Sunday, September 8, 2024
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अध्याय – 22 भारत भूमि का स्वर्ण-युग: गुप्त काल

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इतिहास में स्वर्ण युग का तात्पर्य उस युग से होता है जो अन्य युगों से अधिक गौरवपूर्ण तथा ऐश्वर्यवान रहा हो, जिसमें राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से देश का चूड़ान्त विकास हुआ हो, जिसमें प्रजा को भौतिक तथा नैतिक विकास का पूर्ण अवसर प्राप्त हुआ हो, जिसमें समृद्धि तथा सम्पन्नता का बाहुल्य रहा हो, जिसमें साहित्य तथा कला का विकास हुआ हो।       

गुप्त-काल स्वर्ण युग क्यों

गुप्त काल को भारतीय इतिहास में ‘स्वर्णयुग’ कहा गया है। इस कथन के समर्थन में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं-

(1) राजनीतिक एकता का युग: इस काल में भारत को जो राजनीतिक एकता प्राप्त हुई, वह इसके पूर्व कभी प्राप्त नहीं हुई थी। डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी ने गुप्त-सम्राटों द्वारा स्थापित की गई राजनीतिक एकता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- ‘गुप्त साम्राज्य बड़ा ही सुसंगठित राज्य था जिसे अपनी सार्वभौम सम्प्रभुता की छत्रछाया में भारत के बहुत बड़े भाग पर राजनीतिक एकता स्थापित करने में सफलता प्राप्त हुई और इतने बड़े क्षेत्र पर अपना प्रभाव स्थापित किया जो उससे भी बड़ा था जो प्रत्यक्ष रूप में उसके साम्राज्य तथा शासन के अन्तर्गत था।’ इस काल का प्रतापी तथा दिग्विजयी सम्राट् समुद्रगुप्त था। उसने सम्पूर्ण उत्तरी भारत को जीत कर सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित राज्य की स्थापना की थी। उसने अटवी प्रदेश, दक्षिणापथ तथा पश्चिमोत्तर प्रदेश के राज्यों को नत-मस्तक कर उन्हें अपना प्रभुत्व स्वीकार करने के लिए विवश किया। इस प्रकार समुद्रगुप्त ने उस राजनीतिक एकता को फिर स्थापित कर दिया जो अशोक की मृत्यु के उपरान्त समाप्त हो गई थी। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपने पिता के साम्राज्य में वृद्धि की। उसने शकों को ध्वस्त करके ‘शकारि’ की उपाधि धारण की। उसने वाह्लीकों को नत-मस्तक किया। उसने विक्रमादित्य की

उपाधि धारण की। स्कन्दगुप्त ने हूणों के आक्रमणों का सफलता पूर्वक सामना किया और अपने पूर्वजों के विशाल साम्राज्य को सुरक्षित रखा। इस प्रकार राजनीतिक एकता की दृष्टि से गुप्त-काल को स्वर्णयुग कहना उचित है।

(2) शान्ति तथा सुव्यवस्था का युग: गुप्त-काल शान्ति तथा सुव्यवस्था का युग था जिसमें प्रजा को अपनी चरमोन्नति का अवसर प्राप्त हुआ। इसी से डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी ने लिखा है- ‘देश की जो भौतिक तथा नैतिक उन्नति हुई वह सुव्यवस्थित राजनीति दशा का ही परिणाम था।’ गुप्त शासन बड़ा ही उदार तथा दयापूर्ण था। प्रजा को अपनी उन्नति के लिये पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी। बाह्य तथा आन्तरिक विपत्तियों से प्रजा की रक्षा करने के लिए राज्य की ओर से पूर्ण व्यवस्था की गई थी। न्याय की बड़ी सुन्दर व्यवस्था की गई थी किंतु कठोर दण्ड विधान का प्रावधान नहीं किया गया था। किसी अपराधी को प्राण-दण्ड नहीं दिया जाता था। गुप्त-सम्राटों ने यातायात के साधनों की समुचित व्यवस्था करके व्यापार की उन्नति में बड़ा योग दिया। इस काल में न केवल आन्तरिक वरन् बाह्य-व्यापार की भी बहुत बड़ी उन्नति हुई। कृषि की उन्नति की समुचित व्यवस्था की गई। जलाशयों तथा जल-कुण्डों का निर्माण कर सिंचाई की समुचित व्यवस्था की गई जिससे अनावृष्टि होने पर कृषि की रक्षा हो सकती थी। गुप्त सम्राटों के काल में देश धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया और सोने की चिड़िया कहलाने लगा। गुप्त-सम्राटों ने स्वर्ण-मुद्राओं का प्रचलन कर वास्तव में इसे स्वर्ण युग बना दिया। राज्य की ओर से प्रजा की दैहिक, नैतिक तथा आघ्यात्मिक उन्नति का प्रयत्न किया गया। राज्य की ओर से दीन-दुखियों तथा रोगियों की सहायता का भी समुचित प्रबन्ध किया गया था। गुप्त-काल में स्थानीय संस्थाओं को पर्याप्त स्वतन्त्रता प्राप्त थी और स्वायत्त शासन को प्रोत्साहन दिया जाता था। अल्तेकर ने गुप्त कालीन शासन की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘इसलिये गुप्त शासन व्यवस्था पर गर्व कर सकते हैं जो अपने काल के तथा बाद के राज्यों के लिए आदर्श व्यवस्था बन गई।’ इसलिये प्रशासनिक दृष्टिकोण से भी गुप्त काल को ‘स्वर्ण युग’ कहना सर्वथा उचित है।

(3) धार्मिक सहिष्णुता का युग: धार्मिक दृष्टिकोण से भी गुप्त काल का बहुत बड़ा महत्त्व है। यह ब्राह्मण-धर्म के पुनरुद्धार तथा विकास का स्वर्णयुग था। इस काल में न केवल भारत के कोने-कोने में ब्राह्मण-धर्म का प्रसार हुआ अपितु इण्डोचीन तथा पूर्वी-द्वीप समूह में भी इसका प्रचार हो गया। ब्राह्मण-धर्म के अनुयायी होते हुए भी गुप्तवंश के सम्राटों में उच्च-कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। उन्होंने अन्य धर्मों के अनुयायियों को प्रश्रय दिया। स्मिथ ने लिखा है- ‘यद्यपि गुप्त सम्राट ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे परन्तु प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुकूल वे समस्त भारतीय धर्मों को समान दृष्टि से देखते थे।’ इसलिये धार्मिक दृष्टिकोण से भी गुप्त काल को ‘स्वर्ण युग’ कहना सर्वथा उचित है।

(4) वैदिक सभ्यता तथा संस्कृति की रक्षा का युग: गुप्त-काल वैदिक सभ्यता तथा संस्कृति की रक्षा का युग माना जाता है। स्मिथ ने लिखा है- ‘इतना ही बता देना पर्याप्त है कि ब्राह्मण धर्म के पुनरुद्धार के साथ-साथ ब्राह्मणों की पवित्र भाषा संस्कृत का भी विस्तार हुआ।’ वैदिक धर्म, जो निष्प्राण-सा हो गया था, उसे गुप्त सम्राटों ने फिर अनुप्राणित किया और उसे स्वीकार कर, उसे राज्य का आश्रय प्रदान कर उसका विकास किया। समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त (द्वितीय) तथा स्कन्दगुप्त ने अश्वमेध यज्ञों को कराकर वैदिक धर्म की प्रतिष्ठा को फिर से स्थापित किया। ब्राह्मणों को दान देकर एवं उनका सम्मान कर गुप्त सम्राटों ने वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया। उन्होंने अनेक शैव तथा वैष्णव मन्दिरों का निर्माण करा कर ‘परम भागवत’ होने का परिचय दिया। गुप्त साम्राटों ने वैदिक धर्म के साथ-साथ वैदिक भाषा अर्थात् संस्कृत के विकास में भी बड़ा योग दिया। गुप्त काल में संस्कृत फिर से राष्ट्र की भाषा बन गई। गुप्त सम्राटों ने अपने अभिलेखों तथा मुद्राओं पर संस्कृत भाषा में ही श्लोक लिखवाये। इस कारण संस्कृत ही एक मात्र साहित्यिक भाषा हो गई। बौद्ध तथा जैन धर्मों के लेखक भी संस्कृत भाषा में ही ग्रन्थ रचना करने लगे। इसलिये वैदिक सभ्यता तथा संस्कृति की दृष्टि से निश्चय ही यह काल स्वर्ण युग था।

(5) साहित्य तथा विज्ञान की उन्नति का युग: साहित्य तथा विज्ञान की उन्नति के दृष्टिकोण से भी गुप्त काल ‘स्वर्ण युग’ था। इस काल के साहित्यिक गौरव की प्रशंसा करते हुए स्मिथ ने लिख है- ‘गुप्त युग अनेक क्षेत्रों में अद्वितीय क्रियाशीलता का युग था। यह ऐसा युग था जिसकी तुलना इंगलैण्ड के एलिजाबेथ और स्टुवर्ट के काल से करना अनुचित न होगा। जिस प्रकार इंगलैण्ड में शेक्सपियर अन्य समस्त लेखकों का सिरमौर था, उसी प्रकार भारत में कालिदास सर्वोपरि था। जिस प्रकार यदि शेक्सपियर ने कुछ भी नहीं लिखा होता तो भी एलिजाबेथ का काल साहित्य-सम्पन्न रहा होता, उसी प्रकार यदि भारत में कालिदास का साहित्य जीवित न रहा होता तो भी अन्य लेखकों की रचनाएं इतनी प्रचुर हैं कि वे इस काल की अद्वितीय साहित्यिक सफलता प्रमाणित करने के लिये पर्याप्त हैं।’ गुप्तकाल में देश में साहित्य तथा दर्शन का चूड़ान्त विकास हुआ। इस युग में अनेक महाकवि, नाटककार तथा दार्शनिक हुए जिनमें कालिदास, हरिषेण, वसुबन्धु, विशाखदत्त, वराहमिहिर आदि अग्रगण्य हैं। साहित्य की चरमोन्नति के कारण ही इसकी तुलना एलिजाबेथ तथा पेरिक्लीज के युग से की गई है। गुप्तकाल में भौतिक, आध्यात्मिक तथा दार्शनिक समस्त प्रकार की साहित्य की उन्नति हुई। विज्ञान की भी इस काल में बड़ी उन्नति हुई। गणित, ज्योतिष, वैदिक, रसायन विज्ञान, पदार्थ विज्ञान तथा धातु विज्ञान के क्षेत्र में बहुत प्रगति हुई। आर्यभट्ट इस काल का बहुत बड़ा गणितज्ञ तथा ज्योतिषी था। वराहमिहिर भी इस काल का बहुत बड़ा ज्योतिषी था। चरक तथा सुश्रुत इस काल के विख्यात वैद्य थे।

(6) कला की चरमोन्नति का युग: गुप्तकाल भारतीय कलाओं का स्वर्ण युग था। इस काल में वास्तु कला, शिल्प कला, मूर्ति निर्माण कला, वाद्य कला, संगीत कला तथा अन्य समस्त कलाओं की उन्नति हुई। अजन्ता की गुफाओं की चित्रकारी, बौद्ध तथा हिन्दू मूर्तियाँ, शैव तथा वैष्णव मन्दिर, विहार, चैत्य तथा स्तूप इस कला की उच्चता के ज्वलंत प्रमाण हैं। इस काल की कला बड़ी ही स्वाभाविक, सरल तथा विदेशी प्रभाव से मुक्त है। सॉण्डर्स ने लिखा है- ‘सारनाथ की बौद्ध प्रतिमाएं इस जागरण का उतना ही प्रतिनिधित्व करती हैं जितना कालिदास की कविताएं। गुप्त काल में एक नवीन बौद्धिकता व्याप्त थी जो वास्तु तथा स्थापत्य कलाओं में उतनी ही प्रतिबिम्बित होती है जितनी साहित्य और विज्ञान में। एक प्रकार का तार्किक सौन्दर्य जो अनेक रूपों में अपनी पूर्ण पराकाष्ठा पर पहुंचे हुए यूनान की याद दिलाता है और जीवन के प्रति उत्साह तथा साहसिकता की भावना में यह हमें एलिजाबेथ के काल की याद दिलाता है।’ इसलिये कला के दृष्टिकोण से भी गुप्त काल को स्वर्ण-युग मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती।

(7) विदेशों पर भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का प्रभाव: गुप्त काल में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का खूब प्रचार हुआ और विदेशों में भारतीय उपनिवेशों की स्थापना हुई। जावा की एक अनुश्रुति के अनुसार इस काल में गुजरात के एक राजकुमार ने कई हजार मनुष्यों के साथ समुद्र पार कर जावा में उपनिवेश की स्थापना की। गुप्तकाल में पूर्वी द्वीप समूहों के साथ भारत का घनिष्ठ व्यापारिक तथा सांस्कृतिक सम्बन्ध स्थापित हो गया। गुप्तकाल में सुमात्रा, जावा, बोर्निया, चम्पा कम्बोडिया आदि द्वीपों में भारतीय भाषा, साहित्य तथा शिक्षा का खूब प्रचार हुआ। इन द्वीपों में भारतीय सामाजिक प्रथाओं, धर्म, कला तथा शासन पद्धति का अनुसरण होने लगा। डॉ. अल्तेकर ने लिखा है- ‘यदि एक ओर भारत और दूसरी ओर चीन के बीच कोई सांस्कृतिक एकता विद्यमान है, यदि मूल्यवान स्मारक, जो भारत की संस्कृति के गौरव के मूक साक्षी हैं, समस्त इंडोचीन, जावा, सुमात्रा तथा बोर्निया में विकीर्ण परिलक्षित होते हैं तो इसका श्रेय गुप्तकाल को ही प्राप्त है, जिसने भारतीय संस्कृति को बाहर विस्तारित करने की प्रेरणा प्रदान की।’ इसलिये विदेशों में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति के प्रचार के दृष्टिकोण से गुप्त-काल निःसंदेह ‘स्वर्ण युग है।’

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि गुप्त काल में भारत की जो राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक उन्नति हुई वह न तो उसके पूर्व कभी हो सकी थी और न उसके बाद कभी हो सकी। हर्ष के भगीरथ प्रयास करने पर भी भारत पतनोन्मुख होने से न बच सका। इसलिये गुप्तकाल को स्वर्ण युग कहना सर्वथा उचित है। डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘साम्राज्यवादी गुप्त सम्राटों का काल हिन्दू इतिहास में प्रायः स्वर्ण युग बताया जाता है। इस काल में कई योग्य, विलक्षण प्रतिभाशाली तथा शक्तिशाली राजाओं ने शासन किया, जिन्होंने उत्तरी भारत के बहुत बड़े भाग का संगठन करके उसे एक राजनीतिक छत्र के नीचे ला दिया और एक व्यवस्थित तथा उन्नतिशील युग का प्रादुर्भाव किया। उनके शक्तिशाली शासन के अन्दर बाह्य तथा आन्तरिक दोनों ही प्रकार के व्यापार की उन्नति हुई और देश की सम्पन्नता बढ़ गई। इसलिये यह स्वाभाविक था कि आन्तरिक सुरक्षा तथा भौतिक सम्पन्नता की अभिव्यक्ति धर्म, साहित्य, कला तथा विज्ञान के विकास में उन्नति हुई हो।’

इस प्रकार गुप्त काल भारत की सर्वतोमुखी उन्नति का काल था। इसी कारण इतिहासकारों ने इसे स्वर्ण काल कहा है। स्मिथ ने गुप्त काल के ऐश्वर्य तथा वैभव की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘हिन्दू भारत के इतिहास में महान् गुप्त सम्राटों का युग जितना सुन्दर और सन्तोषजनक है उतना अन्य कोई युग नहीं। साहित्य, कला तथा विज्ञान की असाधारण मात्रा में उन्नति हुई और बिना अत्याचार के धर्म में क्रमागत परिवर्तन किये गये।’

गुप्त कालीन शासन व्यवस्था

शासन व्यवस्था के मूल तत्व

शासन का आदर्श: गुप्त-सम्राटों के शासन का आदर्श बहुत ऊँचा था। वे स्वयं को प्रजा का ऋणी समझते थे और प्रजा की सेवा करके ही इस ऋण से मुक्त होना चाहते थे। इसलिये गुप्त-साम्राज्य ने लोक-हित के अनेक कार्य किये। गमनागमन की सुविधा के लिए सड़कें बनवाईं। उनके किनारे पर छायादार वृक्ष लगवाये। स्थान-स्थान पर कुएँ खुदवाये। धर्मशालाएँ बनवाईं। सिंचाई की सुविधा के लिए झीलें तथा तालाब खुदवाये। रोगियों की चिकित्सा के लिए औषधालय खुलवाये जिनमें रोगियों को निःशुल्क औषधि दी जाती थी। राज्य की ओर से शिक्षा की भी समुचित व्यवस्था की गई। साहित्य तथा कला को प्रोत्साहन दिया गया। राज्य के इन उदार तथा लोकोपकारी कार्यों का परिणाम यह हुआ कि प्रजा सुख तथा शान्ति का जीवन व्यतीत करती थी।

सामंती व्यवस्था: गुप्त-साम्राज्य अत्यन्त विशाल साम्राज्य था। इसलिये उस युग में जब गमनागमन के साधनों का सर्वथा अभाव था, एक केन्द्र से सम्पूर्ण शासन को चलाना सम्भव न था। फलतः गुप्त सम्राटों ने सामन्ती शासन व्यवस्था का अनुसरण किया और साम्राज्य के सुदूरस्थ प्रान्तों का शासन अपने सामन्तों को सौंप दिया, जिन पर वे कड़ा नियन्त्रण रखते थे। शासन की सुविधा के लिए सम्पूर्ण साम्राज्य को कई छोटी-छोटी इकाइयों में विभक्त किया गया था और प्रत्येक इकाई के लिए अलग-अलग पदाधिकारी नियुक्त किये गये थे परन्तु इन सब पर केन्द्रीय सरकार का कड़ा नियन्त्रण रहता था जिससे साम्राज्य सुसंगठित बना रहे।

संघीय शासन व्यवस्था: गुप्त साम्राज्य मौर्यों के साम्राज्य की भांति सम्राटों के सीधे एवं कठोर अनुशासन में नहीं था। साम्राज्य में अनेक महाराजा, राजा और गणराज्य सम्मिलित थे जो सम्राट की अधीनता मानते थे किंतु आंतरिक शासन में स्वतंत्र थे। विशाल गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत यद्यपि उत्तरी भारत के अधिकांश भागों पर गुप्त नरेशों का प्रत्यक्ष शासन स्थापित था। अन्य क्षेत्रों में उनके शासन का स्वरूप संघीय था। जहां उनके अधीनस्थ राजा अर्द्ध स्वतंत्र शासकों की तरह राज्य करते थे। ऐसे क्षेत्रों में गुप्तों का शासन प्रबंध पूरी तरह प्रभावी नहीं था।

केन्द्रीय प्रशासन

            सम्राट: गुप्त कालीन शासन व्यवस्था राजतन्त्रात्मक थी। राजा ही शासन का प्रधान होता था और विभिन्न विभागों पर पूरा नियन्त्रण रखता था। वह शासन के तीनों अंगों- सेना, शासन तथा न्याय का प्रधान होता था। सम्राट अपने मंत्रियों तथा पदाधिकारियों के परामर्श तथा सहायता से शासन चलाता था। राज्य की राजधानी में केन्द्रीय राजकीय कार्यालय होता था। केन्द्रीय शासन कई उपविभागों में विभक्त था जिनमें- सैन्य विभाग, विदेश विभाग, पुलिस विभाग, माल विभाग, न्याय विभाग, धर्म विभाग आदि प्रमुख रहे होंगे। प्रशासनिक कार्यों के लिये अधिकारियों एवं कर्मचारियों का एक बड़ा वर्ग होता था।

मंत्रिपरिषद्: सम्राट शासन के समस्त महत्वपूर्ण कार्यों में मंत्रिपरिषद् से परामर्श लेता था। केन्द्रीय विभागों के कार्य प्रधानमंत्री, अमात्य, कुमारामात्य, युवराज-कुमारामात्य आदि पदाधिकारी करते थे। मंत्रिपरिषद के विभिन्न विभागों के निश्चित स्वरूप की जानकारी नहीं मिलती किंतु गुप्त अभिलेखों से दो प्रमुख मंत्रियों- संधिविग्रहिक (युद्ध एवं संधि सम्बन्धी मंत्री) तथा अक्षपटलाधिकृत (शासकीय पत्रों से सम्बन्धित मंत्री) के बारे में जानकारी मिलती है।

शासन के वरिष्ठ अधिकारी: गुप्त कालीन अभिलेखांे से कुछ अन्य केन्द्रीय पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं- विनयस्थितिस्थापक (न्यायाधीश), दण्डपाशिक (पुलिस विभाग का सर्वोच्च अधिकारी), कुमारामात्य (शासन का वरिष्ठ अधिकारी), महासेनापति (सेना का सर्वोच्च अधिकारी), भाण्डारिक (सैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला) आदि।

सैनिक शासन: गुप्त-काल साम्राज्यवाद का युग था। गुप्त सम्राटों ने अत्यन्त विशाल साम्राज्य की स्थापना की। इस साम्राज्य की स्थापना विशाल, प्रशिक्षित तथा सुसज्जित सेना की सहायता से की गई थी। इस सेना के चार प्रधान अंग थे- हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदल। सम्राट स्वयं सैनिकों को भर्ती करता था। वह अपनी सेना का प्रधान सेनापति होता था और रणस्थल में सेना की प्रथम पंक्ति में विद्यमान रहता था। सैनिक विभाग का मुख्य अधिकारी संधि-विग्रहिक था जिसे संधि और युद्ध करने का अधिकार प्राप्त होता था। उसके अधीन महासेनापति अथवा महादण्डनायक (प्रमुख सेनापति), रण भाण्डारिक (सैन्य सामग्री की आपूर्ति करने वाला अधिकारी), बलाधिकृत (सैनिकों की नियुक्ति करने वाला अधिकारी), भटाश्वपति (पैदल सेना और घुड़सवारों का अध्यक्ष) आदि अधिकारी होते थे। सेना का कार्यालय बलाधिकरण कहलाता था।

प्रांतीय शासन

शासन की सुविधा के लिये साम्राज्य को अनेक इकाइयों में विभक्त किया गया था। सबसे बड़ी इकाई प्रांत थी जिसे देश या भुक्ति कहते थे। सौराष्ट्र, अवन्ति (पश्चिमी मालवा), ऐरण (पूर्वी मालवा), तीरभुक्ति (उत्तरी बिहार), पुण्ड्रवर्द्धन (उत्तरी बंगाल) आदि गुप्त साम्राज्य के प्रमुख प्रांत थे। प्रान्तीय शासक भोगिक, भोगपति, गोप्ता, उपरिक, महाराज या राजस्थानीय कहलाते थे। प्रांत से छोटी इकाई को प्रदेश कहा जाता था। उससे छोटी इकाई विषय कहलाती थी। विषयों के अधिकारी विषयपति कहलाते थे। शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी।

स्थानीय शासन

नगर प्रशासन: गुप्तों के साम्राज्य में दशपुर, गिरिनार, उज्जयिनी, पाटलिपुत्र आदि प्रसिद्ध नगर थे। नगरों को पुर भी कहा जाता था। नगर या पुर के शासक को नगरपति या पुरपाल कहते थे। गुप्तों के नगर प्रशासन के सम्बन्ध में दामोदरपुर (बंगाल) के ताम्रपत्र से जानकारी मिलती है। नगर प्रशासन में स्थानीय श्रेणियों, नियमों, आदि का महत्वपूर्ण योगदान होता था। मंदसौर अभिलेख में कपड़ा बनाने वालों की पट्टवाय श्रेणी द्वारा एक सूर्यमंदिर बनवाने का उल्लेख मिला है। वैशाली मोहरों से श्रेष्ठि, सार्थवाह, निगमों के अस्तित्व का ज्ञान होता है।

ग्राम प्रशासन: ग्राम प्रशासन के मुखिया को ग्रामिक कहते थे। ग्राम सभा के सदस्य महत्तर कहलाते थे। जंगलों की देखभाल करने वाला गौल्मिक कहलाता था। ग्राम परिषद या ग्राम सभा पर ग्राम प्रशासन का दायित्व होता था।

            न्याय व्यवस्था: राजा, सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। राजा के न्यायालय को सभा, धर्मस्थान अथवा धर्माधिकरण कहा जाता था। गुप्त काल में लिखी गई नारद स्मृति में चार प्रकार के न्यायालयों का उल्लेख है- (1.) कुल, (2.) श्रेणी, (3.) गण और (4.) राजकीय न्यायालय। न्याय विभाग के अधिकारी को विनस्थितिस्थापक कहा गया है।

दण्ड विधान: अपराधों का पता लगाने के लिये गुप्तचर और अपराधियों को दण्ड देने के लिए दंडाधिकारी होते थे। दंड-विधान कठोर नहीं था। अपराध की गुरुता के आधार पर न्यूनाधिक अर्थदण्ड ही दिया जाता था। शारीरिक यातनायें प्रायः नहीं दी जाती थीं और प्राणदण्ड देने का निषेध था।

आय-व्यय के साधन

आय: राज्य की आय का मुख्य साधन भूमिकर था, जिसे भाग, भोग या उद्रेग कहते थे। यह उपज का 1/6 भाग होता था। इसके अतिरिक्त एक दूसरा कर उपरिकर था जो राजा के व्यक्तिगत उपयोग के लिये सामान के रूप में लिया जाता था। आय के अन्य स्रोत सिंचाई कर, अर्थदण्ड, सामन्ती राजाओं से कर, उपहार इत्यिादि थे।

व्यय: राजकीय कर्मचारियों को राज्यकोष से वेतन दिया जाता था। राज्य के कोष का बहुत बड़ा भाग इस वेतन में चला जाता था। राज्य द्वारा किये गगये लोकोपकारक कार्यों, सेना व पुलिस विभाग पर भी राज्य का काफी धन खर्च होता था।

निष्कर्ष

गुप्त कालीन शासन व्यवस्था पर प्रकाश डालते हुए नीलकान्त शास्त्री ने लिखा है- ‘गुप्तकालीन शासन तथा उसकी सफलता के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी प्राप्त है और यह निष्कर्ष निकलता है कि गुप्तों का शासन बड़ा ही सुव्यवस्थित था।’

अध्याय – 23 : हूण

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हूण लोग मूलतः चीन के निवासी थे। चीनी भाषा में इन्हें हिगनू कहा जाता था। संस्कृत-साहित्य तथा अभिलेखों में इन्हें हूण कहा गया है। हूण लोग मंगोल जाति के थे और सीथियनों की एक शाखा से थे। ये लोग बड़े ही असभ्य, निर्दयी, रक्त पिपासु तथा लड़ाकू होते थे और युद्ध कला में बड़े कुशल होते थे। लूटमार इनका मुुख्य व्यवसाय था। उनकी एक विशाल सेना थी। शत्रुओं का रक्तपात करने, उनकी सम्पत्ति लूटने तथा उसे जलाकर नष्ट कर देने में उन्हें लेश मात्र भी संकोच नहीं होता था।

खानाबदोश लुटेरे

हूण लोग खानाबदोश लुटेरे थे। वे एक स्थान पर स्थायी रूप से निवास नहीं करते थे अपितु एक स्थान से दूसरे स्थान को निरंतर विचरण करते रहते थे। लगभग 165 ई.पू. में ये लोग यूचियों पर टूट पड़े और उन्हें उत्तरी पश्चिमी चीन से मार भगाया। हूण लोग इस नये प्रदेश में भी स्थायी रूप से नहीं रह सके। इनकी जनसंख्या में वृद्धि हुई और लूट-खसोट की नीति तथा खानाबदोश स्वभाव के कारण ये लोग धीरे-धीरे पश्चिम की ओर बढ़ने लगे। कालान्तर में ये दो शाखाओं में विभक्त हो गये। एक शाखा यूरोप की ओर चली गयी और रोम-साम्राज्य पर टूट पड़ी। दूसरी शाखा ने आक्सस नदी को पार करके फारस को लूटना आरम्भ कर दिया। कालान्तर में ये लोग अफगानिस्तान में प्रवेश कर गये और भारत की सीमा पर आ डटे।

भारत पर आक्रमण

भारत पर हूणों का पहला आक्रमण स्कन्दगुप्त के शासन के प्रारम्भिक भाग में 486 ई. के लगभग हुआ। स्कन्दगुप्त ने बड़ी वीरता तथा साहस के साथ इनका सामना किया इस कारण हूणों को विवश होकर पीछे लौट जाना पड़ा। कुछ समय तक हूण लोग फारस राज्य को लूटते रहे।

तोरमाण: हूणों ने पांचवी शताब्दी ईस्वी के अन्तिम भाग में तोरमाण के नेतृत्व में फिर से भारत पर आक्रमण किया। तोरमाण ने सबसे पहले गान्धार पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने गुप्त साम्राज्य के पश्चिमी भाग पर आक्रमण किया। एरण नामक स्थान पर भानुगुप्त एवं तोरमाण की सेनाओं में भीषण संग्राम हुआ जिसमें भानुगुप्त का सामन्त गोपराज मारा गया तथा भानुगुप्त परास्त हो गया। इस कारण पूर्वी मालवा पर उसका अधिकार हो गया। मंजुश्रीमूलकल्प के अनुसार मालवा विजय के बाद हूण मगध तक बढ़ गये। तोरमाण ने साकल अर्थात् स्यालकोट को अपनी राजधानी बनाया और वहीं से शासन करने लगा।

