्दू नेताओं का बोलबाला था तथा गांधीजी उनके सर्वमान्य नेता हो गये थे। गांधीजी यद्यपि मुसलमानों को प्रसन्न करने का कोई अवसर अपने हाथ से नहीं जाने देते थे और अपनी मेज की दराज में गीता के ऊपर कुरान रखते थे। उन्हें मुहम्मद अली जिन्ना की अपेक्षा कुरान की अधिक आयतें याद थीं किंतु साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले मुसलमान नेताओं का मानना था कि गांधीजी का सत्य और अहिंसा के प्रति अत्यधिक आग्रह, हिन्दू धर्म के आदर्शों से प्रेरित है। इस कारण मुसलमानों के लिये गांधीजी का नेतृत्व अमान्य है। अनेक पढ़े-लिखे कट्टर मुस्लिम नेता गांधीजी के विरुद्ध थे। गांधीजी ने 1907 ई. में दक्षिण अफ्रीका में जनरल स्मट्स की सरकार के विरुद्ध आंदोलन चलाया तो उसे बीच में ही बंद कर दिया था। दक्षिण अफ्रीका में रह रहे भारतीय पठानों ने गांधीजी के इस कार्य को विश्वासघात मानते हुए उनपर प्राण घातक हमला किया था। इस कारण मुसलमानों का, गांधीजी पर से विश्वास उठ चुका था। फिर भी जब गांधीजी ने 1920 ई. में भारत में असहयोग आन्दोलन आरम्भ करते समय यह कहा कि- ‘यदि देश मेरे पीछे चले तो मैं एक वर्ष के भीतर स्वराज्य ला दूँगा।’ तो मुसलमानों ने खिलाफत आंदोलन को असहयोग आंदोलन से जोड़ लिया। जब 1922 ई. में गांधीजी ने अचानक असहयोग आंदोलन बंद कर दिया तो मुसलमानों को लगा कि गांधीजी ने उन्हें मंझधार में छोड़कर, एक बार फिर विश्वासघात किया है। पूरे देश में अलगाववादी मुसलमानों ने यह प्रचार किया कि गांधीजी ने अपने स्वार्थों की सिद्धि के लिए मुसलमानों को गुमराह किया। इससे देश में उत्तेजना फैल गई और साम्प्रदायिक दंगे आरम्भ हो गये।

(6.) साम्प्रदायिक हिंसा से हिन्दू-मुस्लिम एकता भंग

साम्प्रदायिक एकता को सर्वप्रथम आघात मालाबार के मुस्लिम मोपलों ने पहुँचाया। 1921 ई. के अगस्त-सितम्बर माह में मोपलों ने असंख्य हिन्दुओं को मौत के घाट उतार दिया, हिन्दू स्त्रियों को भी उनके अत्याचारों का शिकार बनना पड़ा। जब ये तथ्य समाचार पत्रों में प्रकाशित हुए तो पूरे देश में तनाव व्याप्त हो गया। मुल्तान में भी मुसलमानों ने अनेक हिन्दुओं को मार डाला; उनकी सम्पत्ति लूट ली या नष्ट कर दी। सहारनपुर में भी ऐसी घटनाएं घटित हुईं। लाहौर में भी साम्प्रदायिक दंगे हुए। एक धर्मान्ध मुसलमान ने आर्य समाज के स्वामी श्रद्धानन्द की रोगी-शैया पर ही हत्या कर दी। आर्य समाज के कुछ अन्य नेताओं की भी हत्या कर दी गई। इन घटनाओं ने हिन्दू जनता को विचलित कर दिया।

(7.) नवीन हिन्दू संस्थाओं की स्थापना

देश भर में हिन्दुओं के विरुद्ध हो रही हिंसक घटनाओं के विरोध में हिन्दू नेताओं ने हिन्दू एकता का नारा दिया। सारे देश में हिन्दू महासभा की शाखाएं स्थापित की गईं। अखिल भारतीय क्षत्रिय सभा की स्थापना हुई। 1923 ई. में डॉ. किचलू ने अमृतसर में तन्जीम और तबलीग आन्दोलन प्रारम्भ किया। 1925 ई. में विजय दशमी के दिन डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक दल का गठन किया जिसका उद्देश्य हिन्दू धर्म, जाति और संस्कृति की रक्षा करना था। पूरे भारत में इसकी शाखाएं स्थापित की गईं। 1928 ई. में लाहौर में ऑर्डर ऑफ दी हिन्दू यूथ नामक संगठन की स्थापना की गई। इन संस्थाओं की उपस्थिति से मुस्लिम साम्प्रदायिकता की राजनीति को और अधिक विस्तार प्राप्त हो गया।

(8.) वीर सावरकर का उग्र हिन्दुत्व

स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद तथा महर्षि अरविंद घोष ने परतंत्र भारत की देह में आत्मगौरव के नवीन प्राण फूंकने के लिये उग्र हिंदुत्व को जन्म दिया। कांग्रेस में लाला लाजपतराय, विपिनचंद्र पाल और बाल गंगाधर तिलक, इस उग्र हिंदुत्व के ध्वज-वाहक थे। 1 अगस्त 1920 को तिलक की मृत्यु होने पर कांग्रेस गांधीजी के नेतृत्व में चली गई। इस पर महाराष्ट्र में जन्मे विनायक दामोदर सावरकर ने हिन्दू-राष्ट्रवाद की भावना को तिलक युग से आगे बढ़ाया। उन्होंने हिन्दुओं में राजनीतिक एवं सामाजिक एकीकरण की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने हिन्दुओं के समान हितों पर बल देते हुए उनको संगठित होने का आह्नान किया। वे मुसलमानों को प्रसन्न करने वाली नीति के समर्थक नहीं थे। उनका कहना था कि यदि भारतीय मुसलमान, स्वराज्य-प्राप्ति में सहयोग नहीं देना चाहते तो उनसे अनुनय-विनय करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि मुसलमानों के बिना भी हिन्दू अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने में समर्थ हैं। मुसलमानों के लिये साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले नेताओं को, सावरकार का विरोध करने के बहाने, अपनी उग्र साम्प्रदायिक राजनीति को चमकाने का अच्छा अवसर प्राप्त हो गया।

(9.) नेहरू रिपोर्ट पर मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिक राजनीति

1927 ई. में जब कांग्रेस ने साइमन कमीशन का बहिष्कार किया तो भारत सचिव लॉर्ड बर्कनहेड ने चुनौती दी कि साइमन कमीशन का विरोध करने से क्या लाभ है जबकि भारतवासी स्वयं ऐसा कोई संविधान तैयार करने में असमर्थ हैं जिसे भारत के समस्त दल स्वीकार करते हों! भारतीय नेताओं ने भारत सचिव की इस चुनौती को स्वीकार कर लिया। भारत के भावी संविधान के लिये एक प्रस्ताव तैयार करने हेतु एक समिति का गठन किया गया। मोतीलाल नेहरू को समिति का अध्यक्ष और जवाहरलाल नेहरू को सचिव नियुक्त किया गया। इसमें सुभाषचंद्र बोस तथा सर तेज बहादुर सप्रू सहित कुल 8 सदस्य थे। इस समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट को नेहरू रिपोर्ट कहा जाता है। इस रिपोर्ट में भारत में उत्तरदायी सरकार की स्थापना, अल्पसंख्यकों के धार्मिक एवं सांस्कृतिक हितों की रक्षा के लिए अधिकारों की घोषणा; तथा वयस्क मताधिकार आदि बातें सम्मिलित की गईं। दिसम्बर 1928 में सर्वदलीय बैठक में जिन्ना ने नेहरू समिति के प्रस्तावों पर तीन संशोधन रखे किन्तु वे स्वीकार नहीं किये गये। मुहम्मद शफी के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने प्रारम्भ से ही नेहरू समिति का बहिष्कार किया। 31 दिसम्बर 1928 और 1 जनवरी 1929 को आगा खाँ की अध्यक्षता में दिल्ली में सर्वदलीय मुस्लिम कान्फ्रेंस की बैठक बुलाई गई। इसमें नेहरू रिपोर्ट के समस्त प्रस्तावों के विरुद्ध प्रस्ताव पारित किये गये। जिन्ना ने इस कान्फ्रेंस में भाग नहीं लिया परंतु उसने मार्च 1929 में मुस्लिम लीग के अधिवेशन में एक प्रस्ताव रखा जिसमें नेहरू रिपोर्ट के मुकाबले 14 शर्तें रखीं, जिनमें संघीय संविधान, प्रांतीय स्वायत्तता, पंजाब और बंगाल में बहुमत की स्थापना, केन्द्रीय विधानसभा और प्रान्तीय विधान मण्डलों में मुसलमानों के लिए एक-तिहाई स्थान सुरक्षित करने की मांगें सम्मिलित थीं। 1930 ई. में इलाहाबाद में आयोजित मुस्लिम लीग के वार्षिक सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण में डा. इकबाल  ने मुसलमानों की अलग राजनीतिक पहचान के आधार पर भारत में एक अलग मुस्लिम राष्ट्र या फेडरेशन की स्थापना की वकालात की। उसने कहा- ‘मैं पंजाब, उत्तर-पश्चिमी प्रांत, सिंध और बलूचिस्तान को एक अलग राष्ट्र में एकीकृत होते हुए देखना चाहता हूँ।’  इस प्रकार इकबाल ने भावी मुस्लिम भारत का नक्शा खींचा।

(10.) 1930 ई. का साम्प्रदायिक पंचाट

साइमन कमीशन की रिपोर्ट में प्रस्तावित संघीय भारत के निर्माण की दिशा में विचार विमर्श करने हेतु, ब्रिटिश सरकार ने 12 नवम्बर 1930 को लंदन में प्रथम गोलमेज सम्मेलन बुलाया। कांग्रेस ने इसका बहिष्कार किया। सम्मेलन में मुहम्मद अली जिन्ना और डॉ. भीमराव अम्बेडकर में तीव्र मतभेद हो जाने से भारत में संघीय सरकार के निर्माण पर कोई निर्णय नहीं हो सका। 17 सितम्बर 1931 को लंदन में दूसरा गोलमेज सम्मेलन बुलाया गया। इसमें कांग्रेस के प्रतिनिधि की हैसियत से अकेले गांधीजी ने भाग लिया। यह सम्मेलन भी असफल रहा। 17 नवम्बर 1932 को लंदन में तृतीय गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया। इस समय कांग्रेस अवैध संस्था घोषित हो चुकी थी इसलिये वह सम्मेलन में भाग नहीं ले सकी। जब गोलमेज सम्मेलनों से भी साम्प्रदायिक समस्या का समाधान नहीं हो पाया तो 1932 ई. में ब्रिटिश सरकार ने अपनी तरफ से साम्प्रदायिक पंचाट की घोषणा कर दी।

इसके अन्तर्गत मुसलमानों, यूरोपियनों, सिक्खों, भारतीय ईसाईयों, एंग्लो-इंण्डियनों, राजाओं और जागीरदारों को विभिन्न प्रान्तीय विधान सभाओं में अपने-अपने समुदायों के प्रतिनिधियों को पृथक् निर्वाचन प्रणाली द्वारा चुनने का अधिकार दिया गया। डा. अम्बेडकर के प्रयत्नों से दलित वर्ग को अपने प्रतिनिधियों को पृथक निर्वाचन प्रणाली द्वारा चुनने की सुविधा दे गई। इस प्रकार इस पंचाट के माध्यम से अँग्रेजों ने बांटो एवं राज्य करो के सिद्धान्त पर देश में मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने, दलितों को अलग प्रतिनिधित्व देकर हिन्दू-समाज का बंटवारा करने, भारतीय अल्पसंख्यकों को अनुचित महत्त्व प्रदान कर राष्ट्रीय एकता को छिन्न-छिन्न करने, राजाओं और जागीरदारों के लिए पृथक्-निवार्चन की व्यवस्था कर अप्रजातांत्रिक तत्त्वों को प्रोत्साहन देने तथा भारत में प्रगतिशील तत्त्वों की गतिविधियों को नियंत्रित एवं कमजोर करने का षड़यंत्र रचा तथा धर्म एवं व्यवसाय के आधार पर प्रतिनिधित्व का विभाजन करके भारत को नई समस्याओं के खड्डे में फैंक दिया।

(11.) मुसमलानों के लिये अधिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था

गांधीजी ने साम्प्रदायिक पंचाट का, विशेषकर दलितों को हिन्दुओं से पृथक् करने का जोरदार विरोध किया तथा 20 सितम्बर 1932 को आमरण अनशन पर बैठ गये। डॉ. अम्बेडकर ने इस व्रत को राजनैतिक धूर्त्तता बताया। कुछ लोगों ने इसे अपनी मांग मनवाने का तरीका बतलाया। जब गांधीजी की तबीयत अधिक बिगड़ने लगी तब कुछ कांग्रेसी नेताओं ने 26 सितम्बर 1932 को डॉ. अम्बेडकर और गांधीजी के बीच एक समझौता करवाया। यह समझौता पूना पैक्ट के नाम से प्रसिद्ध है। इसके द्वारा साम्प्रदायिक पंचाट के आपत्तिजनक भाग को हटाया गया। इस समझौते से डॉ.अम्बेडकर दलितों के लिए दुगने स्थान सुरक्षित करवाने में सफल रहे। दिसम्बर 1932 में ब्रिटिश सरकार ने केन्द्रीय विधान सभा में मुसलमानों के लिए एक-तिहाई स्थान सुरक्षित करने की घोषणा की जबकि मुसलमान कुल जनसंख्या के एक चौथाई ही थे। इससे हिन्दुओं को मुसलमानों के विरुद्ध क्षोभ उत्पन्न हुआ।।

