Tuesday, September 17, 2024
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अध्याय – 8 : ऋग्वैदिक काल की सभ्यता

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वैदिक काल, उस काल को कहते हैं जिसमें आर्यों ने वैदिक ग्रन्थों की रचना की। ये ग्रन्थ एक दूसरे से सम्बद्ध हैं और इनका क्रमिक विकास हुआ है। सबसे पहले ऋग्वेद तथा उसके बाद अन्य वेदों की रचना की गई। वेदों की रचना के बाद उनकी व्याख्या करने के लिए ब्राह्मण-ग्रन्थों की रचना की गई। वेदों तथा ब्राह्मण-ग्रन्थों की संख्या जब इतनी अधिक हो गई और उनका स्वरूप जब इतना विशाल हो गया कि उन्हें कंठस्थ करना कठिन हो गया तो उन्हें संक्षिप्त स्वरूप देने के लिए सूत्रों की रचना की गई। इस सम्पूर्ण वैदिक साहित्य की रचना में सहस्रों वर्ष लगे। विद्वानों की मान्यता है कि वैदिक साहित्य की रचना 2,500 से 600 ई.पू. के बीच हुई। इसलिये इस काल को वैदिक काल कहा जाता है तथा इस काल में आर्यों की सभ्यता को वैदिक सभ्यता कहा जाता है।

वैदिक सभ्यता का काल विभाजन

वैदिक काल को दो भागों में विभक्त किया गया है-

(1) ऋग्वैदिक सभ्यता (2,500 ई.पू. से 1000 ई.पू.): चारों वेदों में ऋग्वेद सर्वाधिक प्राचीन है। इसलिये ऋग्वेद की सभ्यता सर्वाधिक पुरानी है। ऋग्वेद काल में आर्य लोग सप्त-सिन्धु क्षेत्र में निवास करते थे। इस काल की सभ्यता को ऋग्वैदिक सभ्यता कहते हैं।

(2) उत्तर वैदिक सभ्यता (1000 ई.पू. से 600 ई.पू.): उत्तर-वैदिक काल में आर्य लोग सरस्वती तथा गंगा नदियों के मध्य की भूमि में पहुँच गये थे और उन्होंने वहाँ पर अपने राज्य स्थापित कर लिये थे। इस प्रदेश का नाम कुरुक्षेत्र था। उत्तर-वैदिक काल के आर्यों की सभ्यता का यहीं विकास हुआ। यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद की रचना इसी क्षेत्र में हुई। उत्तर-वैदिक काल में ऋग्वैदिक सभ्यता का क्रमशः विकास होता गया और इसमें अनेक परिवर्तन होते चले गये।

ऋग्वैदिक सभ्यता

ऋग्वैदिक सभ्यता का उद्भव सप्त सिंधु क्षेत्र तथा सरस्वती नदी के निकट हुआ था। ऋग्वेद में सप्त-सैन्धव तथा सरस्वती का अनेक मंत्रों में गुण-गान किया गया है। यद्यपि अब सरस्वती नदी विद्यमान नहीं है, और उसे प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम पर अद्दश्य रूप से प्रस्थापित कर दिया गया है, परन्तु उन दिनों वह सतजल तथा कुरुक्षेत्र के मध्य बहती थी।

ऋग्वैदिक काल की राजनीतिक दशा

यद्यपि ऋग्वेद एक धार्मिक ग्रन्थ है तथा उसमें प्रधानतः स्तुति-मन्त्रों का संग्रह है तथापि कुछ मंत्रों से तत्कालीन राजनीतिक दशा पर भी प्रकाश पड़ता है। इस काल की राजनीतिक दशा निम्नांकित थी-

(1) राजनीतिक विभाजन: ऋग्वैदिक काल की राजनीतिक व्यवस्था का मूलाधार कुटुम्ब था जो पैतृक होता था। कुटुम्ब को आधुनिक इतिहासकारों ने कबीला कहकर पुकारा है। कुटुम्ब का प्रधान, पिता अथवा अन्य कोई बड़ा-बूढ़ा पुरुष होता था जो कुटुम्ब के अन्य सदस्यों पर नियन्त्रण रखता था। कई कुटुम्बों को मिला कर एक ग्राम बनता था। ग्राम का प्रधान ‘ग्रामणी’ कहलाता था। कई ग्रामों को मिला कर ‘विस’ बनता था। विस का प्रधान ‘विसपति’ कहलाता था। कई विसों को मिला कर ‘जन’ बनता था। जन का रक्षक ‘गोप’ अथवा ‘राजन्य’ कहलाता था।

(2) राजनीतिक संगठन: ऋग्वैदिक काल का राजनीतिक संगठन राजतंत्रात्मक था। ऋग्वेद में अनेक राजन्यों का उल्लेख मिलता है। राजन्य का पद आनुवंशिक था और वह उसे उत्तराधिकार के नियम से प्राप्त होता था। अर्थात् राजन्य के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र सिंहासन पर बैठता था। राजन्य का पद यद्यपि वंशानुगत होता था, तथापि हमें समिति अथवा सभा द्वारा किए जाने वाले चुनावों के बारे में भी सूचना मिलती है। राज्य में राजन्य का स्थान सर्वोच्च था। वह सुन्दर वस्त्र धारण करता था और भव्य राज-भवन में निवास करता था जिसमें राज्य के बड़े-बड़े पदाधिकारी, पण्डित, गायक तथा नौकर-चाकर उपस्थित रहते थे। चूँकि उन दिनों गमनागमन के साधनों का अभाव था इसलिये राज्य बहुत छोटे हुआ करते थे।

(3) राजन्य के कर्त्तव्य: राजन्य को कबीले का संरक्षक (गोप्ता जनस्य) कहा गया है। वह गोधन की रक्षा करता था, युद्ध का नेतृत्व करता था और कबीले की ओर से देवताओं की आराधना करता था। प्रजा की रक्षा करना, शत्रुओं से युद्ध करना, राज्य में शान्ति स्थापित करना और शान्ति के समय यज्ञादि कर्मों का अनुष्ठान करना, राजन्य के मुख्य कर्त्तव्य होते थे। राजन्य अपनी प्रजा की न केवल भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का ध्यान रखता था। वरन् वह उसकी आध्यात्मिक उन्नति का भी ध्यान रखता था। राजन्य अपनी प्रजा के आचरण की देखभाल के लिए गुप्तचर रखता था जो प्रजा के आचरण के सम्बन्ध में राज्य की सूचना देते थे। राजन्य, आचरण-भ्रष्ट प्रजा को दण्डित करता था।

(4) राज्य के प्रमुख पदाधिकारी: राजन्य की सहायता के लिए बहुत से पदाधिकारी हाते थे जिनमें पुरोहित, सेनानी तथा ग्रामणी प्रधान थे।

पुरोहित: समस्त पदाधिकारियों में पुरोहित का स्थान सबसे ऊँचा था। उसका पद प्रायः वंशानुगत होता था परन्तु कभी-कभी वह किसी अन्य कुटुम्ब से भी चुन लिया जाता था। पुरोहित को बहुत से कर्त्तव्य करने होते थे। वह राजन्य का धर्मगुरु तथा परामर्शदाता होता था। इसलिये राज्य में उसका बड़ा प्रभाव रहता था। वह रण-क्षेत्र में भी राजन्य के साथ जाता था और अपनी प्रार्थनाओं तथा मन्त्रों द्वारा राजन्य की विजय का प्रयत्न करता था। ऋग्वैदिक काल में वसिष्ठ और विश्वामित्र नामक दो प्रमुख पुरोहित हुए। उन्होंने राजाओं का पथ-प्रदर्शन किया, उनका गुणगान किया और बदले में गायों और दासियों के रूप में भरपूर दक्षिणाएं प्राप्त कीं।

सेनानी: राज्य का दूसरा प्रमुख अधिकारी सेनानी होता था। वह भाला, कुल्हाड़ी, कृपाण आदि का उपयोग करना जानता था। वह सेना का संचालन करता था। उसकी नियुक्ति सम्भवतः राजन्य स्वयं करता था। जिन युद्धों में राजन्य की उपस्थिति आवश्यक नहीं समझी जाती थी, उनमें सेनानी ही सेना का प्रधान होता था जो रण-क्षेत्र में उपस्थित रहकर सेना का संचालन करता था।

ग्रामणी: ग्रामणी तीसरा प्रधान पदाधिकारी होता था। वह गाँव के प्रबन्ध के लिए उत्तरदायी होता था। आरम्भ में ग्रामणी योद्धाओं के एक छोटे समूह का नेता होता था परन्तु जब गांव स्थायी रूप से बस गए तो ग्रामणी गांव का मुखिया हो गया और कालांतर में उसका पद व्राजपति के समकक्ष हो गया।

कुलप: परिवार अथवा कुल का मुखिया कुलप कहलाता था।

व्राजपति: गोचर-भूमि के अधिकारी को व्राजपति कहा गया है। वह युद्ध में कुलपों और ग्रामणियांे का नेतृत्व करता था।

(5) युद्ध-विधि: भारत में ऋग्वैदिक आर्यों की सफलता के दो प्रमुख कारण थे- घोड़ों से चलने वाले रथ और लोहे से बनने वाले हथियार। युद्ध में समस्त लोगों को भाग लेना पड़ता था। साधारण लोग पैदल युद्ध करते थे परन्तु राजन्य तथा क्षत्रिय लोग रथों पर चढ़कर युद्ध करते थे। युद्ध में आत्म-रक्षा के लिए कवच आदि का प्रयोग किया जाता था। आक्रमण करने का प्रधान शस्त्र धनुष-बाण था परन्तु आवश्यकतानुसार भालों, फरसों तथा तलवारों का भी प्रयोग किया जाता था। ध्वजा, पताका, दुन्दुभि आदि का भी प्रयोग किया जाता था। युद्ध प्रायः नदियों के तट पर हुआ करते थे।

(6) समिति तथा सभा: यद्यपि राजन्य राज्य का प्रधान होता था परन्तु वह स्वेच्छाचारी तथा निंरकुश नहीं होता था। उसे परामर्श देने के लिए कुछ संस्थायें विद्यमान थीं। ऋग्वेद में सभा, समिति, विदथ और गण-जैसी अनेक कबीलाई परिषदों के उल्लेख मिलते हैं। इन परिषदों में जनता के हितों, सैनिक अभियानों और धार्मिक अनुष्ठानों के बारे में विचार-विमर्श होता था। ऋग्वैदिक काल में स्त्रियाँ भी सभा और विदथ में भाग लेती थीं। राजतंत्र की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्व की परिषदें सम्भवतः सभा और समिति थीं। सम्भवतः समिति में सारी प्रजा, सदस्य होती थी परन्तु सभा में केवल उच्च-वंश के वयोवृद्धों को सदस्यता मिलती थी। ये दोनों परिषदें इतने महत्त्व की थीं कि राजन्य भी इनका सहयोग प्राप्त करने का प्रयत्न करता था।

(7) न्याय व्यवस्था: राजन्य अपने सहायकों की सहायता से विवादों एवं झगड़ों का निर्णय करता था। न्यायिक कार्य में उसे पुरोहित से बड़ी सहायता मिलती थी। जिन अपराधों का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है, वे चोरी, डकैती, सेंध लगाना आदि हैं। पशुओं की बड़ी चोरी हुआ करती थी। अपराधियों को उस व्यक्ति की इच्छानुसार दण्ड मिलता था जिसे क्षति पहुँचती थी। जल तथा अग्नि-परीक्षा का भी इस युग में प्रचार था।

(8) गुप्तचर: उस काल में चोरियां भी होती थीं, विशेषतः गायों की। आपराधिक गतिविधियों पर दृष्टि रखने के लिए गुप्तचर रखे जाते थे। कर वसूल करने वाले किसी अधिकारी के बारे में हमें जानकारी नहीं मिलती। सम्भवतः ये कर राजाओं को भेंट के रूप में, स्वेच्छा से दिए जाते थे। इस भेंट को बलि कहते थे,

(9) अन्य पदाधिकारी: राजन्य कोई नियमित सेना नहीं खड़ी करता था किंतु युद्ध के अवसर पर जो सेना एकत्र की जाती थी उसमें व्रात, गण, ग्राम और शर्ध नामक विभिन्न सैनिक समूह सम्मिलित होते थे। कुल मिलाकर यह एक कौटुम्बिक अथवा कबीलाई व्यवस्था वाला शासन था जिसमें सैनिक भावना का प्राधान्य था। नागरिक व्यवस्था अथवा प्रादेशिक व्यवस्था का अस्तित्त्व नहीं था। लोग अपने स्थान बदलते हुए निरन्तर फैलते जा रहे थे।

सामाजिक दशा

ऋग्वेद के अध्ययन से तत्कालीन समाज का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त हो जाता है। सामाजिक संरचना का आधार सगोत्रता थी। अनेक ऋग्वैदिक राजाओं के नामों से प्रकट होता है कि व्यक्ति की पहचान उसके कुल अथवा गोत्र से होती थी। लोग जन (कबीले) के हित को सर्वाधिक महत्त्व देते थे। ऋग्वेद में जन शब्द का उल्लेख 275 बार हुआ है परन्तु जनपद शब्द का एक बार भी प्रयोग नहीं हुआ। लोग, जन के सदस्य थे, क्योंकि अभी राज्य की स्थापना नहीं हुई थी। ऋग्वेद में कुटुम्ब अथवा कबीले के अर्थ में जिस दूसरे महत्त्वपूर्ण शब्द का प्रयोग हुआ है, वह है विश्। इस शब्द का उल्लेख 170 बार हुआ है। सम्भवतः विश् को लड़ाई के उद्देश्य से ग्राम नामक छोटी इकाइयों में बांटा गया था। जब ये ग्राम एक-दूसरे से लड़ते थे तो संग्राम हो जाता था। बहुसंख्यक वैश्य वर्ण का उद्भव विश् से ही हुआ।

(1) पारिवारिक जीवन: ऋग्वेद में परिवार के लिये कुल शब्द का प्रयोग हुआ है किंतु इस शब्द का प्रयोग भी बहुत कम हुआ है। कुल में न केवल माता, पिता, पुत्र, दास आदि का समावेश होता था अपितु कई अन्य लोग भी होते थे। अनुमान होता है कि पूर्व वैदिक काल में परिवार के लिए गृह शब्द का प्रयोग होता था। प्राचीनतम हिन्द-यूरोपीय भाषाओं में इसी शब्द का उपयोग भंाजे, भतीजे, पोते आदि के लिए भी हुआ है। इसका अर्थ यह है कि पृथक् कुटुम्बों (अर्थात् कबीलों) की स्थापना की दिशा में पारिवारिक सम्बन्धों का विभेदीकरण बहुत अधिक नहीं हुआ था, और कुटुम्ब एक बड़ी सम्मिलित इकाई था। रोमन समाज की तरह यह एक पितृतंत्रात्मक परिवार था, जिसमें पिता मुखिया था। एक परिवार की अनेक पीढ़ियां एक घर में रहती थीं। इस काल के सामाजिक संगठन का मूलाधार भी कुटुम्ब ही था। पिता ही कुटुम्ब का प्रधान होता था। वह अपने कुटुम्ब के सदस्यों पर दया तथा सहानुभूति रखता था परन्तु अयोग्य सन्तान के साथ कठोर व्यवहार करता था। कुटुम्ब में पिता को बहुत अधिकार प्राप्त थे। पुत्र तथा पुत्री के विवाह में पिता का बहुत बड़ा हाथ रहता था। विवाह के उपरान्त भी पुत्र को अपनी पत्नी के साथ अपने पिता के घर में रहना होता था। वधू को अपने श्वसुर गृह के अनुशासन में रहना होता था। इस प्रकार इस काल में संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलित थी। अतिथि सत्कार पर बल दिया जाता था और इसकी गणना पाँच महायज्ञों में होती थी। भगवानपुुरा में तेरह कमरों वाला एक कच्चा भवन मिला है। इससे यह प्रमाणित हो सकता है कि इस भवन में या तो बड़ा परिवार रहता था या कबीले अथवा कुटुम्ब का मुखिया रहता था।

(2) सन्तान की स्थिति: विवाह का प्रधान लक्ष्य सन्तान उत्पन्न करना होता था। ऋग्वैदिक आर्य युद्धों में लड़ने के लिए अनेक बहादुर पुत्रों की प्राप्ति हेतु भगवान से प्रार्थना करते थे। पुत्र उत्पन्न होने पर बड़ा उत्सव मानाया जाता था। लोग कन्या की आकांक्षा नहीं करते थे परन्तु उत्पन्न हो जाने पर उसके साथ सहानुभूति रखते थे और उसकी शिक्षा-दीक्षा की समुचित व्यवस्था करते थे। विश्ववारा, घोषा, अपाला आदि स्त्रियों को इतनी उच्च-कोटि की शिक्षा दी गई थी कि वे वेद-मन्त्रों की भी रचना कर सकती थीं। ऋग्वेद में संतान और गोधन की प्राप्ति के लिए बार-बार इच्छा व्यक्त की गई है, किन्तु किसी भी सूक्त में पुत्री की प्राप्ति के लिए इच्छा व्यक्त नही की गई है।

(3) विवाह की व्यवस्था: ऋग्वैदिक काल में विवाह संस्था की स्थापना हो चुकी थी। जन-साधारण में बहु-विवाह की प्रथा का प्रचलन नहीं था परन्तु राजवंशों में बहु-विवाह की प्रथा थी। यद्यपि भाई-बहिन तथा पिता-पुत्री में विवाह वर्जित था तथापि आदिम प्रथाओं के प्रतीक बचे हुए थे। यम की जुड़वां बहन यमी ने यम के सम्मुख प्रेम का प्रस्ताव रखा था किंतु यम ने इसका विरोध किया था। बहुपतित्त्व के बारे में भी कुछ सूचना मिलती है। मरूतों ने रोदसी को मिलकर भोगा, और अश्विनी भाई सूर्य-पुत्री सूर्या के साथ रहते थे परन्तु ऐसे उदाहरण बहुत थोड़े मिलते हैं। सम्भवतः ये मातृतंत्रात्मक अवस्था के अवशेष थे। पुत्र को, माता का नाम दिए जाने के भी कुछ उदारहण मिलते है, जैसे, मामतेय। यद्यपि विवाह पर पिता का नियंत्रण रहता था परन्तु वर-कन्या को भी काफी स्वतन्त्रता रहती थी। कुछ लोग दहेज देकर और कुछ लोग दहेज लेकर कन्यादान करते थे। दहेज वही लोग देते थे जिनकी कन्या में कुछ त्रुटि होती थी। इसी प्रकार धन देकर वही लोग विवाह करते थे जिनके पुत्र में कोई त्रुटि होती थी। विवाह एक पवित्र बन्धन समझा जाता था और एक बार इस बन्धन में बंध जाने पर, आजीवन बन्धन नहीं टूट सकता था। विधवा विवाह का ऋग्वेद में कहीं संकेत नहीं मिलता। दस्युओं के साथ विवाह का निषेध था। ऋग्वेद में नियोग प्रथा और विधवा-विवाह के अस्तित्त्व के बारे में भी जानकारी मिलती है। बाल-विवाह के अस्तित्त्व का कोई उदाहरण नहीं मिलता। अनुमान होता है कि ऋग्वैदिक काल में 16-17 वर्ष की आयु में विवाह होते थे।

(4) स्त्रियों की दशा: इस युग में स्त्रियों को समाज में उच्च स्थान प्राप्त था। उन्हें आदर की दृष्टि से देखा जाता था। स्त्रियाँ गृहस्वामिनी समझी जाती थीं और वे समस्त धार्मिक कार्यों में अपने पति के साथ भाग लेती थीं। पर्दा प्रथा नहीं थी। स्त्रियाँ समस्त उत्सवों में भाग ले सकती थीं। स्त्रियाँ स्वतन्त्र नहीं होती थीं, उन्हें अपने पुरुष-सम्बन्धियों के सरंक्षण तथा नियंत्रण में रहना पड़ता था। विवाह के पूर्व कन्याओं को अपने पिता के संरक्षण तथा नियंत्रण में रहना पड़ता था। पिता के न रहने पर वह अपने भाई के संरक्षण में रहती थी। विवाह हो जाने पर वह पति के और विधवा हो जाने पर पुत्र के संरक्षण में रहती थी। इस प्रकार स्त्री को सदैव किसी न किसी पुरुष का संरक्षण प्राप्त था। स्त्रियां सभा-समिति में भाग लेती थीं। वे पुत्रियों के साथ यज्ञों में भी सम्मिलित होती थीं। सूक्तों की रचना करने वाली पांच स्त्रियों के बारे में जानकारी मिलती है, किन्तु बाद के ग्रंथों में ऐसी 20 स्त्रियों के उल्लेख मिलते हैं। स्पष्ट है कि सूक्तों की रचना मौखिक रूप में होती थी। उस काल की कोई लिखित सामग्री नहीं मिलती।

(5) वेश-भूषा: ऋग्वैदिक आर्य सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण धारण करते थे। ये लोग प्रायः तीन वस्त्र पहिनते थे। एक नीचे का वस्त्र था जिसे नीवि कहते थे। इनका दूसरा वस्त्र काम और तीसरा वस्त्र अधिवास कहलाता था। ये लोग रंग-बिरंगे ऊनी तथा सूती वस्त्र पहिनते थे। कुछ वस्त्रों पर सोने का भी काम किया जाता था जिन्हें वे उत्सव के अवसर पर पहिनते थे। स्त्री एवं पुरुष लम्बे बाल रखते थे जिनमें वे तेल डालते थे और कंघी करते थे। स्त्रियाँ चोटी बांधती थीं और पुरुष अपने बाल कुण्डल के आकार के रखते थे। यद्यपि दाढ़ी रखने की प्रथा थी परन्तु कुछ लोग दाढ़ी मुंडवा भी लेते थे। ऋग्वैदिक आर्य, आभूषणों का भी प्रयोग करते थे जो प्रायः सोने के बने होते थे। भुजबन्ध, कान की बाली, कंगन, नूपुर आदि का प्रयोग स्त्री-पुरुष दोनों करते थे।

(6) खाद्य-पदार्थ: चावल, जौ, घी, दूध तथा मांस, ऋग्वैदिक आर्यों का मुख्य भोजन था। अनाज को भूनकर अथवा पीसकर, घी-दूध के साथ खाया जाता था। ये लोग फल तथा तरकारी का अधिक प्रयोग करते थे। पशुओं की बलि दी जाती थी जिनका मांस खाया जाता था।

(7) पेय-पदार्थ: ऋग्वैदिक आर्य दो प्रकार के पेय पदार्थों का प्रयोग करते थे। एक को सोम कहते थे और दूसरे को सुरा। सोम एक वृक्ष के रस से बनाया जाता था जिसमें मादकता नहीं होती थी। यज्ञ के अवसरों पर इसका प्रयोग किया जाता था। सुरा में मादकता होती थी और यह अन्न से बनाई जाती थी। सुरापान घृणित समझा जाता था। आर्य ग्रंथों में सुरापान को अपराध बताया गया है। ब्राह्मण इसे घोर घृणा की दृष्टि से देखते थे।

(8) मनोरंजन: रथ-संचालन, जुआ खेलना, नाच-गाना, बाजे बजाना, पशु-पक्षियों का शिकार करना, ऋग्वैदिक आर्यों के आमोद-प्रमोद के प्रधान साधन थे।

(9) शिक्षा: इस काल में शिक्षा मौखिक होती थी इसलिये स्मरण-शक्ति का बड़ा महत्त्व था। गुरु, शिष्यों को वेद-मन्त्रों की शिक्षा देते थे। विद्यार्थी उन्हें कण्ठाग्र करने का प्रयत्न करते थे। शिक्षा का उद्देश्य बुद्धि को बढ़ाना तथा आचरण को शुद्ध बनाना होता था।

(10) औषधि: ऋग्वैदिक आर्य, स्वास्थ्य के प्रति सचेत थे। अश्विन औषधि-शास्त्र के देवता माने जाते थे और उनकी पूजा की जाती थी। औषधियाँ जड़ी-बूटियों की होती थीं। चिकित्सा करना एक प्रकार का व्यवसाय बन गया था।

(11) आश्रम-व्यवस्था: इस काल में आश्रम-व्यवस्था स्थापित होनी आरंभ हो चुकी थी किंतु उसका स्वरूप स्पष्टतः निर्धारित नहीं हुआ था। आश्रम व्यवस्था की प्रारंभिक अवधारणा में तीन ही आश्रम थे- ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम तथा वानप्रस्थ आश्रम। आश्रम व्यवस्था ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों के लिये ही थी।

(12) गृह की व्यवस्था: ऋग्वैदिक आर्यों के मकान बांस के बने होते थे। इनको बनाने में लकड़ी तथा सरपत का भी प्रयोग किया जाता था। प्रत्येक घर में अग्निशाला का प्रबन्ध रहता था जिसमें सदैव अग्नि जलती रहती थी। प्रत्येक घर में एक बैठक और स्त्रियों के लिए अलग कमरा होता था।

(13) शव विसर्जन: इस काल में आर्य, मृतक शरीर को या तो जलाते थे या गाड़ते थे परन्तु विधवाओं को जलाया नहीं जाता था वरन् उन्हें गाड़ा जाता था।

सामाजिक वर्गीकरण

(1) आर्य-अनार्य का विभेद: ऋग्वेद में लगभग 1500-1000 ई.पू. के पश्चिमोत्तर भारत के लोगों के शारीरिक रूप-रंग के बारे में जानकारी मिलती है। रंग के लिए वर्ण शब्द का उपयोग हुआ है। अनुमान होता है कि आर्य गौर वर्ण के थे जबकि भारत के मूल निवासी काले वर्ण के थे। रंग-भेद ने सामाजिक वर्गीकरण में आंशिक योग दिया होगा किंतु सामाजिक विभेद का सबसे बड़ा कारण, आर्याें की स्थानीय निवासियों पर विजय प्राप्त करना था। आर्यों ने काले वर्ण के स्थानीय निवासियों को अनार्य कहा।

(2) आर्यों में विभेद: आर्य कबीलों के मुखिया और पुरोहित लूट का अधिकांश धन परस्पर बांट लेते थे। युद्ध की लूट के असमान वितरण के कारण सामाजिक असमानताएं पैदा हुईं। परिणामतः सामान्य जनों की अपेक्षा मुखिया और पुरोहित अधिक ऊंचे उठे। सामान्य जन बचा-खुचा धन प्राप्त करते थे। इसलिये कबीले में सामाजिक एवं आर्थिक असमानताएं उत्पन्न हुईं। धीरे-धीरे कबीलाई समाज तीन समूहों में बंट गया- योद्धा, पुरोहित और सामान्य जन।

(3) व्यवसाय आधारित विभेद: आर्य अपने कार्यानुसार चार वर्णों में विभक्त हो गये। पढ़ने तथा यज्ञ का कार्य करने वाले ब्राह्मण, युद्ध तथा शासन करने वाले क्षत्रिय अथवा राजन्य, कृषि तथा व्यापार करने वाले वैश्य और सेवा का कार्य करने वाले शूद्र कहलाये। पुरुष सूक्त में लिखा है कि ब्राह्मण आदि-पुरुष के मुख से, क्षत्रिय उसकी भुजाओं से, वैश्य उसकी जंघा से तथा शूद्र उसके चरणों से निकले हैं। इस प्रकार चार वर्णों का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है परन्तु यह व्यवस्था व्यवसाय पर आधारित थी और इसमें जटिलता नहीं थी। अन्तर्जातीय विवाह तथा सहभोज का प्रचलन था, छुआछूत का भेदभाव नहीं था। ऋग्वेदिक काल में व्यवसाय पर आधारित विभाजन प्रारंभ हो चुका था परन्तु यह विभाजन अभी सुस्पष्ट नहीं था। ऋग्वेद में एक परिवार के सदस्य का कथन है- ‘मैं कवि हूूँ, मेरा पिता वैद्य है, और मेरी माँ पत्थर की चक्की चलाती है। धन की कामना करने वाले नाना कर्मों वाले हम एक साथ रहते हैं…।’

(4) दास व्यवस्था: ऋग्वेद के चौथे एवं दसवें मंडल में पहली बार शूद्रों का उल्लेख मिलता है। आर्याें ने दासों और दस्युओं को जीतकर अधीन बनाया तथा उन्हें शूद्र कहा। ऋग्वेद में पुरोहितों को दास सौंपने के उल्लेख बार-बार मिलते हैं। घर का काम करने वाली मुख्यतः दासियां थीं। घरेलू दासों के तो उल्लेख मिलते हैं किंतु श्रमिकों के नहीं। अतः अनुमान होता है कि ऋग्वैदिक काल के दासों को कृषि अथवा अन्य उत्पादन कार्याें में नहीं लगाया जाता था।

आर्थिक-दशा

ऋग्वैदिक आर्यों का आर्थिक जीवन सरल था, उसमें जटिलता उत्पन्न नहीं हुई थी। प्रारंभिक ऋग्वैदिक आर्यों की अर्थ-व्यवस्था मुख्यतः पशुचारी थी, अन्न-उत्पादक नहीं थी, इसलिए लोगों से नियमित करों की उगाही बहुत कम होती थी। भूमि अथवा अनाज के दान के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता। समाज में कबीलाई बंधन शक्तिशाली थे। करों की उगाही अथवा भू-संपत्ति के आधार पर सामाजिक वर्ग अभी अस्तित्त्व में नहीं आए थे। इस काल की आर्थिक दशा इस प्रकार से थी-

(1) गाँवों की व्यवस्था: ऋग्वैदिक आर्य गाँवों में रहते थे। ऋग्वेद में नगरों का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। गाँव पास-पास होते थे। वन्य पशुओं एवं शत्रुओं से सुरक्षा के लिए मिट्टी के घरों वाली बस्तियों की झाड़ियों अथवा अन्य कांटों आदि से किलेबंदी की जाती थी। अधिकांश घर बांस तथा लकड़ी के बने होते थे।

(2) कृषि: ऋग्वैदिक आर्यों का प्रधान व्यवसाय कृषि था। परिवार का अलग खेत होता था परन्तु चरागाह सबका एक होता था। खेती हल से की जाती थी। ऋग्वेद के आरंभिक भाग में फाल के उल्लेख मिलते हैं। उनके फाल सम्भवतः लकड़ी के बने होते थे। ऋग्वैदिक लोग बुवाई, कटाई और मंडाई से परिचित थे। उन्हें विभिन्न ऋतुओं की भी अच्छी जानकारी थी। ये लोग प्रधानतः गेहूँ तथा जौ की खेती करते थे। इस काल के आर्य, फल तथा तरकारी भी पैदा करते थे।

(3) पशु-पालन: ऋग्वैदिक आर्यों का दूसरा प्रमुख व्यवसाय पशु-पालन था। पशुओं में गाय का सर्वाधिक महत्त्व था, क्योंकि यह सर्वाधिक उपयोगी होती थी। गाय को अध्न्या कहा गया है अर्थात् जो मारी न जाय। ऋग्वेद में गाय के बारे में आए बहुत सारे उल्लेखों से यही सिद्ध होता है कि आर्य पशुपालक थे। अधिकांश लड़ाइयां उन्होंने गायों के लिए लड़ी थीं। ऋग्वेद में युद्ध के लिए गविष्टि शब्द का उपयोग हुआ हैं। जिसका अर्थ ‘गायों की खोज’ होता है। गाय को सबसे बड़ी सम्पत्ति समझा जाता था। बैलों से हल जोतने तथा गाड़ी खींचने के काम लिया जाता था। घोड़ों का प्रयोग रथों में किया जाता था। आर्यों द्वारा पाले जाने वाले अन्य पशु, भेड़, बकरी तथा कुत्ते थे। कुत्ते घरों तथा बस्तियों की रखवाली करते थे।

(4) पशुओं का शिकार: ऋग्वैदिक आर्य मांस खाते थे। इसलिये वन्य पशुओं का शिकार भी उनकी जीविका का साधन था। ये लोग धनुष-बाण तथा लोहे के भालों द्वारा सूअर, हरिण तथा भैंसों का शिकार करते थे और पक्षियों को जाल में फंसा कर पकड़ते थे। शेरों को चारों ओर से घेर कर मारा जाता था।

(5) मृद्भाण्ड: हरियाणा के भगवानपुरा से और पंजाब के तीन स्थलों से चित्रित धूसर मृदभांड और बाद के काल के हड़प्पा के मिट्टी के बर्तन मिले हैं। भगवानपुरा में मिली वस्तुओं का तिथि निर्धारण 1600 ई.पू. से 1000 ई.पू. तक किया गया है। लगभग यही काल ऋग्वेद का भी है। इन चारों स्थानों का भौगोलिक क्षेत्र वही है जो ऋग्वेद में दर्शाया गया है। यद्यपि इन चारों स्थलों पर चित्रित धूसर पात्र मिले हैं फिर भी न तो लौह सामग्री और न ही अनाज यहाँ मिले हैं। अतः हम चित्रित धूसर मृद्भांड की एक लौह पूर्व अवस्था के बारे में सोच सकते हैं जो ऋग्वैदिक अवस्था के समकालिक हैं।

(6) दस्तकारी के कार्य: ऋग्वेद में बढ़ई, रथकार, बुनकर, चर्मकार, कुम्हार आदि शिल्पकारों के उल्लेख मिलते हैं। इनसे पता चलता है कि आर्य लोग इन शिल्पों से भली-भांति परिचित थे। तांबे अथवा कांसे के लिए प्रयुक्त अयस शब्द से ज्ञात होता है कि उन्हें धातुकर्म की जानकारी थी। जब वे उप-महाखंड के पश्चिमी भाग में बसे हुए थे तब वे सम्भवतः राजस्थान के खेतड़ी की खानों से तांबा प्राप्त करते होंगे। ऋग्वैदिक काल के बढ़ई रथ तथा गाड़ियाँ बनाते थे। ये लोग लकड़ी के प्याले भी बनाते थे और उन पर बहुत अच्छी नक्काशी करते थे। लोहार, लोहे, ताम्बे तथा पीतल के विभिन्न प्रकार के बर्तन, अन्य-शस्त्र और अन्य उपयोगी वस्तुएँ बनाते थे। सुनार, सोने-चांदी के आभूषण बनाते थे। चर्मकार लोग चमड़े की वस्तुएँ बनाते थे। सीना-पिरोना, चटाइयां बुनना, ऊनी तथा सूती कपड़े बनाना आदि भी जीविका के साधन थे। कुम्हार चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाते थे।

(7) व्यापार: ऋग्वैदिक आर्यों की जीविका का एक साधन व्यापार भी था। ये लोग विदेशी तथा आन्तरिक दोनों प्रकार का व्यापार करते थे। प्रारम्भ में व्यापार वस्तु-विनिमय द्वारा होता था। बाद में गाय द्वारा मूल्य आंका जाने लगा और अन्त में सोने-चांदी से बनी मुद्राओं का प्रयोग होने लगा। इस काल में निष्क नामक मुद्रा का व्यवहार होने लगा। कपड़े, चमड़े तथा चद्दरें व्यापार की मुख्य वस्तुएँ होती थीं। माल ले जाने के लिए गाड़ियों तथा रथों का प्रयोग किया जाता था। नदियों को पार करने के लिए नावों का प्रयोग होता था।

(8) ऋण की प्रथा: ऋग्वैदिक काल में ब्याज पर ऋण देने की प्रथा थी। वैश्य, साहूकार तथा महाजन यह कार्य करते थे और यह उनकी जीविका का प्रमुख साधन होता था। ऋण चुकाना एक धार्मिक कर्त्तव्य समझा जाता था और न चुकाने पर उसे निश्चित समय तक महाजन की सेवा करनी पड़ती थी।

विभिन्न कलाओं का विकास

बौद्धिक परिपक्वता विकसित हो जाने से ऋग्वैदिक काल के लोगों की विभिन्न प्रकार की रचनात्मक कलाओं में रुचि थी।

(1) काव्य कला: ऋग्वैदिक आर्य, काव्य-कला में बड़े कुशल थे। ऋग्वेद पद्य शैली में लिखा गया है। ऋग्वेद का अधिंकाश काव्य धार्मिक गीति-काव्य है। इस काल की कविता में स्वाभाविकता तथा सौन्दर्य है। उषा की प्रशंसा में ऋषियों ने बड़ी भावुकता प्रकट की है।

(2) लेखन कला: यह निश्चित रूप में नहीं कहा जा सकता है कि ऋग्वैदिक आर्य लेखन-कला से परिचित थे अथवा नहीं परन्तु कुछ विद्वानों की धारणा है कि वे इस कला को जानते थे।

(3) अन्य कलाएँ: ऋग्वैदिक आर्य अन्य कई कलाओं में प्रवीण थे। गृह निर्माण-कला में वे इतने निपुण थे कि सहस्र-स्तम्भ तथा सहस्र-द्वार के मकान तक बनाते थे। ऋग्वैदिक आर्य कताई, बुनाई, रगांई, धातु-कला, संगीत कला, नृत्य कला एवं गायन कला में भी निपुण थे।

धार्मिक जीवन

ऋग्वैदिक आर्यों का जीवन वास्तव में धर्ममय था। जीवन का ऐसा कोई अंग नहीं था जिस पर धर्म की गहरी छाप न हो। इस काल का धर्म बड़ी उच्च-दशा में था। इस काल में प्राकृतिक शक्तियों एवं उनके नियामक देवताओं की पूजा होती थी।

(1) ईश्वर की परम सत्ता में विश्वास: ऋग्वैदिक आर्यों का ईश्वर की परम सत्ता में विश्वास था जो इस जगत् का निर्माण तथा पालन करने वाला है। अनेक देवतओं में विश्वास करते हुए भी ऋग्वैदिक आर्यों के धर्म का मूलाधार एकेश्वरवाद ही था और उनका एक ही ईश्वर था जिसे वे प्रजापति कहते थे जो सर्वव्यापी था।

(2) प्राकृतिक शक्तियों की उपासना: प्राकृतिक घटनायें यथा- वर्षारंभ, सूर्य एवं चंद्र का उदय, नदियांे तथा पर्वतों आदि का अस्तित्त्व, आर्यों के लिए पहेली-जैसे थे। इसलिए उन्होंने इन प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण किया। उनमें मानव अथवा पशु गुणों का आरोपण करके उन्हें जीवित शक्तियाँ माना। ऋग्वेद में ऐसी अनेक दैवी शक्तियों का समावेश है जिनकी स्तुति में विभिन्न ऋषि-कुलों ने सूक्तों की रचना की। इस प्रकार ऋग्वैदिक काल में प्राकृतिक शक्तियों की पूजा आरंभ हुई। ऋग्वैदिक आर्यों का विश्वास था कि सूर्य, चन्द्र, वायु, मेघ आदि में ईश्वर निवास करता है। इसलिये वे इन सबकी उपासना करते थे।

(3) देवताओं का वर्गीकरण: ऋग्वेद में 33 देवताओं की प्रार्थना की गई है। इन देवताओं को तीन भागों में बांटा गया है- (1) आकाश के देवता, (2) मध्य-स्थान के देवता तथा (3) पृथ्वी के देवता। प्रत्येक वर्ग में 11 देवता हैं, जिनमें से एक सर्वप्रधान है। आकाश के सर्वश्रेष्ठ देवता सूर्य, मध्य-स्थान के वायु अथवा इन्द्र और पृथ्वी के प्रधान देवता अग्नि हैं।      ऋग्वेद का सबसे प्रमुख देवता इन्द्र है। इन्द्र आर्यों का युद्ध नेता था जिसने असुरों के विरुद्ध युद्धों में आर्याें का नेतृत्व किया और उन्हें विजय दिलाई। उसे वर्षा का देवता भी माना गया है। ऋग्वेद में इंद्र की स्तुति में 250 सूक्त हैं। दूसरा महत्त्वपूर्ण देवता अग्नि है, जिसकी स्तुति में 200 सूक्त मिलते हैं। आदिम लोगों के जीवन में अग्नि ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, क्योंकि खाना पकाने तथा जंगलों को जलाकर साफ करने में इसका उपयोग होता था। वैदिक काल में अग्नि ने देवताओं और मानवों के बीच एक प्रकार से मध्यस्थ की भूमिका निभाई। समझा जाता था कि अग्नि को दी जाने वाली आहुति धुंआ बनकर आकाश में जाती है, और इस प्रकार अंत में देवताओं के पास पहुंच जाती है। तीसरा प्रमुख देवता वरुण था, जो जलनिधि का प्रतिनिधित्व करता था। वरुण को प्राकृतिक घटनाक्रम का संयोजक समझा जाता था। माना जाता था कि विश्व में सब कुछ वरुण की इच्छा से होता है। वरुण पहले सुर था किंतु बाद में असुरों का मित्र हो गया था। जब वरुण को वृत्रासुर ने बंदी बना लिया तब इंद्र ने वृत्रासुर को मारकर वरुण को मुक्त करवाया तथा तथा उसे पुनः देवत्व प्रदान किया। सोम वनस्पति का देवता था। सोम नाम का एक मादक पेय भी था। ऋग्वेद के अनेक सूक्तों में वनस्पति से इस पेय के तैयार करने की विधि का वर्णन मिलता है परन्तु इस वनस्पति की सही पहचान अभी तक नहीं हो पाई है। देवताआंे के अनुरोध पर सोम चंद्रमा में समा गया जहाँ से वह जल एवं वनस्पतियों को प्राप्त हुआ। तूफान का प्रतिनिधित्व करने वाले मरुद्गण नामक अनेक देवताओं की जानकारी मिलती है।

(4) देवताओं की विशेषताएँ: ऋग्वैदिक काल के देवताओं में कुछ निश्चित विशेषताएँ पाई जाती हैं- (1) समस्त देवता दयावान तथा शुभचिन्तक हैं। कोई भी देवता दुष्ट स्वभाव का नहीं है। (2) समस्त देवता अलग-अलग स्वभाव के हैं और इनके कार्य भी विभिन्न प्रकार के हैं। (3) समस्त देवता जन्म लेते हैं परन्तु फिर अमर हो जाते हैं। (4) समस्त देवता वायु में भ्रमण करते हैं जिनके रथों में घोड़े अथवा अन्य पशु अथवा पक्षी जुते रहते हैं। (5) इन्हें मानव-स्वरूप में प्रदर्शित किया गया है तथा इन्हें मनुष्य के खाद्य-पदार्थ, यथा दूध, अन्न, मांस आदि की बलि दी जाती है।

(5) देवियों की तुलना में देवताओं को प्रमुखता: आर्यों ने उषा काल का प्रतिनिधित्व करने वाली उषस् और अदिति जैसी देवियों की भी पूजा की किंतु ऋग्वैदिक काल में इन देवियों को विशेष महत्त्व नहीं दिया गया। पितृत्ंात्रात्मक समाज के वातावरण में देवियों की अपेक्षा इन्द्र एवं वरुण आदि देवताओं को अधिक महत्त्व मिलना स्वाभाविक था।

(6) धार्मिक कृत्य: देवताओं की आराधना मुख्यतः स्तुतिपाठ और यज्ञाहुति से की जाती थी। ऋग्वैदिक काल में स्तुति पाठ का बड़ा महत्त्व था। स्तुति पाठ अकेले और सामूहिक रूप में होते थे। आर्यों का विश्वास था कि प्रार्थना ईश्वर तक पहुंचती है और ईश्वर प्रार्थनाओं से प्रसन्न होता है। गायत्री मन्त्र का बड़ा महत्त्व था और इसका पाठ दिन में तीन बार अर्थात् प्रातःकाल, मध्याह्न तथा सन्ध्या समय किया जाता था। आरम्भ में प्रत्येक कबीले अथवा कुल का अपना एक विशिष्ट देवता होता था। अनुमान होता है कि सम्पूर्ण कबीले के सदस्य इस स्तुतिगान में भाग लेते थे। यज्ञाहुतियों के बारे में भी यही होता था। सम्पूर्ण जन अथवा कबीले द्वारा दी जाने वाली यज्ञबलि को ग्रहण करने के लिए अग्नि और इंद्र का आह्नान किया जाता था। देवताओं को वनस्पति, जौ आदि की आहुति दी जाती थी परन्तु ऋग्वैदिक काल में यज्ञाहुति के अवसर पर कोई अनुष्ठान अथवा मंत्रपाठ नहीं होता था। उस समय शब्द की चमत्कारिक शक्ति को उतना महत्त्व नहीं दिया जाता था जितना कि उत्तर वैदिक काल में दिया जाने लगा था। ऋग्वैदिक काल में आर्य, आध्यात्मिक उन्नति अथवा मोक्ष के लिए देवताओं की आराधना नहीं करते थे। वे इन देवताओं से मुख्यतः संतति, पशु, अन्न, धन, स्वास्थ्य आदि मांगते थे।

(7) पितरों की पूजा: ऋग्वैदिक आर्यों में पितरों की पूजा प्रचलित थी। उनका मानना था कि पितरों की कृपा प्राप्त करने से कष्ट क्षीण होते हैं।

(8) सदाचार पर बल: ऋग्वैदिक आर्यों में सदाचार पर बहुत बल दिया जाता था। चोरी, डकैती, मिथ्या भाषण, निरपराधों एवं निःशक्तों की हत्या, पराये धन का हरण आदि कार्य निकृष्ट माने जाते थे।

(9) दान: ऋग्वैदिक आर्यों में दान देने की परम्परा थी। आर्य अपने पुरोहितों को गाय, रथ, घोड़े, दास-दासियां दान करते थे। पुरोहितों को दान देने के जितने भी उल्लेख मिलते हैं उनमें गायों और स्त्री दासों के रूप में दान देना बताया गया है, भूखंड के रूप में कभी नहीं।

अध्याय – 9 : उत्तर-वैदिक कालीन सभ्यता

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ऋग्वेद के बाद यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण ग्रंथों एवं सूत्र ग्रन्थों की रचना हुई। ऋग्वेद के बाद में लिखे गये, इन ग्रन्थों के रचना काल को उत्तर-वैदिक काल कहते हैं। उत्तर वैदिक कालीन ग्रंथ, उत्तरी गंगा की घाटी में लगभग 1000-600 ई.पू. में रचे गए थे। ऋग्वैदिक तथा उत्तर-वैदिक काल की सभ्यता एवं संस्कृति में पर्याप्त अन्तर है। उत्तर वैदिक स्थलों की पुरातात्त्विक खुदाइयों एवं अन्वेषण के परिणाम स्वरूप 500 बस्तियाँ के अवशेष मिले हैं। इन्हंे चित्रित धूसर भाण्ड वाले स्थल कहते हैं क्योंकि इन स्थलों पर बसे हुए लोगों ने मिट्टी के चित्रित एवं भूरे कटोरों और थालियों का उपयोग किया। वे लोहे के औजारों का भी उपयोग करते थे। बाद के वैदिक ग्रंथों और चित्रित धूसर भाण्डों के लौह अवस्था वाले पुरातात्त्विक प्रमाणों के आधार पर हम ईसा पूर्व प्रथम सहस्राब्दी के पूर्वार्द्ध के पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब के सीमावर्ती क्षेत्र, हरियाणा और राजस्थान के लोगों के जीवन के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

उत्तर वैदिक कालीन बस्तियाँ

कृषि और विविध शिल्पों के कारण उत्तर वैदिक काल के लोग अब स्थायी जीवन बिताने लग गए थे। पुरातात्त्विक खुदाई तथा अन्वेषण से हमें उत्तर वैदिक काल की बस्तियों के बारे में कुछ जानकारी मिलती है। चित्रित धूसर भांडों वाले स्थान न केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली (कुरु-पांचाल) में, अपितु पंजाब एवं हरियाणा के समीपवर्ती क्षेत्र मद्र और मत्स्य (राजस्थान) में भी मिले हैं। कुल मिलाकर ऐसे 500 स्थल मिले हैं जो प्रायः ऊपरी गंगा की घाटी में में स्थित हैं। इनमें से हस्तिनापुर, अतरंजीखेड़ा और नोह जैसे चंद स्थलों की ही खुदाई हुई है। चूँकि यहाँ की बस्तियों के भौतिक अवशेष एक मीटर से तीन मीटर की ऊँचाई तक व्याप्त हैं, इसलिए अनुमान होता है कि यहाँ एक से तीन सदियों तक बसवाट रही। ये अधिकतर नई बस्तियाँ थीं। इनके पहले इन स्थानों पर बस्तियाँ नहीं थीं। लोग मिट्टी की ईटों के घरों में अथवा लकड़ी के खंभों पर आधारित टट्टर और लेप के घरों में रहते थे। यद्यपि उनकेे घर घटिया प्रकार के थे परन्तु चूल्हों और अनाजों (चावल) के अवशेषों से पता चलता है कि चित्रित धूसर भांडों का उपयोग करने वाले उत्तर वैदिक कालीन लोग खेती करते थे और स्थायी जीवन बिता रहे थे। वे लोग लकड़ी के फालों वाले हल से खेत जोतते थे, इसलिए किसान अधिक पैदा नहीं कर पाते थे। इस समय का किसान, नगरों के उत्थान में अधिक योगदान करने में समर्थ नहीं था।

राजनीतिक दशा

उत्तर-वैदिक काल में आर्यों की राजनीतिक स्थिति में बड़ा परिवर्तन हो गया था। इस काल में राजन्य ने शेष तीन वर्णों पर अपना अधिकार स्थापित करने का प्रयास किया। ऐतरेय ब्राह्मण में राजन्य के सापेक्ष, ब्राह्मण को जीविका-खोजी और दान ग्रहण करने वाला कहा गया है। राजन्य द्वारा उसे हटाया जा सकता था। वैश्य को दान देने वाला कहा गया है। राजन्य द्वारा उसका इच्छापूर्वक दमन किया जा सकता था। सबसे कठोर बातें शूद्रों के बारे में पढ़ने को मिलती हैं। उसे दूसरों का सेवक, दूसरों के आदेश पर काम करने वाला और दूसरों द्वारा मनमर्जी से पीटने योग्य कहा गया है।

(1) शासन क्षेत्र में परिवर्तन: ऋग्वैदिक आर्यों की राज-सत्ता केवल सप्त-सिन्धु क्षेत्र तक सीमित थी, परन्तु अब वे पंजाब से लेकर गंगा-यमुना के दोआब में स्थित समस्त पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फैल गए थे। भरत और पुरु नामक दो प्रमुख कबीले एकत्र हुए और इस प्रकार कुरु-जन कहलाए। आरम्भ में ये लोग दोआब के सीमांत में सरस्वती और दृषद्वती नदियों के बीच के प्रदेश में बसे हुए थे परन्तु कुरुओं ने शीघ्र ही दिल्ली और दोआब के उत्तरी भाग पर अधिकार जमा लिया। इस क्षेत्र को कुरुदेश कहते हैं। शनैःशनैः ये लोग पंचालों से मिलते गए। वर्तमान बरेली, बदायूं और फर्रूखाबाद जिलों में फैला हुआ, उस समय का पंचाल राज्य अपने दार्शनिक राजाओं और ब्राह्मण पुरोहितों के लिये प्रसिद्ध था। कुरु-पंचालों का दिल्ली और उत्तरी तथा मध्य दोआब पर अधिकार स्थापित हो गया। मेरठ जिले के हस्तिनापुर स्थान पर उन्होंने अपनी राजधानी स्थापित की। महाभारत युद्ध की दृष्टि से कुरु कबीले के इतिहास का बड़ा महत्त्व है, और यही युद्ध महाभारत की प्रमुख घटना है। समझा जाता है कि यह युद्ध 950 ई.पू. के आसपास कौरवों और पाण्डवों के बीच लड़ा गया था। ये दोनों ही कुरु जन के सदस्य थे। परिणामतः लगभग सम्पूर्ण कुरु कबीला नष्ट हो गया। कालान्तर में आर्यों ने दक्षिण-भारत में भी अपनी सभ्यता तथा संस्कृति का प्रसार आरम्भ किया।

उत्तर वैदिक काल के अंतिम चरण में, 600 ई. पू. के आसपास, वैदिक लोग दोआब से पूर्व की ओर कोशल (पूर्वी उत्तर प्रदेश) और विदेह (उत्तरी बिहार) में फैल चुके थे। यद्यपि कोसल का रामकथा से बड़ा सम्बन्ध है, पर वैदिक साहित्य में राम का कोई उल्लेख नहीं मिलता। पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरी बिहार में इन वैदिक लोगों को ऐसे लोगों का सामना करना पड़ा जो ताम्बे के औजारों और काले व लाल रंग के मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग करते थे। ये लोग यहाँ लगभग 1800 ई.पू. में बसे हुए थे। आर्यों को इस क्षेत्र में सम्भवतः ऐसे लोगों की बस्तियां भी जहां-तहां मिलीं जो काले और लाल बर्तनों का उपयोग करते थे। अनुमान होता है कि ये लोग एक मिश्रित संस्कृति वाले थे जिसे हड़प्पा कालीन संस्कृति नहीं कहा जा सकता। उत्तर वैदिक लोगों के शत्रु जो भी रहे हों, उनका प्रत्यक्षतः किसी बड़े और सुसम्बद्ध क्षेत्र पर अधिकार नहीं था और उनकी संख्या उत्तरी गंगा की घाटी में बहुत अधिक नहीं थी, विस्तार के दूसरे चरण में भी उत्तर वैदिक आर्यों की सफलता का कारण लोहे के औजारों और घोड़ों वाले रथों का उपयोग किया जाना था।