मिहिरकुल: तोरमाण के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल हूणों का शासक हुआ। वह बड़ा ही निर्दयी तथा रक्त पिपासु था। मिहिरकुल के ग्वालियर अभिलेख से ज्ञात होता है कि 513 ई. से 528 ई. तक मिहिरकुल का मध्य भारत पर पूर्ण अधिकार रहा। उस समय उत्तरी भारत में गुप्तों के स्थान पर वही एक मात्र प्रतापी राजा था।

ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि बौद्धों के साथ उसने बड़ा अत्याचार किया। उसने उनके मठों, विहारों तथा स्तूपों को लूटा और निर्दयता के साथ उनका वध कराया। मिहिरकुल ने गुप्त-साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। इन दिनों गुप्त साम्राज्य पर भानुगुप्त बालादित्य शासन कर रहा था। 529-30 ई. में उसने मिहिरकुल को बुरी तरह परास्त किया और उसे बन्दी बना लिया परन्तु बाद में उसने मिहिरकुल को मुक्त कर दिया।

इसी समय मिहिरकुल को एक दूसरे संकट का सामना करना पड़ा। यशोवर्मन नामक एक प्रतापी राजा ने मालवा पर आक्रमण कर दिया और उस पर अधिकार करके मिहिरकुल को वहाँ से मार भगाया। मिहिरकुल शरण की खोज में काश्मीर भाग गया। काश्मीर के राजा ने दया करके उसे शरण दे दी परन्तु मिहिरकुल ने उसके साथ विश्वासघात कर काश्मीर पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इस विश्वासघात के बाद एक वर्ष के भीतर ही मिहिरकुल की मृत्यु हो गई।

हूणों का पतन

मिहिरकुल की मृत्यु के उपरान्त हूणों का पतन आरम्भ हो गया। उसके उत्तराधिकारी कमजोर तथा अयोग्य थे जो उसके राज्य को संभाल नहीं सके। जब भारत में राजपूतों का उत्कर्ष आरम्भ हुआ तो उन्होंने हूणों का विनाश आरम्भ कर दिया। उत्तर-पश्चिम की ओर से तुर्कों ने हूणों को दबाना आरम्भ किया। इस प्रकार हूण लोग दो प्रबल शक्तियों के बीच पिस गये और उनकी राजनीतिक शक्ति समाप्त हो गई। राजनीतिक शक्ति समाप्त हो जाने पर हूण लोग भारतीयों में घुल-मिल गये और अपना पृथक अस्तित्त्व खो बैठे।

हूणों का प्रभाव

हूण लोग भारत में यद्यपि एक भयंकर आंधी की भांति आये तथा थोड़े ही दिनों में उनकी सत्ता समाप्त हो गई, तथापि भारतीयों के नैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन पर उनका प्रभाव पड़े बिना न रहा।

राजनीतिक प्रभाव: हूणों के आक्रमणों से गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया और उसके स्थान पर छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हो गई। इस प्रकार भारत की राजनीतिक एकता समाप्त हो गई।

धार्मिक प्रभाव: हूणों के आक्रमण से बौद्ध धर्म को बहुत बड़ा धक्का लगा और वह अन्तिम श्वासें लेने लगा। हूणों ने बौद्धों का बड़ी क्रूरता के साथ वध किया और उनके मठों तथा विहारों को लूटा तथा नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।

सांस्कृतिक प्रभाव: हूण लड़ाके बड़े ही असभ्य तथा बर्बर थे। उन्होेंने मन्दिरों, मठों, स्तूपों, विहारों आदि का विध्वंस कर भारतीय कला को बहुत क्षति पहुँचाई। वे जहाँ कहीं जाते थे, आग लगा देते थे और उस प्रदेश को उजाड़ देते थे। इससे भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को बहुत बड़ी हानि पहुँची। हूणों के कारण भारतीय समाज में बहुत सी कुप्रथाएँ तथा अन्धविश्वास प्रचलित हो गये। भारतीय समाज में बहुत सी उपजातियाँ भी बन गईं। अन्त में ये लोग भारतीयों में घुल-मिल गये और भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति में इस प्रकार रंग गये कि अब उनका कहीं चिह्न तक उपलब्ध नहीं है।

अध्याय – 24 : पुष्यभूति वंश अथवा वर्धन वंश

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पुष्यभूति वंश का उदय

गुप्त साम्राज्य के छिन्न-भिन्न हो जाने के उपरान्त भारत की राजनीतिक एकता एक बार पुनः समाप्त हो गई और देश के विभिन्न भागों में फिर छोटे-छोटे राजवंशों की स्थापना हो गई जिनमें निरन्तर संघर्ष चलता रहता था। देश में कोई ऐसी प्रबल शक्ति नहीं थी जो देश की रक्षा कर सकती और इन छोटे-छोटे राज्यों पर नियंत्रण रख कर देश को सुख तथा शान्ति प्रदान कर सकती। जिस समय देश पर हूणों के आक्रमण हो रहे थे और गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो रहा था उन्हीं दिनों छठी शताब्दी के आरम्भ में थानेश्वर में एक नये राजवंश की स्थापना हुई। इस वंश का संस्थापक पुष्भूति था जो भगवान शिव का परम भक्त था। उसके नाम पर इस वंश को पुष्यभूति वंश कहा जाता है। उसके अधिकांश वंशजों के नाम के अंत में वर्धन प्रत्यय लगा हुआ है, इससे इस वंश को वर्धन वंश भी कहा जाता है।

प्रारंभिक शासक

इस वंश के प्रारंभिक शासकों के विषय में अधिक जानकारी नहीं मिलती है। पुष्यभूति के उपरान्त नरवर्धन, राज्यवर्धन तथा आदित्यवर्धन शासक हुए जो स्वतंत्र शासक न होकर किसी स्वतंत्र शासक के सामन्त के रूप में शासन कर रहे थे। इन शासकों की उपाधि महाराज थी। इनका उल्लेख अभिलेखों तथा राजकीय मोहरों पर मिलता है। अनुमान है कि प्रारंभ में ये गुप्तों के अधीन शासन कर रहे थे और गुप्तों के बाद हूण शासकों के अधीन शासन कर रहे थे।

प्रभाकरवर्धन

हर्ष चरित के अनुसार प्रभाकरवर्धन इस वंश का चौथा शासक था। वह 580 ई. में सिंहासन पर बैठा। उसने परमभट्टारक तथा महाराजाधिराज उपाधियां धारण कीं जिनसे ज्ञात होता है कि वह स्वतंत्र तथा प्रतापी शासक था। उसने गुर्जरों के विरुद्ध सफलता पूर्वक युद्ध किया। प्रभाकरवर्धन के चार संतानें थीं, तीन पुत्र- राज्यवर्धन, हर्षवर्धन तथा कृष्णवर्धन और एक पुत्री- राज्यश्री। राज्यश्री का विवाह कान्यकुब्ज (कन्नौज) के मौखरी राजा ग्रहवर्मन के साथ हुआ था। 605 ई. में प्रभाकरवर्धन की मृत्यु हो गई।

राज्यवर्धन

प्रभाकरवर्धन के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र राज्यवर्धन सिंहासन पर बैठा। शासन संभालते ही उसे मालवा के शासक देवगुप्त के विरुद्ध अभियान पर जाना पड़ा क्योंकि देवगुप्त ने मौखरी राज्य पर आक्रमण करके राज्यवर्धन के बहनोई ग्रहवर्मन की हत्या कर दी तथा राज्यवर्धन की बहिन राज्यश्री को बन्दीगृह में डाल दिया। इस दुर्घटना का समाचार पाते ही राज्यवर्धन ने शासन का भार अपने छोटे भाई हर्षवर्धन को सौंपकर स्वयं एक विशाल सेना के साथ देवगुप्त को दण्डित करने के लिए प्रस्थान कर दिया। राज्यवर्धन ने देवगुप्त को युद्ध में परास्त किया और उसके राज्य को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। गौड़ (बंगाल) का राजा शशांक देवगुप्त का मित्र था। उसने विश्वासघात करके राज्यवर्धन की हत्या करवा दी और कन्नौज पर अधिकार कर लिया। उसने राज्यश्री को मुक्त कर दिया जो विन्ध्य पहाड़ि़यों में अज्ञात स्थान को चली गई। हर्ष के बांसखेड़ा तथा मधुबन अभिलेखों में उसके चार पूर्वज शासकों- नरवर्धन, राज्यवर्धन, आदित्यवर्धन तथा प्रभाकर वर्धन एवं उनकी रानियों के नाम मिले हैं।

हर्षवर्धन

राज्यवर्धन की मृत्यु के उपरान्त उसका छोटा भाई हर्षवर्धन थानेश्वर के सिंहासन पर बैठा। हर्ष के सिंहासनारोहण पर टिप्पणी करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘छठी शताब्दी ईस्वी का प्रारम्भ राजनीतिक मंच पर एक अलौकिक व्यक्ति के आगमन से होता है। यद्यपि हर्षवर्धन में न तो अशोक का उच्चादर्श था और न चन्द्रगुप्त मौर्य का सैनिक कौशल, फिर भी वह उन्हीं दोनों महान् सम्राटों की भांति इतिहासकारों की दृष्टि को आकृष्ट करने में सफल हुआ है।’

हर्ष कालीन इतिहास जानने के साधन

हर्ष के शासनकाल की जानकारी कई साधनों से मिलती है। हर्ष के दरबार में रहने वाले कवि बाणभट्ट ने अपनी कृति हर्षचरित में हर्ष तथा उसके पूर्वजों का वर्णन किया है। हर्ष के समकालीन चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने ग्रंथ सी-यू-की में भी हर्ष तथा उसके शासन की प्रमुख घटनाओं का उल्लेख किया है। हर्ष ने स्वयं भी रत्नावली, नागानंद और प्रियदर्शिका नामक ग्रंथों की रचना की। इन ग्रंथों में उस समय की राजनीतिक स्थितियों का उल्लेख है। मधुबन, बांसखेड़ा, सोनीपत आदि स्थानों से हर्ष के अभिलेख मिले हैं। इनमें भी कई सूचनाएं दी गई हैं। हर्षकालीन सिक्के भी हर्ष की तिथि, राज्य विस्तार, राज्यकाल की अवधि तथा आर्थिक परिस्थिति पर प्रकाश डालते हैं।

राज्याभिषेक

राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद 606 ई. में हर्ष राजगद्दी पर बैठा। उस समय हर्ष की आयु 16 वर्ष थी।

आरंभिक समस्याएं

हर्ष के समक्ष कई बड़ी समस्याएं थीं। उसके पिता की मृत्यु और भाई की हत्या को अधिक समय नहीं हुआ था। बहनोई की हत्या हो चुकी थी तथा बहन राज्यश्री जंगलों में थी। इस प्रकार उसका परिवार लगभग नष्ट हो चुका था तथा स्वयं हर्ष अल्पायु था। फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी। उसके समक्ष दो बड़ी चुनौतियां थीं। पहली चुनौती अपनी बहन को जंगलों से ढूंढकर गौड़ के राजा शशांक को दण्डित करने की तथा दूसरी चुनौती स्वयं अपने राज्य को व्यवस्थित करने की।

(1) राज्य श्री की खोज: हर्ष अपनी सेना के साथ विंध्याचल के जंगलों में पहुंचा तथा बौद्ध भिक्षु दिवाकरमित्र की सहायता से अपनी बहन राज्यश्री को ढूंढ निकाला। जिस समय हर्ष ने राज्यश्री को देखा, उस समय राज्यश्री अपने दुखों से तंग आकर अग्नि में प्रवेश करने जा रही थी। हर्ष अपनी बहन को समझा-बुझा कर अपने साथ ले आया।

(2) कन्नौज की समस्या: राज्यश्री के कोई संतान नहीं थी। इसलिये कन्नौज राज्य का कोई उत्तराधिकारी नहीं था। कन्नौज के मंत्रियों ने हर्ष से प्रार्थना की कि वह कन्नौज का राज्य भी संभाल ले। हर्ष ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार हर्ष दो राज्यों का राजा बन गया। इससे हर्ष की जिम्मेदारी तथा शक्ति दोनों ही बढ़ गईं। हर्ष ने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया।

हर्ष की दिग्विजय

हर्ष के पास एक विशाल सेना थी। इस सेना की सहायता से उसने दिग्विजय करने का निश्चय किया। स्मिथ ने हर्ष की विजय योजनाओं की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘सम्पूर्ण भारत को एक छत्र के नीचे लाने के उद्देश्य से उसने अपनी सारी शक्ति तथा योग्यता को एक सुव्यवस्थित विजय योजना के कार्यान्वयन में लगा दिया।’

(1) गौड़ नरेश शशांक पर आक्रमण: हर्ष ने सर्वप्रथम गौड़ नरेश शशांक को दण्डित करने और उसके राज्य को जीतने का निर्णय लिया। हर्षचरित के अनुसार हर्ष को जब अपने भाई की हत्या का समाचार मिला, उसी समय उसने प्रण किया कि कुछ ही दिनों में धरती को गौड़विहीन कर दूंगा। उसकी इस घोषणा का उसके मंत्रियों ने स्वागत किया। बाणभट्ट तथा ह्वेनसांग दोनों ने ही इस युद्ध की घटनाओं तथा परिणामों की जानकारी नहीं दी है। ह्वेनसांग के अनुसार शशांक बौद्ध धर्म के प्रति हिंसक था। उसने बुद्ध के पदचिह्नों से अंकित पत्थरों को नदी में डलवा दिया तथा गया के बोधि वृक्ष को कटवा दिया। मंजूश्रीमूलकल्प के अनुसार हर्ष ने गौड़ नरेश शशांक की राजधानी पुण्ड्र पर आक्रमण कर उस पर विजय अर्जित की किंतु इस विजय के अन्य प्रमाण नहीं मिलते हैं क्यांेकि शशांक की अंतिम तिथ 619 ई. प्राप्त होती है। ह्वेनसांग के अनुसार 637 ई. में उसने जब बोधि वृक्ष को देखा, तब शशांक उसे कटवा चुका था तथा उन्हीं दिनों में शशांक की मृत्यु हुई थी।

(2) पंच भारत पर विजय: ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि जैसे ही हर्ष राजा हुआ, उसने एक विशाल सेना के साथ अपने भाई के हत्यारे से बदला लेने के लिये प्रस्थान किया। वह पूर्व की ओर बढ़ा और लगातार 6 वर्षों तक उन राज्यों से युद्ध करता रहा जो बिना लड़े, उसकी अधीनता स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। उसने पंचभारत पर भी विजय प्राप्त की। पंच भारत में पंजाब, कन्नौज, बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा आते थे। इस प्रकार लगभग सम्पूर्ण उत्तरी भारत उसके अधिकार में आ गया।

(3) वल्लभी पर विजय: उस काल में सौराष्ट्र अर्थात् काठियावाड़ में मैत्रक वंश शासन कर रहा था। वल्लभी उसकी राजधानी थी। यह राज्य उत्तर भारत के कन्नौज और दक्षिण भारत के चालुक्य राज्यों के मध्य में स्थित था। इसलिये सैनिक दृष्टिकोण से उसका बहुत बड़ा महत्त्व था। इन दिनों धु्रवसेन द्वितीय वल्लभी में शासन कर रहा था। 633 ई. में हर्ष ने वल्लभी पर आक्रमण करके ध्रुवसेन को परास्त कर दिया। धु्रवसेन ने हर्ष से मैत्री कर ली। हर्ष ने अपनी कन्या का विवाह धु्रवसेन के साथ कर दिया। सम्भवतः धु्रवसेन ने हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली और उसी के सामन्त के रूप में वह वल्लभी में शासन करने लगा। वल्लभी के अधीन राज्यों- आनंदपुर, कच्छ तथा काठिायावाड़ ने भी हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली।

(4) चालुक्य राज्य पर आक्रमण: वल्लभी राज्य के दक्षिण में चालुक्य वंश शासन कर रहा था। पुलकेशिन (द्वितीय) इस वंश का सर्वाधिक प्रतापी तथा शक्तिशाली शासक था जो हर्ष का समकालीन था। उसने अपने पड़ौसी राज्यों को नत मस्तक कर अपनी शक्ति का विस्तार किया था। लगभग 634 ई. में हर्ष ने पुलकेशिन के राज्य पर आक्रमण किया। पुलकेशिन ने नर्मदा के तट पर हर्ष का सामना किया और उसे परास्त कर दिया। हर्ष निराश होकर नर्मदा के तट से लौट आया। नर्मदा ही उसके राज्य की सीमा बन गई। ह्वेनसांग ने भी इस युद्ध में हर्ष की पराजय का उललेख किया है।

(5) सिंध पर विजय: बाणभट्ट के हर्षचरित के अनुसार हर्ष ने सिंध क्षेत्र पर भी आक्रमण किया तथा सिंधुराज को जीतकर उसकी समस्त सम्पत्ति पर अधिकार कर लिया। ह्वेनसांग ने लिखा है कि जिस समय वह (ह्वेनसांग) सिंधु प्रदेश पहुंचा, उस समय सिंधु प्रदेश एक स्वतंत्र राज्य था। अन्य स्रोतों से भी हर्ष की सिंध विजय के उल्लेख नहीं मिलते।

(6) नेपाल तथा काश्मीर पर विजय: समकालीन साहित्य से ज्ञात होता है कि नेपाल तथा काश्मीर ने भी हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली।

(7) पूर्वी भारत पर विजय: हर्ष को पूर्वी भारत में की गई विजय यात्रा में बड़ी सफलता प्राप्त हुई। उसने मगध पर अधिकार कर लिया और 641 ई. में मगध के राजा की उपाधि धारण की। कामरूप (आसाम) के राजा भास्कर वर्मन से उसकी मैत्री हो गई।

(8) गौड़ नरेश का अंत: यद्यपि हर्ष अपने सबसे बड़े शत्रु शशांक के राज्य का अन्त न कर सका परन्तु बाद में उसके मित्र भास्करवर्मन ने गौड़ राज्य का अन्त कर दिया।

हर्ष का साम्राज्य

हर्ष का साम्राज्य उत्तर में हिमालय पर्वत से दक्षिण में नर्मदा नदी के तट तक और पूर्व में आसाम से पश्चिम में सौराष्ट्र तक फैला था। इस सम्पूर्ण प्रदेश में उसका प्रत्यक्ष शासन नहीं था। कुछ भाग में वह स्वयं शासन करता था और कुछ में उसके सामन्त शासक करते थे।

हर्ष का शासन प्रबंध

हर्ष महान् विजेता होने के साथ-साथ कुशल शासक भी था। डॉ. रमेश चन्द्र मजूमदार ने हर्ष की प्रशासकीय प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘इसमें सन्देह नहीं कि वह भारत के महानतम सम्राटों में एक था। उथल-पुथल के काल में उसे दो विश्ृंखलित राज्यों पर शासन करना पड़ा। वह उत्तरी भारत के विशाल क्षेत्र के बहुत बड़े अंश में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित करने में सफल रहा।’

हर्ष के शासन की इकाइयां: हर्ष का साम्राज्य अत्यंत विशाल था जिसे राज्य अथवा मण्डल कहते थे। हर्ष ने अपने राज्य में गुप्त शासकों की भांति चार स्तरीय शासन व्यवस्था लागू कर रखी थी- 1. केन्द्रीय शासन, 2. प्रांतीय शासन 3. जिला स्तरीय शासन तथा 4. स्थानीय शासन।

केन्द्रीय शासन

हर्ष की शासन व्यवस्था राजतन्त्रात्मक थी जिसमें सम्राट समस्त शासन का केन्द्र बिंदु था। हर्ष ने थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ गुप्त कालीन शासन व्यवस्था का ही अनुसरण किया।

(1) सम्राट: सम्राट केन्द्रीय शासन का प्रधान था। शासन के विभिन्न भागों पर वह अपनी कड़ी दृष्टि रखता था। युद्ध के समय वह स्वयं रणक्षेत्र में उपस्थित रहकर सेना का संचालन करता था। शान्ति के समय वह अपनी प्रजा के हित के कार्यों को करने में संलग्न रहता था। प्रजा की दशा को जानने के लिए सम्राट अपने राज्य के विभिन्न भागों में यात्राएं करता था। सम्राट का सारा समय धार्मिक कार्यों को करने तथा शासन को सुचारू रीति से चलाने में व्यतीत होता था।

(2) मन्त्रि परिषद: सम्राट को सहायता देने के लिए मन्त्रि परिषद भी होती थी। ये मन्त्री सचिव अथवा अमात्य कहलाते थे। सम्राट के लिये इस परिषद की सलाह मानना अनिवार्य नहीं था। हर्ष का प्रधान सचिव भाण्डि एवं प्रधान सेनापति सिंहनाद था।

(3) शासन के अधिकारी: हर्ष के दानपत्रों में विभिन्न अधिकारियों का उल्लेख मिलता है। जिनका विवरण इस प्रकार है-

            महासंधिविग्रहाधिकृत      ः युद्ध और शांति का प्रमुख मंत्री

            महाबलाधिकृत                ः सर्वोच्च सेनापति

            राजस्थानीय                   ः राज्यपाल

            कुमारामात्य                   ः युवराज

            उपरिक                          ः प्रांतीय गवर्नर

            विषयपति                      ः जिला अधिकारी

            भोगपति                        ः राजकीय कर एकत्रित करने वाला प्रांतीय                                                   अधिकारी।

(4) सैन्य प्रबंधन: अपनी दिग्विजय को सफल बनाने तथा साम्राज्य को शत्रुओं के आक्रमणों से सुरक्षित रखने के लिए हर्ष ने एक विशाल सेना का संगठन किया। इस सेना में हाथी, घोड़े तथा पैदल सैनिक हुआ करते थे। हर्ष ने रथ सेना की व्यवस्था नहीं की थी। ह्वेनसांग के अनुसार हर्ष की सेना में 60 हजार हाथी थे। यद्यपि सम्राट स्वयं अपनी सेना का सेनाध्यक्ष होता था और रणक्षेत्र में उसका संचालन करता था परन्तु सेना के रख-रखाव के लिये एक अलग सेनापति होता था जो महाबलाधिकृत कहलाता था। सेना के विभिन्न अंगों के लिए अलग-अलग सेनापति होते थे।

(5) न्याय-व्यवस्था: सम्राट स्वयं न्याय विभाग का सर्वोच्च न्यायाधीश था। वह अपराधियों को दण्ड देता था। हर्ष के शासन काल में दण्ड विधान बड़ा कठोर था। साधारण अपराधों के लिए अर्थदण्ड दिया जाता था और जघन्य अपराधों के लिये हाथ, नाक, कान काट लिये जाते थे। राजद्रोहियों को जीवन भर के लिए जेल में बन्द कर दिया जाता था। दंड विधान की कठोरता के कारण अपराध कम होते थे और लोग शान्ति पूर्वक जीवन व्यतीत करते थे। उसके शासन काल में चोर एवं डाकू भी थे जो अवसर प्राप्त होते ही प्रजा को लूट लेते थे। सड़कें चोर-डाकुओं से सुरक्षित नहीं थीं। चीनी यात्री ह्वेनसांग कई बार डाकुओं के चक्कर में पड़ गया था।

(6) राजस्व विभाग: हर्ष उदार शासक था। गुप्तों की भांति वह भी अपनी प्रजा से उपज का केवल छठा भाग कर के रूप में लेता था। आयात कर भी बहुत कम था जो सीमा स्थित चुंगीघरों में वसूल किया जाता था। राज्य की आय का बहुत बड़ा भाग विद्वानों को पुरस्कार देने, धार्मिक कृत्यों को सम्पादित करने तथा विभिन्न सम्प्रदायों को दान-दक्षिणा देने में व्यय होता था।

(8) लोकहित के कार्य: हर्ष प्रजापालक शासक था। वह सदैव अपनी प्रजा के कल्याण की चिन्ता करता था। उसने प्रजा का आवागमन सुगम बनाने के लिये कई सड़कें बनवाईं तथा उनके किनारे छायादार वृक्ष लगवाये। यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशालाएं बनवाईं। इन धर्मशालाओं में यात्रियों के लिए भोजन, चिकित्सा तथा औषधि की व्यवस्था की गई थी। नालन्दा तथा अन्य शिक्षा-केन्द्रों को राज्य की ओर से सहायता दी जाती थी। विद्वानों एवं साहित्यकारों को भी राज्य की ओर से सहायता एवं प्रोत्साहन दिया जाता था। हर्ष में उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी। विभिन्न धर्मों के मतावलम्बी उससे दान-दक्षिणा प्राप्त करते थे। उसने अनेक मंदिर, चैत्य, विहार, स्तूप आदि बनवाये थे। हर्ष की प्रशंसा करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘हर्ष एक विजेता तथा शासक के रूप में तो महान् था ही, वह शान्ति कालीन कलाओं में और भी अधिक महान् था जिनकी विजयें युद्ध की विजयों से कम विख्यात नहीं होतीं।’

(9) प्रयाग की पंचवर्षीय सभा: हर्ष प्रति पांचवें वर्ष प्रयाग में एक सभा का आयोजन करता था। इस अवसर पर वह बुद्ध, सूर्य, शिव आदि देवताओं की प्रतिमाओं की बड़े समारोह के साथ पूजा करता था। इन सभाओं में वह समस्त सम्प्रदाय वालों तथा दीन-दुखियों को दान-दक्षिणा देता था। इसी से वह महादान-भूमि कहलाता था। सम्राट इस अवसर पर अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति दान में दे देता था। यहाँ तक कि वह अपने मूल्यवान आभूषण भी दान में दे देता था। प्रयाग की एक पंचवर्षीय परिषद् में चीनी यात्री ह्वेनसांग भी विद्यमान था, जिसका उसने आंखों देखा वर्णन किया है।

प्रांतीय शासन

केन्द्रीय राजधानी से सम्पूर्ण साम्राज्य को संभालना सम्भव नहीं था। फलतः हर्ष ने अपने साम्राज्य को गुप्त शासकों की भांति कई प्रान्तों में विभक्त कर रखा था। ये प्रान्त ‘भुक्ति’, देश आदि नामों से पुकारे जाते थे। भुक्ति के शासक राजस्थानीय, राष्ट्रीय, उपरिक आदि कहलाते थे। इन पदों पर प्रायः राजकुल के राजकुमार नियुक्त होते थे।

जिला स्तरीय शासन

प्रत्येक प्रान्त कई ‘विषयों’ में विभक्त रहता था। इनका शासक विषयपति कहलाता था। विषयपति की नियुक्ति प्रांतीय शासक करते थे। अधिष्ठानों में विषयपति के केन्द्र होते थे जहां उनके अधिकरण (न्यायालय) होते थे। विषय अनेक पठकों में विभक्त थे जिन्हें आज के तहसील के समकक्ष माना जा सकता है। प्रांतीय एवं जिला स्तरीय शासकों की सहायता के लिये दण्डिक, चोरोद्धरणिक तथा दण्डपाशिक आदि पुलिस अधिकारी नियुक्त किये जाते थे।

स्थानीय शासन

शासन की सबसे छोटी इकाई गांव होता था। गांव के समस्त मामलों की देखभाल गांव के प्रतिष्ठित लोग करते थे जो ‘महत्तर’ कहलाते थे। गांव के प्रबन्धन के लिए ‘ग्रामिक’ भी होता था। हर्ष के लेखों में ग्राम स्तरीय अन्य अधिकारियों के भी उल्लेख मिलते हैं। आठ कुलों का निरीक्षक अष्टकुलाधिकरण कहलाता था। शुल्क अर्थात् चंुगी वसूलने वाले को शौल्किक कहते थे। वन, उपवन आदि का निरीक्षक गौल्मिक कहलाता था। भूमिकर का अध्यक्ष धु्रवाधिकरण, गांव का लेखा-जोखा रखने वाला तलवाटक तथा कागज-पत्र रखने वाला अक्षपटलिक कहलाता था। अधिकारियों की इस सूची से अनुमान होता है कि ग्राम शासन पर्याप्त सुदृढ़ था। यह सुदृढ़ता उनकी स्वावलम्बी स्थिति को इंगित करती है।

हर्ष का धर्म

शैव धर्म: हर्ष चरित के अनुसार हर्ष के पूर्ववर्ती चारों पुष्भूति शासक, शैवधर्म के अनुयायी थे। हर्ष भी प्रारंभ में शैव था जिसकी पुष्टि विभिन्न स्रोतों से होती है। हर्ष ने अपने नाटकों रत्नावली एवं प्रियदर्शिका में भी शिव पार्वती एवं अन्य देवी देवताओं की स्तुति की है।