(12.) भारतीय राजनीति में जिन्ना का उदय

भारतीय राजनीति में जिन्ना का उदय भारत में साम्प्रदायिक समस्या को चरम पर पहुंचाने वाले प्रमुख तत्त्वों में से एक था।  आरम्भ में वह राष्ट्रवादी था तथा भारत के विभाजन के पक्ष में नहीं था। 1906 ई. में ढाका में जब मुस्लिम लीग की स्थापना हुई और लीग ने मुसलमानों के लिये पृथक् प्रतिनिधित्व की मांग की तो जिन्ना ने उसका विरोध किया और कहा कि इस तरह का प्रयास देश को विभाजित कर देगा।  1913 ई. में जिन्ना ने मुस्लिम लीग की सदस्यता ग्रहण की किंतु वह कांग्रेस का सदस्य भी बना रहा।  1916 ई. में वह मुस्लिम लीग का अध्यक्ष चुना गया। 1920 ई. में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में जिन्ना ने गांधीजी को महात्मा कहने से मना कर दिया और उन्हें मंच से मिस्टर गांधी  कहकर सम्बोधित किया। इस पर कांग्रेस के नेताओं ने जिन्ना का अपमान किया। इस घटना के बाद, जिन्ना एवं नेहरू के बीच दूरियां बढ़ने लगीं। 30 सितम्बर 1921 को जिन्ना, कांग्रेस से अलग हो गया फिर भी वह राष्ट्रवादी बना रहा। 1933 ई. में जब चौधरी रहमत अली ने पाकिस्तान नामक अलग देश की अवधारणा दी तो जिन्ना ने उसे दृढ़ता से अस्वीकार कर दिया।

 1937 ई. में जब प्रान्तीय विधान सभाओं के निर्वाचन हुए तो जवाहरलाल नेहरू ने एक वक्तव्य दिया- ‘देश में केवल दो ही ताकतें हैं- सरकार और कांग्रेस। सरकार का मुकाबला केवल कांग्रेस कर सकती है।’

इस वक्तव्य से जिन्ना, जवाहरलाल नेहरू से नाराज हो गया और उसके बाद उसने नेहरू को नीचा दिखाने का कोई अवसर अपने हाथ से नहीं जाने दिया। उसने तुरंत प्रतिवाद करते हुए कहा- ‘मैं कांग्रेस का साथ देने से इंकार करता हूँ, देश में एक तीसरा पक्ष भी है और वह है मुसलमानों का पक्ष।’

1937 ई. के चुनावों में कांग्रेस को भारी सफलता मिली।  मद्रास, बम्बई, संयुक्त प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और उड़ीसा में पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। बंगाल, आसाम तथा पश्चिमोत्तर प्रदेश में वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर सामने आई। केवल पंजाब और सिन्ध में कांग्रेस को कम मत मिले। ग्यारह प्रान्तों में मुसलमानों के लिए सुरक्षित 482 सीटों में से कांग्रेस को 26 सीटें, मुस्लिम लीग को 108 सीटें तथा निर्दलीय मुसलमानों को 128 सीटें मिलीं। पंजाब में अधिकांश सीटें यूनियनिस्ट पार्टी को मिलीं। बंगाल में फजलुल हक की प्रजा-पार्टी को 38 सीटें मिलीं।

चुनावों में कांग्रेस को मिली भारी विजय से जिन्ना तिलमिला गया। उसने सोचा कि भारत के समस्त मुस्लिम राजनीतिक दलों को लीग के अन्तर्गत संगठित करके ही हिन्दुओं की पार्टी अर्थात् कांग्रेस को कड़ी चुनौती दी जा सकती है। इसके बाद जिन्ना, मुसमलानों के लिये अलग देश अर्थात् पाकिस्तान बनाने की राह पर चल पड़ा। उसने द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को मुसलमानों की कमजोरी बनाने तथा उस कमजोरी को अपने पक्ष में भुनाने का निर्णय लिया। जिन्ना ने भारतीय राजनीति की पूरी दिशा बदल दी। उसने कांग्रेस को धमकी दी- ‘मुसमलानों को अकेला छोड़ दें।’ उसके साथियों ने मुसलमानों पर हिन्दुओं द्वारा किये जा रहे अत्याचारों के झूठे आंकड़े और मनगढ़ंत घटनाएं प्रचारित करके इस्लाम खतरे में, जैसे भड़काऊ नारे दिये और मुसलमानों में कृत्रिम भय पैदा करके साम्प्रदायिकता की समस्या को चरम पर पहुंचा दिया।

इसी बीच जवाहरलाल नेहरू ने अपने समाजवादी कार्यक्रम में मुसलमानों से सहयोग करने की अपील की किन्तु डॉ. इकबाल ने इसे मुसलमानों की सांस्कृतिक एकता को नष्ट करने की योजना बताया। इकबाल ने जिन्ना को भरपूर सहयोग दिया। इकबाल की मध्यस्थता से जिन्ना-सिकन्दर समझौता हुआ तथा पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी के मुस्लिम सदस्य, मुस्लिम लीग के भी सदस्य बन गये। इसके तुरन्त बाद बंगाल में फजलुल हक के नेतृत्व में और सिन्ध में सादुल्लाखाँ ने नेतृत्व में विधान सभाओं के मुस्लिम सदस्यों ने मुस्लिम लीग की सदस्यता स्वीकार कर ली। इससे मुस्लिम लीग शक्तिशाली पार्टी हो गई। इसी दौरान संयुक्त प्रान्त में मन्त्रिमण्डल निर्माण सम्बन्धी विवाद ने मुस्लिम लीग की लोकप्रियता बढ़ाने में योगदान दिया। कांग्रेस और लीग के बीच अविश्वास की वृद्धि के कारण ऊपरी तौर पर गौण लगने वाले मसले, जैसे कि कांग्रेस के झण्डे को फहराना, वन्देमातरम को राष्ट्रीय गीत के रूप में गाना, उर्दू के स्थान पर हिन्दी के प्रयोग की मांग उठाना आदि भी अब साम्प्रदायिक वैमनस्य बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुए। जिन्ना ने इसका लाभ उठाया और मुसलमानों पर अपने नेतृत्व और मुस्लिम लीग का प्रभाव मजबूती से आरोपित कर दिया। फलस्वरूप 1927 ई. में मुस्लिम लीग की सदस्य संख्या जो मात्र 1330 थी, 1938 ई. में एक लाख हो गई और 1944 ई. में 20 लाख के आसपास पहुँच गई।

जिन्ना मुस्लिम लीग को भारत के समस्त मुसलमानों की एक मात्र प्रतिनिधि संस्था कहता था जबकि कांग्रेस उसके इस दावे को अस्वीकार करती थी क्योंकि जिन्ना के दावे को स्वीकार करने का अर्थ था कि कांग्रेस न तो एकमात्र अखिल भारतीय पार्टी है और न हिन्दू और मुसलमान, दोनों की पार्टी है। इस कारण जिन्ना, कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं, विशेषतः महात्मा गांधी तथा जवाहरलाल नेहरू से चिढ़ा हुआ रहता था।  कांग्रेस के नेताओं के लिये जिन्ना का व्यवहार असह्य था। फिर भी गांधीजी हर हाल में जिन्ना को कांग्रेस के आंदोलन के साथ रखना चाहते थे। इस प्रकार कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग, दोनों पार्टियों के शर्षस्थ नेताओं के व्यक्तिगत मतभेदों ने देश में साम्प्रदायकिता को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योग दिया।

(13.) चौधरी रहमत अली द्वारा पाकिस्तान की अवधारणा

ब्रिटिश सरकार की ओर से लगातार दिये जा रहे प्रोत्साहन ने मुसलमानों के मन में अपने लिये एक अलग देश की कल्पना ने जन्म लिया। 1933 ई. में चौधरी रहमत अली नामक एक मुस्लिम विद्यार्थी ने लंदन में एक प्रस्ताव तैयार किया जिसमें कहा गया कि भारतीय मुसलमानों को अपना राज्य हिन्दुओं से अलग कर लेना चाहिये। भारत को अखण्ड रखने की बात अत्यंत हास्यास्पद और फूहड़ है। भारत के जिन उत्तर पश्चिमी क्षेत्रों- पंजाब, कश्मीर, सिंध, सीमांत प्रदेश तथा ब्लूचिस्तान में मुसलमानों की संख्या अधिक है, उन्हें अलग करके पाकिस्तान  नामक देश बनाया जाना चाहिये। प्रस्ताव के अंत में कहा गया था- ‘हिन्दू राष्ट्रीयता की सलीब पर हम खुदकुशी नहीं करेंगे।’

कैंब्रिज विश्वविद्यालय के भारतीय मुस्लिम विद्यार्थियों ने रहमत अली का साथ दिया। उन्होंने एक इश्तहार प्रकाशित किया जिसमें पाकिस्तान की मांग के बारे में ‘नाउ ऑर नेवर’ का उल्लेख करते हुए कहा गया- ‘भारत किसी एक अकेले राष्ट्र का नाम नहीं है। न ही एक अकेले राष्ट्र का घर है। वास्तव में यह इतिहास में पहली बार ब्रिटिश सरकार द्वारा निर्मित एक राष्ट्र की उपाधि है….. मुसलमानों की जीवन शैली भारत के अन्य लोगों से भिन्न है। इसलिये उनका अपना राष्ट्र होना चाहिये। हमारे राष्ट्रीय रिवाज और कैलेंडर अलग हैं। यहाँ तक कि हमारा खान-पान तथा परिधान भी भिन्न है।’

(14.) मुस्लिम लीग द्वारा नेशनल गार्ड का गठन

मुस्लिम लीग ने 1938 ई. में अपनी एक निजी सेना का गठन करना आरम्भ कर दिया। इस सेना के दो संगठन बनाये गये, एक था मुस्लिम लीग वालंटियर कॉर्प तथा दूसरा था मुस्लिम नेशनल गार्ड। मुस्लिम नेशनल गार्ड, मुस्लिम लीग का गुप्त अस्त्र था। उसकी सदस्यता गुप्त थी और उसके अपने प्रशिक्षण केंद्र व मुख्यालय थे जहाँ उसके सदस्यों को सैन्य प्रशिक्षण और ऐसे निर्देश दिये जाते थे जो उन्हें दंगों के समय लाभ पहुंचायें। इन प्रशिक्षण केन्द्रों पर लाठी-भाला चलाने, चाकू मारकर हत्या करने और धावा बोलने का प्रशिक्षण दिया जाता था। नेशनल गार्ड द्वारा भारी मात्रा में हथियार एकत्र किये गये और भारतीय सेना के विघटित मुस्लिम सैनिकों को भर्ती किया गया। मुस्लिम नेशनल गार्ड के यूनिट कमाण्डरों को सालार कहा जाता था।  नेशनल गार्ड के लम्बे चौड़े जवान, हथियारों से लैस होकर जिन्ना के चारों ओर बने रहकर उसकी सुरक्षा करते थे।

(15.) द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार को कांग्रेस द्वारा असहयोग एवं मुस्लिम लीग द्वारा सहयोग

3 सितम्बर 1939 को द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया। ब्रिटिश सरकार ने प्रजातंत्र और स्वतंत्रता के नाम पर भारतीयों से अपील की कि वे साम्राज्य की रक्षा करें। ब्रिटिश सरकार ने भारतीय नेताओं को विश्वास में लिये बिना ही भारत को भी युद्ध में सम्मिलित करने की घोषणा कर दी। कांग्रेस ने इसकी तीव्र आलोचना की और कहा कि जब तक भारत को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता, तब तक उसे युद्ध में नहीं झौंका जा सकता। इसके विपरीत, मुस्लिम लीग ने युद्ध में अँग्रेजों की सहायता का आश्वासन दिया तथा बड़ी संख्या में मुस्लिम सैनिक मोर्चों पर लड़ने गये। 11 सितम्बर 1939 को वायसराय ने दोनों सदनों में घोषणा की कि अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण भारत संघ के निर्माण की योजना स्थगित की जा रही है। मुस्लिम लीग ने इस घोषणा का स्वागत किया क्योंकि उसे प्रस्तावित संघ में हिन्दू प्रभुत्व स्थापित होने की आशंका थी। इस प्रकार युद्ध नीति और भारत के संवैधानिक भविष्य को लेकर कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार के बीच खाई बहुत चौड़ी हो गई किंतु मुस्लिम लीग और ब्रिटिश सरकार एक दूसरे के और निकट आ गये। मुस्लिम लीग ने अवसर का लाभ उठाते हुए, ब्रिटिश सरकार से मांग की कि ई. 1935 के सम्पूर्ण संविधान पर पुनर्विचार किया जाये क्योंकि प्रान्तीय स्वायत्तता ने हिन्दू आधिपत्य की आशंका को सत्य सिद्ध कर दिया है।

(16.) मुक्ति दिवस का आयोजन

17 अक्टूबर 1939 को वायसराय ने एक वक्तव्य दिया जिसमें युद्ध के बाद भारत को उपनिवेश का दर्जा (डोमिनियन स्टेटस) देने का आश्वासन दिया। कांग्रेस ने इस घोषणा को अपर्याप्त बताया क्योंकि कांग्रेस 1930 से पूर्ण स्वराज्य की मांग कर रही थी। सरकार की नीति के विरोध में प्रान्तों के कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों ने त्यागपत्र दे दिये। मुस्लिम लीग ने कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों के त्यागपत्र का स्वागत करने के लिये 22 दिसम्बर 1939 को मुक्ति दिवस मनाया। वायसराय ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं से केन्द्रीय और प्रान्तीय प्रशासन में सहयोग देने के सम्बन्ध में बातचीत जारी रखी परन्तु इसका कोई परिणाम नहीं निकला। सच्चाई यह थी कि ब्रिटिश सरकार भारत के संवैधानिक भविष्य के बारे में ऐसे किसी प्रस्ताव को प्रोत्साहन देने के पक्ष में नहीं थी जिससे कांग्रेस और लीग की दूरी घटती हो। वह तो दोनों के मध्य साम्प्रदायिक विद्वेष को बढ़ाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहती थी।