(2) राजन्य की शक्तियांे में वृद्धि: ऋग्वैदिक काल में राज्य का आकार बहुत छोटा होता था परन्तु उत्तर वैदिक काल में बड़े-बड़े राज्यों की स्थापना की गई और राजन्य अर्थात् राजा पहले से कहीं अधिक शक्तिशाली हो गये। अब वीर विजयी राजन्य स्वयं को र्साभौम, एकराट् आदि उपाधियों से विभूषित करने लगे। राजन्य अपने प्रभाव में वृद्धि के लिये राजसूय, वाजपेय, अश्वमेध आदि यज्ञ करने लगे। ये यज्ञ राजन्य की सार्वभौम सत्ता के सूचक होते थे। समझा जाता था कि राजसूय यज्ञों से राजाओं को दिव्य शक्ति प्राप्त होती है। अश्वमेध यज्ञ में जितने क्षेत्र में राजा का घोड़ा निर्बाध विचरण करता था उतने क्षेत्र पर उस राजा का अधिकार हो जाता था। वाजपेय यज्ञ में अपने सगोत्रीय बंधुओं के साथ रथों की दौड़ होती थी। इन सब आयोजनों और अनुष्ठानों से लोग प्रभावित होते थे। साथ ही राजा की शक्ति और प्रभाव भी बढ़ता था। अब राजन्य को देवता का स्वरूप समझा जाने लगा। राजन्य की आज्ञा का पालन करना आवश्यक था। यद्यपि राजन्य का पद अब भी वंशानुगत था परन्तु निर्वाचन-प्रणाली भी आरम्भ हो गई थी। निर्वाचन राजवंश तक ही सीमित था।

(3) जनपद एवं राष्ट्र की धारणा का उदय: राज्य के विस्तार के साथ राजन्य अथवा राजा की शक्ति बढ़ती गई। कबीलाई अधिकार प्रदेश-विशेष तक सीमित थे। राजन्य का शासन कई कबीलों पर होता था परन्तु आर्यों के प्रमुख कबीलों ने उन प्रदेशों पर भी अधिकार जमा लिया जहाँ दूसरे कबीले बसे हुए थे। आरम्भ में प्रत्येक प्रदेश को वहाँ बसे हुए कबीले का नाम दिया गया था, पर अंत में जनपद नाम, प्रदेश नाम के रूप में रूढ़ हो गया। आरम्भ में पंचाल एक कबीले का नाम था परन्तु बाद में यह एक प्रदेश का नाम हो गया। राष्ट्र शब्द, जो प्रदेश का सूचक है, पहली बार इसी काल में प्रकट हुआ।

(4) सीमित राजतंत्र: यद्यपि इस काल में राजन्य ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा अधिक स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश हो गया था परन्तु राजन्य पर पुरोहित का नियन्त्रण होता था। पुरोहित सोम को अपना राजन्य मानता था और वह राजन्य की समस्त आज्ञाएँ मानने के लिए बाध्य न था। कभी-कभी पुरोहित, राजन्य के विरुद्ध विद्रोह भी कर देता था। राजन्य को यह शपथ लेनी पड़ती थी कि वह पुरोहित के साथ कभी भी धोखा नहीं करेगा। राज्य के नियमों की पालना करना तथा ब्राह्मणों की रक्षा करना राजन्य का परम धर्म होता था। राजन्य पर धर्म का भी बहुत बड़ा नियन्त्रण रहता था। अतः उसे धर्मानुकूल शासन करना होता था। 

(5) पदाधिकारियों में वृद्धि: उत्तर-वैदिक काल में ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा पदाधिकारियों की संख्या तथा उनके अधिकारों में बड़ी वृद्धि हो गयी। ऋग्वैदिक काल में केवल तीन पदाधिकरी थे- पुरोहित, सेनानी तथा ग्रामणी परन्तु अब स्थपति, निषाद-स्थपति, शतपति आदि नये पदाधिकारी भी उत्पन्न हो गये थे। स्थपति सम्भवतः राज्य के एक भाग का शासक होता था और उसे शासन के साथ-साथ न्यायिक कार्य भी करने होतेे थे। निषाद-स्थपति सम्भवतः उस पदाधिकरी को कहते थे जो उन आदिवासियों पर शासन करता था, जिन पर आर्यों ने विजय प्राप्त कर ली थी। शतपति नामक पदाधिकरी के अनुशासन में सम्भवतः सौ गाँव रहते थे। अब पुराने पदाधिकारियों के अधिकारों में भी वृद्धि हो गयी थी। राजन्य अपने सिंहासन से उतर कर पुरोहित को प्रणाम करता था। अब राजन्य रण-क्षेत्र में कम ही जाया करता था, इसलिये सेनानी रण-क्षेत्र में सेना का संचालन करता था। फलतः उसके प्रभाव में भी वृद्धि हो गयी थी। उत्तर वैदिक काल में भी राजन्य की कोई स्थायी सेना नहीं होती थी। युद्ध के अवसर पर जन से सैनिक टुकड़ियां एकत्र की जाती थीं। युद्ध में सफलता प्राप्त करने के लिए एक अनुष्ठान यह था कि राजन्य को अपनी प्रजा (विश्) के साथ एक पात्र में भोजन करना पड़ता था। ग्रामणी के अधिकार तथा प्रभाव में तो इतनी वृद्धि हो गयी थी कि उसे राजकृत अर्थात् राजन्य को बनाने वाला कहने लगे थे। राजकाज चलाने में राजमहिषी भी राजन्य की सहायता करती थी।

(6) सभा तथा समिति के अधिकारों में कमी: यद्यपि सभा तथा समिति का अस्तित्त्व उत्तर-वैदिक काल में भी बना रहा परन्तु अब उनके अधिकार तथा प्रभाव में बड़ी कमी हो गयी। समिति बड़ी संस्था थी और सभा छोटी। अब राज्य-विस्तार बढ़ जाने के कारण समिति का जल्दी-जल्दी बुलाया जाना सम्भव नहीं था। इसलिये राजन्य उसके परामर्श की उपेक्षा करने लगा और अधिकांश कार्य अपने निर्णय से करने लगा। सभा का महत्त्व भी घट गया।

(7) न्याय व्यवस्था में सुधार: उत्तर-वैदिक कालीन न्याय-व्यवस्था ऋग्वैदिक काल की न्याय-व्यवस्था की अपेक्षा अधिक सुदृढ़़ तथा व्यापक हो गई थी। अब राजन्य न्यायिक कार्य में पहले से अधिक रुचि लेने लगा परन्तु वह अपने न्यायिक अधिकारों को प्रायः अपने पदाधिकारियों को दे देता था। गाँवों के झगड़ों का निर्णय ग्राम्यवादिन करता था जो गाँव का न्यायाधीश होता था। ब्राह्मण की हत्या बहुत बड़ा अपराध समझा जाता था। ब्राह्मण को प्राण-दण्ड नहीं दिया जाता था। सोने की चोरी तथा सुरापान भी बहुत बड़ा अपराध समझा जाता था। दीवानी मुकदमों का निर्णय प्रायः पंचों द्वारा किया जाता था।

(8) जनपद राज्यों का आरम्भ: उत्तर वैदिक काल में कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। जनपद राज्यों का आरम्भ हुआ। न केवल गोधन की प्राप्ति के लिए, अपितु भूमि पर अधिकार के लिए भी युद्ध होने लगे। कौरवों और पांडवों के बीच लड़ा गया महाभारत युद्ध सम्भवतः इसी काल में हुआ।

(9) राजन्य को भेंट व्यवस्था: वैदिक काल का प्रधानतः पशुपालक समाज, अब कृषक बन गया। अब वह अपने राजन्य को प्रायः भेंट देने में समर्थ था। कृषकों के बल पर राजाओं की शक्ति बढ़ी और उन्होंने उन पुरोहितों को खूब दान-दक्षिणा दी जिन्होंने वैश्यों यानी सामान्य जनता के विरोध में अपने आश्रयदाताओं की सहायता की। शूद्रों के छोटे समुदाय का काम सेवा करना था।

(10) कर व्यवस्था: इस काल में करों की वसूली और दक्षिणा आम बात हो गई। इन्हें सम्भवतः संगृहित्री नामक अधिकारी के पास जमा किया जाता था।

सामाजिक दशा

यद्यपि उत्तर-वैदिक काल के आर्यों के गृह-निर्माण, वेश-भूषा, खान-पान, मनोरंजन आदि में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था, परन्तु सामाजिक जीवन के कई क्षेत्रों में बहुत बड़े परिवर्तन हुए।

(1) पिता की शक्तियों में वृद्धि: उत्तर वैदिक काल में, परिवार में पिता की शक्ति बहुत अधिक बढ़ गई थी। यहाँ तक कि पिता अपने पुत्र को भी उत्तराधिकार से वंचित रख सकता था। राज-परिवारों में ज्येष्ठाधिकार को अधिकाधिक महत्त्व दिया जाने लगा तथा पूर्व-पुरुषों की पूजा होने लगी।

(2) गोत्र व्यवस्था: उत्तर वैदिक काल में गोत्र व्यवस्था दृढ़ हुई। गोत्र शब्द का अर्थ है गोष्ठ अथवा वह स्थान जहाँ समस्त कुल के गोधन को एक साथ रखा जाता था परन्तु बाद में इस शब्द का अर्थ हो गया- एक मूल पुरुष के वंशज। गोत्रीय बहिर्विवाह की प्रथा आरम्भ हो गई। एक ही गोत्र अथवा पूर्व-पुरुष वाले समुदाय के सदस्यों के बीच विवाह पर प्रतिबंध लग गया।

(3) नगरों का प्रादुर्भाव: ऋग्वैदिक आर्य केवल गाँवों में ही निवास करते थे। उन्होंने नागरिक जीवन को नहीं अपनाया था। ऋग्वेद में नगर शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है परन्तु जब उत्तर वैदिक आर्य गंगा-यमुना के उपजाऊ मैदानों में आ गये तब उन्होंने बड़े-बड़े नगरों को बसाया तथा नगरों में निवास करना आरम्भ किया। अब यही नगर, राजनीतिक तथा सामाजिक जीवन के केन्द्र बन गये। नगरों की वास्तविक शुरूआत का आभास उत्तर वैदिक काल के अंतिम दौर में मिलता है। हस्तिनापुर और कौशाम्बी को उत्तर वैदिक काल के अंतिम दौर के आदिम पद्धति के नगर माना जा सकता है। इन्हें प्राक्-नगरीय स्थल कहा जा सकता है।

(4) भोजन में परिवर्तन: उत्तर-वैदिक काल के आर्यों ने अपने भोजन में भी थोड़ा बहुत परिवर्तन कर लिया। अब मांस-भक्षण को घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा और ब्राह्मणों के लिए इसका निषेध हो गया। अथर्ववेद के एक सूक्त में मांस-भक्षण तथा सुरापान को पाप बताया गया है। इससे स्पष्ट है कि इस काल में अंहिसा के विचार का बीजारोपण हो गया था। अब सोम के स्थान पर मासर, पूतिका, अर्जुनानी आदि अन्य पेय पदार्थों का प्रयोग होने लगा था।

(5) स्त्रियों की दशा में परिवर्तन: उत्तर-वैदिक काल में स्त्रियों की दशा पहले से बिगड़ गई। अब राजवंशों तथा सम्पन्न परिवारों में बहु-विवाह की प्रथा प्रचलित हो गई थी। इसलिये घरों में स्त्रियों का जीवन कलहपूर्ण हो गया। अब कन्याओं को दुःख का कारण समझा जाने लगा। कन्या का जन्म होने पर लोग दुःखी होते थे परन्तु कन्याओं की शिक्षा पर अब भी ध्यान दिया जाता था। इस काल में गार्गी तथा मैत्रेयी आदि विदुषी स्त्रियों के नाम मिलते हैं जो वैदिक वाद-विवादों में भाग लेती थीं। यद्यपि यज्ञादि धार्मिक अवसरों पर स्त्रियों को भाग लेने का अधिकार था परन्तु अब वे सार्वजनिक सभाओं आदि में नहीं आ-जा सकती थीं। बाल-विवाह की प्रथा आरम्भ हो गयी थी।

(6) वैवाहिक सम्बन्ध में जटिलता: उत्तर-वैदिक काल में विवाह सम्बन्धी नियम कठोर हो गये। अब सगोत्री विवाह अच्छा नही समझा जाता था। भिन्न गोत्र में विवाह करना अच्छा समझा जाता था। अथर्ववेद से ज्ञात होता है कि विधवा-विवाह तथा बहु-विवाह की प्रथा का प्रचलन हो गया था। मनु की दस पत्नियाँ थीं। उच्च-वर्ण की कन्या का विवाह निम्न-वर्ण में नहीं होता था। यदा-कदा कन्याओं का विक्रय होता था और दहेज-प्रथा प्रचलित हो गई थी।

(7) वर्ण-व्यवस्था में जटिलता: उत्तर वैदिक कालीन ग्रंथों में तीन उच्च वर्णों और शूद्रों के बीच में एक विभाजन रेखा देखने को मिलती हैं। तीनों उच्च वर्णों- ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों का उपनयन संस्कार होता था। चौथे वर्ण का उपनयन संस्कार नहीं हो सकता था। शूद्रों पर प्रतिबंध लगने आरम्भ हो गए। फिर भी राज्याभिषेक से सम्बन्धित ऐसे कई सार्वजनिक अनुष्ठान थे जिनमें शूद्र, सम्भवतः मूल कबीले के सदस्यों की हैसियत से भाग लेते थे। कुछ विशेष वर्गों के शिल्पियों को, जैसे रथकारों को, समाज में ऊंचा स्थान प्राप्त था, और उन्हें उपनयन संस्कार के अधिकारियों की सूची में सम्मिलित किया गया था। वर्ण-व्यवस्था जाति-प्रथा का रूप लेती जा रही थी। कार्य अथवा व्यवसाय के स्थान पर जन्म, जाति का आधार होने लगा था। उत्तर वैदिक काल में ऋग्वैदिक काल की चार जातियों के अतिरिक्त दो और जातियाँ बन गयी थीं। इनमें से एक निषाद कहलाती थी और दूसरी व्रात्य। निषाद लोग अनार्य थे। सम्भवतः ये लोग भील जाति के थे। व्रात्य लोग सम्भवतः वे आर्य थे जो ब्राह्मण धर्म को नहीं मानते थे। विभिन्न व्यवसायों के अनुसार बढ़ई, लोहार, मोची आदि उपजातियाँ बनने लगी थीं और अन्तर्जातीय विवाह को घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा था।

(8) आश्रम-व्यवस्था की दृढ़ता: वैदिक काल में आश्रम व्यवस्था ठीक से स्थापित नहीं हुई थी। उत्तर वैदिक काल के गं्रथांे में केवल तीन आश्रमों की जानकारी मिलती है, अंतिम अथवा चौथे आश्रम की स्पष्ट रूप से स्थापना नहीं हुई थी। वैदिकोत्तर ग्रंथों में चार आश्रमों के बारे में जानकारी मिलती है- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। उच्च वर्ण वालों को निश्चित रूप से आश्रम व्यवस्था का पालन करना पड़ता था।     

(9) वंशानुगत उद्योग-धन्धे: अब व्यवसाय वंशानुगत हो गया था और एक परिवार के लोग एक ही व्यवसाय करने लगे थे। यही कारण था कि उपजातियों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ने लगी।

(10) शिक्षा के महत्त्व में वृद्धि: वैदिक यज्ञों में वृद्धि हो जाने के कारण शिक्षा के महत्त्व में वृद्धि हो गई। यद्यपि शिक्षा का मुख्य विषय वेदों का अध्ययन ही था परन्तु वैदिक मन्त्रों के साथ-साथ विज्ञान, गणित, भाषा, युद्ध-विद्या आदि की भी शिक्षा दी जाने लगी। विद्यार्थी, गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण करता था और ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करता था। शिक्षा समाप्त हो जाने पर वह गुरु को दक्षिणा देकर घर आता था और गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता था।

आर्थिक दशा

उत्तर-वैदिक काले में आर्यों की आर्थिक दशा में क्रमशः परिवर्तन होता गया था तथा अब उसमें जटिलता आने लगी थी। अब वे गाँवों के अतिरिक्त नगरों में भी निवास करने लगे थे और उनका जीवन अधिक सम्पन्न हो गया था।

(1) धातु-ज्ञान में वृद्धि: आर्यों को ऋग्वैदिक काल में लौह, स्वर्ण तथा अयस् आदि धातुओं का ज्ञान प्राप्त था परन्तु उत्तर वैदिक काल में उन्हें रांगा, सीसा तथा चांदी का भी ज्ञान प्राप्त हो गया था। इस काल में लाल-अयस् तथा कृष्ण-अयस् का भी उल्लेख मिलता है। सम्भवतः लाल-अयस का तात्पर्य ताम्बे से और कृष्ण-अयस् का तात्पर्य लोहे से था।

(2) लोहे के उपयोग में वृद्धि: उत्तर वैदिक काल में लोहे का अधिकाधिक उपयोग होने लगा। पाकिस्तान के गांधार प्रदेश में 1000 ई.पू. के आसपास गाढ़े गये शवों के साथ लोहे के बहुत सारे औजार और उपकरण मिले हैं। इस प्रकार की लौह निर्मित वस्तुएं बिलोचिस्तान से भी मिली हैं। लगभग उसी समय से पूर्र्वी पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान में भी लोहे का उपयोग हो रहा था। पुरातात्विक अन्वेषण से ज्ञात होता है कि 800 ई.पू. के लगभग पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तीरों के फलक और भालों के फलक जैसे लोहे के औजार बनने लग गये थे। लोहे के इन हथियारों से उत्तर वैदिक आर्यों ने उत्तरी दो आब में बसे अपने बचे-खुचे शत्रुओं को परास्त किया होगा। उत्तरी गंगा की घाटियों के जंगलों को साफ करने के लिये लोहे की कुल्हाड़ी का उपयोग हुआ होगा। उस काल में वर्षामान 35 से 65 सेंटीमीटर तक होने से ये जंगल बहुत घने नहीं रहे होंगे। वैदिक काल के अंतिम चरण में लोहे का ज्ञान पूर्वी उत्तर प्रदेश और विदेह में फैल गया था। ई.पू. सातवीं सदी से इन प्रदेशों में लोहे के औजार मिलने लग जाते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार में लोहे का प्रयोग सर्वाधिक हुआ। लोहे के हथियारों का उपयोग लगातार बढ़ते जाने के के कारण योद्धा-वर्ग महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करने लगा। नए कृषि औजारों और उपकरणों की सहायता से किसान आवश्यकता से अधिक अनाज पैदा करने लगे। राजा, सैनिक और प्रशासकीय आवश्यकताओं के लिए, इस अतिरिक्त उपज को एकत्र कर सकता था। इस अतिरिक्त उपज को ईसा-पूर्व छठी सदी में स्थापित हुए नगरों के लिए भी जमा किया जा सकता था। इन भौतिक लाभों के कारण किसान का कृषि कार्य में लगातार लगे रहना स्वाभाविक था। लोग अपनी पुरानी बस्तियों से बाहर निकलकर समीप के नए क्षेत्रों में फैलने लगे। इस प्रकार लोहे का उपयोग बढ़ते जाने से आर्यों का ग्राम्य प्रधान जीवन नगरीकरण की ओर बढ़ने लगा तथा छोटे-छोटे जन के स्थान पर बड़े-बड़े जनपद राज्यों की स्थापना का मार्ग खुल गया।

(3) भूमिपतियों का प्रादुर्भाव: ऋग्वैदिक काल में भूमिपतियों का कहीं नाम नहीं था परन्तु अब बड़े-बड़े भूमिपतियों का प्रादुर्भाव हो रहा था। बहुत से भूमिपति सम्पूर्ण गाँव के स्वामी होते थे। गाँव के लोगों पर उनका बड़ा प्रभाव रहता था।

(4) वैश्यों के काम का निर्धारण: उत्तर वैदिक काल में वैश्य वर्ग के अंतर्गत सामान्य प्रजा का समावेश होता था। उन्हें कृषि और पशुपालन जैसे उत्पादक कार्य सौंपे गए थे। कुछ वैश्य शिल्पकार भी थे। वैदिक काल के अंत में वे व्यापार में जुट गए। उत्तर वैदिक काल में सम्भवतः केवल वैश्य ही भेंट अथवा उपहार देते थे। क्षत्रिय, वैश्यों से प्राप्त भेंट पर अपनी जीविका चलाते थे। सामान्य कबीलाई प्रजा को भेंट देने वालों की स्थिति में पहुंचने में लंबा समय लगा। कई ऐसे अनुष्ठान थे जिनके माध्यम से विश् अथवा वैश्यों को राजन्य के अधीन बनाया जाता था।

(5) कृषि में आमूलचूल परिवर्तन: वैदिक काल के आर्य मुख्यतः पशुपालक थे किंतु उत्तर वैदिक काल मे कृषि में बड़ी उन्नति हो गयी थी। अब आर्य लोग गंगा-यमुना की अत्यन्त उपजाऊ भूमि में पहुँच गये थे। अब वे बड़े-बड़े हलों का प्रयोग करने लगे थे। कृषि सम्बन्धी लोहे के औजार बहुत थोड़े मिले हैं किंतु इसमें संदेह नहीं कि उत्तर वैदिक कालीन लोगों की जीविका का मुख्य साधन कृषि ही था। कुछ वैदिक ग्रंथों में छः आठ, बारह और चौबीस बैलों द्वारा जोते जाने वाले हलों के उल्लेख मिलते हैं। इसमें अतिश्योक्ति हो सकती है। हलों के फाल लकड़ी के होते थे। उत्तरी गंगा की नरम मिट्टी में इनसे संभवतः काम चल जाता था। यज्ञों में होने वाली पशु बलि के कारण पर्याप्त बैल उपलब्ध नहीं हो सकते थे। इसलिये कृषि आदिम स्तर की थी परंतु इसमें संदेह नहीं कि यह व्यापक स्तर पर होती थी। शतपथ ब्राह्मण में हल की जुताई से सम्बन्धित अनुष्ठानों के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है। प्राचीन आख्यानों के अनुसार सीता के पिता विदेहराज जनक भी स्वयं हल जोतते थे। उस जमाने में राजन्य और राजकुमार भी शारीरिक श्रम करने में संकोच नहीं करते थे। कृष्ण के भाई बलराम को हलधर कहा जाता है। बाद में उच्च वर्णों के लोगों द्वारा हल जोतने पर निषेध लग गया। इस काल के कृषक विभिन्न प्रकार की खादों का भी प्रयोग करने लगे थे। वैदिक लोग जौ पैदा करते रहे परंतु इस काल में उनकी मुख्य पैदावार धान और गेहूँ बन गया। कालांतर में गेहूँ का स्थान प्रमुख हो गया। आज भी उत्तर प्रदेश और पंजाब के लोगों का मुख्य अनाज गेहूँ ही है। दोआब में पहुँचने पर वैदिक लोगों को चावल की भी जानकारी मिली। वैदिक ग्रंथों में चावल को व्रीहि कहा गया है। हस्तिनापुर से चावल के जो अवशेष मिले हैं वे ईसा पूर्व आठवीं सदी के हैं। अनुष्ठानों में चावल के उपयोग के विधान मिलते हैं परन्तु अनुष्ठानों में गेहँू का बहुत कम उपयोग होता था। उत्तर वैदिक काल में कई तरह की दालें भी उगाई जाती थीं।

(6) वाणिज्य तथा व्यापार में उन्नति: उत्तर-वैदिक काल में, ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा व्यापार तथा वाणिज्य में अधिक वृद्धि हो गयी थी। यह स्वाभाविक भी था क्योंकि अब वे एक विशाल मैदान के निवासी बन गये थे जो बड़ा ही उपजाऊ तथा धन-सम्पन्न था। इस काल में व्यापारियों का एक अलग वर्ग बन गया था जिन्हें वणिक कहते थे। धनी व्यापारी श्रेष्ठिन् कहलाता था। आर्य लोगों का आन्तरिक व्यापार पहाड़ियों में रहने वाले किरातों के साथ होता था, जिन्हें ये कपड़े देकर औषधि के लिए जड़ी-बूटियाँ प्राप्त करते थे। अब ये लोग समुद्र से भी परिचित हो गये थे और बड़ी-बड़ी नावों द्वारा सामुद्रिक व्यापार भी करते थे। अब आर्य लोग निष्क, शतमान तथा कृष्णाल नाम की मुद्राओं का प्रयोग करने लगे थे जिससे व्यापार में बड़ी सुविधा होने लगी।

(7) अन्य व्यवसायों की उन्नति: ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा अब उद्योग धन्धों में भी अधिक वृद्धि हो गई थी और कार्य विभाजन का सिद्धान्त दृढ़ हो गया था। यजुर्वेद में उन सब व्यवसायों का उल्लेख है जिन्हें इस काल की आर्य प्रजा करती थी। इनमें शिकारी, मछुए, पशुपालक, हलवाह, जौहरी, चटाई बनाने वाले, धोबी, रंगरेज, जुलाहे, कसाई, सुनार, बढ़ई आदि आते हैं।

कलाओं का विकास

उत्तर-वैदिक काल में कला के क्षेत्र में भी कई परिवर्तन दिखाई देते हैं। काव्य-कला का स्वरूप अत्यन्त व्यापक हो गया था।

(1) गृह निर्माण कला: हस्तिनापुर में 900 ई.पू. से 500 ई.पू. के स्तरों के बीच की जो खुदाई हुई है, उसमें बस्ती के अस्तित्व और नगरीय जीवन के प्रारंभ होने के प्रमाण मिलते हैं परंतु पुरातत्व की यह जानकारी हस्तिनापुर के बारे में महाभारत से मिलने वाली जानकारी से मेल नहीं खाती। क्योंकि इस महाकाव्य का संकलन बहुत बाद में, ईसा की चौथी सदी में, उस समय हुआ था जब भौतिक जीवन की काफी उन्नति हो चुकी थी। उत्तर वैदिक काल के लोग पकी हुई ईंटों का उपयोग करना नहीं जानते थे। हस्तिनापुर की खुदाई में मिट्टी के जो स्मारक मिले हैं वे भव्य और टिकाऊ नहीं रहे होंगे। परम्परा से जानकारी मिलती है कि हस्तिनापुर बाढ़ में बह गया था इसलिये बचे-खुचे कुरु लोग प्रयाग के समीप कौशाम्बी में जाकर बस गये थे।

(2) धातु शिल्प कला: उत्तर वैदिक काल में अनेक कलाओं और शिल्पों का उदय हुआ। हमें लुहारों और धातुकारों के बारे में जानकारी मिलती है। लगभग 1000 ई.पू. के आसपास निश्चय ही इनका सम्बन्ध लोहे के उत्पादन से रहा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बिहार से 1000 ई.पू. के पहले के तांबे के कई औजार मिले हैं उनसे वैदिक और अवैदिक दोनों ही समाजों में ताम्रकारों का अस्तित्त्व सूचित होता है। वैदिक लोगों ने सम्भवतः राजस्थान के खेतड़ी की तांबे की खानों का उपयोग किया था। वैदिक लोगों ने सर्वप्रथम ताम्र धातु का उपयोग किया था। चित्रित धूसर भांडों वाले स्थलों से भी तांबे के औजार मिले हैं। इन ताम्र-वस्तुओं का उपयोग मुख्यतः युद्ध, आखेट और आभूषणों के लिए भी होता था।

(3) बर्तन निर्माण कला: उत्तर वैदिक काल के लोग चार प्रकार के मिट्टी के बर्तनों से परिचित थे- काले एवं लाल भांड, काले रंग के भांड, चित्रित धूसर भांड और लाल भांड। अंतिम किस्म के भांड उन्हें अधिक प्रिय थे। ये भांड प्रायः पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश से मिले हैं परन्तु इस युग के विशिष्ठ भांड हैं- चित्रित धूसर भांड। इनमें कटोरे और थालियां मिली हैं जिनका उपयोग उच्च वर्णों के लोगों द्वारा पूजा-पाठ अथवा भोजन अथवा दोनों कामों के लिए होता था। चित्रित धूसर भांडों के साथ कांच की वस्तुएं और कंकण मिले हैं। उनका उपयोग भी उच्च वर्ग के सदस्य ही करते होंगे।

(4) आभूषण निर्माण कला: पुरातात्त्विक खुदाई और वैदिक ग्रंथों से विशिष्ट शिल्पों के अस्तित्त्व के बारे में जानकारी मिलती है। उत्तर वैदिक काल के ग्रंथों में जौहरियों के भी उल्लेख मिलते हैं। ये सम्भवतः समाज के धनी लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करते थे।

(5) बुनाई कला: बुनाई का काम केवल स्त्रियाँ करती थीं, फिर भी यह काम बड़े पैमाने पर होता था।

(6) काव्य कला: ऋग्वेद में केवल स्तुति-मन्त्रों का संग्रह है, परन्तु यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण-ग्रन्थों तथा सूत्रों की रचना के द्वारा काव्य-क्षेत्र को अत्यन्त विस्तृत कर दिया गया। यजुर्वेद में यज्ञों का विस्तृत विवेचन है। सामवेद गीति-काव्य है। संगीत-कला पर उसका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। अथर्ववेद में भूत-प्रेत से रक्षा तथा तन्त्र-मन्त्र का विधान है। ब्राह्मण-ग्रन्थों में उच्चकोटि की दार्शनिक विवेचना है। सूत्रों की रचना इसी काल में हुई। सूत्रों के प्रादुर्भाव से, सूचनाओं को संक्षेप में लिखने की कला की उन्नति हुई।

(7) खगोल विद्या: इस काल में खगोल विद्या भी बड़ी उन्नति कर गई। इस काल के आर्यों को नये-नये नक्षत्रों का ज्ञान प्राप्त हो गया।

(8) अन्य कलायें: उत्तर वैदिक काल में चर्मकार, कुम्हार तथा बढ़ई आदि शिल्पों ने बहुत उन्नति की।

(9) औषधि विज्ञान: औषधि-विज्ञान अब भी अवनत दशा में था।

धार्मिक दशा

ऋग्वैदिक काल का धर्म, सरल तथा आडम्बरहीन था परन्तु उत्तर-वैदिक काल का धर्म जटिल तथा आडम्बरमय हो गया। इस काल में उत्तरी दोआब में ब्रह्माण धर्म के प्रभाव के अंतर्गत आर्य संस्कृति का विकास हुआ। अनुमान होता है कि सम्पूर्ण उत्तर वैदिक साहित्य का संकलन कुरु-पांचाल प्रदेश में हुआ। यज्ञकर्म और इससे सम्बन्धित अनुष्ठान और विधियां इस संस्कृति की मेरूदंड थीं।

(1) ब्राह्मणों की प्रधानता: इस युग में ब्राह्मणों की प्रधानता तथा उनका महत्त्व अत्यधिक बढ़ गया। ब्राह्मण-ग्रन्थों की रचना इसी काल में हुई। इन ग्रन्थों के रचयिता ब्राह्मण थे और इनका सम्बन्ध भी ब्राह्मणों से ही था। वेदों तथा ब्राह्मण-ग्रन्थों के सच्चे ज्ञान का अधिकारी ब्राह्मणों को ही समझा जाता था। ब्राह्मण ही यज्ञ करता और कराता था, इसलिये उसका आदर-सम्मान भी अधिक था। इस काल में ब्राह्मण का स्थान इतना ऊँचा हो गया था कि वह भू-सुर, भू-देव आदि नामों से सम्बोधित किया जाने लगा। यज्ञों के प्रसार के कारण ब्राह्मणों की शक्ति अत्यधिक बढ़ गई थी। आरम्भ में पुरोहितों के सोलह वर्गों में से ब्राह्मण एक वर्ग मात्र था, परन्तु शनैः शनैः इन्होंने दूसरे पुरोहित-वर्गोंं को पछाड़ दिया और ये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वर्ग बन गए। ये अपने और अपने यजमानों के लिए पूजा-पाठ और यज्ञ करते थे। साथ ही, कृषि कर्म से सम्बन्धित समारोहों का आयोजन भी करते थे। ये अपने आश्रयदाता राजा के लिये युद्ध में सफलता की कामना करते थे और बदले में राजा की ओर से दान-दक्षिणा तथा सुरक्षा का वचन मिलता था। उच्चाधिकार के लिए ब्राह्मणों का कभी-कभी योद्धा वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले क्षत्रियों से संघर्ष भी होता था परन्तु जब इन दो उच्च वर्णों का निम्न वर्णों से मुकाबला होता था तो ये आपसी मतभेदों को भुला देते थे। उत्तर वैदिक काल के अंत समय से इस बात पर बल दिया जाने लगा था कि इन दो उच्च वर्णों को परस्पर सहयोग करके शेष समाज पर शासन करना चाहिए।

(2) यज्ञ के महत्त्व में वृद्धि: इस युग में यज्ञों के महत्त्व में इतनी अधिक वृद्धि हो गई थी कि यदि इसे यज्ञों का युग कहा जाय तो कुछ अनुचित न होगा। इस काल में रचा जाने वाला यजुर्वेद, यज्ञ प्रधान ग्रन्थ है। उसमें यज्ञों के विधान की विस्तृत विवेचना की गई है। यज्ञों को करने में भी सरलता न रह गई थी। गृहस्थ स्वयं यज्ञ नहीं कर सकता था वरन् उसे याज्ञिकों की आवश्यकता पड़ती थी। यज्ञ में समय भी अधिक लगता था। बहुत से यज्ञ वर्ष भर चलते थे और उनमें बहुत अधिक धन व्यय करना पड़ता था। राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञ केवल राजा ही कर सकते थे। इस कारण सर्वसाधारण के लिये यज्ञ करवाना कठिन कार्य हो गया। यज्ञों का आयोजन सामूहिक रूप से और निजी रूप से भी होता था। सामूहिक यज्ञों में राजन्य और उस जन-समुदाय के समस्त सदस्य भाग लेते थे। निजी यज्ञ अलग-अलग लोगों द्वारा अपने-अपने घरों में आयोजित किए जाते थे, क्यांेकि इस काल में वैदिक लोग स्थायी जीवन बिताते थे और उनके अपने सुव्यवस्थित कुटुम्ब थे। अग्नि को व्यक्तिगत रूप से आहुति दी जाती थी और ऐसी प्रत्येक क्रिया एक अनुष्ठान अथवा यज्ञ का रूप धारण कर लेती थी।

(3) यज्ञों में बलि का चलन: ऋग्वेद काल में यज्ञ में केवल फल तथा दूध की बलि दी जाती थी परन्तु अब यज्ञ में पशु तथा सोम की बलि का महत्त्व हो गया। बड़ी-बड़ी बलियों और यज्ञों के अवसर पर राजाओं की ओर से प्रचुर मात्रा में भोजन सामग्री वितरित की जाती थी। समाज के समस्त वर्गों के लोगों को जिमाया जाता था।

            (4) याज्ञिक वर्ग की उत्पति: यज्ञों की संख्या तथा महत्त्व में वृद्धि हो जाने तथा उनमें जटिलता आ जाने से ब्राह्मणों में एक ऐसा वर्ग उत्पन्न हो गया जो यज्ञों का विशेषज्ञ होता था। इस वर्ग का एकमात्र व्यवसाय अपने यजमान के यहाँ यज्ञ कराना तथा उससे यज्ञ-शुल्क एवं दान प्राप्त करना हो गया। ब्राह्मण उन सोलह प्रकार के पुरोहितों में से एक थे जो यज्ञों का नियोजन करते थे। समस्त पुरोहितों को उदारतापूर्वक दान-दक्षिणा दी जाती थी। यज्ञों के अवसर पर जो मंत्र पढ़े जाते थे, उनका यज्ञकर्ता को बड़ी सावधानी से उच्चारण करना होता था। यज्ञकर्ता को यजमान कहते थे। यज्ञ की सफलता यज्ञ के अवसर पर उच्चारित चमत्कारिक शक्ति वाले शब्दों पर निर्भर करती थी। वैदिक आर्यों द्वारा किए जाने वाले अनुष्ठान दूसरे हिन्द-यूरोपीय लोगों में भी देखने को मिलते हैं परन्तु अनेक अनुष्ठानों का विकास भारत भूमि में हुआ। यज्ञ विधियों का आविष्कार, संयोजन एवं विकास ब्राह्मण पुरोहितों ने किया। उन्होंने बहुत सारे अनुष्ठानों का आविष्कार किया, इनमें से अनेक अनुष्ठान आर्येतर प्रजाओं से लिए गए थे। उत्तरवैदिक साहित्य में मिलने वाले उल्लेखों के अनुसार राजसूय यज्ञ करने वाले प्रधान पुरोहित को 2,40,000 गायें दक्षिणा के रूप में दी जाती थीं।

पुरोहितों को यज्ञों में, गायों के साथ-साथ सोना, कपड़ा और घोड़े भी दिए जाते थे। यद्यपि पुरोहित दक्षिणा के रूप में कभी-कभी भूमि भी मांगते थे, तथापि यज्ञ की दक्षिणा के रूप भूमि-दान की प्रथा उत्तर वैदिक काल में भली-भाँति स्थापित नहीं हुई थी। शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि अश्वमेध यज्ञ में उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम इन समस्त दिशाओं का, पुरोहित को दान कर देना चाहिए। बड़े स्तर पर पुरोहितों को भूमि-दान किया जाना सम्भव नही था। एक उल्लेख ऐसा भी मिलता है कि पुरोहितों को दी जाने वाली भूमि ने अपना हस्तांतरण सम्भव नहीं होने दिया।

(4) उच्चकोटि का दार्शनिक विवेचन: 600 ई.पू. के आसपास, उत्तर वैदिक काल का अंतिम चरण आरंभ हुआ। इस काल में, विशेषतः पंचाल और विदेह में, पुरोहितों के आधिपत्य, कर्मकांड एवं अनुष्ठानों के विरुद्ध प्रबल आंदोलन आरम्भ हुआ तथा उपनिषदों की रचना हुई। इन दार्शनिक ग्रंथों में अनुष्ठानों की आलोचना की गई और सम्यक् विश्वासों एवं ज्ञान पर बल दिया गया। इस काल के याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों द्वारा आत्मन् को पहचानने और आत्मन् तथा ब्रह्म के सम्बन्ध को सही रूप में समझने पर बल दिया गया। ब्रह्मा सर्वोच्च देव के रूप में उदित हुए। पंचाल और विदेह के कुछ क्षत्रिय राजाओं ने भी इस प्रकार के चिन्तन में भाग लिया और पुरोहितों के एकाधिकार वाले धर्म में सुधार करने के लिए वातावरण तैयार किया। उनके उपदेशों से स्थायित्व और एकीकरण की विचारधारा को बल मिला। आत्मा की अपरिवर्तनशीलता और अमरता पर बल दिए जाने से स्थायित्व की संकल्पना मजबूत हुई, राजशक्ति को इसी की आवश्यकता थी। आत्मा और ब्रह्मा के सम्बन्धों पर बल दिए जाने से उच्च अधिकारियों के प्रति स्वामिभक्ति की विचारधारा को बल मिला। इस काल की दार्शनिक विवेचना के अन्य प्रधान ग्रन्थ आरण्यक हैं। पुनर्जन्म के सिद्धान्त का अनुमोदन भी इसी युग में किया गया। इसके अनुसार मनुष्य का आगामी जन्म उसके कर्मों पर निर्भर रहता है तथा अच्छा कार्य करने वाला, अच्छी योनि में और बुरा कार्य करने वाला बुरी योनि में जन्म लेता है। इस युग में ज्ञान की प्रधानता पर बल दिया गया। मोक्ष प्राप्त करने के लिए ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक समझा गया। षड्दर्शन अर्थात् सांख्य, योग, न्याय वैशेषिक, पूर्व-मीमांसा तथा उत्तर-मीमांसा की रचना इसी काल में हुई।

स्तुति पाठ: जिन भौतिक कारणों से लोग पूर्वकाल में देवताओं की आराधना करते थे, उन्हीं कारणों से अब भी करते थे परन्तु पूजा-पद्धति में काफी परिवर्तन हो गया था। स्तुति पाठ पहले की तरह ही होते थे, पर देवताओं को संतुष्ट करने की दृष्टि से अब उनका उतना महत्त्व नहीं रह गया था।

(5) देवताओं के महत्त्व में परिवर्तन: उत्तर वैदिक काल में ऋग्वैदिक काल के देवताओं का महत्त्व घट रहा था और उनका स्थान अन्य नये देवता ग्रहण कर रहे थे। इन्द्र और अग्नि को, पहले जैसा महत्त्व नहीं था। इस युग में प्रजापति का महत्त्व देवताओं से अधिक हो गया। ऋग्वैदिक काल के दूसरे कई गौण देवताओं को भी उच्च स्थान प्रदान किए गए। पशुओं के देवता रुद्र, उत्तर वैदिक काल में एक महत्त्वपूर्ण देवता बन गये। रुद्र को महादेव तथा पशुपति के नाम से पुकारा जाने लगा। रुद्र के साथ-साथ शिव का महत्त्व बढ़ने लगा। विष्णु अब उन लोगों के संरक्षक देवता समझे जाने लगे जो ऋग्वैदिक काल में अर्द्ध-घुमंतू जीवन बिताते थे और अब स्थायी जीवन बिताने लगे थे। विष्णु, वासुदेव कहलाने लगे। भागवत सिद्धान्त का बीजारोपण भी इसी युग में हो गया था। जब समाज चार वर्गों- ब्राह्मण, राजन्य, वैश्य और शूद्र में विभाजित हो गया तो प्रत्येक वर्ण के पृथक देवता अस्तित्त्व में आ गए। पूषन जिसे गौरक्षक समझा जाता था, बाद में शूद्रों का देवता बन गया।

(6) आडम्बर तथा अन्ध विश्वासों में वृद्धि: उत्तर वैदिक काल के आर्यों के उत्तरी मैदान में बस जाने के कारण वे मानसून पर अत्यधिक निर्भर रहने लगे। फलतः उन्हें अतिवृष्टि तथा अनावृष्टि का सामना करना पड़ा। कृषि पर कीट-पतंगों एवं रोगों का आक्रमण होता था। अतः फसलों को नष्ट होने से बचाने के लिए मन्त्र-तन्त्र का प्रयोग होने लगा जिनका उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है। ऋग्वैदिक काल का विशुद्ध धर्म अब धीरे-धीरे आडम्बरों तथा अन्ध-विश्वासों का जाल बनने लगा था। अब यह विश्वास हो गया था कि यज्ञों तथा मन्त्रों द्वारा न केवल देवताओं को वश में किया जा सकता है वरन् उन्हें समाप्त भी किया जा सकता है। अब भूत-प्रेत तथा मन्त्र-तन्त्र में लोगों का विश्वास बढ़ता जा रहा था। अथर्ववेद में भूत-प्रेतों का वर्णन है और तन्त्र-मन्त्रों द्वारा इनसे रक्षा का उपाय भी बताया गया है। इसके साथ-साथ कुछ प्रतीक-वस्तुओं की भी पूजा होने लगी। उत्तर वैदिक काल में मूर्ति-पूजा भी आरम्भ हो गई।

वैदिक सभ्यता तथा द्रविड़ सभ्यता में अन्तर

वैदिक सभ्यता तथा द्रविड़ सभ्यता का तुलनात्मक अध्ययन करने पर इनमें कई अन्तर दिखाई देते हैं। मुख्य अंतर इस प्रकार से हैं-

(1) काल सम्बन्धी अन्तर: सिन्धु-घाटी की सभ्यता, वैदिक सभ्यता से अधिक प्राचीन है। माना जाता है कि सिन्धु-सभ्यता, वैदिक सभ्यता से लगभग दो हजार वर्ष अधिक पुरानी है। सिंधु घाटी सभ्यता ताम्र-कांस्य कालीन सभ्यता है जबकि वैदिक सभ्यता लौह युगीन सभ्यता है।

(2) नृवंशीय अंतर: द्रविड़ लोग छोटे, काले तथा चपटी नाक वाले होते थे परन्तु आर्य लोग लम्बे, गोरे तथा सुन्दर शरीर के होते थे।

(3) स्थान सम्बन्धी अंतर: सिंधु घाटी सभ्यता सिंधु नदी की घाटी में पनपी। इसकी बस्तियां पंजाब में हड़प्पा से लेकर सिंध में मोहनजोदड़ो, राजस्थान में कालीबंगा तथा गुजरात में सुत्कांगडोर तक मिली हैं जबकि आर्य सभ्यता सप्तसिंधु क्षेत्र में पनपी तथा इसका विस्तार गंगा-यमुना के दोआब, मध्य भारत तथा पूर्व में बिहार तथा बंगाल के दक्षिण-पूर्व तक पाया गया है।

(4) सभ्यताओं के स्वरूप में अन्तर: सिन्धु-घाटी की सभ्यता नगरीय तथा व्यापार प्रधान थी जबकि वैदिक सभ्यता ग्रामीण तथा कृषि प्रधान थी। सिन्धु-घाटी के लोगों को सामुद्रिक जीवन प्रिय था और वे सामुद्रिक व्यापार में कुशल थे परन्तु आर्यों को स्थलीय जीवन अधिक प्रिय था। सिंधु घाटी की सभ्यता एवं संस्कृति उतनी उन्नत तथा प्रौढ़ नहीं थी जितनी आर्यों की थी।

(5) सामाजिक व्यवस्था में अन्तर: द्रविड़ों का कुटुम्ब मातृक था अर्थात् माता कुटुम्ब की प्रधान होती थी, परन्तु आर्यों का कुटुम्ब पैतृक था जिसमें पिता अथवा कुटुुम्ब का अन्य कोई वयोवृद्ध पुरुष प्रधान होता था।

(6) विवाह पद्धति में अंतर: सिन्धु-घाटी के लोगों में चचेरे भाई-बहिन में विवाह हो सकता था, परन्तु आर्यों में इस प्रकार के विवाहों का निषेध था।

(7) उत्तराधिकार सम्बन्धी परम्पराओं में अंतर: सिन्धु-घाटी सभ्यता के निवासी, अपनी माता के भाई की सम्पति के उत्तराधिकारी होते थे। जबकि आर्य, अपने पिता की सम्पति के उत्तराधिकारी होते थे।

(8) जाति व्यवस्था में अन्तर: सिंधु घाटी के लोगों में जाति व्यवस्था नहीं थी जबकि आर्यों के समाज का मूलाधार जाति-व्यवस्था थी जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के कार्य अलग-अलग निश्चित थे।

(9) आवास सम्बन्धी अन्तर: सिन्धु-घाटी के लोग नगरों में पक्की ईटों के मकान बनाकर रहते थे किंतु वैदिक आर्य गाँवों में बांस के पर्ण-कुटीर बनाकर रहते थे।

(10) धातुओं के प्रयोग में अन्तर: सिन्धु-घाटी के लोग पाषाण उपकरणों के साथ-साथ सोने-चांदी का प्रयोग करते थे तथा लोहे से अपरिचित थे परन्तु वैदिक काल के आर्य प्रारम्भ में सोने तथा ताम्बे का और बाद में चांदी, लोहे तथा कांसे का भी प्रयोग करने लगे थे।

(11) अस्त्र-शस्त्र के प्रयोग में अन्तर: सिन्धु-घाटी के लोग युद्ध कला में प्रवीण नहीं थे। इसलिये उनके अस्त्र-शस्त्र साधारण कोटि के थे। वे युद्ध क्षेत्र में कवच (वर्म) तथा शिरस्त्राण आदि का उपयोग नहीं करते थे जबकि वैदिक आर्य युद्ध कला में अत्यंत प्रवीण थे तथा युद्ध क्षेत्र में आत्मरक्षा के लिए कवच और शिरस्त्राण आदि का प्रयोग करते थे।

(12) भोजन में अन्तर: सिन्धु सभ्यता के लोगों का प्रधान आहार मांस-मछली था। वैदिक आर्य भी प्रारम्भ में मांस-भक्षण करते थे, परन्तु उत्तर वैदिक काल में मांस भक्षण घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा।

(13) पशुओं के ज्ञान तथा महत्त्व में अन्तर: सिन्धु-घाटी के लोग बाघ तथा हाथी से भली-भांति परिचित थे किंतु ऊँट तथा घोड़े से अपरिचित थे। सिन्धु-घाटी के लोग साण्ड को गाय से अधिक महत्त्व देते थे। वैदिक आर्य बाघ तथा हाथी से अनभिज्ञ थे। हाथी का वेदों में बहुत कम उल्लेख मिलता है। वैदिक आर्य घोड़े पालते थे जिन्हे वे अपने रथों में जोतते थे तथा रणक्षेत्र में काम लेते थे। वैदिक काल के आर्य गाय को बड़ा पवित्र मानते थे और उसे पूजनीय समझते थे।

(14) धार्मिक धारणा में अन्तर: सिन्धु-घाटी के लोगों में मूर्ति-पूजा की प्रतिष्ठा थी। वे शिव तथा शक्ति की पूजा करते थे और देवी को देवता से अधिक ऊँचा स्थान प्रदान करते थे। वे लिंग-पूजक थे तथा अग्नि को विशेष महत्त्व नहीं देते थे। वे भूत-प्रेतों की भी पूजा करते थे। वैदिक आर्यों ने भी देवी-देवताओं में मानवीय गुणों का आरोपण किया था परन्तु वे मूर्ति-पूजक नहीं थे। ऋग्वैदिक काल के आर्यों में शिव को कोई स्थान प्राप्त न था तथा वे लिंग-पूजा के विरोधी थे। आर्य लोग सर्वशक्तिमान दयालु ब्रह्म को मानते थे तथा अग्नि-पूजक थे। उनके प्रत्येक घर में अग्निशाला होती थी।

(15) कला के ज्ञान में अन्तर: सिन्धु-घाटी के लोग लेखन-कला से परिचित थे और अन्य कलाओं में भी अधिक उन्नति कर गये थे, परन्तु वैदिक आर्य सम्भवतः लेखन-कला से परिचित न थे और अन्य कलाओं में भी उतने प्रवीण नहीं थे परन्तु काव्य-कला में वे सैंधवों से बढ़कर थे।

(16) लिपि एवं भाषागत अंतर: सिन्धु-घाटी के लोगों की लिपि अब तक नहीं पढ़ी जा सकी है किंतु अनुमान है कि वह एक प्रकार की चित्रलिपि थी। इस लिपि के अब तक नहीं पढ़े जाने के कारण सिन्धु-घाटी की भाषा के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं हो सकी है जबकि आर्यों की लिपि वर्णलिपि तथा भाषा संस्कृत थी।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सिन्धु-घाटी सभ्यता तथा वैदिक-सभ्यता में पर्याप्त अन्तर था। दोनों सभ्यताओं का अलग-अलग कालों में और विभिन्न लोगों द्वारा विकास किया गया था परन्तु दोनों ही सभ्यताएँ, भारत की उच्च कोटि की सभ्यताएँ थीं। दोनों सभ्यताओं में इतना अन्तर होने पर शताब्दियों के सम्पर्क से दोनों ने एक दूसरे की संस्कृति को अत्यधिक प्रभावित किया और उनमें साम्य हो गया। यह साम्य आज भी भारत की संस्कृति पर दिखाई पड़ता है।

सैंधव एवं आर्य सभ्यताओं के अनसुलझे प्रश्न

सिंधु सभ्यता एवं आर्य सभ्यता के सम्बन्ध में पश्चिमी इतिहासकारों का मानना है कि-

1.         हड़प्पा सभ्यता का सर्वाधिक उचित नाम सिंधु सभ्यता है क्योंकि यह सभ्यता, सिंधु नदी घाटी के क्षेत्र में पनपी।

2.         सैंधव सभ्यता, भारतीय आर्य सभ्यता से लगभग दो हजार साल पुरानी थी।

3.         सिंधु सभ्यता नगरीय थी।

4.         सिंधु सभ्यता के लोग घोड़े से परिचित नहीं थे।

5.         सिंधु सभ्यता के लोग लोहे का प्रयोग करना नहीं जानते थे।

6.         सिंधु सभ्यता के लोगों के, मेसोपाटामिया (ईराक) के लोगों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध थे।

7.         भारत में आने से पहले आर्य ईरान में रहते थे।

8.         आर्यों ने सैंधव लोगों पर आक्रमण किया तथा उनकी बस्तियों को नष्ट कर दिया। आर्य ऐसा इसलिये कर पाये क्योंकि आर्यों के पास तेज गति की सवारी के लिये घोड़े तथा लड़ने के लिये लोहे के हथियार थे।

यदि पश्चिमी इतिहासकारों की उपरोक्त बातों को स्वीकार कर लिया जाये तो इतिहास में अनेक उलझनें पैदा हो जाती हैं। इनमें से कुछ विचारणीय बिंदु शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों की सहायता के लिये यहाँ दिये जा रहे हैं-

1.         अब तक सैंधव सभ्यता के 1400 से अधिक स्थलों की खोज की गई है। इनमें से केवल 6 नगर हैं, शेष गांव हैं। ऐसी स्थिति में सैंधव सभ्यता को नगरीय सभ्यता कैसे कहा जा सकता है ?

