भारत के उत्तरी पर्वतीय क्षेत्र में 2,10,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाला जम्मू-कश्मीर राज्य सामरिक दृष्टि से विशेष महत्त्व रखता है। इसकी सीमाएं भारत, पाकिस्तान, चीन और अफगानिस्तान से सटी हुई हैं और सोवियत रूस भी अधिक दूर नहीं है। जम्मू कश्मीर रियासत 1846 ई. में अस्तित्व में आई। यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा देशी राज्य था। जम्मू-कश्मीर रियासत का डोगरा शासक हरिसिंह, हिन्दू क्षत्रिय वंश से था किन्तु उसकी लगभग 75 प्रतिशत जनता मुस्लिम थी। इस राज्य की सीमाएं भारत और पाकिस्तान दोनों से मिली हुई थीं। वह चाहे जिससे मिल सकता था किंतु डोगरा शासक हरिसिंह ने भारत अथवा पाकिस्तान में मिलने के स्थान पर स्वतन्त्र रहने का निश्चय किया।
पाकिस्तान को जम्मू-कश्मीर के डोगरा शासक का निर्णय अच्छा नहीं लगा। सामरिक एवं भौगोलिक स्थिति, हिन्दू राजवंश, बहुसंख्यक मुस्लिम जनता, कश्मीर नरेश की अनिश्चित नीति और पाकिस्तान की लोलुप दृष्टि, इन समस्त तत्त्वों ने मिलकर जम्मू-कश्मीर की समस्या को अत्यधिक गम्भीर बना दिया। पाकिस्तान ने कश्मीर की आर्थिक नाकेबन्दी करके जम्मू-कश्मीर राज्य को अनाज, नमक, पैट्रोल, केरोसीन आदि आवश्यक सामग्री पहुंचना बन्द कर दिया परन्तु पाकिस्तान सरकार की यह कार्यवाही जम्मू-कश्मीर सरकार को झुकाने में असफल रही। तब पाकिस्तान सरकार ने उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त के कबाइलियों को जम्मू-कश्मीर में घुसकर मारकाट मचाने के लिये भेजा। कबाइलियों ने 22 अक्टूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर राज्य की सीमा में प्रवेश करके गांवों पर आक्रमण किया। ज्यों-ज्यांे कबाइली आगे बढ़ते गये, स्थानीय मुल्ला-मौलवियों के उकसाने पर राज्य के मुस्लिम सैनिक एवं सिपाही भी उनके साथ होते गये। चार दिन में ही कबाइली, कश्मीर की राजधानी श्रीनगर से 15 मील दूर बारामूला में पहुँच गये जिससे राजधानी खतरे में पड़ गई।
संकटापन्न अवस्था जानकर डोगरा शासक हरिसिंह ने भारत सरकार से सैनिक सहायता भेजने का अनुरोध किया किंतु भारत के प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू उस समय तक कश्मीर को सैनिक सहायता देने के लिए तैयार नहीं हुए जब तक कि राज्य के मुख्य राजनीतिक दल- नेशनल कान्फ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला ने पं. नेहरू को यह आश्वासन नहीं दिया कि राज्य में संवैधानिक शासन की शर्त पर वह और उनका दल कश्मीर को भारत में सम्मिलित किये जाने के पक्ष में है। स्पष्ट है कि नेहरू चाहते थे कि कश्मीर का भारत में विलय न केवल हिन्दू शासक की इच्छा से हो ,अपितु बहुसंख्यक मुस्लिम जनता की स्वीकृति के साथ हो। जब नेहरू की इच्छा-पूर्ति कर दी गई तो कश्मीर को भारत में सम्मिलित करने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया। यह भी निश्चित किया गया कि युद्ध समाप्ति के बाद कश्मीर में इस विषय पर जनमत-संग्रह कराया जायेगा। इस समझौते के पश्चात् 27 अक्टूबर 1947 को हवाई मार्ग से भारतीय सेना को श्रीनगर पहुंचाया गया जिसने दुश्मन के जबरदस्त आक्रमण से श्रीनगर को बचा लिया। कश्मीर को अपने हाथ से निकलते देखकर पाकिस्तान की सेना ने कबाइलियांे के नाम पर युद्ध में हस्तक्षेप किया परन्तु भारतीय सेना ने उसे पीछे धकेल दिया। परन्तु पं. नेहरू की देरी का नुकसान भारत को उठाना पड़ा। लगभग 35,000 वर्ग मील क्षेत्रफल पाकिस्तान के अधिकार में चला गया जिसे पाकिस्तान ने आजाद कश्मीर कहना आरम्भ कर दिया।
1 जनवरी 1948 को भारत ने सुरक्षा परिषद् में शिकायत की कि भारत के एक अंग कश्मीर पर सशस्त्र कबाइलियों ने आक्रमण कर दिया है और पाकिस्तान प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष, दोनों तरीकों से उन्हें सहायता दे रहा है। उनके आक्रमण से अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं व्यवस्था को खतरा उत्पन्न हो गया है। अतः पाकिस्तान को अपनी सेना वापस बुलाने तथा कबाइलियों को सैनिक सहायता न देने को कहा जाये और पाकिस्तान की इस कार्यवाही को भारत पर आक्रमण माना जाये।
भारत के गृहमंत्री सरदार पटेल इस मामले को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले जाने के पक्ष में नहीं थे परन्तु माउण्टबेटन की सलाह पर पं. नेहरू इस मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गये। 15 जनवरी 1948 को पाकिस्तान ने भारत के आरोपों को अस्वीकार कर दिया और भारत पर बदनीयती का आरोप लगाते हुए कहा कि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय असंवैधानिक है और इस मान्य नहीं किया जा सकता। सुरक्षा परिषद् ने इस समस्या के समाधान के लिए पांच राष्ट्रों की एक समिति गठित की और इस समिति को मौके पर स्थिति का अवलोकन करके समझौता कराने को कहा। संयुक्त राष्ट्र समिति ने कश्मीर आकर मौके का निरीक्षण किया और 13 अगस्त 1948 को दोनों पक्षों से युद्ध बन्द करने और समझौता करने हेतु निम्न सुझाव प्रस्तुत किये-
(1) पाकिस्तान कश्मीर से अपनी सेना हटा ले। पाकिस्तान कबाइलियों तथा गैर-कश्मीरियों को भी कश्मीर से हटाने का प्रयास करे।
(2) सेनाओं द्वारा खाली किये गये क्षेत्रों का शासन प्रबन्ध, स्थानीय अधिकारी संयुक्त राष्ट्र समिति की देखरेख में करें।
(3) जब समिति भारत को सूचित कर दे कि पाकिस्तान ने उपर्युक्त शर्तें पूरी कर ली हैं, तो भारत भी समझौते के अनुसार अपनी अधिकांश सेना वहाँ से हटा ले।
(4) अन्तिम समझौता होने तक भारत युद्ध-विराम की सीमा के अन्दर उतनी ही मात्रा में सैनिक रखे, जितने कि स्थानीय अधिकारियों को शान्ति एवं व्यवस्था को स्थापित रखने के लिए आवश्यक हो।
इन बिंदुओं के आधार पर दोनों पक्षों के बीच लम्बी वार्त्ता हुई जिसके बाद 1 जनवरी 1949 को दोनों पक्ष युद्ध-विराम के लिए सहमत हो गये। यह भी तय किया गया कि अन्तिम फैसला जनमत-संग्रह के माध्यम से किया जायेगा। इसके लिए एक अमरीकी नागरिक चेस्टर निमित्ज को प्रशासक नियुक्त किया गया परन्तु पाकिस्तान ने समझौते की शर्तों का पालन नहीं किया और जनमत-संग्रह नहीं हो पाया। निमित्ज ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद इस समस्या को सुलझाने के लिए अनेक प्रयास किये गये परन्तु सफलता नहीं मिली। 1954 ई. में पाकिस्तान, पश्चिमी गुट में सम्मिलित हो गया और उसे अमेरिका से भारी सैनिक सहायता मिलने लगी। अब पश्चिमी देश, कश्मीर समस्या पर पाकिस्तान का पक्ष लेने लगे। दूसरी तरफ सोवियत संघ, भारत के पक्ष में आ गया। इससे कश्मीर-समस्या शीत युद्ध का अंग बन गई। अगस्त 1965 में पाकिस्तान ने कच्छ और कश्मीर पर आक्रमण किया परन्तु भारत के हाथों पाराजित होकर उसे ताशकन्द समझौता करना पड़ा। 1971 ई. में पाकिस्तान ने एक बार पुनः भारत पर आक्रमण किया और उसे परास्त होकर शिमला समझौता करना पड़ा। 1999 ई. में कारगिल में घुसपैठ के माध्यम से पाकिस्तान ने पूरे कश्मीर को हड़पने का प्रयास किया किंतु उसे इस बार भी सफलता नहीं मिली। भारत की संसद ने एक प्रस्ताव पारित किया कि पाकिस्तान के कब्जे वाली भारतीय भूमि को वापस लिया जायेगा किंतु उसके लिये विगत 66 वर्ष में भारत सरकार द्वारा कोई प्रयास नहीं किया गया है। इस प्रकार कश्मीर की समस्या अभी तक अधर में पड़ी है और आजाद कश्मीर क्षेत्र पर पाकिस्तान का अवैध कब्जा स्थापित है।
On 6 April 1648, Shah Jahan was 56 years old when he entered Delhi’s Red Fort, still his body was full of vigor and energy. Although thousands of women lived in Shah Jahan’s harem, Shah Jahan was so debauch that in his harem, a lot of new women used to come and go. Shah Jahan had spoiled the women of many of his Cavalier and generals by calling their women in his harem. Because of this, some women committed suicide. Due to this reason, his harem was full of conspiracies. No one in his family loved him. Many rich and generals of the Sultanate were also thirsty for his blood. There were thousands of women in Shah Jahan’s harem, but he only had Nine declared Begums. Shah Jahan had many children from these Begums, history doesn’t even know their names. Shah Jahan’s chief begum was Mumtaz Mahal, the third wife of Shah Jahan. She got married to Shah Jahan at the age of 19. In 1631, Mumtaz Mahal died while giving birth to the 14th child of Shah Jahan when she was just 38 years old. Even though fourteen children were born from the belly of Mumtaz Mahal, but only four sons born to her belly i.e. Dara Shikoh, Shah Shuja, Aurangzeb and Murad Bakhsh and four princesses – Purhunar Begum, Jahanara Begum, Roshanara Begum and Gauhra Begum placed their feet on the threshold of youth. The remaining six children died during their childhood. A lot of Shah Jahan’s children were born from the stomach of Shah Jahan’s other Begums, but history doesn’t even have their names. Shah Jahan’s eldest son Dara Shikoh and eldest daughter Jahanara were quieter, more sensible and intelligent than the rest of their siblings, while Aurangzeb, the third son of Shah Jahan, and the second Shahzadi Roshanara, were of the most turbulent and quarrelsome nature. Yet Jahanara handled their quarrels with patience and did not let them miss their mother. In the meantime , the king’s debauchery was increasing and the time was in leaps and bounds taking turns. When adult Shah Jahan turned old, he himself didn’t knew. The influence of time could also be seen clearly on Shah Jahan’s children. All eight princes and princesses left their childhood behind and set foot on the doorpost of puberty. Like Shah Jahan, their eyes were now dreaming. Whatever the dreams were in their eyes, but three dreams were very big – Kohinoor diamond, Takht-E-Taus and the Red Fort of Delhi and Agra. Everyone wanted to be the owner of these things one day. Shah Jahan was clearly able to see the dreams of his children while growing old. He could also sense the impulsiveness towards the reign coming down in the eyes of his children. On seeing the eyes of the princes, a powerful king like Shah Jahan trembled with fear and the wrinkles of his face were becoming increasingly dark. Shah Jahan started sending his sons away from Delhi one by one. He kept his elder son Dara Shikoh in the capital Delhi. The second son Shahshuja was made the Subedar of Bengal, the third son Aurangzeb was made the Subedar of the Deccan and appointed the fourth son Muradbakhsh to Gujarat. Thus, the four princes became thousands of kilometers away from each other. Shahjahan’s trio of Princes became restless as they were being sent away from the capital Delhi. They felt that their father was never willing to send them away, but the elder brother Dara Shikoh must have had conspired and sent his younger brothers away from the capital. All the Princes wanted to take possession of the huge treasure accumulated by the Mughals in the Red Forts of Delhi and Agra, about which many mysterious tales were prevalent.Everyone living within the Red Fort had some or the other list of this immense wealth, but Shah Jahan himself wasn’t fully aware of the actual list of this huge treasure. Every Prince wanted that their father Shah Jahan, who slaughtered his 18 uncles and brothers and seized the kingdom of the Mughals, they must also kill their remaining brothers and become the rightful owner of this immense treasure and Takht-E-Taus, Kohinoor diamond and Red Fort. No one came to know when did the four princesses also joined the task. Each princess selected her own brother whom she wanted to be the emperor after Shah Jahan so that the harem of the Red Fort would be ruled by the same princess and all the begums and princesses of the palace should remain her pimps. Princess Jahanara was in favor of her brother Dara Shikoh; Roshanara, of Aurangzeb; Purhunar Begum was favoring Shahshuja and Gauharara was in favor of Muradbakhsh. Shah Jahan, the builder of the Red Fort fell ill in September 1657 due to the fate of the Princes. He was now 65 years old. Being heavily immersed in the swamp of lust, he was besieged by a variety of diseases and the rumors of his death used to come up every day. Most of the rumors were spread by harem’s Queens, princesses, servants and eunuchs.