(17.) मुस्लिम लीग का लाहौर अधिवेशन एवं पाकिस्तान प्रस्ताव

1940 ई. में रहमत अली ने इस्लाम की मिल्लत और भारतीयता का खतरा शीर्षक से एक इश्तहार प्रकाशित किया जिसमें उसने कहा कि मुसलमानों को भारतीयता से बचना चाहिये और अलग राष्ट्र के निर्माण का प्रयास करना चाहिये। रहमत अली ने इण्डिया शब्द के अँग्रेजी अक्षरों में हेरफेर करके दीनिया शब्द का निर्माण किया जिसका अर्थ होता था- एक ऐसा उपमहाद्वीप जो इस्लाम में धर्मांतरित होने की प्रतीक्षा कर रहा था। रहमत अली ने बंगाल व आसाम का पुनः नामकरण करते हुए उसे बंग ए इस्लाम का नाम दिया। इस नाम का अर्थ था ‘इस्लाम का बंगुश।‘ उसने बिहार का नाम फरूखिस्तान, उत्तर प्रदेश का नाम हैदरिस्तान, राजपूताना का नाम मोइनिस्तान  तथा हैदराबाद का नाम ओसमानिस्तान रखा। उस वर्ष रहमत अली की परिकल्पना इतनी सफल हुई कि दिसम्बर 1940 में अपने लाहौर अधिवेशन में मुस्लिम लीग ने अलग देश बनाने का प्रस्ताव पारित कर दिया।  इस प्रस्ताव में कहा गया कि मुसलमानों को तब तक कोई संवैधानिक योजना स्वीकार नहीं होगी जब तक उसे इन मूल सिद्धांतों पर तैयार न किया गया हो। जिन क्षेत्रों में मुसलमान बहुमत में हैं, जैसे भारत के उत्तर पश्चिमी और उत्तर पूर्वी अंचलों में, उन्हें संगठित करके आठ स्वतंत्र देशों के रूप में संगठित किया जाना चाहिये जिसमें घटक इकाइयाँ स्वतंत्र और प्रभुत्व संपन्न होंगी। प्रस्तावित नये देश में मुस्लिम लीग द्वारा मुसलमानों को उनके हितों की सुरक्षा के लिये प्रभावशाली संवैधानिक सुरक्षा का आश्वासन दिया गया था जिनसे उनके धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं प्रशासनिक अधिकार सुरक्षित रहें। माना जाता है कि इस प्रस्ताव को पारित करवाने में ब्रिटिश अधिकारियों का हाथ था। गणेशप्रसाद बरनवाल ने लिखा है- ‘लाहौर का पाकिस्तान प्रस्ताव, गांधीजी की हिन्दू मुस्लिम एकता मिशन की कर्बला है। 15 जून 1940 के हरिजन में गांधीजी की एकता संकल्पना का ग्लेशियर पिघलता दिखाई पड़ता है। जिसमें उन्होंने लिखा है- …… द मुस्लिम लीग इज फ्रैंकली कम्यूनल एंड वांट्स टू डिवाइड इण्डिया इन टू पार्टस्।’

(18.) क्रिप्स प्रस्ताव से कांग्रेस और मुस्लिम लीग आमने-सामने

द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारम्भिक दो वर्षों में जब जापान के विरुद्ध मित्र राष्ट्रों की स्थिति कमजोर होती गई तो मार्च 1942 में ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों का सहयोग प्राप्त करने के लिए सर स्टैफर्ड क्रिप्स को कुछ प्रस्तावों के साथ भारत भेजा। क्रिप्स प्रस्ताव के दो भागों में थे- एक तो दूरगामी प्रस्ताव जो युद्ध के बाद लागू किये जाने थे और दूसरे तात्कालिक प्रस्ताव जो तुरन्त लागू किये जाने थे। दूरगामी प्रस्ताव में एक संविधान निर्मात्री सभा का गठन करने तथा उसके द्वारा भारतीय संघ का संविधान बनाने का प्रावधान था। मुस्लिम लीग को सन्तुष्ट करने के लिए इन प्रस्तावों में कहा गया कि यदि कोई प्रान्त भारतीय संघ में सम्मिलित नहीं होना चाहेगा तो ऐसे प्रान्तों को अपना पृथक् संघ और संविधान बनाने का अधिकार होगा। तात्कालिक प्रस्ताव में वायसराय की कार्यकारिणी में युद्धमन्त्री के अधिकारों से सम्बन्धित विषय थे। कांग्रेस ने क्रिप्स के प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया क्योंकि उनमें उत्तरदायी शासन स्थापित करने वाली कोई बात नहीं थी। यद्यपि क्रिप्स प्रस्ताव में अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान की मांग स्वीकार कर ली गई थी तथापि लीग ने भी क्रिप्स प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया क्योंकि इसमें पाकिस्तान के निर्माण के सम्बन्ध में स्पष्ट घोषणा नहीं थी। यद्यपि कांग्रेस का एक वर्ग राजगोपालाचारी के नेतृत्व में पाकिस्तान की मांग की वास्तविकता को स्वीकार करने लगा था, तथापि 29 अप्रैल 1942 को भारतीय कांग्रेस कमेटी ने एक प्रस्ताव पारित करके कहा कि किसी भी भारतीय भौगोलिक क्षेत्र को भारतीय संघ से अलग हो जाने की स्वतंत्रता देना, देश के लिए अहितकर होगा। इस प्रकार कांग्रेस द्वारा मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग को खुली चुनौती दी गई।

(19.) भारत छोड़ो आन्दोलन पर मुस्लिम लीग की अलगाववादी राजनीति

क्रिप्स प्रस्तावों की असफलता के बाद 8 अगस्त 1942 को कांग्रेस ने भारत छोड़ो आन्दोलन का प्रस्ताव पारित किया। इस पर सरकार ने कांग्रेसी नेताओं को बंदी बना लिया। कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारी ने आन्दोलन को विद्रोह में बदल दिया। जब कांग्रेस ने भारत छोड़ो आंदोलन आरम्भ किया तो जिन्ना ने कांग्रेस के खिलाफ असभ्य भाषा में भाषण दिये और मुसलमानों को इस आंदोलन का विरोध करने का आह्वान किया। मुसलिम लीग प्रेस ने इस पूरे आंदोलन के दौरान ब्रिटिश शासन से लड़ रहे कांग्रेसियों को गुण्डे शब्द से संबोधित किया। कांग्रेस नेताओं के विरुद्ध उतनी कठोर बातें ब्रिटिश प्रेस ने भी नहीं कीं जितनी मुस्लिम लीग प्रेस ने कहीं।

20 अगस्त को लीग की कार्यकारिणी द्वारा पारित प्रस्ताव में कहा गया- ‘कांग्रेस के इस आन्दोलन का उद्देश्य ब्रिटिश सरकार को परेशान करना है जिससे वह हिन्दू कुलीनतन्त्र को शासन-भार सौंप दे और इस प्रकार वह मुसलमानों तथा अन्य भारतीय अल्पसंख्यक समुदाय को समय-समय पर दिये गये वचनों तथा नैतिक उत्तरदायित्वों को पूरा न कर सके। साथ ही मुसलमानों को भी कांग्रेस की शर्तों पर तथा आज्ञाओं के आगे झुकने के लिए विवश कर दे।’

इस प्रस्ताव की आड़ में जिन्ना ने मुस्लिम लीग को और अधिक सशक्त बनाने का प्रयास किया। हर प्रान्तीय लीग को संगठित किया गया। केन्द्रीय और प्रान्तीय स्तर के लीगी नेताओं को छोटे शहरों एवं कस्बों में पाकिस्तान का संदेश पहुँचाने के लिए नियमित दौरे करने को कहा गया तथा साम्प्रदायिक समस्या को उसके चरम पर पहुंचा दिया गया।

6 मई 1944 को वायसराय लॉर्ड वेवल ने गांधीजी को बीमारी के कारण जेल से छोड़ दिया। जेल से मुक्त होने के बाद गांधीजी ने साम्प्रदायिक समस्या के समाधान हेतु जिन्ना से मिलने का निश्चय किया। गांधीजी की योजना की मुख्य बात यह थी कि युद्ध के बाद भारत उत्तर-पूर्व तथा उत्तर-पश्चिम में मुस्लिम बहुमत वाले प्रदेशों की सीमा निर्धारित करने के लिए एक आयोग नियुक्त किया जाये। इन प्रदेशों में किसी व्यावहारिक मताधिकार के आधार पर यह तय करने के लिए जनमत लिया जाये कि ये प्रदेश भारत से अलग होना चाहते हैं या नहीं। यदि मुस्लिम बहुमत वाले क्षेत्र भारत से अलग होने का निर्णय करते हैं तो उनका राज्य अलग बन जायेगा। जिन्ना ने इस योजना को अस्वीकार कर दिया। उसने अस्वीकृति के तीन कारण बताये-

(क.) इस फार्मूले से मुसलमानों को अपूर्ण, अंगहीन तथा दीमक युक्त पाकिस्तान दिया गया है। जिन्ना सम्पूर्ण बंगाल, आसाम, सिन्ध, पंजाब, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त और ब्लूचिस्तान को पाकिस्तान में चाहता था।

(ख.) प्रस्तावित जनमत-संग्रह में गैर-मुसलमानों को भी भाग लेने की अनुमति दी गई थी।

(ग.) प्रतिरक्षा, संचार और परिवहन के सम्बन्ध में संयुक्त व्यवस्था का प्रस्ताव था जिसे लीग मानने को तैयार नहीं थी।

(20.) शिमला सम्मेलन की असफलता

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद जून 1945 में लॉर्ड वेवल ने भारत के भावी प्रशासनिक पुनर्गठन की योजना पर वार्त्ता करने के लिए साम्प्रदायिक हितों से जुड़े प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन बुलाया। यह सम्मेलन शिमला में आयोजित किया गया था इसलिये इसे शिमला सम्मेलन कहते हैं। जिन्ना और गांधीजी का मतभेद केवल मुसलमानों के प्रतिनिधित्व के विषय में रहता था। देश में 10 करोड़ मुसमलान थे एवं 25 करोड़ हिन्दू व अन्य मतों के अनुयायी थे। कांग्रेस देश की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी थी जिसे विश्वास था कि वह 100 प्रतिशत हिन्दू, सिख एवं अन्य मतों के अनुयायियों का तथा 90 प्रतिशत मुस्लिम मतानुयायियों को नेतृत्व करती है और मुस्लिम लीग को देश के लगभग 10 प्रतिशत मुसलामनों का समर्थन प्राप्त है। जबकि मुस्लिम लीग मानती थी कि उसे देश के 90 प्रतिशत मुसलामनों का समर्थन प्राप्त था। जिन्ना कहता था कि मुस्लिम लीग ही एक मात्र संस्था है जो मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कर सकती है जबकि गांधीजी का कहना था कि कांग्रेस हिन्दू और मुसलमान दोनों का प्रतिनिधित्व करती है। गांधीजी ने शिमला सम्मेलन में कांग्रेस की ओर से मौलाना अबुल कलाम आजाद को भी सम्मिलित करने का प्रयास किया। इस पर जिन्ना नाराज हो गया। उसने कहा कि सरकार में केवल चार मुस्लिम प्रतिनिधि होंगे और वे चारों प्रतिनिधि मुस्लिम लीग की ओर से होंगे। कांग्रेस को केवल हिन्दुओं को ही अपना प्रतिनिधि बनाने का अधिकार है। इस बिंदु पर इतनी टसल चली कि शिमला सम्मेलन विफल हो गया। 

(21.) मुसलमानों पर कांग्रेस का प्रभाव समाप्त

दिसम्बर 1945 में प्रान्तीय विधान सभाओं के चुनाव हुए। चुनाव परिणामों से स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस का मुसलमानों में कोई विशेष प्रभाव नहीं है और मुसलमानों का वास्तिविक प्रतिनिधित्व मुस्लिम लीग कर रही है। ब्रिटिश भारत के 11 प्रान्तों में से 7 प्रान्तों में कांग्रेस के मन्त्रिमण्डल बने, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त में खुदाई खिदमतगारों की सरकार बनी जिनके नेता सीमान्त गांधी खान अब्दुल गफ्फारखान थे। पंजाब में कांग्रेस तथा अकाली दल की मिलीजुली सरकार बनी। केवल दो प्रांतों- बंगाल एवं सिन्ध में मुस्लिम लीग की सरकारें बनीं।

(22.) कैबिनेट मिशन योजना

 15 मार्च 1946 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने भारतीयों के आत्मनिर्णय के अधिकार को स्वीकार करने की घोषणा की। 24 मार्च 1946 को इस सम्बन्ध में भारतीय नेताओं से बातचीत करने के लिए कैबिनेट मिशन भारत आया। इस मिशन ने तीन महीने भारत में रहकर भारतीय नेताओं से विचार-विमर्श किया। 16 मई 1946 को मिशन ने एक योजना की घोषणा की। इसमें भारत के लिए एक संघीय शासन व्यवस्था की बात कही गई जिसमें ब्रिटिश भारत के समस्त प्रान्त तथा भारत की देशी रियासतें सम्मिलित होनी थीं। मिशन ने भारत का संविधान बनाने के लिए एक संविधान सभा का गठन करने का भी प्रस्ताव किया जिसके कुल 389 सदस्यों में से 210 गैर-मुस्लिम और 78 मुस्लिम सदस्य रखे गये। शेष 101 स्थान देशी रियासतों के लिए सुरक्षित रखे गये। केबिनेट मिशन योजना का दूसरा महत्त्वपूर्ण अंश अन्तरिम सरकार की स्थापना का था। इसमें 14 सदस्य रखे गये जिनमें 5 कांग्रेस के सवर्ण हिन्दू सदस्य, 5 मुस्लिम लीग के सदस्य, 1 दलित वर्ग का सदस्य और 3 अन्य अल्प संख्यकों के सदस्य सम्मिलित होने थे। कांग्रेस ने केबिनेट मिशन योजना के संविधान निर्माण सम्बन्धी प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया किन्तु अन्तरिम सरकार के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। मुस्लिम लीग ने सम्पूर्ण योजना को स्वीकार कर लिया। वह अन्तरिम सरकार में भाग लेने की भी इच्छुक थी। जुलाई 1946 में कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार संविधान सभा के चुनाव हुए जिनमें कांग्रेस को भारी सफलता मिली। इस पर 29 जुलाई 1946 को मुस्लिम लीग ने कैबिनेट मिशन योजना को अस्वीकार कर दिया। मुस्लिम लीग द्वारा कैबिनेट मिशन योजना अस्वीकार कर दिये जाने पर कांग्रेस ने अन्तरिम सरकार में भाग लेने की स्वीकृति दे दी। इस पर 12 अगस्त 1946 को वायसराय ने पं. जवाहरलाल नेहरू को अन्तरिम सरकार बनाने का निमन्त्रण भेज दिया।