बौद्ध धर्म: बौद्ध धर्म के प्रति हर्ष का झुकाव बौद्ध भिक्षु दिवाकरमित्र से भेंट होने के बाद हुआ। दिवाकरमित्र ने राज्यश्री को ढूंढने में हर्ष की सहायता की। इस भेंट के बाद लगातार छः वर्षों तक हर्ष युद्धों में व्यस्त रहा। हर्ष ने ह्वेनसांग के प्रभाव से बौद्ध धर्म स्वीकार किया। ह्वेनसांग ने उसे बौद्ध धर्म की महायान शाखा में दीक्षित किया। महायान धर्म में दीक्षित होने के बाद हर्ष ने कन्नौज में धार्मिक सभा आयोजित की ताकि ह्वेनसांग समस्त धर्मों पर महायान धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध कर सके। अनेक विद्वान इस बात से सहमत नहीं हैं कि हर्ष ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। डॉ. आर. सी. मजूमदार ने लिखा है कि यद्यपि अंत में हर्ष का झुकाव बौद्ध धर्म की ओर हो गया था किंतु संभवतः उसने अपना प्राचीन धर्म छोड़ा नहीं। न ही अन्य धर्मों को छोड़कर बौद्ध धर्म को आश्रय दिया। मजूमदार के पास अपनी बात सिद्ध करने का कोई प्रमाण नहीं है जबकि ह्वेनसांग तथा बाणभट्ट दोनों ही स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि हर्ष ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था। हर्ष द्वारा बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु धर्म सभायें आयोजित करना, स्तूप व विहारों का निर्माण करना तथा नालंदा विश्वविद्यालय को दान देना, काश्मीर नरेश से महात्मा बुद्ध के दांत प्राप्त करना, हर्ष के बौद्ध धर्म ग्रहण करने की पुष्टि करता है। हर्ष धर्म-सहिष्णु राजा था, बौद्ध धर्म ग्रहरण करने पर भी उसने अन्य धर्मों पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं लगाया। कन्नौज एवं प्रयाग की सभाओं में उसने बुद्ध के साथ-साथ शिव एवं सूर्य की भी पूजा की।

बौद्ध धर्म का प्रचार: हर्ष के प्रयासों से चीन में महायान धर्म का प्रचार हुआ। भारत में उसके प्रचार की गति तेज हुई। ह्वेनसांग के सम्मान में हर्ष ने गया में धर्म सभा का आयोजन किया जिसमें 20 राज्यों के राजाओं, धार्मिक विद्वानों ब्राह्मणों, हीनयान तथा महायान के हजारों अनुयायियों ने भाग लिया। इस अवसर पर कन्नौज में विशाल संघाराम तथा 100 फुट ऊँचा बुर्ज बनवाया गया। इसमें हर्ष के कद के बराबर की भगवान बुद्ध की स्वर्ण प्रतिमा स्थापित की गई। हर्ष ने काश्मीर से बुद्ध का दांत मंगवाकर कन्नौज में प्रतिष्ठापित किया। इस सभा में ह्वेनसांग ने महायान सम्प्रदाय की श्रेष्ठता सिद्ध की। ह्वेनसांग के विवरण के अनुसार इस अवसर पर ब्राह्मणों द्वारा संघाराम में आग लगा दी गई तथा हर्ष की हत्या करने का प्रयास किया गया। इस आरोप में 500 ब्राह्मणों को गया से निष्कासित किया गया।

महामोक्ष परिषद का आयोजन: बौद्ध धर्म ग्रहण करने के उपरांत भी हर्ष प्रत्येक पांचवे वर्ष में प्रयाग में महामोक्ष परिषद का आयोजन करता रहा जिसमें बुद्ध सूर्य तथा शिव की पूजा होती थी। इस अवसर पर वह अपनी समस्त सम्पत्ति यहां तक कि अपने वस्त्र भी दान में दे देता था। ह्वेनसांग ने छठे परिषद का उल्लेख किया है। इस अवसर पर पांच लाख श्रमण, निर्ग्रन्थ, ब्राह्मण, निर्धन, अनाथ आदि एकत्र हुए। यह परिषद 75 दिनों तक चली। इसमें प्रथम दिन बुद्ध की, दूसरे दिन सूर्य की तथा तीसरे दिन शिव की पूजा हुई। चौथे दिन दान दिया गया।

हर्ष के शासन काल में सांस्कृतिक विकास

हर्ष के शासन काल में साम्राज्य में वृद्धि तथा प्रशासनिक कौशल के साथ-साथ कला और साहित्य की भी उन्नति हुई। हर्ष स्वयं कला और साहित्य का अनुरागी था।

कलाओं का विकास

वास्तुकला तथा मूर्तिकला: इस काल में भारत में बड़ी संख्या में हिन्दू, बौद्ध तथा जैन धर्मों के मंदिर, चैत्य तथा संघाराम बने। एलोरा का मंदिर, एलिफैण्टा का गुहा मंदिर, कांची में मामल्लपुरम् का शैल मंदिर इसी काल में बने। मंदिरों के निर्माण के कारण मूर्तिकला का भी पर्याप्त विकास हुआ। बौद्धों ने बुद्ध की तथा हिन्दुओं ने शिव तथा विष्णु आदि देवताओं की सुंदर मूर्तियों का निर्माण किया। इस काल की मूर्तिकला में भारशिव शैली तथा मथुरा शैली का सम्मिलन हो गया तथा गोल मुख के स्थान पर लम्बे चेहरे बनाये जाने लगे। अजंता की गुफा संख्या 1 एवं 2 की मूर्तियां इसी काल की हैं।

चित्रकला: इस काल के चित्र अजन्ता की गुफा संख्या 1 और 2 में देखने को मिलते हैं। ये दो प्रकार के चित्र हैं- प्रथम प्रकार के चित्रों में गति और जीवन का अभाव है जबकि द्वितीय प्रकार के चित्रों में संयोजन की समानता का अभाव है। एक चित्र में पुलकेशिन (द्वितीय) को फारस के सम्राट खुसरो परवेज का स्वागत करते हुए दिखाया गया है। इन गुफाओं में बुद्ध तथा पशु-पक्षियों के अनेक चित्र हैं।

अन्य कलायें: हर्ष के काल में उत्तरी भारत में संगीत कला, मुद्रा कला तथा नाट्य कलाओं का विकास हुआ। इनके विकास में हर्ष तथा उसके समकालीन राजाओं ने पर्याप्त रुचि ली।

साहित्य का विकास

हर्षवर्धन विद्वानों का सम्मान करता था एवं उनका आश्रयदाता था। ह्वेनसांग के अनुसार हर्ष ने अपने दरबारी कवियों से रचनाएं लिखने के लिये कहा था जिनके संग्रह को जातकमाला कहा जाता है। हर्ष अपने राजकोष का एक भाग, विद्वानों को पुरस्कार देने में व्यय करता था। हर्ष के दरबारी लेखक बाणभट्ट ने हर्षचरित तथा कादम्बरी नामक ग्रंथों की रचना की। हर्ष ने संस्कृत में तीन नाटक- नागानंद, रत्नावली तथा प्रियदर्शिका की रचना की। संस्कृत साहित्य में इन नाटकों का विशेष स्थान है। बाणभट्ट ने हर्ष को सुंदर काव्य रचना में प्रवीण बताया है। हर्ष की सभा में बाणभट्ट के साथ-साथ मयूर, हरिदत्त, जयसेन, मातंग, दिवाकर, भृतहरि आदि प्रसिद्ध कवि और लेखक रहते थे। हर्ष के समय में अन्य लेखकों ने भी बड़ी संख्या में ग्रंथ लिखे।

ह्वेनसांग की भारत यात्रा

ह्वेनसांग एक चीनी यात्री था, जो हर्षवर्धन के शासन काल में भारत आया था। ह्वेनसांग का जन्म 605 ई. में चीन के एक नगर में हुआ था। ह्वेनसांग का बड़ा भाई बौद्ध भिक्षु था। ह्वेनसांग ने भी उसका अनुसरण किया और बौद्ध भिक्षु के रूप में दीक्षा ले ली। ह्वेनसांग बाल्यकाल से ही बड़ा जिज्ञासु था और सदैव सत्य की खोज में संलग्न रहता था। उसने चीन के विभिन्न स्थानों में जाकर अध्ययन किया और अपने ज्ञान की वृद्धि की। अन्त में वह चड्गगन में निवास करने लगा। यहीं पर उसने भारत आने की योजना बनाई। वह अपने कुछ मित्रों के साथ चीन सम्राट् के पास गया और उससे भारत यात्रा में सहायता देने की प्रार्थना की। सम्राट ने उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की परन्तु ह्वेनसांग निराश नहीं हुआ। 626 ई. में जब उसकी अवस्था 24 वर्ष की थी, वह दो अन्य साहसिक व्यक्तियों को अपने साथ लेकर भारत के लिए चल पड़ा। कुछ समय तक ह्वेनसांग के साथ यात्रा करने के उपरान्त उसके दोनों साथी हताश हो गए और अपने देश लौट गए परन्तु ह्वेनसांग ने साहस नहीं छोड़ा और मार्ग की कठिनाईयांे को झेलता हुआ आगे बढ़ता गया। मार्ग में व्यापारियों से उसे बहुत सहायता मिली। मार्ग की भयंकर कठिनाइयों को सहन करता हुआ ह्वेनसांग अपने गन्तव्य की ओर बढ़ता गया। जिस किसी राज्य में ह्वेनसांग गया, वहीं उसका स्वागत तथा सम्मान हुआ और उसे सहायता मिली।

ह्वेनसांग 631 ई. में काश्मीर पहुंचा। यहाँ पर उसने एक बौद्ध विहार में रहकर दो वर्ष अध्ययन मंें व्यतीत किए। इसके उपरांत वह काश्मीर से मथुरा तथा थानेश्वर आदि स्थानों की यात्रा करता हुआ हर्ष की राजधानी कन्नौज पहुंचा। हर्ष ने उसका बड़ा स्वागत तथा आदर-सत्कार किया। उसने कन्नौज, अयोध्या, श्रावस्ती, कपिलवस्तु आदि तीर्थ-स्थानों की यात्रा की। वह प्रयाग, कौशाम्बी, अयोध्या, श्रावस्ती, कपिलवस्तु, कुशीनगर, पाटलिपुत्र, गया तथा राजगृह होता हुआ नालन्दा पहुंचा। वहाँ पर उसने संस्कृत तथा बौद्ध-ग्रन्थों के अध्ययन में दो वर्ष व्यतीत किए। 640 ई. में वह कांचीपुर अर्थात् कांजीवरम पहुंचा। यहाँ से वह महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, सिन्धु, मुल्तान तथा गजनी होता हुआ काबुल नदी के किनारे पहुंच गया। वहाँ से पामीर की पहाड़ि़यों को पार करके काशगर तथा खोतान होता हुआ अपने देश को लौट गया।

चीन के राजा ने ह्वेनसांग का बड़ा स्वागत तथा आदर सत्कार किया। ह्वेनसांग ने अपने जीवन का शेष भाग भारत से लाये हुए ग्रंथों का अनुवाद करने तथा अपनी यात्रा के विवरण लिखने में व्यतीत किया। 664 ई. में ह्वेनसांग का निधन हो गया परन्तु भारत तथा चीन के इतिहास में ह्वेनसांग का नाम अमर हो गया।

ह्वेनसांग का भारतीय विवरण

ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा का वर्णन करते हुए भारत की तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक दशा पर अच्छा प्रभाव डाला है।

(1) राजनीतिक दशा: तत्कालीन राजनीतिक दशा का वर्णन करते हुए ह्वेनसांग  ने लिखा है कि हर्ष का शासन प्रबंध बड़ा ही अच्छा था। वह अपनी प्रजा की सुरक्षा तथा सुख का बड़ा ध्यान रखता था। राज्य कर बहुत कम तथा हल्के थे। इससे प्रजा बड़ी सुखी तथा सम्पन्न थी। लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। श्रमिकों से बेगार नहीं ली जाती थी। किसानों से भूमि की उपज का छठा भाग राजकीय कर के रूप में लिया जाता था। राजकीय भूमि चार भागों में बंटी थी। एक भाग की आय से राजकीय व्यय चलता था। दूसरा भाग राजकीय कर्मचारियों को जागीर के रूप में दिया जाता था। तीसरे भाग की आय विद्या तथा कला कौशल में व्यय की जाती थी। चौथे भाग की आय विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों की सहायता करने तथा दान-दक्षिण देने में व्यय की जाती थी। सड़कें बड़ी सुन्दर तथा चौड़ी होती थीं और सड़क के किनारे छायादार वृक्ष लगे होते थे। यद्यपि सड़कों पर सुरक्षा की पूरी व्यवस्था रहती थी, परन्तु वे डाकुओं से मुक्त नहीं थीं। यात्रियों को राज्य की ओर से हर प्रकार की सुविधा देने का प्रयत्न किया जाता था। अपराधियों को बड़े कठोर दण्ड दिये जाते थे। राजद्राहियों को जीवन भर के लिए बन्दीगृह में डाल दिया जाता था। बड़े अपराधों के लिए अंग-भंग का दण्ड दिया जाता था और लोगों के हाथ, पैर, नाक-कान काट लिए जाते थे। व्यापार से राज्य को अच्छी आय होती थी। हर्ष की सेना बड़ी विशाल थी और उसके सैनिक शस्त्र चलाने में बड़े कुशल थे।

(2) सामाजिक दशा: ह्वेनसांग के विवरण से भारत की तत्कालीन सामाजिक दशा का ज्ञान होता है। वह लिखता है कि भारत के लोग बड़ी सरल प्रकृति के तथा ईमानदार होते थे। उनका जीवन बड़ा ही सादा था। लोगों का रहन-सहन तथा खान-पान आडम्बरहीन था। दूध, घी, भुने चने तथा मोटी रोटी लोगों का साधारण भोजन था। मांस, लहसुन, प्याज आदि का प्रयोग बहुत कम लोग करते थे। मिट्टी तथा काठ के बर्तनों में केवल एक बार भोजन किया जाता था, फिर उन्हें फेंक दिया जाता था। जाति-प्रथा के बन्धन कठोर थे। लोग छूआछूत का बड़ा विचार करते थे। वस्त्रों की स्वच्छता पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाता था। अन्तर्जातीय विवाहों की प्रथा नहीं थी। बाल-विवाह का प्रचलन था। पर्दे की प्रथा नहीं थी और स्त्री-शिक्षा पर ध्यान दिया जाता था। सती-प्रथा का प्रचलन था। विधवा-विवाह की प्रथा नहीं थी। विद्या तथा कला कौशल में लोगों की बड़ी रुचि थी। संस्कृत ही विद्वानों की भाषा थी। समाज में संन्यासियों का बड़ा आदर था। वे जनता में ज्ञान का प्रचार करते थे। सन्यासियों पर निन्दा तथा प्रशंसा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था।

(3) आर्थिक दशा: ह्वेनसांग ने लिखा है कि हर्ष की प्रजा सुखी तथा सम्पन्न थी। अधिकांश लोग खेती करते थे। खेती ही उनकी आजीविका का प्रधान साधन थी। वैश्य जाति व्यापार करती थी। व्यापार जल तथा स्थल दोनों ही मार्गों से होता था। उन दिनों भवन इतने सुन्दर बनते थे कि ह्वेनसांग उनकी सुन्दरता को देखकर आश्चर्य चकित हो गया था। निर्धन लोगों के मकान भी ईंट अथवा काठ के बने होते थे। इन भवनों पर भांति-भांति की चित्रकारी बनी रहती थी। देश धन-धान्य से पूर्ण था और लोग सुखी थे। ह्वेनसांग स्वयं बहुमूल्य धातुओं की बनी बुद्ध की मूर्तियां अपने साथ चीन ले गया था।

(4) धार्मिक दशा: ह्वेनसांग के वर्णन से ज्ञात होता है कि उन दिनों भारत में ब्राह्मण धर्म का अधिक प्रचार था। ब्राह्मणों को समाज में आदर की दृष्टि से देखा जाता था। प्रजा में यज्ञ आदि खूब होते थे। अधिकांश प्रजा वैष्णव अथवा शैव धर्म की अनुयायी थी। थानेश्वर में शैव धर्म का प्रचलन अधिक था। मंदिरों में पूजा के लिए देव मूर्तियों की स्थापना की जाती थी। ब्राह्मण धर्म के साथ-साथ बौद्ध धर्म का भी प्रचार था। जिन क्षेत्रों में ब्राह्मण धर्म उन्नत दशा में था, उन क्षेत्रों में बौद्ध धर्म का जोर कम था। बौद्ध धर्म के महायान तथा हीनयान दोनों ही पंथों का प्रचलन था। पश्चिमोत्तर भारत में बौद्ध धर्म निष्प्राण सा हो गया था परन्तु पूर्वी भारत में उसका प्रचार था। बौद्धों की संख्या धीरे-धीरे घटती जा रही थी, परन्तु उनके विहार, मठ, स्तूप आदि अब भी बहुत बड़ी संख्या में विद्यमान थे। बौद्ध लोग भी मूर्ति पूजा करते थे। ये लोग बुद्ध को ईश्वर का अवतार मानने लगे थे और उनकी मूर्ति बनाकर पूजा  करते थे।

(5) सांस्कृतिक दशा: ह्वेनसांग ने लिखा है कि हर्ष के राज्य में शिक्षक विद्यार्थियों से सहानुभूति रखते थे और उन्हें परिश्रम के साथ पढ़ाते थे। शिक्षा निःशुल्क थी। विद्यार्थियों से व्यक्तिगत सेवा के अतिरिक्त कुछ नहीं लिया जाता था। अध्यापक योग्य तथा चरित्रवान होते थे। नालन्दा उस समय का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय था जो पटना जिले में राजगृह के निकट स्थित था। ह्ेवनसांग ने स्वयं दो वर्षों तक इस विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। इस विश्वविद्यालय की इतनी अधिक ख्याति थी कि विदेशों से भी विद्यार्थी अध्ययन करने के लिए आते थे। नालंदा में कई हजार भिक्षु निवास करते थे। यद्यपि नालन्दा प्रधानतः बौद्ध शिक्षा का केन्द्र था परन्तु इनमें समस्त धर्मों की शिक्षा दी जाती थी। विद्वानों को वाद-विवाद करने की पूरी स्वतंत्रता थी। विश्वविद्यालय के नियम कठोर थे जिनका पालन अध्यापकों तथा विद्यार्थियों दोनों को करना पड़ता था। इस संस्था में आचार्यों की संख्या लगभग 1000 और विद्यार्थियों की संख्या लगभग 10,000 थी। इसका व्यय 220 गांवों की आय से चलता था। इस काल में बौद्ध शिक्षा के साथ-साथ ब्राह्मण शिक्षा भी बड़ी उन्नत दशा में थी।

हर्ष की मृत्यु

लगभग 42 वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन करने के उपरान्त 648 ई. में हर्ष का निधन हो गया। उसके कोई पुत्र नहीं था, इसलिये उसकी मुत्यु के उपरांन्त उसके मंत्री अर्जुन ने उसके राज्य पर अधिकार कर लिया। साम्राज्य बिखर गया और कई नये राज्यों की स्थापना हो गई। इस प्रकार पुष्यभूति वंश का अन्त हो गया।

हर्ष का मूल्यांकन

हर्ष की गणना भारत के महान् सम्राटों में की जाती है, इसके निम्नलिखित कारण हैं-

(1) महान् विजेता: स्मिथ ने हर्ष की उपलब्धियों का वर्णन करते हुए लिखा है- ‘एक युद्ध ने अशोक की रक्त पिपासा को शांत कर दिया किंतु हर्ष अपनी तलवार को म्यान में रखने के लिए तब संतुष्ट हुआ जब उसने लगातार सैंतीस वर्ष तक, जिनमें छः वर्षों तक निरन्तर और शेष समय में सविराम युद्ध कर लिया।’ हर्ष ने पंजाब, कन्नौज, मगध, बंगाल, बिहार, उड़ीसा, वल्लभी, आनंदपुर, कच्छ, काठिायावाड़ तथा सिंध आदि राज्यों पर विजय प्राप्त की। नेपाल तथा काश्मीर ने उसकी अधीनता स्वीकार की।

(2) महान् साम्राज्य निर्माता: हर्ष एक महान् साम्राज्य निर्माता था। उसे अपने पूर्वजों से थानेश्वर का छोटा सा राज्य प्राप्त हुआ परन्तु अपनी दिग्विजय द्वारा उसने उसे एक विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया और सम्पूर्ण उत्तरी भारत में एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर लिया। यद्यपि दक्षिण भारत के युद्ध अभियान में उसे सफलता नहीं मिली और चालुक्य राजा पुलकेशिन (द्वितीय) ने उसे परास्त कर दिया परन्तु उसकी उत्तर भारत की विजयें उसे भारत के महान सम्राटों में स्थान दिलवाती हैं। गुप्त साम्राज्य के छिन्न भिन्न हो जाने पर भारत की राजनीतिक एकता को फिर से स्थापित करने का श्रेय हर्ष को ही प्राप्त है। जिस विशाल साम्राज्य की स्थापना उसने अपने बाहुबल से की थी वह उसे अपने जीवन काल में सुरक्षित रखने में भी समर्थ रहा। इसलिये उसकी गणना भारत के महान् विजेताओं तथा साम्राज्य निर्माताओं में करनी उचित ही है।

(3) महान् शासक: हर्ष न केवल महान् विजेता तथा साम्राज्य निर्माता था वरन् अपने बाहुबल से उसने जिस विशाल साम्राज्य की स्थापना की उसके सुशासन की भी सुन्दर व्यवस्था की। एक शासक के रूप में उसकी महानता इस बात में पाई जाती है कि उसका शासन उदार, दयालु तथा प्रजा के लिये हितकारी था। उसने कर बहुत कम लगाये थे, जिससे प्रजा को कर देने में कष्ट न हो और उसकी आर्थिक दशा भी अच्छी बनी रहे। हर्ष ने देश में शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए दण्ड विधान को कठोर बना दिया। अपराधों में कमी होने के कारण प्रजा सुख तथा शान्ति का जीवन व्यतीत करने लगी। हर्ष अपने राज्य में घूम-घूम कर अपनी प्रजा की कठिनाईयों को जानने तथा उनको दूर करने का प्रयत्न करता था। हर्ष अपने विशाल साम्राज्य के सुशासन की स्वयं देख-रेख करता था और अपने कर्मचारियों पर निर्भर नहीं रहता था। स्मिथ ने उसके इस गुण की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘अपने विस्तृत साम्राज्य पर नियंत्रण रखने के लिए हर्ष अपने प्रशिक्षित कर्मचारियों की सेना पर निर्भर न रहकर अपने व्यतिगत निरीक्षण पर भरोसा करता था।’ इस सम्बन्ध में डॉ.रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘अपने विस्तृत शासन सम्बन्धी मामलों के निरीक्षण के कठोर कार्य को उसने स्वयं करने का प्रयत्न किया।’ उसने अनेक लोक मंगलकारी कार्य किए, जिनसे उसकी प्रजा सुखी तथा सम्पन्न बन गई। इसलिये एक शासक के रूप में हर्ष महान् था।

(4) महान् धर्म-परायण: हर्ष का हृदय बड़ा कोमल तथा दयालु था। उसमें उच्च कोटि की धर्मपरायणता थी। प्रारम्भ में वह ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था और शिव, सूर्य आदि देवों की उपासना करता था। बाद में वह बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया परन्तु इससे उसके धार्मिक विचारों में किसी भी प्रकार की संकीर्णता नहीं आई। उसमें उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी और वह समस्त धर्मों के मानने वालों को सम्मान देता था। वह समस्त सम्प्रदायों के साधु-सन्यासियों का आदर करता था और उन्हें दान-दक्षिणा देता था। प्रयाग की पंचवर्षीय सभा में वह समस्त धर्म वालों का आदर करता था और उन्हें दान-दक्षिणा देता था। इस प्रकार आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी हर्ष महान् शासक था।

(5) महान् विद्यानुरागी: हर्ष महान् साहित्यानुरागी था। उसके विद्यानुराग की प्रशंसा करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘हर्ष के स्मरणीय होने का एक कारण यह भी है कि वह विद्वानों का उदार आश्रयदाता था।’ हर्ष ने विद्वानों को आश्रय देने के साथ-साथ स्वयं भी अपनी लेखनी का प्रयोग उसी कौशल के साथ किया जिस कौशल से वह अपनी तलवार का प्रयोग करता था। इस सम्बन्ध में डॉ. विन्सेन्ट स्मिथ ने लिखा है- ‘सम्राट हर्ष न केवल योग्य साहित्यकारों का उदार आश्रयदाता था, वह स्वयं भी एक उच्चकोटि का लेख-विशारद तथा सुविख्यात लेखक था।’ उसने ‘नागानन्द’, ‘रत्नावली’ तथा ‘प्रियदर्शिका‘ नामक तीन ग्रन्थों की रचना की। उसके दरबार का सबसे बड़ा विद्वान बाणभट्ट था, जिसने ‘हर्ष-चरित’ तथा ‘कादम्बरी’ नामक ग्रन्थों की रचना की। शिक्षा प्रसार में भी हर्ष की बड़ी रुचि थी। उसने अनेक शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना करवाई और बड़ी उदारतापूर्वक उनकी सहायता की। हर्ष ने नालन्दा विश्वविद्यालय की सहायता के लिए 220 गाँवों की आय दान में दी। इस प्रकार हर्ष ने प्रजा के न केवल भौतिक सुख तथा आध्यात्मिक विकास के लिए प्रयत्न किया, अपितु प्रजा के बौद्धिक विकास के लिए भी सुविधाएँ दीं। इस दृष्टि से भी उसे महान् सम्राट् मानना सर्वथा उचित है।

(6) संस्कृति का महान् सेवक: हर्ष ने भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति के पोषण तथा प्रचार का अथक प्रयास किया। उसके शासन काल में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का विदेशों में खूब प्रचार हुआ। तिब्बत, चीन तथा मध्य एशिया के साथ भारत के घनिष्ठ सांस्कृतिक सम्बन्ध बने और इन देशों में भारतीय संस्कृति का खूब प्रचार हुआ। इस काल में दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीप समूहों में भी भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार हुआ। इस प्रकार भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति के दृष्टिकोण से भी हर्ष का शासन काल बड़ा गौरवपूर्ण था। इसलिये हर्ष को भारतीय सम्राटों में उच्च स्थान प्रदान करना तथ्य-संगत है।

डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी ने हर्ष की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘हर्ष प्राचीन भारत के इतिहास के श्रेष्ठतम सम्राटों में से है। उसमें समुद्रगुप्त तथा अशोक दोनों ही के गुण संयुक्त थे। उसका जीवन हमें समुद्रगुत की सैनिक सफलताओं और अशोक की पवित्रता की याद दिलाता है।’

नालंदा विश्वविद्यालय

हर्ष के समय में नालंदा का विश्वविद्यालय अपने शिखर पर था। ह्वेनसांग ने भी छः वर्ष तक नालंदा में रहकर अध्ययन किया। उसके समय में शीलभद्र इस महाविहार का अध्यक्ष था। ह्वेनसांग के अनुसार इस महाविहार में 8500 विद्यार्थी तथा 1510 शिक्षक थे। नालंदा महाविहार में अध्ययन करने के इच्छुक विद्यार्थियों को कड़ी परीक्षा देनी होती थी। 100 परीक्षार्थियों में से केवल 20 को ही प्रवेश मिलता था। यह स्नातकोत्तर विद्यालय था जिसमें भारत, कोरिया, चीन, मंगोलिया, जापान, लंका आदि देशों के विद्यार्थी पढ़ते थे। प्रतिदिन 100 आसनों से शिक्षा दी जाती थी। बौद्ध धर्म की विभिन्न शाखाओं और ग्रंथों के साथ-साथ वेद, सांख्य, योग, न्याय, दर्शन, तर्कशास्त्र, आयुर्वेद, विज्ञान, शिल्प, उद्योग आदि विषय भी पढ़ाये जाते थे। शीलभद्र, नागार्जुन, आर्यदेव, असंग, वसुबंधु और दिड्नाग आदि प्रसिद्ध आचार्य थे। ह्वेनसांग के समय इसमें आठ विहार थे जिनके भवन गगनचुम्बी थे। पुस्तकालय का भवन नौ मंजिला था। इस महाविहार को 100 गांवों की आय प्राप्त होती थी। विभिन्न राजवंश एवं धनी लोग इस महाविहार को दान तथा आर्थिक सहायता देते थे। विद्यार्थियों को इस महाविहार में अध्ययन करते समय प्रत्येक सुविधा निःशुल्क मिलती थी।