Article by Dr. Mohan Lal Gupta, English Translation By Er. Ayush Dadhich, Presentation by Er. Dipti Tayal
Shah Jahan had nine Begams – Kandhari Mahal, Akbarabadi Begum, Mumtaz Mahal, Hasina Begum, Moti Begum, Kudsia Begum, Fatehpuri Mahal, Sirhindi Begum and Rani Manabhavati. Shah Jahan had many children from all these Begums. Mumtaz Mahal was the third of Shah Jahan’s Begums. Of the fourteen children born from her stomach, only eight survived. When Shah Jahan came to the Red Fort in 1648, Mumtaz Mahal had been dead for seventeen years but her eight children illuminated the Red Fort. In this episode we will discuss about Mumtaz Mahal. The real name of Mumtaz Mahal was Arjumand Banu Begum. Shah Jahan used to call her Mumtaz Mahal which meant – ‘Most beloved jewel of the palace.’ Mumtaz was born in April 1593 in Agra. Her father Abdul Hasan Asaf Khan was the brother of Jahangir’s Begum Noor Jahan and came to India from Persia with his father. Thus the blood of Persia regurgitate in the veins of Mumtaz Mahal and she was the maternal sister of Shah Jahan. Mumtaz Mahal looked very beautiful like a white doll carved out of marble stone and used to sell silk and glass beads at her shop in Meena Bazaar, Agra. The tradition of Meena Bazaar was started by Shah Jahan’s grandfather Jalaluddin Muhammad Akbar. It was adorned only for the Mughal Emperors and the most affluent ones. Only Muslim Princesses(Shehzadis) and Hindu princesses were allowed to set up shops in Meena Bazaar on which they had to sell their own goods. Often the mistresses of these shops were also sold to some prince or Amir-umrao(Affluent ones). Once in 1607, Prince Khurram came to visit Meena Bazar and met her maternal sister Arjumand Begum. In the first meeting Khurram decided to marry Arjumand Begum. Despite already having two Begums, Prince Khurram enunciated his desire to marry Arjumand Begum to his father Jahangir. On this, Jahangir got Khurram married to Arjumand Begum in 1612 AD. Thus 19-year-old Arjumand became Khurram’s third wife, who later succeeded Jahangir by the name of Shah Jahan. Jahangir changed the name of Arjumand to Mumtaz Mahal. She was Shah Jahan’s third Begum to say, but soon she became Shah Jahan’s favorite Begum. Shah Jahan proclaimed her as the ‘Emperor Begum’. Empty papers of Shah Jahan’s royal decrees and the royal seal of Shah Jahan were then kept by Mumtaz Mahal, implying that orders issued in the name of Jahangir were actually issued by Mumtaz Mahal. Mumtaz Mahal was an expert in playing chess. Shah Jahan used to play chess with her, sitting in front of her for hours. Mumtaz often defeated the emperor in this game. Whenever Shah Jahan got defeated, he used to glisten with joy and would shower Ashrafis on Mumtaz Mahal. Mumtaz had a very good knowledge of her mother tongue Persian and wrote very good poems in Persian language. She gave shelter to many poets of Persian language in the Mughal court. Mumtaz decorated the royal garden with beautiful flowers and made it a paradise. Thus Mumtaz Mahal created beauty all around her and Shah Jahan would plunge into this unending sea of beauty. In the manner, Jahangir’s Begum Noor Jahan made Mughal Sultanate dance at her fingertips, Mumtaz Mahal also became the emperor’s favorite and began to domineer the Mughalia Takht, Mughalia dynasty and Mughalia Sultanate. As a result, Shahjahan’s other eight Begums and many of their children were badly neglected and their names couldn’t be recorded on the pages of history. Mumtaz took two measures to keep the Mughal Sultanate firmly in her hands. Firstly, she often invited poor women to the royal garden and spent time with them. From these women, she used to get information about small and big things happening in the Sultanate. Mumtaz Mahal also helped the poor and needy. Mumtaz Mahal used to help the needy by asking the emperor, but she herself used to take care of the girls who could not get married due to poverty. For these reasons, Mumtaz Mahal was liked by the poor community. The second measure was also thoughtfully adopted. Whenever Shah Jahan went out of the capital for any work, Mumtaz inevitably accompanied her. As an advantage, Mumtaz connected directly with every Rich, Cavalier, Prince, Hindu chieftain and mullah-maulvis of the Sultanate. For this reason, as long as Mumtaz lived, no one rebelled against her. No person could fill the emperor’s ears against Mumtaz. On 17 June 1631, Mumtaz Mahal died while giving birth to Gauhra Begum, the 14th child of Shah Jahan in Burhanpur. Shah Jahan considered Gauhra Begum to be cursed for himself and even refused to see her face. In 1612, at the age of 19, Mumtaz was married to Shah Jahan. After this marriage, she lived only 19 years and during this period she got pregnant 14 times. In a way, Shah Jahan made her a child-making machine. Shah Jahan buried the body of Mumtaz at Jainabad Bagh in Burhanpur. To preserve her body, one of the three famous methods of making mummies in the country of Egypt was resorted so that her body would never smell and could be safe for thousands of years. Shah Jahan, immersed in Mumtaz’s mourning, remained in Burhanpur for almost a year and during this time he did not leave his camp even once. Later, in December 1631, Mumtaz’s body was taken out of the tomb when the construction of Taj Mahal started in Agra and the boundary walls were ready. The corpse was brought from Burhanpur to Agra as a magnificent royal procession with full vigor. Eight crore rupees were spent on the procession at that time. On 12 January 1632, Mumtaz’s body was buried in the premises of the Taj Mahal which was under construction. When the Taj Mahal was completed 9 years later in AD 1640, the body of Mumtaz Mahal was once again taken out of the grave. This time she was buried in a cellar of the Taj Mahal and a fake grave was built on the floor above it so that if the enemies ever destroy the Taj Mahal, Mumtaz Mahal can be safe in her coffin at the basement and can easily wait for the doom. When Shah Jahan died, Shah Jahan was also buried in the basement of the Taj Mahal near Mumtaz Mahal and the emperor’s fake tomb was also built near the fake tomb of Mumtaz on the upper floor. Thus Mumtaz Mahal was now asleep in the Taj Mahal of Agra and Shah Jahan had come with her eight children to live in the Red Fort of Delhi.
Article by Dr. Mohan Lal Gupta, English Translation By Er. Ayush Dadhich, Video Presentation by Er. Dipti Tayal
In 1628, Jahangir’s son Khurram became the possessor of India’s lush green plains, uninterrupted rivers and high rising mountains, killing 18 of his brothers and uncles. He was the fourth descendant of Babur, also known as Shah Jahan in the history of India. By this time, the generations of Babur had ruled India for over a hundred years. Shah Jahan had a rich empire of his father and grandfathers. Therefore, the challenges before him were few. The vast armies of the Sultanate fought on the fronts of Afghanistan, China, Bengal, and South India and they continuously increased the boundaries of the Sultanate. Due to this, gold, silver and diamond jewels were piled up in the treasury of the Sultanate. The Mughal emperor used to earn crores of rupees every year due to the tax paid by the Indian farmers. Using this money, Shah Jahan built a huge throne for himself called Takht-e-Taus which meant Mayur throne. The thrones was built like a beautiful dancing peacock. The plankton was 3.5 yards long, 2 yards wide and 5 yards high. The entire throne was made of solid gold with 424 kg of precious gems in it. Several hundred artisans worked continuously for 7 years in the minakari and mosaic of these gems. The cost of the throne came to Rs 2 crore 14 lakh and 50 thousand. European historian Tavernier has written that Kohinoor, world’s most precious diamond, was also installed in this throne. After sitting on the throne, Shah Jahan didn’t like the clumsy design of forts built during Akbar’s rule in Agra and Fatehpur Sikri so he decided to build a new fort for himself in Delhi, the capital of Hindus for thousands of years which was situated on the banks of river Yamuna . Even before Shah Jahan, Delhi had been the capital of Turkish and Afghan Muslims for nearly three and a quarter hundred years. Shah Jahan appointed a erudite engineer named Ustad Ahmad Lahori to build the Red Fort as he had expertise in building Mughal-style buildings. The same Ahmad Lahori had also built the Taj Mahal of Agra. On 12 May 1638, the Red Fort’s foundation stone was laid on the banks of Yamuna in Delhi. By the time the Red Fort was ready, Shah Jahan stayed in the Salimgarh fort. Shah Jahan would stand on the banks of the Yamuna for hours and watch the construction of this new fort, and would see the shadows of the rapidly rising fort walls moving in the dark waves of the Yamuna. Shah Jahan built this fort with red and white stones of his choice. Both these colors were very dear to Shah Jahan. Shah Jahan then didn’t knew that these walls of the Red Fort would continue to be washed with the red blood of his descendants until the last descendant of Babur would be chained and sent to Rangoon. The area in Delhi where the Red Fort was built was called Shahjahanabad. The huge royal palace was built in the middle of the Red Fort where Shah Jahan himself and his future generations were to live. Several small canals were built from the Yamuna river to the Red Fort, through which the holy water of the Yamuna was drawn and brought to the palaces of the Red Fort. These canals were so beautiful that they were called “Neher-e-Bahisht”. After soaking the water from these canals, many beautiful flowers bloomed in the gardens which seemed as If they were flowers from heaven. However later, the walls of Red Fort saw the blood of Shah Jahan’s descendants flowing in these canals. Hindus believe that Shah Jahan didn’t build any new fort in the form of Red Fort as according to them, there was already an old fort in which the Hindu rulers resided for hundreds of years. Shah Jahan rebuilt the same fort. Whatever may have been the truth, but it cannot be denied that the red fort built by Shah Jahan looked like a red chariot descended from heaven and landed on earth with the wings of dreams. It’s grandeur was inevitable. It was true that the Red Fort was not built by Vishwakarma, but the architectural plan of the Red Fort was unmatched and the palaces built in it embodied the imagination of the palaces built by the colossal demons described in the Indian Puranas.Shah Jahan spent one crore rupee on its construction, out of which half of the money was spent on building its rampart and half of it was spent on building the palaces inscribed within the red fort. After a full nine years of strenuous construction, the Red Fort was completed on 6 April 1648 and Shah Jahan entered the fort with his huge harem. From the day itself, the walls of the Red Fort started getting wet with human red blood.
Article by Dr. Mohan Lal Gupta, English Translation By Er. Ayush Dadhich, Video Presentation by Er. Dipti Tayal
The rivers originating from the Himalayas had irrigated the vast plains of northern India for millions of years and nurtured its flora and fauna. These plains on the banks of the Indus, Saraswati, Jhelum, Chenab, Ravi, Sutlej, Beas, Ganges and Yamuna were called paddy bowls. The cattle that had been grazing green grass in these plains used to give substantial amount of milk similar to the sacred waters flowing in the Ganges and the Yamuna . Colorful birds used to mask the sky above and the sun and the moon used to come in turns and look at this beguiling vista of earth with an enchanting sense. Delhi was the ancient capital of Hindus who lived happily for thousands of years in these plains, which was established by Pandavas as Indraprastha five and a half thousand years ago. In the twelfth century AD, Delhi used to be under the rule of Prithviraj Chauhan, the second son of Tomars. These Tomars built the Red Fort in Agra on the banks of river Yamuna. When the Turks who came from Afghanistan in AD 1192 killed the last Hindu Emperor of India, Prithviraj Chauhan and occupied Delhi, they built a new fort for themselves which was called the fort of Siri. From AD 1192 to AD 1526 several Turkish dynasties ruled over India. During this time, they took away the graft earnings of the farmers of India and filled their treasures with it. How big this treasure was, can be gauged from the fact written by Ibn Batuta that the treasury of Sultan Ghiyasuddin Tughlaq was always full of money and jewels. He built a palace at Tughlakabad whose bricks were covered with gold and also built a lake in that palace which was filled with melted gold. The Ottoman Sultans of Delhi often stayed in the fort of Siri, but the Tughlaqs built the fort of Tughlakabad outside Delhi. After the Tughlaqs, the Turks returned to live in the fortress of Siri. The last Afghan ruler of Delhi, Ibrahim Lodi, lived in the Siri fort of Delhi but his predecessor, Sikandarshah Lodi, lived in the Red Fort of Agra. He kept the treasure of Delhi Sultanate in the Red Fort of Agra. It was a huge treasure whose tales were prevalent not only in India but throughout Central Asia. The whole world was tempted to loot this gold. One of these was Fargana and Samarkand’s ruler, Babur. Babur’s Paternal Uncle Ahmad Mirza snatched the kingdom of Samarkand from Babur and Maternal Uncle Mahmud Khan made Babar and his son Humayun rate beggars. Babar had to stay hidden in the mountains for three long years to save his life and during this time he had to work hard to keep his head above water. Babur had the blood of Genghis Khan and Timur Lung in his veins. Therefore, he was not afraid to die. He heard a lot about the hidden treasures in the palace of Indian Sultans. Babur planned to loot this treasure and for that purpose, he started building an army of youth living in the mountaineous region of Afghanistan. In 1526, Babur left for India with this army. His son Humayun also came to India along with his father and an army. This father and son duo defeated the last weak ruler of Delhi, Ibrahim Lodi, and took control of Delhi and Agra. Thus beggars Babur and Humayun became the legal owners of treasuries worth crores. Babur lived in the Siri fort of Delhi for some time, but later on he ordered to repair an ancient fort situated on the banks of the Yamuna and built some strong corridors around it and got some construction done inside it. This fort was built on the ruins of the very ancient fort built by the Pandavas. Babur named this fort as Deen Panah. Now it is called Purana Qila. Babur lived only four years after his arrival in India and died in 1530 AD. After Babur, Humayun also stayed in Deen Panah, but in 1540, Humayun’s kingdom was taken away and he had to face exile in Iran for 15 years. Sher Shah Suri and his descendants ruled Delhi during this period. Sher Shah Suri demolished some buildings in Deen Panah and got new ones built in its place. In 1546, when Sher Shah Suri’s son Salim Shah became the ruler of Delhi, he built a new fort on a small island in the middle of the Yamuna, which is called Salimgarh. In 1555, when Humayun returned to India, he again resided in the old fort of Delhi, Deen Panah. He died in 1556 AD at Deen Panah. After that Humayun’s son Akbar became the emperor. He did not like Delhi’s Siri Durg, Deen Panah and Salimgarh, and instead of Delhi, he made Agra his capital and repaired the Red Fort of Agra and built many palaces for himself and his harem. After some time, Akbar built a new fort at Fatehpur Sikri, about 35 km from Agra and took his harem from Agra to Sikri. Akbar lived in the fort of Fatehpur Sikri till his death. When Jahangir ascended the throne of the Mughals in AD 1605, he again brought his capital to Agra’s Red Fort. Look in the sequel – Red Fort had landed on the earth with wings of dreams!