(23.) सीधी कार्यवाही दिवस

आसानी से पाकिस्तान हाथ आता हुआ न देखकर मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त 1946 के दिन सीधी कार्यवाही दिवस मनाने तथा पाकिस्तान प्राप्त करने के लिए सड़कों पर भयानक हिंसा करने का निर्णय लिया। जिन्ना को अपना निर्णय पलटने का अनुरोध करने के लिये जवाहरलाल नेहरू 16 अगस्त 1946 को जिन्ना के घर गये किंतु जिन्ना पर नेहरू की अपील का कोई असर नहीं हुआ। बंगाल में मुस्लिम लीग की सरकार थी और सुहरावर्दी वहाँ का मुख्यमंत्री था। सुहरावर्दी ने 16 अगस्त को सार्वजनिक अवकाश घोषित कर दिया ताकि मुस्लिम लीग के स्वयंसेवक बिना किसी रोक-टोक के सीधी कार्यवाही की हिंसा में भाग ले सकें। मुस्लिम लीग के आह्वान पर लाखों लोग सड़क पर निकल आये। उन्होंने हिन्दुओं के घरों एवं दुकानों में आग लगा दी और हिन्दुओं का कत्लेआम आरम्भ कर दिया। कलकत्ता में भीषण हत्याकाण्ड हुआ जिसमें लगभग 4000 हिन्दू मारे गये। ये साम्प्रदायिक दंगे पूर्वी बंगाल के नोआखाली और त्रिपुरा जिलों में भी फैल गये जिनमें लगभग 200 हिन्दू मारे गये। नोआखाली में बड़ी संख्या में हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का प्रयास किया गया तथा स्त्रियों के साथ बलात्कार किये गये।  इन दंगों की प्रतिक्रिया में बिहार में हिन्दुओं ने मुसलमानों पर आक्रमण कर दिया। सरकारी सूत्रों के अनुसार बिहार में लगभग 4300 मुसलमान मारे गये। संयुक्त प्रान्त में 250 मुसलमान मारे गये। पूर्वी भारत की तरह पश्चिमी भारत में भी सीधी कार्यवाही में हिन्दुओं एवं सिक्खों के विरुद्ध भयानक हिंसा हुई। पंजाब में मरने वाले सिक्खों तथा हिन्दुओं की संख्या 3000 तक पहुंच गई। दंगों के दौरान सिक्खों की करोड़ों रुपये मूल्य की सम्पत्ति लूट ली गई अथवा तोड़-फोड़ एवं आगजनी में नष्ट कर दी गई।

(24.) अंतरिम सरकार के गठन के बाद साम्प्रदायिकता में वृद्धि

2 सितम्बर 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने अन्तरिम सरकार का गठन किया। सत्ता का सारा लाभ कांग्रेस को न मिल जाय, इस आशंका से ग्रस्त मुस्लिम लीग अपने पूर्व निर्णय को बदल कर 13 सितम्बर को अन्तरिम सरकार में सम्मिलित हो गई। मुस्लिम लीग, नेहरू सरकार के समक्ष इतने कांटे बिछाना चाहती थी कि सरकार विफल हो जाये।  वित्तमंत्री की हैसियत से लियाकत अलीखां को सरकार के प्रत्येक विभाग में दखल देने का अधिकार मिल गया। वह प्रत्येक प्रस्ताव को या तो अस्वीकार कर देता था या फिर उसमें बदलाव कर देता था। उसने अपने कार्यकलापों से मंत्रिमण्डल को पंगु बना दिया। मंत्रिगण लियाकत अलीखां की अनुमति के बिना एक चपरासी भी नहीं रख सकते थे। लियाकत अलीखां ने कांग्रेसी मंत्रियों को ऐसी उलझन में डाला कि वे कर्तव्यविमूढ़ हो गये।  घनश्यामदास बिड़ला ने गांधीजी और जिन्ना के बीच खाई पाटने के उद्देश्य से लियाकत अलीखां को समझाने की चेष्टा की किंतु कोई परिणाम नहीं निकला। अंत में कांग्रेस के अनुरोध पर लार्ड माउण्टबेटन ने लियाकत अली से बात की और करों की दरें काफी कम करवाईं।

मुस्लिम लीग ने सरकार में सम्मिलित होने के बाद भी संविधान सभा का बहिष्कार जारी रखा। मुस्लिम लीग के अंतरिम सरकार में सम्मिलित होने पर बंगाल और पंजाब के मुसलमानों ने हिंदुओं के विरुद्ध हमले तेज कर दिये। इस कारण मुस्लिम बहुल क्षेत्रों से हिन्दू जनता भागने लगी। लाहौर से लेकर पेशावर तक पूरा पंजाब धू-धू कर जलने लगा। अलगाववादी मुल्लाओं और मौलानाओं ने जानवरों की हड्डियां दिखा-दिखा कर मुसलमानों को भड़काया कि यह बिहार में हिंदुओं के अत्याचार के कारण मरे मुसलमानों की हड्डियां हैं। मुस्लिम लीग के वालंटियर (रजाकार) चुन-चुन कर हिन्दुओं के मोहल्लों और मकानों को लूटने लगे, आग लगाने लगे, स्त्रियों से बलात्कार करने लगे और उनका अपहरण करने लगे।

लॉर्ड माउण्टबेटन ने घोषणा की- ‘मैं रक्तपात और लूटमार नहीं होने दूंगा। मैं थलसेना और वायुसेना से काम लूंगा। मैं उत्पात करने वालों का दमन करने के लिये टैंकों और वायुयानों का उपयोग करूंगा।’

एक ओर वायसराय दंगों को रोकने के लिये कृत संकल्प था तो दूसरी ओर पंजाब का गर्वनर फ्रांसिस मुडी जिन्ना को आश्वासन दे रहा था- ‘मैं सबसे कह रहा हूँ कि मैं इस बात की चिंता नहीं करता कि सिक्ख सीमा पर कैसे पहुंचेंगे। अच्छी बात तो यह है कि यंथासंभव शीघ्र से शीघ्र उनसे छुटकारा हो जाये।’

यही कारण था कि वायसराय की घोषणा पर अमल नहीं हुआ। पंजाब में बड़ी संख्या में सिक्खों का कत्ल हुआ और अंग्रेज उनकी रक्षा नहीं कर पाये। सिक्खों की रक्षा करने की कौन कहे, स्वयं अँग्रेजों की जान के लाले पड़े हुए थे, वे किसी तरह भारत से सही सलामत निकलकर अपने देशी पहुंच जाना चाहते थे।

इस प्रकार भारत में साम्प्रदायिक समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया और देश का विभाजन निश्चित जान पड़ने लगा।

अध्याय – 85 : भारतीय राजनीति में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का उदय तथा कांग्रेस में सक्रियता

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प्रारम्भिक जीवन

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को हुआ था। उनके पिता जानकीनाथ बोस कटक में सरकारी वकील थे। सुभाषचंद्र के सात भाई और छः बहिनें थीं। सुभाष अपनी माता के सातवें पुत्र थे। 1913 ई. में हाई स्कूल परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद सुभाष ने कलकत्ता के प्रेसीडेन्सी कॉलेज में प्रवेश लिया। 1915 ई. में उन्होंने प्रथम श्रेणी में एफ. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्होंने बी. ए. की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। वे आगे भी पढ़ना चाहते थे परन्तु उनके पिता उन्हें आई.सी.एस. बनाना चाहते थे। पिता की इच्छा के कारण वे 31 अगस्त 1919 को इंग्लैण्ड चले गये। आठ माह की संक्षिप्त अवधि में सुभाषचंद्र बोस ने आई.सी.एस. की परीक्षा के साथ-साथ कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में ऑनर्स की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। सुभाषचंद्र बोस सरकारी नौकरी नहीं करना चाहते थे। अतः उन्होंने पिता तथा इण्डियन ऑफिस को सूचित कर दिया कि वे आई.सी.एस. परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने पर भी, सरकारी नौकरी नहीं करेंगे। सुभाष पहले और सम्भवतः आखिरी भारतीय थे जिन्होंने बहुप्रतिष्ठित आई.सी.एस. की नौकरी का इस ढंग से परित्याग किया था।

राजनीति में प्रवेश

16 जुलाई 1921 को सुभाषचंद्र बोस भारत लौटे। उस समय भारत में असहयोग आन्दोलन चल रहा था। सुभाषचंद्र बोस के राजनीतिक गुरु देशबन्धु चितरंजनदास ने सुभाष को इस आन्दोलन में रचनात्मक कार्य करने को कहा। साथ ही उन्हें नेशनल कॉलेज का प्रधानाचार्य बनाया गया। 5 फरवरी 1922 को गोरखपुर के चौरी-चौरा काण्ड के कारण गांधीजी ने 12 फरवरी 1922 को आन्दोलन बन्द कर दिया। इससे सुभाष बाबू को गहरा धक्का लगा। 1923 ई. में देशबन्धु ने सुभाष को कलकत्ता नगर निगम का मुख्य कार्यकारी अधिकारी नियुक्त करवा दिया परन्तु वे इस पद पर पांच माह ही काम कर पाये।

25 अक्टूबर 1924 को वायसराय लॉर्ड रीडिंग ने फरमान संख्या एक जारी करके बंगाल के अधिकारियों को अधिकार दिया कि वे आम अदालती कार्यवाही किये बिना, किसी भी देशभक्त को दण्ड दे सकते थे। सुभाषचन्द्र बोस और देशबन्धु चितरंजनदास ने इस एक्ट का विरोध किया। इस कारण सरकार ने सुभाष बाबू को बन्दी बनाकर अलीपुर जेल भेज दिया जहाँ से उन्हें बहरामपुर जेल भेज दिया गया। दो माह के बाद सुभाष को मांडले जेल भेज दिया गया। 1927 ई. में सुभाष बाबू के फेफड़ों में खराबी आ गई तथा वजन 40 पौंड कम हो गया। सरकार को बिना किसी शर्त, उन्हें रिहा करना पड़ा। सुभाष ने शीघ्र ही स्वास्थ्य लाभ कर लिया। बंगाल कांग्रेस ने उन्हें अपना प्रधान तथा अखिल भारतीय कांग्रेस ने उन्हें अपना प्रधान सचिव चुना।

1927 ई. में साइमन कमीशन भारत आया। देश भर में उसके विरुद्ध प्रदर्शन हुये। 1928 ई. के आरम्भ में साइमन कमीशन कलकत्ता पहुँचा। उसके विरुद्ध प्रदर्शन को सफल बनाने के लिए सुभाष बाबू ने मजदूर-किसान पार्टी से पूरी शक्ति से सम्मिलित होने का अनुराध किया। इस अपील का अच्छा परिणाम निकला और कलकत्ता का कमीशन विरोधी प्रदर्शन सबसे सफल रहा। नेहरू रिपोर्ट के प्रकाशन और कांग्रेस द्वारा उसके समर्थन के बाद ही देश के बहुत से शहरों में इंडिपेंडेंस लीगों की स्थापना की गई। यह इस बात का सूचक था कि देश के नौजवान डोमीनियन स्टेटस से सन्तुष्ट नहीं थे। वे भारत के लिए पूर्ण स्वाधीनता चाहते थे। नवम्बर 1928 में ऑल इंडिया इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना हुई। उसके नेता जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस थे। दिसम्बर 1928 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में नेहरू और बोस ने पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पारित कराने का प्रयास किया किन्तु गांधीजी और कांग्रेस के अन्य दक्षिण पंथी नेताओं ने उनके प्रस्ताव को पारित नहीं होने दिया। 1929 ई. के अंत में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन हुआ। इसमें पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पारित किया गया। इस अधिवेशन में सुभाष ने एक अन्य प्रस्ताव भी प्रस्तुत किया कि कांग्रेस का लक्ष्य देश में समानान्तर सरकार स्थापित करना होना चाहिए परन्तु उनके प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया गया। इसके बाद सुभाष और वांमपंथी सदस्य अधिवेशन से बाहर आ गये। इसके दस मिनट बाद ही सुभाष ने लाहौर में कांग्रेस डेमोक्रेटिक पार्टी की स्थापना की। साथ ही उन्होंने सारे भारत में 26 जनवरी 1930 को पूर्ण स्वाधीनता दिवस मनाने वाले प्रस्ताव का जोरदार समर्थन किया।

कांग्रेस सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाने के बारे में विचार-विमर्श कर रही थी, उसी समय सुभाषचन्द्र बोस तथा 11 अन्य लोगों को एक-एक साल का कठोर कारावास हो गया। बंगाल ने अपने प्रिय नेता को बन्दीगृह में रहते हुए भी मेयर पद से सम्मानित किया। उन्हें अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया जिस पर वे 1932 ई. तक आसीन रहे। सितम्बर 1931 को वे जेल से रिहा हुए परन्तु 18 नवम्बर 1931 को उन्हें मालजदा से बहरामपुर जाते हुए, धारा 144 में बन्दी बना लिया गया। एक सप्ताह बाद उन्हें मुक्त कर दिया गया। 14 जनवरी 1932 को सुभाष को पुनः बन्दी बना लिया गया। इस बार वे स्टेट प्रिजनर्स के रूप में अपने बड़े भाई शरत बोस के साथ जबलपुर जेल में रखे गये। क्षयरोग के पुराने रोगी होने के कारण उन्हें भुवाली सैनेटोरियम भेजा गया किन्तु उन्हें वहाँ भी कोई लाभ नहीं हुआ। 23 फरवरी 1932 को उन्हें विदेश जाना पड़ा। उन्होंने पोलैण्ड, फ्रांस, चेकोस्लोवाकिया, आस्ट्रिया, इटली आदि देशों का भ्रमण किया।