2.         सिंधु सभ्यता के स्थलों में से अधिकांश स्थल सरस्वती नदी की घाटी में पाये गये हैं न कि सिंधु नदी की घाटी में। अतः इस सभ्यता का नाम सिंधु घाटी सभ्यता कैसे हो सकता है ?

3.         यदि सिंधु सभ्यता के लोगों के, मेसोपाटामिया के लोगों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध थे तो सिंधु घाटी तथा मेसोपाटिमया का मार्ग, ईरान अथवा उसके आसपास से होकर जाने का रहा होगा जहाँ आर्यों की प्राचीन बस्तियां थीं। ऐसी स्थिति में भी सैंधव लोग, घोड़े अथवा लोहे से परिचित क्यों नहीं हुए ?

4.         यदि आर्यों ने सैंधवों पर आक्रमण किया था, तो इस दौरान उनके घोड़े मरे भी होंगे। युद्ध के अतिरिक्त, बीमारी एवं स्वाभाविक मृत्यु से भी घोड़े मरे होंगे किंतु पूरी सैंधव सभ्यता के क्षेत्र से घोड़ों की केवल दो संदिग्ध मूर्तियां मिली हैं तथा एक घोड़े के अस्थिपंजर मिले हैं। इससे स्पष्ट है कि आर्यों के आने से पहले ही सैंधव सभ्यता नष्ट हो चुकी थी।

5.         यदि आर्यों ने सैंधवों पर आक्रमण किया था तो उनके द्वारा प्रयुक्त लोहे के कुछ हथियार युद्ध के मैदानों अथवा सैंधव बस्तियों में गिरे होंगे अथवा छूट गये होंगे अथवा टूटने के कारण आर्य सैनिकों द्वारा फैंक दिये गये होंगे किंतु सैंधव बस्तियों से लोहे के हथियार नहीं मिले हैं। अतः स्पष्ट है कि आर्यों ने सैंधवों पर आक्रमण नहीं किया।

6.         आर्यों के बारे में कहा जाता है कि वे अपने साथ भारत में लोहा लेकर आये। यदि ऐसा था तो लौह बस्तियां सबसे पहले उत्तर भारत में स्थापित होनी चाहिये थीं किंतु आर्यों के आने के बाद उत्तर भारत में ताम्र-कांस्य कालीन बस्तियां बसीं जबकि उसी काल में दक्षिण भारत में लौह बस्तियां बस रही थीं। यह कैसे हुआ कि भारत में लोहे को लाने वाले आर्यों की बस्तियां उत्तर भारत में बस रही थीं जबकि लौह बस्तियां दक्षिण भारत में बस रही थीं ?

निष्कर्ष

उपरोक्त विवेचन से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि –

1.         सैंधव सभ्यता को सिंधु-सरस्वती सभ्यता अथवा सरस्वती सभ्यता कहा जाना चाहिये।

2.         सैंधव सभ्यता, आर्य सभ्यता से प्राचीन होने के कारण भले ही लोहे एवं घोड़े से अपिरिचित रही हो किंतु वह लोहे के हथियारों से सुसज्जित एवं घोड़ों पर बैठकर आने वाले आर्यों के आक्रमण में नष्ट नहीं हुई।

3.         चूंकि यूरोपीय इतिहासकारों को यह सिद्धांत प्रतिपादित करना था कि ब्रिटेनवासियों की तरह आर्य भी भारत में बाहर से आये हैं, इसलिये उन्होंने सैंधव सभ्यता को आर्यों के आक्रमण में नष्ट होने का मिथक गढ़ा।

4.         सुदूर संवेदी उपग्रहों द्वारा उपलब्ध कराये गये सिंधु तथा सरस्वती नदी के प्राचीन मार्गों के चित्र बताते हैं कि सरस्वती नदी द्वारा कई बार मार्ग बदला गया। इससे अनुमान होता है कि इसी कारण सिंधु सभ्यता की बस्तियां भी अपने प्राचीन स्थानों से हटकर दूसरे स्थानों को चली गई होंगी।

अध्याय – 10 जनपद राज्य और प्रथम मगधीय साम्राज्य

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जनपद राज्यों का उदय

वैदिक आर्यों ने जन अर्थात् कबीलों की स्थापना की थी। जन का आकार बढ़ने एवं नगरीय जीवन का प्रादुर्भाव होने से, बड़े राज्यों अर्थात् जनपदों का उदय हुआ। धीरे-धीरे लोगों की निष्ठा जन अथवा अपने कबीले के प्रति नहीं रहकर उस जनपद के प्रति हो गई जिसमें वे बसे हुए थे। एक जनपद पर एक राजा का शासन होता था।

महाजनपद

छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में जनपदों का आकार और बढ़ा तथा महाजनपदों की स्थापना हुई। अधिकतर महाजनपद विंध्य के उत्तर में स्थित थे और भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा से लेकर पूर्व में बिहार तक फैले हुए थे। इनमें मगध, कोसल, वत्स और अवन्ति काफी शक्तिशाली राज्य थे। सबसे पूर्व की ओर अंग जनपद था जो बाद में मगध में समाहित हो गया।

महात्मा बुद्ध के जीवन काल (563 ई.पू. से 483 ई.पू.) में भारत में 16 महाजनपद थे। इनके नाम इस प्रकार से हैं- (1) अंग, (2) मगध, (3) काशी, (4) कोसल, (5) वज्जि, (6) मल्ल, (7) चेदि, (8) वत्स, (9) कुरु, (10) पांचाल, (11) मत्स्य, (12) सूरसेन, (13) अश्मक, (14) अवन्ति, (15) गान्धार, (16) काम्बोज। महाजनपदों का थोड़ा-बहुत इतिहास पुराणों में यत्र-तत्र मिलता है किंतु वह श्ृंखलाबद्ध नहीं है। पुराणों में मिलने वाली बहुत सी सूचनाएं विरोधाभासी हैं। महाजनपदों के साथ-साथ अनेक छोटे-छोटे स्वतंत्र एवं अर्द्धस्वतंत्र राज्य एवं गणराज्य भी अस्तित्व में थे जिनमें परस्पर द्वेष होने के कारण प्रायः युद्ध हुआ करते थे। भारत में महाजनपद छठी शताब्दी ई.पू. से लेकर चौथी शताब्दी ई.पू. तक अपना अस्तित्व बनाये रहे।

(1) अंग: यह राज्य मगध के पश्चिम में था। मगध और अंग के बीच में चम्पा नदी बहती थी। अंग की राजधानी चम्पा भी चम्पा नदी के तट पर स्थित थी। बुद्ध कालीन छः बड़े नगरों में चम्पा की गणना की जाती थी। पहले राजगृह भी अंग राज्य का ही हिस्सा था किंतु बाद में अंग राज्य, मगध में मिल गया।

(2) मगध: मगध राज्य में आधुनिक पटना तथा गया जिले और शाहाबाद जिले के कुछ भाग सम्मिलित थे। यह अपने समय का सबसे प्रमुख राज्य था। बुद्ध से पूर्व, बृहद्रथ तथा जरासंध इस राज्य के प्रसिद्ध राजा हुए। प्रारंभ में मगध की राजधानी गिरिब्रज थी किंतु बाद में पाटलिपुत्र हो गई।

(3) काशी: वैशाली के पश्चिम में काशी जनपद था जिसकी राजधानी वाराणसी थी। राजघाट में की गई खुदाई से पता चलता है कि यह बस्ती 700 ई.पू. के आसपास बसनी आरम्भ हुई। ईसा पूर्व छठी सदी में इस नगरी को मिट्टी की दीवार से घेरा गया था। अनुमान होता है कि आरम्भ में काशी सबसे शक्तिशाली राज्य था परन्तु बाद में इसने कोसल की शक्ति के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया।

(4) कोसल: कोसल जनपद के अंतर्गत पूर्वी उत्तर प्रदेश का समावेश होता था। इसकी राजधानी श्रावस्ती थी। इसे उत्तर-प्रदेश के गोंडा और बहराइच जिलों की सीमा पर स्थित सहेठ-महेठ स्थान के रूप में पहचाना गया है। खुदाई से जानकारी मिली है कि ईसा पूर्व छठी सदी में यहाँ कोई बड़ी बस्ती नहीं थी। कोसल में एक महत्त्वपूर्ण नगरी अयोध्या भी थी, जिसका सम्बन्ध रामकथा से जोड़ा जाता है किंतु इस स्थान पर अब तक हुए उत्खनन में, ईसा पूर्व छठी सदी की किसी भी बस्ती का पता नहीं चलता है। कोसल में शाक्यों का कपिलवस्तु गणराज्य भी सम्मिलित था। यहीं बुद्ध पैदा हुए थे। राजधानी कपिलवस्तु की खोज, बस्ती जिले के पिपरहवां स्थान पर हुई है। उनकी दूसरी राजधानी पिपरहवा से 15 किलोमीटर दूर नेपाल में लुम्बिनी स्थान पर थी।

(5) वज्जि संघ: गंगा के उत्तर में तिरहुत संभाग में वज्जियों का राज्य था। वह आठ जनों का संघ था। इनमें लिच्छवि सर्वाधिक शक्तिशाली थे। इनकी राजधानी वैशाली थी। वैशाली को आधुनिक वैशाली जिले के बसाढ़ गांव के रूप में पहचाना जाता है। पुराण, वैशाली को अधिक प्राचीन नगरी घोषित करते हैं परन्तु पुरातात्त्विक साक्ष्यों के अनुसार बसाढ़ की स्थापना ईसा पूर्व छठी शताब्दी के पहले नहीं हुई थी।

(6) मल्ल: कोसल के पड़ोस में मल्लों का गणराज्य था, इसकी सीमा वज्जी राज्य की उत्तरी सीमा से जुड़ी हुई थी। मल्लों की एक राजधानी कुसीनारा में थी जहाँ बुद्ध का निधन हुआ था। कुसीनारा की पहचान देवरिया जिले के कसियां स्थान से की गई है। मल्लों की दूसरी राजधानी पावा में थी।

(7) चेदि: आधुनिक बुंदेलखण्ड तथा उसका सीमपवर्ती प्रदेश इसके अंतर्गत था। इसकी राजधानी शक्तिमती थी। जातकों में वर्णित सोत्थवती यही नगरी थी। चेदि राज्य का महाभारत में भी उल्लेख है। शिशुपाल यहीं का राजा था जिसका भगवान श्रीकृष्ण ने शिरोच्छेदन किया था।

(8) वत्स: पश्चिम की ओर, यमुना के तट पर, वत्स जनपद था जिसकी राजधानी कौशाम्बी थी। वत्स लोग वही कुरुजन थे जो हस्तिनापुर छोड़कर प्रयाग के समीप कोशाम्बी में आकर बसे थे। कौशाम्बी को इसलिए पसंद किया गया क्योंकि यह स्थल गंगा-यमुना के संगम के निकट था। उत्खननों से ज्ञात हुआ है कि ईसा पूर्व छठी सदी में राजधानी कौशाम्बी की मजबूत किलेबन्दी की गई थी।

(9) कुरु: वर्तमान दिल्ली तथा मेरठ के समीपवर्ती प्रदेश कुरुराज्य के अंतर्गत थे। इसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ थी। महमूतसोम जातक के अनुसार इस राज्य में तीन सौ संघ थे। पाली ग्रंथों के अनुसार यहाँ के शासक युधिष्ठिता गोत्र के थे। हस्तिनीपुर नामक एक अन्य प्रमुख नगर भी इसी राज्य में था। संभवतः महाभारत कालीन हस्तिनापुर ही अब हस्तिनीपुर कहलाने लगा था। जैनों के उत्तराध्ययन सूत्र में इक्ष्वाकु नामक राजा का नाम मिलता है जो कुरु प्रदेश का राजा था। इस राज्य में पहले राजतंत्रात्मक शासन था किंतु बाद में यहां गणतंत्र की स्थापना हो गई।

(10) पांचाल: वर्तमान रुहेलखण्ड तथा उसके समीप के जिले पांचाल प्रदेश में आते थे। यह दो भागों में विभक्त था। इनमें से उत्तर-पांचाल की राजधानी अहिच्छत्र थी तथा दक्षिण-पांचाल की राजधानी काम्पिल्य थी।

(11) मत्स्य: इसकी राजधानी विराट नगर थी। यह यमुना के पश्चिम में तथा कुरु देश के दक्षिण में स्थित था। पहले तो चेदि राज्य ने मत्स्य राज्य पर अपना अधिकार जमाया, उसके बाद मगध ने मत्स्य राज्य को अपने अधीन कर लिया।

(12) सूरसेन: सूरसेन राज्य यमुना के किनारे था। मथुरा इसकी राजधानी थी। बुद्ध के समय अवन्तिपुत्र मथुरा का राजा था। यहां पहले गणतंत्र राज्य था किंतु बाद में इसमें राजतंत्र की स्थापना हुई। मेगस्थनीज के समय तक सूरसेन वंश के राजा शांति से शासन करते थे।

(13) अश्मक: दक्षिण भारत की प्रमुख नदी गोदावरी के तट पर अश्मक राज्य स्थित था। यह भारत का प्रमुख राज्य था तथा पोतन इसकी राजधानी थी। पुराणों के अनुसार इस राज्य के राजा इक्ष्वाकु वंश के थे। एक जातक के अनुसार किसी समय यह राज्य काशी के निकट था।

(14) अवन्ति: मध्य मालवा और मध्य प्रदेश के सीमावर्ती नगरों में अवन्ति राज्य स्थित था। इस राज्य के दो भाग थे, उत्तरी भाग की राजधानी उज्जैन में थी और दक्षिण भाग की महिष्मती में। उत्खननों से जानकारी मिली है कि ईसा पूर्व छठी सदी से ये दोनों नगर महत्त्व प्राप्त करते गए। अंततोगत्वा उज्जैन ने महिष्मती को पछाड़ दिया। उज्जैन में बड़े पैमाने पर लौहकर्म का विकास हुआ और इसकी मजबूत किलेबन्दी की गई।

(15) गांधार: गांधार राज्य में तक्षशिला, काश्मीर तथा पश्चिमोत्तर प्रदेश सम्मिलित थे। कुंभकार जातक के अनुसार तक्षशिला इसकी राजधानी थी। बुद्ध के समय पुमकुसाती गांधार का राजा था।

(16) काम्बोज: यह गांधार के पड़ौस में स्थित था। हाटक इसकी राजधानी थी। कुछ समय पश्चात् यहां भी गणतंत्र की स्थापना हुई।

ब्राह्मण धर्म के प्रति क्षत्रियों का विद्रोह

महाजनपद काल में क्षत्रियों का ब्राह्मण धर्म के प्रति विद्रोह हुआ। इस विद्रोह के चलते बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ। इन धर्मों की स्थापना करने वाले क्षत्रिय राजकुमार थे। इन धर्मों की स्थापना के फलस्वरूप भारत में वैदिक चिंतन से अलग, नये रूपों में धार्मिक चिंतन की परम्पराएं आरम्भ हुईं। बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म के उत्थान का इतिहास अन्य पुस्तक में यथा-स्थान लिखा गया है।

मगध साम्राज्य की स्थापना और विस्तार

ईसा पूर्व छठी सदी के आगे का भारत का राजनीतिक इतिहास जनपद राज्यों में प्रभुता के लिए हुए संघर्ष का इतिहास है। मगध राज्य ने इस संघर्ष में प्रमुख भूमिका निभाई। अंततः मगध राज्य ने कई जनपदों को परास्त कर अपने भीतर मिला लिया तथा वह भारत का सबसे शक्तिशाली राज्य बन गया। इस प्रकार मगध साम्राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हो गया।

हर्यक वंश

इतिहासकारों के अनुसार हर्यक वंश के राजा बिम्बिसार ने मगध साम्राज्य की स्थापना की। इस वंश के तीन प्रमुख राजाओं- बिम्बिसार, अजातशत्रु तथा उदायिन् के पश्चात् कुछ निर्बल शासकों ने भी मगध पर शासन किया।

बिम्बिसार: बिम्बिसार के शासनकाल में मगध ने पर्याप्त उन्नति की। वह महात्मा बुद्ध का समकालीन था। उसके द्वारा विजय और विस्तार की नीति आरम्भ की गई। बिम्बिसार ने अंग देश पर अधिकार कर लिया और अंग देश का शासन अपने पुत्र अजातशत्रु को सौंप दिया। बिम्बिसार ने वैवाहिक सम्बन्धों से भी अपनी स्थिति को मजबूत बनाया। उसने तीन विवाह किए। उसकी प्रथम पत्नी कोसल के राजा की पुत्री और प्रसेनजित की बहन थी। कोसलदेवी के साथ दहेज के रूप में प्राप्त काशी ग्राम से उसे एक लाख रुपये की आय होती थी। इससे पता चलता है कि उस काल में राजस्व, मुद्राओं में वसूल किया जाता था। इस विवाह से कोसल के साथ उसकी शत्रुता समाप्त हो गई और दूसरे राज्यों से निबटने के लिए उसे छुट्टी मिल गई। उसकी दूसरी पत्नी वैशाली की लिच्छवि राजकुमारी चल्हना थी और तीसरी रानी पंजाब के मद्रकुल के मुखिया की पुत्री थी। विभिन्न राजकुलांे से वैवाहिक सम्बन्धों के कारण बिम्बिसार को अत्यधिक राजनीतिक प्रतिष्ठा मिली। इससे मगध राज्य के पश्चिम और उत्तर की ओर विस्तार का मार्ग प्रशस्त हुआ।

मगध की असली शत्रुता अवन्ति से थी। उस समय चण्डप्रद्योत महासेन अवन्ति का राजा था। मगध के राजा बिम्बिसार ने उस पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध का संभवतः कोई परिणाम नहीं निकला इस पर दोनों राजाओं ने मित्र बन जाना ही उपयुक्त समझा। बाद में चण्डप्रद्योत जब पीलिया से पीड़ित हुआ तो बिम्बिसार ने अपने राजवैद्य जीवक को उज्जैन भेजा। चण्डप्रद्योत को गांधार के राजा के साथ हुए युद्ध में भी विजय नहीं मिली किन्तु गांधारराज ने बिम्बिसार के पास एक पत्र और दूत-मंडली भेजकर उससे मित्रता कर ली। इस प्रकार विजय और कूटनीति से बिम्बिसार ने मगध को ईसा पूर्व छठी सदी में सर्वशक्तिमान राज्य बना दिया। उसके राज्य में 80,000 गांव थे।

मगध की आरंभिक राजधानी राजगीर में थी, उस समय इसे गिरिव्रज कहते थे। यह स्थल पांच पहाड़ियों से घिरा हुआ था और इनके खुले भागों को पत्थरों की दीवारों से चारों ओर से घेर दिया गया था। इन पहाड़ियों ने राजगीर को अजेय बना दिया। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार बिम्बिसार ने 544 ई.पू. से 492 ई.पू. तक (लगभग बावन साल) शासन किया।

अजातशत्रु: बिम्बिसार के बाद उसका पुत्र अजातशत्रु (492 ई.पू. से 460 ई.पू.) मगध के सिंहासन पर बैठा। उसने अपने पिता बिम्बिसार की हत्या करके सिंहासन पर अधिकार किया। उसके शासनकाल में मगध के राजकुल का वैभव अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया। उसने दो लड़ाइयाँ लड़ीं और तीसरी के लिए तैयारियां कीं। उसने विस्तार की आक्रामक नीति से काम लिया। उसकी इस नीति का काशी और कोसल ने मिलकर प्रतिरोध किया। मगध ओर कोसल के बीच लंबे समय तक संघर्ष जारी रहा। अंत में अजातशत्रु की विजय हुई। कोसल नरेश को अजातशत्रु के साथ अपनी पुत्री का विवाह करने और अपने जामाता को काशी सौंपकर समझौता करने के लिए विवश होना पड़ा।

अजातशत्रु ने वैवाहिक सम्बन्धों का कोई लिहाज नहीं रखा। यद्यपि उसकी माँ लिच्छवि राजकुमारी थी तथापि उसने वैशाली पर आक्रमण किया। बहाना यह ढूंढा गया कि लिच्छवि कोसल के मित्र हैं। उसने लिच्छवियों में फूट डालने के लिए षड्यंत्र रचा, और अंत में उन पर आक्रमण करके उनके स्वातंत्र्य को नष्ट कर दिया। वैशाली को नष्ट करने में उसे सोलह साल का लंबा समय लगा। अंत में उसे इसलिए सफलता मिली क्योंकि उसने पत्थरों को फेंक सकने वाले प्रस्तर-प्रक्षेपक जैसे एक युद्ध-यंत्र का उपयोग किया। उसके पास एक ऐसा रथ था, जिसमें गदा जैसा हथियार जुड़ा हुआ था। इससे युद्ध में लोगों को बड़ी संख्या में मारा जा सकता था। काशी और वैशाली को मिला लेने के बाद मगध साम्राज्य का और अधिक विस्तार हुआ। अजातशत्रु की तुलना में अवन्ति का शासक अधिक शक्तिशाली था। अवन्तों ने कौशाम्बी के वत्सों को हराया था और अब वे मगध पर आक्रमण करने की धमकी दे रहे थे। इस खतरे का सामना करने के लिए अजातशत्रु ने राजगीर की किलेबन्दी की, इन दीवारों के अवशेष आज भी देखने को मिलते हैं परन्तु अजातशत्रु के जीवनकाल में अवन्ति को मगध पर आक्रमण करने का अवसर नहीं मिला।

उदायिन्: अजातशत्रु के बाद उदायिन् (460-444 ई.पू.) मगध की गद्दी पर बैठा। उसने पटना में गंगा और सोन के संगम पर एक दुर्ग बनवाया। पटना, मगध साम्राज्य के केन्द्र में स्थित था। मगध का साम्राज्य अब उत्तर हिमालय से लेकर दक्षिण में छोटा नागपुर की पहाड़ियों तक फैला हुआ था। पटना की स्थिति, सामरिक दृष्टि से बड़े महत्त्व की थी।

शिशुनाग वंश

मगध के राज्याधिकारियों द्वारा हर्यक वंश के अंतिम शासक नागदासक को सिंहासन से उतार कर बनारस के प्रांतपति शिशुनाग को मगध का शासक बनाया गया। उसने 18 वर्ष तक मगध पर शासन किया। उसका वंश शिशुनाग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अवन्ति की शक्ति को तोड़ देना शिशुनाग की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। इसके बाद से अवन्ति राज्य, मगध साम्राज्य का भाग बन गया और मौर्य साम्राज्य के अंत समय तक बना रहा। शिशुनाग के बाद कालाशोक अथवा काकवर्ण मगध का राजा हुआ। उसने 28 वर्ष शासन किया। कालाशोक के शासन के 10वें वर्ष में दूसरी बौद्ध संगीति हुई। कालाशोक की हत्या गले में छुरा मारकर की गई। उसके बाद उसके 10 पुत्रों ने एक-एक करके कुल 22 वर्ष तक मगध पर शासन किया। शिशुनाग राजा अपनी राजधानी को कुछ समय के लिए वैशाली ले गए।

नंद वंश

शिशुनागों के बाद नन्दों का शासन आरम्भ हुआ। इस वंश का संस्थापक महापद्म था जिसके बारे में इतिहासकारों की धारणा है कि वह शूद्र माता के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। जैन ग्रंथ परिशिष्टपर्वन् के अनुसार वह नापित पिता तथा वेश्या माता के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। माना जाता है कि उसने शिशुनागवंश के अंतिम राजा की धोखे से हत्या करके मगध के शासन पर अधिकार जमा लिया। कर्टिअस आदि इतिहासकारों के अनुसार महापद्म नंद ने कालाशोक की ही हत्या की थी तथा कालाशोक के दस पुत्रों ने महापद्म नंद के संरक्षण में 22 वर्ष तक शासन किया। बाद में महापद्मनंद ने मगध का शासन हथिया लिया। महाबोधि वंश में महापद्मनंद का नाम उग्रसेन भी मिलता है। महापद्मनंद ने 28 साल तक शासन किया। उसके बाद उसके 8 पुत्रों ने 12 वर्ष तक शासन किया।

नंद मगध के सबसे शक्तिशाली शासक सिद्ध हुए। इनका शासन इतना शक्तिशाली था कि सिकंदर ने, जो उस समय पंजाब पर आक्रमण कर चुका था, पूर्व की ओर आगे बढ़ने का साहस नहीं किया। नन्दों ने कलिंग को जीतकर मगध की शक्ति को बढ़ाया, विजय के स्मारक रूप में वे कलिंग से जिन की मूर्ति उठा लाए थे। ये समस्त घटनाएं महापड्ड नन्द के शासन काल में घटित हुईं। उसने अपने को एकराट् कहा है। अनुमान होता है कि उसने न केवल कलिंग पर अधिकार किया, अपितु उसके विरुद्ध विद्रोह करने वाले कोसल को भी हथिया लिया।

नन्द शासक अत्यंत धनी और बड़े शक्तिशाली थे। उनकी सेवा में 2,00,000 पदाति, 60,000 घुड़सवार और 6,000 हाथी थे। इतनी विशाल सेना का रख-रखाव एक अच्छी और प्रभावी कराधान प्रणाली से ही सम्भव है। परवर्ती नन्द शासक दुर्बल और अप्रिय सिद्ध हुए।

मगध की सफलता के कारण

मौर्यों के उत्थान के पहले की दो सदियों में मगध साम्राज्य के रूप में भारत में सबसे बड़े राज्य की स्थापना बिम्बिसार, अजातशत्रु और महापड्ड नन्द जैसे कई साहसी और महत्त्वाकांक्षी शासकों के प्रयासों से हुई। उन्होंने अपने राज्यों का निरंतर विस्तार किया और उसे सशक्त बनाया परन्तु मगध के विस्तार का यही एक कारण नहीं था। कुछ दूसरे महत्त्वपूर्ण कारण भी थे। लोहे के समृद्ध भण्डार मगध की आरंभिक राजधानी राजगीर के निकट स्थित थे। इस कारण मगध के शासक अपनी सेना के लिये लिए प्रभावी हथियार बनवा सके। उनके शत्रु सरलता से ऐसे हथियार प्राप्त नहीं कर सकते थे। लोहे की खानें पूर्वी मध्यप्रदेश में भी मिलती हैं, जो उज्जैन के अवन्ति राज्य से अधिक दूर नहीं थी। 500 ई.पू. के आसपास उज्जैन में निश्चय ही लोहे को गलाने और तपाकर ढालने का भी काम होता था। वहाँ के लौहार अच्छी किस्म के हथियार तैयार करते थे। यही कारण है कि उत्तर भारत की प्रभुता के लिए अवन्ति और मगध के बीच कड़ा संघर्ष हुआ। उज्जैन पर अधिकार करने में मगध को लगभग सौ साल का समय लगा।

मगध के लिए कुछ और भी अनुकूल परिस्थितियाँ थी। मगध की दोनों राजधानियाँ- पहली राजगीर और दूसरी पाटलिपुत्र, सामरिक दृष्टि से अत्यंत सुरक्षित स्थानों पर थीं। राजगीर पांच पहाड़ियों के एक समूह से घिरा होने के कारण दुर्भेद्य थी। तोपों का आविष्कार बहुत बाद में हुआ। उन दिनों राजगीर जैसे दुर्ग को तोड़ना सरल काम नहीं था। ईसा पूर्व पांचवीं सदी में मगध के शासक अपनी राजधानी पाटलिपुत्र ले गए। केन्द्र भाग में स्थित इस स्थल के साथ समस्त दिशाओं से संचार-सम्बन्ध स्थापित किए जा सकते थे। पाटलिपुत्र गंगा, गंडक और सोन नदियों के संगम पर स्थित था। पाटलिपुत्र से थोड़ी दूरी पर सरयू नदी भी गंगा से मिलती थी। पूर्व-औद्योगिक दिनों में, जब संचार में बड़ी कठिनाइयाँ थीं, नदी मार्गों का अनुसरण करते हुए सेना उत्तर, पश्चिम, दक्षिण, और पूर्व की ओर आगे बढ़ती थी। इसके अतिरिक्त लगभग चारों ओर से नदियों द्वारा घिरे होने के कारण पटना की स्थिति भी अभेड्ड बन गई थी। सोन और गंगा इसे उत्तर तथा पश्चिम की ओर से घेरे हुए थीं, तो पुनपुन इसे दक्षिण और पूर्व की ओर से घेरे हुए थी। इस प्रकार, पाटलिपुत्र सही अर्थों में एक जलदुर्ग था। उन दिनों इस नगर पर अधिकार करना सरल नहीं था।

मगध राज्य मध्य गंगा के मैदान में स्थित था। इस अत्यधिक उपजाऊ प्रदेश से जंगल साफ हो चुके थे। भारी वर्षा होती थी, इसलिए सिंचाई के बिना भी इलाके को उत्पादक बनाया जा सकता था। प्राचीन बौद्ध ग्रंथों के उल्लेखों के अनुसार इस प्रदेश में कई प्रकार के चावल पैदा होते थे। प्रयाग के पश्चिम की ओर के प्रदेश की अपेक्षा यह प्रदेश कहीं अधिक उपजाऊ था। परिणामतः यहाँ के किसान काफी अतिरिक्त अनाज पैदा करते थे जिसे शासक अपनी सेना के लिये एकत्रित कर लेते थे।

मगध के शासकों ने नगरों के उत्थान और मुद्राचलन से भी लाभ उठाया। उत्तर-पूर्वी भारत में व्यापार-वणिज्य की वृद्धि के कारण शासक पण्य-वस्तुओं पर मार्ग-कर लगा सकते थे और इस प्रकार अपनी सेना के खर्च के लिए धन एकत्र कर सकते थे। सैनिक संगठन के मामले में मगध को एक विशेष सुविधा प्राप्त थी। भारतीय राज्य घोड़े और रथ के उपयोग से भलीभांति परिचित थे किंतु मगध ही पहला राज्य था जिसने अपने पड़ोसियों के विरुद्ध हाथियों का बड़े पैमाने पर उपयोग किया। देश के पूर्वी भाग से मगध के शासकों के पास हाथी पहुंचते थे। यूनानी स्रोतों से जानकारी मिलती है कि नन्दों की सेना में 6000 हाथी थे। दुर्र्गों को भेदने, सड़कों तथा यातायात की दूसरी सुविधाओं से रहित प्रदेशों और कच्छी क्षेत्रों में हाथियों का उपयोग किया जा सकता था। इन्हीं सब कारणों से मगध को दूसरे राज्यों को हराने और भारत में प्रथम साम्राज्य स्थापित करने में सफलता मिली।

अध्याय -11 : पश्चिमी जगत से भारत का सम्पर्क

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उत्तर-पूर्व भारत के छोटे रजवाड़ों और गणराज्यों का विलयन धीरे-धीरे मगध साम्राज्य में हो गया परन्तु उत्तर-पश्चिम भारत की स्थिति ईसा पूर्व छठी शताब्दी के पूर्वार्र्द्ध के दौरान भिन्न थी। कम्बोज, गांधार और मद्र आदि अनेक छोटे-छोटे राज्य परस्पर संघर्षरत रहते थे। इस क्षेत्र में मगध जैसा कोई शक्तिशाली साम्राज्य नहीं था जो इन परस्पर संघर्षरत राज्यों को एक संगठित साम्राज्य के अधीन कर सके। यह क्षेत्र पर्याप्त समृद्ध था तथा हिन्दुकुश के दर्रों से इस क्षेत्र में बाहर से सरलता से घुसा जा सकता था।

ईरानी राजाओं का भारत पर अधिकार

530 ई.पू. से कुछ पहले, ईरान के हखामनी सम्राट साइरस ने हिन्दुकुश पर्वत को पार करके काम्बोज तथा गांधार को अपने अधीन किया। ईरानी शासक दारयवह (देरियस) प्रथम 516 ई.पू. में उत्तर-पश्चिम भारत में घुस गया। उसने पंजाब, सिन्धु नदी के पश्चिमी क्षेत्र और सिन्धु को जीत कर अपने साम्राज्य में मिला लिया। हखमानी अभिलेखों में गांधार और हिंदुश (सिंधु) का उल्लेख क्षत्रपियों (प्रांतों) के रूप में हुआ है। हेरोडोटस ने लिखा है कि गांधार हखामनी साम्राज्य का बीसवां क्षत्रपी था। फारस साम्राज्य में कुल अट्ठाईस क्षत्रपी थे। भारतीय क्षत्रपी में सिन्ध, उत्तर-पश्चिम सीमावर्ती इलाका तथा पंजाब का सिन्धु नदी के पश्चिम वाला हिस्सा सम्मिलित था। यह क्षेत्र फारस साम्राज्य का सर्वाधिक जनसंख्या वाला तथा उपजाऊ हिस्सा था। यह क्षेत्र 360 टैलण्ट (मुद्रा तथा भार का एक प्राचीन माप) सोना भेंट देता था, जो फारस के समस्त एशियायी प्रांतों से मिलने वाले मूल राजस्व का एक तिहाई था। पांचवी शताब्दी ई.पू. में फारसी सेना को यूनानियों के विरुद्ध सैनिकों की आवश्यकता होती थी जिसकी पूर्ति गांधार से की जाती थी। दायबहु के उत्तराधिकारी क्षयार्ष (जरसिस) ने यूनानियों के खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़ने के लिये भारतीयों को अपनी सेना में सम्मिलित किया। भारत पर सिकन्दर के आक्रमण तक उत्तर-पश्चिम भारत के हिस्से ईरानी साम्राज्य का अंग बने रहे।

ईरानी सम्पर्क के परिणाम

भारत और ईरान का यह सम्पर्क लगभग 200 सालों तक बना रहा। इसने भारत और ईरान के बीच व्यापार को बढ़ावा दिया। इस सम्पर्क के सांस्कृतिक परिणाम और भी महत्त्वपूर्ण थे। ईरानी लेखक (कातिब) भारत में लेखन का एक विशेष रूप ले आये थे जो आगे चलकर खरोष्ठी लिपि के नाम से विख्यात हुआ। यह लिपि अरबी की तरह दायीं से बायीं ओर लिखी जाती थी। ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में उत्तर-पश्चिमी भारत में अशोक के कुछ अभिलेख इसी लिपि में लिखे गए। यह लिपि तीसरी शताब्दी ईस्वी तक देश में प्रयोग की जाती रही। उत्तर-पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र में ईरानी सिक्के भी मिलते हैं जिनसे ईरान के साथ व्यापार होने का संकेत मिलता है।  मौर्य वास्तुकला पर ईरानी प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ता है। अशोक कालीन स्मारक, विशेषकर घंटी के आकार के शीर्ष, कुछ सीमा तक ईरानी प्रतिरूपों पर आधारित थे। अशोक की राजाज्ञाओं की प्रस्तावना और उनमें प्रयोग किए गए शब्दों में भी ईरानी प्रभाव देखा जा सकता है। उदारहण के लिए फारसी शब्द- दिपि के लिए अशोक कालीन लेखकों ने शब्द- लिपि का प्रयोग किया। ईरानियों के माध्यम से ही यूनानियों को भारत की महान् सम्पदा के बारे ज्ञात हुआ। इस जानकारी से भारतीय सम्पदा के लिए उनका लालच बढ़ गया और अन्ततोगत्वा भारत पर सिकंदर ने आक्रमण कर दिया।

सिकंदर का भारत पर आक्रमण

चौथी शताब्दी ई.पू. में विश्व पर आधिपत्य को लेकर यूनानियों और ईरानियों के बीच संघर्ष हुए। मकदूनिया (मेसीडोनिया) वासी सिकंदर के नेतृत्व में यूनानियों ने ईरानी साम्राज्य को नष्ट कर दिया। सिकंदर ने न सिर्फ एशिया माइनर (तुर्की) और ईराक को अपितु ईरान को भी जीत लिया। ईरान पर विजय प्राप्त करने के बाद सिकन्दर काबुल की ओर बढ़ा, जहाँ से 325 ई.पू. में खैबर दर्रा पार करते हुए वह भारत पहुंचा। सिंधु नदी तक पहुँचने में उसे पांच महीने लगे। स्पष्टतः वह भारत के महान् वैभव से आकर्षित था। हेरोडोटस जिसे इतिहास का पिता कहा जाता है तथा अन्य यूनानी लेखकों ने भारत का वर्णन अपार वैभव वाले देश के रूप में किया था। इस वर्णन को पढ़कर सिकन्दर भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित हुआ। सिकन्दर में भौगोलिक अन्वेषण और प्राकृतिक इतिहास के लिए तीव्र ललक थी। उसने सुन रखा था कि भारत की पूर्वी सीमा पर कैस्पियन सागर ही फैला हुआ है। वह विगत विजेताओं की शानदार उपलब्धियों से भी प्रभावित था। वह उनका अनुकरण कर उनसे भी आगे निकल जाना चाहता था। उत्तर-पश्चिमी भारत की राजनीतिक स्थिति उसकी योजना के लिए उपयुक्त थी। यह क्षेत्र अनेक स्वतंत्र राजतंत्रों और कबीलाई गण-राज्यों में बंटा हुआ था, जो अपनी भूमि से घनिष्ठ रूप से बंधे हुए थे और जिन रजवाड़ों पर उनका शासन था उनसे उन्हें बड़ा गहरा प्रेम था।

सिकंदर के आक्रमण के समय पश्चिमोत्तर भारत में निम्नलिखित राज्य थे-

अस्पेसियन: यह जाति अबिसंग, कुनार और वजौर नदियों की घाटियों में रहती थी। भारत में इन्हें अश्वक कहते थे।

गरेइअन: यह जाति पंजकौर नदी की घाटी में रहती थी।

अस्सेकेनोज: यह सिंधु नदी के पश्चिम में थी। कुछ विद्वानों ने इसे अश्वक कहा है। मस्सग इनकी राजधानी थी।

नीसा: यह राज्य काबुल नदी और सिंधु नदी के बीच स्थित था।

प्यूकेलाटिस: इसका समीकरण पुष्करावती से किया जाता है। जो पश्चिमी गांधार की राजधानी थी।

तक्षशिला: यह राज्य सिंधु और झेलम नदियों के बीच स्थित था।

असकेज: यह उरशा राज्य था। इसके अंतर्गत आधुनिक हजारा आता है।

अभिसार: इसके अंतर्गत काश्मीर का पश्चिमोत्तर भाग सम्मिलित था।

पुरु राज्य: यह झेलम और चिनाब नदियों के बीच स्थित था। यहां के राजा को यूनानियों ने पोरस कहा है।

ग्लौगनिकाई: इस जाति का राज्य चेनाब नदी के पश्चिम में था।

गैण्डरिस: यह राज्य चेनाब और राबी नदियों के बीच में स्थित था।

अड्रेस्टाई: यह रावी नदी के पूर्व में था।

कठ: यह झेलम और चेनाव के बीच में अथवा रावी और चेनाव के बीच में स्थित था।

सौभूमि राज्य: यह झेलम के तट पर था।

फगलस: यह रावी और व्यास के बीच में था। इसका समीकरण भगल से किया गया है।

सिबोई: यह शिवि जाति थी। यह झेलम और चेनाब के बीच रहती थी।

क्षुद्रक: यह जाति झेलम और चेनाब के संगम के नीचे की भूमि में रहती थी।

मालव: यह रावी के निचले भाग के दाहिनी ओर रहती थी।

अम्बष्ठ: यह मालवों की पड़ौसी जाति थी।

जैथ्राइ: इसका समीकरण क्षत्रि से किया गया है। यह चेनाव और रावी के बीच में रहती थी।

ओस्सेडिआइ: यह वसाति जाति थी जो चिनाव और सिंधु नदियों के बीच में रहती थी।

मौसिकेनोज: यह मूषिक जाति थी जो आधुनिक सिंध में बसी थी।

पैटलीन: यह नगर सिंधु नदी के डेल्टा पर स्थित था।

उपरोक्त राज्यों में से अधिकांश राज्य गणराज्य थे। राजतंत्रात्मक राज्यों में तक्षशिला, अभिसार और पुरु राज्य प्रमुख थे। तक्षशिला तथा पुरु राज्य में अत्यधिक द्वेष भाव था। अभिसार नरेश पुरु का मित्र था। अतः अभिसार नरेश की तक्षशिला के राजा अम्भि से शत्रुता थी। पुरु तथा उसके भतीजे (जो कि उसका पड़ौसी राजा था) में भी अनबन थी। राजतंत्रतात्मक तथा गणतंत्रात्मक राज्यों में भी शत्रुता थी। पुरु और अभिसार नरेशों ने क्षुद्रकों तथा मालव राज्यों से भी शत्रुता कर रखी थी। शाम्ब जाति तथा मूषिक जाति में वैमनस्य था। ऐसी स्थिति में सिकंदर का कार्य सरल हो गया। इस प्रकार सिकंदर ने भारत का प्रवेश द्वार खुला पाया।

327 ई.पू. के बसंत में सिकंदर ने हिन्दुकुश पर्वत को पार कर कोही दामन की शस्य-श्यामला घाटी में प्रवेश किया। बैक्ट्रिया पर आक्रमण करने से पूर्व सिकंदर ने अलेक्जेण्ड्रिया नगर की स्थापना की। यहां से वह निकाई नामक नगर की ओर गया। यहीं पर उसने अपनी सेना का विभाजन किया। पर्डिक्क्स को पर्याप्त सैन्यबल के साथ काबुल नदी की घाटी के द्वारा सिंधु नदी तक सीधे पहुंचने का आदेश मिला। मार्ग में हस्ती को छोड़कर प्रायः समस्त कबीलों के प्रधानों ने आत्म समर्पण कर दिया। पर्डिक्कस को इस कार्य में तक्षशिला नरेश अम्भी से पर्याप्त सहायता मिली। जब सिकंदर निकाई में ही था, उसी समय तक्षशिला नरेश अम्भी ने हाथियों सहित अनेक बहुमूल्य उपहार नतमस्तक होकर सिकंदर को अर्पित किये और बिना किसी संकोच के उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।

दूसरी सेना के साथ सिकंदर ने दुर्गम पार्वतीय पथ का अनुसरण किया। कुनर की विशाल घाटी में स्थित अज्ञात नगर में अज्ञात जाति के लोग रहते थे। उन्होंने सिकंदर का सामना किया तथा एक तीर सिकंदर की बांह में भी लगा। इसके बाद सिकंदर के सेनापति क्रेटरस की सेना ने समस्त नगर वासियों को तलवार के घाट उतार दिया। वहां से चलकर सिकंदर ने अश्वकों पर आक्रमण किया। अश्वक अपनी राजधानी त्याग कर गिरि कंदराओं में जा छिपे। इसके बाद सिकंदर ने बजौर की घाटी में प्रवेश किया। दूसरे मार्ग से भेजे गये सैन्यदल का भी यहीं पर सिकंदर से मिलन हुआ। इसके बाद सिकंदर न्यासा नगर की ओर बढ़ा। यहां भी सिकंदर का विरोध नहीं हुआ। न्यासा के लोगों ने सिकंदर की सेना में भर्ती होने की इच्छा प्रकट की। न्यासा के नेता अकुफिस ने सिकंदर को बताया कि मैं तो स्वयं ही यूनानी राजा डियानिस का रक्तवंशी हूँ। इस कारण सिकंदर मेरा सम्राट है। सिकंदर ने न्यासा के पदाति सैनिकों को अपनी सेना में भर्ती करने से मना कर दिया किंतु उसके तीन सौ अश्वारोही अपनी सेना में भरती कर लिये।

इसके बाद सिकंदर कोहेमूर नामक पर्वत की ओर बढ़ा। गौरी नदी (पंजकौर) अपनी गहराई तथा गति की तीव्रता के कारण सिकंदर का मार्ग रोक कर खड़ी हो गई। बड़ी कठिनाई से सिकंदर इस नदी को पार करके मस्सग पहुंचा। मस्सग नगर उस तरफ का सबसे बड़ा नगर था। मस्सग पर चार दिनों तक घेरा पड़ा रहा। यहां सिकंदर के पैर में तीर लगा। चौथे दिन यूनानियों ने अपने शस्त्रों से मस्सग के राजा को मार गिराया। अपने राजा की मृत्यु के बाद मस्सग के सात सहस्र सैनिकों ने युद्ध क्षेत्र त्याग कर अपने घर जाने का निश्चय किया। सिकंदर ने इन्हें घर लौट जाने की अनुमति दे दी किंतु जब वे सैनिक मस्सग से बाहर निकले तो सिकंदर की सेना ने उनका पीछा करके उन्हें मार डाला। मस्सग की महारानी तथा राजकुमारी को बंदी बना लिया गया।

स्वाात की घाटी का अंतिम युद्ध बजिरा (वीरकोटि) तथा ओरा (उदेग्रम) पर केन्द्रित था। जिस पर अधिकार करके सिकंदर ने सिंधु के पश्चिम पर पूरी तरह अधिकार कर लिया। सिंध के पश्चिम का समस्त भारतीय क्षेत्र निकेनार को देने के बाद सिकंदर पेशावर की घाटी की ओर अग्रसर हुआ। वहां उसे गांधार की राजधानी पुष्कलावती द्वारा अधीनता स्वीकार कर लिये जाने का समाचार मिला।

सिंधु को पार करने से पूर्व सिकंदर को आर्नो पर्वत पर स्थित अस्सकेनोई लोगों से निबटना था। यह स्थान 6600 फुट ऊँची चट्टान पर स्थित था। इसका घेरा 22 मील था। इसकी दक्षिणी सीमा पर सिंधु बहती थी। सिकंदर इस चट्टान को देखकर हताश हो गया किंतु उसके पड़ौस में रहने वाले लोगों ने सिकंदर की अधीनता स्वीकार करके आर्नोस पर सिकंदर का अधिकार करवाना स्वीकार कर लिया। सिकंदर ने आर्नोस पर्वत के निकट मिट्टी का एक विशाल टीला तैयार किया तथा उस पर चढ़कर सेना आर्नोस तक पहुंचने में सफल हो गई। अब आर्नोस वासियों ने सिकंदर से संधि वार्ता चलाई। सिकंदर ने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। जब आर्नोस के लोग संधि करके रात्रिकाल में अपने नगर को लौट रहे थे, तब सिकंदर के सात सौ सैनिकों ने उन पर आक्रमण कर उन्हें मार दिया और नगर में घुसकर आर्नोस पर भी अधिकार कर लिया। सिकंदर ने वहां पर यूनानी देवताओं की पूजा की।

यहां से सिकंदर ने ओहिन्द के तट पर एक माह का विश्राम किया। यहीं पर तक्षशिला के राजा अम्भि ने सिकंदर को 200 रजत मुद्रायें, 3090 बैल, 1000 भेडें, 700 अश्वारोही एवं 30 हाथी उपहार में भेजे। तक्षशिला का सहयोग मिल जाने से सिकंदर के लिये सिंधु नदी पार करना सुगम हो गया। सिंधु को पार करके सिकंदर निर्भय चलता हुआ तक्षशिला के निकट तक आ गया। तक्षशिला के द्वार पर उसने रणभेरी बजाने की आज्ञा दी किंतु अम्भि तो पहले से ही उसके स्वागत के लिये खड़ा हुआ था, वह सैन्य रहित होकर अपने मंत्रियों के साथ सिकंदर के शिविर में पहुंचा और उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। तीन दिन तक सिकंदर तक्षशिला के राजमहल में बैठकर भोग विलास करता रहा।

तक्षशिला से ही सिकंदर ने पोरस के पास संदेश भेजा कि वह सिकंदर से आकर साक्षात्कार करे। इस पर पोरस ने संदेश भिजवाया कि वह सिकंदर से साक्षात्कार अवश्य करेगा किंतु युद्ध के मैदान में। सिकंदर ने फिलिप को तक्षशिला का क्षत्रप बनाया तथा अपनी सेना को आज्ञा दी कि सिंधु नदी का पुल तोड़कर झेलम पर लगाया जाये। इसके बाद वह अम्भि के पांच सहस्र सैनिकों को लेकर झेलम की तरफ चल पड़ा। मार्ग में उसने पोरस के भतीजे स्पिटेसीज को पराजित किया तथा झेलम के तट पर जा पहुंचा। झेलम के पूर्वी तट पर सिकंदर की सेना ने अपना शिविर स्थापित किया तथा तट के दूसरी ओर दूर तक पोरस ने अपनी समस्त सेना को एकत्रित किया।

पौरव की सेना 4 सहस्र अश्वारोही, 300 रथ, 200 हाथी तथा 30 हजार पदाति थी। उसके पुत्र की सेना में 2000 पदाति और 120 रथ थे। इस सेना के अतिरिक्त उसकी काफी सेना पीछे के शिविर में थी। सिकंदर की सेना में 35 हजार सिपाही थे जिनमें अश्वारोहियों की संख्या अधिक थी। उस समय पर्वतों पर हिम पिघलने के कारण नदी उफान पर थी। सिकंदर ने पोरस की सेना को भ्रमित किया कि वह नदी में पानी कम होने पर ही नदी पार करेगा। एक रात जब बहुत वर्षा हो रही थी तब रात्रि में सिकंदर ने अपनी सेना के दो हिस्से किये। एक सेना क्रेटरस के नेतृत्व में नदी के इस ओर पोरस के शिविर के समक्ष खड़ा कर दिया तथा स्वयं 12 हजार सैनिकों को लेकर नदी के किनारे पर स्थित 16 मील दूर चला गया जहां से नदी मुड़ती थी। इससे पोरस की सेना भ्रम में पड़ गई। सिकंदर आराम से 12 हजार सैनिकों को लेकर झेलम के उस पार उतर गया। वर्षा और रात्रि के कारण पोरस के रथ और धनुष सिकंदर के भाला-धारियों के समक्ष कुछ काम न आ सके। भालों की मार से बचने के लिये पोरस ने राजकुमार के नेतृत्व में अपने हाथियों को सिकंदर के सामने बढ़ाया किंतु सिकंदर के अश्वारोही इस स्थििति के लिये पहले से ही तैयार थे। वे हाथियों के सामने से हट गये तथा दोनों ओर से पार्श्व में आकर पोरव की सेना पर टूट पड़े।

पोरस का पुत्र इस युद्ध में मारा गया। जब यह युद्ध चल ही रहा था तब तक क्रेटरस भी नदी पार करके पोरस की सेना पर टूट पड़ा। हाथियों की जो सेना पोरस ने क्रेटरस का मार्ग रोकने के लिये सन्नद्ध की थी, वे हाथी रात्रि में अचानक आक्रमण हुआ देखकर घबरा गये और पीछे मुड़कर भागे तथा पोरस की सेना को रौंद डाला। इस पर पोरस ने युद्ध क्षेत्र छोड़ने का निर्णय किया। सिकंदर ने अम्भि को भेजा कि वह पोरस को सम्मान पूर्वक मेरे पास ले आये। अम्भि को देखते ही हाथी पर बैठे पोरस ने उस पर प्रहार किया। इस पर सिकंदर ने अपने यूनानी दूतों को भेजा। उन्होंने पोरस को सिकंदर का संदेश पढ़कर सुनाया। पोरस ने हाथी से नीचे उतर कर पानी पिया। इसके बाद उसे सिकंदर के समक्ष लाया गया।

जिस साहस और विश्वास के साथ पोरस सिकंदर के समक्ष उपस्थित हुआ, उसे देखकर सिकंदर दंग रह गया। सिकंदर ने पूछा कि आपके साथ किस तरह का व्यवहार किया जाये। इस पर पोरस ने जवाब दिया कि जिस तरह का व्यवहार एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है। सिकंदर ने प्रसन्न होकर उसका राज्य लौटा दिया तथा कुछ अन्य प्रदेश भी उसी को सौंप दिये। यहां पर सिकंदर ने देवों को बलि प्रदान की तथा निकाई एवं बुकेफेला नामक दो नगरों की स्थापना की। उसने क्रेटरस को इस स्थान पर छोड़ दिया ताकि वह यूनानी शासकों के लिये इस स्थान पर एक भव्य दुर्ग का निर्माण कर सके।