Article by Dr. Mohan Lal Gupta, English Translation By Er. Ayush Dadhich, Video Presentation by Er. Dipti Tayal
There are two Red Forts in India. The first red fort is in Agra, which was built by Tomar Rajputs, centennials before Muslims came to India. Sikandar Lodi, Akbar and Shah Jahan renovated this fort. Lodi Sultan Sikandar Lodi and Ibrahim Lodi and the Mughal emperors Babur, Humayun, Akbar, Jahangir, Shah Jahan and Aurangzeb stayed in this fort for a brief time. This fort had the biggest treasure of the Mughals, precious gems, gold and other valuable property. This fort also had the mint of the Mughals in which gold and silver coins were minted.
The second red fort is in Delhi which was built by Shah Jahan but unfortunately Shahjahan’s son Aurangzeb kept Shah Jahan captive in the Red Fort and Delhi’s Red Fort was now Aurangzeb’s territory. In this series, that part of the history will be discussed which depicts Shah Jahan’s construction of Red Fort in Delhi, to the independence of India that took place in the patronage of Red Forts of Delhi and Agra. These two Red Forts became a symbol of the power of India during this period.
All the events in this series are drawn from authentic historical books. The images in the video are symbolic. Please understand this series as an historical event and enjoy it. We had no role in the events that took place. We have only perceived history. Please enjoy the history. The history might not be according to your mind, you may not like it because a person always love those facts that he got to hear first. For this very reason, he later accepts the hearsay history as a lie. Viewer discretion is advised.
History is not understood by getting carried away in emotions, novel is understood. It is not a novel, it is history, a pure history that has the ability to purify the soul of a man.
Article by Dr. Mohan Lal Gupta, English Translation By Er. Ayush Dadhich, Video Presentation by Er. Dipti Tayal
भारतीय राज्यों का भारत मे सम्मिलित होना एक बड़ी सफलता थी। अब इन रियातसतों को लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के अंतर्गत लाना अनिवार्य था। सरदार पटेल ने भारतीय नरेशों को समझाया कि स्वतंत्र भारत में, आधुनिक विश्व की तरह देशी राज्यों में भी राजसत्ता का प्रयोग जनता के द्वारा एवं जनता के कल्याण के लिए ही होना चाहिए। भारत सरकार ने राजाओं को यह चेतावनी भी दी कि वह किसी भी देशी रियासत में अशान्ति एवं अव्यवस्था को सहन नहीं करेगी। जब देशी रियासतों में प्रजा मण्डल आंदोलन चले तो देशी राज्यों में लोकप्रिय मंत्रिमण्डलों का गठन हाने लगा तथा देशी राज्यों में संविधानों का निर्माण होने लगा ताकि निर्वाचन पद्धति के आधार पर सरकारों का गठन किया जा सके।
सरदार पटेल चाहते थे कि देशी रियासतों के लोगों को भी भारतीय प्रांतों की प्रजा के समान आर्थिक, शैक्षणिक एवं अन्य क्षेत्रों में समान अवसर एवं सुविधाएं मिलें परन्तु अधिकांश देशी रियासतें आर्थिक दृष्टि से इतनी कमजोर एवं छोटी थीं कि वे अपने संसाधनों से प्रजा का विकास नहीं कर सकती थीं। अतः काफी विचार-विमर्श के बाद सरदार पटेल ने देशी राज्यों का एकीकरण करके बड़ी प्रशासनिक इकाइयां गठित करने का निमर्ण लिया। उन्होंने दो प्रकार की पद्धतियों को प्रोत्साहन दिया- बाह्य विलय और आन्तरिक संगठन। बाह्य विलय में छोटे-छोटे राज्यों को मिलाकर अथवा पड़ौसी प्रान्तों में विलय करके बड़े राज्य बनाये गये। आन्तरिक संगठन के अन्तर्गत इन राज्यों में प्रजातन्त्रीय शासन व्यवस्था लागू की गई।
दिसम्बर 1947 में उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के 39 राज्यों का उड़ीसा और मध्य प्रान्त में विलय हुआ। फरवरी 1948 में 17 दक्षिणी राज्यों को बम्बई प्रान्त के साथ मिलाया गया। जून 1948 में गुजरात तथा काठियावाड़ के समस्त राज्यों को बम्बई प्रदेश में सम्मिलित किया गया। पूर्वी पंजाब, पाटियाला तथा पहाड़ी क्षेत्र के राज्यों को मिलाकर एक नया संघ बनाया गया जिसे पेप्सू कहा गया। इसी आधार पर मत्स्य संघ, विन्ध्य प्रदेश और राजस्थान का निर्माण किया गया। कुछ क्षेत्रों को केन्द्र प्रशासित क्षेत्र बनाया गया जिनका प्रशासन केन्द्र सरकार के हाथों में रखा गया।
स्वतन्त्रता के बाद भारत में चार प्रकार के राज्य बन गये (संविधान में ‘प्रान्त’शब्द हटा दिया गया और देशी रियासतों तथा प्रान्तों, दोनों के लिए ‘राज्य’शब्द का ही प्रयोग किया गया)। इन्हें क, ख, ग और घ श्रेणी के राज्य कहा गया। ‘क’श्रेणी के अन्तर्गत भूतपूर्व ब्रिटिश प्रान्तों को रखा गया। इनकी संख्या 9 थी और नाम थे- असम, बिहार, बम्बई, मध्य प्रदेश, मद्रास, उड़ीसा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बंगाल। ‘ख श्रेणी के अन्तर्गत कुछ संघ तथा बड़ी-बड़ी देशी रियासतों को रखा गया जिनकी संख्या 8 थी। ये थीं- हैदराबाद, जम्मू-कश्मीर, मध्य भारत, मैसूर, पटियाला तथा पेप्सू, राजस्थान, सौराष्ट्र, ट्रावनकोर तथा कोचीन। ‘ग’ श्रेणी के अन्तर्गत अजमेर, भोपाल, कुर्ग, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, कच्छ, विन्ध्य प्रदेश, मणिपुर और त्रिपुरा राज्यों को सम्मिलित किया गया। ‘घ’ श्रेणी के राज्यों में अण्डमान और निकोबार द्वीप को सम्मिलित किया गया।
‘क’ और ‘ख’ श्रेणी के राज्यों में पूर्ण उत्तरदायी सरकार स्थापित की गई परन्तु ‘ग श्रेणी के राज्यों में कुछ नियंत्रित उत्तरदायी सरकार की स्थापना की गई। ‘घ श्रेणी के राज्यों की प्रशासन व्यवस्था केन्द्र के अधीन रखी गई। इस प्रशासनिक असमानता के अतिरिक्त अन्य समस्त विषयों में समस्त राज्यों के साथ समानता का व्यवहार किया गया।
देशी रियासतों के विलय से भारत में एक शक्तिशाली संघ की स्थापना हो गई। यह काम जिस शान्ति एवं शीघ्रता से सम्पन्न हुआ, उसकी आशा किसी को नहीं थी। सितम्बर 1948 में पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था– ‘यदि मेरे से कोई व्यक्ति 6 महीने पूर्व ये पूछता कि अगले 6 महीनों मे क्या होगा, तो मैं भी यह नहीं कह सकता था कि अगले 6 महीनों में इतने शीघ्र परिवर्तन होंगे।’ इस परिवर्तन का श्रेय सरदार वल्लभ भाई पटेल को जाता है जिन्होंने अथक परिश्रम एवं सूझबूझ के साथ भौगोलिक, राजनैतिक एवं आर्थिक दृष्टि से भारत के एकीकरण को पूर्ण कर दिखाया। भारत के एकीकरण के महत्त्व की समीक्षा करते हुए माइकल ब्रीचर ने लिखा है- ‘केवल एक वर्ष में 5 लाख वर्ग मील क्षेत्र और 9 करोड़ आबादी भारतीय संघ में मिल गई। यह एक महान् रक्तहीन क्रान्ति थी जिसकी तुलना कहीं भी इस शताब्दी में नहीं मिलती और इसकी तुलना उन्नीसवीं शताब्दी में बिस्मार्क द्वारा जर्मनी में और काबूर द्वारा इटली में किये हुए एकीकरण से की जा सकती है।’
जार्ज षष्ठम् द्वारा संतोष की अभिव्यक्ति
भारत के एकीकरण पर संतोष व्यक्त करते हुए जॉर्ज षष्ठम् ने लिखा है- ‘मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि लगभग समस्त भारतीय राज्यों ने किसी न किसी उपनिवेश में सम्मिलित होने का निर्णय कर लिया है। वे संसार में कभी भी अकेले खड़े नहीं हो सकते थे।’ जार्ज षष्ठम् 11 दिसम्बर 1936 से 1952 तक इंग्लैण्ड का राजा रहा। उसके समय में ही कॉमनवैल्थ की स्थापना हुई जिसका वह प्रथम अध्यक्ष बना। इस संस्था में उन देशों को सदस्यता दी जाती थी जो कभी भी इंग्लैण्ड के अधीन रहे थे।
राजाओं के नष्ट होने के कारण कतिपय इतिहासकारों ने लिखा है कि राजा लोगों के नष्ट होने के तीन कारण थे- एक तो वे राष्ट्रवादी थे, दूसरे वे कायर थे तथा तीसरा कारण यह था कि उनमें से अधिकांश मूर्ख थे और अपने ही पापाचार में नष्ट हो गये।
मध्यकालीन मुस्लिम बादशाह भारत में आक्रांता के रूप में आये थे। उन्होंने सेना के बल पर इस देश का शासन प्राप्त किया था अतः उनका ध्यान अपनी सेनाओं को मजबूत बनाये रखना, उन्हें निरंतर राज्य विस्तार के काम में लगाये रखना तथा शत्रुओं से अपने राज्य को सुरक्षित रखने पर अधिक था। कृषि, व्यापार, वाणिज्य एवं उद्योगों का संरक्षण एवं विकास उनकी प्राथमिकता में नहीं थे। यही कारण है कि मध्यकालीन फारसी और अरबी ग्रन्थों में भारत की अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में बहुत कम सूचनाएँ मिलती हैं। मंगोल बादशाह भी आक्रांताओं की तरह इस देश में प्रविष्ट हुए। 1221 ई. में मंगोलों ने चंगेजखाँ के नेतृत्व में भारत पर पहला बड़ा आक्रमण किया तथा 1526 ई. में बाबर के नेतृत्व में उन्हें पहली बार दिल्ली की सल्तनत पर शासन करने का अधिकार मिला। मुस्लिम शासकों की परम्परा के अनुसार मंगोलकालीन फारसी एवं अरबी ग्रंथों ने बादशाहों द्वारा लड़ी गई लड़ाइयों, शहजादों द्वारा किये गये उत्तराधिकार के युद्धों, विप्लवों आदि का विस्तार से वर्णन किया है किंतु देश की कृषि, व्यापार, वाणिज्य एवं अर्थव्यवस्था का बहुत कम उल्लेख किया है।
मुगलकालीन अर्थव्यवस्था जानने के प्रमुख स्रोत
भारतीय आर्य परम्परा में राजाओं के तिथिक्रम, वंशक्रम तथा युद्धों का वर्णन करने की बजाय धर्म, अध्यात्म एवं पौराणिक आख्यानों के साथ-साथ कृषि, पशुपालन, अकाल, आदि का बहुतायत से उल्लेख होता था। यही कारण है कि मंगोलों के शासन में रचे गये संस्कृत ग्रंथों तथा क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य में भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में सूचनाएँ अंकित की जाती रहीं। मुगलकालीन एवं परवर्ती विदेशी पर्यटकों के विवरणों से भी मुगलकालीन अर्थव्यवस्था का ज्ञान होता है।
मुगलकालीन अर्थव्यवस्था के प्रमुख तत्त्व
मुगलकाल में भी भारत की अर्थव्यवस्था प्राचीन आर्य परम्परा के अनुसार कृषि, पशुपालन एवं घरेलू उद्योगों पर आधारित थी। इस कारण गाय ही ग्रामीण जीवन एवं अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार थी। अर्थव्यवस्था में जटिलता उत्पन्न नहीं होने से, प्रजा का जीवन सरल एवं मंथर-गति युक्त था। ग्रामीण प्रजा की आवश्यकताएँ गाँवों में ही पूरी हो जाती थीं। पूरा परिवार प्रायः एक ही कार्य करता था। प्रत्येक परिवार का कार्य परम्परा से निर्धारित था। स्त्रियां घर का काम करती थीं तथा अपने परिवार के साथ-साथ आर्थिक गतिविधियों में भी भूमिका निभाती थीं।