गांधीजी से मतभेद

कांग्रेस के 1938 ई. के हरिपुर अधिवेशन के अध्यक्ष पद पर सुभाषचन्द्र बोस को सर्वसम्मति से चुना गया। इस समय तक कांग्रेस ने 1935 के अधिनियम के प्रान्तीय स्वायत्तता वाले भाग को तो स्वीकार कर लिया था परन्तु संघीय योजना को स्वीकार नहीे किया था। कई दक्षिण पंथी कांग्रेसी नेता संघीय योजना को भी स्वीकार करने की वकालत कर रहे थे। सुभाषचन्द्र बोस संघीय योजना के विरुद्ध थे और वे अंग्रेज सरकार के विरुद्ध संघर्ष का मार्ग अपनाना चाहते थे। सुभाषचन्द्र बोस और उनके समर्थकों ने जनमत तैयार करने के लिये सम्पूर्ण भारत में अपने विचारों का प्रचार करना आरम्भ कर दिया। इससे गांधीवादियों के साथ उनका विरोध बढ़ता गया। उस समय तक कांग्रेस वर्किंग कमेटी का चुनाव नहीं होता था। अध्यक्ष ही उसे मनोनीत करता था।यदि अगले अधिवेशन के लिये सुभाष पुनः अध्यक्ष चुन लिये जाते तो कांग्रेस वर्किंग कमेटी में वामपंथी सदस्यों की संख्या बढ़ाई जा सकती थी और दक्षिणपंथियों को समझौते की तरफ जाने से रोका जा सकता था। इसलिये दक्षिणपंथियों ने सुभाष को अगले अधिवेशन का अध्यक्ष नहीं बनाने का निर्णय लिया।

1939 ई. में कांग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन के अध्यक्ष पद के लिये वामपंथियों के उम्मीदवार सुभाषचन्द्र बोस और दक्षिणपंथियों के उम्मीदवार डॉ.पट्टाभि सीतारमैया थे। गांधीजी ने पट्टाभि सीतारमैया को विजयी बनाने के लिये हर संभव प्रयास किया किंतु सीतारमैया हार गये। सुभाष को 1575 वोट और सीतारमैया को 1376 वोट मिले। सुभाष की विजय से कांग्रेस के दक्षिणपंथियों में हलचल मच गई। गांधीजी ने सीतारमैया की हार को अपनी हार बताया और कहा कि कांग्रेस ने भ्रष्ट संगठन का रूप धारण कर लिया है और उसके सदस्य फर्जी हैं। उन्होंने खुली धमकी भी दी कि यदि कांग्रेस ने दक्षिणपंथियों के अनुकूल नीति का पालन नहीं किया तो वे कांग्रेस से अपना नाता तोड़ सकते हैं।

सुभाष के अध्यक्ष चुने जाने के बाद दक्षिणपंथियों ने कांग्रेस में उनके लिये संकट पैदा कर दिया। कांग्रेस वर्किंग कमेटी के 15 सदस्य दक्षिणपंथी थे। उन्होंने सुभाष के साथ सहयोग करने से इन्कार करते हुए त्याग-पत्र दे दिये। इसी पृष्ठभूमि में 10-12 मार्च 1939 को कांग्रेस का त्रिपुरा अधिवेशन हुआ। गांधीजी इस समय राजकोट में अनशन कर रहे थे। दक्षिणपंथी नेताओं ने इस अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित करवा लिया कि कांग्रेस अध्यक्ष गांधीजी की इच्छा के अनुसार वर्किंग कमेटी मनोनीत करें। यह प्रस्ताव सुभाष बाबू के लिये स्पष्ट निर्देश था कि वे या तो दक्षिणपंथियों की इच्छानुसार चलें अथवा कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ दें। सुभाष ने गांधीजी से मिलकर समस्या को हल करने का प्रयास किया परन्तु गांधीजी की हठधर्मिता के कारण समस्या का कोई हल नहीं निकला। गांधीजी के अड़ियल रवैये से क्षुब्ध होकर सुभाष बाबू ने अप्रैल 1939 में ए.आई.सी.सी. के कलकत्ता अधिवेशन में कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। दक्षिणपंथियों ने तत्काल डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को कांग्रेस का नया अध्यक्ष चुनकर कांग्रेस का नेतृत्व हथिया लिया।

फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना

कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने के बाद सुभाष ने कांग्रेस के अन्दर फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की परन्तु दक्षिणपंथी तो उन्हें कांग्रेस से ही निष्कासित करने पर तुले हुए थे। अतः उन्होंने सुभाष के विरुद्ध अनुशासन की कार्यवाही कर बंगाल कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद से हटा दिया और यह भी घोषित कर दिया कि वे आगामी तीन वर्ष तक कांग्रेस में किसी भी पद पर नहीं रह सकते हैं। सुभाषचन्द्र बोस अंग्रेज सरकार से संघर्ष करने में आस्था रखते थे जबकि कांग्रेस संघर्ष के नाम पर समझौतों की राजनीति कर रही थी। सुभाष बाबू किसी भी कीमत पर ब्रिटिश सरकार से समझौता करके साम्राज्यवाद का समर्थन नहीं करना चाहते थे। उनका स्पष्ट मत था कि द्वितीय विश्व युद्ध के रूप में ब्रिटेन का संकट भारत का संकटमोचन है तथा ब्रिटेन की पराजय से भारत का स्वातंत्र्य सूर्य उगेगा। जिसे दखने के लिये भारतीयों की दीर्घकालिक लालसा है। अतः फॉरवर्ड ब्लॉक ने कांग्रेस से सम्बन्ध तोड़ लिया। यह एक ऐसा राजनीतिक संगठन था जो किसी भी तरह स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहता था, उसके लिये कांग्रेस की तरह अहिंसा न धर्म थी और न नीति।

फॉरवर्ड ब्लॉक के कार्यक्रम

फॉरवर्ड ब्लॉक साम्राज्यवादी शक्ति का विरोध शक्ति से करना चाहता था। मार्च 1940 में फॉरवर्ड ब्लॉक ने कांग्रेस द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य से समझौता करने के विरोध में रामगढ़ में एक सभा का आयोजन किया। 6 जून 1940 को फॉरवर्ड ब्लॉक ने भारत के विभिन्न नगरों में राष्ट्रीय सप्ताह का आयोजन किया। इसमें युद्ध विरोधी प्रदर्शन किये गये तथा भारत में अंतरिम राष्ट्रीय सरकार स्थापित करने की मांग की गई। सुभाष बाबू ने द्वितीय विश्वयुद्ध में भारत द्वारा ब्रिटेन के साथ सहयोग करने की बात का जोरदार विरोध किया। उन्होंने मांग की कि भारत को युद्ध में सम्मिलित करने की ब्रिटिश शासकों की घोषणा को जबरदस्त चुनौती दी जाये, युद्ध में भारत के साधनों के उपयोग का विरोध किया जाये और केन्द्रीय सरकार के युद्ध प्रयासों में बाधा डाली जाये। फॉरवर्ड ब्लॉक का कार्यक्रम सेना में भारतीय रंगरूटों की भर्ती को रोकना, ब्रिटिश माल का बायकाट करना, सरकार को कर न देना तथा देशव्यापाी हड़तालों के माध्यम से सरकार को ठप्प करना था।

वीर सावरकर से भेंट

22 जून 1940 को सुभाष बाबू ने वीर सावरकर से भेंट की। वीर सावरकर ने सुभाष बाबू को सलाह दी कि जब अँग्रेज भयंकर युद्ध में फंसे हों, उस समय आप जैसे योग्य लोगों को स्थानीय एवं तुच्छ मसलों पर आंदोलन चलाकर जेल में सड़ने से कोई लाभ नहीं होगा। रास बिहारी बोस की तरह अँग्रेजों को वंचिका देकर देश से बाहर जाइये। जर्मनी और इटली के हाथ लगे युद्धबंदियों को नेतृत्व प्रदान कीजिये। भारत की स्वाधीनता की घोषणा कीजिये। जापान के युद्ध में सम्मिलित होने की स्थिति में बंगाल की खाड़ी या बर्मा की ओर से आजादी का प्रयास कीजिये। सुभाषचंद्र बोस को ये सुझाव अनुकूल जान पड़े और उन्होंने अपने लिये भावी योजना तैयार कर ली।

सुभाषचन्द्र बोस की गिरफ्तारी

जुलाई 1940 में सुभाष बाबू ने कलकत्ता के हालवेल मकबरे को हटाने के लिये आन्दोलन आरम्भ किया। इस पर 2 जुलाई को उन्हें भारत सुरक्षा कानून के अंतर्गत बंदी बनाकर उन पर मुकदमा चलाया गया। उन्हें कलकत्ता की प्रेसीडेन्सी जेल में रखा गया। अपने न्यायिक परीक्षण के दौरान 26 नवम्बर 1940 को सुभाष बाबू ने बंगाल के गवर्नर को पत्र लिखकर भूख हड़ताल करने की सूचना दी तथा लिखा कि- ‘अपने राष्ट्र को जीवित रखने के लिये व्यक्ति को मृत्यु का वरण अवश्य करना चाहिये। आज मुझे अवश्य मरना है ताकि भारत अपनी स्वाधीनता और गौरव को प्राप्त कर सके।’

अध्याय – 86 : नेताजी सुभाषचन्द्र बोस तथा भारतीय राष्ट्रीय सेना

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कलकत्ता प्रेसीडेंसी में भूख हड़ताल करने से सुभाष बाबू की हालत तेजी से बिगड़ने लगी। इस पर सरकार ने उन्हें 5 दिसम्बर 1940 को जेल से मुक्त करके उनके घर में नजरबन्द कर दिया। घर में भी उन पर कड़े प्रतिबन्ध थे।

भारत से पलायन

नजरबंदी के दौरान कुछ दिनों तक सुभाष अपने घर में चुपचाप रहे। 17 जनवरी 1941 की रात में लगभग सवा एक बजे सुभाषचंद्र सुरक्षा प्रहरियों को चकमा देकर घर से निकल गये तथा कलकत्ता से कार द्वारा गोआ पहुंच गये। गोआ से वे रेलगाड़ी द्वारा पेशावर पहुंच गये। पेशावर से वे जमरूद होकर तथा लंडीकोतल को बगल में छोड़ते हुए गढ़ी पहुँचे। उन्होंने पैदल ही भारतीय सीमा को पार किया और मोटरगाड़ी से काबुल जा पहुँचे। वहाँ से वे इटालियन पासपोर्ट लेकर रूस पहुंचे। 28 मार्च 1941 को सुभाष बाबू विमान द्वारा मास्को से बर्लिन जा पहुँचे जहाँ हिटलर के सहयोगी रिवेनट्राप ने उनका स्वागत किया।

हिटलर से भेंट

बर्लिन में सुभाष बोस ने जर्मन सरकार के चांसलर अडोल्फ हिटलर से भेंट करके उसके समक्ष तीन प्रस्ताव रखे-

(1.) सुभाषचंद्र बोस, बर्लिन रेडियो से ब्रिटिश विरोधी अभियान चलायेंगे।

(2.) सुभाषचंद्र बोस, जर्मनी सरकार की अभिरक्षा में रह रहे भारतीय युद्ध-बन्दियों में से सैनिकों को चुनकर लिब्रेशन आर्मी का गठन करेंगे।

(3.) तीनों धुरी राष्ट्र- जर्मनी, जापान और इटली, संयुक्त रूप से भारत की स्वाधीनता की घोषणा करेंगे।

सुभाषचंद्र बोस की लिबरेशन आर्मी

हिटलर ने बोस के पहले दो प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया परन्तु तीसरे प्रस्ताव पर चुप रहा। इसी दौरान जर्मनी ने रूस पर आक्रमण किया और रूस मित्र राष्ट्रों के खेमे में चला गया। ऐसी विकट परिस्थिति में जर्मनी सरकार ने सुभाष को प्रोत्साहित किया कि वे भारतीयों की सेना गठित करें। सुभाष का विश्वास था कि सोवियत संघ परास्त हो जायेगा और लिब्रेशन आर्मी, सोवियत संघ से होकर भारत की सीमा तक पहुँच जायेगी और फिर जर्मनी की सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश भारत पर आक्रमण करेगी। इस योजना के अनुसार जनवरी 1942 तक सुभाष बाबू ने, जर्मनी सरकार द्वारा उत्तरी अफ्रीका में बन्दी बनाये गये भारतीय युद्ध बन्दियों को लेकर लिब्रेशन आर्मी का गठन किया तथा उसके दो दस्ते खड़े कर लिये। जर्मनी में उनके नाम के आगे नेताजी शब्द जोड़ा गया। सुभाष बाबू ने रोम और पेरिस में भी फ्री इंडिया सेन्टर स्थापित किये। इस समय तक लगभग 3,000 भारतीय सैनिक लिब्रेशन आर्मी में सम्मिलित हो चुके थे।