अध्याय – 25 : भारतीय संस्कृति में पल्लवों का योगदान

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दक्षिण भारत के राज्य

भारतवर्ष के मध्य भाग में पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर, विन्ध्याचल पर्वत श्ृंखला स्थित है। प्राचीन काल में विन्ध्याचल पर्वत तथा इसके निकट का भूभाग घने वनों से आच्छादित था, जिसे पार करना अत्यन्त दुष्कर था। इस पर्वत के लगभग समानांतर नर्मदा नदी पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है। विन्ध्याचल पर्वत तथा नर्मदा नदी के उत्तर में स्थित भूभाग उत्तरापथ अथवा उत्तर भारत कहलाता है और दक्षिण में स्थित भूभाग दक्षिणापथ अथवा दक्षिण भारत कहलाता है। प्राचीन काल में जब यातायात के साधनों की बड़ी कमी थी और मार्ग बड़े ही दुर्गम थे तब उत्तर भारत से दक्षिण भारत में जाना बहुत कठिन था। इस कारण काफी लम्बे समय तक आर्य अपनी सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार उत्तर भारत में और अनार्य अपनी सभ्यता तथा संस्कृति का विकास दक्षिण भारत में करते रहे। जब आर्य लोग सम्पूर्ण उत्तरी भारत में अपनी सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार कर चुके, तब उन्होंने दक्षिण भारत में भी प्रवेश किया और वहाँ पर भी अपनी सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार करना आरम्भ कर दिया। प्रारंभ में इस कार्य को ऋषियों ने आरम्भ किया। कालान्तर में बहुत से महत्त्वाकांक्षी राजकुमार भी दक्षिण भारत में गये। उन्होंने वहाँ पर अपने राज्य स्थापित कर लिये। गुप्त साम्राज्य के पतन के उपरान्त जब उत्तरी भारत में विश्ृंखलता आरम्भ हुई, ठीक उसी समय दक्षिण भारत में भी छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गये।

पल्लव वंश

दक्षिण के राज्यों में पल्लव वंश का बहुत बड़ा महत्त्व है। इस वंश ने दक्षिण भारत पर लगभग 500 वर्ष तक शासन किया। इस वंश का उदय लगभग 350 ई. में चोड अथवा चोल देश के पूर्वी समुद्र तट पर हुआ। इस वंश का प्रथम शासक चोल राजा का पुत्र था और उसकी माता नाग राजकुमारी थी। कहा जाता है नाग राजकुमारी की जन्मभूमि मणिपल्लवम् के ही नाम पर इस वंश का नाम पल्लव पड़ा है। इन लोगों ने काँची अथवा कांजीवरम् को अपनी राजधानी बना लिया और वहीं से शासन करने लगे। जिस समय गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त ने दक्षिण भारत पर आक्रमण किया, उन दिनों कांची में विष्णुगोप नामक राजा शासन कर रहा था। उसे समुद्रगुप्त ने युद्ध में परास्त कर दिया। इस वंश के प्रारम्भिक इतिहास का ठीक-ठीक पता नहीं चलता है।

सिंहविष्णु: पल्लव वंश का राजा सिहंविष्णु 575 ई. में सिंहासन पर बैठा। उसके शासन काल से इस वंश के निश्चित इतिहास का पता चलता है। सिंहविष्णु शक्तिशाली सम्राट् था। उसने पड़ोसी राज्यों पर विजय प्राप्त कर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उसने सम्भवतः श्रीलंका के राजा पर भी विजय प्राप्त की। उसने 600 ई. तक शासन किया।

महेन्द्रवर्मन (प्रथम): सिंहविष्णु के बाद उसका पुत्र महेन्द्रवर्मन (प्रथम) सिंहासन पर बैठा। उसका शासन काल 600 ई. से 625 ई. माना जाता है। चालुक्य राजा पुलकेशिन् (द्वितीय) ने उसके राज्य पर आक्रमण करके उसे परास्त कर दिया। इससे पल्लवों की प्रतिष्ठा को बड़ा धक्का लगा। महेन्द्रवर्मन प्रारम्भ में जैन धर्म का अनुयायी था परन्तु बाद में शैव हो गया था। उसने बहुत से मन्दिरों का निर्माण करवाया। 

नरसिंहवर्मन (प्रथम): महेन्द्रवर्मन के बाद उसका पुत्र नरसिंहवर्मन (प्रथम) शासक हुआ। उसने 625 ई. से 645 ई. तक शासन किया। वह प्रतापी शाासक हुआ। उसने चालुक्यों पर आक्रमण करके उनकी राजधानी वातापी पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार उसने चालुक्यों से अपने पिता की पराजय का बदला लिया। इस विजय से पल्लवों की प्रतिष्ठा में बड़ी वृद्धि हुई। अब वे दक्षिण के राज्यों में सर्वाधिक शक्तिशाली समझे जाने लगे। नरसिंहवर्मन के ही शासन-काल में चीनी यात्री ह्वेनसांग कांची आया। ह्वेनसांग ने कांची के विषय में लिखा है कि वह एक विशाल नगर था और उसमें हजारों बौद्ध भिक्षु रहते थे।

महेन्द्रवर्मन (द्वितीय): नरसिंहवर्मन के बाद महेन्द्रवर्मन (द्वितीय) पल्लवों का शासक हुआ। उसके राज्य काल की घटनाओं के विषय में अधिक ज्ञात नहीं होता है। उसका शासनकाल केवल दो साल के लिये था। उसके शासन में चालुक्य शासक विक्रमादित्य (प्रथम) ने आक्रमण किया। इस युद्ध में महेन्द्रवर्मन परास्त हो गया।

परमेश्वरवर्मन (प्रथम): महेन्द्रवर्मन (द्वितीय) के बाद परमेश्वरवर्मन (प्रथम) सिंहासन पर बैठा। उसके शासन काल में 655 ई. में चालुक्य राजा विक्रमादित्य (प्रथम) ने पल्लव राज्य पर आक्रमण कर उसकी राजधानी कांची पर अधिकार कर लिया। इस पर भी परमेश्वरवर्मन ने हार नहीं मानी तथा विक्रमादित्य को अपनी राजधानी काँची छोड़कर जाने पर विवश कर दिया।

नरसिंहवर्मन (द्वितीय): परमेश्वरवर्मन के बाद नरसिंहवर्मन (द्वितीय) शासक हुआ। उसने राजसिंह की उपाधि धारण की। वह अपने राज्य में शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित करने में सफल रहा। कांची के कैलाशनाथ मन्दिर का निर्माण उसी ने करवाया था। वह साहित्यानुरागी शासक था।

नन्दिवर्मन (द्वितीय): पल्लव वंश का अन्तिम शक्तिशाली शासक नन्दिवर्मन था। उसने चालुक्यों के साथ सफलतापूर्वक युद्ध किया और कांची पर अधिकार कर लिया। उसने राष्ट्रकूटों तथा पाण्ड्यों से युद्ध किया। वह वैष्णव धर्म का अनुयायी था। उसने कई वैष्णव मन्दिर बनवाये। नन्दिवर्मन के बाद पल्लव वंश में कोई शक्तिशाली शासक नहीं हुआ।

अपराजितवर्मन: इस वंश का अन्तिम शासक अपराजितवर्मन था, जिसने 876 ई. से 895 ई. तक शासन किया। अन्त में चोलों ने उसे युद्ध में परास्त करके पल्लव वंश का अन्त कर दिया।

पल्लवों की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

भारतीय संस्कृति के विकास में पल्लवों का महत्वपूर्ण योगदान है। यह योगदान भारतीयों के जीवन के हर अंग पर देखा जा सकता है।

भक्ति आंदोलन का जन्म

आठवीं शताब्दी में भारतीय संस्कृति पर छा जाने वाले महान् धार्मिक सुधारों का जन्म पल्लवों के ही शासन काल में हुआ। अधिकांश पल्लव शासक वैष्णव धर्मावलम्बी थे। कुछ पल्लव शासक शैव धर्म में विश्वास रखते थे। इस काल में पल्लवों के प्रभाव से दक्षिण भारत में ब्राह्मण धर्म का बोलबाला हो गया। अनेक पल्लव शासकों ने अश्वमेध, वाजसनेय एवं अग्निष्टोम यज्ञ किये। पल्लवों के प्रभाव से दक्षिण भारत में मूर्ति पूजा, यज्ञ एवं कर्मकाण्डों की स्थापना हुई। प्रजा में हिन्दू धर्म की भक्ति, अवतारवाद एवं अन्य विश्वासों का प्रसार हुआ। पल्लव शासकों ने अनेक धार्मिक ग्रंथों का तमिल भाषा में अनुवाद करवाया तथा अनेक ग्रंथों की तमिल भाषा में रचना करवाई। भक्ति आंदोलन का सूत्रपात दक्षिण भारत से ही हुआ। भागवत पुराण के अनुसार भक्ति द्रविड़ देश में उपजी, कर्नाटक में विकसित हुई तथा कुछ काल तक महाराष्ट्र में रहने के बाद गुजरात में जीर्ण हो गई। दक्षिण के भक्ति आंदोलन को पल्लव एवं चोल शासकों ने संरक्षण प्रदान किया। पल्लवों के शासन काल में शैव आचार्य नायनार तथा वैष्णव आचार्य आलवार ने बौद्ध एवं जैन विद्वानों से शास्त्रार्थ करके उन्हें परास्त किया। इससे दक्षिण में बौद्ध एवं जैन धर्म की जड़ें हिल गईं। नायनारों तथा आलवारों का भक्ति आंदोलन छठी शताब्दी से नौवीं शताब्दी ईस्वी तक चला।

स्थापत्य कला का विकास

आज के तमिल प्रदेश को तब द्रविड़ देश कहा जाता था। पल्लव शासकों ने इस क्षेत्र में जिस स्थापत्य शैली का विकास किया, उसे द्रविड़ शैली कहा जाता है। इस प्रदेश पर पल्लवों ने छठी से दसवीं शताब्दी तक शासन किया। उनके शासन काल की वास्तुकला के उदाहरण उनकी राजधानी कांची तथा महाबलीपुरम् में अधिक पाये जाते हैं। पल्लव कलाकारों ने वास्तुकला को काष्ठ कला एवं गुहाकला से मुक्त किया। पल्लवकालीन कला को चार शैलियों में विभक्त किया जा सकता है-

1. महेन्द्रवर्मन शैली, 2. मामल्ल शैली, 3. राजसिंह शैली तथा 4. नन्दिवर्मन शैली।

महेन्द्रवर्मन शैली: इस शैली का विकास 610 ई. से 640 ई. के मध्य हुआ। इस शैली के मंदिरों को मण्डप कहा जाता है। ये मण्डप साधारण स्तम्भ युक्त बरामदे हैं जिनकी पिछली दीवार में एक या अधिक कक्ष बनाये गये हैं। ये कक्ष कठोर पाषाण को काटकर गुहा मंदिर के रूप में बनाये गये हैं। मण्डप के बाहरी द्वार पर दोनों ओर द्वारपालों की मूर्तियां लगाई गई हैं। मण्डप के स्तम्भ सामान्यतः चौकोर हैं। महेन्द्र शैली के मण्डपों में मण्डगपट्टु का त्रिमूर्ति मण्डप, पल्लवरम् का पंचपाण्डव मण्डप, महेन्द्रवाड़ी का महेन्द्र विष्णुगृह मण्डप, मामण्डूर का विष्णु मण्डप विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

मामल्ल शैली: इस शैली का विकास 640 ई. से 674 ई. तक की अवधि में नरसिंहवर्मन (प्रथम) के शासन काल में हुआ। नरसिंहवर्मन ने महामल्ल की उपाधि धारण की थी इसलिये इस शैली को महामल्ल शैली कहा जाता है। इसी राजा ने मामल्लपुरम् की स्थापना की जो बाद में महाबलीपुरम् कहलाया। इस शैली में दो प्रकार के मंदिरों का निर्माण हुआ है- 1. मण्डप शैली के मंदिर तथा 2. रथ शैली के मंदिर। मण्डप शैली के मंदिर वैसे ही हैं जैसे महेन्द्रवर्मन के काल में बने थे किंतु मामल्ल शैली में उनका विकसित रूप दिखाई देता है। महेन्द्रवर्मन शैली की अपेक्षा मामल्ल शैली के मण्डप अधिक अलंकृत हैं। इनके स्तम्भ सिंहों के शीर्ष पर स्थित हैं तथा स्तम्भों के शीर्ष मंगलघट आकार के हैं। इनमें आदिवराह मण्डप, महिषमर्दिनी  मण्डप, पंचपाण्डव मण्डप तथा रामानुज मण्डप विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

रथ शैली के मंदिर विशाल पाषाण चट्टान को काटकर बनाये गये हैं। ये रथ मंदिर, काष्ठ के रथों की आकृतियों में बने हुए हैं। इनकी वास्तुकला मण्डप शैली जैसी है। इन रथों का विकास बौद्ध विहार तथा चैत्यगृहों से हुआ है। प्रमुख रथ मंदिरों में द्रोपदी रथ, अर्जुन रथ, नकुल-सहदेव रथ, भीम रथ, धर्मराज रथ, गणेश रथ, पिडारि रथ आदि हैं। ये सब शैव मंदिर हैं। द्रोपदी रथ सबसे छोटा है। धर्मराज रथ सबसे भव्य एवं प्रसिद्ध है। इसका शिखर पिरामिड के आकार का है। यह मंदिर दो भागों में है। नीचे का खण्ड वर्गाकार है तथा इससे लगा हुआ संयुक्त बरामदा है। यह रथ मंदिर आयताकार तथा शिखर ढोलकाकार है। मामल्ल शैली के रथ मंदिर अपनी मूर्तिकला के लिये भी प्रसिद्ध हैं। इन रथों पर दुर्गा, इन्द्र, शिव, गंगा, पार्वती, हरिहर, ब्रह्मा, स्कन्द आदि देवी-देवताओं की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। नरसिंहवर्मन (प्रथम) के साथ ही इस शैली का भी अंत हो गया।

3. राजसिंह शैली: नरसिंहवर्मन (द्वितीय) ने राजसिंह की उपाधि धारण की थी। इसलिये उसके नाम पर इस शैली को राजसिंह शैली कहा जाता है। महाबलीपुरम् में समुद्रतट पर स्थित तटीय मंदिर और कांची में स्थित कैलाशनाथ मंदिर तथा बैकुण्ठ पेरुमाल मंदिर इस शैली के प्रमुख मंदिर हैं। इनमें महाबलीपुरम् का तटीय शिव मंदिर पल्लव स्थापत्य एवं शिल्प का अद्भुत स्मारक है। यह मंदिर एक विशाल प्रांगण में बनाया गया है जिसका गर्भगृह समुद्र की ओर है तथा प्रवेश द्वार पश्चिम की ओर। इसके चारों ओर प्रदक्षिणा पथ तथा सीढ़ीदार शिखर है। शीर्ष पर स्तूपिका निर्मित है। इसकी दीवारों पर गणेश तथा स्कंद आदि देवताओं और गज एवं शार्दुल आदि बलशाली पशुओं की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। कांची के कैलाशनाथ मंदिर में राजसिंह शैली का चरमोत्कर्ष दिखाई देता है। इसका निर्माण नरसिंहवर्मन (द्वितीय) के शासन काल में आरंभ हुआ तथा उसके उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन (द्वितीय) के शासनकाल में पूर्ण हुआ। द्रविड़ शैली की समस्त विशेषतायें इस मंदिर में दिखाई देती हैं। मंदिर में शिव क्रीड़ाओं को अनेक मूर्तियों के माध्यम से अंकित किया गया है। इस मंदिर के निर्माण के कुछ समय बाद ही बैकुण्ठ पेरुमल का मंदिर बना। इसमें प्रदक्षिणा-पथ युक्त गर्भगृह है तथा सोपान युक्त मण्डप है। मंदिर का विमान वर्गाकार तथा चार मंजिला है जिसकी ऊँचाई लगभग 60 फुट है। प्रथम मंजिल में भगवान विष्ण के विभिन्न अवतारों की मूर्तियां हैं। मंदिर की भीतरी दीवारों पर राज्याभिषेक, उत्तराधिकार चयन, अश्वमेध, युद्ध एवं नगरीय जीवन के दृश्य अंकित किये गये हैं। यह मंदिर पल्लव वास्तुकला का पूर्ण विकसित स्वरूप प्रस्तुत करता है।

4. नन्दिवर्मन शैली: इस शैली के मंदिरों में वास्तुकला का कोई नवीन तत्व दिखाई नहीं देता किंतु आकार-प्रकार में ये निरंतर छोटे होते हुए दिखाई देते हैं। इस शैली के मंदिर, पूर्वकाल के पल्लव मंदिरों की प्रतिकृति मात्र हैं। ये मंदिर नंदिवर्मन तथा उसके उत्तराधिकारियों के शासन में बने थे। इस शैली के मंदिरों में स्तम्भ शीर्षों में कुछ विकास दिखाई देता है। इस शैली के मंदिरों में कांची के मुक्तेश्वर तथा मातंगेश्वर मंदिर तथा गुड़ीमल्लम का परशुरामेश्वर मंदिर उल्लेखनीय हैं। इनमें सजीवता का अभाव है। इससे अनुमान होता है कि इन मंदिरों के निर्माता किसी संकट में थे। दसवीं शताब्दी के अंत तक इन मंदिरों का निर्माण लगभग बंद हो गया।

साहित्य का विकास

पल्लव शासन में संस्कृत तथा तमिल भाषाओं के साहित्य का उन्न्यन हुआ। पल्लवों के समय नायनार तथा आलवार संतों के भक्ति आंदोलन ने वैष्णव साहित्य तथा तमिल भाषा के विकास में अपूर्व योगदान किया। अधिकांश पल्लव शासक विद्यानुरागी थे। उन्होंने कवियों और साहित्यकारों को राज्याश्रय दिया। पल्लवों की राजधानी कांची अत्यंत प्राचीन काल से ही संस्कृत विद्या के केन्द्र के रूप में विख्यात रही। पतंजलि के महाभाष्य से ज्ञात होता है कि मौर्य काल में भी कांची की ख्याति दूर-दूर तक विस्तृत थी। छठी शताब्दी ईस्वी के अंतिम दिनों में सिंहविष्णु ने संस्कृत के विद्वान भारवि को अपने दरबार में आमंत्रित किया। उस समय भारवि कांची में गंगराज दुर्विनीत के साथ रह रहे थे। भारवि ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ किरातार्जुनीय की रचना इसी समय की। माहुर अभिलेख के अनुसार किसी वैदिक विद्यालय की सहायता के लिये राज्य की ओर से तीन ग्राम दान में दिये गये थे।

राजा महेन्द्रवर्मन (प्रथम) अपने समय का महान लेखक था। उसने मत्तविलासप्रहसन नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का वर्णन मिलता है। सम्पूर्ण नाटक हास्य तथा विनोद से सम्पन्न है। राजा महेन्द्रवर्मन (प्रथम) शैव था। उसने बौद्ध धर्म पर सुनीतिपूर्ण आक्रमण किया। उसकी शैली सरल तथा ललित है। अनेक स्थलों पर उसने काव्य शक्ति का चमत्कार दिखाया है। छंदों के प्रयोग में उसने विशेष प्रतिभा का परिचय दिया है। राजा महेन्द्रवर्मन ने नृत्य कला पर भी पुस्तक लिखी। उसने चित्रकला तथा संगीत के सिद्धांतों की व्याख्या करने के लिये दक्षिणचित्र नामक ग्रंथ की रचना की। पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन भी उच्च कोटि का विद्यानुरागी था। उसकी राजसभा में दशकुमारचरितम् के रचयिता दण्डी रहते थे। पल्लव शासकों के अधिकांश लेख संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण हैं।

निष्कर्ष: इस प्रकार पल्लवों का भारतीय संस्कृति के उन्नयन में महत्वपूर्ण योगदान है। पल्लवों की वास्तुकला भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। पल्लवों ने बौद्ध चैत्यों से विरासत में प्राप्त कला का विकास करके नवीन शैलियों को जन्म दिया जो चोल एवं पाण्ड्य काल में पूर्ण विकसित हो गईं। पल्लव कला की विशेषतायें दक्षिण-पूर्वी एशिया तक विस्तृत हुईं। पल्लवों ने कला, साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में भारत को बहुत कुछ दिया। उनकी कला का प्रभाव भारत से बाहर अन्यान्य द्वीपों की कला, साहित्य एवं संस्कृति पर भी पड़ा।

अध्याय – 26 भारतीय संस्कृति में चालुक्यों का योगदान

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चालुक्य वंश

चालुक्यों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार वे प्राचीन क्षत्रियों के वंशज थे तो कुछ इतिहासकार उन्हें विदेशियों की संतान बताते हैं। स्मिथ के अनुसार वे विदेशी गुर्जर थे जो राजपूताना से दक्षिण की ओर जा बसे। डॉ. बी. सी. सरकार उन्हें कन्नड़ जातीय मानते हैं जो आगे चलकर स्वयं को क्षत्रिय कहने लगे। चालुक्यों की अनुश्रुतियों में चालुक्यों का मूल स्थान अयोध्या बताया गया है। चालुक्यों ने दक्षिण भारत में पाँचवी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक शासन किया और बहुत ख्याति प्राप्त की।

चालुक्यों की शाखाएँ: दक्षिण भारत के चालुक्यों की तीन प्रमुख शाखाएँ थीं- 1. बादामी (वातापी) के पूर्वकालीन पश्चिमी चालुक्य, 2. कल्याणी के उत्तरकालीन पश्चिमी चालुक्य तथा 3. वेंगी के पूर्वी चालुक्य। चालुक्यों की एक शाखा गुजरात अथवा अन्हिलवाड़ा में भी शासन करती थी। ये चालुक्य, दक्षिण के चालुक्यों से अलग थे। कुछ इतिहासकार उन्हें प्राचीन काल में एक ही शाखा से उत्पन्न होना मानते हैं।

बादामी अथवा वातापी के चालुक्य

जिन चालुक्यों ने बीजापुर जिले में स्थित बादामी (वातापी) को अपनी राजधानी बनाकर शासन किया वे वातापी के चालुक्य कहलाये। इन चालुक्यों ने 550 ई. से 750 ई. तक शासन किया।

आरंभिक शासक: इस वंश का पहला राजा जयसिंह था। वह बड़ा ही वीर तथा साहसी था। उसने राष्ट्रकूटों से महाराष्ट्र छीना था। जयसिंह के बाद रणराज, पुलकेशिन् (प्रथम) कीर्तिवर्मन, मंगलेेेेश आदि कई राजा हुए।

पुलकेशिन् (द्वितीय): इस वंश का सबसे प्रतापी राजा पुलकेशिन् (द्वितीय) था, जिसने 609 ई. से 642 ई. तक सफलतापूर्वक शासन किया। वह अत्यंत महत्त्वाकांक्षी शासक था। उसने राष्ट्रकूटों के आक्रमण का सफलतापूर्वक सामना किया और कदम्बों के राज्य पर आक्रमण कर उनकी राजधानी वनवासी को लूटा। उसके प्रताप से आंतकित होकर कई पड़ोसी राज्यों ने उसके प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया। पुलकेशिन् की सबसे बड़ी विजय कन्नौज के राजा हर्षवर्धन पर हुई। इससे उसकी प्रतिष्ठा में वृद्धि हो गई। पल्लवों के साथ भी उसने युद्ध किया। चोलों के राज्य पर भी उसने आक्रमण किया। उसने पाण्ड्य तथा केरल राज्य के राजाओं को भी अपना प्रभुत्व स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। विदेशी राज्यों के साथ भी पुलकेशिन् ने कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित किये। उसने फारस के शासक के साथ राजदूतों का आदन-प्रदान किया था। पुलकेशिन् के अन्तिम दिन बड़े कष्ट से बीते। पल्लव राजा नरसिंहवर्मन ने कई बार उसके राज्य पर आक्रमण किया और उसकी राजधानी वातापी को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। सम्भवतः इन्हीं युद्धों में पुलकेशिन् की मृत्यु हो गई।

पुलकेशिन् (द्वितीय) के उत्तराधिकारी: पुलकेशिन् (द्वितीय) के बाद उसके पुत्रों में उत्तराधिकार के लिये संघर्ष हुआ। इस कारण 642 ई. से 655 ई. तक चालुक्य राज्य में कोई भी एकच्छत्र राज्य नहीं रहा। इस वंश में कई निर्बल शासक हुए, जो इसे नष्ट होने से बचा नहीं सके। अन्त में 753 ई. के आस-पास राष्ट्रकूटों ने इस वंश का अन्त कर दिया।

कल्याणी के चालुक्य

753 ई. में राष्ट्रकूटों ने वातापी के चालुक्यों की सत्ता उखाड़ फैंकी किंतु चालुक्यों का समूल नाश नहीं किया। परवर्ती चालुक्य राष्ट्रकूटों के अधीन सामंत के रूप में शासन करने लगे। 950 ई. में चालुक्य सामंत तैलप (द्वितीय) ने राष्ट्रकूटों के राजा कर्क को परास्त करके कल्याणी में अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित की। उसके वंशजों ने 1181 ई. तक शासन किया। इस प्रकार चालुक्यों की जिस शाखा ने 950 ई. से 1181 ई. तक कल्याणी को अपनी राजधानी बनाकर शासन किया, वे कल्याणी के चालुक्य कहलाते हैं।

तैलप (द्वितीय): तैलप राष्ट्रकूटों का सामन्त था। 950 ई. में परमार सेनाओं ने राष्ट्रकूट राज्य पर आक्रमण किया। अवसर पाकर तैलप ने स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया। उसने 47 वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन किया। 997 ई. में तैलप की मृत्यु हुई। तैलप के बाद सत्याश्रय, विक्रमादित्य (पंचम), जयसिंह, सोमेश्वर (प्रथम), सोमेश्वर (द्वितीय) आदि कई राजा हुए।

विक्रमादित्य षष्ठम्: कल्याणी के चालुक्यों में विक्रमादित्य (षष्ठम्) सबसे प्रतापी शासक था। उसने चोल, होयसल तथा वनवासी के राजाओं को परास्त किया। उत्तर भारत में परमारों से उसकी मैत्री थी परन्तु सुराष्ट्र के चालुक्यों के साथ उसका निरन्तर संघर्ष चलता रहता था। विक्रमादित्य बड़ा विद्यानुरागी था। ‘विक्रमांकदेव चरित्र’ के रचियता विल्हण को उसका आश्रय प्राप्त था। उसने बहुत से भवनांे तथा मन्दिरों का निर्माण करवाया। विक्रमादित्य के बाद इस वंश में कई निर्बल राजा हुए, जो इसे पतनोन्मुख होने से नहीं बचा सके। अन्त में 1181 ई. के आसपास देवगिरि के यादवों ने कल्याणी के चालुक्यों का अन्त कर दिया।

वेंगी के चालुक्य

इन्हें पूर्वी चालुक्य भी कहा जाता है क्योंकि इनका राज्य कल्याणी के पूर्व में स्थित था। वातापी के चालुक्य राजा पुलकेशिन (द्वितीय) ने 621 ई. के लगभग आन्ध्र प्रदेश को जीतकर वहां अपने भाई विष्णुवर्धन को प्रशासक नियुक्त किया। विष्णुवर्धन ने इस क्षेत्र में अपने नये राजवंश की स्थापना की। इस राजवंश ने वेंगी को राजधानी बनाकर लगभग 500 वर्षों तक शासन किया। विष्णुवर्धन ने 625 ई. से 633 ई. तक शासन किया। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र जयसिंह (प्रथम) वेंगी के सिंहासन पर बैठा। उसके शासन काल में चालुक्यों के मूल राज्य वातापी पर पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन ने आक्रमण किया। इस युद्ध में पुलकेशिन (द्वितीय) मारा गया। इससे वातापी के चालुक्य कमजोर पड़ गये। उनकी कमजोरी का लाभ उठाकर वेंगी के चालुक्यों ने अपने राज्य का विस्तार करना आरंभ किया। जयसिंह के बाद इन्द्रवर्मन, मंगि, जयसिंह (द्वितीय), विष्णुवर्धन (तृतीय), विजयादित्य (प्रथम), विष्णुवर्धन (चतुर्थ), विजयादित्य (द्वितीय) और (तृतीय), भीम (प्रथम), विजयादित्य (चतुर्थ) एवं अम्म (प्रथम) आदि राजा हुए। 970 ई. में दानार्णव चालुक्यों के सिंहासन पर बैठा। 973 ई. में उसके साले जटाचोड भीम ने उसकी हत्या कर चालुक्यों के सिंहासन पर अधिकार कर लिया। 999 ई. में राजराज चोल ने वेंगी पर आक्रमण करके वेंगी के राजा जटाचोड भीम को मार डाला और जटाचोड भीम के पूर्ववर्ती राजा दानार्णव के पुत्र शक्तिवर्मन को वेंगी का राजा बनाया। 1063 ई. में कुलोत्तुंग चोल, वेंगी के सिंहासन पर बैठा। उसमें चोलों की अपेक्षा चालुक्य रक्त की प्रधानता थी। अतः उसके शासनकाल में चालुक्य राज्य और चोल राज्य एक ही हो गये। वेंगी के चालुक्यों का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो गया।

चालुक्यों की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

विभिन्न धर्मों को प्रश्रय

चालुक्यों ने दक्षिण भारत में एक विशाल राज्य की स्थापना की तथा उनकी तीन शाखाओं ने दक्षिण में दीर्घ काल तक शासन किया। इसलिये उन्हें कला एवं साहित्य में योगदान देने का विपुल अवसर प्राप्त हुआ।