श्रम विभाजन
परम्परागत रूप से आर्यों द्वारा किया गया श्रम विभाजन अब भी समूची ग्रामीण एवं नगरीय अर्थव्यवस्था का आधार था। किसान खेती करते थे। बढ़ई तथा लौहार कृषि उपकरण तथा घरेलू उपभोग का सामान बनाते थे। सामान्यतः खेती के साथ-साथ पशुपालन भी किया जाता था किंतु कुछ लोग केवल पशुपालक एवं चरवाहे के रूप में जीवन यापन करते थे। वे पशुओं को पालने एवं दूध बेचने का काम करते थे। जुलाहे कपड़ा बुनते थे। चर्मकार चमड़े का काम करते थे। पुजारी, ज्योतिषी, वैद्य, महाजन, धोबी, नाई तथा भंगी आदि जातियों के लोग, परम्परागत रूप से अपने लिये निश्चित किये गये कार्य करते थे। कुछ लोग रस्सी और टोकरी बनाने, शक्कर तथा गुड़ बनाने, इत्र तथा तेल आदि बनाने का काम करते थे।
हाट-बाजार
नगरीय जीवन में बाजार दैनंदिनी का अंग थे जहाँ विभिन्न प्रकार की सामग्री का क्रय-विक्रय होता था किंतु गाँवों में बाजार प्रायः नहीं थे। अलग-अलग गांवों में छोटे-छोटे नियतकालिक बाजार लगते थे जिनमें कपड़ा, मिठाइयाँ तथा दैनिक आवश्यकता की विविध सामग्री बिकती थी। फसलों एवं पशुओं का क्रय विक्रय बड़े स्तर पर होता था।
भू-स्वामित्व एवं भू-राजस्व
भू-स्वामित्व
मध्यकालीन भारत में भू-स्वामित्व के सम्बन्ध में विद्वानों ने अलग-अलग मत व्यक्त किये हैं। समकालीन यूरोपियन यात्री बादशाह को भूमि का स्वामी मानते हैं किन्तु डॉ. इरफान हबीब का मत है कि भूमि का स्वामी न तो बादशाह था और न किसान। कुछ परिस्थितियों में उसका अधिकार मिलकियत का था अर्थात् सिद्धान्ततः भूमि का स्वामी बादशाह था परन्तु व्यवहारिक रूप से भूमि पर काश्त करने वाले जब तक भू-लगान देते रहते थे, तब तक वे भूमि के स्वामी बने रहते थे। सामान्य रूप से किसान न तो भूमि को बेच सकता था और न उससे अलग हो सकता था। डॉ. नोमान अहमद सिद्दीकी का मानना है कि कृषकों को जमीन बेचने और बंधक रखने जैसे अधिकार नहीं थे। फिर भी कृषकों का एक वर्ग जिसे मौरूसी कहा जाता था, इस प्रकार के अधिकारों का दावा करता था, जिन्हें दखलदारी का अधिकार (ओक्यूपेंसी राइट्स) कहा जा सकता है। सामान्यतः उन्हें बेदखल नहीं किया जा सकता था और उनके वंशजों का उनके खेतों पर उत्तराधिकार होता था। साथ ही ऐसे किसान भी थे जो जमींदारों की अनुमति से खेत जोतते थे और उन्हें जमींदार कभी भी बेदखल कर सकते थे। वस्तुतः कृषकों का वर्गीकरण कई स्तरों एवं श्रेणियों में हो सकता था। किसान यदि अपनी भूमि को छोड़कर अन्यत्र चला जाता था तो सरकारी कर्मचारियों को आदेश थे कि वे किसान को समझा-बुझाकर वापस ले आयें। औरंगजेब के काल में बहुत से किसान ताल कोंकण से भाग गये थे। उन्हें बलपूर्वक वापस लाकर छः सौ गाँवों में बसाया गया था।
भूमि का वर्गीकरण
मुगलकाल में भूमि को मोटे तौर पर दो श्रेणियों में विभाजित किया गया था- (1.) खालसा भूमि और (2.) गैर-खालसा (जागीर, साराण आदि)। खालसा भूमि सीधी बादशाह के नियंत्रण में थी। मालगुजारी निश्चित करने के लिए भूमि को पोलज, परती, चाचर एवं बंजर में बाँटा गया था। यह वर्गीकरण भूमि को जोतने पर आधारित था। पोलज वह भूमि थी जिसे प्रत्येक वर्ष जोता जाता था। परती को कुछ समय के लिए बिना जोते ही छोड़ दिया जाता था। चाचर भूमि तीन-चार साल के लिए बिना जुते ही छोड़ दी जाती थी। बंजर भूमि वह थी जिस पर पाँच साल से अधिक समय तक कोई उपज नहीं होती थी। गैर खालसा भूमि जागीरदारों के अधिकार में थी। अकबर के शासनकाल में जागीरदार अर्द्ध-स्वतन्त्र शासक थे। बादशाह का उनके आंतरिक शासन में हस्तक्षेप नहीं था।
भ-ूराजस्व का निर्धारण
प्रथम दो प्रकार की भूमियों (पोलज तथा परती) को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया- (1.) अच्छी, (2.) मध्यम और (3.) खराब। इन तीन श्रेणियों की प्रति बीघा औसत उपज को पोलज अथवा परती के प्रति बीघा की सामान्य उपज मान लिया गया था। इन दोनों भूमि में विशेष अन्तर नहीं था क्योंकि जिस वर्ष भी परती भूमि पर खेती की जाती थी, उसकी उपज पोलज के समान ही हुआ करती थी। चाचर भूमि में जब पहले साल खेती होती थी तो निश्चित दर अर्थात् 2/5 भाग मालगुजारी के रूप में ली जाती थी और पाँच साल खेती होने के पश्चात् उस पर सामान्य दर से मालगुजारी वसूल की जाती थी। इसी प्रकार बंजर भूमि पर भी पांॅच साल के बाद पूरी दर से मालगुजारी वसूल की जाती थी।
रैयती जमींदारों के अत्याचार
डॉ. नोमान अहमद सिद्दीकी के अनुसार मुगलकाल में किसानों की स्थिति सन्तोषप्रद नहीं थी। किसान को भूमि की पैदावार के अनुसार एक-तिहाई से लेकर आधा हिस्सा तक भू-राजस्व के रूप में देना पड़ता था। भू-राजस्व के साथ-साथ किसानों को चुंगियों तथा अनुलाभों के रूप में कुछ और भी देना पड़ता था। यह वसूली भू-राजस्व के निर्धारण एवं संग्रह पर हुए व्यय की पूर्ति के लिए विभिन्न मदों में की जाती थी। ऐसा प्रतीत होता हैं कि तलबाना और शहनामी जैसी चुंगियाँ जमींदारों से ली जाती थी जो आमतौर पर अपना भार किसानों पर डाल देते थे। छोटे ओहदे वाले मनसबदारों को भू-राजस्व संग्रहण हेतु छोटी-मोटी सेना रखने की अनुमति होती थी। यह सेना किसानों, जन-सामान्य तथा रयैती जमींदारों को आतंकित करने के लिए पर्याप्त होती थी। इस कारण छोटे मनसबदार, भू-राजस्व संग्रहण, रैयती जमींदारों के साधनों की जानकारी कर उन पर अधिक भू-राजस्व-कर आरोपित करके करते थे। रयैती जमींदार भू-राजस्व-कर का सारा भार किसानों पर डाल देते थे। जब किसान पैसा जमा नहीं करवा पाते थे तो उन पर रैयती जमींदार द्वारा अत्याचार किये जाते थे। जब किसानों पर अत्याचार, सहन करने की सीमा से बाहर हो जाता था तब वे रैयती जमींदारों के क्षेत्रों को छोड़कर जोर टलब जमींदारों के क्षेत्रों में चले जाते थे। जहाँ उन्हें रैयती जमींदारों के क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक सुविधा मिलती थी। इससे किसानों की दयनीय स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।
मुगलकालीन कृषि
आर्यों द्वारा स्थापित संस्कृति ने वैदिक काल से भारत को कृषि प्रधान देश का स्वरूप प्रदान किया था। मंगोलों के शासन में भी खेती का काम सामान्यतः हिन्दुओं के हाथों में रहा। इस कारण अब भी खेती प्राचीन आर्य पद्धति से, बैलों के द्वारा हल चलाकर की जाती थी। हल, कसी, खुरपी, पटेला तथा हंसिया, इस युग में भी खेती के मुख्य उपकरण थे। प्राचीन आर्य शासकों ने खेतों में सिंचाई के लिए नहरें बनाने की परम्परा आरम्भ की थी किंतु मध्यकालीन मुस्लिम आक्रमणों के बाद शासकों द्वारा नहरों की मरम्मत नहीं करवाने से खेती पूर्णतः वर्षा पर निर्भर हो गई। वर्षा के अभाव में प्रायः अकाल की स्थिति उपत्न्न हो जाती थी।
मुख्य फसलें
मुगलकाल में बोई जाने वाली मुख्य फसलें गेहूँ, बाजरा, मक्का, चावल, मटर, तिलहन, गन्ना, रूई आदि थीं। फलों में आम, अंगूर, केला, खरबूजा, अंजीर, नींबू, खिरनी, जामुन आदि उत्पन्न किये जाते थे। आयुर्वेदिक औषधियाँ, जड़ी-बूटियाँ, मसाले और सुगन्धित काष्ठ भी उत्पन्न किये जाते थे। इन उत्पादों को भारत के विभिन्न भागों एवं भारत से बाहर ले जाकर भी बेचा जाता था। अनाज भण्डारण के लिये गड्ढों या खत्तियों का उपयोग किया जाता था जिनमें लम्बे समय तक अनाज सुरक्षित रखा जा सकता था।
बागवानी
मुगल बादशाहों ने फलों की उपज में वृद्धि और किस्मों में सुधार करने के प्रयास किये तथा बागवानी को प्रोत्साहन दिया। बाबर को बागों में विशेष रुचि थी। उसने ईरानी शैली के अनुसार कुछ बागों का निर्माण करवाया, जिनमें कृत्रिम झरने तथा ढलुआ जमीनों पर चबूतरे आदि बनवाये।
अकबर के शासन काल में किसानों की सहायता
मुगल शासकों में अकबर सबसे पहला बादशाह था जिसने किसानों को प्रोत्साहन देने की नीति अपनाई। उसके शासन काल में किसानों को गन्ना, नील, अफीम, मसाले आदि नगद फसलें उत्पन्न करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। राज्य तकाबी के रूप में किसानों को ऋण देता था और सिंचाई की सुविधाएँ प्रदान करने का प्रयत्न करता था। अनावृष्टि, अतिवृष्टि अथवा दुर्भिक्ष या अन्य किसी दैवी प्रकोप से फसल नष्ट हो जाने पर राज्य की ओर से उस क्षेत्र का भूमि कर माफ कर किसानों को आर्थिक सहायता दी जाती थी। फसलों को हुई क्षति का विवरण रखा जाता था। जब अधिक वर्षा या बाढ़ के कारण भूमि बिना जुती रह जाती थी, तब किसानों को भीषण कष्ट होता था। ऐसे समय में भी राज्य किसानों की सहायता करता था। सरकारी कर्मचारियों को आदेश था कि वे किसानों से कोई अतिरिक्त कर वसूल न करें तथा उनके साथ कठोर व्यवहार न करें। यदि सैनिक अभियानों के समय किसानों की फसलों को किसी प्रकार की क्षति उठानी पड़ती थी तो राज्य उस क्षति की पूर्ति करता था। कुछ मामलों में अकबर ने अपने सैनिक अभियानों के समय खड़ी फसल को क्षति से बचाने के लिए सशस्त्र सैनिकों को नियुक्त किया तथा फसलों को सेना के कारण हुई क्षति के लिये किसानों को नकद राशि का भुगतान किया।
अकबर ने आलू की फसल तैयार करवाने का प्रयत्न किया था तथा जहाँगीर ने अनेक प्रकार के अंगूरों की उपज करवाई। तम्बाकू और तरबूज भी पैदा किये जाने लगे। मुहम्मद रिदा को जिसने पहली बार तरबूज उगाये थे, सम्मानित किया गया। मुगलों के काल में गेहूँ और चावल का निर्यात किया जाता था। इसलिये यह आवश्यक था कि उपज को बढ़ाया दिया जाये ताकि आन्तरिक माँगों की पूर्ति के साथ-साथ निर्यात के लिए भी जिन्स उपलब्ध हो सके।
किसानों का जीवन
कुछ मुस्लिम इतिहासकारों का मानना है कि मुगलों के समय में किसानों की स्थिति अच्छी थी जबकि अधिकांश विदेशी इतिहासकारों के अनुसार मुगल काल में किसानों की स्थिति बहुत खराब थी। पेलसर्ट के अनुसार जहाँगीर के समय में किसानों की स्थिति बहुत ही खराब थी। उनके घरों में केवल दुःखों और विपत्तियों का स्थान था। कश्मीर के लोग मोटा चावल खाते थे। बिहार के ग्रामीण केसरी दाल खाने को बाध्य थे, जिससे वे रोगग्रस्त रहते थे। मालवा के लोगों को गेहूँ के आटे की व्यवस्था करना बहुत कठिन था, इसलिए वे ज्वार के आटे का प्रयोग करते थे।
मुगलों के शासन काल में इजारेदारी के व्यापक प्रचलन से किसानों पर बुरा प्रभाव पड़ा। क्योंकि इस व्यवस्था के अन्तर्गत किसान इजारा लेने वाले व्यक्ति की दया पर निर्भर होते थे, जिनका उद्देश्य किसानों से अधिक से अधिक कर वसूल करना होता था। अतः साधारण किसान साधन सम्पन्न होे ही नहीं सकते थे। वे बड़ी निर्धनता में अपना जीवन-निर्वाह करते थे।