रासबिहारी बोस की भारतीय राष्ट्रीय सेना

8 दिसम्बर 1941 को जापान ने ब्रिटेन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी जिससे यूरोपीय युद्ध विश्व युद्ध में बदल गया। जापान ने ब्रिटिश साम्राज्य के दक्षिण पूर्वेशिया में सबसे बड़े सामरिक अड्डे सिंगापुर को जीत लिया तथा मलाया से बर्मा तक का समस्त क्षेत्र भी मुक्त करा लिया। 28-30 मार्च 1942 को रासबिहारी बोस  की पहल पर राजनीतिक सवालों पर विचार करने के लिये टोकियो में प्रवासी भारतीयों का एक सम्मेलन बुलाया गया। इस सम्मेलन में भारतीय अधिकारियों की देखरेख में भारतीय राष्ट्रीय सेना (इण्डियन नेशनल आर्मी) गठित करने का निर्णय लिया गया। इस सेना का उद्देश्य भारत की मुक्ति के लिये संघर्ष करना बताया गया। यह भी निश्चित किया गया कि जापान अधिकृत एशियाई प्रदेशों में इण्डिया इण्डिपेण्डेंस लीग की स्थापना की जाये और प्रवासी भारतीयों को इसका सदस्य बनाया जाये। जून 1942 में बैंकाक में प्रवासी भारतीयों का पूर्ण प्रतिनिधि सम्मेलन करने का भी निर्णय लिया गया।

टोकियो सम्मेलन में हुए निर्णय के अनुसार 23 जून 1942 को बैंकाक में रासबिहारी बोस की अध्यक्षता में बर्मा, मलाया, स्याम, हिन्द चीन, फिलीपीन, जापान, चीन, बोर्नियो, जावा, सुमात्रा, हाँगकाँग आदि देशों के प्रवासी भारतीयों के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन बुलाया गया। प्रवासी भारतीयों का प्रतिनिधित्व के. पी. मेनन, एन. राघवन, एस. सी. गोहो तथा एन. के. अय्यर ने किया जो मलाया के प्रसिद्ध वकील थे। सम्मेलन में स्वामी सत्यानन्द पुरी, ज्ञानी प्रीतम सिंह, कप्तान मोहनसिंह, कप्तान मोहम्मद अकरम खाँ, ले. कर्नल एन. एस. गिल ने भी भाग लिया। इस सम्मेलन में संग्राम परिषद् का गठन किया गया। सम्मेलन में तय किया गया कि इस आन्दोलन का नेतृत्व करने के लिये सुभाषचन्द्र बोेस को जर्मनी से बुलाया जाये।

1 सितम्बर 1942 को आजाद हिन्द फौज की नियमित स्थापना की गई।  इस सेना के प्रथम डिवीजन में लगभग 1700 अधिकारी एवं सैनिक सम्मिलित थे। इसमें तीन ब्रिगेड और सहायक ईकाइयां थीं। इस सेना का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार से है-

(1) सेनापति – मेजर जनरल मोहनसिंह।

(2) उप सेनापति और मुख्य सलाहकार- कर्नल एन. एस. गिल।

(3) गांधी ब्रिगेड – ले. कर्नल आई. के. किआनी के नेतृत्व में।

(4) नेहरू- ब्रिगेड – ले. कर्नल अजीज अहमद खाँ के नेतृत्व में।

(5) आजाद-ब्रिगेड- ले. कर्नल प्रकाशचन्द्र के नेतृत्व में (प्रत्येक ब्रिगेड में 300 सैनिक)।

(6) नं. 1 हिन्द फील्ड फोर्स – ले. कर्नल जे. के. भौंसले के नेतृत्व में।

(7) कुछ सहायक इकाइयाँ भी थीं जिनका नेतृत्व हिन्दू, मुस्लिम और सिक्ख अधिकारियों को सौंपा गया। इनमें से एक शाहनवाज खाँ भी थे जिन पर लाल किले में अभियोग चला था। इस डिवीजन को अक्टूबर 1942 तक बर्मा की तरफ जाना था। इस सम्बन्ध में समस्त तैयारियां लगभग पूरी हो चुकी थीं परन्तु अचानक घटनाक्रम बदलने से सम्पूर्ण योजना ध्वस्त हो गई।

आजाद हिन्द फौज का भंग किया जाना

आजाद हिन्द फौज की स्थापना तो हो गई, परन्तु इसे आरम्भ से ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जापान सरकार ने उसके बारे में नीति स्पष्ट नहीं की। यह भी निश्चित नहीं किया गया कि इस सेना में कितने सैनिकों को भर्ती किया जाये। यहाँ तक कि अब तक भर्ती किये गये भारतीय सैनिकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था भी नहीं की गई। सैनिकों के लिये आवश्यक सामग्री की भी पूर्ति नहीं की गई। आजाद हिन्द फौज के अधिकारी जापानी अधिकारियों से बार-बार अनुरोध करते रहे कि जापानी सरकार बैंकाक प्रस्ताव को खुले रूप से समर्थन प्रदान करे ताकि दुनिया जान जाये कि जापान भारत की स्वाधीनता का समर्थक है और हमारा आन्दोलन तथा आई. एन. ए. अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बना सके परन्तु जापानी अधिकारी इस सम्पूर्ण प्रकरण पर चुप्पी साधे रहे। इससे भारतीय अधिकारियों और सैनिकों में रोष व्याप्त होने लगा। उन्हें लगने लगा कि जापानी सरकार आजाद हिन्द फौज का उपयोग अपने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये कठपुतली के रूप में करना चाहती है। 8 दिसम्बर 1942 को ले. कर्नल एन. एस. गिल को गिरफ्तार कर लिया गया। इससे मामला गम्भीर हो गया। मोहनसिंह और मेनन ने अपने साथियों के साथ विचार-विमर्श कर निर्णय लिया कि जापानियों के साथ सहयोग नहीं किया जाये। मोहनसिंह ने जापान सरकार को एक पत्र लिखकर मांग की कि 23 दिसम्बर 1942 तक सरकार अपनी नीति स्पष्ट करे अन्यथा आजाद हिन्द फौज अपनी स्वाधीनता की कार्यवाही करने के लिये स्वतंत्र होगी। उन्होंने सीलबन्द लिफाफे में एक पत्र भारतीय अधिकारियों के नाम रख दिया जिसमें उन्होंने लिखा कि यदि उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है तो आजाद हिन्द फौज को भंग कर दिया जाए। मोहनसिंह के पत्र ने जापान सरकार और रासबिहारी बोस दोनों को ही नाराज कर दिया। रासबिहारी बोस के आदेश से मोहनसिंह को गिरफ्तार कर लिया गया और आजाद हिन्द फौज को भंग कर दिया गया। 

रास बिहारी बोस की अपील

रास बिहारी बोस पुराने क्रांतिकारी थे, जोश के साथ-साथ उनमें नेतृत्व गुण, धैर्य एवं व्यवहारिकता कूट-कूट कर भरी थी। उन्होंने मोहनसिंह को गिरफ्तार करवाने के बाद भारतीयों के नाम एक अपील जारी की- ‘हमारे पास न पैसा है, न आदमी और हथियार भी नहीं हैं। हम आजादी के लिये लड़ना चाहते हैं किंतु कैसे लड़ेंगे? मैं जापानियों से सहायता लेने के पक्ष में हूँ पर साथ ही अँग्रेजों को हटाकर जापानियों को अपना स्वामी नहीं बनाना चाहता। मैं नहीं चाहता कि जापानी भारत भूमि पर पैर रखें किंतु 30 लाख भारतीयों को जो स्वदेश से हजारों मील दूर रह रहे हैं, उन्हें जापानियों के सहयोग के बिना एकजुट करना भी सम्भव नहीं है। जापान युद्ध में व्यस्त है, हमें उससे झगड़ा खड़ा करके नहीं अपितु सहयोग करके सहायता लेनी चाहिये।’

आजाद हिंद फौज के भंग हो जाने के बाद रास बिहारी बोस ने इण्डियन इण्डिपेंडेस लीग (आई. आई. एल.) की विभिन्न कमेटियों के प्रतिनिधियों का दूसरा सम्मेलन अप्रैल 1943 में बुलाया। यह सम्मेलन उनकी कठिनाइयों का समाधान नहीं कर पाया और सब लोग, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के आने की प्रतीक्षा करने लगे।

सुभाष चंद्र बोस का दक्षिण-पूर्वेशिया में आगमन

जून 1942 में रासबिहारी बोस ने सुभाषचंद्र बोस को पूर्वी एशिया में आने तथा आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व सम्भालने का निमन्त्रण दिया था। 8 फरवरी 1943 को सुभाष ने फ्रेकेन बर्ग से एक जर्मन यू-बोट से अपनी यात्रा आरम्भ की। पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार मेडागास्कर से 400 मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित एक नियत स्थान पर जर्मन यू बोट से निकालकर उन्हें जापानी पनडुब्बी 129 में चढ़ाया गया। यह पनडुब्बी 6 मई 1943 को सुमात्रा के उत्तर में स्थित साबन द्वीप पहंुची। यहाँ पर उनके पुराने परिचित कर्नल यामामोटो ने जापान सरकार की ओर से उनका स्वागत किया। साबन द्वीप पर कुछ दिन विश्राम करने के बाद सुभाष बाबू हवाई जहाज से 16 मई 1943 को टोकियो पहुंचे। उनके जापान पहुंचने की सूचना कुछ दिनों तक गुप्त रखी गई। जब सुदूर पूर्व में बसे भारतीयों को जून 1943 में यह जानकारी मिली कि सुभाष बाबू जापान पहुंच गये हैं तो उनमें प्रसन्नता की लहर दौड़ गई और स्वाधीनता आन्दोलन मे नई जान आ गई। नेताजी के टोकियो पहुँचने के पूर्व ही द्वितीय विश्वयुद्ध की स्थिति में भारी परिवर्तन आ चुका था। यूरोप में जर्मनी कई मोर्चों पर पराजित हो चुका था और मित्र राष्ट्रों की स्थिति दिन-प्रतिदिन सुदृढ़ होती जा रही थी।

सुभाषचन्द्र बोस ने टोकियो में जापान के प्रधानमंत्री तोजो से लम्बी बातचीत की। प्रधानमंत्री तोजो, सुभाष के व्यक्तित्व तथा उनकी बातचीत से बहुत प्रभावित हुआ और उसने जापानी संसद (डीट) में घोषणा की कि- ‘जापान ने दृढ़ता के साथ फैसला किया है कि वह भारत से अँग्रेजों को; जो भारतीय जनता के दुश्मन हैं, निकाल बाहर करने और उनके प्रभाव को खत्म करने के लिये सब तरह की सहायता देगा तथा भारत को वास्तविक अर्थ में पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करने में समर्थ बनायेगा।’

भारतीयों के लिये मर्मस्पर्शी संदेश

2 जुलाई 1943 को नेताजी सुभाषचन्द्र बोस सिंगापुर पहुंचे जहाँ उनका शानदार स्वागत किया गया। 4 जुलाई को कैथे सिनेमा हॉल में आयोजित एक भव्य समारोह में उन्होंने विधिवत् ढंग से आई. आई. एल.(इण्डियन इण्डिपेण्डेन्स लीग) का अध्यक्ष पद ग्रहण किया। ले. कर्नल के. भौंसले ने सैनिकों की तरफ से उनका अभिनन्दन किया। इस अवसर पर नेताजी ने स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार बनाने और आजाद हिन्द फौज को लेकर हिन्दुस्तान जाने की घोषणा की। 5 जुलाई 1943 को सुभाष बाबू ने आजाद हिन्द फौज के पुनर्निर्माण की घोषणा की तथा सेना का निरीक्षण किया।

इस अवसर पर उन्होंने कहा- ‘यह केवल अँग्रेजी दासता से भारत को मुक्त कराने वाली सेना नहीं है, अपितु बाद में स्वतन्त्र भारत की राष्ट्रीय सेना का निर्माण करने वाली सेना भी है। साथियो! आपके युद्ध का नारा हो- चलो दिल्ली, चलो दिल्ली। इस स्वतन्त्रता संग्राम में हम में से कितने जीवित बचेंगे, यह मैं नहीं जानता परन्तु मैं यह जानता हूँ कि अन्त में विजय हमारी होगी और हमारा ध्येय तब तक पूरा नहीं होगा जब तक हमारे शेष जीवित साथी ब्रिटिश साम्राज्य की एक अन्य कब्रगाह- लाल किले पर विजयी परेड नहीं करेंगे।’

सुभाषचंद्र बोस ने परेड की सलामी लेने के बाद सिंगापुर रेडियो से भारतीयों के नाम मर्मस्पर्शी संदेश दिया- ‘एक वर्ष से मैं मौन एवं धैर्य के साथ समय की प्रतीक्षा कर रहा था। वह घड़ी आ पहुंची है कि मैं बोलूँ। ब्रिटिश दासता से भारतीयों को मुक्ति मिल सकती है- उन अँग्रेजों से जिन्होंने सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से अब तक हमें गुलाम बना रखा है। ब्रिटिश साम्राज्य के शत्रु हमारे स्वाभाविक मित्र हैं। समस्त भारतीयों की ओर से मैं घोषणा करता हूँ कि ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध तब तक जारी रहेगा जब तक भारत आजाद न हो जाये।’

उन्होंने भारतीयों से अपील की– ‘दिल्ली चलो। यह रास्ता खून, पसीने और आंसू से भरा हुआ है……।

लोकप्रिय नारों का निर्माण

भारत की आजादी के लिये भारतीयों को जागृत करने के उद्देश्य से सुभाष बाबू ने संसार के सर्वश्रेष्ठ नारों का निर्माण किया। उनका विश्वविख्यात उद्घोष जयहिंद पूरी दुनिया में लोकप्रिय हुआ। उनका दूसरा नारा था– ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।’ दिल्ली चलो नारा भी खूब लोकप्रिय हुआ।