वैदिक यज्ञों का प्रसार: चालुक्य राजा हिन्दू धर्म के मतावलम्बी थे। उनके समय के साहित्य तथा अभिलेखों में अनेक प्रकार के वैदिक यज्ञों के उल्लेख मिलते हैं। पुलकेशिन (प्रथम) ने अश्वमेध, वाजपेय तथा हिरण्य गर्भ आदि यज्ञ किये। उसके पुत्र कीर्तिवर्मन ने बहुसुवर्ण तथा अग्निष्टोम यज्ञ किया। इस काल में वैदिक यज्ञों के सम्बन्ध में कई ग्रंथों की रचना हुई।

जैन धर्म को सहायता: चालुक्यों के राज्य में हिन्दुओं के बाद जैन धर्मावलम्बी बड़ी संख्या में रहते थे। इसलिये चालुक्यों ने जैन प्रजा की भावनाओं का सम्मान करते हुए जैन धर्म के लिये काफी दान दिया तथा जैन मंदिरों का निर्माण करवाया। ऐहोल अभिलेख का लेखक रविकीर्ति जैन धर्म का अनुयायी था, वह पुलकेशिन (द्वितीय) के दरबार की शोभा बढ़ाता था। पुलकेशिन भी उसका बहुत सम्मान करता था। चालुक्य नरेश विजयादित्य की बहन कुंकुम महादेवी ने लक्ष्मीश्वर में एक जैन मंदिर का निर्माण करवाया। विजयादित्य ने अनेक जैन पण्डितों को ग्राम दान में दिये।

बौद्ध चैत्यों का निर्माण: अजंता की गुफाओं में कुछ बौद्ध चैत्यों का निर्माण चालुक्य शासकों के काल में हुआ। ह्वेनसांग के अनुसार चालुक्य राज्य में लगभग 100 बौद्ध विहार थे जिनमें 5000 से अधिक भिक्षु निवास करते थे। ह्वेनसांग ने वातापी के भीतर और बाहर 5 अशोक स्तूपों का भी उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि चालुक्य शासकों ने बौद्ध धर्म को भी संरक्षण दे रखा था।

चालुक्य वास्तु कला

इस काल में ऐहोल, वातापी और पट्टड़कल में बड़ी संख्या में हिन्दू देवताओं के मंदिर बने। चालुक्य शासकों ने विष्णु के अनेक अवतारों को अपना अराध्य देव माना। इनमें भी विष्णु के नृसिंह और वाराह रूपों की लोकप्रियता अधिक थी। इस काल में भगवान शिव के कैलाशनाथ, विरूपाक्ष, लोकेश्वर, त्रैलोक्येश्वर आदि रूपों की पूजा की जाती थी। अतः भगवान शिव के मंदिर भी बड़ी संख्या में बने।

वातापी राज्य में इस काल में बने मंदिरों को चालुक्य शैली के मंदिर कहा जाता है। चालुक्य शैली की वास्तु कला के तीन प्रमुख केन्द्र थे- ऐहोल, वातापी और पट्टड़कल। ऐहोल में लगभग 70 मंदिर मिले हैं। इसी कारण इस नगर को मंदिरों का नगर कहा गया है। समस्त मंदिर गर्भगृह और मण्डपों से युक्त हैं परंतु छतों की बनावट एक जैसी नहीं है। कुछ मंदिरों की छतें चपटी हैं तो कुछ की ढलवां हैं। ढलवां छतों पर भी शिखर बनाये गये हैं। इन मंदिरों में लालखां का मंदिर तथा दुर्गा का मंदिर विशेष उल्लेखनीय हैं। बादामी में चालुक्य वास्तुकला का निखरा हुआ रूप देखने को मिलता है। यहां पहाड़ को काटकर चार मण्डप बनाये गये हैं। इनमें एक मंडप जैनियों का है, शेष तीन मण्डप हिन्दुओं के हैं। इनके तीन मुख्य भाग हैं- गर्भगृह, मण्डप और अर्धमण्डप। पट्टड़कल के मंदिर वास्तु की दृष्टि से और भी सुंदर हैं। पट्टड़कल के वास्तुकारों ने आर्य शैली तथा द्रविड़ शैली को समान रूप से विकसित करने का प्रयास किया। पट्टड़कल में आर्य शैली के चार मंदिर तथा द्रविड़ शैली के 6 मंदिर हैं। आर्य शैली का सर्वाधिक सुंदर मंदिर पापनाथ का मंदिर है। द्रविड़ शैली का सर्वाधिक आकर्षक मंदिर विरुपाक्ष का मंदिर है। पापनाथ का मंदिर 90 फुट की लम्बाई में बना हुआ है। इस मंदिर के गर्भगृह और मण्डप के मध्य में जो अंतराल बना हुआ है, वह भी मण्डप जैसा ही प्रतीत होता है। गर्भगृह के ऊपर एक शिखर है जो ऊपर की ओर संकरा होता चला गया है। विरुपाक्ष मंदिर 120 फुट लम्बाई में बना हुआ है। मंदिर की स्थापत्य कला भी अनूठी है।

चालुक्य कालीन साहित्य

चालुक्य शासकों ने साहित्य को भी प्रोत्साहन दिया। उनके दरबार में अनेक विद्वान रहते थे। ह्वेनसांग ने भी लिखा है कि चालुक्य शासक विद्यानुरागी थे। विक्रमादित्य (षष्ठम्) के दरबार में विक्रमांकदेव चरित्र का लेखक विल्हण और मिताक्षरा के लेखक विज्ञानेश्वर का बड़ा सम्मान था। सोमेश्वर (तृतीय) स्वयं परम विद्वान था। उसने मानसोल्लास नामक ग्रंथ की रचना की। अपनी विद्वत्ता के कारण वह सर्वज्ञभूप कहा जाता था। 

अध्याय – 27 भारतीय संस्कृति में चोलों का योगदान

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चोल वंश

चोल तमिल भाषा के ‘चुल’शब्द से निकला है, जिसका अर्थ होता है घूमना। चूंकि ये लोग एक स्थान पर स्थिर नहीं रहते थे इसलिये ये चोल कहलाये। चोल स्वयं को सूर्यवंशी क्षत्रिय् कहते थे। चोलों का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। इनका उल्लेख अशोक के शिलालेखों में भी मिलता है। दक्षिण भारत के इतिहास में लम्बे अन्धकार काल के बाद नौवीं शताब्दी ईस्वी में चोलों का अभ्युत्थान हुआ। अनुमान है कि ये पहले उत्तर भारत के निवासी थे परन्तु घूमते हुए दक्षिण भारत में पहुँच गये। कालांतर में आधुनिक तंजौर तथा त्रिचनापल्ली के जिलों में अपनी राजसत्ता स्थापित कर और तंजौर को अपनी राजधानी बनाकर शासन करने लगे। धीरे-धीरे चोलों ने अपने साम्राज्य की सीमा बढ़ा ली और वे दक्षिण भारत के शक्तिशाली शासक बन गये। प्रारम्भ में चोल आंध्र तथा पल्लव राज्यों की अधीनता में शासन करते थे परन्तु जब पल्लवों की शक्ति का ह्रास होने लगा, तब इन लोगों ने पल्लव राज्य को समाप्त कर दिया और स्वतंत्र रूप से शासन करने लगे।

विजयालय: नौवीं शताब्दी के मध्य तक चोल शासक, पल्लवों के अधीन राज्य करते थे। वि

जयालय ने 846 ई. में स्वतंत्र चोल वंश की स्थापना की। उसका शासनकाल 846 ई. से 871 ई. माना जाता है।

आदित्य (प्रथम): विजयालय का उत्तराधिकारी उसका पुत्र आदित्य (प्रथम) हुआ। पल्लव नरेश ने उसकी सेवाओं से प्रसन्न होकर उसे तंजौर के निकटवर्ती कुछ क्षेत्रों पर राज्य करने का अधिकार दे दिया। आदित्य (प्रथम) ने शीघ्र ही पल्लवों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया तथा तोण्डमण्डलम् पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में पल्लव नरेश अपराजित मारा गया। इस प्रकार पल्लव वंश का अंत हो गया और पल्लव राज्य पर चोल वंश का शासन हो गया। आदित्य (प्रथम) ने पाण्ड्य नरेश पर आक्रमण करके उससे कोंगु प्रदेश छीन लिया। इस प्रकार आदित्य (प्रथम) ने शक्तिशाली चोल राज्य की स्थापना की।

परांतक प्रथम: आदित्य का उत्तराधिकारी उसका पुत्र परान्तक (प्रथम) हुआ। उसने मदुरा के पाण्ड्य नरेश को परास्त करके मदुरा पर अधिकार कर लिया। इस उपलक्ष्य में उसने मदुरईकोण्ड् अर्थात् मदुरा के विजेता की उपाधि धारण की। लंका नरेश ने पाण्ड्य नरेश का साथ दिया था किंतु वह भी परान्तक से परास्त होकर चला गया। राष्ट्रकूट वंश के शासक कृष्ण (द्वितीय) को भी परांतक (प्रथम) ने परास्त किया किंतु बाद में वह स्वयं राष्ट्रकूट शासक कृष्ण (तृतीय) से तक्कोलम् के युद्ध में परास्त हो गया। परान्तक ने अनेक शैव मंदिरों का निर्माण करवाया। संस्कृत का प्रसिद्ध विद्वान वैंकट माधव इसी समय हुआ। उसके द्वारा ऋग्वेद पर लिखा गया भाष्य बड़ा प्रसिद्ध है।

राजराज (प्रथम): चोल वंश का प्रथम शक्तिशाली विख्यात शासक राजराज (प्रथम) था, जिसने 985 ई. से 1014 ई. तक शासन किया। राजराज एक महान् विजेता तथा योग्य शासक था। सबसे पहले उसका संघर्ष चेर राजा के साथ हुआ। उसने चेरों के जहाजी बेड़े को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इसके बाद उसने पाण्ड्य राज्य पर आक्रमण किया और मदुरा पर अधिकार कर लिया। उसने कोल्लम तथा कुर्ग पर भी प्रभुत्व जमा लिया। उसने सिंहल द्वीप पर भी आक्रमण कर दिया और उसके उत्तरी भाग पर विजय प्राप्त कर उसे अपने साम्राज्य का प्रान्त बना लिया। उसने कुछ अन्य पड़ोसी राज्यों पर भी अधिकार जमा लिया। इसके बाद राजराज का चालुक्यों के साथ भीषण संग्राम आरम्भ हो गया। यह संग्राम बहुत दिनों तक चलता रहा। अन्त में राजराज की विजय हुई। राजराज ने कंलिग पर भी विजय प्राप्त की।

राजराज (प्रथम) की सांस्कृतिक उपलब्धियां: यद्यपि राजराज (प्रथम) शैव था, परन्तु उससमें उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। उसने कई वैष्णव मन्दिर भी बनवाये। उसने चक्र बौद्ध विहार को गाँव दान में दिया। तंजौर का भव्य एवं विशाल राजराजेशवर शिव मन्दिर उसी का बनवाया हुआ है। यह मंदिर द्रविड़ वास्तु का सर्वोत्तम नमूना है। यह मंदिर शिल्पकला, उत्कृष्ट अलंकरण विधानों एवं प्रभावोत्पादक स्थापत्य योजना के लिये प्रख्यात है। मंदिर की दीवारों पर उसकी उपलब्धियों के लेख मिले हैं। स्वयं शिवभक्त होने पर भी राजराज ने विष्णु मंदिरों का निर्माण करवाया। उसने जावा के राजा को एक बौद्ध विहार के निर्माण में सहायता दी और उसके लिये दान भी दिया। वास्तव में राजराज चोल वंश का महान् शासक था। चोल इतिहास का स्वर्णकाल राजराज (प्रथम) से आरम्भ होता है।

राजेन्द्र (प्रथम): राजराज के बाद उसका पुत्र राजेन्द्र (प्रथम) शासक हुआ। उसने 1015 ई. से 1042 ई. तक शासन किया। वह चोल वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। उसने अपने पिता की साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया। उसने सबसे पहले दक्षिण के राज्यों पर विजय की। उसने सिंहल द्वीप, चेर एवं पाण्ड्यों पर विजय प्राप्त की। उसने कल्याणी के चालुक्यों से लम्बा संघर्ष किया। इसके बाद उसने उत्तर की ओर प्रस्थान किया। उसने बंगाल, मगध, अण्डमान, निकोबार तथा बर्मा के अराकान और पीगू प्रदेश को भी जीत लिया। इसके बाद उसने अपनी जलसेना के साथ पूर्वी द्वीप समूह की ओर प्रस्थान किया और मलाया, सुमात्रा, जावा तथा अन्य कई द्वीपों पर अधिकार कर लिया।

राजेन्द्र (प्रथम) की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ: राजेन्द्र (प्रथम) की राजनैतिक विजयों से विदेशों में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार हुआ। राजेन्द्र (प्रथम) कलाप्रेमी भी था और उसने बहुत से नगरों, भवनों आदि का निर्माण करवाया। उसने गंगईकोण्डचोलपुरम् का निर्माण करवाकर सुंदर मंदिरों, भवनों तथा तड़ागों से अलंकृत कर उसे अपनी राजधानी बनाया। वह साहित्यप्रेमी तथा विद्यानुरागी था। वेद विद्या एवं शास्त्रों के अध्ययन के लिये उसने एक विद्यालय स्थापित किया।

राजेन्द्र (प्रथम) के बाद भी चोलवंश में कई योग्य राजा हुए जिन्होंने अपने पूर्वजों के राज्य को सुरक्षित तथा सुसंगठित रखा परन्तु बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में चोल साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया। पड़ोसी राज्यों के साथ निरन्तर संघर्ष करने तथा सामन्तों के विद्रोहों के कारण चोल साम्राज्य धीरे-धीरे निर्बल होता गया। अन्त में पाण्ड्यों ने उसे छिन्न-भिन्न कर दिया।

चोल शासकों की सास्कृतिक उपलब्धियाँ

स्थापत्य कला

चोल शासकों ने अपने पूर्ववर्ती पल्लव राजाओं की भांति द्रविड़ स्थापत्य एवं शिल्प को चरम पर पहुंचा दिया। चोल शासक परान्तक ने अपने राज्य में अनेक शैव मंदिरों का निर्माण करवाया। राजराज (प्रथम) ने कई शिव मंदिर तथा वैष्णव मन्दिर बनवाये। तंजौर का भव्य एवं विशाल राजराजेशवर शिव मन्दिर उसी का बनवाया हुआ है। यह मंदिर द्रविड़ वास्तु का सर्वोत्तम नमूना है। यह मंदिर शिल्पकला, उत्कृष्ट अलंकरण विधानों एवं प्रभावोत्पादक स्थापत्य योजना के लिये प्रख्यात है। राजराज ने जावा के राजा को बौद्ध विहार के निर्माण में सहायता दी और उसके लिये दान भी दिया।

चोल शासकों के काल में विकसित मंदिर शैली, दक्षिण भारत के अन्य भागों एवं श्रीलंका में भी अपनाई गई। उनके शासन के अंतर्गत सम्पूर्ण तमिल प्रदेश बड़ी संख्या में मंदिरों से सुशोभित हुआ। कहा जाता है कि चोल कलाकारों ने इन मंदिरों के निर्माण में दानवों की शक्ति और जौहरियों की कला का प्रदर्शन किया। चोल मंदिरों की विशेषता उनके विशाल शिखर या विमान हैं।

चोल मंदिरों में तंजौर का बृहदीश्वर मंदिर प्रमुख है जो एक दुर्ग के भीतर निर्मित है। इसका निर्माता राजराज (प्रथम) था। इसके विमान का 13 मंजिला शिखर 58 मीटर ऊँचा है। प्रवेशद्वार का गोपुर 29 मीटर वर्गाकार आधार ढांचे पर निर्मित है। गुम्बदाकार शिखर 7.8 मीटर की वर्गाकार शिला पर अधिष्ठित है। इसके ऊपर एक अष्टकोणीय स्तूप तथा 12 फुट ऊँचा कलश स्थापित है। 81 फुट की इस भीमकाय शिला को ऊपर तक ले जाने के लिये मिश्र शैली को अपनाते हुए ऊँचाई में उत्तरोत्तर बढ़ती सड़क का निर्माण किया गया जिसकी लम्बाई 6.4 किलोमीटर थी। शिखर के चारों तरफ 2 मीटर गुणा 1.7 मीटर के आकार में दो-दो नंदी प्रतिष्ठित हैं। स्तूप और विमान इस तरह से निर्मित हैं कि उनकी छाया भूमि पर नहीं पड़ती। इस मंदिर के गर्भगृह में विशाल शिवलिंग स्थापित है जिसे वृहदीश्वर कहा जाता है। पर्सी ब्राउन के अनुसार बृहदीश्वर मंदिर का विमान भारतीय स्थापत्य कला का निचोड़ है। इसी मंदिर की अनुकृति पर राजेन्द्र चोल (प्रथम) ने गंगईकोण्डचोलपुरम् में शिव मंदिर का निर्माण करवाया। यह मंदिर भी चोल कला का उत्कृष्ट नमूना है।

चोल शासक राजेन्द्र (प्रथम) कलाप्रेमी था। उसने बहुत से नगरों, भवनों आदि का निर्माण करवाया। उसने गंगईकोण्डचोलपुरम् का निर्माण करवाकर सुंदर मंदिरों और भवनों तथा तड़ागों से अलंकृत कर उसे अपनी राजधानी बनाया।

दक्षिण के चोल मंदिरों में मण्डप नामक बड़ा कक्ष होता था जिसमें स्तम्भों पर बारीक नक्काशी की जाती थी तथा छतें सपाट रखी जाती थीं। मण्डप सामान्यतः गर्भगृह के सामने बनाये गये। इसमें भक्त एकत्र होकर विधि-विधानपूर्वक नृत्य करते थे। कहीं-कहीं देव प्रतिमों से युक्त एक गलियारा गर्भगृह के चारों ओर जोड़ दिया जाता था ताकि भक्तगण उसकी परिक्रमा कर सकें। सम्पूर्ण ढांचे के चारों ओर ऊँची दीवारों और विशाल द्वारों वाला एक आहता बनाया जाता था जिसे गोपुरम कहते थे। कुछ मंदिरों में राजा और उसकी रानियों के चित्र भी लगाये गये।

साहित्य

चोल काल में तमिल भाषा एवं सहित्य का विकास हुआ। इस काल का प्रसिद्ध लेखक जयगोन्दर था जिसने कलिंगत्तुप्परणि की रचना की। परांतक (प्रथम) के शासन काल में संस्कृत का प्रसिद्ध विद्वान वैंकट माधव हुआ जिसके द्वारा ऋग्वेद पर लिखा गया भाष्य बड़ा प्रसिद्ध है। चोल शासक राजेन्द्र (प्रथम) साहित्य एवं विद्यानुरागी था। वेद विद्या एवं शास्त्रों के अध्ययन के लिये उसने एक विद्यालय स्थापित किया। जयगोन्दर, कुलोत्तुंग (प्रथम) के दरबार को सुशोभित करता था। कुलोत्तुंग (प्रथम) के समय में कम्बन नामक प्रसिद्ध कवि हुए जिन्होंने तमिल रामायण की रचना की। इसे तमिल साहित्य का महाकाव्य माना जाता है। इस काल की अन्य रचनाओं में जैन कवि विरुत्तक्कदेवर कृत जीवक चिंतामणि, जैन विद्वान तोलामोल्लि कृत शूलमणि, बौद्ध विद्वान बुद्धमित्त कृत वीर सोलियम, आदि प्रमुख हैं। चोलकाल के संस्कृत लेखकों में वैष्णव आचार्य नाथमुनि, यमुनाचार्य तथा रामानुज सुप्रसिद्ध हैं।

अध्याय – 28 : भारत में राजपूतों का उदय

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पुष्यभूति राजा हर्षवर्द्धन की मृत्यु के उपरान्त भारत की राजनीतिक एकता पुनः भंग हो गई और देश के विभिन्न भागों में छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हुई। इन राज्यों के शासक राजपूत थे। इसलिये इस युग को ‘राजपूत-युग’ कहा जाता है। इस युग का आरम्भ 648 ई. में हर्ष की मृत्यु से होता है और इसका अन्त 1206 ई. में भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना से होता है। इसलिये 648 ई. से 1206 ई. तक के काल को भारतीय इतिहास में ‘राजपूत-युग’ कहा जाता है।

राजपूत युग का महत्त्व

भारतीय इतिहास में राजपूत युग का बहुत बड़ा महत्त्व है। इस युग में भारत पर मुसलमानों के आक्रमण आरम्भ हुए। लगभग साढ़े पाँच शताब्दियों तक राजपूत योद्धाओं ने वीरता तथा साहस के साथ मुस्लिम आक्रांताओं का सामना किया और देश की स्वतन्त्रता की रक्षा करते रहे। यद्यपि वे अंत में विदेशी आक्रांताओं से परास्त हुए परन्तु लगभग छः शताब्दियों तक उनके द्वारा की गई देश सेवा भारत के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखती है। राजपूत शासकों में कुछ ऐसे विशिष्ट गुण थे, जिनके कारण उनकी प्रजा उन्हें आदर की दृष्टि से देखती थी। राजपूत योद्धा अपने वचन का पक्का होता था और किसी के साथ विश्वासघात नहीं करता था। वह शत्रु को पीठ नहीं दिखाता था। वह रणक्षेत्र में वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त करना पसंद करता था। राजपूत योद्धा, निःशस्त्र शत्रु पर प्रहार करना महापाप और शरणागत की रक्षा करना परम धर्म समझता था। वह रणप्रिय होता था और रणक्षेत्र ही उसकी कर्मभूमि होती थी। वह देश की रक्षा का सम्पूर्ण भार वहन करता था।

राजपूत योद्धाओं के गुणों की प्रशंसा करते हुए कर्नल टॉड ने लिखा है- ‘यह स्वीकार करना पड़ेगा कि राजपूतों में उच्च साहस, देशभक्ति, स्वामि-भक्ति, आत्म-सम्मान, अतिथि-सत्कार तथा सरलता के गुण विद्यमान थे। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने राजपूतों के गुणों की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘राजपूत में आत्म-सम्मान की भावना उच्च कोटि की होती थी। वह सत्य को बड़े आदर की दृष्टि से देखता था। वह अपने शत्रुओं के प्रति भी उदार था और विजयी हो जाने पर उस प्रकार की बर्बरता नहीं करता था, जिनका किया जाना मुस्लिम-विजय के फलस्वरूप अवश्यम्भावी था। वह युद्ध में कभी बेईमानी या विश्वासघात नहीं करता था और गरीब तथा निरपराध व्यक्तियों को कभी क्षति नहीं पहुँचाता था।’ राजपूत राजाओं ने देश को धन-धान्य से परिपूर्ण बनाने के अथक प्रयास किये।

सांस्कृतिक दृष्टि से भी राजपूत युग का बड़ा महत्त्व है। उनके शासन काल में साहित्य तथा कला की उन्नति हुई और धर्म की रक्षा का प्रयत्न किया गया। राजपूत राजाओं ने अपनी राजसभाओं में कवियों तथा कलाकारों को प्रश्रय, पुरस्कार तथा प्रोत्साहन दिया। इस काल में असंख्य मन्दिरों एवं देव प्रतिमाओं का निर्माण हुआ और मंदिरों को दान-दक्षिणा से सम्पन्न बनाया गया।

राजपूत शब्द की व्याख्या

राजपूत शब्द संस्कृत के ‘राजपुत्र’ का बिगड़ा हुआ स्वरूप है। प्राचीन काल में राजपुत्र शब्द का प्रयोग राजकुमारों तथा राजवंश के लोगों के लिए होता था। प्रायः क्षत्रिय ही राजवंश के होते थे, इसलिये ‘राजपूत’ शब्द सामान्यतः क्षत्रियों के लिए प्रयुक्त होने लगा। जब मुसलमानों ने भारत में प्रवेश किया तब उन्हें राजपुत्र शब्द का उच्चारण करने में कठिनाई हुई, इसलिये वे राजपुत्र के स्थान पर राजपूत शब्द का प्रयोग करने लगे। राजपूत शब्द की व्याख्या करते हुए डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘राजपूताना के कुछ राज्यों में साधारण बोलचाल में राजपूत शब्द का प्रयोग क्षत्रिय सामन्त या जागीदार के पुत्रों को सूचित करने के लिए किया जाता है परन्तु वास्तव में यह संस्कृत के राजपुत्र शब्द का विकृत स्वरूप है जिसका अर्थ हेाता है राजवंश का।’

राजपूत शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग सातवीं शताब्दी के दूसरे भाग में हुआ। उसके पूर्व कभी इस शब्द का प्रयोग नहीं हुआ, इसलिये राजपूतों की उत्पति के सम्बन्ध में विद्वानों में बड़ा मतभेद उत्पन्न हो गया। इस सम्बन्ध में डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘राजपूतों की उत्पति विवाद ग्रस्त है। राजपूतों की उत्पत्ति को निश्चित रूप से निर्धारत करने के लिए ऐतिहासिक विदग्धता का प्रयोग किया गया है और ब्राह्मण साहित्य तथा चारणों की प्रशस्तियों में उन्हें जो उच्च अभिजातीय स्थान प्रदान किया गया है उसने कठिनाई को अत्यधिक बढ़ा दिया है।’

राजपूतों की उत्पत्ति

राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों में बड़ा मतभेद है। कुछ विद्वान् उन्हें विशुद्ध प्राचीन क्षत्रियों की सन्तान बताते हैं तो कुछ उन्हें विदेशियों के वशंज। कुछ विद्वानों के अनुसार राजपूत मिश्रित-रक्त के हैं।

(1) प्राचीन क्षत्रियों से उत्पत्ति: अधिकांश भारतीय इतिहासकारों के अनुसार राजपूत प्राचीन क्षत्रियों के वंशज हैं जो अपने को सूर्यवंशी तथा चन्द्रवंशी मानते हैं। यह विचार भारतीय अनुश्रुतियों तथा परम्परा के अनुकूल पड़ता है। प्राचीन अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि प्राचीन क्षत्रिय समाज दो भागों में विभक्त था। इनमें से एक सूर्यवंशी और दूसरा चन्द्रवंशी कहलाता था। कालान्तर में इनकी एक तीसरी शाखा उत्पन्न हो गई जो यदुवंशी कहलाने लगी। इन्हीं तीन शाखाओं के अन्तर्गत समस्त क्षत्रिय आ जाते थे। इनका मुख्य कार्य शासन करना तथा आक्रमणकारियों से देश की रक्षा करना था। क्षत्रियों का यह कार्य भारतीय जाति-व्यवस्था के अनुकूल था। कालान्तर में कुल के महान् ऐश्वर्यशाली व्यक्तियों के नाम पर भी वंश के नाम पड़ने लगे। इससे क्षत्रियों की अनेक उपजातियाँ बन गईं। हर्ष की मृत्यु के उपरान्त क्षत्रियों की इन्हीं विभिन्न शाखाओं ने भारत के विभिन्न भागों में अपने राज्य स्थापित कर लिये। ये शाखाएं सामूहिक रूप से राजपूत कहलाईं। राजपूतों का जीवन, उनके आदर्श तथा उनका धर्म उसी प्रकार का था, जो प्राचीन क्षत्रियों का था। उनमें विदेशीपन की कोई छाप नहीं थी। इसलिये अधिकांश भारतीय इतिहासकारों ने उन्हें प्राचीन क्षत्रियों की सन्तान माना है।

(2) अग्निकुण्ड से उत्पत्ति: पृथ्वीराज रासो के अनुसार राजपूतों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से हुई। जब परशुराम ने क्षत्रियों का विनाश कर दिया तब समाज में बड़ी गड़बड़ी फैल गई और लोग कर्त्तव्य भ्रष्ट हो गये। इससे देवता बड़े दुःखी हुए और आबू पर्वत पर एकत्रित हुए, जहाँ एक विशाल अग्निकुण्ड था। इसी अग्निकुण्ड से देवताओं ने प्रतिहारों (पड़िहारों), परमारों (पँवारों), चौलुक्यों (सोलंकियों) तथा चाहमानों (चौहानों) को उत्पन्न किया। इसलिये ये चारों वंश अग्निवंशी कहलाते हैं।

इस अनुश्रुति के स्वीकार करने में कठिनाई यह है कि यह अनुश्रुति सोलहवीं शताब्दी की है। इसके पूर्व इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता। इसलिये यह चारणों की कल्पना प्रतीत होती है। कुछ इतिहासकारों की धारणा है कि इन राजपूतों ने अग्नि के समक्ष, अरबों तथा तुर्कों से देश की रक्षा की शपथ ली। इसलिये ये अग्निवंशी कहलाये। कुछ अन्य इतिहासकारों की धारणा है कि ब्राह्मणों ने यज्ञ द्वारा जिन विदेशियों की शुद्धि करके क्षत्रिय समाज में समाविष्ट कर लिया था, वही अग्निवंशी राजपूत कहलाये।

अग्निकुण्ड से राजपूतों की उत्पति मानने वाले बहुत कम विद्वान हैं। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘यह स्पष्ट है कि कथा कोरी गल्प है और इसे सिद्ध करने के लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। यह ब्राह्मणों द्वारा उस जाति को अभिजातीय सिद्ध करने का प्रयास प्रतीत होता है, जिसका समाज में बड़ा ऊँचा स्थान था और जो ब्राह्मणों को मुक्त हस्त होकर दान देते थे। ब्राह्मणों ने बड़े उत्साह के साथ उस उदारता का बदला देने का प्रयत्न किया।’