चिनाब के तट पर ग्लौचुकायन जाति 37 नगरों में निवास करती थी। सिकंदर ने उन पर आक्रमण करके उन्हें पोरस के अधीन कर दिया। अभिसार के राजा ने अपने भ्राता को उपहारों सहित सिकंदर की सेवा में भेजा किंतु सिकंदर ने निर्देश दिया कि वह स्वयं उपस्थित हो। यहीं पर सिकंदर को संदेश मिला कि अस्सकेनोइ लोगों ने विद्रोह करके वहां के गवर्नर निकेनार को मार डाला। इस पर सिकंदर ने टिरिस्पेज तथा फिलिप को आदेश दिया कि वह विद्रोह का दमन करे। यहां से सिकंदर ने चिनाब को पार किया। यह नदी काफी चौड़ी थी तथा तीव्र गति से बहती थी। इसलिये इस नदी को पार करने में सिकंदर को भयानक हानि उठानी पड़ी। सिकंदर ने कोनोस को इस क्षेत्र में ही छोड़ दिया। उसने राजा पोरस को आदेश दिया कि वह अपने राज्य को जाये तथा वहां से पांच हजार उत्तम अश्वारोही लेकर आये। इसके बाद सिकंदर रावी की ओर बढ़ा। यह भी काफी चौड़ी नदी थी।

रावी को पार करने के बाद अधृष्ट लोगों ने सिकंदर की अधीनता स्वीकार कर ली। इसके बाद सिकंदर की मुठभेड़ कठों से हुई। कठ लोग प्रसिद्ध योद्धा थे। वे अपनी राजधानी संगल की रक्षा करने के लिये अपने मित्रों के साथ सिकंदर का मार्ग रोकने के लिये तैयार खड़े थे। सिकंदर ने संगल को घेर लिया। इसी समय पोरस अपने 5000 सैनिकों के साथ आ पहुंचा। इस पर संगल के नागरिकों ने विचार किया कि वे रात्रि के अंधेरे में झील के रास्ते से जंगलों में भाग जायें। सिकंदर ने रात्रि में भागते हुए नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया तथा नगर पर आक्रमण बोल दिया। इस युद्ध में कठों ने यूनानियों को अच्छी तरह भारतीय तलवार का स्वाद चखाया। कठ तो नष्ट हो गये किंतु यूनानी भी बड़ी संख्या में मारे गये। क्रोध की अग्नि में जलते हुए सिकंदर ने संगल नगरी को जला कर राख कर दिया। मकदूनिया से जो सैनिक अब तक सिकंदर के साथ थे उनमें से अधिकांश संगल में ही मारे गये। इससे मकदूनिया के शेष सिपाहियों का हृदय कांप उठा।

यहां से सिकंदर व्यास नदी के तट पर पहुंचा। इस नदी के उस पार नंदों का विशाल साम्राज्य स्थित था। सिकंदर इस क्षेत्र पर आक्रमण करने को आतुर था किंतु मकदूनिया से आये सिपाहियों ने आगे बढ़ने से मना कर दिया। कोनोस ने इन सिपाहियों का नेतृत्व किया। उसने सिकंदर तथा सेना के समक्ष लम्बा भाषण देते हुए कहा कि मकदूनिया से आये सिपाहियों को घर छोड़े हुए छः साल हो चुके हैं। उनमें से अधिकांश मर चुके हैं। बहुत से मकदूनियावासी नये बसाये गये नगरों में छोड़ दिये गये हैं। कई घायल हैं तथा कई बीमार हैं इसलिये वे अब आगे नहीं बढ़ सकते। यदि इन सिपाहियों को उनकी इच्छा के विरुद्ध युद्ध के मैदान में धकेला गया तो सिकंदर को अपने सिपाहियों में पहले वाले वे सैनिक देखने को नहीं मिलेंगे जो मकदूनिया से उसके साथ चले थे। सिकंदर ने अपनी सेना को बहुत समझाया किंतु यूरोप से आये सिपाहियों ने आगे बढ़ने से मना कर दिया। इस पर सिकंदर ने कहा कि वह अकेला ही आगे बढ़ेगा। जिसे लौटना हो लौट जाये तथा जाकर अपने देशवासियों को बताये कि वे अपने राजा को शत्रु के सम्मुख अकेला छोड़कर लौट आये हैं। इस पर भी सेना टस से मस नहीं हुई। सिकन्दर ने दुःख भरे स्वर में कहा- ‘मैं उन दिलों में उत्साह भरना चाहता हूँ जो निष्ठाहीन और कायरतापूर्ण डर से दबे हुए हैं।’ पूरे तीन दिन तक सिकंदर अपने शिविर में बंद रहा किंतु सेना अपने निर्णय पर अड़ी रही। अंत में हारकर सिकंदर को प्रत्यावर्तन की घोषणा करनी पड़ी।

व्यास का तट छोड़कर सिकंदर चिनाव पार करके झेलम पर लौटा। यहां पर वह सौभूति नामक राज्य में गया जो कि कठों के पड़ौसी थे। वहां के शिकारी कुत्तों ने सिकंदर को बहुत प्रभावित किया। झेलम के तट पर सिकंदर ने आठ सौ नौकायें तैयार करवाईं। इसी समय कोनोस बीमार पड़ा और मर गया। यहां सिकंदर ने अपनी सेना के तीन टुकड़े किये। पहला टुकड़ा जल सेना का था जिसे नियार्कस के नेतृत्व में जल मार्ग से रवाना किया गया। दूसरा टुकड़ा हेफशन के नेतृत्व में था जो सिकंदर की सेना के आगे चलता था। जब सिकंदर किसी सुरक्षित पड़ाव पर पहुंच जाता था तो हेफशन की सेनायें आगे बढ़ जाती थीं। जल सेना सिकंदर के साथ-साथ नदी मार्ग से आगे बढ़ती रहती थी। तीसरा टुकड़ा टालेमी के नेतृत्व में था जो हेफशन की सेना के पीछे-पीछे चलता था और सिकंदर के पृष्ठ भाग को सुरक्षित बनाता था।

झेलम के किनारे-किनारे तीन दिन चलने के बाद सिकंदर क्रेटरस और हिफेशन के शिविरों के निकट पहुंचा। वहीं पर फिलिप भी उससे मिलने के लिये आ गया। यहां से चलकर पांच दिन बाद सिकंदर झेलम और चिनाब के संगम पर आ गया। दोनों नदियों के जल ने भीषण रूप धारण कर रखा था जिससे दो नौकायें डूब गईं। नियार्कस को मालवों की सीमा पर पहुंचने का आदेश मिला। मालवों की सीमा पर पहुंचने से पहले शिबि लोग सिकंदर से मिले और उन्होंने आत्म समर्पण कर दिया। अलगस्सोई (अग्रश्रेणी) लोगों ने 40 हजार पदाति तथा 3 हजार अश्वारोही सेना के साथ जमकर सिकंदर से मोर्चा लिया। इस युद्ध में भी मकदूनिया के बहुत से सिपाही मरे। उसने अग्रश्रेणी नगर में आग लगवा दी तथा नागरिकों को मार डाला। 3 हजार लोगों ने जीवित रहने की इच्छा व्यक्त की। इस पर उन्हें दास बना लिया गया।

अग्रश्रेणियों को नष्ट करके सिकंदर पचास मील मरुभूमि पार करके मालवों पर जा धमका। मालव गण अचम्भित रह गये। निःशस्त्र लोग निर्दयता पूर्वक तलवार के घाट उतार दिये गये। बहुत से मालवों ने भागने का प्रयास किया। उन्हें पर्डिक्कस ने घेर कर मार डाला। बहुत से मालव भाग कर ब्राह्मणों के नगर ब्राह्मणक में छिप गये। सिकंदर ने इस नगर पर भी आक्रमण करके बहुत से मालवों एवं ब्राह्मणों को मार डाला। यहां से सिकंदर ने रावी की ओर बढ़ा। सिकंदर ने सुना कि 50 हजार मालव सैनिक रावी के दक्षिणी तट पर खड़े हैं। सिकंदर अपने थोड़े से सैनिकों के साथ रावी को पार करके उस तट पर जा पहुंचा। मालव उसे देखते ही भाग कर एक दुर्ग में चले गये। दूसरे दिन सिकंदर ने दुर्ग पर आक्रमण किया और दुर्ग को तोड़कर उस पर अधिकार कर लिया। दुर्ग की दीवार पार करते समय सिकंदर मालवों के बाणों की चपेट में आकर घायल हो गया। पर्डिक्क्स ने सिकंदर के शरीर में धंसा बाण खींचकर बाहर निकाला। इस उपक्रम में इतना रक्त बहा कि सिकंदर मूर्च्छित हो गया। सिकंदर के सैनिकों ने कुपित होकर दुर्ग के भीतर स्थित समस्त पुरुषों, स्त्रियों एवं बच्चों को मार डाला। सिकंदर के ठीक होने के उपरांत भी अफवाह फैल गई कि सिकंदर मर गया। इस पर सिकंदर को घोड़े पर बैठकर अपने सैनिकों के समक्ष आना पड़ा।

इसके बाद सिकंदर के सैनिकों को क्षुद्रकों का सामना करना पड़ा। अंत में क्षुद्रक परास्त हुए। क्षुद्रकों ने एक सौ रथारूढ़ दूतों को सिकंदर से संधि करने के लिये भेजा। प्रत्यावर्तन मार्ग पर अम्बष्ठ, क्षत्रप तथा वसाति लोगों ने सिकंदर की अधीनता स्वीकार की। फिलिप जिस भाग का क्षत्रप नियुक्त किया गया था, उसकी दक्षिणी सीमा पर सिंध और चिनाव का संगम था। यहां पर एक नगर की स्थापना की गई। इसके बाद सिकंदर ने सिंध प्रदेश में प्रवेश किया। यहां का राजा मुसिकेनस मारा गया। अंत में पाटल नरेश का राज्य आया। सिकंदर का आगमन सुनकर नागरिक पाटल छोड़कर भाग गये।

यहां से सिकंदर दक्षिणी जड्रोशिया (मकरान) गया। सिंध से मकरान तक के रेगिस्तान को पार करने में सिकंदर के और भी बहुत से सैनिक भूख, प्यास एवं बीमारी से मारे गये। जेड्रोशिया की राजधानी पुरा पहुंचकर सिकंदर के सैनिकों ने आराम किया। जब वह कर्मानिया पहुंचा तो उसे समाचार मिला कि उसके क्षत्रप फिलिप की हत्या कर दी गई। यह सुनकर सिकंदर ने तक्षशिला के राजा अम्भि तथा थ्रेस निवासी यूडेमस को फिलिप के स्थान पर काम संभालने के आदेश भिजवाये। इसी समय क्रेटरस अपनी सैन्य शाखा तथा हाथियों सहित आ मिला। नियार्कस की चार नौकाऐं मार्ग में ही नष्ट हो गईं। वह भी सिकंदर से आ मिला। अंत में समस्त सेनाओं सहित सिकंदर 324 ई.पू. में सूसा पहुंचा। 323 ई.पू. में बेबीलोनिया में अचानक ही सिकंदर की मृत्यु हो गई।

सिकंदर ने जिन क्षेत्रों पर अधिकार किया, उस क्षेत्रों को उसने पांच भागों में विभक्त किया- पहला पैरोपेनिसडाइ, दूसरा अम्भी का राज्य तथा काबुल की निम्न घाटी का प्रदेश जिसका क्षत्रप फिलिप था। तीसरा पौरव का विस्तृत राज्य था। चतुर्थ पश्चिम में हब नदी तक विस्तृत सिंधु की घाटी का राज्य था जिसका क्षत्रप पैथान था। पांचवा काश्मीर स्थित अभिसार का राज्य था।

सिकन्दर के भारत आक्रमण के परिणाम

यद्यपि अधिकांश भारतीय इतिहासकारों ने सिकंदर केे भारत अभियान के प्रभावों को उल्कापात की तरह क्षणिक तथा महत्वहीन बताया है किंतु सिकंदर के भारत आक्रमण के कुछ परिणाम अवश्य निकले थे जिनमें से कुछ इस प्रकार से हैं-

(1.) सिकंदर तथा उसकी सेनाओं द्वारा अपनाये गये चार अलग-अलग जल एवं थल मार्गों के माध्यम से पश्चिमी जगत से भारत का व्यापारिक सम्पर्क बढ़ गया तथा भारत में यूनानी मुद्राओं का प्रचार हो गया।

(2.) यूनानियों से हुए सम्पर्क के कारण भारत में बहुत से यूनानी शब्दों यथा पुस्तक, कलम, फलक, सुरंग आदि का संस्कृत भाषा में समावेश हो गया।

(3.) यूनानियों के सम्पर्क से भारतीयों ने यूनानी चिकित्सा पद्धति भी सीखी।

(4.) यूनानी मूर्तिकला के प्रभाव से पश्चिमोत्तर भारत में नवीन शैली का विकास हुआ जो गांधार शैली के नाम से विख्यात हुई। इस कला की विशेषता यह है कि इसमें मूल प्रतिमा तो भारतीय है किंतु उसकी बनावट, सजावट तथा विधि यूनानी है।

(5.) पंजाब में रहने वाली बहुत सी जातियां विशेषकर मालव, अर्जुनायन, शिबि अपने मूल स्थानों को छोड़कर दक्षिण दिशा अर्थात् राजस्थान में भाग आईं। इन जातियों ने राजस्थान में अनेक जनपदों की स्थापना की।

(6.) सीमांत प्रदेश, पश्चिमी पंजाब तथा सिंध में कुछ यूनानी उपनिवेश स्थापित हो गये। इनके माध्यम से भारत में क्षत्रपीय शासन व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुआ। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण काबुल क्षेत्र में सिकंदरिया, झेलम के तट पर बुकेफाल और सिंध क्षेत्र में सिकंदरिया प्रमुख थे। ये उपनिवेश चंद्रगुप्त और अशोक के समय में भी अस्तित्व में रहे किंतु उसके बाद नष्ट हो गये।

(7.) सिकंदर के द्वारा भारत में कुछ नये नगरों की स्थापना की गई। इन नगरों में बहुत से यूनानी सैनिक तथा उनके परिवारों को बसाया गया। इन यूनानी परिवारों के माध्यम से भारत में यूनानी संस्कृति का प्रसार हुआ।

(8.) सिकंदर के साथ आये लेखकों ने अपनी पुस्तकों में भारतीय विवरण अंकित किये जिससे भारत के तत्कालीन तिथिबद्ध इतिहास का निर्माण करने में सहायता मिली।

(9.) सिकंदर के साथ आये लेखकों ने महत्वपूर्ण भौगोलिक विवरण अंकित किये जिनका लाभ आने वाली पीढ़ियों को मिला।

(10.) सिकंदर ने भारत से 2 लाख बैल यूनान भेजे। भारत से बहुत से बढ़ई भी यूनान ले जाये गये जो नाव, रथ, जहाज तथा कृषि उपकरण बनाते थे। इससे भारतीय हस्तकला का यूनान में भी प्रसार हो गया।

(11.) चंद्रगुप्त मौर्य ने सिकंदर की सेना की युद्ध-प्रणाली का अध्ययन किया तथा उसके आधार पर अपनी सेनाओं का संगठन तैयार किया। इस युद्ध-प्रणाली का थोड़ा-बहुत उपयोग उसने नंदों की शक्तिशाली सेना के विरुद्ध किया।

(12.) सिकंदर के जाने के बाद पश्चिमोत्तर भारत में राजनीतिक शून्यता व्याप्त हो गई। इस क्षेत्र की कमजोर राजीनतिक स्थिति का लाभ उठाकर विष्णुगुप्त चाणक्य तथा उसके शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य ने भारत में मौर्य वंश की स्थापना की तथा मगध के शक्तिशाली नंद साम्राज्य को उखाड़ फैंका। मौर्य वंश की स्थापना से भारत में पहली बार राजनीतिक एकता की स्थापना संभव हो सकी।

अध्याय – 12 चंद्रगुप्त मौर्य

1

(चंद्रगुप्त मौर्य की विजयें एवं प्रशासन के विशेष संदर्भ में)

मौर्य वंश

मौर्य साम्राज्य के संस्थापक सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य का प्रारम्भिक जीवन अन्धकार में है। यूनानी इतिहासकारों ने उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा है। स्ट्रेबो, एरियन तथा जस्टिन ने उसे ‘सैण्ड्रोकोटस’ लिखा है जबकि एपिअन तथा प्लूटार्क ने उसे ‘ऐण्ड्रोकोटस’ लिखा है। फिलार्कस ने उसे ‘सैण्ड्रोकोप्टस’ कहा है। भारतीय ग्रंथ  उसे प्रायः चंद्रगुप्त मौर्य लिखते हैं। विशाखदत्त के नाटक ‘मुद्राराक्षस’ में उसे चन्दसिरि (चंद्रश्री), पि अदर्सन (प्रिय दर्शन) और वृषल (राजाओं में प्रधान) कहा गया है। कुछ विद्वानों के अनुसार उसके लिये ‘वृषल’ शब्द का प्रयोग उसकी सामजिक हेयता का द्योतक है।

कतिपय ब्राह्मण-ग्रन्थों के अनुसार ‘मौर्य’ शब्द व्यक्ति-वाचक संज्ञा ‘मुरा’ से बना है जो नन्द-राज की नाइन जाति की शूद्रा पत्नी थी। चूंकि मौर्य-साम्राज्य का संस्थापक चन्द्रगुप्त इसी मुरा के पेट से उत्पन्न हुआ था। इसलिये वह तथा उसके वंशज मौर्य कहलाये। इस व्याख्या के अनुसार ‘मौर्य’ शूद्र तथा निम्न कुल के ठहरते हैं परन्तु इस मत को स्वीकार करने में दो बहुत बड़ी कठिनाइयाँ है। पहली कठिनाई तो व्याकरण सम्बन्धी है। संस्कृत व्याकरण के नियमानुसार मुरा शब्द से, जो स्त्री-लिंग है, मौरेय शब्द बनेगा न कि मौर्य, अर्थात् मुरा की सन्तान मौरेय कहलायेगी, मौर्य नहीं। इसलिये मौर्यों को मुरा नामक शूद्र वंश का वंशज बताना, संस्कृत व्याकरण के नियम के विपरीत है।

मौर्यों को शूद्र-वंशीय स्वीकार करने में दूसरी कठिनाई यह है कि यदि मौर्य साम्राज्य का संस्थापक अर्थात् चन्द्रगुप्त शूद्र-वंश का होता तो कौटिल्य, जो एक ब्राह्मण था, उसकी सहायता न करता, और उसे राजा स्वीकार नहीं करता।

पुराणों में कहा गया है कि शिशुनाग वंश के विनाश के आगे शूद्र राजा होंगे। इस आधार पर बहुत से इतिहासकार मौर्यों को शूद्र मान लेते हैं जबकि यह निष्कर्ष सही नहीं है क्योंकि मौर्यों के बाद शुंग वंश एवं कण्व वंश ने भी मगध पर शासन किया जो कि ब्राह्मण थे। सातवाहन वंश भी ब्राह्मण था। पुराणों का यह कथन कि शिशुनाग वंश के विनाश के आगे शूद्र राजा होंगे, वस्तुतः नंद वंश के लिये है न कि मौर्यों के लिये।

कतिपय विद्वानों के अनुसार ‘मौर्य’ शब्द संस्कृत भाषा के पुल्लिंग शब्द ‘मुर’ से बना है जो महर्षि पाणिनी के कथनानुसार एक गोत्र का नाम था। इसलिये इस व्याख्या के अनुसार वह लोग जो ‘मुर’ गोत्र के थे ‘मौर्य’ कहलाये।

बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों के अनुसार ‘मौर्य’ शब्द प्राकृत भाषा के ‘मोरिय’ शब्द का संस्कृत रूपान्तर है। ‘मोरिय’ एक क्षत्रिय वर्ग का नाम था जो नेपाल की तराई में ‘पिप्पलिवन’ नामक राज्य में शासन करता था। चूंकि इस प्रदेश में मयूर अर्थात् मोर पक्षियों का बाहुल्य था, इसलिये वहाँ के निवासी तथा उसके वंशज ‘मौरिय’ अथवा ‘मौर्य’ कहलाये।

कतिपय बौद्ध ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य मयूर पालकों के एक मुखिया की कन्या का पुत्र था जो क्षत्रिय-वंश का था। सम्भवतः ये क्षत्रिय शत्रुओं द्वारा जन्मभूमि से भगा दिये गये थे और छिप कर मयूर पलकों के रूप में पाटलिपुत्र के निकट जीवन व्यतीत कर रहे थे। जब इस क्षत्रिय-वंश के एक व्यक्ति ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया तो अपने मयूर पालक पूर्वजों की स्मृति में अपने नाम के आगे मौर्य शब्द जोड़ दिया।

सांची के पूर्वी द्वारों पर जो चित्रकारी की गई है उस पर मोर पक्षी के चित्र बने हुए हैं। इससे मार्शल ने यह निष्कर्ष निकाला है कि सम्भवतः मोर पक्षी मौर्य-वंश का राज्य चिह्न था और इस राज्य चिह्न के कारण ही इस वंश का नाम मौर्य वंश पड़ा। चूंकि राज-वंशों के चिह्न प्रायः पशु-पक्षी हुआ करते थे इसलिये मार्शल का यह अनुमान निराधार नहीं कहा जा सकता।

उपर्युक्त विवरण से इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि मौर्य शूद्र तथा अकुलीन नहीं थे। आधुनिक इतिहासकार इसी सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं कि चन्द्रगुप्त क्षत्रिय राजकुमार था और ‘मोरिय’ क्षत्रियों का वंशज होने के कारण जो सम्भवतः दुर्दिन आ जाने के कारण मयूर पालक बन गये थे, मौर्य कहलाया। जिस राज-वंश की उसने स्थापना की वह मौर्य-वंश कहलाया। जिस साम्राज्य का उसने निर्माण किया वह मौर्य साम्राज्य और जिस काल में उसने तथा उसके वंशजों ने शासन किया वह मौर्य-काल कहलाया।

भारत के इतिहास में मौर्य-काल का महत्त्व

भारत के इतिहास में मौर्य-काल का विशिष्ट स्थान है। वास्तव में मौर्य-साम्राज्य की स्थापना से भारतीय इतिहास में एक युग का अन्त और दूसरे युग का आरम्भ होता है। जिस युग का अन्त होता है उसे हम अनैतिहासिक युग और जिस नये युग का आरम्भ होता है उसे हम ऐतिहासिक युग कह सकते हैं। स्मिथ ने इस युग की पं्रशसा करते हुए लिखा है- ‘मौर्य राज-वंश का प्रादुर्भाव इतिहासकार के लिए अन्धकार से प्रकाश के मार्ग का निर्देशन करता है। तिथि-क्रम सहसा निश्चित, लगभग-लगभग सुनिश्चित हो जाता है, एक विशाल साम्राज्य का प्रादुर्भाव होता है जो भारत के विच्छिन्न असंख्य टुकड़ों को संयुक्त कर देता है; इस वंश के राजा, जिन्हें वास्तव में सम्राट कहा जा सकता है, महान् व्यक्तित्त्व के तथा लब्ध-प्रतिष्ठ व्यक्ति थे जिनके गुणों के दर्शन समय के कुहासे में मन्द रूप में किये जा सकते हैं।’ इस नये युग की प्रधान विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) श्ृंखलाबद्ध इतिहास का आरम्भ: मौर्य-काल के पहले का इतिहास प्रायः अन्धकारमय तथा विश्ृंखलित है अर्थात् इसका कोई क्रम नहीं है। इसके दो प्रधान कारण प्रतीत होते हैं। पहला तो यह कि घटनाओं की तिथियों का ठीक-ठीक निश्चय नहीं है और दूसरा यह कि इस काल के इतिहास को जानने के साधन बहुत कम हैं। प्रधानतः धार्मिक ग्रन्थों की सहायता से ही इस काल के इतिहास का निर्माण किया गया है। मौर्य-काल के आरम्भ से हम अन्धकार से प्रकाश में आ जाते हैं और भारत का क्रम-बद्ध इतिहास आरम्भ हो जाता है। इसके दो प्रधान कारण हैं। पहला तो यह है कि मौर्य-काल की तिथियाँ निश्चित हैं और दूसरा यह कि मौर्य-काल के इतिहास को जानने के साधन बड़े ही ठोस तथा व्यापक हैं। इस काल का इतिहास जानने के लिए हमें धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य साधन भी अर्थात् ऐतिहासिक ग्रन्थ, विदेशी विवरण, अभिलेख आदि प्राप्त हो जाते हैं।

मौर्य-काल के पूर्व हमें कोई विशुद्ध ऐतिहासिक ग्रन्थ प्राप्त नहीं होता जिसके द्वारा प्राचीन भारत के क्रम-बद्ध, प्रामाणिक इतिहास का ज्ञान प्राप्त किया जाय परन्तु मौर्य-काल में और उसके बाद अनेक ऐसे ऐतिहासिक ग्रन्थ लिखे गये जिनके आधार पर भारत का क्रम-बद्ध प्रमाणित इतिहास तैयार किया जा सकता है। इन ऐतिहासिक ग्रन्थों में सर्व-प्रथम स्थान कौटिल्य के ग्रन्थ ‘अर्थशास्त्र’ का है। कौटिल्य को चाणक्य तथा विष्णुगुप्त भी कहा गया है। यद्यपि कौटिल्य के इस ग्रन्थ का नाम ‘अर्थशास्त्र’ है परन्तु इसमें अर्थ अर्थात् धन-सम्बन्धी कोई बात नहीं लिखी गई है। वास्तव में यह एक विशुद्ध राजनीतिक ग्रन्थ है ओर इससे मौर्यकालीन इतिहास का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त होता है। मौर्यकालीन इतिहास जानने का दूसरा साधन विशाखदत्त द्वारा रचित ‘मुद्राराक्षस’ नामक नाटक है। यह एक ऐतिहासिक नाटक है और मौर्य-काल के प्रारम्भिक इतिहास को जानने में सहायक है। पुराणों से भी, जो ऐतिहासिक ग्रन्थ माने जाते हैं, मौर्य-युग के इतिहास का बहुत कुछ-ज्ञान प्राप्त होता है। कालिदास के ऐतिहासिक नाटक, काश्मीरी लेखक कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ तथा महर्षि पतन्जलि के ‘महाभाष्य’ से भी मौर्यकालीन इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।

विदेशी यात्रियों के विवरण भी मौर्यकालीन इतिहास जानने के प्रामाणिक तथा विश्वसनीय साधन हैं। विदेशी लेखकों ने जो कुछ लिखा है वह स्वतंत्र तथा निष्पक्ष भाव से लिखा है और उनमें से अधिकांश ऐसे थे जो स्वयं भारत आये थे। उन्होंने जो कुछ अपनी आँखों से देखा अथवा भारतीयों से सुना, वही लिखा। विदेशी लेखकों में सबसे पहला स्थान मेगस्थनीज का है जो यूनानी सम्राट सैल्यूकस का राजदूत था और चन्द्रगुप्त मौर्य की राजधानी पाटलिपुत्र में कई वर्षों तक रहा। कालान्तर में चीन तथा तिब्बत आदि देशों के यात्री भी भारत आये और उन्होंने यहाँ के विषय में लिखा। चीनी यात्रियों में फाह्यान तथा ह्नेनसांग और तिब्बती लेखकों में तारानाथ प्रमुख हैं।

शिला अभिलेख भी मौर्य-कालीन इतिहास जानने के अत्यन्त विश्वसनीय तथा प्रामाणिक साधन हैं। सम्राट अशोक ने स्तम्भों, शिलाओं तथा गुफाओं की दीवारों पर अनेक लेख लिखवाये जो आज भी उसकी कीर्ति का गान कर रहे हैं।

बौद्ध तथा जैन-ग्रन्थ भी मौर्य-कालीन इतिहास जानने के प्रमुख साधन हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य ने जैन-धर्म को और अशोक ने बौद्ध-धर्म को आश्रय प्रदान किया। इसलिये इन दोनों धर्मों के आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में मौर्य-कालीन इतिहास पर प्रकाश डालकर उसके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की।

उपर्युक्त प्रचुर साधनों की सहायता से इतिहासकारों ने मौर्य काल का प्रामाणिक तथा विश्वासनीय इतिहास तैयार किया है। इस प्रकार ऐतिहासिक साधनों तथा इतिहास निर्माण की दृष्टि से मौर्य-काल का बहुत बड़ा महत्त्व है।

(2) साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का प्रारम्भ: मौर्य-काल का दूसरा महत्त्व यह है कि इस काल के प्रारम्भ से ही भारत में साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का प्रारम्भ होता है और यह प्रवृत्ति आगामी शताब्दियों में भी चलती है। भारतवर्ष के राजनीतिक इतिहास में यहीं से एक नये युग का आरम्भ होता है जिसे हम साम्राज्यवाद तथा राजनीतिक एकता का युग कह सकते हैं। मौर्य-काल के पूर्व भारतवर्ष में राजनीतिक एकता का सर्वथा अभाव था और सम्पूर्ण देश छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था। यद्यपि साम्राज्यवाद तथा राजनीतिक एकता का स्वप्न देखना भारतीय राजाओं ने मौर्य-काल के पहले ही आरम्भ कर दिया था, परन्तु इस स्वप्न को सर्वप्रथम मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त ने ही चरितार्थ किया। उसने पंजाब तथा सिन्ध क्षेत्र से विदेशी यूनानियों को और उत्तरी-भारत के अन्य छोटे-छोटे देशी राज्यों को समाप्त कर सम्पूर्ण उत्तरी-भारत को एक राजनीतिक सूत्र में बांधा। इस प्रकार प्रथम बार भारत में राजनीतिक एकता की स्थापना हुई। राजनीतिक एकता का यह आदर्श भारत के भावी महत्त्वाकांक्षी सम्राटों को सदैव प्रेरित करता रहा।

(3) प्रशासनिक एकरूपता का प्रादुर्भाव: राजनीतिक एकता तथा शासन की एकरूपता में अटूट सम्बन्ध है। राजनीतिक एकता प्रशासकीय एकता की जननी है। जब मौर्य-सम्राटों ने सम्पूर्ण उत्तरी-भारत में राजनीतिक एकता स्थापित कर दी तब इस विशाल भू-भाग में एक ही प्रकार के सुदृढ़़ तथा सुव्यवस्थित केन्द्रीय शासन की स्थापना हो गई। चन्द्रगुप्त-मौर्य ने जिस शासन-व्यवस्था का शिलान्यास किया वही भावी शासकों के लिए आदर्श व्यवस्था बन गई और उसी में न्यूनाधिक परिवर्तन करके आगामी शासकों ने शासन-व्यवस्था को चलाया। मौर्य-कालीन शासन व्यवस्था शान्ति बनाये रखने तथा सम्पन्नता प्रदान करने में इतनी सफल रही कि इसे हम शान्ति तथा सम्पन्नता का युग कह सकते हैं।

(4) सांस्कृतिक एकता की स्थापना: राजनीतिक एकता सांस्कृतिक एकता की भी जननी है। चन्द्रगुप्त मौर्य ने विदेशियों को अपने देश से निष्कासित कर एक विशुद्ध भारतीय संस्कृति के विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियॉं उत्पन्न कीं। उसने सम्पूर्ण उत्तरी-भारत में एकछत्र, सुदृढ़़ तथा सुव्यवस्थित शासन स्थापित कर सांस्कृतिक विकास के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया। अशोक ने बौद्ध-धर्म को राज-धर्म बनाकर, उसके प्रचार की समुचित व्यवस्था की तथा सम्पूर्ण भारत में पत्थरों पर शिक्षाएं तथा उपदेश लिखवा कर सम्पूर्ण राज्य में एक ही प्रकार की संस्कृति के विकास का कार्य किया।

(5) विदेशों के साथ घनिष्ठ सम्बन्धों की स्थापना: अशोक ने जिस सभ्यता तथा संस्कृति का सृजन किया, उसे विदेशों में भी प्रचारित कराया। इस प्रकार अशोक विदेशों में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति के प्रचार का अग्रदूत बन गया। इस सभ्यता तथा संस्कृति के प्रचार की बहुत बड़ी विशेषता यह थी कि यह कार्य प्रेम तथा सद्भावना से किया गया।

चन्द्रगुप्त मौर्य

चन्द्रगुप्त मौर्य के भारतीय राजनीति के मंच पर आने की ओर संकेत करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘सिकन्दर के चले जाने के उपरान्त भारत के राजनीतिक गगन-मण्डल में एक नया तारा निकला जिसने शीघ्र ही अपने परम प्रकाश से शेष समस्त को तिमिर-तिरोहित कर दिया।’ स्मिथ ने चन्द्रगुप्त मौर्य के भारतीय राजनीति के मंच पर आने के महत्त्व की ओर संकेत करते हुए लिखा है- ‘वास्तव में चन्द्रगुप्त मौर्य ही प्रथम ऐतिहासिक व्यक्ति है जिसे हम सचमुच भारत का सम्राट् कह सकते हैं। एक इतिहासकार के लिए मौर्य राज-वंश का प्रादुर्भाव, अन्धकार से प्रकाश के मार्ग की ओर निर्देशन करता है।’ जस्टिन ने भी इस ओर संकेत करते हुए लिखा है- ‘सिकन्दर की मृत्यु के उपरान्त, चन्द्रगुप्त भारत की स्वतन्त्रता का निर्माता था।’

चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म 345 ई.पू. में मोरिय वंश के क्षत्रिय कुल में हुआ था जो सूर्यवंशी शाक्यों की एक शाखा थी। यह वंश नेपाल की तराई में स्थित पिप्पलिवन के गणतांत्रिक प्रणाली वाले राज्य पर शासन करता था। चन्द्रगुप्त का पिता इन्ही मोरियों का प्रधान था। दुर्भाग्यवश एक शक्तिशाली राजा ने उसकी हत्या कर दी और उसके राज्य को छीन लिया। चन्द्रगुप्त की माता उन दिनों गर्भवती थी। इस विपत्ति में वह अपने सम्बन्धियों के साथ पिप्पलिवन से निकल गई तथा पाटलिपुत्र में अज्ञात रूप से निवास करने लगी। आजीविका चलाने तथा अपने राजवंश को गुप्त रखने के लिए ये लोग मयूर पालन का कार्य करने लगे। इस प्रकार चन्द्रगुप्त का प्रारम्भिक जीवन मयूर-पालकों के मध्य व्यतीत हुआ।

जब चन्द्रगुप्त बड़ा हुआ तब उसने मगध के राजा के यहाँ नौकरी कर ली। इन दिनों मगध में नन्द-वंश शासन कर रहा था। चंद्रगुप्त उसकी सेना में भर्ती हो गया। चन्द्रगुप्त बड़ा ही योग्य तथा प्रतिभावान् युवक था। अपनी योग्यता के बल से वह मगध की सेना का सेनापति बन गया परन्तु कुछ कारणों से मगध का राजा उससे अप्रसन्न हो गया और उसे मृत्यु-दण्ड की आज्ञा दे दी। चन्द्रगुप्त अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए मगध राज्य से बाहर चला गया। उसने नन्द वंश को नष्ट करने का संकल्प लिया।

चंद्रगुप्त तथा चाणक्य का योग

यद्यपि चन्द्रगुप्त ने नन्द-वंश को उन्मूलित करने का संकल्प कर लिया था परन्तु अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसके पास साधन उपलब्ध नहीं थे। वह पंजाब की ओर चला गया और इधर-उधर भटकता हुआ तक्षशिला जा पहुंचा, जहाँ विष्णुगुप्त नामक ब्राह्मण से उसकी भेंट हो गयी। विष्णुगुप्त को चाणक्य भी कहते हैं क्योंकि उसके पितामह (बाबा) का नाम चणक था। उसे कौटिल्य भी कहते है क्योंकि उसके पिता का नाम कुटल था। चाणक्य विद्वान तथा राजनीति का प्रकाण्ड पण्डित था। वह भारत के पश्चिमोत्तर भाग की राजनीतिक दुर्बलता से परिचित था और उसे आंशका लगी रहती थी कि यह प्रदेश कभी भी विदेशी आक्रमणकारियों का शिकार हो सकता है। वह इस भू-भाग के छोटे-छोटे राज्यों को समाप्त कर यहाँ एक प्रबल केन्द्रीय शासन स्थापित करना चाहता था, जिससे विदेशी आक्रमणकारियों से देश की रक्षा हो सके। अपने इस उदेश्य की पूर्ति के लिए यह मगध-नरेश की सहायता प्राप्त करने के लिए पाटलिपुत्र गया परन्तु वह नन्द-राज द्वारा अपमानित किया गया। चाणक्य बड़ा ही क्रोधी तथा उग्र-प्रकृति का व्यक्ति था। उसने नन्द-वंश को नष्ट करने का संकल्प कर लिया। नन्द-वंश के विशाल साम्राज्य का उन्मूलन करने के साधन उसके पास भी नहीं थे। इसलिये वह इस साधन की खोज में संलग्न था। इसी समय चन्द्रगुप्त से उसकी भेंट हुई।

चाणक्य तथा चन्द्रगुप्त दोनों के उद्देश्य एक ही थे। वे दोनों व्यक्ति, नन्द-वंश का विनाश करना चाहते थे परन्तु दोनों ही के पास साधनों का अभाव था। संयोगवश इन दोनों ने एक-दूसरे की आवश्यकता की पूर्ति कर दी। चाणक्य को एक वीर, साहसी तथा महत्त्वाकांक्षी नवयुवक की आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति चन्द्रगुप्त ने की और चन्द्रगुप्त को एक विद्वान् एवं अनुभवी कूटनीतिज्ञ की सेवाओं की आवश्यकता थी। साथ ही उसे सेना एकत्रित करने के लिये विपुल मात्रा में धन की आवश्यकता थी। उसकी इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति चाणक्य ने कर दी। फलतः इन दोनों में मैत्री तथा गठबन्धन हो गया।

अपने उद्देश्य की पूर्ति की तैयारी करने के लिए दोनों मित्र विन्ध्याचल के वनों की ओर चले गये। चाणक्य ने अपना सारा धन चन्द्रगुप्त को दे दिया। इस धन की सहायता से उसने भाड़े की एक सेना तैयार की और इस सेना की सहायता से मगध पर आक्रमण कर दिया परन्तु नन्दों की शक्तिशाली सेना ने उन्हें परास्त कर दिया और वे मगध से भाग खड़े हुए। 

अब इन दोनों मित्रों ने अपने प्राणों की रक्षा के लिए फिर पंजाब की ओर प्रस्थान किया। चाणक्य तथा चंद्रगुप्त ने अनुभव किया कि मगध राज्य के केन्द्र पर प्रहार कर उन्होंने बहुत बड़ी भूल की थी। वास्तव में उन्हें इस राज्य के एक किनारे पर स्थित सुदूरस्थ प्रदेश पर आक्रमण करना चाहिए था, जहाँ केन्द्रीय सरकार का प्रभाव कम और उसके विरुद्ध अंसतोष अधिक रहता है। उस समय यूनानी आक्रमणकारी सिकन्दर पंजाब में ही था और वहाँ के छोटे-छोटे राज्यों को जीत रहा था। चन्द्रगुप्त ने नन्दों के विरुद्ध सिकन्दर की सहायता लेने का विचार किया। इसलिये वह सिकन्दर से मिला और कुछ दिनों तक उसके शिविर में रहा। चन्द्रगुप्त के स्वतन्त्र विचारों के कारण सिकन्दर उससे अप्रसन्न हो गया और उसका वध करने की आज्ञा दी। चन्द्रगुप्त प्राण बचाकर भाग खड़ा हुआ। अब उसने मगध-राज्य के विनाश के साथ-साथ यूनानियों को भी भारत से मार भगाने का निश्चय कर लिया। वह चाणक्य की सहायता से अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए योजनाएँ बनाने लगा।

चन्द्रगुप्त की विजयें

(1) विजय अभियान का आरम्भ: इतिहासकारों में इस बात पर मतभेद है कि चंद्रगुप्त मौर्य ने पहले पंजाब-सिंध से यूनानियों का सफाया किया अथवा मगध राज्य पर आक्रमण करके नंद वंश की सत्ता को समाप्त किया। यूनानी, बौद्ध तथा जैन ग्रंथों से अनुमान होता है कि चंद्रगुप्त ने पहले पंजाब एवं सिंध क्षेत्र को यूनानियों से मुक्त करवाया। महावंश टीका तथा जैन ग्रंथ परिशिष्टपर्वन् में एक कथा मिलती है जिसके अनुसार चाणक्य तथा चंद्रगुप्त मौर्य ने पहले मगध राज्य पर आक्रमण किया किंतु वहां से परास्त होकर भाग खड़े हुए। इसके बाद उन्होंने निर्णय लिया कि सीधे ही मगध की राजधानी पर आक्रमण करने के स्थान पर उन्हें मगध राज्य के एक किनारे से अपना विजय अभियान आरम्भ करना चाहिये।

(2) पंजाब और सिंध पर अधिकार: सिकन्दर के भारत से चले जाने के उपरान्त पश्चिमोत्तर क्षेत्रों में निवास करने वाले भारतीयों ने यूनानियों के विरुद्ध आन्दोलन आरम्भ कर दिया। चन्द्रगुप्त के लिए यह स्वर्ण अवसर था। उसने इस स्थिति का पूरा लाभ उठाने का निश्चय किया। महावंश टीका तथा जैन ग्रंथ परिशिष्टपर्वन् के अनुसार चाणक्य ने धातुशास्त्र के ज्ञान से धन निर्मित करके सैनिक भर्ती किये। चंद्रगुप्त ने इस सेना के बल पर, यूनानियों के विरुद्ध चल रहे आंदोलन का नेतृत्व ग्रहण किया। चंद्रगुप्त ने यूनानियों को पंजाब तथा सिंध क्षेत्र से भगाना आरम्भ किया। यूनानी क्षत्रप यूडेमान, यूनानी सैनिकों के साथ भारत छोड़कर भाग गया। जो यूनानी सैनिक भारत में रह गये, वे तलवार के घाट उतार दिये गये। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने सम्पूर्ण पंजाब तथा सिंध पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया।

जस्टिन ने लिखा है- ‘सिकंदर की मृत्यु के पश्चात् उसके गवर्नरों को मारकर भारत को विदेशियों की दासता से मुक्त करवाने का श्रेय चंद्रगुप्त को है।’ जस्टिन लिखता है- ‘सिकन्दर की मृत्यु के बाद भारत ने मानो अपने गले से दासता का जुआ उतार फेंका और उसके क्षत्रपों को मार डाला। इस मुक्ति का सृष्टा सैंड्रोकोटस था।’ डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार जस्टिन का यह उद्धरण इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण अभिलेख है। इसमें निश्चित रूप से यह कहा गया है कि चंद्रगुप्त इस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नायक था।

(3) मगध राज्य पर आक्रमण: पंजाब तथा सिंध पर अधिकार स्थापित कर लेने के उपरान्त चन्द्रगुप्त ने मगध-राज्य पर आक्रमण करने के लिए पूर्व की ओर प्रस्थान किया। वह अपनी विशाल सेना के साथ मगध-साम्राज्य की पश्चिमी सीमा पर टूट पड़ा। चन्द्रगुप्त की सेना को रोकने के मगध-नरेश के समस्त प्रयत्न निष्फल सिद्ध हुए। चन्द्रगुप्त की सेना ने मगध-राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र के निकट पहुँचकर उसका घेरा डाल दिया। अन्त में नन्द-राज धनानन्द की पराजय हुई और वह अपने परिवार के साथ युद्ध में मारा गया। इस प्रकार 322 ई.पू. में चन्द्रगुप्त पाटलिपु़त्र के सिंहासन पर बैठा। चाणक्य ने उसका राज्याभिषेक किया।

वायुपुराण में कहा गया है कि ब्राह्मण कौटिल्य नवनंदों का नाश करेगा तथा कौटिल्य ही चंद्रगुप्त का राज्याभिषेक करेगा। वायुपुराण, कौटिलीय अर्थशास्त्र, महावंशटीका, मत्स्य पुराण एवं भागवत पुराण, नीति शास्त्र, कथासरित्सागर, वृहत्कथा मंजरी, मुद्राराक्षस आदि ग्रंथों में चंद्रगुप्त द्वारा नंदों के उन्मूलन एवं मगध की गद्दी पर चंद्रगुप्त के सिंहासनारोहण का उल्लेख किया गया है।

(4) पश्चिमी भारत पर विजय: उत्तर भारत पर प्रभुत्व स्थापित कर लेने के उपरान्त चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य ने पश्चिमी भारत पर भी अपनी विजय-पताका फहराने का निश्चय किया। उन्होंने सर्वप्रथम सौराष्ट्र पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उसके बाद लगभग 303 ई.पू. में उसने मालवा पर अधिकार स्थापित कर लिया और पुष्यगुप्त वैश्य को वहाँ का प्रबन्ध करने के लिए नियुक्त किया जिसने सुदर्शन झील का निर्माण करवाया। इस प्रकार काठियावाड़ तथा मालवा पर चन्द्रगुप्त का प्रभुत्व स्थापित हो गया।

(5) सैल्यूकस पर विजय: चन्द्रगुप्त का अन्तिम संघर्ष सिकन्दर के पूर्व सेनापति तथा बैक्ट्रिया के शासक सैल्यूकस निकेटार के साथ हुआ। सिकन्दर की मृत्यु के उपरान्त सैल्यूकस उसके साम्राज्य के पूर्वी भाग का अधिकारी बना था। उसने 305 ई.पू. में भारत पर आक्रमण कर दिया, चन्द्रगुप्त ने पश्चिमोत्तर प्रदेश की सुरक्षा की व्यवस्था पहले से ही कर ली थी। उसकी सेना ने सिन्धु नदी के उस पार ही सैल्यूकस की सेना का सामना किया। युद्ध में सैल्यूकस की बुरी तरह पराजय हो गई और उसे विवश होकर चन्द्रगुप्त के साथ सन्धि करनी पड़ी। सैल्यूकस ने अपने चार प्रांत- आरकोशिया (कंधार), पैरोपैनिसडाई (काबुल), एरिया (हेरात) तथा गेड्रोशिया (बिलोचिस्तान) चन्द्रगुप्त को दे दिये।

सैल्यूकस ने अपनी पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त के साथ कर दिया। भविष्य पुराण में इस विवाह का उल्लेख मिलता है। इस संधि के बाद सैल्यूकस ने मेगस्थनीज नामक एक राजदूत भी चन्द्रगुप्त की राजधानी पाटलिपुत्र में रहने के लिये भेजा। चन्द्रगुप्त ने भी सैल्यूकस को 500 हाथी भेंट किये।

चन्द्रगुप्त मौर्य और सैल्यूकस के संघर्ष के सम्बन्ध में डॉ. राज चौधरी ने अपनी पुस्तक ‘प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास’ में लिखा है- ‘यह देखा जायेगा कि प्राचीन लेखकों से हमें सैल्यूकस और चन्द्रगुप्त के वास्तविक संघर्ष का विस्तृत उल्लेख नहीं मिलता है। वे केवल परिणामों को बतलाते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आक्रमणकारी अधिक आगे न बढ़ सका और उसने एक सन्धि कर ली जो वैवाहिक सम्बन्ध द्वारा सुदृढ़़ बना दी गई।

(6) दक्षिणापथ पर विजय: चंद्रगुप्त मौर्य ने सुदूर दक्षिण को छोड़कर दक्षिणापथ के अधिकांश भाग को जीतकर उसे मौर्य साम्राज्य का अंग बना लिया था। इतिहासकारों की धारणा है कि चन्द्रगुप्त का साम्राज्य सम्भवतः मैसूर की सीमा तक फैला हुआ था। कुछ इतिहासकार कृष्णा नदी को उसके राज्य की अंतिम सीमा मानते हैं। जैन संदर्भों के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य का राज्य दक्षिण में श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) तक विस्तृत रहा होगा।

(7) लगभग सम्पूर्ण भारत पर आधिपत्य: अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार चन्द्रगुप्त का साम्राज्य पश्चिम में हिन्दूकुश पर्वत से लेकर पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय पर्वत से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक फैल गया। काश्मीर तथा नेपाल भी उसके साम्राज्य में सम्मिलित थे। केवल कलिंग तथा दक्षिण भारत का कुछ भाग उसके साम्राज्य के भीतर नहीं थे। जस्टिन के अनुसार समस्त भारत चंद्रगुप्त के अधिकार में था। मुद्राराक्षस में आये एक श्लोक के अनुसार चंद्रगुप्त का साम्राज्य चतुःसमुद्रपर्यंत था। महावंश टीका में चंद्रगुप्त को सकल जम्बूद्वीप का स्वामी कहा गया है। प्लूटार्क के अनुसार ऐंड्रोकोटस ने छः लाख सैनिकों की सेना लेकर सारे भारत को रौंद डाला और उस पर अपना अधिकार कर लिया। मुद्राराक्षस के अनुसार हिमालय से लेकर दक्षिणी समुद्र तक के राजा भयभीत और नतशीश होकर चंद्रगुप्त के चरणों में झुक जाया करते थे और चारों समुद्रों के पार से आये राजागण चंद्रगुप्त की आज्ञा को अपने सिरों पर माला की तरह धारण करते थे। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने अपने बाहु-बल तथा अपने मन्त्री चाणक्य के बुद्धि-बल से भारत की राजनीतिक एकता सम्पन्न की।

चन्द्रगुप्त का शासन-प्रबन्ध

चन्द्रगुप्त न केवल एक महान् विजेता वरन् एक कुशल शासक भी था। उसने जिस शासन-व्यवस्था का निर्माण किया वह इतनी उत्तम सिद्ध हुई कि भावी शासकों के लिए आदर्श बन गई। वह शासन-व्यवस्था थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ निरन्तर चलती रही। चन्द्रगुप्त का शासन तीन भागों में विभक्त था- (अ) केन्द्रीय शासन, (ब) प्रान्तीय शासन तथा (स) स्थानीय शासन ।

(अ) केन्द्रीय शासन: केन्द्रीय शासन साम्राज्य की राजधानी से संचालित होता था। इसका संचालन सम्राट, उसके परामर्शदाताओं और मन्त्रियों द्वारा होता था। सम्राट तथा उसके मन्त्रियों के अधीन कर-संग्राहक, गुप्तचर-विभाग, सेना, न्यायालय आदि काम करते थे।

(1) सम्राट: केन्द्रीय शासन का प्रधान स्वयं सम्राट होता था। उसकी आज्ञाओं तथा आदेशों के अनुसार सम्पूर्ण देश का शासन चलता था। सम्राट स्वयं नियमों का निर्माण करता था तथा नियमों का पालन करवाने की व्यवस्था करता था। सम्राट नियमों का उल्लंघन करने वालों को दंड भी देता था। इस प्रकार सम्राट स्वयं व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका का प्रधान था। वही सम्पूर्ण देश के शासन का केन्द्र-बिन्दु था। स्मिथ ने लिखा है- ‘चन्द्रगुप्त के शासन से सम्बन्धित विदित तथ्य इस बात को सिद्ध कर देते हैं कि वह कठोर एवं निरंकुश शासक था।’ सम्राट न केवल् प्रशासकीय विभाग का सर्वेसर्वा था वरन् वह सैनिक-विभाग का भी प्रधान था और वह स्वयं सेना के संगठन की व्यवस्था करता था। युद्ध के समय वह स्वयं सेनापति के कार्यों को करता था।

स्पष्ट है कि राज्य की सारी शक्ति सम्राट के हाथ में थी और उसी की इच्छानुसार सम्पूर्ण राज्य का शासन संचालित होता था। इसलिये यदि यह कहंे कि चन्द्रगुप्त का शासन एकतंत्रीय, स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश था तो कुछ अनुचित न होगा परन्तु स्वेच्छाचारी शासन का यह तात्पर्य नहीं है कि सम्राट मनमाने ढंग से शासन करता था और लोकमत की चिन्ता नहीं करता था। स्वेच्छाचारी शासन का तात्पर्य  केवल इतना है कि सिद्धांततः राजा की शक्ति तथा उसके अधिकारों पर किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं था परन्तु क्रियात्मक रूप में उसे परम्परागत नियमों, अपने परामर्शदाताओं के परामर्शों तथा नैतिक नियमों का सम्मान करना पड़ता था। कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र‘ से ज्ञात होता है कि सम्राट् अपनी प्रजा का ऋणी समझा जाता था। वह अच्छा शासन करके ही इस ऋण से मुक्त हो सकता था। इसलिये स्वेच्छाचारी होते हुए भी प्रजा के हित में शासन करना राजा का परम धर्म था। अपनी प्रजा का अधिक से अधिक कल्याण करने के लिए और अपने शासन को सुचारू रीति से संचालित करने के लिए सम्राट् मन्त्रियों तथा अन्य पदाधिकारियों की नियुक्ति करता था।