अस्थायी भारत सरकार का गठन

21 अक्टूबर 1943 को नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार का गठन किया जिसमें कप्तान लक्ष्मी स्वामीनाथन, ले. कर्नन, ए. सी. चटर्जी, एस. ए. अय्यर, ले. कर्नल अजीज अहमद खाँ, ले. कर्नल ए. डी. लोगनाथन, एहसान कादर, शाहनवाज खाँ, डी. राजू, ए. एम. सहाय, ए. जेलाप्पा, देवनाथ दास, करीम गनी, डी. एम. खान, जो. जीवय और ईश्वरसिंह को मंत्री बनाया गया। 23 अक्टूबर को सुभाषचन्द्र बोस ने भारत की अस्थायी सरकार की तरफ से ब्रिटेन और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। शीघ्र ही धुरी राष्ट्रों- जर्मनी, जापान और इटली तथा उनके प्रभाव के अन्तर्गत काम करने वाली सरकारों- स्याम, बर्मा, फिलिपीन इत्यादि ने स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार को मान्यता दे दी। जापान ने अण्डमान-निकोबार द्वीप समूहों का प्रशासन इस अस्थायी सरकार को सौंप दिया।

अध्याय – 87 : नेताजी सुभाषचन्द्र बोस द्वारा आजाद हिन्द फौज का पुनर्गठन

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रासबिहारी बोस ने 1 सितम्बर 1942 को आजाद हिन्द फौज की स्थापना की थी किंतु कुछ कठिनाइयों के कारण इसे भंग कर देना पड़ा। जब नेजाजी सुभाषचंद्र बोस ने रासबिहारी बोस के साथ काम करने का निश्चय किया तो सुभाष बाबू ने आजाद हिन्द फौज का पुनर्गठन करने का निश्चय किया।

सुभाष द्वारा आजाद हिन्द फौज का पुनर्गठन

सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज को पुनर्गठित करने का काम आरम्भ किया। कुछ ही दिनों में तीन ब्रिगेडों- गांधी ब्रिगेड, आजाद ब्रिगेड और नेहरू ब्रिगेड खड़ी कर दी गई। चुने हुए सैनिकों को लेकर चौथी ब्रिगेड- सुभाष ब्रिगेड भी गठित कर ली गई। भारतीय स्त्री सैनिकों की सेना गठित करने के लिये उनके प्रशिक्षण हेतु सिंगापुर में एक शिविर स्थापित किया गया। इसमें 500 महिला सैनिक रखे गये। उनका नेतृत्व डॉ. लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपा गया। आईएनए का कमाण्डर इन चीफ बनने के बाद पूर्व एशिया में इण्डियन इण्डिपेण्डेंस आंदोलन का नेतृत्व भी सुभाष चंद्र के हाथों में आ गया। आजाद हिन्द फौज में सैनिकों की भर्ती और प्रशिक्षण की अलग-अलग व्यवस्था की गई। स्त्री तथा पुरुष सैनिकों के लिये अलग-अलग प्रशिक्षण शिविर स्थापित किये गये। सैनिकों को हिन्दुस्तानी भाषा में निर्देश दिये जाते थे। 6 माह के प्रशिक्षण के बाद रंगरूटों को आजाद हिन्द फौज में सम्मिलित कर लिया जाता था। प्रवासी भारतीयों को इस आन्दोलन से जोड़ने के लिये सुभाषचन्द्र बोस ने हाँगकाँग, शंघाई, मनीला, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो सहित कई देशों का दौरा किया और प्रवासी भारतीयों को अपने उद्देश्यों से अवगत कराया। उनके प्रेरक और चुम्बकीय व्यक्तित्व ने प्रवासी भारतीयों को बहुत आकर्षित किया और उन्होंने तन-मन-धन से इस आन्दोलन को सहयोग दिया। दिसम्बर 1943 में आजाद हिन्द फौज की स्थिति इस प्रकार से थी-

प्रथम डिवीजन: सेनापति ले. कर्नल एम. जेड. कियानी (बाद में मेजर जनरल) इसमें लगभग 10,000 सैनिक थे जो मोर्चे पर जाने के लिये तैयार थे। इसकी तीन ब्रिगेडों का नेतृत्व क्रमशः ले. कर्नल आई. जे. कियानी, ले. कर्नल गुलजारा सिंह और ले. कर्नल अजीज अहमद खाँ को सौंपा गया।

दूसरी डिवीजन: इसमें अधिकतर नागरिक रंगरूट थे और इसकी कमान ले. कर्नल एन. एस. भगत को सौंपी गई।

तीसरी डिवीजन: इसमें भी नागरिक रंगरूट सम्मिलित थे और इसका प्रशिक्षण अभी जारी था। इसका केन्द्र सिंगापुर में था और इसकी कमान मेजर जनरल जे. के. भौंसले को सौंपी गई।

सुभाष ब्रिग्रेड: शाहनवाज खाँ की कमान में सुभाष ब्रिगेड भी गठित की गई। इस ब्रिगेड में प्रथम डिवीजन के चुने हुए सैनिकों को ही भरती किया गया।

दक्षिण पूर्वेशियाई देशों के प्रवासी भारतीयों के प्रयास

दक्षिण पूर्वेशियाई देशों- थाइलैण्ड, मलाया, सिंगापुर, बर्मा आदि में 30 लाख से अधिक प्रवासी भारतीय रहते थे। ये देश भी भारत की तरह अँग्रेजों के अधीन थे। इसलिये इन देशों ने सुभाषचंद्र बोस का स्वागत किया। लगभग उन्हीं दिनों बैंकाक में पुराने क्रांतिकारी अमरसिंह ने इण्डियन इण्डिपेंडेंस लीग का गठन किया। अमरसिंह भारतीय जेलों में 22 साल तक जेल भुगत चुके थे। रामानंद पुरी ने थाईलैण्ड में इण्डियन नेशलन कौंसिल का गठन किया। उस्मान खाँ ने शंघायी में गदर पार्टी बनाई। इन सभी दलों ने जापान की सहायता से भारत की मुक्ति का अभियान चलाया। जब 1942 ई. में जापानी फौज ने बर्मा पर आक्रमण किया था तब प्रवासी भारतीय प्रीतमसिंह भी अपने साथ कुछ भारतीयों को लेकर जापानी फौज के साथ मोर्चे पर गये। प्रीतमसिंह तथा उनके साथी, अँग्रेजी सेना के भारतीय सैनिकों को यह समझाने का प्रयास करते थे कि वे जापान की सेना पर आक्रमण न करें क्योंकि जापानियों ने भारत की स्वाधीनता का समर्थन किया है।

युद्ध के मोर्चे पर

सुभाषचंद बोस ने जापानी नेताओं को इस बात के लिये सहमत कर लिया कि भारत-बर्मा सीमा पर जापानी सेना के साथ आजाद हिन्द फौज भी युद्ध लड़े। सुभाषचंद्र की योजना थी कि आजाद हिन्द फौज बर्मा मोर्चे से भारत की सीमा में प्रवेश करके बंगाल और असम से ब्रिटिश फौजों के पीछे धकेल दे। उनका विश्वास था कि आजाद हिन्द फौज की सफलता देखकर भारतीय जनता, अँग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर देगी जिससे भारत को मुक्त करवाना सरल हो जायेगा। भारत की जो भूमि मुक्त कराई जायेगी, उसका शासन आाजद हिन्द फौज को सौंप दिया जायेगा और उस भूमि पर केवल भारत का तिंरगा फहराया जायेगा। इस योजना के अनुसार आजाद हिन्द फौज की सुभाष ब्रिगेड, भारत-बर्मा की सीमा पर पहुँच गई। सुभाषचन्द्र बोस ने रंगून पहुँच कर अपना मुख्यालय स्थापित किया। सुभाष ब्रिगेड की छोटी-छोटी टुकड़ियों ने भारतीय अधिकारियों के नेतृत्व में आगे बढ़ना आरम्भ किया।

1942 ई. में जब जापानियों ने बर्मा अधिकृत किया था, उस समय की तुलना में अब परिस्थिति काफी बदल चुकी थी। अब भारत-बर्मा सीमा पर अँग्रेजों ने अपनी स्थित काफी मजबूत कर ली थी। ब्रिटिश सेनाएं न केवल रक्षात्मक युद्ध के लिये अपितु आक्रमण के लिये भी तैयार थीं। आजाद हिन्द फौज के सैनिकों का मनोबल काफी ऊँचा था परन्तु युद्ध की दृष्टि से फौज पूरी तरह से सुसज्जित नहीं थी।

मेजर जनरल चटर्जी ने अपनी पुस्तक इण्डियन स्ट्रगल फॉर फ्रीडम में लिखा है- ‘हमारी सेना जब बर्मा पहुँची तब उसके पास न तो तोपखाना था और न ही मोर्टार। मशीनगनें भी मध्यम दूरी तक मार करने वाली थीं और उनकी हालत भी खस्ता थी क्योंकि मरम्मत के लिये आवश्यक पुर्जों की कमी थी। हमारी छापामार रेजीमेन्ट के पास न तो वायरलेस उपकरण थे और न टेलीफोन। पहाड़ी इलाके में अतिरिक्त गोला-बारूद और हथियारों को ढोने के लिये परिवहन की कोई सुविधा या साधन भी उपलब्ध नहीं थे। चिकित्सा सेवा तो नाममात्र की थी। सैनिकों के पास जूते तक नहीं थे। उन्हें नंगे पैर जंगलों में जाना पड़ता था।’

जनवरी 1994 के अन्त में सुभाष ब्रिगेड की एक बटालियन को अराकान की कलादान घाटी में तथा दूसरी और तीसरी बटालियन को चिन पहाड़ियों की ओर भेजा गया। पहली बटालियन ने कलादान घाटी में पश्चिमी अफ्रीका की हब्शी सेना को परास्त कर आगे बढ़ना आरम्भ किया तथा पलेतवा एवं दलेतमे नामक स्थानों पर शत्रु सेना को परास्त कर क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। मई 1944 में उसने मादोक नामक स्थान जीत लिया जो भारत की भूमि पर अँग्रेजों की अग्रिम चौकी थी। इस प्रकार आजाद हिन्द फौज ने भारत की भूमि पर कदम रख दिये। शीघ्र ही अँग्रेजों की सेना ने जोरदार आक्रमण किया। इस अवसर पर जापानी सेना मादोक के सैनिकों को सहायता पहुँचाने में असमर्थ रही। अतः आजाद हिन्द फौज के अधिकारियों को मादोक से हट जाने को कहा गया परन्तु भारतीय सैनिक डटे रहे और मई से सितम्बर तक उन्होंने इस क्षेत्र की रक्षा की और तब तक मादोक में तिरंगा लहराता रहा।

सुभाष ब्रिगेड की दूसरी और तीसरी बटालियनों ने भी अपूर्व शौर्य का प्रदर्शन किया। उन्हें कलेवा से होकर टासू और फोर्ट हवाइट के मार्ग की रक्षा का भार सौंपा गया। इस क्षेत्र में आजाद हिन्द फौज के सैनिकों ने मित्र राष्ट्रों के छापामारों का सफाया किया तथा मेजर मार्निंग की सेना को परास्त करके अँग्रेजों के सामरिक दुर्ग क्लैंग-क्लैंग को जीत लिया। आजाद हिन्द फौज की वीरता से प्रसन्न होकर जापानी सेनापति ने समस्त सुभाष ब्रिगेड को कोहिमा की ओर कूच करने का आदेश दिया। यह निश्चय किया गया कि इम्फाल का पतन होते ही सुभाष ब्रिगेड ब्रह्मपुत्र नदी को पार करके बंगाल में प्रवेश कर जाये। इस बीच आजाद हिन्द फौज की दूसरी टुकड़ियां जापान के मंजूरियाई डिवीजन के साथ कोहिमा पहुँच गईं और घमासान युद्ध के बाद कोहिमा पर अधिकार जमा लिया। इसके बाद युद्ध के अन्य क्षेत्रों में जापानियों की पराजय का सिलसिला आरम्भ हो गया। इसका लाभ उठाते हुए अँग्रेज इम्फाल में नई कुमुक पहंचाने में सफल रहे। इससे इम्फाल बच गया। अब अँग्रेजों ने दीमापुर और कोहिमा की तरफ से जोरदार हमला किया। इस कारण जापानियों के साथ-साथ आजाद हिन्द फौज को भी पीछे हटना पड़ा।

गांधी ब्रिगेड को अप्रैल के आरम्भ में इम्फाल की तरफ भेजा गया। जापानियों ने सोचा था कि अब तक इम्फाल का पतन हो गया होगा परन्तु मार्ग में सूचना मिली कि फलेल के निकट घमासान युद्ध चल रहा है। इस पर गांधी ब्रिगेड के छापामार सैनिकों ने फलेल के हवाई अड्डे पर अधिकार करके वहाँ मौजूद वायुयानों को नष्ट कर दिया। इस अभियान में गांधी ब्रिगेड के लगभग 250 सैनिक मारे गये। फिर भी गांधी ब्रिगेड बहादुरी के साथ डटी रही और अँग्रेजों को आगे नहीं बढ़ने दिया। जून 1944 में रसद पानी और गोला-बारूद की कमी से गंाधी ब्रिगेड की स्थिति बिगड़ने लगी, जबकि दूसरी तरफ नई कुमुक आ जाने से अँग्रेज सेना की स्थिति मजबूत हो गई। वर्षा ऋतु में टास-फलेल सड़क बह गई और आजाद हिन्द फौज को रसद मिलना भी बन्द हो गया। ऐसी स्थिति में कुछ दिनों बाद गांधी ब्रिगेड को भी जापानी सेना के साथ बर्मा लौटना पड़ा। इस प्रकार, आजाद हिन्द फौज का मुख्य अभियान जो मार्च 1944 में आरम्भ हुआ था, वह समाप्त हो गया। इस अभियान के दौरान वह भारतीय सीमा में लगभग 150 मील भीतर तक प्रवेश करने में सफल रही परन्तु रसद और गोला-बारूद के अभाव में अधिक दिनों तक उस क्षेत्र की रक्षा नहीं कर सकी। इस अभियान में आजाद हिन्द फौज के लगभग 4000 सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए।