(3) विदेशियों से उत्पत्ति: पुराणों में हैहय राजपूतों का उल्लेख शकों तथा यवनों के साथ किया गया है। इस कारण कुछ इतिहासकारों ने राजपूतों की उत्पत्ति विदेशियों से बतलाई है। कर्नल टॉड ने राजपूतों तथा मध्य एशिया की शक तथा सीथियन जातियों में बड़ी समानता पाई है। इसलिये वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि राजपूत उन्हीं विदेशियों के वंशज हैं। ये जातियाँ समय-समय पर भारत में प्रवेश करती रही हैं। उन्होंने कालान्तर में हिन्दू धर्म तथा हिन्दू रीति रिवाजों को स्वीकार कर लिया। चूँकि ये विदेशी जातियाँ, शासक वर्ग में आती थीं, जिस वर्ग में भारत के प्राचीन क्षत्रिय आते थे, इसलिये उन्होेंने प्राचीन क्षत्रियों का स्थान ग्रहण कर लिया और राजपूत कहलाने लगे। टॉड के इस मत का अनुमोदन करते हुए स्मिथ ने लिखा है- ‘ मुझे इस बात मंें कोई संदेह नहीं है कि शकों तथा कुषाणों के राजवंश, जब उन्होंने हिन्दू धर्म को स्वीकार कर लिया तब हिन्दू जाति-व्यवस्था में क्षत्रियों के रूप में सम्मिलित कर लिये गये।’ राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति का समर्थन करते हुए क्रुक ने लिखा है- ‘आजकल के अनुसन्धानों ने राजपूतों की उत्पत्ति पर काफी प्रकाश डाला है। वैदिक क्षत्रियों तथा मध्य काल के राजपूतों में ऐसी खाई है जिसे पूरा करना असंभव है।’ इस मत को स्वीकार करने में बड़ी कठिनाई यह है कि यदि समस्त राजदूत विदेशी थे तो हर्ष की मृत्यु के उपरान्त भारत के प्राचीन क्षत्रियों की एक जीवित तथा शक्तिशाली जाति, जिसके हाथ में राजनीतिक शक्ति थी, सहसा कहाँ, कैसे और कब विलुप्त हो गई ? इस मत को स्वीकार करने में दूसरी कठिनाई यह है कि राजपूतों का जीवन उनके आदर्श, उनका नैतिक स्तर तथा उनका धर्म विदेशियों से बिल्कुल भिन्न और प्राचीन क्षत्रियों के बिल्कुल अनुरूप है। इसलिये उन्हें विदेशी मानना अनुचित है।

(4) मिश्रित उत्पत्ति: इस मत के अनुसार विभिन्न कालखण्डों में शक, कुषाण, हूण, सीथियन गुर्जर आदि जो विदेशी जातियाँ भारत में आकर शासन करने लगीं, उन्होंने भारतीय क्षात्र-धर्म स्वीकार कर लिया, वे भारतीय क्षत्रियों में घुल-मिल गईं। भारतीय समाज में विदेशियों को आत्मसात् करने की बहुत बड़ी क्षमता थी इसलिये विदेशी जातियाँ भारतीयों में घुल-मिल गईं। इनके विलयन की सर्वाधिक सम्भावना थी, क्योंकि विदेशी शासक भी भारतीय क्षत्रियों की भाँति शासक वर्ग के थे और उन्हीं के समान वीर तथा साहसी थे। इसलिये यह स्वाभाविक प्रतीत होता है कि विदेशी शासकों एवं प्राचीन भारतीय क्षत्रिय कुलों में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हो गये और उनके आचार-व्यवहार तथा रीति-रिवाज एक से हो गये हो। इसी से कुछ विद्वानों की यह धारणा है कि राजपूत लोग निश्चय ही प्राचीन क्षत्रियों के वशंज हैं तथा उनमें विदेशी रक्त के सम्मिश्रण की भी सम्भावना है।

(5) अन्य मत: परशुराम स्मृति में राजपूत को वैश्य पुरुष तथा अम्बष्ठ स्त्री से उत्पन्न बताया है। इससे वह शूद्र सिद्ध होता है किंतु विद्वानों के अनुसार परशुराम स्मृति का यह कथन मूल ग्रंथ का नहीं है, उसे बाद के किसी काल में क्षेपक के रूप में जोड़ा गया है।

अध्याय – 29 : भारत के प्रमुख राजपूत-वंश

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गुर्जर-प्रतिहार वंश

गुर्जर-प्रतिहार वंश का उदय राजस्थान के दक्षिण-पूर्व में गुर्जर प्रदेश में हुआ। इसी कारण इस वंश के नाम के पहले गुर्जर शब्द जोड़ दिया गया। प्राचीन क्षत्रियों के शासन काल में सम्राट के अंगरक्षक को प्रतिहार कहते थे। अनुमान है कि प्रतिहार वंश के संस्थापक, पूर्व में किसी राजा के प्रतिहार थे। इसी से इस वंश का नाम प्रतिहार वंश पड़ा। ग्वालियर अभिलेख के अनुसार प्रतिहार वंश सौमित्र (लक्ष्मण) से उत्पन्न हुआ। लक्ष्मण ने मेघनाद की सेना का प्रतिहरण किया था (भगा दिया था) इसी कारण उनका वंश प्रतिहार कहलाया। इस वंश के लोग स्वयं को सूर्यवंशी क्षत्रिय तथा लक्ष्मण के वंशज मानते हैं। डॉ. गौरीशंकर ओझा उन्हें ईक्ष्वाकु वंशी मानते हैं।

डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘यह कहना बहुत बड़ी मूर्खता होगी कि राजपूत लोग प्राचीन वैदिक काल के क्षत्रियों की शुद्ध सन्तान हैं। ऐसा सोचकर हम मिथ्याभिमान कर सकते हैं, परन्तु मिथ्याभिमान प्रायः तथ्य से दूर होता है। पाँचवी तथा छठीं शताब्दी ई. में भी विदेशी भारत में आये, वे प्रतिहार थे इसलिये उस वंश के लोग प्रतिहार कहलाये।’ कनिंघम ने प्रतिहारों को यूचियों की संतान माना है। स्मिथ आदि विद्वानों ने प्रतिहारों को हूणों की संतान माना है। आर.सी. मजूमदार आदि इतिहासकार प्रतिहारों को खिजरों की संतान मानते हैं तथा खिजर शब्द से ही गुर्जर शब्द की उत्पत्ति मानते हैं।

प्रतिहार वंश का उदय सर्वप्रथम राजस्थान में जोधपुर के निकट मण्डोर नामक स्थान पर हुआ। इस वंश की एक शाखा ने उन्नति करते हुए अवंति (उज्जैन) में अपनी प्रभुता स्थापित कर ली और वहीं पर शासन करने लगी।

नागभट्ट (प्रथम): इस शाखा का प्रथम शासक नागभट्ट (प्रथम) था। उसने जालोर को अपनी राजधानी बनाया। वह बड़ा प्रतापी शासक था। उसने सम्पूर्ण मालवा तथा पूर्वी राजस्थान पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। उसके शासनकाल में 725 ई. में अरब आक्रांताओं ने मालवा पर आक्रमण किया। नागभट्ट ने बड़ी वीरता तथा साहस के साथ विदेशी आक्रमणकारियों का सामना किया और उन्हें मार भगाया। इस प्रकार नागभट्ट (प्रथम) ने मुसलमानों से देश की रक्षा का प्रशंसनीय कार्य किया।

वत्सराज: नागभट्ट (प्रथम) के बाद नाममात्र के दो शासक हुए। इस वंश का चौथा शासक वत्सराज था। वह प्रतापी राजा था, उसने राजपूताना के भट्टी वंश के राजा को परास्त किया और गौड़ (बंगाल) के राजा धर्मपाल को परास्त कर बंगाल तक शक्ति बढ़ा ली परन्तु राष्ट्रकूट राजा ध्रुव ने वत्सराज को परास्त कर मरूभूमि में शरण लेने के लिए बाध्य किया।

नागभट्ट (द्वितीय): वत्सराज की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र नागभट्ट (द्वितीय) प्रतिहारों के सिंहासन पर बैठा। वह साहसी तथा महत्त्वकांक्षी शासक था। उसने राष्ट्रकूट राजा से अपने पिता की पराजय का बदला लेने का प्रयत्न किया परन्तु सफल नहीं हो सका। उसने कन्नौज पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया तथा कन्नौज को राजधानी बनाकर वहीं से शासन करने लगा। उसका बंगाल के राजा धर्मपाल से भी संघर्ष हुआ, नागट्ट (द्वितीय) ने उसे मंुगेर के निकट परास्त किया। इससे नागभट्ट (द्वितीय) की प्रतिष्ठा में बड़ी वृद्धि हुई।

रामचन्द्र: नागभट्ट (द्वितीय) के बाद उसका पुत्र रामचन्द्र सिंहासन पर बैठा, परन्तु वह अयोग्य सिद्ध हुआ।

मिहिरभोज: रामचन्द्र के बाद उसका पुत्र मिहिरभोज शासक हुआ। वह बड़ा ही प्रतापी राजा सिद्ध हुआ। सिंहासन पर बैठते ही उसने बुन्देलखण्ड पर अधिकार कर लिया। मारवाड़ में भी उसने अपने वंश की सत्ता फिर से स्थापित की। बंगाल के शासक देवपाल के साथ भी उसका युद्ध हुआ परन्तु उसमें वह सफल नहीं हो सका। मिहिरभोज एक कुशल शासक था। मिहिरभोज की उपलब्धियों का वर्णन आगे के अध्याय में किया गया है।

महेन्द्रपाल (प्रथम): मिहिरभोज के बाद महेन्द्रपाल (प्रथम) शासक हुआ। वह भी योग्य तथा प्रतापी शासक था। उसने मगध के बहुत बड़े भाग तथा उत्तरी बंगाल पर अधिकार कर लिया तथा दक्षिण-पश्चिम में सौराष्ट्र तक अपनी सत्ता स्थापित कर ली।

महिपाल: महेन्द्रपाल के बाद महिपाल कन्नौज का शासक हुआ। उसे भयानक विपत्तियों का सामना करना पड़ा। दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया और उसे खूब लूटा। पूर्व में बंगाल के राजा ने भी अपना खोया हुआ राज्य फिर से छीन लिया। महिपाल ने धैर्य के साथ इन विपत्तियों का सामना किया परन्तु वह कन्नौज राज्य को गिरने से नहीं बचा सका। उसके जीवन के अन्तिम भाग में राष्ट्रकूट राजा ने कन्नौज पर आक्रमण किया जिसके फलस्वरूप वह पतनोन्मुख हो गया।

महमूद गजनवी का कन्नौज पर आक्रमण: महिपाल के बाद उस वंश में कई अयोग्य शासक हुए। इनमें राजपाल का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उसके शासन काल में 1018 ई. में महमूद गजनवी ने कन्नौज पर आक्रमण किया। राजपाल ने बड़ी कायरता दिखाई। वह कन्नौज छोड़कर भाग गया और अपने एक सामन्त के यहाँ शरण ली। महमूद ने कन्नौज तथा उसमें स्थित मन्दिरों को खूब लूटा।

प्रतिहारों के कन्नौज राज्य का अंत: यशपाल इस वंश का अन्तिम राजा था। 1058 ई. में गहड़वाल वंश के राजा चन्द्रदेव ने कन्नौज पर विजय प्राप्त कर उसे अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। इस प्रकार कन्नौज के प्रतिहार वंश के शासन का अन्त हो गया।

गहड़वाल वंश

इस वंश का उदय ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मिर्जापुर के पहाड़ी प्रदेश में हुआ था। गुहायुक्त पहाड़ी प्रदेश में रहने के कारण ही यह लोग गहड़वाल अर्थात् गुहावाले कहलाये।

चन्द्रदेव: इस वंश के संस्थापक का नाम चन्द्रदेव था जिसकी राजधानी वाराणसी थी। लगभग 1085 ई. में उसने कन्नौज पर अधिकार कर लिया और वहीं से शासन करने लगा। पूर्व की ओर उसने सेन राजाओं की प्रगति को रोका। लगभग 1100 ई. में चन्द्रदेव की मृत्यु हुई।

गोविन्दचन्द्र तथा विजयचन्द्र: चन्द्रदेव के बाद गोविन्दचन्द्र तथा उसके बाद विजयचन्द्र नामक दो प्रतापी शासक हुए जिन्होंने अपने पूर्वजों के राज्य तथा गौरव को सुरक्षित रखा।

जयचन्द: इस वंश का अन्तिम शक्तिशाली राजा जयचन्द था जो लगभग 1170 ई. में सिंहासन पर बैठा। कहा जाता है कि उसने मुस्लिम आक्रमणकारी शहाबुद्दीन को कई बार युद्ध में परास्त किया। दुर्भाग्यवश जयचन्द्र की दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान से शत्रुता हो गई। जयचन्द की पुत्री संयोगिता के विवाह ने इस शत्रुता को और बढ़ा दिया। जयचन्द ने अपनी पुत्री संयोगिता का स्वयंवर किया। इस स्वयंवर में जयचन्द ने पृथ्वीराज को अपमानित करने के लिए पृथ्वीराज की एक प्रतिमा स्वयंवर स्थल के द्वार पर द्वारपाल के रूप में रखवा दी। संयोगिता पृथ्वीराज की वीरता की कहानियाँ सुन चुकी थी। इसलिये उसने उसी के साथ विवाह करने का निश्चय कर लिया। फलतः उसने पृथ्वीराज की प्रतिमा के गले में जयमाला डाल दी। पृथ्वीराज अपने सैनिकों के साथ वहीं निकट ही छिपा हुआ था। उसने स्वयंवर स्थल पर पहुंचकर संयोगिता को अपने घोड़े पर बिठा लिया और उसे लेकर दिल्ली चला गया। इससे जयचन्द तथा पृथ्वीराज की शत्रुता और बढ़ गई। जयचन्द इस अपमान को नहीं भूल सका। जब मुहमद गौरी ने दिल्ली पर आक्रमण किया तब जयचन्द ने पृथ्वीराज का साथ नहीं दिया। पृथ्वीराज को परास्त करने के बाद मुहमद गौरी ने 1194 ई. में कन्नौज पर आक्रमण किया। जयचन्द युद्ध में परास्त होकर मारा गया।

हरिश्चन्द्र: जयचन्द के बाद उसका पुत्र हरिश्चन्द्र राजा हुआ जो मुहम्मद गौरी के सामन्त रूप में शासन करता था। 1225 ई. में इल्तुतमिश ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार गहड़वाल वंश का अन्त हो गया।

चौहान वंश

चौहानों का उदय छठी शताब्दी ईस्वी के लगभग हुआ। उन्होंने सांभर झील के आसपास अपनी शक्ति बढ़ाई। राजशेखर द्वारा लिखित प्रबंधकोष के अनुसार चौहान शासकों में वासुदेव पहला शासक था जिसने 551 ई. में सपादलक्ष (सांभर) में शासन किया। बिजोलिया अभिलेख कहता है कि वासुदेव सांभर झील का प्रवर्तक था। उसका पुत्र सामंतदेव हुआ।

अजयपाल: सामंतदेव का वंशज अजयराज अथवा अजयपाल 683 ई. के आसपास अजमेर का राजा हुआ। उसने अजमेर नगर की स्थापना की। अपने अंतिम वर्षों में वह अपना राज्य अपने पुत्र को देकर पहाड़ियों में जाकर तपस्या करने लगा। अजयराज के वंशज प्रतिहार शासकों के अधीन रहकर राज्य करते थे किन्तु ईसा की ग्याहरवीं शताब्दी के लगभग उन्होंने स्वयं को प्रतिहारों से स्वतन्त्र कर लिया।

विग्रहराज (प्रथम) से गोविंदराज (प्रथम): अजयपाल के बाद उसका पुत्र विग्रहराज (प्रथम) अजमेर का शासक हुआ। विग्रहराज (प्रथम) के बाद विग्रहराज (प्रथम) का पुत्र चंद्रराज (प्रथम), चंद्रराज (प्रथम) के बाद विग्रहराज (प्रथम) का दूसरा पुत्र गोपेन्द्रराज अजमेर का राजा हुआ। इसे गोविंदराज (प्रथम) भी कहते हैं। यह मुसलमानों से लड़ने वाला पहला चौहान राजा था। उसने मुसलमानों की सेनाओं को परास्त करके उनके सेनापति सुल्तान बेग वारिस को बंदी बना लिया।

दुर्लभराज (प्रथम): गोविंदराज (प्रथम) के बाद दुर्लभराज (प्रथम) अजमेर का राजा हुआ। इसे दूलाराय भी कहते हैं। जब प्रतिहार शासक वत्सराज ने बंगाल के शासक धर्मपाल पर चढ़ाई की तब दुर्लभराज, प्रतिहारों के सेनापति के रूप में इस युद्ध में सम्मिलित हुआ। उसने बंगाल की सेना को परास्त कर अपना झण्डा बंगाल तक लहरा दिया। दुर्लभराय का गौड़ राजपूतों से भी संघर्ष हुआ। दुर्लभराज पहला राजा था जिसके समय में अजमेर पर मुसलमानों का सर्वप्रथम आक्रमण हुआ।

गूवक (प्रथम): दुर्लभराज प्रथम (दूलाराय) के बाद उसका पुत्र गूवक (प्रथम) अजमेर का शासक हुआ। संभवतः उसी ने आठवीं शताब्दी के किसी कालखण्ड में, मुसलमानों से अजमेर पुनः छीनकर अजमेर का उद्धार किया। वह सुप्रसिद्ध योद्धा हुआ। 805 ई. में कन्नौज के शासक नागावलोक (नागभट्ट द्वितीय) की राजसभा में गूवक को वीर की उपाधि दी गई। गूवक (प्रथम) ने अनंत प्रदेश (वर्तमान में राजस्थान का सीकर जिला) में अपने अराध्य हर्ष महादेव का मंदिर बनवाया।

चंद्रराज (द्वितीय) तथा गूवक (द्वितीय): गूवक (प्रथम) के बाद उसका पुत्र चंद्रराज (द्वितीय) अजमेर का शासक हुआ। उसके बाद गूवक (द्वितीय) अजमेर का राजा हुआ। उसकी बहिन कलावती का विवाह प्रतिहार शासक भोज (प्रथम) के साथ हुआ।

चंदनराज: गूवक (द्वितीय) के बाद चंदनराज अजमेर की गद्दी पर बैठा। चंदनराज ने दिल्ली के निकट तंवरावटी पर आक्रमण किया तथा उसके राजा रुद्रेन अथवा रुद्रपाल का वध कर दिया। चंदनराज की रानी रुद्राणी ने पुष्कर के तट पर एक सहस्र शिवलिंगों की स्थापना एवं प्राण प्रतिष्ठा की।

वाक्पतिराज: चंदनराज का उत्तराधिकारी वाक्पतिराज हुआ जिसे बप्पराज भी कहा जाता है। उसका राज्य समृद्ध था। उसने अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। उसके राज्य की दक्षिणी सीमा विंध्याचल पर्वत तक जा पहुँची। वह एक महान योद्धा था। उसने 188 युद्ध जीते।

सिंहराज: सिंहराज महान राजा हुआ। तोमरों ने राजा लवण की सहायता से सिंहराज के राज्य पर आक्रमण किया। सिंहराज ने तोमरों को परास्त करके लवण को बंदी बना लिया। प्रतिहार शासक ने सिंहराज से प्रार्थना करके लवण को मुक्त करवाया। हम्मीर महाकाव्य कहता है कि जब उसके अभियान का डंका बजता तो कर्नाटक का राजा उसकी चापलूसी करने लगता। लाट का राजा अपने दरवाजे उसके लिये खोल देता। चोल नरेश (मद्रास नरेश) कांपने लगता, गुजरात का राजा अपना सिर खो देता तथा अंग (पश्चिमी बंगाल) के राजा का हृदय डूब जाता। उसने मुसलमानों के सेनापति हातिम का वध किया तथा उसके हाथियों को पकड़ लिया। उसने अजमेर तक आ पहुँची सुल्तान हाजीउद्दीन की सेना को खदेड़ दिया। सिंहराज ई.956 तक जीवित रहा। हर्ष मंदिर का निर्माण उसके काल में ही पूरा हुआ। इस अभिलेख में चौहानों की तब तक की वंशावली दी गई है।

विग्रहराज (द्वितीय): सिंहराज का पुत्र विग्रहराज (द्वितीय) ई.973 में उसका उत्तराधिकारी हुआ। उसने अपने राज्य का बड़ा विस्तार किया। उसने प्रतिहारों की अधीनता त्याग दी और पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो गया। उसने 973 ई. से 996 ई. के बीच गुजरात पर आक्रमण किया। गुजरात का शासक मूलराज राजधानी खाली करके कच्छ में भाग गया। इस पर विग्रहराज अपनी राजधानी अजमेर लौट आया। उसने दक्षिण में अपना राज्य नर्बदा तक बढ़ा लिया। उसने भरूच में आशापूर्णा देवी का मंदिर बनवाया। चौदहवीं शताब्दी में लिखे गये हम्मीर महाकाव्य के अनुसार विग्रहराज (द्वितीय) ने गुजरात के राजा मूलराज का वध किया। यहाँ से चौहानों तथा चौलुक्यों का संघर्ष आरंभ हुआ जिसका लाभ आगे चलकर अफगानिस्तान से आये आक्रांताओं ने उठाया।

दुर्लभराज (द्वितीय) तथा गोविंदराज (द्वितीय): विग्रहराज (द्वितीय) के बाद दुर्लभराज (द्वितीय) तथा उसके बाद गोविंदराज (द्वितीय) अजमेर के शासक हुए।

वाक्पतिराज (द्वितीय): गोविंदराज (द्वितीय) का उत्तराधिकारी उसका पुत्र वाक्पतिराज (द्वितीय) हुआ। उसने मेवाड़ के शासक अम्बाप्रसाद का वध किया।

वीर्यराम: वाक्पतिराज (द्वितीय) के बाद वीर्यराम अजमेर का राजा हुआ। वह मालवा के राजा भोज का समकालीन था। वीर्यराम के शासन काल में ई.1024 में महमूद गजनवी ने अजमेर पर आक्रमण किया तथा गढ़ बीठली को घेर लिया किंतु घायल होकर अन्हिलवाड़ा को भाग गया। वीर्यराम ने मालवा पर आक्रमण किया किंतु भोज के हाथों परास्त होकर मारा गया।

चामुण्डराज: वीर्यराम का उत्तराधिकारी चामुण्डराज हुआ। उसने शक मुसलमानों के स्वामी हेजामुद्दीन को पकड़ लिया।

दुर्लभराज (तृतीय): चामुण्डराज के बाद 1075 ई. में दुर्लभराज (तृतीय) राजा हुआ जिसे दूसल भी कहते हैं। उसने मुस्लिम सेनापति शहाबुद्दीन को परास्त किया। 1080 ई. में मेवात के शासक महेश ने दूसल की अधीनता स्वीकार की। दूसल ने ई.1091 से 1093 के मध्य गुजरात पर आक्रमण किया तथा वहाँ के राजा कर्ण को मार डाला ताकि मालवा का शासक उदयादित्य, गुजरात पर अधिकार कर सके। मेवाड़ के शासक वैरिसिंह ने दूसल को कुंवारिया के युद्ध में मार डाला।

विग्रहराज (तृतीय): दुर्लभराज के बाद विग्रहराज (तृतीय) अजमेर का शासक हुआ। इसे बीसल अथवा वीसल भी कहा जाता था। उसने भी मुस्लिम आक्रांताओं के विरुद्ध एक संघ बनाया तथा हांसी, थाणेश्वर और नगरकोट से मुस्लिम गवर्नरांे को मार भगाया। इस विजय के बाद दिल्ली में एक स्तम्भ लेख लगावाया गया जिसमें लिखा है कि विन्ध्य से हिमालय तक म्लेच्छों को निकाल बाहर किया गया जिससे आयावर्त एक बार फिर पुण्यभूमि बन गया। वीसल ने अन्हिलवाड़ा पाटन के चौलुक्य राजा कर्ण को युद्ध में परास्त किया। कर्ण ने अपनी पुत्री का विवाह विग्रहराज के साथ कर दिया। विग्रहराज ने विजय स्थल पर अपने नाम से वीसलनगर नामक नगर की स्थापना की। यह नगर आज भी विद्यमान है।

पृथ्वीराज (प्रथम): वीसलदेव का उत्तराधिकारी पृथ्वीराज (प्रथम) हुआ। उसके समय में चौलुक्यों की सेना पुष्कर को लूटने आई। इस पर पृथ्वीराज (प्रथम) ने चौलुक्यों पर आक्रमण करके 500 चौलुक्यों को मार डाला। उसने सोमनाथ के मार्ग में एक भिक्षागृह बनाया। शेखावटी क्षेत्र में स्थित जीणमाता मंदिर में लगे वि.सं.1162 (ई.1105) के अभिलेख में अजमेर के राजा पृथ्वीराज चौहान (प्रथम) का उल्लेख है।

अजयदेव (अजयराज अथवा अजयपाल): पृथ्वीराज (प्रथम) के बाद अजयदेव अजमेर का राजा हुआ। अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार ई.1113 के लगभग अजयदेव ने अजमेर को राजधानी बनाया। उसके बाद ही अजमेर का विश्वसनीय इतिहास प्राप्त होता है। अजदेव ने चांदी तथा ताम्बे के सिक्के चलाये। उसके कुछ सिक्कों पर उसकी रानी सोमलवती का नाम भी अंकित है। उसने अजमेर पर चढ़कर आये मुस्लिम आक्रांताओं को परास्त कर उनका बड़ी संख्या में संहार किया। अजयराज ने चाचिक, सिंधुल तथा यशोराज पर विजय प्राप्त की तथा उन्हें मार डाला। ई.1123 में वह मालवा के प्रधान सेनापति सल्हण को पकड़ कर अजमेर ले आया तथा एक मजबूत दुर्ग में बंद कर दिया। उसने मुसलमानों को परास्त करके बड़ी संख्या में उनका वध किया। उसने उज्जैन तक का क्षेत्र जीत लिया। अजयराज को अजयराज चक्री भी कहते थे क्योंकि उसने चक्र की तरह दूर-दूर तक बिखरे हुए शत्रुदल को युद्ध में जीता था। अर्थात् वह चक्रवर्ती विजेता था। ई.1130 से पहले किसी समय अजयराज अपने पुत्र अर्णोराज को राज्य का भार देकर पुष्करारण्य में जा रहा।

अर्णोराज: अजयदेव का पुत्र अर्णोराज 1133 ई. के आसपास अजमेर का शासक हुआ। उसे आनाजी भी कहते हैं। वह 1155 ई. तक शासन करता रहा। उसने 1135 ई. में उन तुर्कों को पराजित किया जो मरुस्थल को पार करके अजमेर तक आ पहुँचे थे। उसने अजमेर में आनासागर झील बनाई। उसने मालवा के नरवर्मन को परास्त किया। उसने अपनी विजय पताका सिंधु और सरस्वती नदी के प्रदेशों तक फहराई तथा हरितानक देश तक युद्ध अभियान का नेतृत्व किया। उसने पंजाब के पूर्वी भाग और संयुक्त प्रांत के पश्चिमी भाग, हरियाणा, दिल्ली तथा वर्तमान उत्तरप्रदेश के बुलन्दशहर जिले (तब वराणा राज्य अथवा वरण नगर) पर भी अधिकार कर लिया। अर्णोराज के समय में चौहान-चौलुक्य संघर्ष अपने चरम को पहुँच गया। ई.1134 में सिद्धराज जयसिंह ने अजमेर पर आक्रमण किया किंतु अर्णोराज ने उसे परास्त कर दिया। इसके बाद हुई संधि के अनुसार सिद्धराज जयसिंह ने अपनी पुत्री कांचनदेवी का विवाह अर्णोराज से कर दिया। ई.1142 में चौलुक्य कुमारपाल, चौलुक्यों की गद्दी पर बैठा तो चाहमान-चौलुक्य संघर्ष फिर से तीव्र हो गया। ई.1150 में चौलुक्य कुमारपाल ने अजमेर पर अधिकार कर लिया। पराजित अर्णोराज को विजेता कुमारपाल के साथ अपनी पुत्री का विवाह करना पड़ा तथा हाथी-घोड़े भी उपहार में देने पड़े। इस पराजय से अर्णोराज की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचा फिर भी उसके राज्य की सीमाएं अपरिवर्तित बनी रहीं।