(2) मन्त्रि-परिषद: सम्राट् को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्यों में परामर्श तथा सहायता देने के लिए एक मन्त्रि-परिषद की व्यवस्था की गई थी। चन्द्रगुप्त के प्रधान परामर्शदाता कौटिल्य का विश्वास था कि शासन की गाड़ी एक पहिए से नहीं चल सकती। सम्राट् उसका एक पहिया है, इसलिये उसके दूसरे पहिये अर्थात् मन्त्रिपरिषद् का होना अनिवार्य है, तभी शासन सुचारू रीति से संचालित होगा और प्रजा का अधिक से अधिक कल्याण हो सकेगा। मन्त्रि-परिषद् के सदस्यों को सम्राट स्वयं नियुक्त करता था। समस्त मंत्री वेतनभोगी होते थे। केवल वही लोग इस पद पर नियुक्त किये जाते थे जो बुद्धिमान, निर्लोभी तथा सच्चरित्र हों। मन्त्रि-परिषद अपना निर्णय बहुमत से देती थी परन्तु सम्राट अपनी परिषद् के निर्णय को मानने के लिए बाध्य नहीं था। मन्त्रि-परिषद् राज्य के केवल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषयों में परामर्श देने के लिए बुलाई जाती थी। राज्य के दैनिक कार्योंं से उसका कोई सम्बन्ध नहीं था।

(3) मन्त्रिन्: दैनिक शासन को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए सम्राट् को परामर्श देने और उसकी सहायता करने के लिए एक दूसरी सभा होती थी जिसके सदस्य मन्त्रिन् कहलाते थे। मन्त्रिन् का पद मन्त्रि-परिषद के सदस्यों से अधिक ऊँचा तथा महत्त्वपूर्ण होता था। मंत्रिन् की नियुक्ति भी सम्राट् स्वयं करता था और इस पद पर केवल ऐसे ही लोग नियुक्त किये जाते थे जिनके किसी भी प्रकार के प्रलोभन में पड़ने की सम्भावना नहीं होती थी और जिनकी पहले से ही परीक्षा की जा चुकी होती थी। कौटिल्य ने इनकी संख्या तीन-चार बताई है। ये मन्त्रिन् देश-रक्षा, विदेशी विषयों, आकस्मिक आपत्तियों के लिए व्यवस्था करने, शासन को सुचारू रीति से संचालित करने आदि विषयों में सम्राट को परामर्श देते थे। सम्राट मन्त्रिन् के परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं था।

(4) विभागीय व्यवस्था: मन्त्रि-परिषद तथा मन्त्रिन्, सम्राट को केवल परामर्श देते थे, वे दैनिक शासन को संचालित नहीं करते थे। राज्य के दैनिक शासन को सुचारू रीति से सम्पादित करने के लिए चन्द्रगुप्त ने विभागीय व्यवस्था का निर्माण किया था। इस व्यवस्था में सम्पूर्ण शासन का कार्य विभिन्न विभागों में विभक्त कर दिया गया था। प्रत्येक विभाग को शासन के एक-दो विषय सौंपे गये थे। प्रत्येक विभाग का एक अध्यक्ष होता था जो ‘अमात्य’ कहलाता था। चन्द्रगुप्त के शासन-काल में इस प्रकार के कुल अठारह विभाग थे। इसलिये उसने अठारह अमात्यों को नियुक्त कर रखा था। इन अमात्यों के अधीन अनेक पदाधिकारी तथा कर्मचारी होते थे जो दैनिक शासन को सुचारू रीति से संचालित करते थे। अमात्यों तथा उनके नीचे काम करने वाले समस्त कर्मचारियों की नियुक्ति सम्राट् स्वयं करता था और वे सम्राट के प्रति उत्तरदायी होते थे। जिस विभागीय व्यवस्था का सूत्रपात चन्द्रगुप्त मौर्य ने आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व किया था उसका अनुकरण आज सारे संसार में हो रहा है।

(5) पुलिस व्यवस्था: चन्द्रगुप्त तथा उसके प्रधानमन्त्री चाणक्य ने साम्राज्य में आन्तरिक शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखने के लिये एक अत्यन्त सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित पुलिस विभाग का प्रबन्ध किया। पुलिस के सिपाही ‘रक्षिन्’ कहलाते थे। समाज की सुरक्षा का भार उन्हीं के ऊपर रहता था।

(6) गुप्तचर व्यवस्था: गुप्तचर उस व्यक्ति को कहते हैं जो गुप्त रूप से विचरण करके सब बातों का पता लगाये। चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य ने गुप्तचरों की उपयोगिता का अनुभव करके सुदृढ़़ गुप्तचर विभाग का गठन किया। गुप्तचर-विभाग दो भागों में विभक्त था। एक को ‘संस्थान’ करते थे और दूसरे को ‘संचारण’। संस्थान गुप्तचर एक स्थान पर रहकर अपनी गतिविधियों का संचालन करते थे जबकि संचारण गुप्तचर भ्रमण करके सूचनाएं एकत्रित करते थे। इस प्रकार स्थानीय बातों की सूचना प्राप्त करने के लिए संस्थान विभाग का और दूरस्थ सूचनाओं का पता लगाने के लिए संचारण विभाग का गठन किया गया था। चन्द्रगुप्त मौर्य के गुप्तचर विभाग में स्त्रियाँ भी काम करती थीं। किस समय में और किस स्थान पर कौनसी बात हो रही है इसकी सूचना सम्राट को गुप्तचरों से प्राप्त हो जाती थी। अपने राज्य के बड़े-बड़े कर्मचारियों के कार्यों की सूचना भी उसे गुप्तचरों से मिल जाती थी। इस प्रकार षड्यन्त्रों तथा कुचक्रों का पता लगाने में सम्राट को कोई कठिनाई नहीं होती थी।

(7) न्यायिक व्यवस्था: चन्द्रगुप्त ने एक निष्पक्ष, न्याय-प्रिय तथा विवेकशील न्याय व्यवस्था की आवश्यकता का अनुभव किया और अपने विद्वान, अनुभवी तथा नीति-निपुण प्रधान मन्त्री चाणक्य की सहायता से एक ऐसी न्याय-व्यवस्था का निर्माण किया जिसका अनुसरण आज भी सभ्य संसार द्वारा किया जा रहा है। चन्द्रगुप्त द्वारा स्थापित न्याय-व्यवस्था में सम्राट स्वयं सबसे बड़ा न्यायाधीश था। राजा के नीचे अन्य न्यायाधीश थे। नगरों तथा जनपदों के लिए अलग-अलग न्यायाधीश थे। नगरों के न्यायाधीश ‘व्यवहारिक महामात्य’ और जनपदों के न्यायधीश ‘राजुक’ कहलाते थे। जो न्यायाधीश चार गाँवों के लिए होते थे वे संग्रहण’, जो चार सौ गाँव के लिए होते थे वे ‘द्रोणमुख’ और जो आठ सौ गाँवों के लिए होते थे वे ‘स्थानीय’ कहलाते थे। न्यायाधीशों को ‘धर्मस्थ’ कहते थे। प्रत्येक न्यायालय में तीन धर्मस्थ तथा तीन अमात्य, न्यायाधीशों का आसन ग्रहण करते थे। न्यायलय दो भागों में विभक्त थे जो न्यायालय धन सम्बन्धी झगड़ों का निर्णय करते थे वे ‘धर्मस्थीय’ कहलाते थे और जो न्यायालय मार-पीट के मुकदमों का निर्णय करते थे वे ‘कंटक शोधन’ कहलाते थे। छोटी अदालतों के निर्णय की अपीलें बड़ी अदालतों में होती थीं और सम्राट का निर्णय अंतिम माना जाता था। चन्द्रगुप्त के शासनकाल में दंड-विधान बड़ा कठोर था। जुर्माने के साथ-साथ अंग-भंग तथा मृत्युदंड भी दिया जाता था। कठोर दण्ड विधान का परिणाम यह हुआ कि अपराधों में कमी हो गई और लोग प्रायः अपने घरों में ताला लगाये बिना ही बाहर चले जाते थे। राजा की वर्षगांठ, राज्याभिषेक, राजकुमार के जन्म तथा नये प्रदेशों पर विजय प्राप्ति आदि अवसरों पर बंदियों को मुक्त करने की भी व्यवस्था थी।

(8) लोक-मंगलकारी कार्य: चन्द्रगुप्त के प्रधानमंत्री कौटिल्य के विचार में राजा अपनी प्रजा का ऋणी होता था। लोक-मंगलकारी कार्य करके ही वह प्रजा के ऋण से मुक्त हो पाता था। फलतः उसने अनेक लोक-मंगलकारी कार्य किये। उसने यातायात के साधनों की समुचित व्यवस्था की तथा सड़कों का निर्माण कर बड़े-बड़े नगरों को एक दूसरे से मिला दिया। इन सड़कों के किनारे उसने छायादार वृक्ष लगवाये और कुएँ तथा धर्मशालाएँ बनवाईं। नदियों को पार करने के लिए उसने पुल बनवाये। चन्द्रगुप्त ने कृषि-क्षेत्रों की सिंचाई के लिए सुन्दर व्यवस्था की। राज्य की ओर से बहुत से तालाब तथा कुएँ खुदवाये गये। उसके पुष्यगुप्त नामक प्रान्तीय शासक ने सौराष्ट्र में सिंचाई के लिए सुदर्शन नामक विशाल झील का निर्माण करवाया। चंद्रगुप्त ने अनेक ‘भैषज्य-गृह’ अर्थात् औषधालय खुलवाये और उनमें औषधि तथा योग्य वैद्यों की नियुक्ति की। नगरों की स्वच्छता तथा भोजन-सामग्री की शुद्धता के लिए उसने निरीक्षक रखे। शासन की ओर से प्रजा की शिक्षा के लिये समुचित व्यवस्था की गई। शिक्षण कार्य प्रधानमन्त्री अथवा पुरोहित की अध्यक्षता में होता था। शिक्षालयों को राज्य की ओर से सहायता दी जाती थी। इन सब लोक हितकारी कार्यों के अतिरिक्त दीन-दुखियों, असहायों तथा अकाल-पीड़ितों की सहायता की भी समुचित व्यवस्था की गई। इन सब कार्यों का परिणाम यह हुआ कि उसके काल में जनता सुखी तथा सम्पन्न हो गई।

(9) सैन्य व्यवस्था: चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने साम्राज्य की बाह्य शत्रुओं से सुरक्षा करने तथा राज्य विस्तार करने के लिए एक विशाल सेना का गठन किया। चन्द्रगुप्त महत्त्वकांक्षी सम्राट था। वह सम्पूर्ण भारत को अपने अधीन करना चाहता  था। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसे विशाल, सुसज्जित तथा सुशिक्षित सेना की आवश्यकता थी। इसलिये उसने चतुरंगिणी अर्थात् हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदल सेनाओं का गठन किया और उनके प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था की। सम्राट स्वयं सेना का प्रधान सेनापति होता था और युद्ध के समय रण-स्थल में उपस्थित रहकर सेना का संचालन करता था। चन्द्रगुप्त ने जल सेना का भी संगठन किया। सम्पूर्ण सेना के प्रबन्धन के लिए 30 सदस्यों की एक समिति होती थी। सेना का प्रबन्ध छः विभागों में विभक्त था और प्रत्येक विभाग का प्रबंध पांच सदस्यों के हाथों में रहता था। प्रत्येक विभाग का एक अध्यक्ष होता था। पहला विभाग जल सेना का प्रबन्ध करता था। दूसरा विभाग सेना के लिये हर प्रकार की सामग्री तथा रसद जुटाने का प्रबन्ध करता था। तीसरा विभाग पैदल सेना का, चौथा विभाग अश्वारोही सेना का, पाँचवां विभाग हस्ति सेना का और छठा विभाग रथ सेना का प्रबन्ध करता था। सेना के साथ एक चिकित्सा विभाग भी होता था जो घायल तथा रुग्ण सैनिकों की चिकित्सा करता था। चन्द्रगुप्त की सेना स्थायी थी, उसे राज्य की ओर से वेतन तथा अस्त्र-शस्त्र मिलता था। अस्त्र-शस्त्र बनाने के लिए राजकीय कार्यालय भी थे। स्मिथ ने चन्द्रगुुप्त मौर्य के सैनिक संगठन की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘चन्द्रगुप्त मौर्य ने एक विशाल एवं स्थायी सेना की व्यवस्था की जिसे सीधे राजकोष से वेतन दिया जाता था और जो अकबर की सेना से भी अधिक सुयोग्य थी।’

(10) आय-व्यय का साधन: चंद्रगुप्त मौर्य के शासन में राज्य की आय का प्रधान साधन भूमि-कर था। राज्य द्वारा किसानों से उपज का चौथा भाग कर के रूप में लिया जाता था। कभी-कभी केवल आठवां भाग लिया जाता था। सम्राट को किसानों से पशु भी भेंट के रूप में मिलते थे। नगरों में विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के विक्रय-मूल्य का दसवां भाग राज्य को कर के रूप में मिलता था। शास्ति अथवा जुर्माने से भी राज्य को कुछ धन मिल जाता था। आय का बहुत बड़ा भाग सेना तथा शासन पर व्यय होता था। शिल्पकारों, विद्वानों, दार्शनिकों, अनाथों, वृद्धों, रोगियों, अपाहिजों तथा विपत्तिग्रस्त लोगों को भी राज्य से सहायता मिलती थी। अकाल पीड़ितों की भी सहायता की जाती थी। सिंचाई, नगर की किलेबन्दी, भवन निर्माण तथा विभिन्न प्रकार के लोक मंगलकारी कार्यों पर बहुत सा धन व्यय होता था। 

(ब) प्रान्तीय शासन: चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य अत्यंत विशाल था। उस युग में जब यातायात के साधनों का अभाव था तब एक केन्द्र से सम्पूर्ण राज्य का संचालन सम्भव नहीं था। इसलिये चंद्रगुप्त ने साम्राज्य को कई प्रान्तों में विभक्त कर दिया और प्रत्येक प्रांत के शासन के लिए एक प्रांतपति नियुक्त कर दिया। प्रांतपतियों की नियुक्ति सम्राट स्वयं करता था। प्रांतपति अपने समस्त कार्यों के लिए सीधे सम्राट् के प्रति उत्तरदायी होते थे। इस पद पर सम्राट् ऐसे ही लोगों को नियुक्त करता था जिनमें उसका पूर्ण विश्वास रहता था। जो प्रान्त अत्यंत महत्त्व के थे उन पर या तो सम्राट स्वयं नियन्त्रण रखता था या राजकुल के राजकुमारों को नियुक्त करता था। यह शासक ‘कुमार-महामात्य’ कहलाते थे। अन्य प्रांतों के महामात्य ‘राष्ट्रीय’ कहलाते थे। प्रान्त में शांति रखना और वहाँ के शासन को सुचारू रीति से चलाना प्रांतपति का प्रधान कार्य था। युद्ध के समय सम्राट को सैनिक सहायता पहुंचाना भी उसका प्रमुख कर्त्तव्य होता था। सम्राट् प्रान्तपतियों पर कड़ा नियंत्रण रखता था और गुप्तचरों के माध्यम से उनकी गतिविधियों की सूचना प्राप्त करता था। स्मिथ ने लिखा है- ‘केन्द्रीय मौर्य सरकार का नियन्त्रण सुदूरस्थ प्रान्तों तथा अधीनस्थ पदाधिकारियों पर अकबर द्वारा प्रयुक्त नियन्त्रण से भी अधिक कठोर प्रतीत होता है।’

(स) स्थानीय शासन: स्थानीय शासन का तात्पर्य गाँवों तथा नगरों के शासन से है। चन्द्रगुप्त ने इस बात का अनुभव किया कि यदि गाँवों तथा नगरों का शासन स्थानीय अर्थात् वहीं के लोगों को सौंप दिया जाय तो अति उत्तम होगा। इसलिये उसने गाँवों तथा नगरों की संस्थाओं का संगठन कर उन्हें पर्याप्त स्वतंत्रता दे रखी थी। इस प्रकार आधुनिक ग्राम-पंचायतों तथा नगरपालिकाओं का बीजारोपण चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन-काल में हो चुका था।

(द) गाँव का शासन: गाँव शासन की सबसे छोटी इकाई होता था। गाँव के प्रबन्ध के लिए एक ‘ग्रामिक’ होता था। वह राजकीय कर्मचारी नहीं होता था वरन् ग्रामवासियों द्वारा चुना जाता था और उनके प्रतिनिधि के रूप में अवैतनिक कार्य करता था। चूंकि ‘ग्रामिक’ वेतन नहीं लेता था इसलिये ऐसा लगता है कि गाँव का प्रतिष्ठित तथा सम्पन्न व्यक्ति इस पद के लिए चुन लिया जाता था। ‘ग्रामिक’ अपने समस्त कार्य, गाँव के अनुभवी वयोवृद्धों के परामर्श तथा सहायता से करता था। प्रत्येक गाँव में राजा का एक कर्मचारी भी होता था जो ‘ग्राम-भृतक’ अथवा ‘ग्राम-भोजक’ कहलाता था। ‘ग्रामिक’ के ऊपर ‘गोप’ होता था, जिसके अनुशासन में पाँच से दस गाँव होते थे। ‘गोप’ के ऊपर ‘स्थानिक’ होता था। उसके अनुशासन में आठ सौ गाँव होते थे ‘स्थानिक’ के ऊपर ‘समाहर्ता’ होता था जो सम्पूर्ण जनपद का प्रबन्ध करता था।

(य) नगर प्रबन्धन: चंद्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य में नगर प्रबन्धन के लिए आधुनिक नगरपालिकाओं जैसा संगठन विकसित किया गया था। यूनानी राजदूत मेगस्थनीज ने नगर प्रबन्धन का अत्यन्त विस्तृत विवरण दिया है। नगर का प्रधान ‘नगराध्यक्ष’ कहलाता था। कौटिल्य ने अपने ‘अर्थशात्र’ में उसे ‘पौर-व्यावहारिक’ नाम से पुकारा है जो राज्य का एक उच्च पदाधिकरी था। वह आधुनिक काल के नगर प्रमुख की भांति होता था। मेगस्थनीज के अनुसार नगर के प्रबन्धन के लिए छः समितियाँ होती थीं। प्रत्येक समिति में पांच सदस्य होते थे। यह कहना उचित होगा कि आधुनिक नगरपालिकाओं का बीजारोपण चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में हुआ था।

पहली समिति शिल्प-कला थी। यह समिति शिल्प तथा उद्योग-धन्धों का प्रबन्ध करती थी। कारीगरों की मजदूरी निश्चित करना, उनसे अच्छा काम लेना, उनकी रक्षा का प्रबन्ध करना, कच्चे माल का निरीक्षण करना आदि इस समिति के प्रधान कार्य थे। यदि कोई व्यक्ति कारीगरों का अंग-भंग कर देता था तो उसे प्राणदण्ड दिया जाता था।

दूसरी समिति विदेशियों की देखभाल करती थी। विदेशियों को हर प्रकार की सुविधा देना उसका प्रधान कार्य था। यह समिति विदेशियों के ठहरने तथा बीमार हो जाने पर उनकी चिकित्सा करवाने और मर जाने पर उनकी दाह-क्रिया करने का प्रबन्ध करती थी। मर जाने पर विदेशियों की सम्पत्ति उनके उत्तराधिकारियों को दी जाती थी।

तीसरी समिति जनसंख्या का हिसाब रखती थी। वह जनगणना करवाती थी और जन्म-मरण का हिसाब रखती थी। आजकल भी नगरपालिकाओं को यह कार्य करना पड़ता है। जनगणना कर लेने से करों को वसूलने में बड़ी सुविधा होती थी।

चौथी समिति वाणिज्य व्यवसाय का प्रबन्ध करती थी। नाप-तौल की देखभाल करना, ब्रिक्री की वस्तुओं का भाव निश्चित करना और बाटों की समुचित व्यवस्था करना इस समिति का प्रधान कार्य होता था। व्यापारियों को व्यापार करने के लिए राजकीय आज्ञा-पत्र लेना पड़ता था और उसके लिए कर देना पड़ता था। जो लोग एक से अधिक वस्तुओं का व्यापार करते थे उन्हें दो-गुना कर देना पड़ता था।

पांचवी समिति कारखानों में बनी हुई वस्तुओं की देखभाल करती थी। बेचने वाले नई तथा पुरानी वस्तुओं को मिला नहीं सकते थे। मिलावट करने वालों को कठोर दण्ड दिया जाता था।

छठी तथा अन्तिम समिति कर वसूल करने का काम करती थी। विक्रय की हुई वस्तुओं के मूल्य का दसवां भाग, कर के रूप में राज्य को मिलता था। यह कर अथवा चुंगी बड़ी कड़ाई के साथ वसूल की जाती थी। जो लोग कर देने में बेईमानी करते थे उन्हें दण्डित किया जाता था, यहाँ तक कि प्राण-दण्ड भी दिया जा सकता था।

उपर्युक्त विवरण से इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि चंद्रगुप्त मौर्य का शासन सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित था। इस कारण उसका शासन आगामी मौर्य शासकों के लिए पथ-प्रदर्शक तथा उनके शासन की आधार-शिला बन गया।

मौर्य-शासन के सम्बन्ध में स्मिथ ने लिखा है- ‘मौर्य शासन बड़ा ही सुसंगठित तथा पूर्ण सुयोग्य एकतन्त्र था जिसमें अकबर से भी अधिक विस्तृत साम्राज्य पर नियन्त्रण रखने की क्षमता थी। बहुत सी बातों में इसने आधुनिक काल की संस्थाओं का पूर्वाभास दिया था।’

मेगस्थनीज का विवरण

सैल्यूकस ने मेगस्थनीज को अपना राजदूत बना कर चन्द्रगुप्त की राजधानी पाटलिपुत्र में रखा था। वह बहुत दिनों तक चन्द्रगुप्त के दरबार में रहा जिससे उसे मौर्य राज्यतंत्र तथा भारतीय समाज को अपनी आँखों से देखने का अवसर प्राप्त हुआ। उसने जो कुछ देखा और अन्य लोगों से सुना उसे ‘इण्डिका’ नामक पुस्तक में लिख दिया। यद्यपि यह ग्रन्थ अब तक उपलब्ध नहीं हो सका है परन्तु इस ग्रंथ की बहुत सी बातों को अन्य यूनानी लेखकों ने अपने ग्रन्थों में लिखा है। इन सबका संग्रह कर लिया गया है जिसके अध्ययन से मेगस्थनीज के भारतीय विवरण का बोध हो जाता है। कुछ इतिहासकारों ने मेगस्थनीज को नितान्त झूठा तथा ढोंगी बताया है और उसके विवरण को बिल्कुल अविश्वसनीय बताया है। अनुमान होता है कि जो कुछ उसने अपनी आँखों से देखा, उसमें सत्य का बहुत बड़ा अंश विद्यमान है परन्तु जो कुछ उसने दूसरों से सुनकर लिखा, वे असत्य से भरी हुई हैं। यूनानी होने के कारण वह भारतीय प्रथाओं को ठीक से समझ नहीं सका, इसलिये उनके विषय में उसने भ्रमपूर्ण बातें लिख दीं। कई स्थानों पर उसने भारतीय परम्पराओं को यूनानी परम्पराओं से मिला दिया है। दक्षिण भारत को उसने देखा ही नहीं था और उसके विषय में दूसरों से सुनकर लिखा है। इसलिये उसमें असत्य की मात्रा अधिक है। जो कुछ उसने भारतीय जनश्रुतियों के आधार पर लिखा, वह भी विश्वसनीय नहीं है। इतनी बातों के होते हुए भी भारतीय इतिहास के निर्माण में मेगस्थनीज के विवरण से बड़ी सहायता मिलती है। उसने भाारत की भौगोलिक, सामाजिक तथा राजनीतिक दशा पर पर्याप्त प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है।

(1) भौगोलिक दशा: भारत की सीमा का वर्णन करते हुए मेगस्थनीज ने लिखा है कि इसके उत्तर में हिमालय पर्वत, दक्षिण तथा पूर्व में समुद्र और पश्चिम में सिन्धु, गंगा, सोन आदि नदियाँ विद्यमान हैं। दक्षिण भारत की नदियों का उल्लेख उसने बिल्कुल नहीं किया। चूंकि अफगानिस्तान, चन्द्रगुप्त के साम्राज्य का अंग था इसलिये उसने अफगानिस्तान की काबुल, स्वात, गोमल आदि नदियों का उल्लेख किया है। उसने भारत की जलवायु के विषय में लिखा है कि गर्मी की ऋतु में बड़ी गर्मी पड़ती है। वर्षा, गर्मी तथा जाड़ा दोनों ही ऋतुओं में होती है, परन्तु गर्मी के दिनों में अधिक वर्षा होती है।

(2) सामाजिक दशा: मेगस्थनीज ने मौर्य कालीन सामाज का वर्णन करते हुए सात वर्गों अथवा जातियों का उल्लेख किया है। पहले वर्ग में उसने ब्राह्मणांे तथा दार्शनिकों को रखा है। यद्यपि इनकी संख्या कम थी परन्तु समाज में ये लोग बड़े आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। ये लोग राजा तथा प्रजा के लिए यज्ञ करते थे। इस सेवा के कारण ये लोग राज्य-करों से मुक्त रहते थे। दूसरा वर्ग कृषकों का था। समाज में इनकी संख्या सर्वाधिक थी। ये लोग खेती करते थे। अपने खेतों की उपज का चौथाई भाग राज्य को कर के रूप में देते थे। लड़ाई के समय में भी इनकी खेती को कोई हानि नहीं पहुंचती थी। तीसरा वर्ग ग्वालों तथा शिकारियों का था। ग्वालों का मुख्य व्यवसाय पशु-पालन तथा दूध बेचना और शिकारियों का जंगली पशुओं का शिकार करना था। ग्वाले पशुओं को बेचते और किराये पर भी देते थे। शिकारी लोग जंगली पशुओं का शिकार करके खेतों की रक्षा करते थे। इस सेवा के बदले में शिकारियों को राज्य की ओर से धन मिलता था। शिकारी किसी एक स्थान पर नहीं रहते थे वरन् एक स्थान से दूसरे स्थान को घूमा करते थे। चौथे वर्ग में व्यापारी तथा श्रमजीवी आते थे। व्यापारी विभिन्न प्रकार के व्यवसाय तथा उद्योग-धन्धों में लगे रहते थे। उन्हें अपनी आय का कुछ भाग राज्य को कर के रूप में देना पड़ता था। विदेशों से व्यापार करने के लिये व्यापारियों को राज्य की ओर से धन उधार मिलता था। श्रमजीवी लोग अन्य वर्गों की सेवा का कार्य करते थे। पाँचवां वर्ग योद्धाओं का था। इस वर्ग का सारा खर्च राजा स्वयं चलाता था। योद्धा सदैव युद्ध करने के लिये उद्यत रहते थे और शान्ति के समय में आनन्द का जीवन व्यतीत करते थे। छठा वर्ग निरीक्षकों का था। इस वर्ग का कर्त्तव्य राजा के कार्यों का निरीक्षण करना और उसकी सूचना सम्राट को देना होता था। इन निरीक्षकों में से जो सर्वाधिक योग्य तथा विश्वसनीय होते थे, वे राजधानी तथा राज-शिविर के निरीक्षण के लिए रखे जाते थे। निरीक्षक गुप्तचरों का भी काम करते थे। सातवां वर्ग मन्त्रियों तथा परामर्शदाताओं का था। इस वर्ग की संख्या सबसे कम थी परन्तु यह वर्ग समाज में सर्वाधिक शिक्षित तथा बुद्धिमान होता था। राज्य के उच्च पद इन्हीं को दिये जाते थे। मेगस्थनीज का कहना है कि यह सातों जातियाँ अपने निश्चित कार्य को ही कर सकती थीं। इन्हें अन्य कार्यों को करने की आज्ञा नहीं थी। इनमें अन्तर्जातीय विवाह भी नहीं हो सकता था। मेगस्थनीज लिखता है कि भारतवासियों को अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने का बड़ा शौक था। इनके वस्त्र बहुमूल्य होते थे और उन पर सोने का काम किया जाता था। विवाह का उद्देश्य भोग करना, जीवनसंगी बनाना और पुत्र उत्पन्न करना था। इस काल में बहु-विवाह की भी प्रथा भी थी परन्तु यह सम्भवतः राजवंशों तक सीमित थी। एक विवाह-प्रथा में वर का पिता एक जोड़ी बैल, कन्या के पिता को देता था। मेगस्थनीज ने लिखा है कि भारतवासी लेखन-कला नहीं जानते थे। यह बिल्कुल असत्य प्रतीत होता है। मेगस्थनीज ने ब्राह्मणों, संन्यासियों तथा श्रमणों का भी उल्लेख किया है। ये लोग अत्यन्त सरल जीवन व्यतीत करते थे और सांसारिक जीवन त्याग कर बस्ती से दूर निवास करते थे। ये लोग शाकाहारी होते थे और कुशासन अथवा मृगचर्म पर सोते थे। ये लोग प्रायः घूम कर जनता को उपदेश दिया करते थे। 

(3) राजनीतिक दशा: मेगस्थनीज ने लिखा है कि राजा दिन भर अपनी राजसभा में रहता था और न्याय करता था। उसे अपनी जान का सदैव भय लगा रहता था। इसलिये वह एक कमरे में दो रात से अधिक नहीं रहता था। जब कभी सम्राट शिकार के लिए जाता था तो उसका मार्ग रस्सियों से अलग कर दिया जाता था और यदि कोई इन रस्सियों को लांघने का प्रयत्न करता था तो उसे प्राण-दण्ड दिया जाता था। मेगस्थनीज ने सम्राट के राज-भवन का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। वह लिखता है कि सम्राट के भवन पाटलिपुत्र में बने थे। इनके चारों और सुन्दर उद्यान तथा सरोवर थे। राजभवन के आंगन में पालतू मोर रखे जाते थे। उद्यानों में सुन्दर तोते बहुत बड़ी संख्या में पाये जाते थे जो राज-भवन के ऊपर मंडराया करते थे। सरोवरों में सुन्दर मछलियाँ रहती थी। मछलियों को पकड़ने की किसी को आज्ञा नहीं थी परन्तु राजकुमार लोग आमोद-प्रमोद के लिए उन्हें पकड़ सकते थे। सम्राट् प्रायः राज-प्रासाद के भीतर ही रहता था। उसकी रक्षा के लिए नारी संरक्षिकाएँ होती थीं। केवल चार अवसरों पर सम्राट् अपने राज-भवन के बाहर निकलता था- (1) युद्ध के समय, (2) न्यायाधीश का पद ग्रहण करने के लिए, (3) बलि देने के लिए तथा (4) आखेट के लिए। मेगस्थनीज ने राज-दरबार का भी बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। उसके कथनानुसार चन्द्रगुप्त का दरबार बड़े ठाट-बाट का था। सोने-चांदी के सुन्दर बर्तन, जड़ाऊ मेज तथा कुर्सियाँ और कीमखाब के बारीक वस्त्र, देखने वालों की आँख को चकाचौंध कर देते थे। सम्राट मोती की मालाओं से अलंकृत पालकी और सुनहले फूलों से विभूषित हाथी पर बैठ कर राज-भवन के बाहर जाता था। सम्राट को शिकार करने का बड़ा शौक था। उसके आखेट के लिए बड़े-बड़े वन सुरक्षित रखे जाते थे। राजा को पहलवानों के दंगल, घुड़दौड़, पशुओं के युद्ध आदि देखने का बड़ा शौक था।

मेगस्थनीज ने चन्द्रगुप्त की राजधानी पाटलिपुत्र का भी बड़ा विस्तृत वर्णन किया है। वह लिखता है कि पाटलिपुत्र भारत का सबसे बड़ा नगर है। वह सोन तथा गंगा नदियों के संगम पर स्थित है। यह नगर साढ़े नौ मील लम्बा और पौने दो मील चौड़ा है। नगर के चारों ओर एक खाई है जिसकी चौड़ाई 606 फुट और गहराई 45 फुट है। उसके चारों ओर एक दीवार है जिसमें 64 द्वार और 570 बुर्ज बने हैं। पाटलिपुत्र के प्रबन्ध के विषय में मेगस्थनीज ने लिखा है कि नगर का प्रबन्ध छः समितियों द्वारा होता था जिनमें से प्रत्येक में पाँच-पाँच सदस्य होते थे। मोरलैंड ने मेगस्थनीज द्वारा वर्णित शासन की ओर संकेत करते हुए लिखा है- ‘जहाँ तक शासन का सम्बन्ध है, मेगस्थनीज के वर्णनांशों से हमें यह पता लग जाता है कि यह सुव्यस्थित तथा पूर्णतया सुंसगठित था।’

चन्द्रगुप्त के अन्तिम दिवस

जैन अनुश्रुतियों के अनुसार चन्द्रगुप्त ने महावीर स्वामी की शिष्यता ग्रहण कर ली थी। चन्द्रगुप्त ने 24 वर्षों तक शासन करने के उपरान्त राज-वैभव को त्यागकर 298 ई. पू. में संन्यास ग्रहण कर लिया। उसके शासन-काल के अंतिम भाग में उसके राज्य में बड़ा दुर्भिक्ष पड़ा। इसलिये जैन-भिक्षुकों के एक बहुत बड़े दल ने आचार्य भद्रबाहु के नेतृत्व में कर्नाटक के लिए प्रस्थान किया। चन्द्रगुप्त को भी वैराग्य उत्पन्न हो गया और वह अपना राज्य अपने पुत्र बिन्दुसार को सौंप कर स्वयं कर्नाटक के पर्वतों की ओर चला गया। वहीं पर एक जैन साधु की भांति उपवास करके उसने प्राण त्यागे।

चन्द्रगुप्त के कार्यों का मूल्याकंन

चन्द्र्रगुप्त मौर्य ऐतिहासिक काल का, भारत का प्रथम सम्राट था। उसे भारत में विशाल साम्राज्य की स्थापना करने का श्रेय प्राप्त है। जिन परिस्थितियों में उसने इस साम्राज्य की स्थापना की वे उसके गौरव को अधिक बढ़ा देती हैं। जिस समय उसने साम्राज्य स्थापित करने की कल्पना की उस समय वह साधनहीन था। न उसके पास सेना थी और न सेना को संगठित करने के लिए धन था। वह अपने प्राणों की रक्षा के लिए इधर-उधर भटक रहा था। अपनी प्रतिभा के बल से उसने सेना और धन दोनों प्राप्त कर लिये। सौभाग्य से उसे चाणक्य जैसे अद्वितीय प्रतिभा वाले ब्राह्मण का धन तथा बुद्धि प्राप्त हो गई। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने दोनों का सदुपयोग किया। नन्दों के विशाल तथा शक्तिशाली साम्राज्य पर विजय प्राप्त करना खेल नहीं था। उसने न केवल एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की वरन् यूनानियों को भी अपने देश से मार भगाया और देश को विदेशी शासन से मुक्त करने का यश प्राप्त किया। वह प्रथम तथा अन्तिम भारतीय शासक था जिसने अफगानिस्तान तथा बिलोचिस्तान पर भी शासन किया। भारत की प्राकृतिक सीमाओं के बाहर शासन करने का यश उसी को प्राप्त है। उसने भारत के छोटे-छोटे राज्यों को समाप्त कर देश को राजनीतिक एकता प्रदान की और भारत के भावी महत्त्वाकांक्षी सम्राटों के लिए आदर्श उपस्थित किया। उसने न केवल सम्पूर्ण उत्तरी भारत पर एकछत्र साम्राज्य स्थापित किया वरन् दक्षिण भारत के भी बड़े भाग पर शासन किया। उन दिनों, जब यातायात के साधनों का अभाव था, उसने एक असम्भव कार्य को सम्भव कर दिखाया। चन्द्रगुप्त ने न केवल एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की वरन् उसे सुरक्षित तथा स्थायी बनाने की भी व्यवस्था की। उसने एक ऐसी सुसंगठित तथा सुसज्जित सेना का संगठन किया जिससे उसका साम्राज्य न केवल उसके अपने जीवन-काल में वरन् उसके उत्तराधिकारियों के काल में भी बाह्य आक्रमणों से सुरक्षित रहा।

चन्द्रगुप्त मौर्य की कीर्ति न केवल सामारिक दृष्टिकोण से अमर है वरन् उसका प्रशासकीय दृष्टिकोण से भी भारतीय इतिहास में उच्च स्थान है। वह प्रजा को शान्ति, सुख तथा सम्पन्नता प्रदान करने में सफल रहा। उसका शासन लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना का आदर्श रूप था। उसने सत्ता का अत्यधिक विकेन्द्रीकरण करके प्रांतीय तथा स्थानीय शासन को अनेक अधिकार प्रदान किये। उसके शासन का आधार विकसित अधिकारी तंत्र था। उसके राज्य में उचित एवं कठोर न्याय व्यवस्था स्थापित की गई। उसके शासन में कृषि, शिल्प, उद्योग, संचार, वाणिज्य एवं व्यापार की वृद्धि के लिये राज्य की ओर से कई उपाय किये गये।

चन्द्रगुप्त मौर्य ने जिस शासन व्यवस्था को प्रारम्भ किया वह भावी शासकों के लिए आदर्श तथा अनुकरणीय बन गई। उसने जिस मन्त्रिपरिषद् तथा विभागीय व्यवस्था का प्रारम्भ किया वह थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ आज भी विश्व के समस्त प्रजातान्त्रिक राज्यों में प्रचलित है। उसके द्वारा स्थापित स्थानीय शासन आज भी ग्राम-पंचायतों, नगर पालिकाओं तथा महापालिकाओं के रूप में कार्य कर रहा है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि सैनिक तथा प्रशासकीय दोनों ही दृष्टिकोण से चन्द्रगुप्त मौर्य एक आदर्श तथा अनुकरणीय सम्राट था। भारत के बहुत कम शासकों को इस बात का श्रेय है कि उन्होंने अपने इतने छोटे से शासन काल (24 वर्ष) में इतनी अधिक सफलताएं अर्जित की हों।

बिन्दुसार (268 ई.पू.-273 ई. पू.)

चन्द्रगुप्त के पश्चात् उसका पुत्र बिन्दुसार मगध के सिंहासन पर बैठा। उसने ‘अमित्रघात’ की उपाधि धारण की जिसका अर्थ होता है अमित्रों अर्थात् शत्रुओं का घात अर्थात् विनाश करने वाला। यद्यपि वह अपने पिता से प्राप्त साम्राज्य की सीमा में वृद्धि नहीं कर सका परन्तु वह आन्तरिक विद्रोहों को शान्त कर साम्राज्य को संगठित रखने में पूर्णरूप से समर्थ रहा। उसके शासन-काल में पहला विद्रोह तक्षशिला में हुआ। उस समय बिन्दुसार का ज्येष्ठ पुत्र सुसीम वहाँ शासन कर रहा था। बिन्दुसार ने विद्रोह की सूचना पाते ही अपने दूसरे पुत्र अशोक को विप्लव शान्त करने के लिए तक्षशिला भेजा। वहाँ पहुंचने पर ज्ञात हुआ कि प्रजा ने राजा अथवा राजकुमार के विरुद्ध विद्रोह नहीं किया है वरन् यह विद्रोह अमात्यों के विरुद्ध था जो प्रजा पर अत्याचार करते थे। अशोक ने अमात्यों का दमन करके तक्षशिला में शान्ति स्थापित की। विदेशी राज्यों के साथ बिन्दुसार ने अपने पिता की भाँति मैत्री-पूर्ण सम्बन्ध रखा। मिस्र तथा सीरिया के शासकों ने अपने राजदूत पाटलिपुत्र भेजे जहाँ उनका बड़ा आदर-सत्कार हुआ। भारत के बाहर परिचमोत्तर प्रदेश में उसने यूनानियों के साथ मैत्री का व्यवहार किया तथा उनके साथ व्यापारिक एवं सांस्कृतिक सम्बन्ध रखा।

अध्याय – 13 : अशोक महान्

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मौर्य सम्राट बिन्दुसार के कई पुत्र तथा कन्याएँ थीं। अशोक उसका ज्येष्ठ पुत्र था जो बड़ा ही वीर तथा साहसी था। बौद्ध ग्रन्थ ‘दिव्यावदान’ में अशोक के दो भाइयों सुसीम तथा विगतशोक का उल्लेख मिलता है। सुसीम अशोक का सौतेला और विगतशोक उसका सगा भाई था। 273 ई.पू. में बिन्दुसार का निधन हो गया और उसका ज्येष्ठ पुत्र अशोक मगध के सिंहासन पर बैठा।

अशोक का प्रारम्भिक जीवन

अशोक बिन्दुसार का पुत्र और चन्द्रगुप्त का पौत्र था। उसकी माता चम्पा-निवासी एक ब्राह्मण की कन्या थी। वह ब्राह्मण बिन्दुसार को अपनी रूपवती, दर्शनीय कन्या उपहार (भेंट) के रूप में दे गया था। अन्तःपुर की अन्य रानियाँ उसके असीम सौन्दर्य से आतंकित हो उठीं और उन्होंने उसे नाइन (नौकरानी) के रूप में रनिवास में रखा। कालान्तर में सम्राट को इस रहस्य का पता लग गया और उसने उसे अपनी पटरानी बना लिया। ब्राह्मण-कन्या से बिन्दुसार के दो पुत्र उत्पन्न हुए। इनमें से एक का नाम अशोक और दूसरे का विगतशोक रखा गया। अशोक की माँ का नाम कई ग्रन्थों में ‘धम्मा’ मिलता है परन्तु कुछ ग्रन्थों में उसे ‘सुभद्रांगी’ अर्थात् ‘अच्छे अंगों वाली’ कहा गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसका बचपन का नाम ‘धम्मा’ था। अत्यन्त रूपवती होने के कारण उसका नाम ‘सुभद्रांगी’ पड़ गया।

कुछ विद्वानों के विचार में अशोक सैल्यूकस की पुत्री का पुत्र था जिसका विवाह उसने चन्द्रगुप्त से परास्त होने के बाद बिन्दुसार के साथ कर दिया था, परन्तु इस बात का कोई विश्वस्त प्रमाण नहीं है। अशोक के कई पत्नियाँ थी जिनमें से ‘देवी’ सर्वाधिक प्रसिद्ध है। वह विदिशा के एक श्रेष्ठी (व्यवसायी) की कन्या थी जिसका नाम देवी था। महेन्द्र तथा संघमित्रा इसी देवी की सन्तान थे जिन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार में बड़ा योगदान दिया। अशोक की दूसरी पत्नी का नाम पद्मावती था जिससे कुणाल नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था। अशोक ने अपने पिता के जीवन काल में ही शासन का काफी अनुभव प्राप्त कर लिया था। वह अवन्ति (उज्जयिनी) तथा तक्षशिला का प्रान्तपति रह चुका था। इससे स्पष्ट है कि बिन्दुसार को अशोक की कार्य-कुशलता, विवेकशीलता तथा वीरता में पूरा विश्वास हो गया था अन्यथा वह सुदूरस्थ प्रान्तों में इतने महत्त्वपूर्ण पद पर उसे नियुक्त नहीं करता। 

अशोक का सिंहासनारोहण

महावंश टीका में लिखा है कि बिन्दुसार के एक सौ पुत्र थे जिनमें विगतशोक ही अशोक का सगा भाई था। शेष समस्त भाई उसके सगे भाई न थे। इनमें सुमन अथवा सुसीम सबसे बड़ा था। अशोक सुमन से छोटा और शेष भाइयों से बड़ा था। वह अपने समस्त भाइयों से अधिक तेजस्वी था। कहा जाता है कि अशोक ने अपने 99 सौतेले भाइयों की हत्या कर समस्त जम्बूद्वीप अर्थात् भारतवर्ष पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। यद्यपि भाइयों की हत्या की कथा कपोल-कल्पित और बौद्ध आचार्यों की मन-गढ़न्त प्रतीत होती है परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि अशोक को अपने बड़े सौतेले भाई सुसीम के साथ संघर्ष करना पड़ा था। विभिन्न सूत्रों से ज्ञात होता है कि बिन्दुसार सुसीम को अधिक प्यार करता था और उसे अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण नैतिक दृष्टि से भी उसी को सिंहासन मिलना चाहिए था परन्तु अशोक अपने भाइयों में सर्वाधिक योग्य था और अवन्ति तथा तक्षशिला में सफलता पूर्वक शासन करके और तक्षशिला के विद्रोह को शान्त करके अपनी वीरता तथा शासन क्षमता का परिचय दे चुका था। इसलिये प्रधानमन्त्री खल्वाटक तथा अन्य अमात्य उसी को राजा बनाना चाहते थे। फलतः जब बिन्दुसार की मृत्यु हो गई तब अशोक तथा सुसीम में संघर्ष हुआ। इस संघर्ष का एक बहुत बड़ा प्रमाण यह है कि अशोक का राज्याभिषेक उसके सिंहासनारोहण के चार वर्ष बाद हुआ था। सम्भवतः भाइयों के पारस्परिक संघर्ष के कारण ही यह विलम्ब हुआ।

अधिंकाश विद्वानों की धारणा है कि संभवतः इस युद्ध में सुसीम तथा उसके कुछ अन्य भाइयों की हत्या हुई। अशोक के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसके राज्याभिषेक के बाद भी उसके कई भाई जीवित थे। प्रतीत होता है कि बौद्ध आचार्यों ने इस बात को दिखाने के लिए कि बौद्ध-धर्म को स्वीकार कर लेने पर एक क्रूर तथा हत्यारा व्यक्ति भी उदार तथा दयावान् बन सकता है, अशोक द्वारा अपने 99 भाइयों की हत्या की कथा का आविष्कार किया गया।

अशोक की विजयें

सिंहासनारोहण के उपरान्त अशोक ने अपने पिता बिन्दुसार तथा अपने पितामह चन्द्रगुप्त की साम्राज्य विस्तार नीति को जारी रखा। सैल्यूकस पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त चन्द्रगुप्त ने विदेशियों के साथ मैत्री रखने तथा सम्पूर्ण भारत पर एकछत्र साम्राज्य स्थापित करने का निश्चय किया था। अशोक ने भी इसी नीति को अपनाया। उसने यूनानियों के साथ मैत्री भाव रखा और उनके साथ राजदूतों का आदान-प्रदान किया। उसने यूनानियों को राजकीय पदों पर भी नियुक्त किया। सम्पूर्ण भारत पर एकछत्र साम्राज्य स्थापित करने के लिए उसने दिग्विजय की नीति का अनुसरण किया। उसने उन पड़ोसी राज्यों पर, जो साम्राज्य के बाहर थे, आक्रमण करना आरम्भ कर दिया।

काश्मीर विजय: राजतरंगिणी के अनुसार अशोक काश्मीर का प्रथम मौर्य  सम्राट था। उसने कश्मीर घाटी में श्रीनगर की स्थापना की थी। इससे कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाल लिया कि अशोक ने ही काश्मीर को जीतकर मगध साम्राजय में मिलाया था परंतु अशोक के बारे में विख्यात है कि उसने कलिंग के अतिरिक्त और कोई विजय नहीं की थी। बिंदुसार ने भी साम्राज्य का विस्तार नहीं किया था। अतः काश्मीर विजय का श्रेय चंद्रगुप्त मौर्य को ही मिलना चाहिये। राजतरंगिणी के अतिरिक्त और किसी स्रोत से अशोक द्वारा काश्मीर जीतने की पुष्टि नहीं होती।

कंलिग विजय: कंलिग का राज्य अशोक के साम्राज्य के दक्षिण-पूर्व में जहाँ आधुनिक उड़ीसा का राज्य है, स्थित था। अशोक के सिंहासनारोहण के समय वह पूर्ण रूप से स्वतन्त्र था और उसकी गणना शक्तिशाली राज्यों में होती थी। कंलिग के राजा ने एक विशाल सेना का संगठन कर लिया था और अपने राज्य को सुदृढ़़ बनाने में संलग्न था। ऐसे प्रबल राज्य का मगध-राज्य की सीमा पर रहना मौर्य साम्राज्य के लिये हितकर नहीं था। इसलिये अपने सिंहासनारोहण के तेरहवें वर्ष और अपने राज्याभिषेक के नवें वर्ष में अशोक ने कलिंग पर एक विशाल सेना के साथ आक्रमण कर दिया। यद्यपि कंलिग की सेना बड़ी वीरता तथा साहस के साथ लड़ी परन्तु वह अशोक की विशाल सेना के सामने ठहर न सकी और अन्त में परास्त होकर भाग खड़ी हुई। कलिंग पर अशोक का अधिकार स्थापित हो गया। उसने अपने एक प्रतिनिधि को वहाँ का शासक नियुक्त कर दिया। इस प्रकार कंलिग मगध साम्राज्य का अंग बन गया ।

कंलिग युद्ध के परिणाम: कंलिगयुद्ध का पहला परिणाम यह हुआ कि मगध साम्राज्य की सीमा में वृद्धि हो गई और अशोक की साम्राज्यवादी नीति पूर्ण रूप से सफल सिद्ध हुई। अब उसका राज्य पश्चिम में हिन्दूकुश पर्वत से लेकर पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय पर्वत से लेकर दक्षिण में मैसूर तक फैल गया। कंलिग विजय का दूसरा परिणाम यह हुआ कि इसमें भीषण हत्याकांड हुआ। कहा जाता है कि इस युद्ध में हताहतों की संख्या दो लाख पचास हजार से अधिक थी जिनमें सैनिकों के साथ-साथ साधारण जनता भी सम्मिलित थी। इस भीषण रक्तपात के पश्चात् कंलिग में भयानक महामारी फैली जिसने असंख्य प्राणियों के प्राण ले लिये। अशोक के हृदय पर कंलिग-युद्ध के भीषण नर-संहार का गहरा प्रभाव पड़ा। उसने सकंल्प किया कि भविष्य में वह युद्ध नहीं करेगाा और युद्ध के स्थान पर धर्म-यात्राएँ करेगाा। अब युद्ध-घोष के स्थान पर धर्म-घोष हुआ करेगा और सबसे मैत्री तथा सद्भावना रखी जायेगी। यदि कोई क्षति भी पहुँचायेगाा तो सम्राट् उसे यथा सम्भव सहन करेगा। अशोक ने न केवल स्वयं युद्ध न करने का निश्चय किया वरन् अपने पुत्र तथा पौत्र को भी युद्ध न करने का आदेश दिया।

कुछ इतिहासकारों के विचार में अशोक की युद्ध न करने की नीति का बुरा राजनीतिक प्रभाव पड़ा। जिससे भारत की सैनिक शक्ति उत्तरोत्तर निर्बल होती गई, विदेशियों को भारत पर आक्रमण करने का दुःसाहस हुआ और उन्होंने विभिन्न भागों पर अधिकार स्थापित कर लिया। भारत पर इस युद्ध का गहरा धार्मिक तथा सांस्कृतिक प्रभाव पड़ा। अशोक ने इस युद्ध के उपरान्त बौद्ध-धर्म को स्वीकार कर लिया और उसके प्रचार का प्रयास किया, जिसके फलस्वरूप बौद्ध धर्म का न केवल सम्पूर्ण भारत में वरन् विदेशों में भी प्रचार हो गया। अशोक ने जिन देशों में बौद्ध-धर्म का प्रचार करवाया उनके साथ उसने मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये। इससे उन देशों के साथ भारत का व्यापारिक तथा सांस्कृतिक सम्बन्ध भी स्थापित हो गया और उन देशों में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार हो गया।

कंलिग युद्ध का महत्त्व: कंलिग युद्ध का भारत के इतिहास में बहुत बड़ा महत्त्व है। इसका न केवल राजनीतिक वरन् सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी बहुत बड़ा महत्त्व है। वास्तव में यहीं से भारत के इतिहास में एक नये युग का आरम्भ होता है। यह युग है शान्ति तथा सदभावना का, सामाजिक सुधार का, नैतिक उन्नति का, धार्मिक प्रचार का, आर्थिक समृद्धि का, साम्राज्य-विस्तार के विराम का, सैनिक हा्रस का तथा बृहत्तर भारत के प्रसार का। यहीं से उस साम्राज्यवादी नीति का अन्त हो जाता है जिसका प्रारम्भ चन्द्रगुप्त मौर्य ने किया था। राजनीति में अहिंसा की नीति के अनुसारण से भारत का सैनिक बल समाप्त हो गया और वह पतनोन्मुख हो गया परन्तु अशोक ने अपनी सारी शक्ति प्रजा की आर्थिक तथा आध्यात्मिक उन्नति में लगा दी। भारतीय इतिहास में अन्तर्राष्ट्रीयता का युग यहीं से आरम्भ होता है और भारत की कूप-मण्डूकता समाप्त होती है। प्रायः युद्ध में विजय प्राप्त करने से विजय-कामना प्रबल हो जाती है परन्तु कंलिग-युद्ध, प्रथम उदाहरण है जब इसके विजेता ने सैनिक सन्यास ले लिया और भविष्य में युुद्ध न करने का निश्चय किया। यहीं से अशेक की महानता का बीजारोपण हुआ और यह भारतीय नरेशों का शिरोमणि बन गया।

डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने कंलिग युद्ध का महत्त्व बताते हुए लिखा है- ‘कंलिग युद्ध ने अशोक के जीवन को एक नया मोड़ दिया और भारत तथा सम्पूर्ण विश्व के इतिहास पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाला।’ डॉ. एन. एन. घोष ने लिखा है- ‘अशोक ने अपनी तलवार को म्यान में रख लिया और धर्म-चक्र को ग्रहण कर लिया।’ डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने लिखा है- ‘अब भेरि-घोष के स्थान को धर्म-घोष ग्रहण करेगा।’