सुभाष चंद्र बोस के अन्तिम दिन

अब ब्रिटिश सेना ने बर्मा पर पुनः अधिकार करने के लिये आक्रमण किया। उनका आक्रमण इतना जोरदार था कि जापानियों को निरन्तर पीछे हटना पड़ा। जापानी सेना रंगून की रक्षा का भार, आजाद हिन्द फौज को देकर बर्मा से चली गई। आजाद हिन्द फौज ने कुछ दिनों तक बहादुरी के साथ नगर की रक्षा की परन्तु मई 1945 के आरम्भ में रंगून पर अँग्रेजों का अधिकार हो गया। आजाद हिन्द फौज के सैकड़ों सैनिक बन्दी बना लिये गये। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस रंगून से बैंकाक और वहाँ से सिंगापुर चले गये। जापानियों की सहायता से भारत को स्वतन्त्र कराने की आशा समाप्त हो गई। क्योंकि इस समय तक जापान के साथी राष्ट्रों- जर्मनी और इटली का पतन हो चुका था और जापान अकेला ही मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध लड़ रहा था। अमरीका ने 6 और 8 अगस्त 1945 को हिरोशिमा और नागासाकी पर अणु बम गिराये। इसके बाद रूस ने भी जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। 15 अगस्त 1945 को जापान ने मित्र-राष्ट्रों के समक्ष समर्पण कर दिया। सुभाषचन्द्र बोस अपने एक साथी कर्नल हबीब उर रहमान के साथ 17 अगस्त 1945 को एक लड़ाकू विमान से सैगांव से टोकियो के लिये रवाना हुए। 17 अगस्त की रात्रि को विमान में सवार लोगों ने तूरेन (हिन्द-चीन) में विश्राम किया। अगले दिन विमान ताइपेह पहुँचा। ताइपेह से रवाना होते ही विमान में अचानक आग लग गई। इस कारण कुछ जापानी अधिकारियों सहित नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की भी मृत्यु हो गई। कर्नल हबीब उर रहमान जीवित बच गये। बहुत से लोगों का विश्वास है कि नेताजी उस दुर्घटना में नहीं मारे गये थे। मित्र राष्ट्रों के हाथों में पड़ने से बचने के लिये वे भूमिगत हो गये थे। भारत सरकार विमान दुर्घटना को सही मानती है। जापान सरकार का भी मानना है कि नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को हवाई दुर्घटना में हुई थी और ताइपेह में उनका अन्तिम संस्कार किया गया था। उनकी भस्मी को सम्मानपूर्वक टोकियो लाया गया और 14 सितम्बर 1945 को उसे रियो कोजू मन्दिर में रख दिया गया। इस घटना के बाद संसार ने सुभाष को नहीं देखा किंतु बहुत से लोगों ने सुभाष बाबू को देखने एवं उनसे मिलने का दावा किया है।

अध्याय – 88 : नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की सफलताओं का मूल्यांकन

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आजाद हिन्द फौज की सफलताओं का मूल्यांकन

आजाद हिन्द फौज के नायकों और सैनिकों में देश भक्ति की उज्जवल भावना थी। उन्होंने भारत को अँग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिये भारत में प्रवेश करने की योजना बनाई परन्तु द्वितीय विश्व युद्ध के मोर्चों पर जापान की पराजय के साथ ही आजाद हिन्द फौज की योजना असफल हो गई किंतु आजाद हिन्द फौज की झोली में कई सफलताएं हैं-

(1.) आजाद हिन्द फौज ने भारत की स्वतन्त्रता के प्रश्न को ब्रिटिश साम्राज्य के संकुचित दायरे से निकालकर अन्तर्राष्ट्रीय चिंता का विषय बना दिया।

(2.) भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में यह एक अनूठी घटना थी। इससे पहले ऐसा अद्भुत प्रयास और किसी ने नहीं किया था।

(3.) संसार के अन्य देशों के इतिहास में ऐसी घटना देखने में नहीं आती कि हजारों देशभक्तों ने अपने देश को साम्राज्यवादियों के चंगुल से मुक्त कराने के लिये देश के बाहर रहकर सशस्त्र सेना का निर्माण किया हो और साम्राज्यवादियों की सेना पर धावा बोला हो।

(4.) आजाद हिन्द फौज के पास संसाधनों का अभाव था फिर भी सैनिक बड़ी बहादुरी से लड़े। उनकी पुरानी किस्म की बंदूकंे, साम्राज्यवादियों को परास्त करने में सक्षम नहीं थीं। आजाद हिन्द फौज के सैनिकों के पास जूते तक नहीं थे। वे युद्ध के मोर्चे पर भूखे-प्यासे रहकर लड़े और देश की आजादी के लिये शहीद हो गये।

(5.) उन्होंने कई मोर्चों पर अपने से अधिक शक्तिशाली ब्रिटिश सेना को कई बार पीछे धकेल कर भूमि पर अधिकार किया तथा उसे अपने अधिकार में रखा।

(6.) आजाद हिन्द फौज ने कुछ समय के लिये रंगून को अपने अधिकार में रखा तथा रंगून की रक्षा के लिये वीरता से लड़ाई की।

(7.) आजाद हिन्द फौज ने जिस अनुपम त्याग, शौर्य और बलिदान का परिचय दिया भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का गौरवमय अध्याय है। हमें उसकी वीर गाथाओं से सदैव प्रेरणा मिलती रहेगी।

(8.) आजाद हिन्द फौज के सेनापति नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भारतवासियों को जयहिन्द का नारा दिया जो आज भी हर भारतीय की छाती गर्व से फुला देता है।

(9.) नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भारत की भूमि से बाहर रहकर स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार की स्थापना की जिसे जापान, इटली तथा जर्मनी आदि देशों ने मान्यता प्रदान की। ऐसा इससे पहले कभी नहीं हुआ था।

(10.) आजाद हिन्द फौज ने कांग्रेसी नेताओं के मन में घबराहट उत्पन्न कर दी। उन्हें लगा कि सुभाष बाबू किसी भी दिन अपनी सेना लेकर दिल्ली में उतर जायेंगे तथा सत्ता कांग्रेस के हाथ में आने के बजाय सुभाषचंद्र बोस के हाथों में चली जायेगी। इस कारण कांग्रेस ने, अँग्रेजों से सत्ता लेने के प्रयास तेज कर दिये। गांधी ने करो या मरो तथा अभी नहीं तो कभी नहीं जैसे नारे दिये। अहिंसावादियों की अहिंसा का हिमालय पिघल गया। जवाहरलाल नेहरू ने घबराकर वक्तव्य दिया कि हम भारत की भूमि पर सुभाष का सामना तलवारों से करेंगे।

(11.) जब अँग्रेज सरकार ने आजाद हिन्द फौज के 60,000 सैनिकों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया  तो रॉयल इण्डिया नेवी के 200 सामुद्रिक बेड़ों ने विद्रोह कर दिया और बम्बई के बंदरगाह पर आकर लंगर डाल दिया। जहाजों पर तैनात तोपों का मुंह बंदरगाह के प्रवेश द्वार की तरफ कर दिया गया। 22 और 24 फरवरी 1946 को चिंचपोकली एवं आर्य नगर आदि उपनगरों की जनता ने सड़कों पर उतर कर विद्रोही सैनिकों के समर्थन में प्रदर्शन किया। भारत की वायुसेना और नौ सेना में बगावत फैल गई। बम्बई, कराची, कलकत्ता, मद्रास आदि नौ बंदरगाहों में हड़ताल हो गई। विद्रोही सैनिकों ने आजाद हिंद फौज के बिल्ले धारण किये। अँग्रेज अधिकारियों ने हड़ताली सैनिकों पर गोलियां चलाईं। हड़ताली नौ-सैनिकों ने गोली का जवाब गोली से दिया।

(12.) वायु सैनिकों एवं नौ सैनिकों की हड़ताल से प्रभावित होकर थल सेना में भी बगावत फैल गई। जबलपुर भारतीय सिगलन कोर के 300 जवानों ने हड़ताल पर जाने की घोषणा की। इस घोषणा से द्वितीय विश्व युद्ध के मोर्चों पर विजय प्राप्त करने वाले अँग्रेजों के हाथ-पैर फूल गये। इस हड़ताल के ठीक एक माह बाद ब्रिटिश सरकार ने कैबिनेट मिशन की घोषणा की ताकि भारतीयों को अंतिम रूप से सत्ता का हस्तांतरण किया जा सके। यही कारण था कि नेताजी की मृत्यु के दो वर्ष बाद ही भारत को आजादी मिल गई।

क्या सुभाषचंद्र बोस फासिस्ट थे !

साम्राज्यवादी अँग्रेजों तथा दक्षिणपंथी-कांग्रेसियों ने सुभाषचंद्र बोस पर फासिस्ट होने का आरोप लगाया है। यहाँ तक कि वामपंथी-कांग्रेसी माने जाने वाले जवाहरलाल नेहरू ने भी सुभाष बाबू पर यह आरोप लगाया है परन्तु यह आरोप सही नहीं है। सुभाष बाबू फासिस्टवादी नहीं थे, वे राजनीतिक यथार्थवादी थे। वे भारत को ब्रिटिश दासता से मुक्त देखना चाहते थे। वे अँग्रेजी साम्राज्य को किसी भी प्रकार से भारत से बाहर कर देना चाहते थे। उन्होंने न तो अँग्रेजों के बनाये संविधान की परवाह की और न गांधीजी के आधे-अधूरे और लिजलिजे अहिंसावाद को अपनाया। सुभाष ने जीवन की शुरुआत राजनीति के क्षेत्र से की किंतु वे शीघ्र ही समझ गये कि भारत की आजादी का रास्ता युद्ध के मोर्चों पर जाकर ही खोला जा सकता है। उन्होंने 1930 से 1938 ई. तक मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू एवं गांधी के साथ कांग्रेस में रहकर राजनीति की। कांग्रेस द्वारा अपमानित किेय जाने से क्षुब्ध होकर उनका राजनीति से मोहभंग हो गया और वे देश छोड़कर चले गये। उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध की परिस्थितियों से लाभ उठाते हुए, भारत की मुक्ति का उपाय ढूंढा और आजाद हिन्द फौज लेकर देश की सीमा पर आ डटे। वे जान चुके थे कि राष्ट्रों का निर्माण और उनकी मुक्ति के निर्णय युद्ध के मोर्चों पर होते हैं जिन्हें शांति और समझौते की मेजों पर बैठकर अन्य लोगों द्वारा हथिया लिया जाता है। फिर भी उन्होंने युद्ध के मोर्चे खोले और भारत की आजादी का मार्ग प्रशस्त किया।

यह सही है कि सुभाष ने फासिस्टवादी और नाजीवादी शक्तियों की सहायता ली किंतु वे स्वयं कभी भी फासिस्टवादी या नाजीवादी नहीं बने। उनके विरुद्ध एक भी ऐसा प्रमाण नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि वे फासिस्टवादी या नाजीवादी थे। सुभाष बाबू को बदनाम करने के लिये ही अँग्रेजों एवं कांग्रेसी नेताओं ने उन्हें फासिस्टवादी कहा। सुभाष बाबू को तोजो का कुत्ता कहकर भी अपमानित किया गया। ऐसी स्थिति में भी सुभाष ने आजाद हिन्द फौज की ब्रिगेडों के नाम गांधी ब्रिगेड तथा नेहरू ब्रिगेड रखे। यदि वे फासिस्टवादी होते तो ऐसा किसी भी हालत में नहीं करते, वे अपनी ब्रिगेडों के नाम इटली, जर्मनी और जापान के नेताओं के नाम पर रखते। ऐसा करने से उन्हें कौन रोक सकता था? वे सुभाष ही थे जिन्होंने 6 जुलाई 1944 को रंगून रेडियो से अपने संदेश प्रसारण में गांधीजी को राष्ट्रपति की उपाधि से प्रथम बार सम्बोधित किया। उनके शब्दों का ही जादू था कि आजादी के बाद गांधीजी को राष्ट्रपिता कहा जाने लगा तथा हर भारतीय अपने भाषण के अंत में जयहिन्द बोलने लगा।

सुभाषचंद्र बोस राष्ट्रवादी थे!

सुभाषचंद्र बोस भारत के राजनीतिक गगन पर सबसे दैदीप्यमान नक्षत्र की तरह हैं। जब भविष्य में भारतीय राजनीति के अनेक चमकते सितारे बुझकर निष्प्रभ हो जायंगे तथा विस्मृति की ठोकरें खाकर इधर-उधर बिखर जायेंगे, तब भी सुभाषचंद्र बोस, धु्रव तारे की तरह अटल रहकर भारतवासियों को दिशा दिखाते रहेंगे। सुभाषचंद्र बोस यथार्थवादी राजनीतिज्ञ थे। उनके अनुसार गांधीवाद के पास समाज निर्माण की कोई वास्तविक योजना नहीं थी। सुभाष का मानना था कि भारत में साम्यवाद भी नहीं पनप नहीं सकता, क्योंकि साम्यवाद, राष्ट्रवाद को स्वीकार नहीं करता और वह समस्त विश्व में विद्रोह कराना चाहता है। जबकि आम भारतीय राष्ट्रवादी है, वह विद्रोही नहीं है। भारत संसार के उन गिने चुने देशों में से है जहाँ के नागरिक अपने देश को, अपने परिवार एवं अपने शरीर से भी अधिक प्रेम करते हैं। सुभाष के इन्हीं विचारों के कारण उन पर यह आरोप लगाया जाता रहा कि वे फासिस्ट थे जबकि सत्य यह है कि वे राष्ट्रवादी थे। वे जीवन के आरम्भ में भी राष्ट्रवादी थे और जीवन के मध्य तथा अन्त में भी राष्ट्रवादी रहे। राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिये उन्होंने युद्ध क्षेत्र में प्राण न्यौछावर किये।

सुभाष बाबू संसार के अकेले ऐसे उदाहरण हैं जिन्होंने नौकरशाहों की सबसे बड़ी परीक्षा उत्तीर्ण की, वे राजनीति में चरम शिखर तक पहुंचे तथा सशस्त्र सेना का निर्माण कर उसके अध्यक्ष बने।

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