विग्रहराज चतुर्थ (वीसलदेव): कुमारपाल के हाथों अर्णोराज की पराजय के बाद ई.1150 अथवा ई.1151 में राजकुमार जगदेव ने अपने पिता अर्णोराज की हत्या कर दी और स्वयं अजमेर की गद्दी पर बैठ गया किन्तु शीघ्र ही ई.1152 में उसे उसके छोटे भ्राता विग्रहराज (चतुर्थ) द्वारा हटा दिया गया। विग्रहराज (चतुर्थ) को बीसलदेव अथवा वीसलदेव के नाम से भी जाना जाता है। वह ई.1152 से ई.1163 तक अजमेर का राजा रहा। उसका शासन न केवल अजमेर के इतिहास के लिये अपितु सम्पूर्ण भारत के इतिहास के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। वीसलदेव ने ई.1155 से 1163 के बीच तोमरों से दिल्ली तथा हॉंसी छीन लिए। उसने चौलुक्यों और उनके अधीन परमार राजाओं से भारी युद्ध किये तथा उन्हें पराजित कर उनसे नाडोल, पाली और जालोर नगर एवं आसपास के क्षेत्र छीन लिए। उसने जालोर के परमार सामन्त को दण्ड देने के लिए जालोर नगर को जलाकर राख कर दिया। उसने चौलुक्य कुमारपाल को परास्त करके अपने पिता की पराजय का बदला लिया। उसने मुसलमानों से भी अनेक युद्ध लड़े। दिल्ली से अशोक का एक स्तंभ लेख मिला है जिस पर वीसलदेव के समय में एक और शिलालेख उत्कीर्ण किया गया। यह शिलालेख 9 अप्रेल 1163 का है तथा इसे शिवालिक स्तंभ लेख कहते हैं। इस शिलालेख के अनुसार वीसलदेव ने देश से मुसलमानों का सफाया कर दिया तथा अपने उत्तराधिकारियों को निर्देश दिया कि वे मुसलमानों को अटक नदी के उस पार तक सीमित रखें। वीसलदेव के राज्य की सीमायें शिवालिक पहाड़ी, सहारनपुर तथा उत्तर प्रदेश तक प्रसारित थीं। शिलालेखों के अनुसार जयपुर और उदयपुर जिले के कुछ भाग उसके राज्य के अंतर्गत थे।

अमरगंगेय: ई.1163 में विग्रहराज (चतुर्थ) की मृत्यु के बाद उसका अवयस्क पुत्र अमरगंगेय अथवा अपरगंगेय अजमेर की गद्दी पर बैठा। वह मात्र 5-6 वर्ष ही शासन कर सका और चचेरे भाई पृथ्वीराज (द्वितीय) द्वारा हटा दिया गया। पृथ्वीराज (द्वितीय), जगदेव का पुत्र था।

पृथ्वीराज (द्वितीय): पृथ्वीराज (द्वितीय) ने राजा वास्तुपाल को हराया, मुसलमानों को पराजित किया तथा हांसी के दुर्ग में एक महल बनवाया। उसने मुसलमानों को अपने राज्य से दूर रखने के लिये अपने मामा गुहिल किल्हण को हांसी का अधिकारी नियुक्त किया। उसका राज्य अजमेर और शाकम्भरी के साथ-साथ थोड़े (जहाजपुर के निकट), मेनाल (चित्तौड़ के निकट) तथा हांसी (पंजाब में) तक विस्तृत था। ई.1169 में पृथ्वीराज (द्वितीय) की निःसंतान अवस्था में ही मृत्यु हो गई।

सोमेश्वर: सोमेश्वर, चौलुक्य राजा सिद्धराज जयसिंह की पुत्री कंचनदेवी तथा चौहान शासक अर्णोराज का पुत्र था। ई.1169 में पृथ्वीराज (द्वितीय) के निःसंतान मरने पर, उसके पितामह अर्णोराज का अब एक पुत्र सोमेश्वर ही जीवित बचा था। अतः अजमेर के सामंतों द्वारा सोमेश्वर को अजमेर का शासक बनने के लिये आमंत्रित किया गया। सोमेश्वर अपनी रानी कर्पूरदेवी तथा दो पुत्रों पृथ्वीराज एवं हरिराज के साथ अजमेर आया। सोमेश्वर प्रतापी राजा हुआ। उसके राज्य में बीजोलिया, रेवासा, थोड़, अणवाक आदि भाग सम्मिलित थे। उसके समय में फिर से चौलुक्य-चौहान संघर्ष छिड़ गया जिससे उसे हानि उठानी पड़ी। ई.1179 में सोमेश्वर की मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका पुत्र पृथ्वीराज (तृतीय) अजमेर का शासक हुआ। उसका वर्णन आगे किया जायेगा।

चन्देल वंश

चंदेल वंश का उदय जयजाकभुक्ति (बुन्देलखण्ड) प्रदेश में हुआ था, जो यमुना तथा नर्मदा नदियों के बीच स्थित था। ये लोग स्वयं को चंदात्रेय नामक व्यक्ति का वंशज मानते हैं। इसी से ये चन्देल कहलाते हैं। प्रारम्भ में चंदेल, प्रतिहारों के सामन्त के रूप में शासन करते थे। बाद में स्वतन्त्र रूप से शासन करने लगे।

यशोवर्मन: इस वंश का प्रथम स्वतन्त्र शासक यशोवर्मन था। उसने कालिंजर पर अधिकार स्थापित कर लिया और महोबा को राजधानी बना कर वहीं से शासन करना आरम्भ किया। राजपूताना के इतिहास में कालिंजर दुर्ग का बहुत बड़ा महत्त्व है। यशोवर्मन ने कन्नौज के राजा को भी युद्ध में परास्त किया। उसका शासन काल 925 ई. से 950 ई. तक माना जाता है।

धंग: यशोवर्मन के बाद उसका पुत्र धंग शासक हुआ। उसने उत्तर तथा दक्षिण के कई राज्यों पर विजय प्राप्त की। उसके शासन काल में खजुराहो में बहुत से मन्दिर बने।

गण्ड: धंग के बाद उसका पुत्र गण्ड शासक हुआ। 1008 ई. में उसने महमूद गजनवी के विरुद्ध आनन्दपाल शाही की सहायता की। चूंकि कन्नौज के राजा राज्यपाल ने महमूद की अधीनता स्वीकार कर ली थी इसलिये गण्ड ने राज्यपाल को दण्ड देने के लिए कन्नौज पर आक्रमण कर दिया। युद्ध में राज्यपाल परास्त हुआ और मारा गया। राज्यपाल की मृत्यु का बदला लेने के लिए महमूद ने गण्ड पर आक्रमण कर दिया। विवश होकर गण्ड को महमूद की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।

परमार्दी: परमार्दी इस वंश का अन्तिम शक्तिशाली शासक था। 1203 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक ने कालिंजर पर अधिकार कर लिया। विवश होकर परमार्दी को मुसलमानों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। इस वंश के राजा सोलहवीं शताब्दी तक बुन्देलखण्ड के कुछ भाग पर शासन करते रहे।

परमार वंश

परमार वंश का उदय नौवीं शताब्दी के आरम्भ में आबू पर्वत के निकट हुआ था।

कृष्णराज (उपेन्द्र): इस वंश का संस्थापक कृष्णराज (उपेन्द्र) था। वह राष्ट्रकूटों का सामन्त था। प्रारम्भ में परमार लोग गुजरात में निवास करते थे परन्तु बाद में वे मालवा चले गये और वहीं पर स्वतन्त्र रूप से शासन करने लगे।

श्रीहर्ष: इस वंश का प्रथम स्वतंत्र शासक श्रीहर्ष था। इस वंश का दूसरा प्रतापी शासक मुंज था। उसने 974 ई. से 995 ई. तक शासन किया। वह बड़ा ही विद्यानुरागी था। वह स्वयं उच्च कोटि का कवि तथा विद्वानों का आश्रयदाता था।

भोज: परमार वंश का सबसे प्रतापी तथा विख्यात राजा भोज था। उससे 1018 से 1060 ई. तक शासन किया। सर्वप्रथम उसने कल्याणी के चालुक्य राजा को परास्त किया। उसने अन्य राजाओं के साथ भी सफलतापूर्वक युद्ध किया। भोज अपनी विजयों के लिए उतना प्रसिद्ध नहीं है, जितना अपने विद्यानुराग तथा दानशीलता के लिए। कहा जाता है कि वह कवियों को एक-एक श्लोक की रचना के लिए एक-एक लाख मुद्राएँ दान में देता था। वह धारा नगरी के राजा के नाम से प्रसिद्ध है।

उदयादित्य: परमार वंश का अन्तिम शक्तिशाली शासक उदयादित्य था जिसने 1059 ई. से 1088 ई. तक शासन किया। चौदहवीं शताब्दी के आरंभ में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति ऐनुलमुल्क ने मालवा पर विजय प्राप्त कर उसे खिलजी साम्राज्य में मिला लिया।

गुजरात अथवा अन्हिलवाड़ा के चालुक्य

चालुक्यों की इस शाखा का उदय गुजरात में हुआ था। इन्हें चौलुक्य तथा सोलंकी भी कहा जाता है। दक्षिण के चालुक्यों तथा गुजरात के चालुक्यों के पूर्वज एक ही माने जाते हैं।

मूलराज: इस वंश का संस्थापक मूलराज था जिसने 941 ई. से 995 ई. तक शासन किया। सोलंकियों की राजधानी अन्हिलवाड़ा थी।

भीम (प्रथम): इस वंश का दूसरा शक्तिशाली राजा भीम (प्रथम) था। उसे महमूद गजनवी के आक्रमण का सामना करना पड़ा। 1025 ई. में महमूद गजनवी ने सोमनाथ के मन्दिर पर चढ़ाई की। भीम भयभीत होकर भाग खड़ा हुआ। महमूद ने मन्दिर को लूट लिया। महमूद के चले जाने पर भीम ने अपनी स्थिति सुधारने का प्रयत्न किया।

जयसिंह सिद्धराज: इस वंश का सबसे प्रतापी राजा जयसिंह सिद्धराज था। उसने 1096 ई. से 1143 ई. तक शासन किया। उसने सिहासंन पर बैठते ही पड़ौसी राज्यों को जीतना आरम्भ किया। उसने सौराष्ट्र को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। उसने चौहान शासक को भी युद्ध में परास्त किया। उसका परमार राजाओं के साथ बहुत दिनों तक संघर्ष चला। अंत में उसने सम्पूर्ण मालवा पर अधिकार कर लिया। सिद्धराज ने बुन्देलखण्ड पर आक्रमण किया परन्तु चंदेल राजा ने उसे परास्त कर दिया। सिद्धराज भगवान शिव का उपासक था। उसने बहुुत से मन्दिर बनवाये। साहित्य से भी उसे बड़ा प्रेम था।

भीम (द्वितीय): इस वंश का अन्तिम शक्तिशाली शासक भीम (द्वितीय) था। उसके शासन काल में मुहम्मद गोरी ने गुजरात पर आक्रमण किया। 1197 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक ने अन्हिलवाड़ा पर अधिकार कर लिया। इसके एक सौ वर्ष बाद 1297 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने गुजरात को जीत कर अपने राज्य में मिला लिया।

कलचुरि वंश

इस वंश का उदय नर्मदा तथा गोदावरी नदियों के मध्य के प्रदेश में हुआ। ये लोग अपने को हैहय क्षत्रियों के वंशज मानते हैं। इनकी राजधानी त्रिपुरी थी जो वर्तमान जबलपुर के निकट स्थित है। प्रारम्भ में ये लोग प्रतिहार वंश की अधीनता में शासन करते थे परन्तु जब प्रतिहार वंश का पतन आरम्भ हुआ तब दसवीं शताब्दी के मध्य में इन लोगों ने अपने को स्वतन्त्र कर लिया। इस वंश का संस्थापक कोकल्ल नामक व्यक्ति माना जाता है। इस वंश का सर्वाधिक प्रतापी स्वतंत्र शासक लक्ष्मणराज था। वह महान् योद्धा तथा वीर विजेता था। मालवा के परमार तथा कालिंजर के चंदेल राजाओं के साथ इस वंश का निरन्तर संघर्ष चलता रहा। इससे यह राज्य अधिक उन्नति न कर सका और तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में इसका अन्त हो गया।

पाल वंश

इस वंश का उदय बंगाल में आठवीं शताब्दी के प्रथम चरण में हुआ। चूँकि इस वंश के समस्त राजाओं के नाम के साथ पाल शब्द जुड़ा हुआ है, इसलिये इसे पाल वंश कहा जाता है। हर्ष की मृत्यु के उपरान्त, बंगाल में जब भंयकार अराजकता फैल गई तब उसे दूर करने के लिए जनता ने गोपाल नामक व्यक्ति को 725 ई. में अपना राजा चुन लिया। गोपाल सफल शासक सिद्ध हुआ। उसने बंगाल की अराजकता को दूर कर वहाँ पर शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित की और बिहार पर भी अधिकार कर लिया। उसने लगभग 45 वर्षों तक शासन किया।

धर्मपाल: गोपाल के बाद उसका पुत्र धर्मपाल शासक हुआ। उसे अपने शासन काल में प्रतिहारों तथा राष्ट्रकूटों के साथ कई बार युद्ध करने पड़े। धर्मपाल साहित्य तथा कला का बड़ा प्रेमी था। उसने भागलपुर के पास गंगा नदी के किनारे विक्रमशिला विहार बनवाया जो विख्यात विश्वविद्यालय बन गया।

 देवपाल: धर्मपाल के बाद 815 ई. में उसका पुत्र देवपाल राजा हुआ। वह शक्तिशाली शासक था। उसने आसाम तथा उड़ीसा पर अधिकार कर लिया। उसने बर्मा, सुमात्रा, जावा आदि के साथ भी कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित किया था।

अन्य शासक: देवपाल के बाद इस वंश में नारायणपाल, महिपाल, विग्रहपाल आदि कई शक्तिशाली राजा हुए। इस वंश का अन्तिम शक्तिशाली शासक रामपाल था। वह बड़ा ही उदार तथा दयालु शासक था। रामपाल के उत्तराधिकरी बड़े निर्बल सिद्ध हुए और वे पाल-वंश को पतनोन्मुख होने से नहीं बचा सके। पूर्व से सेनवंश ने और पश्चिम से गहड़वाल वंश ने इन्हें दबा लिया और इनका विनाश कर दिया।

सेन वंश

पाल वंश के विनाश के उपरान्त बंगाल में सेन वंश का उदय हुआ। इस वंश के राजाओं के नाम के साथ सेन शब्द जुड़ा है, इसलिये इस वंश को सेन वंश कहा जाता है।

सामंतसेन: इस वंश का संस्थापक सामन्त सेन था। उसने ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य में उड़ीसा में सुवर्ण रेखा नामक नदी के तट पर अपने राज्य की स्थापना की।

विजयसेन: इस वंश का प्रथम स्वतंत्र शासक विजयसेन था जिसने 1095 ई. से 1158 ई. तक शासन किया। वह वीर विजेता था। उसने पाल वंश के मदनपाल को परास्त किया और पालों को उत्तरी भारत से मार भगाया। उसने पूर्वी बंगाल तिरहुत, आसाम तथा कंलिग पर भी अधिकार जमा लिया।

बल्लालसेन: विजयसेन के बाद उसका पुत्र बल्लालसेन शासक हुआ। वह भी वीर तथा साहसी शासक था। वह उच्चकोटि का विद्वान् तथा लेखक भी था।

लक्ष्मणसेन: इस वंश का अन्तिम शक्तिशाली शासक लक्ष्मणसेन था। उसके शासन काल के अन्तिम भाग में आन्तरिक उपद्रव के कारण दक्षिण तथा पूर्वी बंगाल में छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्य स्थापित हो गये। तुर्को के आक्रमणों ने भी सेन वंश की जड़ को हिला दिया। लगभग 1260 ई. तक लक्ष्मणसेन के वंशज बंगाल में शासन करते रहे। अन्त में मुसलमानों ने इस वंश का अन्त कर दिया।

अध्याय – 30 : राजपूतकालीन भारत

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राजपूत काल का भारत के इतिहास में बहुत बड़ा महत्त्व है। राजपूतों ने लगभग साढ़े पांच शताब्दियों तक अदम्य उत्साह के साथ मुस्लिम आक्रांताओं से देश की रक्षा की। यद्यपि वे अन्त में अपने देश की स्वतंत्रता की रक्षा न कर सके परन्तु उनके त्याग, उनके देशप्रेम, उनके साहस तथा उनके उच्चादर्श की कहानियां अमर हो गईं।

राजनीतिक दशा

राजपूत काल भारत की राजनीतिक विच्छिन्नता का युग था। उस काल में देश के विभिन्न भागों में छोटे-छोटे राजपूत राज्यों की स्थापना हो गई थी। इन राजपूत राज्यों में अनेक ऐसे थे, जो बड़े ही शक्तिशाली थे परन्तु देश में ऐसी कोई सार्वभौम सत्ता नहीं थी जो सबको एक सूत्र में बांध सकती और संकट काल में विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा उपस्थित कर सकती। इस राजनैतिक एकता के अभाव में भारत अशक्त होता जा रहा था।

इस काल की राजनैतिक विच्छिन्नता पर प्रकाश डालते हुए डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘भारतवर्ष में राजनीतिक एकता और सामाजिक संगठन की कमी थी। उसके सैकड़ों नेता थे और आपस के छोटे-छोटे झगड़ों में वह अपनी शक्ति को नष्ट कर रहा था। वस्तुतः इस काल में वह केवल भौगोलिक अभिव्यंजना ही रह गया था। यह बड़ी ही दुःखद स्थिति थी, जिसमें वह उस समय असहाय हो गया जब उसे विदेशियों के साथ जीवन-मरण का युद्ध करना पड़ा, जिन्होंने बढ़ती हुई संख्या में उसकी सुन्दर और उपजाऊ भूमि पर आक्रमण किया।

राजपूतकाल में न केवल भारत की राजनैतिक एकता समाप्त हो गई अपितु पारस्परिक कलह तथा ईर्ष्या-द्वेष भी बहुत बढ़ गया था। प्रत्येक राज्य अपने पड़ौसी राज्य के विरुद्ध संघर्ष करता था और उसे नीचा दिखाना चाहता था। पारस्परिक संघर्ष के फलस्वरूप राजपूतों की शक्ति धीरे-धीरे क्षीण हाती जा रही थी। उनके संघर्ष प्रायः आनुवांशिक हो जाते थे और संघर्ष कई पीढ़ियों तक चलता रहता था। आन्तरिक कलह के कारण विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा उपस्थित करना सम्भव न हो सका। इस काल की राजनीतिक दशा का चित्रण करते हुए डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘नेतृत्व के लिए एक राज्य दूसरे से लड़ रहा था और कोई ऐसी सार्वभौम सत्ता नहीं थी, जो उन्हें एकता के सिद्धान्त द्वारा संगठित रख सकती।’

राजपूत कालीन राज-संस्था राजतंत्रात्मक तथा आनुवंशिक थी। इससे प्रायः बड़े ही अयोग्य तथा निर्बल शासक सिंहासन पर आ जाते थे, जो न अपने पूर्वजों के राज्य को सुसंगठित रख पाते थे और न उनमें विदेशी आक्रमणकारियों से सफलतापूर्वक लोहा लेने की क्षमता होती थी। ऐसी दशा में उनका विध्वंस हो जाना अनिवार्य हो जाता था। राजपूतकालीन शासन व्यवस्था स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश थी। इसलिये जनसाधारण की राजनीति में कोई विशेष रुचि नहीं थी। प्रजा की राजनीतिक उदासीनता राज्य के लिए बड़ी हानिकारक सिद्ध हुई।

राजपूत युग में सामन्तीय प्रथा का प्रचलन था। प्रायः जब शक्तिशाली राज्य अपने पड़ौसी राज्यों पर विजय प्राप्त कर लेते थे तब उन्हें समाप्त नहीं कर देते थे वरन् उन्हें अपना सामन्त बनाकर छोड़ देते थे। ये सामन्त अपने राजा की अधीनता में शासन करते थे और युद्ध के समय धन तथा सेना में उसकी सहायता करते थे परन्तु इन सामन्तों की स्वामिभक्ति बड़ी संदिग्ध रहती थी और वे प्रायः स्वतंत्र होने का प्रयत्न करते रहते थे।

अत्यंत प्रचीन काल से उत्तर-पश्चिम के पर्वतीय भागों से भारत पर विदेशियों के आक्रमण हो रहे थे परन्तु कभी भी उत्तर-पश्चिम सीमा की सुरक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं की गई। राजपूत युग में भी सीमान्त प्रदेश की सुरक्षा का कोई प्रबंध नहीं किया गया। न तो उस प्रदेश की किलेबन्दी की गई और न वहाँ पर स्थायी सेनाएं रखी गईं। पश्चिमोत्तर प्रदेश में अनेक छोटे-छोटे राज्य विद्यमान थे, जो विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमण की बाढ़ को रोकने में सर्वथा अशक्त थे। विदेशी आक्रमणकारियों को पर्वतीय भागों को पार कर भारत में प्रवेश करने में कोई कठिनाई नहीं होती थी और एक बार जब वे देश में घुस आते थे तब उनका मार्ग साफ हो जाता था।

सामाजिक दशा

राजपूतकालीन समाज में विभिन्न प्रकार के दोष उत्पन्न हो गये थे। अब ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के अतिरिक्त अनेक उपजातियां उत्पन्न हो गई थीं और जाति-प्रथा के बन्धन अत्यंत कठोर हो गये थे। अब ऊँच-नीच का भेदभाव और अस्पृश्यता जैसी बुराइयां बहुत बढ़ गयी थीं। समाज में शूद्रों की दशा बड़ी शोचनीय हो गई। वे घृणा की दृष्टि से देखे जाते थे। इस कारण जब भारत पर मुसमानों के आक्रमण हुए और उनके पैर यहाँ जम गये तब उन्होंने बहुत बड़ी संख्या में निम्नवर्ग के हिन्दुओं को इस्लाम धर्म में सम्मिलित कर लिया क्योंकि इस्लाम धर्म में ऊँच-नीच तथा छुआछूत की भावना बहुत कम थी।

राजपूत कालीन समाज में हिन्दुओं का दृष्टिकोण उतना व्यापक तथा उदार नहीं था, जितना वैदिक एवं उत्तर वैदिक काल में था। जाति प्रथा के बंधन दृढ़ होने के कारण अब भारतीय समाज में विदेशियों को आत्मसात करने की क्षमता समाप्त हो गई थी। राजपूत युग के पूर्व यूनानी, शक, कुषाण, हूण आदि जितनी जातियां भारत में प्रविष्ट हुई थीं, उन सबको भारतीयों ने अपने में आत्मसात कर लिया था। वे सब कालान्तर में भारतीयों में घुल-मिल गई थीं और अपने अस्तित्त्व को खो बैठी थीं परन्तु हिन्दू, मुसलमानों को आत्मसात न कर सके। मुसलमानों के पूर्व जो जातियां भारत में आईं, उनका एक मात्र उद्देश्य भारत पर विजय प्राप्त कर अपना शासन स्थापित करना था। उनकी कोई निश्चित सभ्यता तथा संस्कृति नहीं थी और न वे उसका प्रचार करना चाहते थे। इसलिये वे भारतवर्ष की सभ्यता तथा संस्कृति से आकृष्ट हुए और उसके रंग में रंग गये। राजनीतिक सत्ता समाप्त हो जाने पर वे भारतीयों में घुल-मिल गये और अपने अस्तित्त्व को खो बैठे परन्तु मुसलमानों की अपनी निश्चित सभ्यता तथा संस्कृति थी और वे उसका प्रचार करने के लिए दृढ़ संकल्प थे।

मुसलमान आक्रमणकारियों का लक्ष्य राज्य तथा सम्पत्ति प्राप्त करने के साथ-साथ इस्लाम का प्रचार करना भी था। इसलिये मुसलमानों के हिन्दू संस्कृति में आत्मसात हो जाने का कोई प्रश्न ही नहीं था। यहाँ तो हिन्दू-धर्म तथा हिन्दू-सभ्यता स्वयं बहुत बड़े संकट में पड़ी थी और उसे अपनी रक्षा का उपाय ढँूढना था। फलतः हिन्दुओं ने जाति-प्रथा के बन्धनों को अत्यंत जटिल बना दिया और अपनी शुद्धता और पवित्रता पर बल देना आरम्भ किया। उन्होंने मुसलमानों को म्लेच्छ कहा और उन्हें स्पर्श करना महापाप बताया। हिन्दुओं की यह संकीर्णता अपनी परिस्थितियों के अनुकूल थी और अपने धर्म तथा अपनी सभ्यता एवं संस्कृति की रक्षा के लिए की गई थी परन्तु इसके भावी परिणाम अच्छे न हुए, क्योंकि हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच एक ऐसी खाई उत्पन्न हो गई जो कभी पाटी न जा सकी।

राजपूत युग के भारतीय समाज में राजपूत जाति का एक विशिष्ट स्थान है। जिस प्रदेश में वे अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए चले गए और निवास करने लगे, उसका नाम राजपूताना पड़ गया। राजपूत जाति अपने विशिष्ट गुणों तथा उच्च आदर्शों के कारण समाज में आदर की दृष्टि से देखी जाती थी। राजपूतों में उच्चकोटि का आत्माभिमान था। वे अपनी आन पर सहर्ष जान दे देते थे। उनमें कुलाभिमान भी उच्चकोटि का था। अपने कुल की मर्यादा की रक्षा के लिए वे सर्वस्व निछावर करने के लिए उद्यत रहते थे। राजपूत योद्धा अपने वचन के बड़े पक्के होते थे और अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहते थे। रणप्रिय होते हुए भी वे उदार होते थे और तन-मन-धन से शरणागत की रक्षा करते थे। दान-दक्षिणा देने में उनकी उदारता तथा सहृदयता सीमा का उल्लंघन कर जाती थी। राजपूतों के गुणों की प्रशंसा करते हुए टॉड ने लिखा है- ‘उच्चकोटि का साहस, देशभक्ति, स्वामिभक्ति, आत्मसम्मान, अतिथिसत्कार तथा सरलता के गुण राजपूतों में पाये जाते हैं।’

राजपूत काल में स्त्रियों को बड़े आदर की दृष्टि से देखा जाता था। राजपूत रमणियों की प्रशंसा करते हुए डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘राजपूत लोग अपनी स्त्रियों का आदर करते थे। यद्यपि जन्म से मृत्यु तक उनका जीवन भयंकर कठिनाइयों का होता था तथापि संकट काल में वे अद्भुत साहस तथा दृढ़ संकल्प का प्रदर्शन करती थीं और ऐसी वीरता का कार्य सम्पन्न करती थीं जो विश्व के इतिहास में अद्वितीय है।’ राजपूत युद्ध काल में भी कभी स्त्रियों पर हाथ नहीं उठाता था और वह उसके सतीत्व को आदर की दृष्टि से देखता था। इस युग में पर्दे की प्रथा नहीं थी। स्त्रियों को बाहर जाने की स्वतन्त्रता थी परन्तु मुसलमानों के आगमन से पर्दा आरम्भ हो गया। स्त्रियों की शिक्षा-दीक्षा पर भी ध्यान दिया जाता था। इस काल की राजपूत स्त्रियों के आदर्श पुरुषों की भाँति बड़े ऊँचे थे। उनका पतिव्रत धर्म प्रशंसनीय था। वे अपने पति के मृत शरीर के साथ चिता में सहर्ष जल कर भस्म हो जाती थीं। इससे इस युग में सती-प्रथा का प्रचलन बहुत बढ़ गया था। राजपूतों में स्वयंवर की भी प्रथा थी परन्तु अन्य जातियों में माता-पिता ही कन्या दान करते थे। राजवंशों में भी बहु-विवाह की प्रथा का प्रचलन था, यद्यपि स्वजातीय विवाह अच्छे समझे जाते थे परन्तु यदा-कदा अन्तर्जातीय विवाह भी हो जाया करते थे।

राजपूत काल में राजपूतों में जौहर की प्रथा का प्रचलन था। जब राजपूत योद्धा अपने दुर्गों में शत्रुओं से घिर जाते थे और बचने की कोई आशा नहीं रह जाती थी तब वे केसरिया वस्त्र पहनकर और नंगी तलवार लेकर निकल पड़ते थे और शत्रु से लड़कर अपने प्राण खो देते थे। उनकी स्त्रियाँ चिता में बैठकर अपने को अग्नि में समर्पित कर देती थीं और इस प्रकार अपने सतीत्व की रक्षा करती थीं।

धार्मिक दशा

प्राचीन क्षत्रियों की भांति राजपूत, ब्राह्मण धर्म में पूर्ण विश्वास रखते थे। अधिकांश राजपूत राजवंशों ने ब्राह्मण धर्म को प्रश्रय दिया। इस काल में कुमारिल, शंकराचार्य, रामानुज आदि आचार्यों ने ब्राह्मण धर्म का खूब प्रचार किया। कुमारिल भट्ट ने वेदों की प्रामाणिकता को न मानने वाले बौद्ध धर्म का खण्डन किया। शंकराचार्य ने अद्वैतवाद अर्थात् ‘जीवात्मा तथा परमात्मा एक है, के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। शंकराचार्य ने उपनिषदों को आधर बनाकर वैदिक-धर्म का खूब प्रचार किया और बौद्ध धर्म के प्रभाव को समाप्त सा कर दिया। शंकराचार्य ने भारत के चारों कोनों अर्थात् बद्रीनाथ, द्वारिका, रामेश्वरम् तथा जगन्नाथपुरी में चार मठ स्थापित किये। रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वेतवाद का समर्थन किया जिसका यह तात्पर्य है कि ब्रह्म, जीव तथा जगत् मूलतः एक होने पर भी क्रियात्मक रूप में एक-दूसरे से भिन्न हैं और कुछ विशिष्ट गुणों से युक्त हैं। इस युग के प्रमुख देवता विष्णु तथा शिव थे। इस युग में वैष्णव तथा शैव धर्म का खूब प्रचार हुआ। दक्षिण भारत में लिगांयत सम्प्रदाय का खूब प्रचार हुआ। ये लोग शिवलिंग की पूजा किया करते थे। इस काल में शक्ति की भी पूजा प्रचलित थी। शक्ति के पूजक दुर्गा तथा काली की पूजा किया करते थे। तान्त्रिक सम्प्रदाय की भी इस युग में अभिवृद्धि हुई। ये लोग जादू-टोना भूत-प्रेत तथा मन्त्र-तन्त्र में विश्वास करते थे। इस प्रकार अन्धविश्वास का प्रकोप बढ़ रहा था।