अशोक का शासन

अशोक की ‘युद्ध-विराम-नीति’ का बड़ा परिणाम यह हुआ कि सारी शक्ति प्रशासकीय विभागों में नियोजित हो गई। अशोक सिंहासन पर बैठने के पूर्व ही, अवन्ति तथा तक्षशिला के प्रान्तपति के रूप में पर्याप्त प्रशासकीय अनुभव प्राप्त कर चुका था। इसलिये उसे अपने पूर्वजों के शासन को संॅभालने में कोई कठिनाई नहीं हुई। अपने शासन के प्रारम्भिक काल में उसने अपने पूर्वजों की साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया और उनके द्वारा स्थापित शासन-व्यवस्था के अनुसार शासन चलाता रहा। शासन का स्वरूप स्वेच्छाचारी, निरंकुश राजतन्त्र था और केन्द्रीय, प्रान्तीय तथा स्थानीय शासन पूर्ववत् चलता रहा। पुरानी मन्त्रि-परिषद तथा विभागीय अध्यक्ष अन्य कर्मचारियों की सहायता से शासन को चलाते रहे परन्तु कलिंग-युद्ध के उपरान्त अशोक ने अपने शासन में नये सिद्धान्तों तथा आदर्शों का समावेश किया। ये आदर्श तथा सिद्धान्त निम्नांकित थे-

अशोक ने अपने शासन का आधार प्रजा-पालन तथा उसके हित-चिन्तन को बनाया। उसने अपनी प्रजा को संतान मानकर उसके अनुकूल आचरण करना आरम्भ किया। अपने द्वितीय कंलिग शिलालेख में अशोक कहता है- ‘समस्त मनुष्य मेरी सन्तान हैं। जिस प्रकार मैं चाहता हूँ कि मेरी सन्तान इस लोक तथा परलोक में सब प्रकार की समृद्धि तथा सुख भोगे, ठीक उसी प्रकार मैं अपनी प्रजा के सुख तथा उसकी समृद्धि की कामना करता हूँ।’ अपने चौथे स्तम्भ-लेख में अशोक ने पितृत्व की भावना को इस प्रकार व्यक्त किया है- जिस प्रकार मनुष्य अपनी संतान को अपनी चतुर धाय के हाथ में सौप कर निश्चिन्त हो जाता है और सोचता है कि वह उस बालक को यथा-शक्ति सुख देने की चेष्टा करेगी, उसी प्रकार अपनी प्रजा के सुख तथा हित-चिन्तन के लिए मैने ‘राजुक’ नामक कर्मचारी नियुक्त किये हैं।’ अशोक अपने सातवें शिलालेख में कहता है, मैंने यह प्रबन्ध किया है कि सब समय में, चाहे मैं भोजन करता रहूँ, चाहे अन्तःपुर में रहूँ, चाहे शयनागार में, चाहे उद्यान में, सर्वत्र मेरे ‘प्रतिवेदक’ (संवाददाता) प्रजा के कार्य की सूचना मुझे दें। मैं प्रजा का कार्य सर्वत्र करूंगा। मैं समस्त कार्य इस दृष्टि से करता हूँ कि प्राणियों के प्रति मेरा जो ऋण है उससे मैं उऋण हो जाऊँ और न केवल इस लोक में लोगों को सुखी करूँ वरन् परलोक में उन्हें स्वर्ग-लोक का अधिकरी बनाऊँ। इस प्रकार अशोक ने शासन में नैतिक तथा लोक-मंगलकारी सिद्धान्तों तथा आदर्शों का सूत्रपात किया।

अशोक को अपने आदर्शों को व्यवहार में लाने के लिये अपने पूर्वजों की शासन व्यवस्था में थोड़ा बहुत परिवर्तन भी करना पड़ा। चूँकि प्रजा की नैतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति करना अशोक के शासन का परम आदर्श था, इसलिये उसने नये पदाधिकारियों की नियुक्ति की जो ‘धर्म-महामात्र’ कहलाये। इनका प्रधान कार्य अकारण दण्डित व्यक्तियों को दण्ड से मुक्त करवाना, ऐसे दण्डित व्यक्तियों के दण्ड को कम करवाना जो वृद्ध हों अथवा जिनके आश्रित बहुत से बाल-बच्चे हों; और विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के हित की चिन्ता करना था। उसने कुछ पुराने पदाधिकारियों के कार्यों में भी वृद्धि कर दी। अपने तीसरे शिलालेख में अशोक करता है कि राज्य के युक्त, राजुक तथा प्रादेशिक नामक पदाधिकारी भविष्य में अपने नियत कार्यों के अतिरिक्त प्रति पांचवें वर्ष दौरा करके धर्म का प्रचार करें।

उदार तथा लोक-मंगलकारी नीति के कारण अशोक को न्याय व्यवस्था में भी कई परिवर्तन करने पड़े। उसके पूर्वजों के काल का दण्ड विधान बड़ा कठोर था। अशोक ने उसमें उदारता का संचार कर दिया। उसके पांचवें शिलालेख से ज्ञात होता है कि वह प्रति वर्ष अपने राज्याभिषेक दिवस पर बंदियों को मुक्त करता था। उसके चौथे शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने यह आज्ञा दे रखी थी कि यदि किसी व्यक्ति को मृत्युदण्ड मिलता हो तो उसे मृत्युदंड देने के पहले तीन दिन का अवकाश देना चाहिये, जिससे वह अवकाश के समय में अपने पापों का प्रायश्चित कर सके, अपने विचारों को सुधार सके तथा कुछ धार्मिक कृत्य कर सके जिससे उसका परलोक सुधर सके। न्याय व्यवस्था में अशोक ने एक और प्रशंसनीय सुधार किया। उसने ‘राजुकों’ (न्यायाधीशों) को पुरस्कार तथा दण्ड देने की पूरी स्वतन्त्रता दे दी जिससे वे आत्म-विश्वास तथा निर्भीकता के साथ अपने कर्त्तव्य का पालन कर सकें और जनता की अधिक से अधिक सेवा कर सकें। 

अशोक ने अपनी प्रजा के जीवन तथा सम्पति की रक्षा की समुचित व्यवस्था करने के साथ-साथ उसके नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास के लिए समुचित वातावरण तैयार करवाया। उसने राज्य के कर्मचारियों को आदेश दिया कि वे प्रजा की नैतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का सदैव ध्यान रखें। अशोक ने उन समारोहों, उत्सवों तथा अनुष्ठानों को बन्द करवा दिया जिनमें मांस, मदिरा तथा नाच गाने का प्रयोग होता था। इनके स्थान पर उसने धर्म समाजों की स्थापना करवाई जिससे प्रजा में धार्मिक भावना तथा नैतिक बल उत्पन्न हो। विहार (आनन्द) यात्राओं के स्थान पर अब उसने धर्म-यात्राओं को प्रोत्साहन दिया और स्वयं धर्म-यात्राएँ करने लगा। अशोक ने स्वयं अपनी प्रजा के समक्ष अपने उच्च एवं पवित्र नैतिक आचरण का आदर्श रखा, जिसका उसकी प्रजा पर गहरा प्रभाव पड़ा।

अशोक ने अनेक लोक-मंगलकारी कार्य करवाये। उसने सड़कें बनवाईं, उनके किनारे छायादार वृक्ष लगवाये और कुएँ तथा बावलियाँ खुदवाईं। पानी में उतरने के लिए उसने सीढ़ियाँ बनवाईं। राज्य की ओर से आम तथा बरगद के पेड़ लगवाये जाते थे जिससे उनकी सघन छाया में मनुष्य तथा पशु दोनों ही विश्राम कर सकें। सम्राट्, रानी तथा राजकुमारों की अपनी अलग-अलग दानशालाएँ होती थीं जिनमें दीन दुखियों को निःशुल्क भोजन तथा वस्त्र मिलता था।

अशोक की उदारता तथा दया केवल मनुष्यों तक ही सीमित न रही वरन् वह पशु-पक्षियों तक पहुँच गई थी। उसने न केवल मनुष्यों वरन् पशु-पक्षियों के लिए भी औषधालय बनवाये। औषधि की सुविधा के लिए जड़ी-बूटियों के पौधे भी लगवाने का प्रबन्ध किया। उसके प्रथम शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने आदेश दे रखा था कि उसकी राजधानी में किसी पशु की हत्या न की जाय। यह आदेश उसके अंहिसात्मक बौद्ध-धर्म को स्वीकार करने का फल था।

उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि अशोक का शासन बड़ा उदार तथा लोक-मंगलकारी था। उसने अपनी प्रजा को न केवल भौतिक सुख प्रदान किया वरन् उनकी नैतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का भी यथाशक्ति प्रयत्न किया। स्मिथ ने अशोक को बड़ा ही सफल शासक बताया है। वह लिखता है- ‘यदि अशोक योग्य न होता तो अपने विशाल साम्राज्य पर चालीस वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन न किये होता और ऐसा नाम न छोड़ गया होता जो दो हजार वर्षों के व्यतीत हो जाने के उपरान्त भी लोगों की स्मृति में अब भी ताजा बना हुआ है।’

अशोक का धम्म

अशोक के शिलालेखों में धम्म शब्द का बार-बार प्रयोग हुआ है। इस धम्म का वास्तविक अर्थ क्या है तथा वह किस धर्म का अनुयायी था, इस विषय पर विद्वानों में बड़ा मतभेद है। भिन्न-भिन्न इतिहासकारों ने अशोक के धम्म के बारे में भिन्न-भिन्न मत व्यक्त किये हैं। हेरास के विचार में अशोक ब्राह्मण-धर्म का अनुयायी था। डॉ. एफ. डब्लू. टामस के मतानुसार वह जैन धर्म का अनुगमन करता था। डॉ. फ्लीट ने उसके धम्म को राज-धर्म बताया है तथा भण्डारकर ने उसके धम्म को उपासक बौद्ध-धर्म बताया है जिसे महात्मा बुद्ध ने गृहस्थों के लिए प्रतिपादित किया था और जिसमें केवल व्यावहारिक सिद्धान्तों को ग्रहण किया गया था। विन्सेंट स्मिथ तथा डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी ने अशोक के धम्म को सार्वभौम धर्म माना है जिसमें समस्त धर्मों के अच्छे गुण सन्निहित हैं और जो किसी भी एक धर्म की सीमा में नहीं समा सकता। इन समस्त मतों में सत्य का थोड़ा-बहुत अंश विद्यमान है परंतु वास्तविकता यह है कि अशोक के धार्मिक विचारों में समय-सम पर क्रमिक विकास होता चला गया।

(1) ब्राह्मण धर्म: अपने जीवन के प्रारंभिक-काल में अशोक ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। काश्मीरी लेखक कल्हण के मतानुसार वह शिव का उपासक था और पशु तथा मनुष्य की हत्या का विरोधी नहीं था। सम्राट के भेजनालय में शोरबा बनाने के लिए प्रतिदिन सहस्रों पशुओं की हत्या की जाती थी। अपने पूर्वजों की भांति उसकी भी युद्ध में रुचि थी और उसे मनुष्यों का हत्याकांड कराने में संकोच नहीं होता था। अशोक का इस प्रकार का आचरण केवल कलिंग युद्ध तक ही रहा। इसलिये यह कहा जा सकता है कि अपने प्रारंम्भिक जीवन से कलिंग के युद्ध तक अशोक ब्राह्मण-धर्म का अनुयायी था तथा उस युग में प्रचलित मान्यताओं के अनुसार क्षात्र-धर्म का पालन करता था।

(2) बौद्ध धर्म: कलिंग युद्ध में हुए भीषण हत्याकांड के पश्चात् अशोक ने भविष्य में युद्ध न करने तथा प्राणी मात्र पर दया करने का निश्चय किया। अपने इस निश्चय के फलस्वरूप उसे ब्राह्मण धर्म को, जो शत्रुसंहारक अवधारणा पर आधारित था, त्याग देना पड़ा। उसे ऐसे धर्म में दीक्षित होने की आवश्यकता पड़ी, जो अहिंसक-धर्म हो और प्राणी मात्र पर दया करना सिखलाये। भारतवर्ष में उस समय दो ऐसे धर्म थे, जो अहिंसा के पोषक थे और सत्कर्म तथा सदाचार पर बल देते थे। ये थे- जैन तथा बौद्ध धर्म। अशोक इन्हीं दोनों में से एक का अनुयायी बन सकता था। जैन-धर्म के कठोर नियमों तथा कठिन तपस्या के कारण अशोक ने इस बात का अनुभव किया कि उसकी प्रजा इसका अनुसरण न कर सकेगी। इसलिये उसने अत्यंत सरल तथा व्यावहारिक बौद्ध धर्म को स्वीकार करने का निश्चय कर लिया। अपने राज्याभिषेक के नवें वर्ष में वह बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गया। ‘दीपवंश’ तथा ‘महावंश’ के अनुसार न्यग्रोध नामक व्यक्ति ने अशोक को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी थी। ‘दिव्यावदान’ के अनुसार बालपण्डित अथवा समुद्र ने उसे बौद्ध बनाया था। विभिन्न साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में अशोक एक उपासक के रूप में बौद्ध धर्म में दीक्षित हुआ था परन्तु कलिंग युद्ध के एक वर्ष उपरान्त अर्थात् अपने राज्याभिषेक के दसवें वर्ष में वह बौद्ध-संघ में सम्मिलत हो गया और उसके नियमों का पालन करने लगा।

बौद्ध-धर्म में दीक्षित होने के उपरान्त अशोक ने पहला काम यह किया कि उसने बुद्ध के जीवन से सम्बन्ध रखने वाले तीर्थ स्थानों की यात्रा की। सर्वप्रथम वह स्थविर उपगुप्त के साथ लुम्बिनी गया, जहाँ बुद्ध का जन्म हुआ था। उसने लुम्बनी में लगने वाले धार्मिक कर को बंद कर दिया और अन्य करों को भी 1/2 से घटा कर 1/8 कर दिया। इस प्रकार अशोक ने उपास्य-देव की जन्म भूमि में अपनी दया तथा उदारता का परिचय दिया। लुम्बिनी से अशोक कपिलवस्तु गया, जहाँ बुद्ध का शैशवकाल व्यतीत हुआ था। यहाँ से वह उपगुप्त के साथ बुद्धगया पहुंचा जहाँ उसने बोधि वृक्ष के दर्शन किये जिसके नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था। यहाँ से वह काशी के निकट सारनाथ गया, जहाँ बुद्ध ने अपने पांच शिष्यों को अपना प्रथम उपदेश दिया था। अन्त में वह कुशीनगर गया, जहाँ बुद्ध को निर्वाण प्राप्त हुआ था। वह बौद्ध धर्म से सम्बन्धित अन्य स्थानों पर भी गया। अशोक ने बुद्ध के अवशेषों को एकत्र किया और उन्हें फिर से वितरित कर उन पर स्मारक बनवाये। उसने बौद्ध-संघ में उत्पन्न फूट को दूर करने का प्रयत्न किया। उसने संघ में फूट पैदा करने वाले भिक्षुओं को संघ से निष्कासित करने की व्यवस्था की। उसने राजधानी पाटलिपुत्र में तीसरी बौद्ध-संगीति बुलवाई और बौद्ध-धर्म के अनुयायियों में जो मतभेद उत्पन्न हो गया था उसको दूर करने का प्रयत्न किया। उसने बौद्ध-धर्म के प्रचार का भी तन-मन-धन से प्रयत्न किया। ये सब बातें तथा उसके हिंसा-निषेधक कार्य सिद्ध करते हैं कि अशोक बौद्धधर्म का अनुयायी था। चीनी यात्रियों ने भी उसे बौद्ध धर्म का अनुयायी स्वीकार किया है। अशोक को बौद्ध-धर्म का अनुयायी स्वीकार कने में केवल यही कठिनाई हो सकती है कि उसने बौद्ध-धर्म के चार आर्य-सत्यों अर्थात् दुःख, दुःख समुदय, दुःख निरोध तथा दुःख निरोध मार्ग का कहीं उल्लेख नहीं किया है। इस आपत्ति को यह कहकर दूर किया जा सकता है कि अशोक बौद्ध-धर्म के केवल उन नियमों का पालन कराना चाहता था, जो गृहस्थों के लिये थे, उनका नहीं जो भिक्षुओं के लिए थे।

(3) जैन धर्म: डॉ. एफ. डब्लू. टामस के मतानुसार अशोक जैन धर्म का अनुगमन करता था। इस मत के पक्ष में कहने के लिये अधिक बातें नहीं हैं। यह मत केवल इस अनुमान पर आधारित है कि अशोक का धम्म पूर्ण अहिंसा के सिद्धांत पर खड़ा था जो कि जैन धर्म के अहिंसा के विचार से मेल खाती हैं। साथ ही इस मत के समर्थन में यह भी कहा जाता है कि चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने अंतिम समय में जैन धर्म स्वीकार कर लिया था। इसलिये अशोक ने अपने पिता द्वारा अपनाये गये धर्म का ही पालन किया किंतु अशोक जैन धर्म का अनुयायी था, इस बात के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। अतः इस मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

(4) अशोक का धम्म: अशोक ने अपने ‘धम्म’ की व्याख्या अपने अभिलेखों में की है जिनका अध्ययन करने से उसके ‘धम्म’ के सार का पता लगता है। अपने दूसरे स्तम्भ लेख में अशोक स्वयं पूछता है कि धम्म क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वह स्वयं कहता है कि धम्म पापहीनता है, बहुकल्याण है, दया है, दान है, सत्य है, शुद्धि है। अपने धम्म के अन्यान्य आचार तत्वों का उल्लेख करते हुए अशोक अपने द्वितीय लघु शिलालेख में कहता है कि माता-पिता की उचित सेवा, सर्व प्राणियों के प्रति आदर-भाव तथा सत्यता गुरुतर सिद्धांत हैं। इन धर्म-गुणों की वृद्धि होनी चाहिये। इसी भांति शिष्यों को गुरुओं का उचित आदर करना चाहिये तथा सम्बन्धियों से उचित व्यवहार उत्तम है। ग्यारहवें शिलालेख में अशोक अपने धम्म के अन्यान्य तत्वों का उल्लेख करते हुए कहता है- दासों, भृत्यों तथा वेतन भोगी सेवकों के साथ उचित व्यवहार, माता-पिता की सेवा, मित्रों, परिचितों, सम्बन्धियों ब्राह्मणों, श्रमणों और साधुओं के प्रति उदारता, प्राणियों में संयम तथा पशु बलि से विरतता ही धम्म है।

अशोक के ‘धम्म’ का स्वरूप दो प्रकार का है, एक आदेशात्मक और दूसरा निषेधात्मक। माता पिता की सेवा करना, गुरुजनों का आदर करना; मित्रों, परिजनों, सम्बन्धियों, दासों, भृत्यों तथा वेतन-भोगी सेवकों के साथ उचित व्यवहार करना, ब्राह्मणों, श्रमण तथा साधुओं के प्रति उदारता दिखलाना और प्राणी-मात्र पर दया करना, अशोक के ‘धम्म’ का अभिलेखीय सार तथा उसका आदेशात्मक स्वरूप है। अशोक ने कुछ दुर्गुणों तथा कुप्रवृत्तियों का भी निषेध किया है जो धर्म में बाधक सिद्ध होती हैं। ये कुप्रवृत्तियां उग्रता, निष्ठुरता, क्रोध, अभिमान, ईर्ष्या आदि हैं। इनको अशोक ने पाप कहा है। इन सब कुप्रभावों को मन में नहीं आने देना चाहिए। यही अशोक के ‘धम्म’ का निषेधात्मक स्वरूप है।

प्रत्येक धर्म के दो स्वरूप होते हैं। एक कर्मकांड मूलक और दूसरा आचार मूलक। कर्मकांड में विभिन्न प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान तथा समारोह किये जाते हैं तथा आचार मूलक में अच्छे आचार पर बल दिया जाता है। अशोक ने अपने ‘धम्म’ में कर्मकांडमूलक रूप को हतोत्साहित और आचार मूलक रूप को प्रोत्साहित किया है। लोग अनेक प्रकार के मंगल-कार्य करते हैं परन्तु अशोक ने इन्हें निस्सार बताया है। वह इनके स्थान पर धर्म-मंगल करने पर बल देता है जो निश्चित रूप से फलदायक होता है। दासों और वेतन भोगी सेवकों से उचित व्यवहार करना, गुरुजनों का आदर करना, प्रणियों के प्रति अहिंसात्मक व्यवहार करना, ब्राह्मण और श्रमणों को दान देना तथा अन्य ऐसे कार्य धर्म-मंगल कहलाते हैं। इसी प्रकार अशोक ने धर्म-दान को साधारण दान से अधिक उत्तम बताया है। दासों और सेवकों के प्रति उचित व्यवहार करना, माता-पिता की सेवा करना, मित्रों, परिचितों, संबंधियों, असहायों, ब्राह्मणों और श्रमणों के प्रति उदारता दिखलाना और अहिंसा करना ही धर्म-दान हैं। अपने तेरहवें शिला-लेख में अशोक ने धर्म विजय को साधारण विजय से अधिक कल्याणकारी बताया है।

(5) व्यवहारिक धर्म: अशोक ने अपनी प्रजा से जिन आदेशों का अनुसरण करने के लिए कहा, उन उपदेशों को उसने स्वयं अपने जीवन व्यवहार में लाकर चरितार्थ किया। उसने हिंसात्मक परम्पराओं को बन्द करवाया। अशोक ने उन विहार-यात्राओं को त्याग दिया जिनमें आखेट द्वारा मनोरंजन किया जाता था। उसने विहार यात्राओं के स्थान पर धर्म-यात्राएं आरम्भ की, जिनमें दर्शन, दान तथा उपदेशों का आयोजन रहता था। अशोक के बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के पूर्व उसकी पाकशाला में सहस्रों पशुओं तथा पक्षियों की हत्या होती थी। उसके प्रथम शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने यह आज्ञा दे दी थी कि उसकी पाकशाला में केवल तीन पशुओं अर्थात् दो मोर तथा एक मृग का वध हो। वह भी सदैव नहीं। भविष्य में यह भी बन्द कर दिया जाय। इस प्रकार अपने भोजनागार में भी उसने हिंसा को बन्द करवा दिया। सत्य बात तो यह है कि उसका धर्म उसके शासन तथा जीवन का एक अविच्छिन्न अंग बन गया था।

(4) राज-धर्म: फ्लीट के अनुसार अशोक ने अपने अभिलेखों में जिस धर्म का प्रतिपादन किया है, वह वस्तुतः राज-धर्म है। भारतीय व्यवस्थाकारों ने राजा के लिये कतिपय कर्तव्याकर्तव्यों अथवा विधि निषेधों का उल्लेख किया है। इनके आधार पर ही राजा को अपना शासन संचालित करना चाहिये। महाभारत में इस राज-धर्म का सविस्तार वर्णन है। अशोक के अभिलेखों में वर्णित धम्म भी महाभारत के उस राजधर्म से मेल खाता है। अतः फ्लीट के अनुसार अशोक के धम्म को भी राज-धर्म ही समझना चाहिये।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार अशोक के अभिलेखों में वर्णित धम्म को राजधर्म मानने में कठिनाई यह है कि राजधर्म राजा के लिये होता है, प्रजा के लिये नहीं, जबकि अशोक के शिलालेखों में जिन बातों का उल्लेख किया गया है, उनमें राजा ने स्वयं द्वारा किये जा रहे धम्म के पालन के साथ-साथ उन बातों पर भी जोर दिया है जिन बातों का पालन वह प्रजा से करवाना चाहता था।

वास्तव में देखा जाये तो महाभारत में वर्णित राजधर्म के अनुसार राजा को प्रजा की भौतिक उन्नति के साथ उसकी नैतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति का भी प्रयास करना चाहिये। अशोक के स्तम्भ लेखों में वर्णित वे बातें जो प्रजा के पालन के लिये लिखी गई हैं, राजधर्म का ही हिस्सा हैं। अतः निष्कर्ष रूप में अशोक के धम्म को यदि राज-धर्म स्वीकार कर लिया जाये, तो इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है।

(3) सार्वभौम-धर्म: अशोक का धार्मिक विचार तब उच्चता की पराकाष्ठा को पहुंच जाता है और उसका धर्म सार्वभौम धर्म बन जाता है, जब वह विभिन्न धर्मों की बाह्य विभिन्नता की उपेक्षा करके उनके आन्तरिक तत्त्वों पर बल देता है। अब अशोक का धार्मिक दृष्टिकोण इतना व्यापक हो जाता है कि वह किसी धर्म-विशेष का अनुयायी नही रह जाता वरन् वह एक नये धर्म का संस्थापक बन जाता है जो अशोक के ‘धम्म’ के नाम से विख्यात हुआ। अशोक का वह ‘धम्म’ सर्व-मंगलकारी है और उसका उद्देश्य प्राणी-मात्र का उद्धार करना है। यह धर्म अत्यंत सरल, व्यावहारिक, सर्वग्राह्य तथा सर्वमान्य है। दान देना, सब पर दया करना, सत्य बोलना, सबके कल्याण की चिन्ता करना, अपनी आत्मा तथा विचारों को शुद्ध रखना और किसी प्रकार के पापकर्म न करना, यही अशोक के ‘धम्म’ के प्रधान लक्षण थे।

अपने बारहवें शिलालेख में उसने सब धर्मों के सार की वृद्धि की कामना की है। यह सब सर्व धर्म सार समन्वित उसका अपना ‘धम्म’ था। सब धर्मों के सार की वृद्धि तभी हो सकती है जब मनुष्य दूसरे धर्मों के प्रति सहिष्णु हो। इसी ध्येय से अशोक ने अपने बारहवें शिलालेख में यह परामर्श दिया है कि मनुष्य को दूसरे के भी धर्म को सुनना चाहिए। अशोक का कहना है कि जो मनुष्य अपने धर्म को पूजता है और अन्य धर्मों की निन्दा करता है वह अपने धर्म को बड़ी क्षति पहुंचाता है। इसलिये लोगों में वाक्-संयम होना चाहिए अर्थात् संभल कर बोलना चाहिए। यह अशोक की धार्मिक सहिष्णुता का अभिलेखीय प्रमाण है जो आज भी हमारा पथ प्रदर्शन कर सकता है। अशोक के इन आदेशों तथा कामनाओं से स्पष्ट हो जाता है कि वह समस्त धर्मों के मध्य बड़ा है और किसी से अपने को संलग्न न करते हुए उनमें मेल तथा सद्भावना उत्पन्न करने का प्रयत्न कर रहा है। वह अपने सातवें शिलालेख में कहता है- ‘सर्वत्र समस्त धर्म वाले एक साथ निवास करें।’ अशोक के अनेक अभिलेखों में ब्राह्मणों तथा श्रमणों को समान रूप से सम्मानित किया गया है। उसके आठवें शिलालेख से ज्ञात होता है कि अपनी धर्म यात्राओं में वह ब्राह्मणों तथा श्रमणों दोनों के ही दर्शन करता था और उन्हें दान देता था। उसके बारहवें अभिलेख में कहा गया है कि देवताओं का प्रिय ‘प्रियदर्शी’ राजा सब धर्मों तथा सम्प्रदायों, साधुओं और गृहस्थों को दान तथा अन्य प्रकार की पूजा से सम्मानित करता है।

अशोक के धम्म की उपर्युक्तु विवेचना से इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि अशोक कलिंग युद्ध के पूर्व ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। कलिंग युद्ध के उपरान्त वह बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया और अन्त में उसने अपने नये धर्म की स्थापना की जिसे सार्वभौम धर्म कहने में संकोच नहीं होना चाहिए। वह धर्म अत्यंत सरल, व्यावहारिक तथा आचार-मूलक था, जिसका अनुगमन उसकी प्रजा आसानी से कर सकती थी। उसमें उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। अशोक के धर्म को राज धर्म नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसमें न केवल राजा का वरन् प्रजा का हित भी निहित था।

प्राणी-मात्र का धर्म: अशोक का ‘धम्म’ मानव-जाति के लिए ही नहीं वरन् समस्त प्राणी-मात्र के लिये था। सब प्राणियों के प्रति अहिंसा उसके ‘धम्म’ का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धन्त था। वह अपने सातवें शिलालेख में कहता है- ‘मार्गों में मैंने वट-वृक्ष लगवाये जिससे वे पशुओं तथा मनुष्यों को छाया दें। मनुष्यों तथा पशुओं को सुख देने के लिए मैने अनेक आम्र-कुंज लगवाये।’ अपने दूसरे स्तम्भ लेख में अशोक कहता है, ‘मैंने मनुष्यों और पशु-पक्षियों तथा जानवारों के प्रति यथेष्ट तथा अनेक प्रकार से उदारता तथा अनुग्रह किये हैं।’ इस प्रकार अशोक ने प्राणी-मात्र पर दया करके अपने ‘धम्म’ की सर्वव्यापकता का परिचय दिया।

अशोक का धर्म प्रचार

अशोक ने अपनी प्रजा के कल्याण के लिये न केवल धार्मिक उपदेश प्रस्तुत किये अपितु धर्म के प्रचार के लिये भी विशेष प्रयास किये। उसका उद्देश्य था कि उसका धर्म न केवल सम्पूर्ण भारत में वरन् सम्पूर्ण विश्व में प्रचारित हो जाये। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने निम्नलिखित कार्य किये-

(1) सम्राट द्वारा धर्म का पालन: अशोक ने जिस धर्म का प्रतिपादन तथा प्रचार किया उसका स्वयं अपने जीवन में पालन भी किया। कलिंग-युद्ध के उपरान्त उसने अहिंसा-धर्म को स्वीकार कर लिया और जीवन-पर्यन्त अहिंसा-धर्म का पालन किया। उपदेशक के रूप में वह बौद्ध-धर्म में प्रविष्ट हुआ। उसने जीवन भर सक्रिय रूप से संघ की सेवा की और एक भिक्षु की भांति त्यागमय जीवन व्यतीत किया। अशोक के त्यागमय जीवन, धर्म-परायणता तथा निष्ठा का उसकी प्रजा पर गहरा प्रभाव पड़ा और प्रजा ने सम्राट् के आदर्शों का अनुगमन करना आरम्भ कर दिया।

(2) धम्म को राज-धर्म बनाना: अशोक ने अपने धर्म को राज-धर्म बना दिया। उसने न केवल अपने व्यक्तिगत जीवन को धर्ममय बनाया वरन् सम्पूर्ण शासन को धर्ममय बना दिया। राज्य उसके लिए साध्य न था वरन् धार्मिक आदर्शों को व्यवहार में लाने के लिए साधन बन गया। उसने अपने राज्य की सम्पूर्ण शक्ति तथा साधनों को धर्म प्रचार में लगा दिया। राज-धर्म बन जाने से अशोक के उत्तराधिकारियों ने भी इसको अपनाया तथा आश्रय दिया जिससे अशोक की मृत्यु के उपरान्त भी यह जीता-जागता रहा।

(3) धर्म-विभाग की स्थापना: अपने धर्म के प्रचार के लिए अशोक ने एक अलग धर्म-विभाग की स्थापना की। इस विभाग के प्रधान पदाधिकारी ‘धर्म-महामात्र’ कहलाते थे। इन धर्म-महामात्रों को यह आदेश दिया गया कि वे प्रजा की नैतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का अधिक से अधिक प्रयत्न करें। धर्म-महामात्र घूम-घूम कर अशोक के धर्म का प्रचार करते थे।

(4) धर्म यात्राएँ: अशोक ने मनोरंजन के लिए की जाने वाली विहार-यात्राओं को बन्द करवा दिया और उनके स्थान पर धर्म-यात्राएं करने लगा। इन धर्म-यात्राओं में ब्राह्मणों तथा श्रमणों का दर्शन किया जाता था और उन्हें दान दिया जाता था। स्थविरों का दर्शन करके उन्हें स्वर्ण-दान दिया जाता था। इन यात्राओं में लोगों से धर्म की चर्चा की जाती थी और उनके प्रश्नों का उत्तर दिया जाता था।

(5) धर्म-श्रावण: अपने धर्म के प्रचार के लिए अशोक ने धर्म-श्रावण की व्यवस्था की। उसके सातवें स्तंभ लेख से प्रकट होता है कि अशोक समय-समय पर अपनी प्रजा को धर्म का सन्देश देता था। यही सन्देश धर्म-श्रावण कहलाते थे। ऐसे अवसरों पर धर्म के सम्बन्ध में भाषण आदि दिये जाते थे। राजुक, प्रादेशिक, युक्त आदि राज्य कर्मचारी भी इस कार्य में सहायता देते थे।

(6) धार्मिक प्रदर्शन: प्रजा के हृदय में स्वर्ग प्राप्ति की कामना बढ़े और वे धर्म-निष्ठ होकर सदाचार करें, इस उद्देश्य से अशोक ने प्रजा को दिव्य रूपों का दर्शन कराना आरम्भ किया। उसने स्वर्ग में जाते हुए विमानों आदि का प्रदर्शन कराया और उन्हें स्वर्ग-प्राप्ति का के लिये प्रेरित करने का प्रयास दिया।

(7) धर्म-मंगल: अशोक ने सधारण मंगल को, जिसके अनुसार विभिन्न प्रकार के धार्मिक कृत्य तथा अनुष्ठान किये जाते थे, अनुचित तथा निष्फल बताकर धर्म-मंगल करने का उपदेश दिया। धर्म-मंगल को अशोक ने सार्थक तथा लाभदायक बतलाया। धर्म-मंगल सदाचार द्वारा किये जा सकते थे। इसलिये सम्राट ने आचरण की सभ्यता पर सर्वाधिक जोर दिया। बौद्ध-धर्म में आचरण की सभ्यता को प्रधानता दी गई है।

(8) दान-व्यवस्था: अशोक द्वारा धर्म-प्रचार के लिये आरम्भ की गई दान व्यवस्था का प्रजा पर गहरा प्रभाव पड़ा। राजधानी तथा अन्य स्थानों पर रोगियों, भूखों तथा दुःखी मनुष्यों को राज्य की ओर से दान देने की व्यवस्था की गई। यह दान व्यक्तियों तक ही सीमित न था, वरन् संस्थाओं को भी दिया जाता था। इन संस्थाओं में धार्मिक संस्थाओं का प्रमुख स्थान था। इस राजकीय सहायता से धर्मिक संस्थाओं को धर्म के प्रचार में बड़ा प्रोत्साहन मिला।

(9) लोक-हित के कार्य: अशोक ने लोक-हित के अनेक कार्यों को करके अहिंसा-धर्म को अत्यंत प्रिय बना दिया। उसने मुनष्य तथा पशुओं की चिकित्सा के लिए देश तथा विदेशों में भी औषधालय बनवाये और औषधियों के उद्यान लगवाये। इसी प्रकार के अन्य लोक-मंगलकारी कार्यों को करके अशोक ने प्राणी-मात्र पर दया दिखाने का उपदेश दिया।

(10) पशु-वध-निषेध: अशोक ने पशुओं के वध का निषेध करके तथा प्राणी मात्र पर दया दिखलाने का उपदेश देकर अहिंसा-धर्म के प्रचार में बड़ा योग दिया। अन्य प्रकार से भी पशु-पक्षियों की जो हिंसा होती थी उसे अशोक ने बन्द करवा दिया। वास्तव में अहिंसा तथा प्राणीमात्र पर दया करना उसके शासन का मूल मन्त्र बन गया था।

(11) निज्झाति अथवा आत्म-चिन्तन: अशोक का विश्वास था कि मनुष्य सदैव अपने सत्कार्मों को देखता है, अपने कुकर्मों पर उसकी दृष्टि नहीं जाती। इसका परिणाम यह होता है कि उसके पाप कर्म बढ़ते जाते हैं और वह धर्म पर नहीं चल पाता। इसलिये अशोक ने आत्म-परीक्षण, आत्म निरीक्षण तथा आत्म-चिंतन की व्यवस्था की, जिससे मुनष्य अपने पापों को देख सके और अपना सुधार कर सके। इसी को निज्झाति कहा गया है।

(12) धर्म अनुशासन: अशोक ने ‘धम्म’ के अनुशासन सम्बन्धी कुछ नियम बनाये और उन्हें प्रकाशित करवाया। इन नियमों के प्रचार तथा उसका पालन करवाने के लिए उसके पदाधिकारी भी नियुक्त किये जो राज्य में दौरा किया करते थे और देखते थे कि लोग धर्म के अनुशासन का पालन कर रहे हैं अथवा नहीं।

(13) बौद्ध-संगीति: अशोक ने अपने शासन-काल में अपनी राजधानी पाटलिपुत्र में तीसरी बौद्ध-संगीति बुलवाई। इस संगीति में बौद्ध-धर्म ग्रन्थों का संशोधन किया गया। बौद्ध-संघ में जो दोष आ गये थे उनको दूर करने का प्रयत्न किया गया। इन संशोधनों तथा सुधारों से बौद्ध-धर्म में जो शिथिलता आ रही थी वह दूर हो गई। अशोक के इस कार्य के सम्बन्ध में हण्टर ने लिखा है- ‘इस संगीति के माध्यम से लगभग आधी मानव जाति के लिए साहित्य और धर्म का सृजन किया गया और शेष आधी मानव-जाति के विश्वासों को प्रभावित किया गया।’

(14) मठों का निर्माण तथा उनकी सहायता: अशोक ने देश के विभिन्न भागों में अनेक मठों का निर्माण करवाया और उनकी सहायता की। इन मठों में बहुत बड़ी संख्या में भिक्षु-भिक्षुणी तथा धर्मोपदेशक निवास करते थे जो सदैव धर्म के चिन्तन तथा प्रचार में संलग्न रहा करते थे। ऐसी सुव्यवस्था में धर्म के प्रचार का क्रम तेजी से चलता रहा।

(15) धर्म-लिपि की व्यवस्था: अशोक ने धम्म के प्रचार के लिए धम्म के सिद्धान्तों तथा आदर्शों को पर्वतों की चट्टानों, पत्थरों के स्तम्भों तथा पर्वतों की गुफाओं में लिखवाकर उन्हें सबके लिए तथा सदैव के लिए सुलभ बना दिया। ये अभिलेख जन-साधारण की भाषा में लिखवाये गये थे जिससे समस्त प्रजा उन्हें समझ सके और उनका पालन कर सके। इस प्रकार के अभिलेखों से धम्म के प्रचार में बड़ी सहायता मिली।

(16) पाली भाषा में ग्रंथ रचना: अशोक के आदेश से बौद्ध-ग्रन्थों की रचना पाली भाषा में की गई जो जन-साधारण की तथा अत्यंत लोकप्रिय भाषा थी। चूंकि इस भाषा को साधारण लोग भी सरलता से समझ लेते थे इसलिये इससे बौद्ध-धर्म के प्रचार में बड़ा योग मिला।

(17) धर्म-विजय का आयोजन: अशोक ने धम्म का दूर-दूर तक प्रचार करने के लिए धर्म विजय का आयोजन किया। उसने भारत के भिन्न-भिन्न भागों तथा विदेशों में अपने धर्म के प्रचार का प्रयत्न किया। उसने दूरस्थ विदेशी राज्यों के साथ मैत्री की और वहाँ पर मनुष्यों तथा पशुओं की चिकित्सा का प्रबंध किया। उसने इन देशों में बौद्ध धर्म का प्रचार करने तथा हिंसा को रोकने के लिये उपदेशक भेजे। उसने अपने पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा को धर्म का प्रचार करने के लिए सिंहलद्वीप अर्थात् श्रीलंका भेजा। अशोक के धर्म प्रचारक बड़े ही उत्साही तथा निर्भीक थे। उन्होंने मार्ग की कठिनाईयों की चिन्ता न कर श्रीलंका, बर्मा, तिब्बत, जापान, कोरिया तथा पूर्वी द्वीप-समूहों में धर्म का प्रचार किया। अशोक द्वारा किये गये प्रयत्नों के फलस्वरूप उसके शासनकाल में बौद्ध-धर्म को सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त हो गया। भण्डारकर ने इस तथ्य की ओर संकेत करते हुए लिखा है- ‘इस काल में बौद्ध-धर्म को इतना महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया कि अन्य समस्त धर्म पृष्ठभूमि में चले गए… परन्तु इसका सर्वाधिक श्रेय तीसरी शताब्दी ई.पू. के बौद्ध सम्राट, चक्रवर्ती धर्मराज को मिलना चाहिए।’ वर्तमान में यद्यपि बौद्ध-धर्म अपनी जन्मभूमि में उन्मूलित सा हो गया है परन्तु उन देशों में वह अब भी अपना अस्तित्त्व बनाये हुए है।

अशोक के अभिलेख

अशोक ने अपने जीवन-काल में अनेक शिलालेख तथा स्तम्भलेख लिखवाए जिनका बड़ा ऐतिहासिक महत्त्व है। इन स्तम्भलेखों से अशोक के साम्राज्य की सीमा निश्चित करने में बड़ी सहायता मिलती है। इनसे यह भी पता लग जाता है कि किन विदेशी राज्यों के साथ अशोक ने अपना मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किया था। ये अभिलेख अशोक के धर्म, उसके चरित्र तथा शासन पर भी बहुत बड़ा प्रकाश डालते हैं। डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने अशोक के अभिलेखों के महत्त्व को बताते हुए लिखा है- ‘अशोक के अभिलेख लेख-संग्रह अनूठे हैं। उनसे उसकी आन्तरिक भावनाओं और आदर्शों का पता लगता है। वे उस महान् सम्राट के शब्दों को ही शताब्दियों से वहन करते आये हैं।’

अशोक के अभिलेखों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-

(1) शिलालेख तथा (2) स्तम्भलेख। शिलालेख स्तम्भ लेख से अधिक प्राचीन हैं। शिलालेख सीमान्त प्रदेश में पाये जाते हैं जबकि स्तम्भ लेख आन्तरिक प्रान्तों में पाये जाते हैं। विन्सेन्ट स्मिथ ने अशोक के अभिलेखों को तिथि क्रमानुसार आठ भागों में विभक्त किया है-

(1) लघु शिलालेख: इसके अन्तर्गत नं. 1 तथा नं. 2 के शिलालेख आते हैं। ये मैसूर तथा अन्य राज्यों में भी पाये जाते हैं। इनसे सम्राट् के व्यक्तिगत जीवन तथा धर्म के लक्षणों का पता चलता है।

(2) भब्रू शिलालेख: यह शिलालेख जयपुर राज्य में मिला था। इसमें बौद्ध-धर्म ग्रन्थों से लिये गए सात ऐसे उद्धरण हैं जिन्हें अशोक चाहता था कि उसकी प्रजा पढ़े और उसके अनुसार आचरण करे।

(3) चतुर्दश शिलालेख: ये संख्या में चौदह हैं। इन शिलालेखों में अशोक के नैतिक तथा राजनैतिक विचार अंकित किये गए हैं। इनमें तेरहवां शिलालेख अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। कलिंग-युद्ध के उपरान्त अशोक के मन में जो दुःख उत्पन्न हुआ वह इसी अभिलेख में अंकित है।

(4) दो कलिंग शिलालेख: इन शिलालेखों में उन सिद्धन्तों का उल्लेख मिलता है जिनके अनुसार कलिंग के विभिन्न प्रान्तों तथा सीमान्त-प्रदेश के अविजित लोगों के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए था।

(5) तीन गुहा लेख: ये गया के निकट की बराबर नामक पहाड़ी में मिले हैं। इन शिलालेखों में सम्राट अशोक द्वारा दिये गये दानों का उल्लेख है जो उसने आजीवकों को दिये थे। इनसे अशोक की धार्मिक सहिष्णुता का पता चलता है।

(6) दो तराई स्तम्भ लेख: ये स्तम्भ लेख नेपाल की तराई में विद्यमान हैं। इन स्तम्भ लेखों में सम्राट अशोक की उन तीर्थ-यात्राओं का वर्णन है जो उसने बौद्ध धर्म के तीर्थ स्थानों के दर्शन के लिए की थी।

(7) सप्त स्तम्भ लेख: ये संख्या में सात हैं और छः स्थानों में पाये गये हैं। इनमें से दो दिल्ली में हैं। इन स्तम्भ लेखों में सम्राट के उन उपायों का उल्लेख है जो उसने धर्म-प्रचार के लिए किये थे।

(8) चार गौरा-स्तम्भ: इनमें से दो लेख सांची तथा सारनाथ की लाटों पर खुदे हुए हैं और दो प्रयाग में हैं। इन स्तम्भ लेखों को सम्भवतः बौद्ध-धर्म में उत्पन्न मतभेदों को दूर करने के लिये उत्कीर्ण कराया गया था।

क्या अशोक महान् सम्राट था ?

अशोक की गणना न केवल भारत के वरन् विश्व के महान सम्राटों में की जाती है। अशोक के सम्पूर्ण जीवन का अध्ययन कर लेने के उपरान्त उसकी महानता के कारणों का पता लगाना कठिन नहीं रह जाता। उसकी महानता उसके साम्राज्य की विशालता, उसकी सेना की अजेयता, उसके शासन की सुदृढ़़ता अथवा उसके राज-वैभव में नहीं पायी जाती वरन् उसकी महानता उसके अलौकिक व्यक्तित्त्व, उसकी अगाध धर्मपरायणता, उसके धार्मिक विचारों की उदारता, उसके सिद्धान्तों तथा आदर्शों की उच्चता, राष्ट्र-निर्माण की योजनाओं, साहित्य तथा कला की अपूर्व सेवाओं तथा उसकी धर्म विजय में पाई जाती हैं। समस्त मानव-समाज तथा समस्त प्राणियों के कल्याण की विराट चेष्टा उसे न केवल भारत वरन् सम्पूर्ण विश्व के महान सम्राटों में सर्वोत्कृष्ट स्थान प्रदान करती है। अशोक की महानता को सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित तथ्य उपस्थित किये जा सकते हैं-

(1) महान् व्यक्तित्त्व: अशोक की महानता का सबसे प्रथम प्रमाण उसका महान् व्यक्तित्त्व है। कलिंग युद्ध के उपरान्त वह समस्त राजसी सुखों तथा विलासों को त्याग कर सन्त जैसा सरल तथा त्यागमय जीवन व्यतीत करने लगा। उसका जीवन शुद्ध, पवित्र तथा दयामय बन गया। आत्म-संयम तथा आत्म-नियंत्रण में वह पूर्णरूप से सफल रहा और आत्म-त्याग उसके जीवन का मूलमंत्र बन गया। वह अहिंसा का पुजारी बन गया। उसने मांस-भक्षण बंद कर दिया। वह सत्यनिष्ठ, दयालु, सहिष्णु तथा शांतिमय बन गया। उसमें उच्च कोटि की कर्त्तव्य परायणता आ गई। वह अपनी प्रजा के हित-चिंतन में संलग्न रहता था और उसकी नैतिक, आध्यात्मिक, बौद्धिक तथा भौतिक उन्नति का अथक प्रयास करता था। शिलाओं तथा स्तम्भों पर अंकित अशोक के उपदेशों से ज्ञात होता है कि वह अपने युग का भद्रतम तथा श्रेष्ठतम व्यक्ति था।

(2) महान् धर्मतत्त्ववेत्ता: अशोक ने धर्म के वास्तविक तत्त्व को समझा था। उसकी महानता का सबसे बड़ा कारण उसकी धर्म-निष्ठा तथा धर्म-परायणता है। उसकी धार्मिक धारणा संकीर्ण न थी। वह कट्टरपंथी अथवा धर्मान्ध नहीं था। उसका धार्मिक दृष्टिकोण उदार तथा व्यापक था। उसकी धार्मिक धारणा का मूलाधार ईश्वर का पितृत्व तथा मानव का भ्रातृत्व था। वह ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सिद्धान्त का अनन्य अनुयायी था। उसमें उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। यद्यपि बौद्ध धर्म अशोक का व्यक्तिगत धर्म था और इसके प्रचार के लिए उसने तन-मन-धन से प्रयत्न किया परन्तु अन्य धर्म वालों के साथ उसने किसी भी प्रकार का अत्याचार नहीं किया। समस्त धर्म तथा सम्प्रदाय अशोक की सहानुभूति तथा सहायता के पात्र थे। समस्त धर्मों के उत्तम तत्त्वों के संग्रह से उसका धम्म, सार्वभौम धर्म बन गया था जिसका लक्ष्य लोक-कल्याण तथा प्राणी मात्र का उद्धार करना था। अशोक की अगाध धर्म-निष्ठा तथा धर्म-तत्त्व-ज्ञान उसे महान् धर्माचार्यों में स्थान प्रदान करते हैं।

(3) महान् धर्म-प्रचारक: अशोक न केवल एक महान् धर्मोपदेशक था। वरन् वह एक महान् धर्म-प्रचारक भी था। अशोक ने धर्म का प्रचार न केवल भारत के कोने-कोने में किया वरन् उसके धर्म का आलोक विदेशों में भी पहुंचा जहाँ वह अब भी जीवित है और असंख्य व्यक्तियों की आत्मा को शांति दे रहा है। एक स्थानीय धर्म को अशोक ने अन्तर्राष्ट्रीय धर्म बना दिया। इसी से डॉ. भण्डारकर ने लिखा है- ‘अशोक के आदर्श बड़े ऊँचे थे। उसने अपनी बुद्धिमत्ता तथा कलन-शक्ति को, संकीर्ण प्रांतीय बौद्ध सम्प्रदाय को, विश्वव्यापी धर्म बना देने में लगा दिया।’ धर्म-प्रचार का यह कार्य बाहुबल से नहीं वरन् आत्मबल से शान्तिपूर्वक, प्रेम तथा सद्भावना के साथ किया गया। यही बात अशोक के धर्म प्रचार की विशेषता थी जो उसे धर्म प्रचारकों में सर्वोच्च स्थान प्रदान करती है। अशोक ने धर्मप्रचारकों की सहायता से धर्मप्रचार का जो श्लाघनीय कार्य किया उसकी प्रशंसा करते हुए के. जे.सौन्डर्स ने लिखा है- ‘विश्व इतिहास में सम्राट अशोक के धर्म प्रचारकों द्वारा सभ्यता के प्रचार का महत्त्वपूर्ण कार्य किया गया क्योंकि इन लोगों ने ऐसे देशों में प्रवेश किया जो अधिकांशतः बर्बर तथा अन्धविश्वासपूर्ण थे।’

(4) महान् धर्म-विजेता: अशोक एक महान् धर्म-विजेता था। कलिंग युद्ध के उपरान्त उसने भेरिघोष को सदैव के लिए शान्त करके धर्म-घोष करने का संकल्प लिया। उसने रणक्षेत्र में विजय प्राप्त करने के स्थान पर धर्मक्षेत्र में विजय पताका फहराने का निश्चय किया। यह विजय सरल नहीं थी, क्योंकि यह विजय शरीर पर नहीं, वरन् आत्मा पर प्राप्त करनी थी। यह विजय बाहुबल अथवा सैन्यबल की विजय नहीं थी, वरन् आत्मबल तथा तथा प्रेमबल की विजय थी। यह विजय थोड़े से व्यक्तियों पर नहीं, वरन् प्रणिमात्र पर प्राप्त करनी थी। वह शांति विजय थी, अशांति की नहीं थी। अशोक ने धर्माचार्यों तथा धर्म-प्रचारकों की एक विशाल सेना संगठित की और उन्हें प्रेमायुध से सुसज्जित किया। सत्य, सत्कर्म, सद्भावना, तथा सद्व्यवहार की यह चतुरंगिणी सेना धर्म-विजय के लिए निकल पड़ी। इस सेना के प्रेमायुद्ध के सामने न केवल सम्पूर्ण भारत नत-मस्तक हो गया वरन् उसकी विजय पताका विदेशों में भी फहराने लगी। यह विजय आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक विजय थी जो स्थायी सिद्ध हुई। अशोक ने जिन देशों पर धर्म-विजय प्राप्त की उन्हें भारत के साथ प्रेम के ऐसे प्रबल बन्धन में बांध दिया कि अब तक वह अविच्छिन रूप से चलता आ रहा है। यह अशोक की अद्वितीय विजय थी जिसकी समता संसार का अन्य कोई विजयी सम्राट नहीं कर सकता।