किसानों द्वारा घोर परिश्रम करने के बाद फसल तैयार होती थी, किन्तु भू-राजस्व एवं अन्य करों तथा चुंगियों को चुकाने के बाद उनके पास इतना अनाज बड़ी कठिनाई से बचता था कि वे अपना तथा अपने परिवार का पेट पाल सकें। किसानों के इस शोषण के विरुद्ध छुटपुट विद्रोह होते थे परन्तु उन्हें निर्ममता से कुचल दिया जाता था। औरंगजेब के काल में सतनामियों और जाटों के विद्रोह इसकी पुष्टि करते हैं। इन विद्रोहों के लिए जहाँ औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता जिम्मेदार थी वहीं किसानों के असन्तोष ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
किसानों द्वारा अपना पेट भरने के लिये केवल एक ही रास्ता था कि वे अधिक से अधिक भूमि पर खेती करें ताकि भूराजस्व चुकाने के बाद इतना अनाज बच जाये कि वे अपने परिवार का पेट भर सकें। सौभाग्य से उस समय देश की जनसंख्या कम थी तथा खेती योग्य भूमि अधिक मात्रा में उपलब्ध थी, इस कारण पूरा परिवार दिन रात हाड़ तोड़ परिश्रम करके अधिक से अधिक अन्न पैदा करता था। जिसका अधिकांश भाग रैयती जमींदार ले जाते थे। किसानों को अपनी अन्य न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिये जंगल से लकड़ी काटनी पड़ती थी तथा पशुओं के माध्यम से भी कमाई करनी पड़ती थी। बहुत से लोग रस्सी, टोकरी, छाज आदि बनाकर बेचते थे। इसलिए शोषण होने पर भी किसान खेती करता रहता था।
मुगलकालीन प्रौद्योगिकी
प्राचीन काल से ही भारत में प्रौद्योगिकी विकास की गति बहुत धीमी रही थी। मुगलकाल में भी प्रौद्योगिकी में विशेष उन्नति नहीं हुई।
धातु प्रौद्योगिकी
इस युग में धातु-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कुछ उन्नति हुई। कांसे, पीतल, लोहे, सोना और चाँदी के बर्तन, मूर्तियाँ बनाने की प्रौद्योगिकी पहले की ही तरह चलती रही। धातु को गर्म करके उसे पीट-पीटकर चद्दरें बनाई जाती थीं और उन चद्दरों से तश्तरियाँ, थालियाँ, कटोरियाँ आदि बनाई जाती थीं। इस काल में पीतल की सुन्दर कलात्मक सुराहियाँ बनाने की तकनीक विकसित हुई। धातु के बर्तनों पर सुन्दर नक्काशी का काम होता था। अच्छी किस्म के शुद्ध लोहे से तलवारें एवं बरछियाँ बनाई जाती थीं। अस्त्र-शस्त्र बनाने की प्रौद्योगिकी तथा आभूषण बनाने की प्रौद्योगिकी में विकास देखा गया।
काष्ठ प्रौद्योगिकी
यद्यपि इस समय तक युद्धों में रथों का प्रयोग कम हो गया था, फिर भी काष्ठ-प्रौद्योगिकी से रथों का निर्माण होता रहा। मुगलों की अपनी कोई नौ-सेना विकसित नहीं हुई थी, फिर भी समुद्र तटीय राज्यों द्वारा अपनी सेनाओं के लिये बड़ी नावों एवं जहाजों का निर्माण किया जाता था। युद्ध के साथ-साथ व्यापारिक आवश्यकताओं के लिये भी बड़ी नौकाओं की आवश्यकता थी। माल ढोने के लिए मालवाहक जहाजों का भी निर्माण किया जाने लगा। इनके अलावा लकड़ी का सुन्दर सजावटी सामान पहले की ही तरह सम्पूर्ण भारत में होता रहा। उसकी तकनीक में कोई विशेष विकास नहीं हुआ।
आभूषण प्रौद्योगिकी
मुगल बादशाह, शहजादे तथा बेगमें आभूषण पहनने एवं रखने के बड़े शौकीन थे इसलिये आभूषण बनाने वाले कारीगर नई-नई डिजाइन के आभूषण तैयार करते थे जिनमें तकनीकी कौशल स्पष्ट दिखाई देता था।
कृषि प्रौद्योगिकी
कृषि प्रौद्योगिकी में सीमित विकास हुआ। अधिकतर खेती पहले की ही तरह वर्षा पर निर्भर थी। बहुत कम संख्या में नदियों पर बांध बनाये गये थे तथा बहुत कम संख्या में नदियों से नहरें निकाली गई थीं। मुगल शासकों ने मध्य एशिया में पैदा होने वाली कुछ फसलों को भारत में उगाने के प्रयास किये। उन्होंने नये फल-फूलों को पैदा करने की तकनीकी विकसित की। खेती के कुछ नये उपकरणों का भी विकास हुआ जिनकी सहायता से आलू की फसल तैयार की जाने लगी तथा अँगूरों की खेती की जाने लगी। भारत में पहली बार तरबूज पैदा किये गये। यद्यपि खेत जोतने के लिए हल का ही प्रयोग किया जाता था किन्तु अब हल के नीचे लोहे के तीखे फलक लगाये जाने लगे जिससे भूमि को अधिक गहराई तक खोदा जा सके। फसल काटने के लिए लोहे की दरांती का प्रयोग किया जाता था। तैयार फसल को खलिहान में साफ करने तथा उससे भूसी निकालने की परम्परागत पद्धति ही काम में ली जाती थी। स्पष्ट है कि कुछ नई फसलें पैदा करने और कुछ नये उपकरणों का निर्माण करने के अतिरिक्त कृषि प्रौद्योगिकी में विशेष प्रगति नहीं हुई।
युद्ध प्रौद्योगिकी
इस काल में युद्ध प्रौद्योगिकी का काफी विकास हुआ। मुसलमानों ने युद्धों में तोपों और बन्दूकों का प्रयोग आरम्भ किया। अतः भारत में तोपें और बारूद बनाने की प्रौद्योगिकी का विकास हुआ। बाबर ने भारत में पहली बार युद्ध क्षेत्र में तुलुगमा पद्धति का प्रयोग किया, जो भारतीय सेनाओं के विरुद्ध अधिक सफल रही। इसलिये अब शत्रु सेना को घेरने की नई रणनीतियों का प्रयोग किया जाने लगा। अब सैनिकों की सुरक्षा के लिए धातु-निर्मित कवचों का प्रयोग अत्यधिक बढ़ गया परन्तु अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण की प्रौद्योगिकी में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ।
वस्त्र प्रौद्योगिकी
मुगल काल में वस्त्र प्रौद्योगिकी, विशेषकर सूती, ऊनी और रेशमी कपड़ा तैयार करने की प्रौद्योगिकी का बहुत विकास हुआ। इस कारण इस काल में वस्त्र उद्योग भारत का सबसे बड़ा उद्योग बन गया। नये प्रकार के कपड़े तैयार होने लगे। ढाका की बनी हुई मलमल पूरे विश्व में अपनी बारीकी के लिए प्रसिद्ध हो गई। ढाका में ऐसे करघे बनाये गये जिनसे बना हुआ कपड़ा अधिक कीमत का होता था। बादशाहों एवं शासक वर्ग के लोगों के लिये लाहौर और लखनऊ में चीकन का कपड़ा तैयार किया जाता था। कालीकट के सिरोंज का कपड़ा अत्यन्त बारीक होता था। रेशमी वस्त्रों पर सोने-चाँदी के तारों से कसीदाकारी की जाती थी। कश्मीर में बहुत ही मुलायम ऊनी शाल बनाये जाते थे। इस काल में कपड़ों की रंगाई और छपाई में नये प्रयोग हुए। रसायनों से रंग तैयार किये जाते थे। बांधनू की रंगाई अत्यन्त प्रसिद्ध थी।
कागज-प्रौद्योगिकी
मुगल काल में कागज प्रौद्योगिकी का विशेष विकास नहीं हुआ। फिर भी दिल्ली, आगरा तथा लाहौर में कागज बनाये जाने का उल्लेख मिलता है। बहुसंख्यक हस्तलेखों से भी कागज की उपलब्धता प्रमाणित होती है। लाहौर तथा आगरा के शाही कारखानों में कागज तैयार किया जाता था। विभिन्न प्रयोगों के लिए विभिन्न प्रकार के कागज बनाने की प्रौद्योगिकी विकसित हुई, जैसे शाही फरमानों के लिए शोभायुक्त कागज तथा व्यापारियों और दलालों के लिए टिकाऊ प्रकार का कागज बनाया जाता था। जिल्दसाजी के लिए मजबूत कागज बनाया जाता था।
चर्म प्रौद्योगिकी
मुगल काल में चमड़े से विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ बनाने की तकनीक का भी विकास हुआ। घोड़ों के लिए काठी, लगाम, तलवार के लिए म्यान, जूते, पानी के मशक आदि वस्तुएं बड़ी मात्रा में बनाई जाती थीं। गुजरात में चमड़े की वस्तुएँ बड़ी मात्रा में बनती थीं जिनका अरब देशों में निर्यात किया जाता था। इस काल में गन्ने से चीनी बनाने की तकनीक विकसित हुई। लाहौर, दिल्ली तथा आगरा चीनी उद्योग के बड़े केन्द्र थे।
स्थापत्य एवं शिल्प प्रौद्योगिकी
मुगल काल में भवन निर्माण, नगर-नियोजन एवं मूर्तियाँ बनाने की प्रौद्योगिकी का अच्छा विकास हुआ। भवन निर्माण प्रौद्योगिकी में मुस्लिम शैली का प्रयोग किया गया। अधिकतर इमारतें लाल पत्थर की बनाई गईं। बड़े-बड़े पत्थरों को काटकर उन्हें उचित आकार देना तथा उन्हें आकर्षक बनाने के लिए उन पर विभिन्न आकृतियों ऊकेरना शिल्पकारों की उच्च तकनीक का प्रमाण हैं। दिल्ली का लाल किला और फतेहपुर सीकरी की इमारतें इस युग की उच्च स्थापत्य एवं शिल्प प्रौद्योगिकी के श्रेष्ठ उदारहरण हैं। कुछ मुगल शासकों तथा उनकी बेगमों के मकबरे संगमरमर पत्थर से बनाये गये। संगमरमर के पत्थरों पर की गई नक्काशी अत्यंत उच्च कोटि की है। मुमताज महल का मकबरा ताजमहल, आबू का देलवाड़ा मन्दिर और फतेहपुर सीकरी में शेख सलीम चिश्ती का मकबरा, संगमरमर के भवन-निर्माण प्रौद्योगिकी के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। यद्यपि मूर्तियां बनाना इस्लाम के विरुद्ध था, फिर भी विभिन्न सूबों में देव प्रतिमाओं का निर्माण होता रहा। संगमरमर के बड़े-बड़े शिलाखण्डों को उचित आकार में काटकर छैनी और हथोड़े से प्रतिमा-निर्माण की प्रौद्योगिकी का भी विकास हुआ। हाथी दाँत के सुन्दर खिलौने और कंगन बनाने की तकनीक मौर्य काल से ही चली आ रही थी। उसमें भी कुछ विकास हुआ।
वनस्पति आधारित प्रौद्योगिकी
सैनिकों को निरंतर लड़ते रहने के लिये अफीम का सेवन करना पड़ता था। मुगल काल में युद्ध निरंतर चलते रहते थे इसलिये अफीम का सेवन भी बहुत बढ़ गया था। इसलिए इस काल में अफीम की खेती भी बढ़ी और उसके पौधे के फूलों से रस निकालकर अफीम तैयार करने की तकनीक भी विकसित हुई। कश्मीर में तथा कुछ अन्य स्थानों पर तिल तथा अरण्डी के बीज से तेल निकालने की तकनीक विकसित हुई। बंगाल और उड़ीसा में पैदा होने वाली लाख से स्त्रियों के लिए चूड़ियाँ, कंगन-कड़े आदि बनाये जाने लगे। गुजरात में इन कंगनों और कड़ों पर रंगीन कांच के टुकड़े लगाकर उन्हें आकर्षक बनाने की कला विकसित हुई। बेंत और बांस के वृक्षों से बांस आदि को छीलकर टोकरी, चटाइयाँ आदि बनाई जाती थीं। माना जाता है कि मुसलमानों ने भारत में शतरंज का खेल प्रचलित किया। मुगल काल में भारत के विभिन्न भागों में शतरंज के पट्टे एवं मोहरे बनाये जाने लगे। लकड़ी एवं हाथी दाँत से चौपड़ की गोटियाँ बनाई जाती थीं।
निष्कर्ष
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि मुगल काल में युद्ध, वस्त्र, भवन, नगर नियोजन, धातु उद्योग, काष्ठ उद्योग, हाथी दाँत उद्योग आदि क्षेत्रों में प्रौद्योगिकी का पर्याप्त विकास हुआ किंतु कृषि क्षेत्र में प्रौद्योगिकी का विशेष विकास नहीं हुआ।
मुगल कालीन उद्योग