राजपूत राजाओं के युद्ध प्रिय होने के कारण राजपूत काल बौद्ध धर्म के पतन का काल था। इस धर्म का तान्त्रिक धर्म से बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया था। इसका भिक्षुओं पर बड़ा प्रभाव पड़ा। कुमारिल तथा शंकराचार्य ने भी बौद्ध धर्म का खण्डन करके उसे बड़ी क्षति पहुँचाई। विदेशी आक्रमणकारियों ने तो बौद्ध धर्म को बिल्कुल नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और वह अपनी जन्मभूमि में उन्मूलित प्रायः हो गया।

राजपूत काल में जैन धर्म बड़ी ही अवनत दशा में था। इसका प्रचार दक्षिण भारत में सर्वाधिक था। इसे पश्चिम में चौलुक्य राजाओं का संरक्षण प्राप्त था परन्तु वहां भी बारहवीं शताब्दी में लिंगायत सम्प्रदाय का प्रचार हो जाने से जैन धर्म को बड़ी क्षति पहुँची परन्तु जैन धर्म का समूल विनाश नहीं हुआ। वह धीरे-धीरे ब्राह्मण धर्म के सन्निकट आता गया और आज भी अपने अस्तित्त्व को बनाए हुए है।

साहित्य

राजपूत काल में साहित्य की बड़ी उन्नति हुई। इस काल में संस्कृत भाषा की भी बड़ी उन्नति हुई। इस काल में वह साहित्य की भाषा बनी रही परन्तु संस्कृत के साथ-साथ प्रान्तीय भाषाओं का भी विकास हुआ। हिन्दी, बँगला, गुजराती आदि भाषाओं में भी साहित्य की रचना होने लगी। इस युग में देश में कई शिक्षण संस्थाओं की स्थापना हुई। विक्रमशिला विश्वविद्यालय का विकास इसी युग में हुआ।

अनेक राजपूत शासक साहित्यानुरागी थे। वे साहित्यकारों के आश्रयदाता भी थे। वे कवियों तथा विद्वानों को दान तथा पुरस्कार देने में बड़े उदार तथा सहृदय थे। इस युग में ऐसे अनेक राजा हुए जो स्वयं उच्चकोटि के विद्वान् तथा कवि थे। इनमें वाक्पतिराज, मंुज, भोज, विग्रहराज आदि प्रमुख हैं। राजपूत राजाओं के दरबार में अनेक कवियों को आश्रय प्राप्त था। कन्नौज के राजा महेन्द्रपाल के दरबार में राजशेखर नामक कवि रहता था जिसने प्राकृत भाषा में ‘कर्पूर-मंजरी’ नामक ग्रन्थ लिखा था। बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन के दरबार में जयदेव नामक कवि को आश्रय प्राप्त था, जिसने ‘गाीतगोविन्द’ नामक ग्रन्थ की रचना की। काश्मीर में कल्हण ने ‘राजतरंगिणी’ की और सोमदेव ने ‘कथा-सरित-सागर’ की रचना की। चारण कवियों में चन्दबरदाई का नाम अग्रगण्य है, जो पृथ्वीराज चौहान के दरबार में रहता था। उसने ‘पृथ्वीराज रासो’ नामक ग्रन्थ की रचना की। भवभूति इस काल का सबसे प्रसिद्ध नाटककार था, जिसने ‘महावीर-चरित’, ‘उत्तर-रामचरित’ तथा ‘मालती-माधव’ नामक नाटकों की रचना की। कुमारिल भट्ट, शंकराचार्य तथा रामानुजाचार्य इस काल के प्रसिद्ध दार्शनिक थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं में तत्त्वों की विवेचना की। इस प्रकार राजपूत युग यद्यपि प्रधानतः संघर्ष तथा युद्धों का युग था परन्तु उनमें साहित्य की पर्याप्त उन्नति हुई ।

कला

राजपूत राजा कलानुरागी थे। राजपूत काल प्रधानतः युद्ध तथा संघर्ष का काल था इसलिये राजपूत राजाओं ने आत्मरक्षा के लिए अनेक सुदृढ़़ दुर्गों का निर्माण करवाया। रणथम्भौर, चितौड़, ग्वालियर आदि दुर्ग इसी काल में बने थे। राजपूत राजाओं को भवन बनवाने का भी बड़ा शौक था। इनमें ग्वालियर का मानसिंह का राजमहल, उदयपुर का हवामहल तथा जयपुर के अन्य महल प्रसिद्ध हैं। इस प्रकार इस युग में वास्तुकला की बड़ी उन्नति हुई। इस काल में मन्दिरों का खूब निर्माण हुआ। इस काल में उत्तरी भारत में जो मन्दिर बने उसके शिखर बड़े ऊँचे तथा नुकीले हैं। इनमें अंलकार तथा सजावट की अधिकता है परन्तु सुदूर दक्षिण में रथ तथा विमान के आकार के मन्दिर बने। ये अपेक्षाकृत सरल हैं। इस काल के बने हुए मन्दिरों में खजुराहो के मन्दिर, उड़ीसा में भुवनेश्वर का मन्दिर, काश्मीर का मार्त्तण्ड मन्दिर, अजन्ता के गुहा मन्दिर, एलोरा का कैलाश मन्दिर, आबू पर्वत के जैन मन्दिर, तंजौर, काँची, मथुरा आदि के मन्दिर प्रसिद्ध हैं।

मन्दिर निर्माण के साथ-साथ इस काल में मूर्ति-निर्माण कला की भी उन्नति हुई। ब्राह्मण-धर्म के अनुयायियों ने शिव, विष्णु शक्ति, सूर्य, गणेश आदि की मूर्तियों का, बौद्ध धर्मावलम्बियों ने बुद्ध तथा बोधिसत्वों की मूर्तियों का और जैनियों ने तीर्थंकरों की मूर्तियों का निर्माण कराया। चित्रकारी का भी कार्य उन्नत दशा में था। गायन, वादन, अभिनय तथा नृत्य आदि कलाओं का भी इस युग में पर्याप्त विकास हुआ।

अध्याय – 31 : सर्वोच्चता के लिए त्रिकोणीय संघर्ष (गुर्जर-प्रतिहार, पाल और राष्ट्रकूट वंश)

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अवंति का गुर्जर-प्रतिहार वंश

गुर्जर-प्रतिहारों का उदय मण्डोर में हुआ तथा वे जालोर होते हुए अवन्ति तक जा पहुंचे थे। गुर्जर प्रदेश का स्वामि होने के कारण उन्हें गुर्जर-प्रतिहार कहा गया। हरिवंश पुराण में प्रतिहार शासक वत्सराज को अवंति-भू-भृत अर्थात् अवंति का राजा कहा गया है। राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष के संजन ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि दंतिदुर्ग ने एक महादान का आयोजन किया उसमें उसने गुर्जर-प्रतिहार नरेश को उज्जैन में प्रतिहार (द्वारपाल) बनाया था। इन कथनों से स्पष्ट है कि गुर्जर-प्रतिहार वंश का उदय अवंति में हुआ था। ग्वालियर अभिलेख में प्रतिहार नरेशों वत्सराज तथा नागभट्ट (द्वितीय) को क्षत्रिय कहा गया है। यही अभिलेख प्रतिहार वंश को सौमित्र (लक्ष्मण) से उत्पन्न बताता है। राजेशखर प्रतिहार नरेशों महेन्द्रपाल तथा महीपाल को क्रमशः रघुकुलतिलक और रघुवंशमुकटमणि कहता है। इस वंश का संस्थापक नागभट्ट (प्रथम) (730 ई.-760 ई.) था। उसके वंशजों ने अवंति पर शासन किया। इस वंश का चौथा राजा नागभट्ट (द्वितीय) (805 ई. से 833 ई.) प्रतापी राजा था।

बंगाल का पाल वंश

इस वंश की स्थापना गोपाल नामक व्यक्ति ने की। बंगाल की जनता ने बंगाल में व्याप्त दीर्घकालीन अराजकता का अंत करने के लिये गोपाल को अपना राजा चुना। राजा बनने के पूर्व गोपाल सेनापति था। गोपाल ने 750 ई. से 770 ई. तक राज्य किया। इसके पश्चात् धर्मपाल तथा देवापाल नामक दो राजा हुए। उनके समय से पाल वंश भारत के प्रमुख राजवंशों में गिना जाने लगा।

दक्षिण का राष्ट्रकूट वंश

यह वंश प्रतिहारों एवं पालों का समकालीन था। अशोक के अभिलेखों में रठिकों का उल्लेख हुआ है। नानिका के नानाघाट अभिलेख में महारठियों का उल्लेख है। डॉ. अल्तेकर का मत है कि राष्ट्रकूट इन्हीं रठिकों की संतान थे। अभिलेखों में राष्ट्रकूटों को लट्टलूरपुरवराधीश कहा गया है। इससे अनुमान होता है कि वे लट्टलूर के निवासी थे। लट्टलूर सम्भवतः आज का लाटूर था। राष्ट्रकूट यदुवंशी क्षत्रियों की सन्तान माने जाते हैं। इनका मूल पुरुष रट्ट नामक व्यक्ति था जिसके पुत्र का नाम राष्ट्रकूट था। इसी से इस वंश का नाम राष्ट्रकूट वंश पड़ा। आरम्भ में राष्ट्रकूट वातापी के चालुक्यों के सामन्त के रूप में शासन करते थे परन्तु जब चालुक्य साम्राज्य कमजोर पड़ गया तब राष्ट्रकूट सामन्त दन्तिदुर्ग ने चालुक्य राजा कीर्ति वर्मन को परास्त करके चालुक्य राज्य पर अधिकार कर लिया और स्वतन्त्र रूप से शासन करने लगा। दन्तिदुर्ग के बाद उसका चाचा कृष्णराज (प्रथम) शासक हुआ। एलोरा का विख्यात कैलाश मन्दिर उसी के शासन-काल में बना था। इस वंश का दूसरा प्रतापी शासक ध्रुवराज था, जिसने 780 से 796 ई. तक शासन किया। ध्रुवराज का पुत्र गोविन्दराज (तृतीय) शक्तिशाली राजा था जिसने गंड शासक की सत्ता को समाप्त किया और काँची के राजा को भी युद्ध में परास्त किया। राष्ट्रकूट वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा इन्द्र था, जिसने 880 ई. से 914 ई. तक शासन किया। उसने अपने प्रभाव को उत्तर में गंगा नदी से दक्षिण में कन्याकुमारी तक फैला दिया था। उसने कन्नौज के प्रतिहार राजा महिपाल को युद्ध में परास्त किया था। उसने ‘परम-माहेश्वर’ की उपाधि धारणा की, जिससे स्पष्ट है कि वह शैव धर्म का अनुयायी था। राष्ट्रकूट वंश का अन्तिम प्रतापी शासक कृष्ण (तृतीय) था। उसके बाद इस वंश का पतन आरम्भ हो गया। 973 ई. में कल्याणी के चालुक्य राजा तैलप (द्वितीय) ने राष्ट्रकूट वंश का अन्त कर दिया और नये राजवंश की स्थापना की, जिसे कल्याणी का परवर्ती चालुक्य वंश कहते हैं।

कान्यकुब्ज का आयुध वंश

जिस समय उत्तरी भारत में गुर्जर-प्रतिहार वंश तथा पाल वंश अपना-अपना राज्य बढ़ाने की योजना बना रहे थे, उस समय कान्यकुब्ज में निर्बल आयुध वंश का शासन था। इस वंश का उदय यशोवर्मन की मृत्यु के बाद हुआ था। इसमें तीन राजा हुए- वज्रायुध, इन्द्रायुध तथा चक्रायुध। इन्होंने लगभग 770 ई. से लेकर 810 ई. तक शासन किया।

त्रिकोणीय संघर्ष का सूत्रपात

गुर्जर-प्रतिहारों और पालों ने कान्यकुब्ज के आयुध वंश की निर्बलता का लाभ उठाने और कान्यकुब्ज को अपने अधिकार में लेने के प्रयास किये। इसी समय दक्षिण के राष्ट्रकूट वंश ने भी उत्तर भारत की राजनीति में भाग लिया। परिणामतः गुर्जर-प्रतिहारों, पालों तथा राष्ट्रकूटों के बीच त्रिकोणीय संघर्ष का सूत्रपात हुआ। इसे त्रिवंशीय संघर्ष भी कहते हैं।

गुर्जर-प्रतिहारों का कान्यकुब्ज पर आक्रमण

अवंति के प्रतिहार वंश का राजा वत्सराज (780 ई. से 805 ई.) अपने वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा था। उसने 783 ई. के लगभग कान्यकुब्ज पर आक्रमण किया तथा वहां के शासक इन्द्रायुध को अपने प्रभाव में रहने के लिये विवश किया। इस समय बंगाल में पाल वंश का राजा धर्मपाल राज्य कर रहा था। वह गुर्जर-प्रतिहार वंश की बढ़ती हुई शक्ति के प्रति उदासीन नहीं रह सकता था। अतः उसने वत्सराज को चुनौती दी। दोनों में युद्ध हुआ। इसमें वत्सराज विजयी रहा।

राष्ट्रकूट आक्रमण

इसी समय राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव ने उत्तरी भारत पर आक्रमण किया और वत्सराज को पराजित कर दिया। राधनपुर तथा वनी डिण्डोरी अभिलेखों के अनुसार वत्सराज को पराजित होकर मरुस्थल में शरण लेनी पड़ी। वत्सराज को परास्त करने के बाद राष्ट्रकूट नरेश धु्रव ने बंगाल नरेश धर्मपाल को भी परास्त किया। संजन अभिलेख तथा सूरत अभिलेख के अनुसार धु्रव ने धर्मपाल को गंगा-यमुना के दोआब में परास्त किया। बड़ौदा अभिलेख कहता है कि धु्रव ने गंगा-यमुना के दोआब पर अपना अधिकार कर लिया था।

धर्मपाल का प्रभुत्व

उत्तर भारत की विजय के बाद राष्ट्रकूट नरेश धु्रव वापस चला गया। उसके जाने के बाद धर्मपाल ने पुनः अपनी शक्ति का संगठन किया और कान्यकुब्ज पर आक्रमण करके उसके राजा इन्द्रायुध को सिंहासन से उतार दिया तथा चक्रायुध को कान्यकुब्ज की गद्दी पर बैठाया। धर्मपाल ने कान्यकुब्ज में एक विशाल दरबार किया जिसमें उसने भोज, मत्स्य, मद्र, कुरु, यदु, यवन अवन्ति, गंधार और कीर के राजाओं को आमंत्रित किया। यहां अवंति से तात्पर्य वत्सराज से है। डॉ. मजूमदार के अनुसार ये समस्त राज्य धर्मपाल के अधीन थे। इस प्रकार धर्मपाल कुछ समय के लिये उत्तरी भारत का सर्वशक्तिशाली सम्राट बन गया। गुजराती लेखक सोढल ने उदयसुंदरीकथा में धर्मपाल को उत्तरापथस्वामिन् कहा है।

नागभट्ट (द्वितीय) तथा गोविंद (तृतीय) का संघर्ष

850 ई. में वत्सराज की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र नागभट्ट (द्वितीय) (805 ई. से 833 ई.) सिंहासन पर बैठा। इस समय दक्षिण में राष्ट्रकूट शासक गोविंद (तृतीय) (793 ई. से 814 ई.) शासन कर रहा था। उसने उत्तरी भारत पर आक्रमण किया तथा प्रतिहार नरेश नागभट्ट (द्वितीय) को परास्त किया। राधनपुर ताम्रलेख के अनुसार गोविंद (तृतीय) के भय से नागभट्ट (द्वितीय) विलुप्त हो गया जिससे उसे स्वप्न में भी युद्ध दिखाई नहीं पड़े।

धर्मपाल और गोविंद (तृतीय) का संघर्ष

संजन ताम्रपत्र के अनुसार बंगाल नरेश धर्मपाल तथा उसके संरक्षित कन्नौज नरेश चक्रायुध ने स्वयं ही गोविंद (तृतीय) की अधीनता स्वीकार कर ली। इस प्रकार गोविंद (तृतीय) के नेतृत्व में एक बार फिर राष्ट्रकूट वंश ने उत्तरी भारत को पदाक्रांत किया। धु्रव की भांति गोविंद (तृतीय) ने भी उत्तरी भारत को अपने राज्य में नहीं मिलाया। विजय अभियान पूरा करके वह अपने राज्य को लौट गया।

नागभट्ट की कन्नौज विजय

गोविंद (तृतीय) के दक्षिण को लौट जाने के बाद नागभट्ट (द्वितीय) ने कन्नौज पर आक्रमण करके चक्रायुध को परास्त कर दिया तथा कन्नौज पर अधिकार कर लिया। इसके बाद कन्नौज प्रतिहार राज्य की राजधानी बन गया।

नागभट्ट के हाथों धर्मपाल की पराजय

चक्रायुध की पराजय का समाचार पाकर धर्मपाल ने नागभट्ट के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। दोनांे पक्षों में मुंगेर में युद्ध हुआ जिसमें धर्मपाल परास्त हो गया। ग्वालियर अभिलेख, बड़ौदा अभिलेख तथा जोधपुर अभिलेख नागभट्ट की विजय की पुष्टि करते हैं। इस प्रकार त्रिवंशीय संघर्ष में अंततोगत्वा नागभट्ट को सर्वाधिक लाभ हुआ। वह उत्तरी भारत का सर्वशक्तिशाली सम्राट बन गया।

मिहिरभोज की उपलब्धियाँ

नागभट्ट (द्वितीय) के बाद उसका पुत्र रामभद्र (833 ई. से 836 ई.) प्रतिहारों के सिंहासन पर बैठा। उसके समय की उपलब्धियों के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं मिलती है। उसके बाद उसका पुत्र मिहिरभोज प्रथम (836 ई. से 885 ई.) प्रतिहारों का राजा हुआ। वह अपने समय का प्रतापी राजा सिद्ध हुआ। मिहिरभोज (प्रथम) ने राष्ट्रकूट राज्य के उज्जैन प्रदेश पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया परंतु उज्जैन पर प्रतिहारों का अधिकार अधिक समय तक नहीं रह सका। बगुभ्रा दानपत्र से विदित होता है कि गुजरात के राष्ट्रकूट धु्रव ने मिहिरभोज को परास्त कर दिया था।

अमोघवर्ष के बाद उसका पुत्र कृष्ण द्वितीय (878 ई.-914 ई.) राष्ट्रकूटों का राजा हुआ। उसके समय में राष्ट्रकूटों की प्रतिहारों से वंशानुगत शत्रुता चलती रही। इस शत्रुता का विशेष कारण मालवा था। दोनों ही इस क्षेत्र पर अधिकार करना चाहते थे। इस संघर्ष के सम्बन्ध में दोनों ही पक्षों के अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिनमें दोनों ने ही अपनी-अपनी विजय का दावा किया है जिससे अनुमान होता है कि उनके बीच एक से अधिक अनिर्णित युद्ध हुए।

मिहिरभोज का पालों से युद्ध

इस समय बंगाल में पाल वंश का देवपाल (910 ई.-950 ई.) पराक्रमी नरेश शासन कर रहा था। उसके शासन काल में प्रतिहार-पाल संघर्ष चलता रहा। ग्वालियर अभिलेख से ज्ञात होता है कि मिहिरभोज ने धर्मपाल के पुत्र देवपाल को परास्त किया। कहला अभिलेख पाल नरेश मिहिरभोज की विजय का उल्लेख करते हुए कहता है- मिहिरभोज के सामन्त गुणाम्बोधिदेव ने गौड़-लक्ष्मी का हरण कर लिया। बदल अभिलेख का कथन है कि पाल नरेश ने गुर्जरनाथ (मिहिरभोज) का दर्प नष्ट कर दिया। इन परस्पर विरोधी दावों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पालों और प्रतिहारों के बीच हुए इस युद्ध का भी स्पष्ट निर्णय नहीं हो सका था।

सुलेमान का विवरण

इस काल में अरब यात्री सुलेमान भारत आया। उसके वर्णन से प्रकट होता है कि रुहमी (पाल नरेश) की बल्लहरा (राष्ट्रकूट) और गुज (गुर्जर-प्रतिहार) से शत्रुता थी। राष्ट्रकूट सेना और प्रतिहार सेना की अपेक्षा पाल सेना बहुसंख्यक थी।

महेन्दपाल (प्रथम) और नारायण पाल का संघर्ष

मिहिरभोज के बाद उसके पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम (885 ई.-910 ई.) ने शासन किया। पाल वंश का नारायण पाल (854 ई.-908 ई.) उसका समकालीन था। मिहिरभोज के अभिलेख उत्तर प्रदेश के पूर्व में प्राप्त नहीं होते किंतु महेन्द्रपाल (प्रथम) के तीन अभिलेख बिहार में और एक अभिलेख बंगाल में प्राप्त हुआ है। इनके आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि महेन्द्रपाल ने बंगाल नरेश नारायणपाल को पराजित कर बंगाल के कुछ भागों और बिहार पर अधिकार कर लिया था। नारायणपाल का कोई भी अभिलेख उसके शासन के 17वें वर्ष से लेकर 37वंे वर्ष तक मगध में नहीं मिला है परंतु 908 ई. में उसका एक अभिलेख मगध (उदन्तपुर) में मिलता है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि नारायणपाल ने फिर से मगध पर अधिकार कर लिया था।

अमोघवर्ष तथा नारायणपाल का संघर्ष

सिरुर अभिलेख का कथन है कि अंग, बंग, मगध तथा वेंगी के राजा राष्ट्रकूट अमोघवर्ष (814 ई.-878 ई.) के अधीन थे। इस आधार पर डॉ. मजूमदार का मत है कि अमोघवर्ष ने पाल नरेश नारायणपाल को पराजित किया था परंतु इस मत के पक्ष में कोई अन्य प्रमाण नहीं है। पाल शासक नारायणपाल, अमोघवर्ष के पुत्र तथा उत्तराधिकारी कृष्ण द्वितीय (878 ई. से 914 ई.) का भी समकालीन था। उत्तर पुराण से ज्ञात होता है कि कृष्ण (द्वितीय) के हाथियों ने गंगा नदी का पानी पिया था। इस आधार पर कुछ विद्वानों ने मत स्थिर किया है कि कृष्ण (द्वितीय) ने बंगाल पर आक्रमण किया था और उसके राजा नारायणपाल को परास्त किया था परंतु अन्य प्रमाणों के अभाव में यह मत संदिग्ध है।

महीपाल (प्रथम) का पांच राष्ट्रकूट राजाओं से संघर्ष

महेन्द्रपाल के पश्चात् उसका पुत्र भोज द्वितीय (910 ई.-913 ई.) प्रतिहारों का राजा हुआ। उसे उसके भाई महीपाल (प्रथम) ने पराजित करके सिंहासन पर अधिकार कर लिया। महीपाल (प्रथम) को विनायकपाल तथा हेरम्बपाल भी कहते हैं। उसने 913 ई. से 945 ई. तक शासन किया। वह प्रतिहार वंश का प्रतापी शासक सिद्ध हुआ। उसके समय दक्षिण में राष्ट्रकूट राजा इंद्र तृतीय (914 ई.-922 ई.) का शासन था। काम्बे दानपत्र से ज्ञात होता है कि इन्द्र ने मालवा पर आक्रमण किया। उसके हाथियों ने अपने दांतों के घातों से भगवान् कालप्रिय के मंदिर के प्रांगण को विषम बना दिया। तत्पश्चात् यमुना को पार करके शत्रु नगर महोदय (कान्यकुब्ज) पर आक्रमण किया तथा उसे नष्ट कर दिया। महीपाल भाग खड़ा हुआ। इन्द्र के सेनापति नरसिंह चालुक्य ने प्रयाग तक उसका पीछा किया और अपने घोड़ों को गंगा और यमुना के संगम में नहलाया।

इन्द्र (तृतीय) के पश्चात् उसका पुत्र अमोघवर्ष (द्वितीय) (922 ई.-923 ई.) राष्ट्रकूटों का राजा हुआ। उसका भाई गोविंद (चतुर्थ) (923 ई.-936 ई.) उसे गद्दी से उतार कर स्वयं राजा बन गया। वह विलासी राजा था। उसके काल में राष्ट्रकूट शक्ति का हा्रस होने लगा। 936 ई. में गोविंद (चतुर्थ) के चाचा अमोघवर्ष तृतीय (936 ई.-939 ई.) ने सिंहासन पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार इन्द्र (तृतीय) से लेकर अमोघवर्ष (द्वितीय), गोविंद (चतुर्थ) और अमोघवर्ष (तृतीय) तक चार राष्ट्रकूट राजा, प्रतिहार नरेश महीपाल के समकालीन थे। इनकी कमजोरी का लाभ उठाकर महीपाल ने कन्नौज पर पुनः अधिकार कर लिया। क्षेमीश्वर के नाटक चण्डकौशिकम् में महीपाल की कर्नाट् विजय का उल्लेख है। डॉ. मजूमदार का मत है कि कर्नाटांे से आशय राष्ट्रकूटों से है। देवली और कर्हाद अभिलेखों से ज्ञात होता है कि अमोघवर्ष (तृतीय) के युवराज कृष्ण (तृतीय) ने गुर्जर को परास्त करके उससे कालिंजर तथा चित्रकूट छीन लिये। संभवतः यह गुर्जर महीपाल (प्रथम) था। इस प्रकार प्रतिहार राजा महीपाल (प्रथम) ने पांच राष्ट्रकूट राजाओं से संघर्ष किया।

अलमसूदी का विवरण

अरब यात्री अलमसूदी लिखता है कि प्रतिहार नरेश बऊर (महीपाल प्रथम) और बल्हर (राष्ट्रकूट नरेश) में शत्रुता थी और बऊर ने राष्ट्रकूटों से अपनी रक्षा के लिये दक्षिण में एक प्रथक् सेना रखी थी।

महीपाल (प्रथम) के पाल राजाओं से सम्बन्ध

पाल वंश के दो राजा राज्यपाल तथा गोपाल (द्वितीय) प्रतिहार नरेश महीपाल (प्रथम) के समकालीन थे। अभिलेखों से ज्ञात होता है कि इन दोनों के अधीन बंगाल और मगध थे। इनके समय में संभवतः पालों तथा प्रतिहारों के बीच शांति बनी रही।

त्रिवंशीय संघर्ष का अंत

महीपाल (प्रथम) जीवन भर लड़ता रहा था, निश्चित रूप से उसकी शक्ति का बहुत ह्रास हुआ होगा। अंत में वह कृष्ण (तृतीय) से परास्त हो गया था। इस कारण उसके पश्चात् प्रतिहार वंश में अनेक निर्बल राजा हुए। वे अपने राज्य की रक्षा नहीं कर सके तथा शनैःशनैः उनके राज्य का विलोपन हो गया।

बंगाल में भी नारायणपाल के पश्चात् पाल वंश पतनोन्मुख था। अतः यह वंश भी प्रतिहारों की निर्बलता का लाभ नहीं उठा सका। 1001 ई. में जब महमूद गजनवी का भारत पर आक्रमण हुआ तो पाल वंश के राजा राज्यपाल ने महमूद की अधीनता स्वीकार कर ली। इस पर चंदेल राजा गण्ड ने राज्यपाल पर आक्रमण करके उसे दण्डित किया। इस प्रकार ये राज्य इतने कमजोर हो गये कि उनमें परस्पर लड़ने की भी शक्ति नहीं रही।

राष्ट्रकूट राजा कृष्ण (तृतीय) (939 ई.-968 ई.) पराक्रमी राजा था किंतु इस बात के निश्चित प्रमाण नहीं मिलते कि उसने उत्तर भारत में अपने राज्य का प्रसार किया। कृष्ण (तृतीय) के पश्चात् राष्ट्रकूट राज्य की अवनति होने लगी और शनैःशनैः वह भी छिन्न-भिन्न हो गया।

इस प्रकार गुर्जर-प्रतिहार, पाल तथा राष्ट्रकूट राजा 783 ईस्वी से लेकर भारत में महमूद गजनवी के आक्रमण आरम्भ होने तक परस्पर लड़कर एक दूसरे को क्षीण एवं दुर्बल बनाते रहे और अंत में तीनों ही नष्ट हो गये और त्रिवंशीय संघर्ष का अंत हुआ।

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