(5) महान् शासक: अशोक की गणना विश्व के महान् शासकों में होती है। कलिंग युद्ध के उपरान्त अशोक के राजनीतिक आदर्श अत्यंत ऊँचे हो गये। प्रजा-पालन तथा उसके हित चिन्तन को अशोक ने अपने जीवन का महान् लक्ष्य बना लिया। वह अपनी प्रजा को सन्तानवत् समझने लगा और उसी के कल्याण की चिन्ता में दिन रात संलग्न रहने लगा। डॉ. हेमचन्द्र राज चौधरी ने लिखा है- ‘वह अपने उत्साह में सुदृढ़़ और प्रयासों में अथक था। उसने अपनी सारी शक्ति अपनी प्रजा की आध्यात्मिक तथा भौतिक उन्नति में लगा दी जिसे वह अपनी सन्तान-सदृश समझता था।’ उसने विहार-यात्राएं बन्द करवा दीं जो आमोद-प्रमोद तथा मनोरंजन का साधन थीं और उनके स्थान पर धर्म-यात्राएं आरम्भ कीं जिनमें धर्मिक उपदेश दिये जाते थे। तीर्थ स्थानों के दर्शन किये जाते थे और ब्राह्मणों, श्रमणों तथा दीन-दुःखियों को दान दिये जाते थे। उसका शासन इतना सुसंगठित, सुव्यवस्थित एवं लोक-मंगलकारी था कि उसके शासनकाल में कोई आन्तरिक उपद्रव नहीं हुआ और प्रजा ने अधिक सुख तथा शान्ति का उपभोग किया। अशोक ने अपनी प्रजा की न केवल भौतिक अभिवृद्धि का भगीरथ प्रयास किया वरन् उसकी नैतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का भी यथा शक्ति प्रयास किया। अशोक ने प्रजा के नैतिक तथा आध्यात्मिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिए धर्म-महामात्रों को नियुक्त किया और राजकीय कर्मचारियों को आदेश दिया कि वे घूम-घूमकर प्रजा के आचरण का निरीक्षण करें और उसे सदाचारी तथा धर्म-परायण बनाने का प्रयत्न करें। शासक के रूप में अशोक की महानता इस बात में पायी जाती है कि देश के राजनीतिक जीवन में उसने आदर्श, पवित्रता तथा कर्त्तव्य-परायणता का समावेश किया। अशोक ने एक भिक्षु जैसा सादा जीवन व्यतीत कर और राज-सुलभ समस्त सुखों का त्याग कर प्रजा के इहलौकिक तथा पारलौकिक हित-चिन्तन में संलग्न रहकर विश्व के सम्राटों के समक्ष ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया जो सर्वथा अनुकरणीय है। एच. जी. वेल्स ने लिखा है- ‘प्रत्येक युग और प्रत्येक राष्ट्र इस प्रकार के सम्राट को उत्पन्न नहीं कर सकता है। अशोक अब भी विश्व के इतिहास में अद्वितीय है।’

(6) महान् राष्ट्र निर्माता: अशोक महान् राष्ट्र-निर्माता था। उसने राष्ट्र की एकता तथा संगठन के लिए सम्पूर्ण राज्य में एक राष्ट्र-भाषा का प्रयोग किया। इस तथ्य की पुष्टि उसके अभिलेखों में प्रयुक्त पाली भाषा से होती है। उसने अपने साम्राज्य के अधिकांश भाग में ब्राह्मी लिपि का प्रयोग कराया था। केवल पश्चिमोत्तर प्रदेश में खरोष्ठी लिपि का प्रयोग किया जाता था। इस प्रकार भाषा तथा लिपि की एकता ने राजनीतिक एकता को सजीव बना दिया। देश के कोने-कोने में धर्म का प्रचार कर उसने सांस्कृतिक एकता की चेतना को जागृत किया। सम्पूर्ण राज्य के लिए एक जैसी न्याय व्यवस्था लागू करके उसने समानता के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया था। अशोक ने शिल्प तथा स्थापत्य कला के विकास में भी बड़ा योग दिया। उसके काल के बने स्तंभ आज भी भारतीय कला का मस्तक ऊँचा किये हुए है।

(7) महान् आदर्शवादी: अशोक की महानता उसके उच्चादर्शों तथा महान् सिद्धान्तों में पाई जाती है। अशोक ने राजनैतिक, सामाजिक तथा धार्मिक जीवन में ऐसे नवीन आदर्शों की स्थापना की जिनकी कल्पना उस काल का अन्य कोई महान् सम्राट नहीं कर सका।

राजनीतिक क्षेत्र में उसके आदर्श थे- युद्धविराम, शान्ति तथा सद्भावना की स्थापना, पड़ौसियों के साथ मैत्री तथा सहयोग स्थापित करना, विदेशों में युद्ध संदेश के स्थान पर शान्ति तथा सद्भावना के संदेश भेजना, प्रजा के हित-चिन्तन में दिन-रात संलग्न रहना और अपने सम्पूर्ण आमोद-प्रमोद तथा सुखों को प्रजा के हित के लिए त्याग देना, अपनी प्रजा का सच्चा सेवक बनना।

सामाजिक क्षेत्र में अशोक महान् लोकतंत्रवादी था और ‘वसुधैव कुटुम्कम’ अर्थात् सम्पूर्ण पृथ्वी ही परिवार है, सिद्धान्त का अनुयायी था। समानता, स्वतंत्रता तथा विश्व बंधुत्व उसके सामाजिक जीवन की आधार-शिलाएं थीं।

धार्मिक जीवन में अशोक का आदर्श सहिष्णुता तथा समन्वयन था। तत्कालीन प्रचलित धर्मों के उत्तम तथ्यों के संग्रह से उसने एक ऐसे धर्म की स्थापना की जो सर्वमान्य हो। इस धर्म में न कोई दुरूह दर्शन था और न कोई आडम्बर। यह बड़ा ही सरल तथा व्यावहारिक धर्म था जिसमें आचरण की शुद्धता तथा कर्त्तव्य-पालन पर बल दिया जाता था।

सारांश रूप में कहा जा सकता है कि लोक-कल्याण, भौतिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति ही अशोक के जीवन के प्रधान लक्ष्य थे। एच.जी वेल्स ने अशोक की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘सहस्र सम्राटों के नामों के मध्य, जो इतिहास के पन्नों को भरे हुए हैं अशोक का नाम एक सितारे की भांति प्रकाशमान है।’

डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने भी इतिहास में अशोक का स्थान निर्धारित करते हुए लिखा है कि भारत के इतिहास में अशोक दिलचस्प व्यक्ति था। उसमें चन्द्रगुप्त जैसी शक्ति, समुद्रगुप्त जैसी विलक्षण प्रतिभा और अकबर जैसी व्यापक उदारता थी।

अशोक के उत्तराधिकारी

लगभग चालीस वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन करने के उपरान्त 232 ई.पू. में अशोक की मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका पुत्र कुणाल सिंहासन पर बैठा। सिंहासन पर बैठने से पहले वह गान्धार का शासक रह चुका था। कुणाल के शासनकाल में मगध साम्राज्य का पश्चिमोत्तर भाग स्वतन्त्र हो गया और अशोक के दूसरे पुत्र जालौक ने काश्मीर में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। कुणाल के बाद अशोक का पोता दशरथ मगध के सिंहासन पर बैठा। वह बड़ी ही धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसने नागार्जुनी की पहाड़ि़यों में आजीवकों के लिए गुहामन्दिर बनवाए। उसके शासनकाल में कलिंग ने मगध साम्राज्य से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। दशरथ के बाद सम्प्रति मगध के सिंहासन पर बैठा। वह एक योग्य तथा शक्तिशाली शासक था। वह जैन-धर्म का अनुयायी तथा आश्रयदाता था। सम्प्रति के बाद कई अयोग्य एवं शक्तिहीन राजा मगध के सिंहासन पर बैठे जिनके शासन-काल में साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा। वृहद्रथ अन्तिम मौर्य सम्राट था जिसकी हत्या उसके ही सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने की और स्वयं मगध का शासक बन गया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा संस्थापित साम्राज्य का सदा के लिये अन्त हो गया।

मौर्य-साम्राज्य के पतन के कारण

अशोक की मृत्यु के साथ ही मौर्य साम्राज्य के अंत का प्रारंभ हो गया। इसके लिये स्वयं अशोक से लेकर उसके उत्तराधिकारी भी जिम्मेदार थे। मौर्य-साम्राज्य के पतन के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

(1) अशोक की अहिंसा की नीति: अशोक ने अहिंसा की नीति को शासन का आधार बनाया। इस नीति पर चलकर वह अपने जीवनकाल में साम्राज्य को सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित रख सका परन्तु अहिंसा की नीति के अन्तिम परिणाम अच्छे न हुए। उसने जिस आध्यात्मिकता का वायुमंडल उत्पन्न किया, वह सैनिक दृष्टिकोण से साम्राज्य के लिए बड़ा घातक सिद्ध हुआ। अशोक के शासनकाल में ही सैनिक-शक्ति व्यर्थ समझी जाने लगी। इससे वह निश्चय ही क्षीण हो गयी होगी। उसके उत्तराधिकारी भी सैनिक शक्ति को बढ़ा नहीं सके होंगे।

(2) ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया: मौर्य साम्राज्य के समस्त सम्राट प्रायः जैन अथवा बौद्ध धर्म के अनुयायी हुए और इन्हीं दो धर्मों को प्रश्रय तथा प्रोत्साहन देते रहे। इससे ब्राह्मणों में मौर्यों के विरुद्ध प्रतिक्रिया हुई और वे मौर्य-साम्राज्य के शत्रु हो गये। इससे राज्य की शक्ति निरंतर क्षीण होती चली गई।

(3) अयोग्य उत्तराधिकारी: अशोक के उत्तराधिकारियों में एक भी इतना योग्य न था जो उसके विशाल केन्द्रीभूत शासन को संभाल सकता। केन्द्रीय शक्ति के निर्बल होते ही राज्य के सुदूर भागों के प्रान्तपतियों ने विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया और स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया। अशोक के उत्तराधिकारियों में कुछ बड़े ही अत्याचारी हुए। अतः प्रजा की भी मौर्य शासकों के प्रति कोई सहानुभूति न रही। अशोक के कई पुत्र थे जिनमें परस्पर संघर्ष चला करता था। यह सब मौर्य-साम्राज्य के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ।

(4) अन्तःपुर तथा दरबार के षड्यन्त्र: अशोक के अनेक पुत्र तथा रानियां थीं, जो प्रायः एक दूसरे के विरुद्ध षड्यंत्र रचा करती थीं। इसका भी साम्राज्य पर अच्छा प्रभाव न पड़ा। वृहदृथ के शासन-काल में राज दरबार में दो दल हो गए थे। एक दल सेनापति का था और दूसरा प्रधानमन्त्री का। यह दल-बन्दी साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुई। अन्त में सेनापति पुष्यमित्र शुंग, मौर्य-सम्राट वृहद्रथ की हत्या करके स्वयं मगध के सिंहासन पर बैठ गया। इस प्रकार मौर्य-साम्राज्य का दीपक सदैव के लिए बुझ गया।

(5) यवनों के आक्रमण: मौर्य-साम्राज्य की शक्ति को क्षीण होते देख बैक्ट्रिया के यवनों ने भी मगध राज्य के पश्चिमोत्तर प्रदेश पर आक्रमण करना आरम्भ किया और उसको छिन्न-भिन्न करने में बड़ा योग दिया।

अध्याय – 14 मौर्य-कालीन भारत

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मौर्य-कालीन समाज एवं संस्कृति को जानने के तीन प्रमुख साधन हैं- (1) मेगस्थनीज का भारतीय विवरण, (2) कौटिल्य का अर्थशास्त्र तथा (3) अशोक के अभिलेख।

मौर्य कालीन समाज

वर्ण-व्यवस्था: मौर्य-कालीन समाज में वर्ण-व्यवस्था तथा वर्णाश्रम-धर्म दोनों ही सुदृढ़़ रूप से स्थापित थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से हमें चार जातियों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र का पता लगता है। ब्राह्मण सर्वाधिक आदरणीय थे। अशोक के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि वह ब्राह्मणों तथा श्रमणों को दान देता था और उनका बड़ा सम्मान करता था। भारतीय वर्ण व्यवस्था की समझ न होने से मेगस्थनीज ने सात जातियों- दार्शनिक, किसान, ग्वाले, कारीगर, सैनिक, निरीक्षक तथा अमात्य का वर्णन किया है। मेगस्थनीज के विवरण से ज्ञात होता है कि अन्तर्जातीय विवाह तथा खान-पान का निषेध था, परन्तु अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि मौर्य कालीन समाज में ये दोनों ही प्रथाएं प्रचलित थीं। मौर्य-काल में शूद्रों की दशा अच्छी नहीं थी, वे नीची दृष्टि से देखे जाते थे।

वैवाहिक परम्पराएँ: विवाह के समय कन्या की न्यूनतम आयु बारह वर्ष और वर की सोलह वर्ष होनी आवश्यक थी। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख किया है- ब्राह्म, शौल्क, प्रजापत्य, दैव, गान्धर्व, आसुर, राक्षस तथा पैशाच। मेगस्थनीज ने भारतीयों के लिये विवाह के तीन लक्ष्य बताये हैं- जीवन-संगिनी प्राप्त करना, भोग करना तथा कई सन्तानें प्राप्त करना। इस युग में बहु-विवाह की प्रथा प्रचलित थी। अशोक की कई रानियां थीं। स्त्रियों को भी, पति के मर जाने अथवा घर छोड़कर चले जाने और बहुत दिनों तक वापस नहीं आने पर पुनर्विवाह की आज्ञा थी। पति के दुराचारी, हत्यारा, नपुंसक आदि होने पर विवाह-विच्छेद की भी आज्ञा थी। कौटिल्य ने नियोग की भी आज्ञा दी है अर्थात् संतानहीन स्त्री किसी अन्य व्यक्ति के साथ संसर्ग कर संतान उत्पन्न कर सकती थी।

स्त्रियों की दशा: मौर्यकाल में स्त्रियों की दशा बहुत संतोषजनक नहीं थी। वे संतान उत्पन्न करने का साधन-मात्र समझी जाती थीं। स्त्रियों का कार्यक्षेत्र चूल्हा-चक्की समझा जाता था। वे प्रायः घर के भीतर ही रहती थीं। डॉ. भण्डारकर के विचार में इस युग में पर्दे की प्रथा थी। कौटिल्य के मतानुसार स्त्रियों को उच्च-शिक्षा देना उचित ही है। मेगस्थनीज के कथनानुसार स्त्रियों को दार्शनिक ज्ञान देना इस युग में उचित नहीं समझा जाता था। स्त्रियों में अन्धविश्वास व्याप्त था और वे विभिन्न प्रकार के मंगल-अनुष्ठान किया करती थीं। स्त्रियों को सम्पत्ति सम्बन्धी कुछ अधिकार प्राप्त थे। स्त्री अपने पति के अत्याचारों के विरुद्ध न्यायालय में जा सकती थी। स्त्री-हत्या महापाप समझा जाता था। कुछ ऐसे प्रमाण भी मिलते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि स्त्रियों का एक ऐसा भी वर्ग था जो अच्छी दशा में था। राज-महिलाएं दान दिया करतीं थीं। स्त्रियां सैनिक तथा गुप्तचर का कार्य करती थीं। चन्द्रगुप्त मौर्य की संरक्षिकाएं स्त्रियां होती थीं। वे धर्मप्रचार का कार्य भी करती थीं। अशोक ने अपनी पुत्री संघमित्रा को धर्मप्रचार के लिए श्रीलंका भेजा था। अनेक स्त्रियां नृत्य, संगीत तथा ललित कलाओं में निष्णात होती थीं। इस काल में वेश्यावृत्ति का भी प्रचलन था।

दास प्रथा: मौर्य-काल में दास प्रथा का भी प्रचलन था। दास अपने स्वामी की विभिन्न प्रकार से सेवा करते थे। दास प्रायः अनार्य हुआ करते थे जिनका पशुओं की भांति क्रय-विक्रय होता था। आर्थिक संकट के कारण कभी-कभी आर्य लोग भी दास बन जाते थे। दासों के साथ अच्छा व्यवहार होता था। उन्हें गाली देना अथवा मारना-पीटना उचित नहीं समझा जाता था। दासों को अपनी माता की सम्पत्ति में पूरा अधिकार रहता था। स्वामी को मूल्य चुका देने पर दासों की दासता समाप्त भी हो जाती थी और वे फिर पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो जाते थे।

मांस भक्षण: मौर्य-काल में मांस भक्षण का प्रचलन था। सम्राट अशोक के भोजनालय में अनेक प्रकार के पशु-पक्षियों का मांस बनता था। बाजार में कच्चा तथा पकाया हुआ दोनों प्रकार का मांस बिकता था। अशोक के बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेने के उपरान्त मांस-भक्षण बहुत कम हो गया था। इस काल में मदिरापान का भी प्रचलन था। अर्थशास्त्र में अनेक प्रकार की मदिराओं का वर्णन है। मदिरापान केवल मदिरालय में ही होता था। बाहर केवल वही लोग मदिरा ले जा सकते थे जो बड़े ही विश्वसनीय तथा चरित्रवान होते थे। मदिरापान समाज में बुरा समझा जाता था इसलिये इसका प्रयोग सीमित था। मदिरापान प्रायः अनुष्ठानों के अवसर पर होता था।

आमोद-प्रमोद: अशोक के अभिलेखों से पता लगता है कि मौर्य कालीन समाज में ‘विहार-यात्राएं’ आमोद-प्रमोद की प्रधान साधन थीं। इन यात्राओं में पशु-पक्षियों का शिकार किया जाता था। ‘समाज’ भी आमोद-प्रमोद के प्रधान साधन थे। इन समाजों में मनुष्य तथा पशुओं के द्वन्द्व युद्ध होते थे। अशोक ने अहिंसा-धर्म स्वीकार करने के उपरान्त विहार-यात्राओं तथा समाज के आयोजन बन्द करवा दिये थे। रथ-दौड़, खेल-कूद तथा नाच गाने, आमोद-प्रमोद के अन्य साधन थे।

नैतिक आचरण: मेगस्थनीज के अनुसार मौर्य-काल में भारतीयों का नैतिक स्तर बड़ा ऊँचा था। लोगों का जीवन सरल था और उनमें फिजूल-खर्ची नहीं थी। इससे उनका जीवन सुखी था। चोरी का नामोनिशान नहीं था। लोग प्रायः अपने घरों को अरक्षित छोड़कर चले जाते थे। लोग सामाजिक नियमों का पालन करते थे जिससे न्यायालय की शरण में जाने की बहुत कम आवश्यकता पड़ती थी। समाज में योग्यता का बड़ा आदर होता था। वृद्ध तभी आदरणीय समझे जाते थे जब उनमें ज्ञान तथा योग्यता होती थी। सत्य तथा गुण का बड़ा आदर होता था। अतिथि-सत्कार पर बल दिया जाता था। अशोक के शासन-काल में समाज का नैतिक स्तर बहुत ऊँचा उठ गया था क्योंकि अशोक ने गुरुजनों का आदर करना, माता-पिता की सेवा करना, मित्रों, परिचितों तथा सम्बन्धियों के साथ उदारता बरतना तथा ब्राह्मणों एवं श्रमणों के दर्शन करना तथा दान देना आदि उपदेशों पर बल दिया था।

मौर्य कालीन धार्मिक दशा

धर्म के प्रति शासकों का दृष्टिकोण: मौर्य-कालीन शासकों का धार्मिक दृष्टिकोण बड़ा ही उदार तथा व्यापक था। यद्यपि उनमें से कुछ ने जैन-धर्म तथा कुछ शासकों ने बौद्ध-धर्म को अपनाया तथा राजकीय आश्रय प्रदान किया परन्तु अन्य धर्मों के साथ उन्होंने किसी प्रकार का अत्याचार नहीं किया। समस्त धर्म उनकी सहानुभूति एवं सम्मान के पात्र बने रहे, उनसे सहायता पाते रहे और अपनी उन्नति में लगे रहे।

ब्राह्मण-धर्म: कौटिल्य तथा मेगस्थनीज दोनों के विवरणों से ज्ञात होता है कि उस काल में नये-नये धर्मों का प्रचार हो जाने पर भी ब्राह्मण-धर्म सर्वाधिक प्रबल था। वैदिक कर्मकाण्डों अर्थात् यज्ञ तथा बलि का बड़ा जोर था। यज्ञ के अवसर पर मद्यपान किया जाता था। स्त्रियाँ अनेक प्रकार के मंगल कार्य करती थीं। ब्राह्मणों का बड़ा आदर सत्कार होता था। मेगस्थनीज के विवरण से ज्ञात होता है कि ब्राह्मण, आत्मा तथा परमात्मा के चिन्तन में संलग्न रहते थे। ब्राह्मण-धर्म में अनेक देवी-देवताओं की पूजा होती थी। कौटिल्य ने वर्णाश्रम-धर्म के पालन पर जोर दिया है। स्वर्ग की प्राप्ति अब भी जीवन का अन्तिम लक्ष्य समझा जाता था।

भागवत धर्म: मौर्य कालीन समाज में, ब्राह्मण-धर्म से निःसृत शैव सम्प्रदाय तथा भागवत धर्म भी प्रचलन में थे। मेगस्थनीज ने शिव तथा कृष्ण की पूजा का उल्लेख किया है। वासुदेव की पूजा का उल्लेख अनेक स्थलों पर मिलता है। स्पष्ट है कि उस काल में भक्ति-प्रधान भागवत-धर्म का प्रचलन था।

आजीवक धर्म: अशोक के शिलालेखों में आजीवकों का उल्लेख मिलता है। जैन-ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि आजीवक-सम्प्रदाय ब्राह्मण सम्प्रदाय से भिन्न था किंतु डॉ. भण्डारकर के विचार में आजीवक सम्प्रदाय ब्राह्मणों से भिन्न कोई अन्य संप्रदाय नहीं था। आजीवक लोग नंगे संन्यासियों की भाँति जीवन व्यतीत करते थे। उनका विश्वास था कि समस्त बातें तथा घटनाएँ एक नियति अर्थात् नियम के अनुसार घटती हैं और मनुष्य उनमें कोई परिवर्तन नही कर सकता। अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि बिन्दुसार ने आजीवकों को अपना संरक्षण प्रदान किया था। अशोक ने भी आजीवक संन्यासियों को बरार की गुफाएं दान में दी थीं। मौर्य सम्राट दशरथ भी आजीवकों का आश्रयदाता था।

जैन धर्म: मौर्य-काल में जैन धर्म भी उन्नत दशा में था। जैन-ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य जैन-धर्म का अनुयायी तथा आश्रयदाता था। अशोक के पौत्र सम्प्रति ने भी जैन-धर्म को संरक्षण प्रदान किया और स्वयं उसका अनुयायी बन गया। अशोक के अभिलेखों में जैनियों को निर्ग्रन्थ कहा गया है।

बौद्ध धर्म: बौद्ध धर्म की इस काल में समस्त धर्मों से अधिक उन्नति हुई। चूंकि अशोक इस धर्म का अनुयायी हो गया था और उसने बौद्ध धर्म को राजधर्म बनाकर उसका तन, मन, धन से प्रचार किया इसलिये न केवल सम्पूर्ण भारत में वरन् विदेशों में भी इसका प्रचार हो गया। अशोक का धार्मिक दृष्टिकोण उदार तथा व्यापक था। वह कट्टरपन्थी बिल्कुल नहीं था। बौद्ध-धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्म-वालों को भी वह दान देता था और उन्हें आदर की दृष्टि से देखता था। वह ब्राह्मणों तथा श्रमणों के दर्शन करता था और उन्हें दान देता था। वास्तव में अशोक का धर्म एक सार्वभौम धर्म था जिसमें समस्त धर्मों की अच्छी बातें विद्यमान थी।

मूर्ति पूजा: कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में मूर्तियों तथा मन्दिरों का उल्लेख किया है जिससे ज्ञात होता है कि इस काल में मूर्ति-पूजा का प्रचलन था। मूर्ति बनाने वाले लोग ‘देवता कारू’ कहलाते थे। महर्षि पंतजलि ने भी शिव, विशाख आदि की मूर्तियों का उल्लेख किया है। बौद्ध लोग बुद्ध तथा बोधिसत्वों की मूर्तियों की पूजा करते थे।

नदियों की पूजा: मौर्यकालीन समाज में नदियों को पवित्र माना जाता था। मेगस्थनीज ने गंगा को अत्यन्त पवित्र नदी बताया है। इस काल में तीर्थ-यात्रा का भी प्रचलन था। लोग पवित्र पर्वों के अवसरों पर तीर्थ-स्थानों में दर्शन तथा स्नान के लिए जाते थे। अशोक के समय से राज्य ने तीर्थों से तीर्थ कर लेना बन्द कर दिया था।

मौर्य कालीन आर्थिक दशा

कृषि

मौर्य-कालीन समाज में कृषि प्रधान व्यवसाय था। मेस्थनीज ने लिखा है कि दूसरी जाति कृषकों की है जो संख्या में सबसे अधिक है। किसानों को समाज के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण समझा जाता था और उनकी सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा जाता था। युद्ध के समय भी कृषि को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाई जाती थी। मेस्थनीज के अनुसार भूमि उर्वर थी तथा सिंचाई की व्यवस्था उत्तम थी। खेती परम्परागत विधि से की जाती थी। कृषक लोहे के उपकरण काम में लेते थे। वे विभिन्न प्रकार की मिट्टियों की प्रकृति तथा गुणों से परिचित थे।

प्रमुख फसलें: मेस्थनीज के अनुसार भारत में एक साल में दो बार वर्षा होती है- एक बार जाड़े में जबकि गेहूँ, बोया जाता है और दूसरी बार गर्मी में जबकि तिल, ज्वार आदि बोया जाता है। इसके साथ-साथ फल एवं मूल भी उत्पन्न होते हैं जो मनुष्यों को प्रचुर खाद्य सामग्री प्रदान करते हैं। मगध के कई क्षेत्रों में धान, गेहूँ तथा जौ की खेती होती थी। बौद्ध ग्रं्रथों में धान की भरपूर फसलों के कई उल्लेख मिलते हैं। पतंजलि ने भी धान का उल्लेख मगध में उगायी जाने वाली प्रमुख फसल के रूप में किया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में गेहूँ, जौ, चना, चावल, सहजन, तरबूज, खरबूज, आम, जामुन, अनार, अंगूर, फालसा, नींबू आदि फसलों एवं फलों का उल्लेख किया गया है। पुरातात्विक खुदाइयों में भी मौर्य काल में गेहूं तथा जौ की बड़े स्तर पर खेती होने के प्रमाण मिले हैं।

सिंचाई: मौर्य काल में राज्य की ओर से सिंचाई का प्रबन्ध किया जाता था और कुएं, तालाब, झील आदि खुदवाये जाते थे। इस सुविधा के बदले में राज्य किसानों से सिंचाई-कर लेता था। सौराष्ट्र से प्राप्त दूसरी शतब्दी ई.पू. के जूनागढ़ अभिलेख से प्रकट होता है कि चंद्रगुप्त मौर्य के प्रांतपति पुष्यगुप्त ने सुदर्शन झील का निर्माण करवाया तथा उससे सिंचाई के लिये नहरें निकालीं। मेगस्थनीज ने भी मौर्य साम्राज्य में प्रयुक्त सिंचाई पद्धतियों का उल्लेख किया है। उसने नहरों एवं खेतों को पानी के संभरण का निरीक्षण करने के लिये नियुक्त अधिकारियों का भी उल्लेख किया है। कौटिल्य ने सिंचाई के कई साधनों का उल्लेख किया है- 1. नदी, सर, तड़ाग् और कूप द्वारा सिंचाई, 2. ढोल या चरस द्वारा कुएँ से पानी निकालकर सिंचाई, 3. बैलों द्वारा खींचे जानेे वाले रहट या चरस द्वारा कुएँ से सिंचाई, 4. बांध बनाकर नहरों द्वारा सिंचाई, 5. वायु द्वारा संचालित चक्की द्वारा सिंचाई।

खाद: मौर्य काल में भूमि की उर्वरता को बनाये रखने के लिए खादों का प्रयोग किया जाता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में विभिन्न प्रकार की खादों का वर्णन मिलता है। अर्थशास्त्र में घी, शहद, चर्बी, मछलियों का चूर्ण, गोबर, राख, आदि का खाद के रूप में उपयोग होने का उल्लेख है। किसान विभिन्न प्रकार के अन्न, फल तथा तरकारियों की कृषि करते थे।

पशुपालन

भारत में पशुपालन का कार्य, मानव के आदिम अवस्था से बाहर निकलते ही आरंभ हो गया थ। मौर्य कालीन समाज में भी व्यापक स्तर पर पशुपालन होता था। मेगस्थनीज ने ग्वालों की जाति का उल्लेख किया है जिससे स्पष्ट है कि दूध के लिए पशुपालन किया जाता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि मौर्य शासन में अलग से पशु विभाग की व्यवस्था की गई थी। इस विभाग का कार्य बंजर भूमि में चारागाहों का विकास करना, रोगी पशुओं की चिकित्सा की व्यवस्था करना, पशुओं के साथ अमानुषिक व्यवहार रोकना, उनका पंजीयन करना होता था। अर्थशास्त्र में गोअध्यक्ष तथा अश्वाध्यक्ष के उल्लेख मिलते हैं। चूंकि कृषि तथा सिंचाई काफी उन्नत दशा में पहुंच चुकी थी इसलिये अनुमान लगाया जा सकता है कि कृषि के लिये खेत जोतने, भार ढोने एवं कुओं से सिंचाई का पानी निकालने के काम में पशुओं की सहायता ली जाती थी। उस काल में खेतों में विभिन्न प्रकार की खादों का उपयोग हो रहा था इसलिये पशुओं के गोबर एवं मींगनी भी काम में ली जाती रही होगी। मांसाहारी लोग बकरी तथा मुर्गा पालते थे। ऊन एवं मांस के लिये भेड़पालन होता था।

उद्योग-धन्धे

मौर्य-काल में विभिन्न प्रकार के उद्योग-धन्धे प्रचलन में थे। इनमें सूती एवं ऊनी वस्त्र निर्माण, धातु निर्माण तथा धातुओं से कृषि उपकरण, बरतन तथा हथियारों का निर्माण, मिट्टी के बर्तनों एवं मूर्तियों का निर्माण, कीमती धातुओं, लकड़ी का काम, चंदन की लकड़ी एवं हाथी दांत के आभूषणों का निर्माण आदि प्रमुख उद्योग धंधे थे। कुछ लोग मदिरा बनाने एवं बेचने का काम करते थे।

वस्त्र निर्माण: कपास की अच्छी खेती होती थी। इसलिये सूती वस्त्र का व्यवसाय बड़ी उन्नत दशा में था। सूती कपड़े के लिये काशी, वत्स, अपरान्त, बंग और मदुरा विशेष रूप से विख्यात थे। सूत कातने के लिये चरखों तथा कपड़ा बुनने के लिये करघों का उपयोग किया जाता था। मेगस्थनीज तथा कौटिल्य दोनों के द्वारा दिये गये विवरण के अनुसार देश में कपास की खेती प्रचुरता में होती थी इसलिये तंतुवाह (जुलाहे) काफी व्यस्त रहते थे। वस्त्र बनाने के लिए सन का भी प्रयोग किया जाता था। मगध तथा काशी सन के वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध थे। वृक्षों के पत्तों तथा उनकी छाल के रेशों से भी वस्त्र बनाये जाते थे। अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि मौर्य-काल में कई प्रकार के ऊनी वस्त्र बनते थे। मेगस्थनीज ने कई प्रकार के बहुमूल्य वस्त्रों का उल्लेख किया है। उसने मलमल के कामदार वस्त्रों की मुक्त-कंठ से प्रशंसा की है। उस काल में बंगाल उच्चकोटि के मलमल वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध था।

धातु उद्योग: मौर्यकाल में विभिन्न प्रकार की धातुओं के निर्माण एवं उन पर आधारित उद्योग उन्नत दशा में थे। सोना, चांदी, ताम्बा और लोहा प्रचुर मात्रा में निकाला एवं गलाया जाता था। जस्ता एवं कुछ अन्य धातुएं भी काम में ली जाती थीं। राज्य की खानों के कार्य का अध्यक्ष आकराध्यक्ष कहलाता था। 

आभूषण निर्माण: पुरुष तथा स्त्री दोनों ही आभूषण पहनते थे। इस काल में हाथी-दाँत के सुन्दर आभूषण बनते थे। मेगस्थनीज से पता लगता है कि समृद्ध लोग बहुमूल्य वस्त्र धारण करते थे। उनके वस्त्रों पर सोने का काम किया जाता था। एरियन का कथन है कि भारत में धनी लोग अपने कानों में हाथीदांत के उच्च कोटि के आभूषण पहनते थे। समुद्रों से मणि, मुक्ता, रत्न, सीप आदि निकालने का काम राजकीय अधिकारियों की देखरेख में होता था। इन सबका प्रयोग आभूषण निर्माण में होता था।

सुरा उद्योग: इस काल में सुरा का निर्माण एवं व्यापार बड़े स्तर पर होता था। अर्थशास्त्र में छः प्रकार की सुराओं- मेदक, प्रसन्न, आसव, अरिष्ट, मैरेय और मधु का उल्लेख है। सुरा के निर्माण एवं प्रयोग पर सुराध्यक्ष का नियंत्रण रहता था।

लकड़ी तथा चमड़े का काम: वनों एवं पशुओं की प्रचुर उपलब्धता के कारण मौर्य काल में इमारती लकड़ी, चंदन की लकड़ी, पशुओं से प्राप्त ऊन और चमड़े पर आधारित उद्योग एवं व्यवसाय भी उन्नत दशा में थे।

व्यापार

मौर्य काल में आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार उन्नत दशा में था। व्यापारिक सुरक्षा की पूर्ण व्यवस्था थी। मेगस्थनीज के विवरण से ज्ञात होता है कि विदेशियों की सुरक्षा करने तथा उन्हें हर प्रकार की सुविधा देने के लिए पाटलिपुत्र में पाँच सदस्यों की एक समिति काम करती थी। विभिन्न प्रकार के उद्योग-धन्धे करने वालों को भी सुरक्षा दी जाती थी। यदि कोई व्यक्ति श्रमिकों अथवा कारीगरों का अंग-भंग कर देता था तो उसे मृत्युदंड दिया जाता था। यदि कोई व्यापारी नाप-तौल में बेईमानी करता था अथवा मिलावट करता था तो उसे कठोर दंड दिया जाता था। नावों द्वारा नदियों के मार्ग से भी व्यापार होता था। देश के विभिन्न भाग विभिन्न प्रकार के व्यवसायों तथा व्यापार के लिए प्रसिद्ध थे। विदेशी व्यापार, स्थल तथा सामुद्रिक मार्गों से होता था। चीन तथा मिस्र आदि देशों के साथ भारत का व्यापारिक सम्बन्ध था। अशोक ने जिन देशों में बौद्ध-धर्म का प्रचार किया उनके साथ भारत का व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित हो गया। विदेशों के साथ राजदूतों का आदान-प्रदान करके भी मौर्य सम्राटों ने व्यापार में बड़ी उन्नति की।

व्यापारिक मार्ग: मौर्य काल में देश में आन्तरिक व्यापार की सुविधा के लिए बड़े-बड़े राजमार्ग बनवाये गये थे। पाटलिपुत्र से पश्चिमोत्तर को जाने वाला मार्ग 1500 कोस लम्बा था। दूसरा महत्वपूर्ण मार्ग हैमवतपथ था जो हिमालय की ओर जाता था। दक्षिण भारत को भी अनेक मार्ग गये थे। कौटिल्य के अनुसार दक्षिणापथ में भी वह मार्ग सबसे अधिक महत्वपूर्ण है जो खानों से होकर जाता है जिस पर गमनागमन बहुत होता है और जिस पर परिश्रम कम पड़ता है। विभिन्न नगरों तथा प्रमुख मार्गों को एक दूसरे से जोड़ने के लिए कई छोटे-छोटे मार्ग बनवाये गये थे। राज्य की ओर से इन मार्गों की सुरक्षा का प्रबन्ध किया जाता था।

मुद्रा: व्यापार के लिए विभिन्न प्रकार की मुद्राओं का प्रयोग होता था। अर्थशास्त्र में मौर्य काल में प्रचलित अनेक मुद्राओं के नाम दिये गये हैं- सुवर्ण (सोने का), कार्षापण या पण या धरण (चांदी का), माषक (ताम्बे का), काकणी (ताम्बे का)। कौटिल्य ने उस काल की समस्त मुद्राओं को दो भागों में बांटा है- प्रथम कोटि में ‘कीष प्रवेष्य’ मुद्राएं आती थीं। ये लीगल टेण्डर के रूप में थीं। सम्पूर्ण राजकीय कार्य इन्हीं मुद्राओं में होता था। द्वितीय कोटि में व्यावहारिक मुद्राएं आती थीं। ये टोकन मनी के रूप में थीं। जनता का साधारण लेन-देन इन मुद्राओं में हो सकता था किंतु ये मुद्राएं राजकीय कोष में प्रवेश नहीं कर पाती थीं। मुद्र निर्माण राजकीय टकसालों में ही हो सकता था। परंतु यदि कोई व्यक्ति चाहे तो अपनी धातु ले जाकर राजकीय टकसाल से अपने लिये मुद्राएं बनवा सकता था। इस कार्य के लिये उसे एक निश्चित शुल्क देना पड़ता था।

मौर्य कालीन साहित्य तथा शिक्षा

भाषा: मौर्य-काल में दो प्रकार की भाषाओं का प्रचलन था। पहली भाषा संस्कृत थी तथा दूसरी पाली। संस्कृत विद्वानों की और पाली जन-साधारण की भाषा थी। संस्कृत साहित्यिक भाषा थी। इसमें ग्रन्थ लिखना गौरवपूर्ण समझा जाता था। बौद्ध-धर्म के प्रचार के साथ, पाली में भी ग्रन्थ रचना आरम्भ हो गयी। प्रारम्भिक बौद्ध-ग्रन्थ पाली भाषा में लिखे गये हैं। अशोक के अभिलेख पाली भाषा में खुदे हैं।

लिपि: मौर्य-काल में दो प्रकार की लिपियों का प्रयोग होता था- ब्राह्मी लिपि तथा खरोष्ठी लिपि। अशोक के अधिकांश अभिलेख ब्राह्मी लिपि में हैं। अशोक ने खरोष्ठी लिपि का प्रयोग पश्चिमोत्तर प्रदेशों के अभिलेखों में किया। सम्भवतः उस प्रदेश में इस लिपि का प्रयोग होता था। यह लिपि दाहिनी ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थी। शेष भारत में ब्राह्मी लिपि का प्रयोग होता था। आज भी कुछ प्रान्तीय भाषाओं में ब्राह्मी लिपि का प्रयोग होता है।

साहित्य: मौर्य-काल में रचित संस्कृत का सबसे प्रसिद्ध एवं ऐतिहासिक ग्रन्थ कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ है। इसी काल में वात्सायन ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘कामसूत्र’ की रचना की। कुछ विद्वान कौटिल्य, वात्सायन, विष्णुगुप्त तथा चाणक्य एक ही व्यक्ति के चार नाम होना बताते हैं। इसी काल में कात्यायन ने पाणिनी की अष्टाध्यायी पर अपने वार्तिक लिखे। इस काल में कुछ सूत्र ग्रन्थों तथा धर्म-शास्त्रों की भी रचना हुई। संभवतः रामायण तथा महाभारत का परिवर्द्धन भी इसी काल में हुआ। बौद्ध-धर्म के त्रिपिटक ग्रन्थों तथा अनेक जैन ग्रन्थों का संकलन इसी युग में हुआ था। अनेक ग्रंथों में सुबंधु नामक एक ब्राह्मण विद्वान का उल्लेख आता है जो बिंदुसार का मंत्री था। उसने वासवदत्ता नाट्यधारा नामक नाटक की रचना की। संस्कृत का परम विद्वान वररुचि इसी काल में हुआ। बृहत्कथा कोष के अनुसार इस काल में कवि नामक एक अन्य विद्वान भी हुआ। जैन-धर्म का प्रसिद्ध आचार्य भद्रबाहु इसी काल की विभूति था। जैन धर्म के आचारांग सूत्र, भगवती सूत्र, समवायांग सूत्र आदि की रचना इसी काल में हुई।

शिक्षा: मौर्य-कालीन सम्राटों ने शिक्षा की बड़ी सुन्दर व्यवस्था की थी। स्मिथ के विचार में ब्रिटिश-काल में भी उतनी विस्तृत शिक्षा की योजना न थी जितनी मौर्य-काल में थी। तक्षशिला उच्च-शिक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र था जहाँ धनी तथा निर्धन दोनों ही शिक्षा प्राप्त करते थे। धनी परिवारों के बच्चे शुल्क देकर दिन में अध्ययन करते थे। निर्धनों के बच्चे दिन में गुरु की सेवा करते थे तथा रात में अध्ययन करते थे। गुरुकुलों, मठों तथा विहारों में भी शिक्षा दी जाती थी। इन संस्थाओं को राज्य की ओर से सहायता दी जाती थी।

मौर्य कालीन कला

मौर्य काल की कला उच्चकोटि की थी। उस काल में कलात्मक अभिव्यक्ति के लिये काष्ठ, हाथीदांत, मिट्टी, कच्ची ईंटें तथा धातुएं काम में ली गई थीं। इस काल में शिल्पकला के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई। इस कारण मौर्य-काल पाषाण मूर्तियों एवं भवनों के लिये अधिक प्रसिद्ध है। इस काल की शिल्प कला को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- (1) स्थापत्य कला तथा (2) मूर्ति कला।

स्थापत्य कला

मौर्य कालीन स्थापत्य कला के स्मारक चार स्वरूपों में प्राप्त होते हैं-

(1) आवासीय भवन (2) राजप्रासाद (3) गुहा-गृह (4) स्तम्भ तथा (5) स्तूप।

(1) आवासीय भवनों का निर्माण: अशोक के पूर्व जो आवासीय भवन बने थे, वे ईटों तथा लकड़ी से निर्मित हुए। अशोक के शासन-काल में भवन निर्माण में लकड़ी तथा ईटों के स्थान पर पाषाण का प्रयोग आरम्भ हो गया। जो काम लकड़ी तथा ईटों पर किया जाता था, इस काल में वह पत्थर पर किया जाने लगा। अशोक बहुत बड़ा भवन निर्माता था। काश्मीर में श्रीनगर तथा नेपाल में ललितपाटन नामक नगरों की स्थापना उसी के शासन-काल में हुई थी।

 (2) राजप्रासाद का निर्माण: मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र में बने सुंदर राजप्रासाद का वर्णन किया है। यह राजप्रासाद इतना सुन्दर था कि इसके निर्माण के सात सौ वर्ष बाद जब फाह्यान ने इसे देखा तो वह आश्चर्य चकित रह गया। उसने लिखा है कि अशोक के महल एवं भवनों को देखकर लगता है कि इस लोक के मनुष्य इन्हें नहीं बना सकते। ये तो देवताओं द्वारा बनवाये गये होंगे। पटना से इस मौर्यकालीन विशाल राजप्रासाद के अवशेष प्राप्त हुए हैं। एरियन के अनुसार यह राजप्रासाद कारीगरी का एक आश्चर्यजनक नमूना है। राजप्रसाद के अवशेषों में चंद्रगुप्त मौर्य की राजसभा भी मिली है। पतंजलि ने इस राजसभा का वर्णन किया है। यह सभा एक बहुत ही विशाल मण्डप के रूप में है। मण्डप के मुख्य भाग में, पूर्व से पश्चिम की ओर 10-10 स्तम्भों की 8 पंक्तियां हैं। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार यह ऐतिहासिक युग का प्रथम विशाल अवशेष है जिसके दिव्य स्वरूप को देखकर दर्शक मंत्रमुग्ध रह जाता है। उसके विभ्राट स्वरूप की स्थायी छाप मन पर पड़े बिना नहीं रह सकती।

(3) गुहा स्थापत्य: बिहार में गया के पास बराबर एवं नागार्जुनी की पहाड़ियों में मौर्यकालीन सात गुहा-गृह प्राप्त हुए हैं। बराबर पर्वत समूह से चार गुफाएं मिली हैं- कर्ण चोपड़ गुफा, सुदामा गुफा, लोमस ऋषि गुफा तथा विश्व झौंपड़ी गुफा। नागार्जुनी पहाड़ियों से तीन गुफाएं मिली हैं- गोपी गुफा, वहियका गुफा तथा वडथिका गुफा। इन गुहा-गृहों का निर्माण अशोक तथा दशरथ के शासन काल में किया गया था। ये गुहा-गृह शासकों की ओर से आजीवकों को दान में दिये गये थे। इन गुहा-गृहों की दीवारें आज भी शीशे की भाँति चमकती हैं।

(4) स्तम्भ: सांची तथा सारनाथ में अशोक के काल में बने तीस से चालीस स्तम्भ आज भी विद्यमान हैं। इनका निर्माण चुनार के बलुआ पत्थरों से किया गया है। इन स्तम्भों पर की गई पॉलिश शीशे की तरह चमकती है। ये स्तम्भ चालीस से पचास फीट लम्बे हैं तथा एक ही पत्थर से निर्मित हैं। इनका निर्माण शुण्डाकार में किया गया है। ये स्तम्भ नीचे से मोटे तथा ऊपर से पतले हैं। इन स्तम्भों के शीर्ष पर अंकित पशुओं की आकृतियाँ सुंदर एवं सजीव हैं। शीर्ष भाग की पशु आकृतियों के नीचे महात्मा बुद्ध के धर्म-चक्र प्रवर्तन का आकृति चिह्न उत्कीर्ण है। इन स्तम्भों के शीर्ष पर अत्यंत सुंदर, चिकनी एवं चमकदार पॉलिश की गई है जो मौर्य काल की विशिष्ट उपलब्धि है। लौरिया नंदन स्तम्भ के शीर्ष पर एक सिंह खड़ा है। संकिसा स्तम्भ के शीर्ष पर एक विशाल हाथी है तथा रामपुरवा के स्तम्भ शीर्ष पर एक वृषभ है। अशोक के स्तम्भों में सबसे सुंदर एवं सर्वोत्कृष्ट सारनाथ के स्तम्भ का शीर्षक है। सारनाथ स्तम्भ के शीर्ष पर चार सिंह एक दूसरे की ओर पीठ किये बैठे हैं। मार्शल के अनुसार ईस्वी शती पूर्व के संसार में इसके जैसी श्रेष्ठ कलाकृति कहीं नहीं मिलती। ऊपर की ओर बने सिंहों में जैसी शक्ति का प्रदर्शन है, उनकी फूली हुई नसों में जैसी प्राकृतिकता है, और उनकी मांसपेशियों में जो तनाव है और उनके नीचे उकेरी गई आकृतियों में जो प्राणवंत वास्तविकता है, उसमें कहीं भी आरम्भिक कला की छाया नहीं है।

(5) स्तूप: मौर्य कालीन स्थापत्य कला में स्तूपों का स्थान भी महत्वपूर्ण है। स्तूप निर्माण की परम्परा लौह कालीन तथा महापाषाणकालीन बस्तियों के समय से आरंभ हो चुकी थी किंतु अशोक के काल में इस परम्परा को विशेष प्रोत्साहन मिला। स्तूप ईंटों तथा पत्थरों के ऊँचे टीले तथा गुम्बदाकार स्मारक हैं। कुछ स्तूपों के चारों ओर पत्थर, ईंटें अथवा ईंटों की जालीदार बाड़ लगाई गई है। इन स्तूपों का निर्माण बुद्ध अथवा बोधिसत्व (सत्य-ज्ञान प्राप्त बौद्ध मतावलम्बी) के अवशेष रखने के लिये किया जाता था। बौद्ध साहित्य के अनुसार अशोक ने लगभग चौरासी हजार स्तूपों का निर्माण करवाया था। इनमें से कुछ स्तूपों की ऊँचाई 300 फुट तक थी। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भारत तथा अफगानिस्तान के विभिन्न भागों में इन स्तूपों को खड़े देखा था। वर्तमान में कुछ स्तूप ही देखने को मिलते हैं। इनमें मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के निकट स्थित सांची का स्तूप प्रसिद्ध है। इसकी ऊँचाई 77.5 फुट, व्यास 121.5 फुट तथा इसके चारों ओर लगी बाड़ की ऊँचाई 11 फुट है। इस स्तूप का निर्माण अशोक के काल में हुआ तथा इसका विस्तार अशोक के बाद के कालों में भी करवाया गया। इस स्तूप की बाड़ और तोरणद्वार कला की दृष्टि से आकर्षक एवं सजीव हैं।

मूर्ति कला

प्रस्तर मूर्तियां: पाटलिपुत्र, मथुरा, विदिशा तथा अन्य कई क्षेत्रों से मौर्यकालीन पत्थर की मूर्तियां मिली हैं। इन पर मौर्य काल की विशिष्ट चमकदार पॉलिश मिलती है। इन मूर्तियों में यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियां सर्वाधिक सजीव एवं सुंदर हैं। इन्हें मौर्यकालीन लोक कला का प्रतीक माना जाता है। इनमें सबसे प्रसिद्ध दीदारगंज, पटना से प्राप्त चामरग्राहिणी यक्षी की मूर्ति है जो 6 फुट 9 इंच ऊँची है। यक्षी का मुखमण्डल अत्यंत सुंदर है। अंग-प्रत्यंग में समुचित भराव रेखा और कला की सूक्ष्म छटा है। मथुरा के परखम गांव से प्राप्त यक्ष की मूर्ति भी 8 फुट 8 इंच की है। इसके कटाव में सादगी है तथा अलंकरण कम है। बेसनगर की स्त्री मूर्ति भी इस काल की मूर्तियों में विशिष्ट स्थान रखती है। अशोक के स्तम्भ शीर्षों पर बनी हुई पशुओं की मूर्तियां उस युग के संसार में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं।

मृण्मूर्तियाँ: पटना, अहच्छत्र, मथुरा, कौशाम्बी आदि में मिले भग्नावशेषों से बड़ी संख्या में मृण्मूर्तियां भी प्राप्त की गई हैं। ये कला की दृष्टि से सुंदर हैं तथा उस युग के परिधान, वेशभूषा तथा आभूषणों की जानकारी देती हैं। मौर्य काल की, बुलंदीबाग (पटना) से प्राप्त एक नर्तकी की मृण्मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

चित्रकला

मौर्य काल में चित्रकला के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई। बौद्ध शैली के चित्रों की रचना इस काल में प्रारम्भ हो गई थी। अभाग्यवश उस काल की चित्रकला के पर्याप्त नमूने उपलब्ध नहीं हो सके हैं।

मौर्यकाल की कला पर विदेशी प्रभाव

स्पूनर, मार्शल तथा निहार रंजन रे आदि अनेक विद्वानों ने मौर्यकाल की कला को भारतीय नहीं माना है। इन विद्वानों ने मौर्य काल की कला पर ईरानी कला का प्रभाव माना है। स्पूनर ने लिखा है कि पाटलिपुत्र का राजभवन फारस के राजमहल का प्रतिरूप था। स्मिथ ने लिखा है कि मौर्यों की कला ईरान तथा यवनों से प्रभावित हुई है। सिकंदर के आक्रमण के समय विदेशी सैनिक तथा शिल्पी भारत में बस गये थे, उन्हीं के द्वारा अशोक ने स्तम्भों का निर्माण करवाया। स्मिथ की मान्यता है कि अशोक से पहले, भारत में भवन निर्माण में पत्थरों का प्रयोग नहीं किया जाता था। विदेशी कलाकारों द्वारा इसे संभव किया गया। इन विद्वानों की धारणा को नकारते हुए अरुण सेन ने लिखा है कि मौर्य कला तथा फारसी कला में पर्याप्त अंतर है। फारसी स्तम्भों में नीचे की ओर आधार बनाया जाता था जबकि अशोक के स्तम्भों में कोई आधार नहीं बनाया गया है। मौर्य स्तम्भ का लम्बा भाग गोलाकार है एवं चमकदार पॉलिश से युक्त है जबकि फरसी स्तम्भों में चमकदार पॉलिश का अभाव है। अतः मौर्य कला पर फारसी प्रभाव होने की बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता। मौर्य कला अपने आप में पूर्णतः भारत में विकसित होने वाली कला है।

अध्याय – 15 ब्राह्मण राज्य (शुंग, कण्व और सातवाहन)

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मौर्य-साम्राज्य भारत का प्रथम विशाल साम्राज्य था। मौर्य काल में भारत को जो राजनीतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक एकता प्राप्त हुई वह इसके पूर्व कभी नहीं थी। अशोक के काल में यह एकता चरम पर पहुंच गई परन्तु अशोक की मृत्यु के पश्चात राष्ट्र में फिर से विच्छिन्नता आरम्भ हो गई। लगभग पांच शताब्दियों तक यह स्थिति रही जिससे भारत न केवल राजनीतिक वरन् सामाजिक तथा सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी छिन्न-भिन्न हो गया। मौर्य साम्राज्य के नष्ट हो जाने पर भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गये। राजनीतिक विच्छिन्नता के परिणाम स्वरूप भारत पर पुनः विदेशी आक्रमण आरम्भ हो गये और भारत के विभिन्न भागों में विदेशियों के राज्य स्थापित हो गये। राष्ट्र की राजनीतिक एकता के लिये बौद्ध धर्म और जैन धर्म के अहिंसात्मक सिद्धांतों के दुष्परिणाम सामने आ चुके थे। इस कारण मौर्योत्तर युग में वर्णाश्रम धर्म ने फिर से जोर पकड़ा और ब्राह्मण धर्म का महत्त्व पुनः बढ़ने लगा। संस्कृत भाषा का महत्त्व फिर से बढ़ा और उसी में साहित्य रचना होने लगी।