मुगल काल में गाँवों तथा नगरीय क्षेत्रों में शिल्पी तथा कारीगर आदि श्रमजीवी जातियां अपने पुराने पारिवारिक एवं परम्परागत कार्यों को करती थीं। उनके औजारों में भी विशेष तकनीकी विकास नहीं हुआ था। इस कारण मुगल काल में किसी भी उद्योग का बड़े पैमाने पर विकास नहीं हुआ। अधिकांश उद्योग स्थानीय थे जो पिता से पुत्र को हस्तान्तरित होते थे। लगातार एक ही काम करते रहने से देश के कई नगर और क्षेत्र अपने विशिष्ट और श्रेष्ठ उत्पादों के लिए विख्यात हो गये थे। फारस की पद्धति के अनुसार राज्य की ओर से कुछ शाही कारखानों की स्थापना की गई थी। जिनमें शाही तथा दरबारी लोगों की आवश्यकता की चीजें बनाई जाती थीं। इनमें सुनार, किमखाब या रेशम तैयार करने वाले, कसीदाकारी करने वाले, चित्रकार, दर्जी, मलमल तथा पगड़ी बनाने वाले आदि अनेक प्रकार के कारीगर होते थे, जो साथ मिलकर काम करते थे। प्रान्तों में भी स्थानीय माँग के अनुसार विभिन्न प्रकार की चीजों को बनाने के कारखाने स्थापित किये गये थे।
वस्त्र उद्योग
यह प्राचीन उद्योग था तथा मुगल काल में सबसे बड़ा उद्योग था जिसका विस्तार सम्पूर्ण देश में हुआ। इसके मुख्य केन्द्र बंगाल, गुजरात, बनारस, उड़ीसा और मालवा थे। मुगल काल में सूरत, काम्बे, पटना, बुरहानपुर, दिल्ली, आगरा, लाहौर, मुल्तान, ठट्टा आदि नगर भी विशेष प्रकार के कपड़े तैयार करने के लिए प्रसिद्ध हो गये थे। नये प्रकार के कपड़ों में बैरामी, शानबफ, शीरीबफ और कत्तने रूमी की शुरूआत हो चुकी थी। ढाका में बनी मलमल पूरे विश्व में अपनी बारीकी के लिए प्रसिद्ध हो चुकी थी। इसकी श्रेष्ठता को देखकर विदेशी यात्री भी चकित हो जाते थे। सोनार गाँव में अति उत्तम प्रकार की मलमल तैयार की जाती थी जिसके एक टुकड़े की कीमत चार हजार रुपये तक होती थी। उत्तम प्रकार की मलमल को बड़े सुन्दर नाम दिये गये थे, जैसे मलमल खास (बादशाह के लिये मलमल), सरकार-ए-आली (नवाबों के लिए निमित्त), आब-ए-रमान (जल-प्रवाह), शबनम (ओस) आदि। ढाका में करघे पर तैयार किये गये कपड़े सबसे अधिक महंगे होते थे। समाना और सुल्तानपुर उत्तम वस्त्रों के लिए विख्यात थे। जौनपुर तो आज भी उत्तम प्रकार की दरियों के लिए विख्यात है। कालीकट के सिरोंज के कपड़े तो इतने बारीक होते थे कि उसे पहनने पर भी आदमी नंगा दिखता था।
कासिम बाजार, माल्दा, मुर्शिदाबाद, पटना, काश्मीर और बनारस रेशम उद्योग के मुख्य केन्द्र थे। गुजरात में रेशम का उत्पादन नहीं होता था किन्तु वहाँ रेशम की बुनाई का काम अच्छा होता था। रेशम से तथा रेशमी, सुनहले सोने तथा चाँदी मढ़े सूतों से सूरत में दरियाँ तैयार होती थीं। गुजरात भी किमखाब, बदला कुर्त्ता, कसीदाकारी के वस्त्र तथा किनारी (चाँदीतार) आदि के लिए प्रसिद्ध था। असम भी रेशमी कपड़ों के लिए प्रसिद्ध था। दक्षिण में कोयंबटूर के निकट रेशम उत्पादन का एक बड़ा केन्द्र था।
ऊन उद्योग
भारत के रेगिस्तानी एवं पहाड़ी क्षेत्रों में भेड़ पालन बड़े पैमाने पर होने के कारण काबुल, काश्मीर तथा पश्चिमी राजस्थान के जोधपुर, जैसलमेर तथा बीकानेर आदि शहर ऊन तैयार करने के प्रसिद्ध केन्द्र थे। उत्तम प्रकार की ऊन तिब्बत से आती थी। काश्मीर के शॉल बहुत मुलायम तथा गर्म होते थे। काश्मीर में शॉल के साथ-साथ विविध प्रकार के ऊनी वस्त्र एवं कम्बल भी तैयार होते थे। लाहौर, आगरा, पटना में भी बड़े स्तर पर शॉल बनते थे। बुरहानपुर, जौनपुर तथा अमृतसर में ऊनी वस्त्र उद्योग खूब फल-फूल गया था।
रंगाई उद्योग
इस काल में रंगाई उद्योग भी खूब विकसित था। लाहौर और उसके आसपास पर्याप्त मात्रा में नील का उत्पादन होता था। दिल्ली सूती वस्त्र रंगने में, विशेष रूप से बांधनू की रंगाई के काम के लिए प्रसिद्ध था। बैना तथा समीपवर्ती क्षेत्रों का रंगाई का काम अति उत्तम माना जाता था। दूसरे दर्जे की उत्तम रंगाई गुजरात में सरखेज तथा गोलकुण्डा में की जाती थी। रंगाई के अन्य महत्त्वपूर्ण केन्द्र आगरा, लखनऊ, अहमदाबाद, फरूखाबाद तथा मछलीपट्टम थे। बंगाल में ढाका तथा कासिम बाजार कपड़ा रंगाई के मुख्य केन्द्र थे।
धातु उद्योग
भारतीय वैदिक सभ्यता से ही धातुओं का उपयोग करना सीख गये थे। मौर्य काल में धातु कला का विस्तार हुआ था। भारतवासी लोहे को शुद्ध करने की प्रक्रिया से अच्छी तरह परिचित थे। समकालीन संस्कृत साहित्य में भिन्न प्रकार के लोहे के गुणों का विवरण मिलता है। मुगल काल में लोहा, ताम्बा, पीतल, सोना, चाँदी, जस्ता आदि विभिन्न धातुओं का बड़े स्तर पर उपयोग होता था। लोहे का उपयोग धारिया, तलवारें, हथियार तथा बरछे बनाने में होता था। सर्वोत्तम इस्पात का उपयोग तलवारों और बरछों के निर्माण में होता था, जिनकी अरब तथा फारस के देशों में बड़ी माँग थी। श्रीनगर, लाहौर, आगरा, मुल्तान, वजीराबाद, भड़ौंच, ढाका तथा चटगाँव में नावें, रथ तथा लकड़ी की कई प्रकार की सामग्री बनाई जाती थीं। मुगलों के पास नियमित नौ-सेना नहीं थी, अतः जहाजों के निर्माण को अधिक प्रोत्साहन नहीं मिला, फिर भी लाहौर, वजीराबाद, कोरोमण्डल तट पर मडापल्लम तथा नसीपुर में मालवाहक जहाजों का निर्माण और उनकी मरम्मत होती थी।
कागज उद्योग
मुगल काल में कागज के प्रयोग का उल्लेख मिलता है किंतु यह उद्योग अधिक विकसित अवस्था में नहीं था। अमीर खुसरो ने कोरे तथा रेशम की भाँति शमी तथा सीरियन कागज के दिल्ली में बनाये जाने का उल्लेख किया है। चीनी यात्री माहुआन, जिसने सुल्तान गियासुद्दीन आजमशाह के काल में बंगाल का भ्रमण किया था, ने वृक्ष की छाल से श्वेत चमकीले कागज के उत्पादन का उल्लेख किया है। बहुसंख्यक हस्तलेखों से भी कागज की उपलब्धता का प्रमाण मिलता है। कागज निर्माण के मुख्य केन्द्र पटना, दिल्ली, राजगीर, शहजादपुर, सियालकोट, मानसिंघी तथा खरपुरी में थे। मानसिंघी कागज को उसकी रेशमी बनावट, श्वेत रंग तथा टिकाऊ होने से बहुत पसन्द किया जाता था। लाहौर तथा आगरा में स्थापित शाही कारखाने भी कागज का उत्पादन करते थे। सर्वोत्तम कागज कश्मीर में बनता था। विभिन्न प्रकार के कागज विभिन्न प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होते थे। शोभायुक्त कागज का उपयोग शाही फरमानों के लिए होता था, टिकाऊ प्रकार के कागज का प्रयोग व्यापारियों तथा दलालों के लेखा के निमित्त तथा बुद्धिजीवियों द्वारा होता था और जिल्दसाजी के लिए मोटे तथा मजबूत कागज का प्रयोग होता था। सामान्यतः प्रान्तांे तथा बड़े नगरों के बाहर कागज बनाने का छोटा गाँव होता था, जिसे कागजी मोहल्ला अथवा कागजीपुर कहा जाता था। फरूखाबाद में आज भी कागजी बाजार नाम की एक गली है।
चमड़ा उद्योग
मुगलकाल में चमड़े के विभिन्न प्रकार के सामान का उपयोग होता था। जूते, चमड़े के जैकेट, तम्बू, घोड़ों के लिए काठी तथा लगाम, तलवार के लिए म्यान, ढाल, सामान रखने के थैले, चटाई, पानी की मशक, बैलगाड़ियों के पर्दे आदि के लिये चमड़े की मांग रहती थी। बंगाल में चमड़े का उपयोग विदेशों को निर्यात की जाने वाली चीनी की पैकिंग में किया जाता था। सिन्ध में बने चमड़े के सामान उत्तम माने जाते थे। दिल्ली में भी सम्पन्न चमड़ा उद्योग स्थापित था। कैंबे, चप्पलों के लिए प्रसिद्ध था। गुजरात सोने और चाँदी से कढ़ी चमड़े की चटाइयों के लिए प्रसिद्ध था। वहाँ चमड़े की वस्तुएँ बड़ी मात्रा में बनती थी जिनका अरब देशों को निर्यात होता था। असम के जंगलों में सांडों तथा हिरणों की बहुतायत से चमड़ा उद्योग विकसित अवस्था में था। पश्चिमी राजस्थान में भी चमड़े की युद्धोपयोगी एवं घरेलू उपभोग की विविध सामग्री बनती थी।
चीनी उद्योग
चीनी की खपत देशभर में प्रचुर मात्रा में होती थी। चीनी गन्ने से तैयार की जाती थी, जो लाहौर से आगरा तक के समस्त क्षेत्र में तथा बंगाल, अजमेर एवं मालवा तक विस्तृत बहुत बड़े क्षेत्र में पैदा किया जाता था। उत्तम प्रकार की चीनी लाहौर, दिल्ली, बियाना, कालपी, पटना तथा आगरा में बनाई जाती थी। पटना में बनने वाली चीनी बंगाल को निर्यात की जाती थी।
मिट्टी के खिलौने एवं बर्तन उद्योग
मुगल काल में मिट्टी के बर्तन बनाने का काम पूरे देश में होता था। बुरहानपुर, वैलोर, कुम्भाकोनम तथा महरई चमकीले बर्तनों के लिए प्रसिद्ध थे। मिट्टी के बर्तनों पर चमकीले कलात्मक तथा शोभायुक्त डिजाइन बनाते थे। दिल्ली, लखनऊ और काश्मीर इस उद्योग के मुख्य केन्द्र थे। इस प्रकार मिट्टी के बर्तन बनाने का उद्योग देशभर में व्याप्त था किंतु मिट्टी की मूर्तियाँ एवं खिलौने बनाने का उद्योग मुगल काल में लगभग बंद हो गया। इसका मुख्य कारण इस्लाम का प्रसार था जिसमें आदमी तथा जानवरों के बुत एवं चित्र बनाने का निषेध था। फिर भी केन्द्रीय एवं प्रांतीय राजधानी से दूर स्थित ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों के खिलौने बनाने का काम होता रहा।
कृषि आधारित उद्योग
मुगलकाल में विभिन्न कृषि उत्पादनों- नारियल, गिंगली, तिल तथा अरण्डी के बीज से तेल निकालने के उद्योग विकसित अवस्था में थे। खुशबूदार तेल, इत्र, मसाले, दवायें, शरबत आदि भी बनते थे। नूरजहाँ ने इत्र एवं खुशबूदार तेल बनाने के क्षेत्र में कई नये प्रयोग किये। मूंझ की रस्सी बनाकर उससे चारपाइयां एवं चटाइयां बुनी जाती थीं। सिरकियों से चटाइयां एवं टट्टियां बनाई जाती थीं। खस की टट्टियां भी बड़े पैमाने पर बनती थीं।
विविध उद्योग
मुगल काल में पत्थर पर नक्काशी करने, कांच की बोतलें बनाने तथा जालीदार झरोखे एवं खिड़कियां तैयार करने के काम बड़े स्तर पर होते थे जो बादशाहों एवं अमीरों के मकानों में काम आते थे। काश्मीर लकड़ी के विभिन्न उत्पादों के लिये प्रसिद्ध था। बेंत एवं बाँस से टोकरी, चटाई, छतें तथा झौंपड़ी बनाने तथा सजाने का काम होता था। बंगाल तथा उड़ीसा में लाख पैदा होता था। इससे स्त्रियों के कंगन, कड़े तथा बच्चों के खिलौने बनाये जाते थे। इसका मुख्य उद्योग गुजरात में था। हाथी दाँत का काम करने वाले जड़ाऊ तथा अन्य प्रकार की वस्तुएँ बनाने में बड़े निपुण थे। इनमें कड़े, कंगन, शतरंज के पट्टे तथा शतरंज के मोहरे मुख्य थे। दिल्ली तथा पूर्वाेत्तर मुल्तान इस कार्य के लिए प्रसिद्ध थे। देश के विभिन्न भागों में विविध प्रकार के आभूषण बनाने एवं उन पर मीनाकरी तथा पच्चीकारी करने का काम बड़े पैमाने पर होता था। विदेशी यात्री नूनीज ने 1509 ई. से 1529 ई. के बीच विजयनगर का भ्रमण किया था। उसने लिखा है कि भारत में हाथी दाँत के गुटके बनाये जाते थे जिन पर सोने की पच्चीकारी की जाती थी।
मुगल काल में आन्तरिक एवं बाह्य, दोनों प्रकार का व्यापार उन्नति पर था। पुरातन समय से ही भारत के बाह्य देशों के साथ वाणिज्यिक सम्बन्ध थे। देश की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के पश्चात् जो सामग्री शेष बचती थी, उसका बाह्य देशों में निर्यात कर दिया जाता था। यातायात एवं परिवहन की समस्या व्यापारियों तथा सामान ले जाने वाले साधनों से पूर्ण होती थी। देश में व्यापार के लिए अनेक सड़कें तथा रास्ते थे, जो सरकार द्वारा सुरक्षित रखे जाते थे। इन सड़कों से युद्ध के समय विशाल सेनाएँ गुजरती थीं। उस समय भाप के जहाज के अभाव के कारण समुद्री व्यापार खतरनाक था, फिर भी व्यापारी तथा विदेशी सौदागर माल बाहर ले जाते थे।
विदेशी व्यापार
सल्तनतकाल में भारत का व्यापार प्रशान्त महासागर और भू-मध्यसागर के देशों तक फैला हुआ था। अरबी यात्री भारत के माल को इन देशों में ले जाकर बेचते थे और वहाँ से सोना, रत्न, मोती, खजूर, घोड़े आदि विविध सामान भारत में लाते थे। मुल्तान और काश्मीर के रास्ते एशियाई देशों के साथ थल मार्ग से व्यापार होता था। लाहौर, मुल्तान, लाहरीबन्दर (सिन्ध में), कैम्बे, पटना, आगरा आदि में बड़े बाजार थे जहाँ विदेशों से वस्तुएँ आती थीं और देश के विभिन्न भागों में भेजी जाती थीं। विदेशी व्यापार दो मार्गों से होता था- (1) समुद्री मार्ग तथा (2) स्थल मार्ग द्वारा।
विदेशी व्यापारी नील, शोरा तथा बुने हुए वस्त्रों के बदले सौंदर्य एवं प्रसाधन सामग्री भारत लाते थे। इस सामग्री को गुजरात, दिल्ली, आगरा, राजस्थान तथा मालवा के बाजारों में बेचा जाता था।
समुद्री व्यापार
अधिकतर समुद्री व्यापार ‘अफ्रीकी’ व्यापारियों के हाथ में था। कुछ सीमा तक इस व्यापार पर उनका एकाधिकार था। भारत को पश्चिमी देशों के साथ मिलाने वाले दो मुख्य सीधे समुद्री मार्ग थे- एक तो फारस की खाड़ी वाला तथा दूसरा लाल समुद्र वाला। लाल समुद्री मार्ग खतरनाक चट्टानों, पथरीले मार्गों एवं कोहरा आदि बाधाओं के कारण दुष्कर था। अतः नाविक तथा सौदागर फारस की खाड़ी वाले मार्ग को अधिक पसन्द करते थे। यह मार्ग ईराक में बगदाद से चीन में कैण्टन तक जाता था। अरब यात्री इब्नबतूता (1333-1346 ई.) को अदन में हिन्दू सौदागरों के बहुत से जहाज मिले। उनमें कैम्बे, किलन तथा कालीकट आदि कई बन्दरगाहों से माल लाया गया था। वहाँ से भारतीय माल अफ्रीका के समुद्री तट दमिश्क और सिकंदरिया तथा यूरोप के विभिन्न देशों को ले जाया जाता था। इन बन्दरगाहों से भारतीय माल चीन, लंका, इण्डोनेशिया तथा भारतीय टापुओं को जाता था।
मुगल काल में भारत में अनेक महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह थे जहाँ विश्व के विभिन्न भागों से बड़ी संख्या में व्यापारी आते थे। पश्चिमी सीमा में लहारीबन्दर, गुजरात में कैंबे, गोआ और कोचीन तथा पूर्वी तटीय मछलीपट्टम, पुलीकट तथा नजरकटन एवं बंगाल में हुगली, सतगाँव, श्रीपुरा तथा चटगाँव आदि बंदरगाह उल्लेखनीय थे। अरब तथा फारस के जहाज खजूर, फल, घोड़ों, समुद्री मोतियों तथा रत्नों को लेकर भारत आते थे और उनके बदले में गुड़, चीनी, मक्खन, जैतून के फल, नारियल तथा कपड़े ले जाते थे। विविध प्रकार की धातुओं से बने बर्तन और विभिन्न प्रकार की विलास की वस्तुएँ भी भारत से निर्यात की जाती थीं। अफगानिस्तान, फारस तथा मध्य एशिया के साथ मुल्तान, कोटा तथा खैबर दर्रे के रास्ते से स्थल मार्ग व्यापार के अतिरिक्त माल कारोमण्डल, समुद्री तट के रास्ते से फारस ले जाया जाता था।
मुगल काल में भारतीय निर्यात की मुख्य वस्तुएँ, सूती कपड़ा, अनाज, तेल के बीज, ज्वार, चीनी, चावल, नील, सुगंधित पदार्थ, सुगन्धित लकड़ी तथा पौधे, कर्पूर, लवंग, नारियल, विभिन्न जानवरों की खालें, गेंडे तथा चीते की खाल, चंदन की लकड़ी, अफीम, काली मिर्च तथा लहसुन थे। विदेशों में भारतीय कपास से बने कपड़ों की बड़ी माँग थी। यह माँग जावा, सुमात्रा, बोड़ा, मलाया, बोर्नियो, अकनि, पेगु, स्याम, बेटम आदि पूर्वी देशों तक ही सीमित नहीं थी, अपितु पश्चिमी देशों में भी भारतीय सूती कपड़े की पर्याप्त माँग थी। वर्थया ने भारत भ्रमण (1503-1508 ई.) के विवरण में लिखा है कि गुजरात की कैम्बे तथा बंगाल की बंगला दो बंदरगाह समस्त फारस, तातार, तुर्की, सीरिया, बर्बरी अर्थात् अफ्रीका, अरब, फेलिक्स, इथोपिया तथा भारत के समुद्रों के अनेक टापुओं को रूई तथा सिल्क के विभिन्न प्रकार के सामान भेजते थे। उसने कैम्बे से हर वर्ष जाने वाले पृथक्-पृथक देशों के तीन जहाजों का उल्लेख किया है। अनुमान है कि बंगाल से रूई तथा रेशम के 50 जहाज निर्यात होते थे। बिहार तथा मालवा में अफीम की पैदावार होती थी जो राजपूताना, बरार तथा खानदेशों को भेजी जाती थी। यहाँ से वह अफीम पेगु (लोअर बर्मा), जावा, चीन, मलाया, फारस एवं अरब देशों को भेजी जाती थी।
भारत में मुगल काल में सोने तथा चाँदी की खानें नहीं थीं इसलिये ये धातुएं विदेशों से आयात की जाती थीं। इन धातुओं को भारत से बाहर भेजे जाने पर रोक थी। विदेशी व्यापारी सोना तथा चाँदी लेकर आते थे और उसके बदले में बहुत सी वस्तुएँ ले जाते थे। सोना मुख्यतः चीन, जापान, मलक्का, तथा अन्य समीपवर्ती देशों से, मूँगा पेगु से तथा मोती और विभिन्न प्रकार के रत्न फारस तथा अरब से आते थे।
स्थलीय व्यापार
मुगलों के शासन काल में थल मार्ग से सीमांत देशों के साथ होने वाले व्यापार में अभूतपूर्व प्रगति हुई। बाबर के अनुसार भारत और काबुल के बीच सफल व्यापार होता था। भारत, अपने सीमांत देशों, मध्य एशियाई देशों और अफगानिस्तान से सूखे मेवे, ताजे फल, अम्बर हींग, खुरखुरे लाल पत्थर आदि का आयात करता था तथा इसके बदले में कपड़े, कम्बल, चीनी, नील, औषधि सम्बन्धी जड़ी-बूटी आदि का निर्यात करता था। हिमालय के राज्यों तथा तिब्बत से कस्तूरी, चीनी लकड़ी, खेतचीनी, अमीरा (आँखों की एक मूल औषधि), जेद, बढ़िया ऊन, सोना, ताँबा, सीसा, तिब्बती गाय की दुम, शहद, सोहागा, मोम, ऊनी सामान तथा बाज पक्षी से लदे हुए काफिले भारत आते थे। नेपाल से भारत को पशु तथा सींग, कस्तूरी, सोहागा, चिरैता (औषधि की जड़ी-बूटी), मजीह (रंग), इलायची, चौरीस (तिब्बती गाय की दुम), महीन रोयें, बाज पक्षी तथा बालचर (सुगंधित घास) आते थे। इनके बदले में तैयार वस्त्र, नमक, धातु, चीनी, मसाले आदि नेपाल को जाते थे। भूटान से भारत को कस्तूरी तथा तिब्बती गाय की दुम आते थे। पुर्तगाली डाकुओं के कारण पेगु के साथ भारत का व्यापार बहुत सफल नहीं था। पेगु को भारत में बुने हुए कपड़े के थान, सूत तथा अफीम का निर्यात होता था। इसके बदले में सोने, चाँदी तथा मूल्यवान पत्थर भारत आते थे। खुरासानी व्यापारी तुर्की गुलामों और सुस्त्री नामक कपड़े का व्यापार करते थे। बाबर और हुमायूँ के काल में इस व्यापार की काफी उन्नति हुई। तुर्किस्तान में रहने वाले अजाक लोग भारत को निर्यात करने के लिए घोड़े पालते थे। 6,000 अथवा इससे अधिक के झुण्डों में घोड़े भारत भेजे जाते थे। अरब यात्री इब्नबतूता ने वर्णन किया है कि हीरमुज, अदन, क्रीमिया तथा अजाक से अच्छी नस्ल के घोड़े भारत को भेजे जाते थे। इन घोड़ों को सिंध तथा मुल्तान दोनों स्थानों में पाला जाता था।
व्यापार सन्तुलन
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि व्यापार का सन्तुलन भारत के पक्ष में था। विभिन्न देशों के व्यापारी भारतीय बन्दरगाहों पर आते थे तथा उपयोगी वस्तुएँ, जड़ी-बूटियाँ और गोंद के बदले में सोना तथा रेशम देते थे। यह क्रम मौर्यों के समय से चल रहा था जो कि मुगलों के समय में भी चलता रहा। इसीलिए भारत में सोने और चाँदी का विपुल भण्डार हो गया। इसी विपुल सम्पदा के कारण विदेशी आक्रान्ता भारत की ओर आकर्षित होते थे।
विदेशी तथा भारतीय व्यापारी
आन्तरिक व्यापार
भारत के समुद्री व्यापार में अरब तथा तुर्की के व्यापारी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। खुरासानी व्यापारी चीन, फारस, अरब तथा भूमध्य स्थित देशों एवं भारत के साथ थल व्यापार में बड़े सक्रिय थे। उत्तर भारत के मुल्तानी, गुजराती, बनिये, राजपूताना, मध्य भारत तथा गुजरात के बंजारे आदि ऐसे व्यापारी थे जो दूर देशों के साथ व्यापार करते थे। उनमें से कइयों के पास अपने बड़े जहाज थे। इटली के यात्री निकोलो कोंटी (1419-1444 ई.) का कहना है कि इन व्यापारियों में से एक व्यापारी इतना धनाढ्य था कि उसके पास अपना माल ढोने के 40 जहाज थे। भारतीय व्यापारी अधिकतर व्यापार पूर्वी अफ्रीका, लाल समुद्री बन्दरगाहों, फारस की खाड़ी के देशों तथा दक्षिणी पूर्वी एशिया के भागों, विशेषकर सुमात्रा तक करते थे। दिल्ली सल्तनत के सुल्तान तथा उनके उत्तरवर्ती मुगल विदेशी व्यापार के हक में नहीं थे। इन मुसलमान शासकों ने भारतीय व्यापारियों के हितों की रक्षा भी नहीं की। 1547 ई. में एक समझौते के द्वारा विजयनगर का समुद्री व्यापार पुर्तगालियों के कारण सुरक्षित नहीं था। भारतीय व्यापारियों को अपनी सुरक्षा की व्यवस्था स्वयं करनी पड़ती थी। भारत के विदेशी व्यापार में वृद्धि के लिये विदेशी व्यापारी ही मुख्य रूप से उत्तरदायी थे। जब वास्को-डी-गामा ने 1498 ई. में अन्तरीप द्वीपसमूह का मार्ग ज्ञात किया था, उसके बाद लगभग एक शताब्दी तक भारतीय समुद्री व्यापार पर पुर्तगालियों का एकाधिकार रहा। पुलीकट, कासिम बाजार, पटना, बेलसर, नाजपट्टम तथा कोचीन में उनके मुख्य कारखाने थे। अरब वाले, जो पहले इस व्यापार में बहुत भाग लेते थे, अब भारत के साथ होने वाले समुद्री व्यापार से लगभग पूरी तरह हटा दिये गये।
विदेशी यात्रियों के वर्णनों में तथा समकालीन भारतीय साहित्य में भारत के आन्तरिक व्यापार की जानकारी मिलती है। प्रत्येक नगर में एक बाजार होता था। नियत अंतरालों पर समीपवर्ती गाँवों तथा कस्बों से पर्याप्त लोग तथा व्यापारी इन बाजारों में आते थे और खूब व्यापार होता था। फेरी लगाकर माल बेचने वाले तथा अन्य प्रकार के व्यापारी बहुत थे जो उपभोक्ताओं की जरूरतें पूरी करते थे। राजपूताने के बनजारे हर प्रकार की चीजें जैसे अनाज, चीनी, मक्खन तथा नमक बैलगाड़ियों पर लादकर एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाते थे। कई बार ये काफिले 40,000 बैलों के हो जाते थे। अन्य व्यापारी भी समूहों में विचरण करते थे। वे मुल्तान, लाहौर और दिल्ली जैसी बड़ी राजधानियों के बाजारों से व्यापार करते थे।
उत्तर भारत में व्यापार गुजरातियों तथा मारवाड़ी बनियों के द्वारा एवं दक्षिण में चेतियों के द्वारा होता था। कुछ चलती-फिरती दुकानें होती थीं, जो घोड़े की पीठ पर लगाई जाती थीं। महत्त्वपूर्ण वस्तुओं का व्यापार नगर की मंडियों में होता था। बड़े पैमाने का व्यापार कुछ विशेष वर्ग तक सीमित था। भारत के महत्त्वपूर्ण व्यापारी गुजराती और मुल्तानी थे। विदेशों से आने वाले मुसलमान व्यापारियों को खुरासानी कहा जाता था। ये देश के समस्त भागों में व्यापार करते थे। बड़े-बड़े उद्योगों पर दलालों का दबदबा था।
परिवहन के साधन
मुगल काल में परिवहन के दो प्रमुख साधन थे। व्यापारिक माल प्रायः सड़कों से ले जाया जाता था। उस काल की सड़कें कच्चे मार्ग से अधिक नहीं होती थीं जिनके दोनों ओर छायादार पेड़ होते थे। यात्रियों की सुविधा के लिए स्थान-स्थान पर सराय तथा विश्रामगृह बनाये जाते थे तथा पशुओं के लिए पेयजल की व्यवस्था की जाती थी। यात्रियों को मार्ग दिखाने की सुविधा के लिए छोटी-छोटी अटारी अथवा मीनारें बनी हुई थीं। राजपूताने के भाट भी खतरनाक सड़कों पर काफिलों का मार्गदर्शन तथा सुरक्षा करते थे और उनसे पारिश्रमिक लेते थे। व्यापारिक माल के परिवहन का दूसरा माध्यम नदी थी, जो अपेक्षाकृत सस्ता था। आगरा से मुल्तान के लिए गाड़ी भाड़ा दो रुपये प्रति मन था, जबकि मुल्तान से सिंध का नाव का भाड़ा डेढ़ रुपये प्रति मन था। काश्मीर, बंगाल, सिंध तथा पंजाब में अधिकांश माल नदी मार्ग से ले जाया जाता था। लगभग समस्त बड़ी नदियों, विशेषकर गंगा, यमुना तथा झेलम से पर्याप्त परिवहन होता था। राल्फ फिच (1513-31 ई.) ने 180 नावों के बेड़े में आगरा से बंगाल तक की यात्रा की थी। थट्टा से लाहौर तक जाने में 6-7 सप्ताह का समय लगता था, जबकि वापसी यात्रा में केवल 18 दिन लगते थे।
आन्तरिक व्यापार पर अधिकारियों द्वारा स्थान-स्थान पर चुँगी ली जाती थी, उनके विभिन्न नाम- तमगा अथवा जाकट आदि होते थे। चुँगी के अतिरिक्त समस्त बड़े बाजारों तथा बन्दरगाहों पर भी लगभग ढाई प्रतिशत शुल्क देना पड़ता था। व्यापार को प्रभावित करने वाला दूसरा पहलू सड़कों पर सुरक्षा की व्यवस्था थी। मुगल बादशाहों ने सड़कों को सुरक्षित बनाने के लिये कई उपाय किये और डाकू तथा लुटेरों को कठोर दण्ड देने की व्यवस्था की परन्तु व्यापारियों में फिर भी भय बना रहता था। इस कारण वे काफिलों में शस्त्रों एवं रक्षकों सहित यात्रा करते थे।
अन्तर-प्रादेशिक व्यापार
मौर्य काल से ही भारत के विभिन्न प्रदेशों के बीच अन्तर-प्रादेशिक व्यापार होता आया था। मुगल काल में भी यह व्यापार थोड़ी बहुत बाधाओं के साथ चलता रहा।
बंगाल
मुगल काल में बंगाल से चावल, चीनी तथा मक्खन आदि खाद्य सामग्री, समुद्री मार्ग से कोरोमंडल, केपकामरिन होते हुए कराची तक भेजी जाती थी। बंगाल से गुजरात को चीनी तथा दक्षिण भारत को गेहूँ भेजा जाता था।
बिहार
मुगल काल में पटना एक प्रसिद्ध व्यापारिक नगर था। पटना से देश के विभिन्न भागों को चावल और रेशम भेजा जाता था जिसके बदले में पटना को देश के विभिन्न भागों से गेहॅँू, चीनी तथा अफीम प्राप्त होती थी।
आगरा
आगरा विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के आयात एवं निर्यात के लिए प्रसिद्ध केन्द्र था। यह बंगाल और पटना से कच्ची सिल्क तथा चीनी और पूर्वी सूबों से चावल, गेहूँ तथा मक्खन का आयात करता था। आगरा, देश तथा विदेशों में उत्तम प्रकार के नीले रंग के लिए बहुत प्रसिद्ध था। इसके समीपवर्ती क्षेत्रों, जैसे- हिंदुआन, बयाना, पंचूना, बिसौर तथा खानवा में गेहूँ की उपज होती थी। यहाँ से गेहूँ भारत के समस्त बन्दरगाहों तथा विदेशों को भेजा जाता था। यूरोपीय यात्री राल्फ फिच ने लिखा है- ‘आगरा एक विशाल नगर है। यह लन्दन से भी बड़ा और घना बसा हुआ है। इसके बाजार व्यापारियों से परिपूर्ण रहते हैं।’
लाहौर तथा मुल्तान
उत्तर-पश्चिमी भारत का सबसे बड़ा नगर लाहौर था। उसके बाद मुलतान का नम्बर आता था। काबुल, कांधार तथा फारस से होने वाला समस्त व्यापार मुल्तान तथा लाहौर से होकर होता था। इस कारण मुल्तान और लाहौर व्यापार के महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गये थे। मुल्तान चीनी, अफीम, सूती माल, गंधक तथा ऊँटों के लिए प्रसिद्ध था। लाहौर दरियों के लिए प्रसिद्ध था। फादर माँन्सेरेट ने लाहौर का वर्णन करते हुए लिखा है- ‘सम्पन्नता, जनसंख्या और क्षेत्रफल की दृष्टि से लाहौर, एशिया अथवा यूरोप के किसी नगर की तुलना में बड़ा है, जहाँ के बाजारों में सम्पूर्ण एशिया के व्यापारियों की भीड़ रहती है। इसकी आबादी इतनी अधिक है कि इसकी गलियों में लोग एक-दूसरे से भिड़ते हुए चलते हैं।’ एडवर्ड टैरी ने लिखा है- ‘लाहौर पंजाब का मुख्य नगर है। यह बहुत विशाल है जो व्यक्तियों एवं सामग्रियों से परिपूर्ण है। यह भारत में सबसे बड़ा और प्रसिद्ध व्यापारिक नगर है।’
गुजरात
गुजरात मुगल काल में भी वाणिज्य का बड़ा केन्द्र बना रहा। प्राकृतिक संसाधनों तथा वाणिज्य ने इसे भारत का धनी सूबा बना दिया। यह कपड़े की बुनाई का बड़ा केन्द्र था। गुजरात में तैयार किये गये कपड़ों के थान गुजरात के मुख्य बन्दरगाह कैंबे द्वारा दक्षिण-पूर्व एशिया तथा भारत के दूसरे भागों, विशेषकर आगरा को भेजे जाते थे। गुजरात में मालवा और अजमेर से गेहूँ तथा दक्षिणी राज्यों एवं मलाबार से चावल मँगवाया जाता था। गुजरात से आगरा तथा केरल को रूई तथा सूत्री वस्त्र और थट्टा को तम्बाकू भेजा जाता था। गुजरात के प्रमुख नगर कैंबे के बारे में बारबोसा ने लिखा है- ‘यह एक बड़ा और भव्य नगर है जिसमें अधिक व्यापारी और पूँजीपति लोग रहते हैं- दोनों हिन्दू और मुसलमान।यहाँ नाना प्रकार के यन्त्र सम्बन्धी निपुण शिल्पकार हैं।’ कैंबे गुजरात का प्रसिद्ध बन्दरगाह भी था, जहाँ से समुद्री व्यापार होता था। गुजरात में बने हुए कपड़े का निर्यात इसी बन्दरगाह से होता था। अहमदाबाद भी गुजरात का एक अन्य प्रसिद्ध नगर था।
बीदर
बीदर, जो लगभग एक शताब्दी तक बहमनी राज्य की राजधानी था, आंतरिक व्यापार का महत्त्वपूर्ण बाजार था। यह बाजार बूँटेदार कपड़े तथा सोने और रत्न जड़ित आभूषणों के लिए प्रसिद्ध थे। बीदर का बूँटेदार कपड़ा बिदरी वेयर के नाम से प्रसिद्ध था। जो ताँबे, सीस तथा रांगे का सम्मिश्रण होता था तथा सोने तथा आभूषणों से जड़ित होता था।
सिंध
मुगलकाल में सिंध से गेहूँ, जौ, सूती कपड़े तथा घोड़े, भारत के विभिन्न भागों में भेजे जाते थे। इनके बदले में भारत के विभिन्न भागों से सिंध को चावल, चीनी, गन्ना, इमारती लकड़ी तथा मसाले भेजे जाते थे। सिंध में काश्मीर, गुजरात, रावलपिंडी तथा लद्दाख से नमक मंगवाया जाता था तथा भारत के विभिन्न भागों से अच्छे चावल, चौड़े वस्त्र, गेहूँ, दवाएँ, चीनी, आम, लोहा, ताँबा, पीतल के बर्तन, शीशे का सामान, सोना, चाँदी तथा विलास की सामग्रियाँ भी मँगवाये जाते थे। सिंध से आगरा तथा अन्य स्थानों को शॉल, ऊन तथा शोरा निर्यात किया जाता था।
केरल एवं मलाबार
केरल काली मिर्चों का निर्यात करता था तथा उसके बदले में अफीम का आयात करता था। पुलीकट का छपा हुआ कपड़ा बहुत बढ़िया होता था जो गुजरात तथा मलाबार तट को भेजा जाता था। गुजरात तथा मलाबार के बीच काफी व्यापार होता था। विजयनगर मलाबार से नारियल, इलायची तथा अन्य मसाले, कीमती पत्थर, मोम तथा लोहा, खजूर तथा चीनी का आयात करता था।
कोरोमण्डल तथा विजयनगर
दक्षिण में विजयनगर प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था। कारोमण्डल तथा विजयनगर का तटवर्ती व्यापार मलाबार के व्यापारी चलाते थे। यहाँ आयात की जाने वाली चीजों में रंगीन कपड़े, धातु, गुलाबजल, अफीम, चंदन की लकड़ी, मूंगा , पारा, केसर, कपूर, सिन्दूर, कस्तूरी, सुपारी, नारियल, काली मिर्च, खजूर, चीनी, कैंबे का कपड़ा तथा घोड़े सम्मिलित थे। यहाँ से चावल और कपड़े का निर्यात होता था। 15वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में भटकल के दक्षिणी बन्दरगाह तथा विजयनगर में बहुमूल्य पत्थर की बड़ी मांग थी, वह दक्षिणी राज्यों से हीरे, और भुज तथा कायल से मोती, पेगु और लंका से दूसरे महँगे पत्थरों का आयात करता था। विजयनगर के व्यापारी पुलीकट से बर्मी लाल रत्न तथा कस्तूरी लाते थे। विजयनगर में मलाबार से काली मिर्च मँगवाई जाती थी।
वाणिज्य एवं व्यापार के अन्य प्रमुख केन्द्र
मुगल काल में अजमेर, राजपूताने का प्रसिद्ध नगर था। यहाँ से मलाबार तथा अन्य स्थानों को गेहूँ भेजा जाता था। इनके अलावा जौनपुर, बुरहानपुर, लखनऊ, खैराबाद आदि भी प्रसिद्ध व्यापारिक नगरीय केन्द्र थे। दक्षिण भारत में गोलकुण्डा एक महत्त्वपूर्ण वाणिज्यिक नगर था जिसका गोआ, मछलीपट्टम और सूरत के बन्दरगाहों से सीधा सम्पर्क था।
निष्कर्ष
मुगलकालीन भारत में अन्तर्राज्यीय और अन्तर्राष्ट्रीय दोनों प्रकार के व्यापार उन्नत अवस्था में थे। स्थल और जलमार्ग द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक सामान जाता करता था। ह्नेनसांग ने भी अपने यात्रा-वर्णन में लिखा है कि सड़कों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक सामाना आया-जाया करता था। स्वयं ह्नेनसांग ने एक व्यापारिक जहाज से यात्रा की थी। उज्जैन, कन्नौज, पाटलिपुत्र (पटना), मथुरा, अयोध्या और काशी व्यापारिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण नगर थे। मध्य एशिया, चीन, अरब और तिब्बत से बहुत पहले से व्यापार किया जाता था। बाह्य देशों से व्यापार थलमार्ग और सामुद्रिक मार्ग से होता था। ताम्रलिप्ति भी प्रसिद्ध बंदरगाह था जिसके विषय में ह्नेनसांग ने लिखा है कि इस बंदरगाह में व्यापार की वस्तुएँ एकत्रित रहती थीं। इस काल में उद्योग काफी विकसित थे। इन उद्योगों द्वारा उत्पादित माल विदेशों को निर्यात होता था। यहाँ से निर्यात होने वाली प्रमुख वस्तुओं में चन्दन की लकड़ी, नारियल, चीनी, कपड़ा, मलमल, हाथी-दाँत, मोती और बहुमूल्य पत्थर आदि थे। यहाँ आयात की जाने वाली वस्तुओं में शराब, घोड़े, खजूर, पोस्तीन, मूँगा और रेशमी कपड़े होते थे। इस प्रकार देश की आर्थिक स्थिति अत्यन्त सुड़ौल एवं विकसित थी।
इस अध्याय में भारत के अन्तर्प्रादेशिक आंतरिक व्यापार का अत्यंत संक्षिप्त वर्णन किया गया है। विस्तृत वर्णन करना सम्भव नहीं है, क्योंकि देश के विभिन्न भागों के बीच विशेषकर प्रांतीय राजधानियों एवं विभिन्न राज्यों की राजधानियों के बीच बहुत बड़े पैमाने पर व्यापार होता था।
यदि हिन्दू धर्म के अवतारवाद के दर्शन को अच्छी तरह से समझ लिया जाए तो यह गुत्थी बड़ी सरलता से सुलझ जाती है कि वैदिक ऋषि भगवान बुद्ध और शाक्यमुनि गौतम बुद्ध अलग-अलग हैं!
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हिन्दुओं को नरेन्द्र मोदी सरकार से सबसे पहली अपेक्षा यह है कि भारत में अवैध रूप से निवास कर रहे प्रत्येक रोहिंग्या को देश से बाहर निकालकर उनके अपने देशों बांगलादेश या बर्मा में धकेल दिया जाए।