शुंग वंश और उसकी उपलब्धियाँ

शुंग वंश का प्रथम शासक पुष्यमित्र शुंग था। वह मौर्य वंश के अन्तिम शासक वृहद्रथ का सेनापति था। पुष्यमित्र शुंग ने 184 ई.पू. में एक सैनिक निरीक्षण के समय अपने स्वामी का वध कर दिया तथा स्वयं पाटलिपुत्र के सिंहासन पर बैठ गया। पतंजलि के महाभाष्य, विभिन्न पुराण, कालिदास के मालविकाग्निमित्रम्, बाणभट्ट के हर्षचरित, जैन लेखक मेरुतुंग के थेरावली, बौद्ध ग्रंथ दिव्यावदान एवं तारानाथ लिखित बौद्ध धर्म का इतिहास आदि साहित्यिक स्रोतों से शुंग वंश की जानकारी मिलती है। खारवेल के हाथी गुम्फा अभिलेख, धनदेव के अयोध्या अभिलेख से इस जानकारी की पुष्टि होती है तथा भरहुत एवं सांची के स्तूपों से शुंग वंश की कलात्मक प्रगति का ज्ञान होता है।

शुंग वंश

पतंजलि के महाभाष्य, पाणिनी की अष्टाध्यायी, गार्गी संहिता, विभिन्न पुराण, बाणभट्ट का हर्षचरित आदि ग्रंथ निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं कि शुंग ब्राह्मण थे। तिब्बती आचार्य तारानाथ भी उन्हें ब्राह्मण बताता है।

पुष्यमित्र शुंग

प्राचीन भारतीय शासकों में पुष्यमित्र शुंग महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उसने उत्तरमौर्य कालीन शासकों के समय गिरती हुई राजसत्ता के गौरव को पुनः स्थापित किया। सैन्य शक्ति एवं बौद्धिक क्षमता के बल पर उसने भारत की राजनीतिक एकता को पुनः सृजित करने का प्रयास किया। वह सेनापति से शासक बना था इसलिये उसने अंतिम समय तक अपनी सेना से सम्बन्ध बनाये रखा। उसने कभी भी सम्राट की उपाधि धारण नहीं की तथा स्वयं को सेनापति ही कहता रहा। तत्कालीन समस्त साक्ष्यों में उसे सेनानी ही कहा गया है जबकि उसके पुत्र और उत्तराधिकारी अग्निमित्र के लिये राजा शब्द का प्रयोग किया गया है। उसके काल की तीन प्रमुख घटनाएँ है- (1) विदर्भ के राजा को युद्ध में परास्त करना (2) यूनानियों के आक्रमणों को रोकना और (3) अश्वमेध यज्ञ करना।

(1) विदर्भ विजय: जिस समय पुष्यमित्र मगध का राजा बना, उस समय विदर्भ पर यज्ञसेन का शासन था जो कि मौर्यों की राजसभा के एक मंत्री का सम्बन्धी था। मालविकाग्निमित्र नामक नाटक से पुष्यमित्र तथा यज्ञसेन के मध्य हुए संघर्ष की सूचना मिलती है। संभवतः यज्ञसेन ने अंतिम मौर्य सम्राट की हत्या से उत्पन्न हुई उथल-पुथल की स्थिति का लाभ उठाने की चेष्टा की तथा स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र ने यज्ञसेन को परास्त करके विदर्भ को पुनः शंुग साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया।

(2) यूनानियों की पराजय: पुष्यमित्र शुंग के समय में यवनों ने भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर आक्रमण किया। पतंजलि के महाभाष्य, मालविकाग्निमित्र तथा गार्गी संहिता के यज्ञ पुराण से इस आक्रमण की सूचना मिलती है कि यवन सेनाएं साकेत, पांचाल तथा मथुरा को रौंदते हुई पाटलिपुत्र तक पहुंच गईं। पुष्यमित्र ने इस युद्ध के बाद अश्वमेध यज्ञ किया। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यवनों के साथ हुए युद्ध में पुष्यमित्र शुंग की विजय हुई। मालविकाग्निमित्र के अनुसार वसुमित्र ने यवनों को सिंधु नदी के तट पर पराजित किया था।

(3) अश्वमेध यज्ञ: वैदिक काल से ही आर्य राजा अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने और स्वयं को सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न राजा घोषित करने के लिये अश्वमेध यज्ञ करते थे। चूंकि पुष्यमित्र शुंग स्वयं ब्राह्मण था इसलिये उसने वैदिक परम्परा के अनुसार अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया ताकि उसके अधीनस्थ राजा उसे सार्वभौम चक्रवर्ती सम्राट स्वीकार कर लें।

पुष्यमित्र का साम्राज्य

विदर्भ विजय से मगध राज्य की खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त हुई। यवनों को परास्त करके उसने अपने राज्य की पश्चिमी सीमा स्यालकोट तक बढ़ा ली। साकेत से यूनानियांे को भगा देने से मध्य प्रदेश में उसके राज्य को स्थायित्व मिल गया। विदर्भ विजय ने उसका राज्य दक्षिण में नर्मदा नदी तक विस्तृत कर दिया। इस प्रकार पुष्यमित्र का राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में सिंधु नदी तक विस्तृत था।

पुष्यमित्र की उपलब्धियाँ

ब्राह्मण धर्म का पुनरुद्धार: चंद्रगुप्त मौर्य ने जैन धर्म को तथा अशोक ने बौद्ध धर्म को राज्याश्रय दिया। इस कारण ब्राह्मण धर्म का वेग मंद पड़ गया। पुष्यमित्र शुंग स्वयं ब्राह्मण था इसलिये उसने ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान के लिये प्रयास किया। पुष्यमित्र के राजपुरोहित का यह कथन उल्लेखनीय है कि ब्राह्मणों एवं श्रमणों में शाश्वत विरोध है। पतंजलि पुष्यमित्र के राजपुरोहित थे। इतिहासकारों का मानना है कि पतंजलि ने संस्कृत भाषा को बोधगम्य एवं सरल बनाने के लिये अष्टाध्यायी के महाभाष्य की रचना पुष्यमित्र के शासन काल में की। मनुस्मृति भी इसी काल में लिखी गई। इसमें भावी ब्राह्मण व्यवस्था की रूपरेखा थी। महर्षि पंतजलि के महाभाष्य से हमें ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र वैष्णव धर्म का अनुयायी था। उसने ब्राह्मण-धर्म को संरक्षण प्रदान किया और उसे राज धर्म बना दिया। ब्राह्मण धर्म और व्यवस्था के पुनरुद्धार का यह कार्य कण्वों और सातवाहनों के समय में भी चलता रहा।

बौद्ध धर्म का दमन: बौद्ध-ग्रन्थ ‘दिव्यावदान’ के अनुसार पुष्यमित्र, बौद्धों का विरोधी था और उनके साथ अत्याचार करता था। पुष्यमित्र ने 84 हजार स्तूपों को नष्ट करके ख्याति प्राप्त करने का प्रयत्न किया तथा बहुत से स्तूपों को नष्ट कर दिया। उसने यह घोषणा करवाई कि जो कोई व्यक्ति उसे बौद्ध भिक्षु का सिर लाकर देगा, उसे 100 दीनार देगा। तिब्बती लेखक तारानाथ लिखता है कि पुष्यमित्र ने मध्य प्रदेश से जालंधर तक बहुत से बौद्धों का वध किया और उनके स्तूपों तथा विहारों को भूमिसात किया। आर्य मंजूश्रीमूलकल्प में भी इसी प्रकार का वर्णन है। अधिकांश विद्वानों ने इन कथनों का विरोध करते हुए लिखा है कि चूंकि वह ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था इसलिये बौद्धों ने उसके विरुद्ध इस तरह की अनर्गल बातें लिखीं। भारतीय इतिहास में इस तरह की परम्परा कभी भी देखने को नहीं मिलती जब किसी भारतीय आर्य राजा ने दूसरे धर्मावलम्बियों की हत्या करवाई हो। पुष्यमित्र के समय भारतवासी दीनार शब्द से परिचित ही नहीं थे इसलिये दीनार देने की घोषणा करने वाली बात मिथ्या है तथा बाद के किसी काल में गढ़ी गई है।

सहिष्णु शासक: अधिकांश इतिहासकार पुष्यमित्र को सहिष्णु राजा स्वीकार करते हैं। पुष्यमित्र ने भरहुत, बोध गया तथा सांची के स्तूपों को नया रूप दिया और उनके आकार को बढ़ाया। भरहुत स्तूप के प्राचीर पर सुगनं रजे लिखा हुआ है जिसका अर्थ है कि स्तूप का यह भाग शुंग शासक के काल में निर्मित हुआ। दिव्यावदान में उल्लेख है कि उसने कई बौद्धों को अपना मंत्री बनाया। मालविकाग्निमित्र से विदित होता है कि पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र की राजसभा में एक बौद्ध धर्मावलम्बी भगवती कौशिकी नामक महिला थी जिसे बहुत सम्मान दिया जाता था। अतः स्पष्ट है कि पुष्यमित्र शुंग ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था तथा आर्य परम्पराओं के अनुसार उसने दूसरे धर्मों के लोगों के साथ सहिष्णुता का व्यवहार किया।

पुष्यमित्र का शासन काल

वायु पुराण तथा कतिपय अन्य पुराणों में पुष्यमित्र द्वारा 60 वर्ष तक शासन किया जाना बताया गया है जो कि सत्य प्रतीत नहीं होता। संभवतः इसमें वह अवधि भी जोड़ ली गई है जिस अवधि में उसने अवंति के गवर्नर के रूप में शासन किया। कुछ इतिहासकार पुष्यमित्र के शासन की अवधि 36 वर्ष तथा कुछ इतिहासकार 33 वर्ष मानते हैं। माना जाता है कि 148 ई. पू. में उसका निधन हुआ।

पुष्यमित्र के उत्तराधिकारी: शुंग-वंश में कुल दस शासक हुए, जिन्होंने लगभग 112 वर्ष तक शासन किया। इनके नाम इस प्रकार से हैं- (1) पुष्यमित्र, (2) अग्निमित्र, (3) वसुज्येष्ठ, (4) वसुमित्र, (5) आन्ध्रक, (6) पुलिन्डक, (7) घोष, (8) वज्रमित्र, (9) भाग और (10) देवभूति।

शुंगकालीन कला

शुंग-काल में यद्यपि मौर्यकालीन अनेक भवनों एवं स्तूपों के निर्माण को पूरा किया गया था किन्तु इस काल में ब्राह्मण-धर्म के प्रभाव से मन्दिरों एवं मूर्तियों का अधिक बाहुल्य दिखाई पड़ता है। हिन्दू देवी-देवताओं विष्णु, शिव, ब्रह्मा, बलराम, लक्ष्मी, वासुदेव आदि की मूर्तियों की बहुतायत है। बेसनगर में गरुड़ध्वज के साथ खड़ी विष्णु मूर्ति इसी काल में निर्मित हुई।

शुंग वंश का अंत

कहा जाता है कि शुंगवंश का अंतिम शासक देवभूति अत्यंत कामुक राजा था। 72 ई.पू. में देवभूति के मन्त्री वसुदेव कण्व ने देवभूति का वध करके नये राजवंश की स्थापना की।

कण्व-वंश

इस वंश का संस्थापक वसुदेव कण्व था। इतिहासकार अब तक इस वंश के समय की किसी उल्लेखनीय घटना अथवा विशेष उपलब्धि का पता नहीं लगा पाये हैं। इस वंश में कुल चार शासक- वसुदेव, भूमिमित्र, नारायण तथा सुशर्मा हुए जिन्होंने कुल 45 वर्षों तक शासन किया। इस वंश का अन्तिम शासक सुशर्मा था। पुराणों में कहा गया है कि कण्व वंश के शासक धर्मानुकूल शासन करेंगे। इससे अनुमान होता है कि शुंगों के शासन काल में ब्राह्मण धर्म व्यवस्था चलती रही। इस वंश के शासन के बारे में इससे अधिक जानकारी नहीं मिलती। पुराणों से ज्ञात होता है कि 28 ई.पू. अथवा 27 ई.पू. में आन्ध्र अथवा सातवाहन वंश के सिमुक ने सुशर्मा का वध करके कण्व वंश का अन्त कर दिया और स्वयं मगध का शासक बन गया। कण्व काल में संस्कृत के प्रसिद्ध कवि भास ने ‘प्रतिज्ञा यौगन्धरायण’ नाटक की रचना की।

आन्ध्र अथवा सातवाहन-वंश

आन्ध्र एक जाति का नाम था जो गोदावरी तथा कृष्णा नदियों के मध्य-भाग में निवास करती थी। वायु पुराण के अनुसार आन्ध्र जाति में उत्पन्न सिन्धुक, कान्वायन सुशर्मा एवं शुंगों की अवशिष्ट शक्ति को नष्ट कर राज्य प्राप्त करेगा। इस कथन से अनुमान होता है कि सिमुक ने कण्व तथा शुंग दोनों वंशों की शक्ति को नष्ट किया। इससे यह भी अनुमान होता है कि कण्वों के समय में भी शुंग किसी न किसी भू-भाग पर किसी न किसी रूप में शासन कर रहे थे।

आर्य अथवा अनार्य ?

निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि आन्ध्र लोग आर्य थे अथवा अनार्य! कुछ विद्वानों के विचार से ये मूलतः अनार्य थे परन्तु आर्यों के घनिष्ठ सम्पर्क में आ जाने से इन्होंने आर्य-सभ्यता तथा संस्कृति को अपना लिया था। इससे यह बताना कठिन हो गया कि ये लोग आर्य थे अथवा अनार्य। आंयगर के अनुसार आन्ध्र लोग अनार्य प्रजाति के थे जो धीरे-धीरे आर्य बना लिये गये। वे दक्षिण भारत के उत्तरी-पूर्वी भाग में निवास करते थे और काफी शक्तिशाली थे।’

भारतीय पुराण इस राजवंश को आन्ध्रजातीय अथवा आन्ध्रभृत्य लिखते हैं किंतु इस वंश के लेखों में कहीं पर भी आन्ध्र नाम का प्रयोग नहीं हुआ है। इस वंश के राजा स्वयं को सातवाहन लिखते थे। लिखित साहित्य में इस वंश के लिये कहीं-कहीं शालिवाहन शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। प्राचीन ब्राह्मण ग्रंथ दक्षिणी भारत में गोदावरी तथा कृष्णा नदियों के बीच के प्रदेश को आन्ध्र जाति का निवास स्थान बताते हैं। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार यह प्रदेश आर्य संस्कृति से बाहर था। पुराणों में आन्ध्रों की गणना पुण्ड्र, शबर और पुलिंद आदि अनार्यों के साथ हुई है। उपरोक्त तथ्यों के अनुसार यदि इस वंश को आन्ध्र वंश माना जाये तो यह राजवंश अनार्य सिद्ध होता है।

क्या सातवाहन ब्राह्मण थे ?

जहां पुराण एक ओर आंध्र वंश को अनार्य बताते हैं वहीं वे, सातवाहन राजाओं को ब्राह्मण बताते हैं जो मगध पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने से पहले दक्षिण भारत में निवास करते थे। कुछ सातवाहन राजाओं के नामों में गौतम और वसिष्ठ लगा हुआ है। ये ब्राह्मण गोत्र हैं। नासिक अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णि की माता गौतमी बलश्री को राजर्षिवधू कहा गया है। इससे अनुमान होता है कि वह ब्राह्मण-कन्या नहीं थी यदि ब्राह्मण-कन्या होती तो उसे ब्रह्मर्षि कन्या लिखा जाता। नासिक अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णि को एकबम्हन कहा गया है। इससे अनुमान होता है कि वह एक ब्राह्मण था। सेनार, ब्यूलर आदि अधिकांश विद्वानों ने सातवाहनों को ब्राह्मण माना है। डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने सातवाहनों को आन्ध्र का भृत्य बताते हुए लिखा है- ‘यह विश्वास करने योग्य बात है कि आन्ध्र-भृत्य अथवा सातवाहन राजा ब्राह्मण थे जिनमें कुछ नाग-रक्त का सम्मिश्रण था।’

यदि यह वंश, आर्य वंश था तथा ब्राह्मण जाति का था फिर भी ब्राह्मण ग्रंथों ने इसे अनार्य क्यों कहा ? इसका कारण यह था कि यह वंश पहले, महाराष्ट्र में राज्य करता था परंतु कालान्तर में शकों ने इस राजवंश को परास्त करके महाराष्ट्र से निकाल दिया। पराजित राजवंश महाराष्ट्र को छोड़कर गोदावरी एवं कृष्णा के बीच आन्ध्र प्रदेश में जाकर बस गया। आंध्र देश पर राज्य करने के कारण यह राजवंश आन्ध्र कहलाने लगा। अतः आन्ध्र नाम, प्रादेशिक संज्ञा है, जातीय संज्ञा नहीं है।

आंध्र अथवा सातवाहन ?

बृहद्देशी नामक ग्रंथ में आन्ध्री और सातवाहनी नामक दो पृथक-पृथक रागिनियों का उल्लेख है। इससे कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि आन्ध्र तथा सातवाहन दो पृथक जातियां थीं किंतु कतिपय विद्वानों के अनुसार आन्ध्र जाति में सातवाहन नामक राजकुमार हुआ, जिसके वंशज सातवाहन कहलाये। इस प्रकार आन्ध्र ‘जाति’ का और सातवाहन ‘कुल’ का नाम था।

सिमुक

सातवाहन-वंश का पहला राजा सिमुक था। उसे सिसुक सिंधुक, शिशुक तथा शिप्रक आदि नामों से भी पुकारा गया है। इसे भृत्य भी कहा गया है। अतः अनुमान होता है कि वह आरंभ में किसी राजा का सामन्त था। बाद में स्वतंत्र शासक बना। उसकी राजधानी प्रतिष्ठान अथवा पैठन थी जो गोदावरी नदी के तट पर स्थित थी। 28 ई.पू. में सिन्धुक ने कण्व-वंश के अन्तिम शासक देवभूति की हत्या करके मगध पर अधिकार कर लिया। डॉ. राय चौधरी ने इसे 60 ई.पू. से 37 ई.पू. के बीच के कालखण्ड का माना है।

कृष्ण

पुराणों के अनुसार सिमुक का भाई कृष्ण, सिमुक का उत्तराधिकारी था। कुछ इतिहासकार नासिक गुहा लेख में वर्णित कन्ह को इस कृष्ण से मिलाते हैं। उसके समय में एक श्रमण महामात्र ने नासिक में एक गुफा का निर्माण करवाया। इससे प्रकट होता है कि नासिक पर कृष्ण का शासन था।

शातकर्णि (प्रथम)

सातवाहन वंश का प्रथम शक्तिशाली राजा शातकर्णि था। इसके शासन के अनेक साक्ष्य मिलते हैं। पुराण इसे कृष्ण का पुत्र कहते हैं किंतु नानाघाट शिलालेख में उसे सिमुक सातवाहनस वंसवधनस (सिमुक सातवाहन के वंश को बढ़ाने वाला) कहा गया है। इससे अनुमान होता है कि वह सिमुक का पुत्र था। शातकर्णि की रानी का नाम नागानिका था जो अंगीय वंश के राजा की पुत्री थी। शातकर्णि ने दो बार अश्वमेध यज्ञ किये। नानाघाट अभिलेख द्वितीय अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख करता है। प्रथम अश्वमेध यज्ञ के उल्लेख वाला अभिलेख अब तक प्राप्त नहीं हो सका है। द्वितीय अश्वमेध यज्ञ में उसने बड़ी संख्या में गाय, घोड़े, हाथी, गांव, सुवर्ण आदि का दान किया। सांची अभिलेख में भी राजा शातकर्णि का उल्लेख मिलता है। जिससे प्रकट होता है कि शातकर्णि का शासन मालवा पर भी था। यह प्रदेश स्वयं शातकर्णि ने जीता था। शातकर्णि ने मालवा शैली की गोल मुद्राएं चलाई थीं। शातकर्णि ने एक विशाल राज्य की स्थापना की जिसमें महाराष्ट्र का अधिकांश भाग, उत्तरी कोंकण और मालवा सम्मिलित थे। उसकी राजधानी प्रतिष्ठान थी। शातकर्णि ही प्रथम सातवाहन राजा था जिसने दक्षिण भारत में सातवाहनों की प्रभुसत्ता स्थापित की।

शातकर्णि के उत्तराधिकारी

शातकर्णि की मृत्यु के समय उसके दो पुत्र अल्पवयस्क अवस्था में थे इसलिये शातकर्णि की रानी नागानिका ने संरक्षिका के रूप में शासन भार संभाला। शातकर्णि के निर्बल उत्तराधिकारियों को शकों के आक्रमण का सामना करना पड़ा। यहीं से शक-सातवाहन संघर्ष आरम्भ हुआ जो दीर्घकाल तक चलता रहा। शकों ने महाराष्ट्र, राजपूताना के कुछ भाग, अपरान्त, गुजरात, काठियावाड़ और मालवा पर अधिकार कर लिया। इनमें से कुछ प्रदेश पहले सातवाहनों के अधीन थे। शातकर्णि प्रथम तथा गौतमीपुत्र शातकर्णि के बीच का लगभग 100 वर्ष का इतिहास अंधकार मय है। इस अवधि में सातवाहन राजाओं के बारे में विशेष जानकारी नहीं मिलती। इस अवधि में सातवाहनों का एकच्छत्र राज्य बिखर गया तथा उनकी कई शाखाएं विकसित हो गईं। पौराणिक विवरणों में शातकर्णि तथा गौतमीपुत्र शातकर्णि के बीच 10, 12, 13, 14 अथवा 19 राजाओं के नाम मिलते हैं।

गौतमी-पुत्र शातकर्णि

106 ई. के लगभग सातवाहन वंश में महापराक्रमी नरेश गौतमीपुत्र शातकर्णि का उदय हुआ जिसने सातवाहन वंश का पुनरुद्धार किया। पुराणों के अनुसार गौतमीपुत्र शातकर्णि, सातवाहन वंश का तेइसवाँ राजा था। वह सातवाहन वंश का सर्वाधिक प्रतापी तथा शक्तिशाली राजा था। उसने साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया और सम्पूर्ण दक्षिणापथ तथा मध्य भारत पर अधिकार कर लिया। एक विजेता के रूप में उसका सबसे अधिक प्रशंसनीय कार्य यह था कि उसने शकों को महाराष्ट्र से मार भगाया। गौतमी-पुत्र शातकर्णि महान् विजेता ही नहीं, वरन् कुशल शासक भी था। वह अपने राज्य में पूर्ण शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखने में सफल रहा। उसने 106 ई. से 130 ई. तक शासन किया।

गौतमीपुत्र शातकर्णि की उपलब्धियाँ

गौतमीपुत्र शातकर्णि की उपलब्धियां सम्पूर्ण सातवाहन वंश को गौरव प्रदान करती हैं। गौतमीपुत्र शातकर्णि की सफलताओं का विवरण गौतमीपुत्र शातकर्णि के पुत्र वसिष्ठीपुत्र पुलमावी के नासिक अभिलेख तथा गौतमी बलश्री के नासिक अभिलेख में मिलता है। उसकी उपलब्धियों का मूल्यांकन निम्नलिखित तथ्यों के आलोक में किया जा सकता है-

(1) सातवाहन वंश की पुनर्स्थापना: गौतमीपुत्र शातकर्णि ने विगत एक शताब्दी से भी अधिक समय से पतन की ओर जा रहे सातवाहन वंश का उद्धार करके इस वंश की पुनर्स्थापना की। गौतमी बलश्री के नासिक अभिलेख में उसे अपराजितविजय पताकः कभी परास्त न होने वाला कहा गया है।

(2) शक, यवन और पह्लवों पर विजय: वसिष्ठीपुत्र पुलमावी के नासिक अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णि को सातवाहन कुल के यश को फिर से स्थापित करने वाला बताया गया है। इस कार्य को पूर्ण करने के लिये उसे क्षत्रियों के दर्प और मान का मर्दन करना पड़ा। शक, यवन और पह्लवों का नाश करना पड़ा और क्षहरात वंश का निर्मूलन करना पड़ा।

(3) क्षत्रियों के दर्प का मर्दन: गौतमीबलश्री के नासिक अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णि को ‘खतिय-दप-मान-मदनस’ अर्थात क्षत्रियों के दर्प एवं मान का मर्दन करने वाला कहा गया है। इससे अनुमान होता है कि उसने बहुत से तत्कालीन क्षत्रिय राजाओं को परास्त करके अपने साम्राज्य का विस्तार किया।

(4) क्षहरात वंश पर विजय: नासिक के दो अभिलेखों से प्रकट होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि ने क्षहरात वंश को पराजित करके अपने वंश का राज्य स्थापित कर लिया। जोगलथम्भी-मुद्रा-भाण्ड में ऐसी 9000 मुद्रायें मिली हैं जिन पर नहपान तथा गौतमीपुत्र दोनों के नाम अंकित हैं। इससे प्रकट होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि ने नहपान को पराजित करने के पश्चात् उसकी मुद्राओं पर अपना नाम अंकित करने के पश्चात् उन्हें फिर से प्रसारित किया। कुछ विद्वान यह नहीं मानते कि नहपान तथा गौतमीपुत्र शातकर्णि समकालीन थे। स्मिथ के अनुसार जोगलथम्भी-मुद्रा- भाण्ड में नहपान की जो 13 हजार मुद्राएं मिली हैं तथा जिनमें से 9000 मुद्राओं को गौतमीपुत्र शातकर्णि द्वारा फिर से चलाया गया था, वे बहुत पहले से चल रही थीं तथा गौतमीपुत्र शातकर्णि के समय में भी चल रही थीं। इन मुद्राओं से यह कदापि सिद्ध नहीं होता कि गौतमीपुत्र शातकर्णि ने नहपान को परास्त किया था। नहपान तो गौतमीपुत्र शातकर्णि से पहले ही मर चुका था।

(5) सम्पूर्ण दक्षिणापथ पर विजय: नासिक अभिलेख के अनुसार उसके साम्राज्य में गोदावरी और कृष्णा के मध्य का प्रदेश (असिक), गोदावरी का तटीय प्रदेश (अश्मक), पैठान के चतुर्दिक प्रदेश (मूलक), दक्षिणी काठियावाड़ (सुराष्ट्र), उत्तरी काठियावाड़ (कुकुर), बम्बई का उत्तरी प्रदेश (अपरांत), नर्मदा नदी पर महिष्मति प्रदेश (अनूप), बरार (विदर्भ), पूर्वी मालवा (आकर), पश्चिमी मालवा (अवन्ति) सम्मिलित थे।

(6) तीनों समुद्रों तक सीमा का विस्तार: गौतमी बलश्री के नासिक अभिलेख के अनुसार गौतमीपुत्र शातकर्णि का राज्य सम्पूर्ण दक्षिणापथ में विस्तृत था। इस अभिलेख में उसे कभी परास्त न होने वाला कहा गया है। इसी अभिलेख में उसे त्रिसमुद्र तोय-पीत-वाहनस्य कहा गया है। अर्थात् उसके वाहनों (हाथियों) ने तीनों समुद्रों (अरब सागर, बंगाल की खाड़ी तथा हिन्द महासागर) का जल पिया। यह हो सकता है कि यह केवल एक काव्यात्मक अतिरंजना हो किंतु निश्चय ही इतनी विजयों के बाद उसका प्रभाव सम्पूर्ण दक्षिण भारत ने स्वीकार कर लिया होगा।

(7) वर्णाश्रम धर्म की पुनर्स्थापना: गौतमी बलश्री के अभिलेख  के अनुसार गौतमीपुत्र शातकर्णि को राम, केशव, अर्जुन और भीम के सदृश पराक्रम वाला बताया गया है। वह विजयोन्मत्त नहीं था। उसका निर्भय हाथ अभयोदक देने में आर्द्र रहता था। शत्रुओं की प्राण हिंसा में उसकी रुचि नहीं थी। वह आगमों का ज्ञाता था, श्रेष्ठ पुरुषों का आश्रयदाता था और सदाचारी था। वह धर्मशास्त्र सम्मत कर ही लेता था। वह द्विज एवं द्विजेत्तर समस्त कुलों का पोषक था। उसने वर्ण संकरता को रोककर वर्णाश्रम व्यवस्था को स्थिरता प्रदान की।

(8) शकों से वैवाहिक सम्बन्ध: शकों की शक्ति को ध्यान में रखते हुए गौतमीपुत्र शातकर्णि ने उनसे वैवाहिक सम्बन्ध बनाये ताकि उसके वंशजों का भविष्य सुरक्षित हो सके और उसके साम्राज्य को स्थायित्व मिल सके। उसने अपने पुत्र वाशिष्ठिपुत्र पुलुमावि का विवाह शक क्षत्रप रुद्रदामन की पुत्री के साथ किया।

वाशिष्ठिपुत्र पुलुमावि

पौराणिक विवरणों के अनुसार गौतमीपुत्र के बाद वाशिष्ठिपुत्र पुलुमावि सातवाहन सम्राट बना। वह 130 ई. में सिंहासन पर बैठा। टॉलेमी ने अपनी पुस्तक ज्योग्राफी में प्रतिष्ठान का शासक सिरोपोलेमायु को बताया है। पुराणों में उसे पुलोमा कहा गया है। उसकी कुछ मुद्राओं पर उसका नाम वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि मिलता है। 150 ई. के रुद्रदामन अभिलेख में जूनागढ़, पूर्वी मालवा, महिष्मती का निकटवर्ती प्रदेश, कठियावाड़, पश्चिमी राजस्थान और उत्तरी कोंकण आदि क्षेत्र रुद्रदामन के राज्यक्षेत्र में बताये गये हैं। ये प्रदेश गौतमीपुत्र शातकर्णि के समय में सातवाहनों के अधिकार में थे। अतः अनुमान होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि की मृत्यु के बाद शकों ने फिर से सिर उठा लिया तथा सातवाहनों के कई प्रदेश छीन लिये। रुद्रदामन का अभिलेख कहता है कि रुद्रदामन ने शातकर्णि राजा को दो बार परास्त किया किंतु उससे वैवाहिक सम्बन्ध होने के कारण उसे नष्ट नहीं किया। वाशिष्ठिपुत्र पुलुमावि ने अपने क्षेत्रों की भरपाई करने के लिये आंध्र, विदर्भ तथा कोरोमण्डल तट तक अपना राज्य विस्तृत किया। प्रतिष्ठान उसकी राजधानी बनी रही। नासिक भी उसके अधीन बना रहा। नासिक अभिलेख में उसे दक्षिणापथेश्वर कहा गया है। पुलुमावि ने 130 ई. से 154 ई. अथवा 159 ई. तक शासन किया। उसके उत्तराधिकारी निर्बल थे। उनमें से कइयों का तो अब विवरण भी नहीं मिलता।

यज्ञश्री शातकर्णी

इस वंश का अन्तिम उल्लेखनीय शासक यज्ञश्री शातकर्णी था। पुराणों के अनुसार वह, गौतमीपुत्र के 35 वर्ष बाद सिंहासन पर बैठा तथा उसने 29 वर्ष शासन किया। अनुमान होता है कि वह 165 ई. से 194 ई. तक शासन करता रहा। अपरांत की राजधानी सोपारा से उसके सिक्के मिले हैं जो रुद्रदामन के सिक्कों का प्रतिरूप मात्र हैं इससे अनुमान होता है कि उसने शकों से अपरान्त फिर से छीन लिया था। यज्ञश्री शातकर्णि की मुद्रायें गुजरात, काठियावाड़, पूर्वी तथा पश्चिमी मालवा, मध्यप्रदेश और आन्ध्र प्रदेश में पाई गईं। वे शक मुद्राओं के प्रारूप पर बनी हैं इससे अनुमान होता है कि उसने शकों पर विजय प्राप्त की। उसके काल में सातवाहन राज्य अरबसागर तक विस्तृत था। उसके काल में व्यापारिक उन्नति हुई। उसकी कुछ मुद्राओं पर दो मस्तूल वाले जहाज, मछली एवं शंख आदि का अंकन मिलता है। सातवाहन शक संघर्ष का यह अंतिम चरण था। इसके बाद दोनों के संघर्ष के उल्लेख अप्राप्य हैं।

अंतिम शासक

यज्ञश्री शातकर्णी के बाद सातवाहन वंश का उत्तरोत्तर पतन ही होता गया। सातवाहन वंश का अंतिम शासक पुलुमावि चतुर्थ था। पुराणों के अनुसार उसने सात वर्ष शासन किया। उसका शासन काल सम्भवतः 220 ईस्वी से 227 ईस्वी तक था। कालान्तर में महाराष्ट्र पर आभीर-वंश ने और दक्षिणापथ पर इक्ष्वाकु तथा पल्लव-वंश ने अधिकार स्थापित कर लिये। इस प्रकार तीसरी शताब्दी तक सातवाहन वंश का अन्त हो गया।

सातवाहनों के शासन काल का साहित्य

अनेक सातवाहन राजा उच्च कोटि के विद्वान थे और विद्वानों के आश्रयदाता थे। हाल नामक सातवाहन राजा अपने समय में प्राकृत का विख्यात कवि था जिसने श्ृगांर-रस की ‘गाथा सप्तसती’ नामक ग्रन्थ की रचना की। हाल की राजसभा में गुणाढ्य नामक विद्वान् रहता था जिसने ‘वृहत्कथा’ नामक ग्रंथ की रचना की।

सातवाहनों के शासन काल में धर्म

सातवाहन-काल में भारत में बौद्ध तथा ब्राह्मण, दोनों ही धर्म उन्नत दशा में थे। शासक वर्ग में अश्वमेध तथा राजसूय यज्ञ करने तथा ब्राह्मणों को दक्षिणा देने का प्रचलन था। इस काल में दक्षिण भारत में शैव-धर्म का सर्वाधिक प्रचार हुआ। उत्तर भारत में शिव तथा कृष्ण की आराधना विशेष रूप से होती थी। इस काल में धार्मिक-सहिष्णुता उच्च कोटि की थी।

भारत के विदेशी शासक

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भारत के विदेशी शासक

भारत के विदेशी शासक – रुद्रदामन एवं कनिष्क की उपलब्धियों का मूल्यांकन अध्याय – 16

विदेशी आक्रमण

अशोक की मृत्यु के साथ ही भारत की राजनीतिक विशृंखलता पुनः आरम्भ हो गई। उत्तरकालीन मौर्य शासकों में इतनी शक्ति न थी कि वे पश्चिमोत्तर प्रदेश पर अपना प्रभुत्व स्थापित रख सकते। इसलिये उत्तर-पश्चिम की ओर से यवन, शक, कुषाण आदि विदेशियों के आक्रमण आरम्भ हो गये और उन्होंने भारत में अपनी सत्ता जमा ली।यूनानी शासक

यूनानी शासक

यूनानियों को यवन कहा जाता है। भारत पर पहला यूनानी आक्रमण 322 ई.पू. में मकदूनिया के शासक सिकन्दर ने किया किंतु उसे अपना विजय अभियान बीच में ही छोड़ देना पड़ा। उसने सैल्यूकस निकेटर को पंजाब का गवर्नर बनाया था।

सैल्यूकस ने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिये चन्द्रगुप्त मौर्य पर आक्रमण किया किंतु परास्त होकर संधि करने को विवश हुआ। चंद्रगुप्त ने उसे भारत की सीमा से बाहर कर दिया। सैल्यूकस के उत्तराधिकारी अपनी सेनाओं तथा सैनिक परिवारों के साथ हिन्दूकुश पर्वत तथा आक्सस नदी के मध्य स्थित बैक्ट्रिया में स्थायी रूप से निवास करने लगे। यहीं से वे भारत की राजनीतिक स्थिति पर दृष्टि लगाये रहते थे।

डिमैट्रियस: अशोक की मृत्यु के उपरान्त जब मौर्य-साम्राज्य का पतन आरम्भ हुआ तब बैक्ट्रिया के यूनानियों के आक्रमण भी भारत पर आरम्भ हो गये। इन दिनों बैक्ट्रिया में डिमेट्रियस नामक राजा शासन कर रहा था। उसने साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया और उसने 190 ई.पू. में भारत पर आक्रमण किया।

काबुल तथा पंजाब पर अधिकार स्थापित करने के बाद वह तेजी से आगे बढ़ता हुआ पाटलिपुत्र तक पहुँच गया। उसकी यह विजय क्षणिक सिद्ध हुई क्योंकि मध्य-प्रदेश में उसके पैर नहीं जम  सके। कंलिग के खारवेल राजा ने उसे न केवल पूर्वी प्रदेशों से वरन् पंजाब से भी मार भगाया।

मगध के राजा पुष्यमित्र शुंग ने भी यवनों का पीछा किया और उन्हें सिन्धु नदी के उस पार खदेड़ दिया परन्तु भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश में यूनानियों के पैर जम गये और डिमेट्रियस पूर्वी पंजाब में शाकल (स्यालकोट) को अपनी राजधानी बनाकर वहीं से शासन करता रहा।

मिनैण्डर: इस वंश का दूसरा प्रतापी शासक मिनैण्डर अथवा मेनेन्द्र था। बौद्ध-ग्रन्थों में उसे मिलिन्द कहा गया है। उसका शासन-काल 160 ई.पू. से 140 ई.पू. तक माना जाता है। उसने भी शाकल अथवा स्यालकोट को अपनी राजधानी बनाया। मेनेन्द्र बहुत बड़ा विजेता था। उसने शुंग राजाओं के साथ भी लोहा लिया। नागसेन नामक बौद्ध-भिक्षु ने उसे बौद्ध-धर्म में दीक्षित किया। इससे वह बौद्धों का आश्रयदाता बन गया।

उसने बहुत से बौद्ध मठों, स्तूपों तथा विहारों का निर्माण करवाया। वृद्धावस्था में उसने एक बौद्ध-भिक्षु की तरह जीवन व्यतीत किया और अर्हत् का पद प्राप्त किया। मेनेन्द्र के उत्तराधिकारी निर्बल सिद्ध हुए। उन्होंने 50 ई.पू. तक शासन किया। अन्त में शकों ने उनके राज्य पर अधिकार स्थापित कर लिया।

यूक्रेटिडस: 162 ई.पू. में बैक्ट्रिया के शासक यूक्रेटिडस ने भारत पर आक्रमण किया और काबुल की घाटी तथा पश्चिमी पंजाब पर अधिकार जमा लिया। तक्षशिला, पुष्कलावती तथा कपिशा भी उसके अधिकार में थे। 155 ई.पू. में यूक्रेटिडस के पुत्र ने उसका वध कर दिया। इन दिनों यूनानियों पर शकों के आक्रमण हो रहे थे।

शकों ने न केवल भारत से यूनानियों को मार भगाया, अपितु बैक्ट्रिया पर भी अधिकार कर लिया। इस प्रकार लगभग 40 ई. पू. में यवनों की सत्ता भारत में समाप्त हो गई और भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में शकों की सत्ता स्थापित हो गई।

शक शासक

शक पर्यटनशील थे। वे मूलतः मध्य-एशिया में सिकंदरिया के उत्तरी प्रदेश में निवास करते थे। उनके समीप उत्तरी-पश्चिमी चीन में यू-ची नाम की एक दूसरी जाति निवास करती थी। यूचियों के पड़ौस में हूँग-नू नामक दूसरी जाति निवास करती थी। 174-176 ई.पू. में हूँग-नू जाति ने यूचियों पर आक्रमण करके उन्हें अपने निवास-स्थान से मार भगाया।

अब यू-ची लोग नये प्रदेश की खोज में निकल पड़े और अपने पड़ौस में बसने वाले शकों पर टूट पड़े तथा उन्हें वहाँ से मार भगाया। इस प्रकार शक लोग अपनी जन्म-भूमि छोड़ने पर विवश हो गये और दक्षिण की ओर चल पडे। ये लोग कई शाखाओं में विभक्त हो गये और विभिन्न देशों में चले गये।

बैक्ट्रिया पर अधिकार: शकों की एक शाखा ने हेलमन्द नदी की घाटी पर अधिकार जमा लिया और उसका नाम शकस्तान अथवा सीस्तान रखा। यहाँ पर भी ये शान्ति से नहीं रह पाये। यूचियों के दबाव के कारण उन्हें आगे बढ़ना पड़ा। अब वे बैक्ट्रिया तथा पार्थिया के राज्यों पर टूट पड़े। उन्हें पार्थिया के विरुद्ध विशेष सफलता प्राप्त नहीं हो सकी परन्तु पहली शताब्दी ईसा पूर्व में बैक्ट्रिया पर उनका प्रभुत्व स्थापित हो गया।

शकों का भारत में प्रवेश

शकों ने बैक्ट्रिया से भारत की ओर बढ़ना आरम्भ किया। उन्होंने कन्दहार तथा बिलोचिस्तान से होकर बोलन के दर्रे से सिन्ध के निचले प्रदेश में प्रवेश किया और वहीं पर बस गये। शकों के नाम पर इस प्रदेश का नाम शकद्वीप पड़ गया। इसी को शकों ने अपना आधार बनाया और यहीं से वे भारत के विभिन्न भागों मे फैल गये।

जॉन मार्शल के अनुसार भारत में शकों का पहला शासक मावेज था। मावेज के बाद एवेज शकों का शासक बना। एजीलिसेज उसे गद्दी से हटाकर स्वयं शासक बन गया। उसने 12 वर्ष तक शासन किया। उसके बाद एवेज द्वितीय ने लगभग 43 ई. तक शासन किया।

भारत के विभिन्न भागों पर अधिकार

सिन्ध में अपनी सत्ता स्थापित कर लेने के उपरान्त शकों ने काठियावाड़ पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया और एक ही वर्ष में वे सौराष्ट्र तक पहुंच गये। इसके बाद उन्होंने उज्जयिनी पर आक्रमण किया और उस पर प्रभुत्व जमा लिया। शक आक्रांता उज्जैन से मथुरा की ओर बढ़े और उस पर भी अधिकार कर लिया।

अब शक लोग दो मार्गों से पंजाब की ओर बढ़े। वे मथुरा से उत्तर-पश्चिम दिशा में और सिन्ध से नदियों के मार्ग द्वारा उत्तर-पूर्व दिशा में आगे बढ़े। कालान्तर में शकों ने पंजाब तथा उसके निकटवर्ती प्रदेश पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार भारत के एक बहुत बड़े भाग पर शकों का आधिपत्य स्थापित हो गया। नासिक तथा मथुरा के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि शकों की सत्ता पूर्व में यमुना नदी तक और दक्षिण में गोदावरी नदी तक व्याप्त थी।

क्षत्रप शासन-व्यवस्था

शकों ने भारत में विस्तृत राज्य स्थापित किया। इस पर नियंत्रण रखने के लिये उन्होंने क्षत्रप शासन-व्यवस्था स्थापित की। सामान्यतः शकों के प्रत्येक प्रांत में दो क्षत्रप होते थे- (1) क्षत्रप तथा (2) महाक्षत्रप।

स्पार्टा में द्वैराज्य की प्रथा थी। कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में इस बात का उल्लेख किया है। प्रारंभ में भारत के क्षत्रप अथवा महाक्षत्रप, स्वतंत्र राजा नहीं थे। वे प्रान्तीय शासक थे तथा केन्द्रीय शासक की अधीनता में शासन करते थे। क्षत्रप शासन-व्यवस्था पंजाब, मथुरा, महाराष्ट्र तथा उज्जैन में स्थापित हुई। शकों की केन्द्रीय शक्ति समाप्त हो जाने के बाद क्षत्रप एवं महाक्षत्रप स्वतंत्र हो गये।

भारत में शक क्षत्रपों के मुख्य केन्द्रों को चार भागों में बांटा जा सकता है-

(1.) उत्तरी भारत के क्षत्रप, (2.) पश्चिमी भारत के शक क्षहरात, (3.) मथुरा के क्षत्रप और (4.) उज्जयिनी के क्षत्रप।

उज्जयिनी का चष्टन वंश

उज्जयिनी के शक क्षत्रपों में पहला स्वतंत्र शासक चष्टन था। वह बड़ा पराक्रमी सिद्ध हुआ। उसके नाम पर उज्जयिनी का क्षत्रप वंश चष्टन वंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

रुद्रदामन (प्रथम)

चष्टन के पुत्र का नाम जयदाम था जो चष्टन के जीवन काल में ही मर गया था। जयदाम के पुत्र का नाम रुद्रदामन था। चष्टन ने अपने पुत्र जयदाम की मृत्यु हो जाने के कारण, अपने पौत्र रुद्रदामन को अपने जीवन काल में ही अपने साथ क्षत्रप बना लिया था। अन्धौ अभिलेख के अनुसार चष्टन ने तथा जयदाम के पुत्र रुद्रदामन ने साथ-साथ शासन किया।

इस अभिलेख में चष्टन तथा रुद्रदामन दोनों के लिये समान रूप से राजा की उपाधि का उपयोग हुआ है। संभवतः दोनों के अधिकार समान थे। भारत के इतिहास में रुद्रदामन को महाक्षत्रप रुद्रदामन (प्रथम) के नाम से जाना जाता है। वह उज्जयिनी के क्षत्रप शासकों में सर्वाधिक पराक्रमी था।

रुद्रदामन का शासन काल

अन्धौ अभिलेख की तिथि 52 शक संवत् अर्थात् 130 ई. है। इस समय रुद्रदामन, चष्टन के साथ शासन कर रहा था परंतु कतिपय इतिहासकारों के अनुसार रुद्रदामन 140 ई. के बाद सिंहासनारूढ़ हुआ क्योंकि टॉलेमी ने अपनी पुस्तक ज्यॉग्राफी में उज्जैन के राजा चष्टन का ही उल्लेख किया है।

हो सकता है कि टॉलेमी ने दोनों राजाओं में से केवल वयोवृद्ध राजा का ही उल्लेख किया हो क्योंकि उसने भूगोल की पुस्तक लिखी न कि इतिहास की। जूनागढ़ अभिलेख रुद्रदामन की प्रशस्ति है। इसकी तिथि 72 शक संवत् अर्थात् 150 ई. है। इससे प्रकट होता है कि रुद्रदामन ने कम से कम 150 ई. तक शासन किया।

रुद्रदामन का राज्य विस्तार

अन्धौ अभिलेख से ज्ञात होता है कि चष्टन और रुद्रदामन सम्मिलित रूप से कच्छ प्रदेश पर शासन कर रहे थे। जूनागढ़ अभिलेख में रुद्रदामन को स्ववीर्यजित जनपदों वाला, अर्थात् अपने पराक्रम से राज्यों को जीत कर राज्य करने वाला कहा गया है।

जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार आकर (मालवा), अवन्ति (उज्जयिनी), अनूप (नर्मदा के किनारे महिष्मती), नीवृत (पश्चिमी भारत में स्थित एक मण्डल), आनर्त (उत्तरी गुजरात एवं द्वारिका), सुराष्ट्र (सौराष्ट्र अथवा काठियावाड़), श्वभ्र (आधुनिक खेड़), मरु (मारवाड़ अथवा रेगिस्तान का प्रदेश), कच्छ (आधुनिक कच्छ), सिंधु-सौवीर (सिंधु की निचली घाटी), कुकुर (राजपूताना और गुजरात के कुछ भाग), अपरांत (उत्तरी कोंकण) तथा निषाद (पश्चिमी विंध्य एवं सरस्वती की घाटी) रुद्रदामन के राज्य के अंतर्गत थे।

रुद्रदामन के युद्ध अभियान

(1) यौधेयों पर विजय: जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार रुद्रदामन ने उन यौधेयों को परास्त किया जिन्हें समस्त क्षत्रियों ने अपना वीर मान लिया था। सिक्कों के आधार पर कहा जा सकता है कि यौधेयों ने कुषाणों के विरुद्ध एक संघ बना लिया था तथा समस्त क्षत्रियों ने मिलकर यौधेयों को अपना नेता चुना था।

(2) दक्षिणापथ पर विजय: जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार रुद्रदामन ने दक्षिणापथ के स्वामी शातकर्णि को युद्ध में दो बार पराजित किया किंतु सम्बन्ध की निकटता के कारण उसके प्राण नहीं लिये। इतिहासकार इस शातकर्णि राजा को वाशिष्ठिपुत्र पुलुमावि मानते हैं।

रुद्रदामन का शासन प्रबंध

जूनागढ़ अभिलेख में कहा गया है कि रुद्रदामन जन्म से लकर राजत्व की प्राप्ति तक राजगुणों और लक्षणों से विभूषित था। इसलिये सभी वर्णों के लोगों ने उसे अपनी रक्षा के लिये अपना स्वामी चुना। इससे उसकी लोकप्रियता का पता चलता है। उसके साम्राज्य में विभिन्न राजपदों, नगरों और निगमों के लोग दस्युओं, सर्पों, हिंसक पशुओं और रोगों से मुक्त थे।

सम्पूर्ण प्रजा उससे अनुरक्त थी। उसने सुदर्शन झील की मरम्मत अपने ही कोष से बिना कोई कर लगाये, प्रजा की समृद्धि के लिये करवाई। इस प्रकार वह प्रजावत्सल जनप्रिय शासक था। उसका कोष सोना, चांदी, वज्र, वैदूर्य, रत्न और बहुमूल्य वस्तुओं से भरा हुआ था जिसे उसने धर्मानुसार बलि, शुल्क तथा भाग के रूप में प्राप्त किया था।

उसने अपने शासन को विभिन्न प्रांतों में बांट रखा था और प्रत्येक प्रांत में अपने अमात्य नियुक्त कर रखे थे। उसकी शासन पद्धति में सचिवों और अमात्यों का महत्वपूर्ण स्थान था। शासन में सहायता देने के लिये मति सचिव (परामर्शदाता), कर्म सचिव (कार्यकारी अधिकारी) आदि नियुक्त थे। रुद्रदामन की शासन पद्धति प्रचलित सप्तांग राज्य-व्यवस्था पर आधारित थी। राज्य की समृद्धि के लिये सिंचाई का उत्तम प्रबंध किया गया था।

रुद्रदामन का व्यक्तित्व

शक क्षत्रपों में रुद्रदामन सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हुआ। उसकी सबसे प्रसिद्ध लिपि जूनागढ़ अभिलेख ही है जिसमें कहा गया है कि वह महान कुरुओं के सम्पर्क में आया तथा उन्होंने ही उसे रुद्रदामन की संज्ञा दी। इसी लेख में उसे शब्दार्थ, संगीत, न्याय आदि विद्याओं में कुशल होने के कारण यशस्वी कहा गया है।

शब्दार्थ से तात्पर्य शब्द शास्त्र अथवा साहित्य से हो सकता है। इसी लेख में उसे विविध शब्द और अलंकारों से युक्त गद्य-पद्य काव्य विधान में प्रवीण कहा गया है। उसकी वाणी संगीत एवं व्याकरण के नियमों से परिबद्ध तथा शुद्ध थी। इससे सिद्ध होता है कि वह गंधर्व विद्या में भी निपुण था।

जूनागढ़ अभिलेख संस्कृत भाषा में लिखा गया है जिससे हमें उस युग के संस्कृत गद्यकाव्य के स्वरूप का दर्शन होता है। जूनागढ़ अभिलेख कहता है कि वह घोड़े, हाथी और रथ विद्याओं में भी प्रवीण था। असि-चर्म (तलवार-ढाल) के युद्ध में भी वह कुशल था। वह विजेता अवश्य था किंतु उसने निरर्थक रक्तपात न करने की शपथ ली थी। उसने अनेक स्वयंवरों में अपनी शक्ति, शौर्य तथा सौंदर्य से अनेक राजकन्याओं को प्राप्त किया।

रुद्रदामन के उत्तराधिकारी

रुद्रदामन के बाद उसका पुत्र दामघसद (दामोजदश्री) प्रथम, शासक बना। उसका उत्तराधिकारी जीवदामन था। इस वंश का अंतिम राजा रुद्रसिंह तृतीय था। उसके समय में चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने उसके शासन पर आक्रमण किया तथा उसे मार डाला।

गुप्तकाल में क्षत्रपों का विलोपन

कालान्तर में जब गुप्त साम्राज्य का उत्थान आरम्भ हुआ, तब समस्त क्षत्रप गुप्त साम्राज्य में समाविष्ट हो गये। इस काल में शकों ने भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को स्वीकार कर लिया और वे भारतीयों में इतना घुल-मिल गये कि वे अपने अस्तित्त्व को खो बैठे। आज उनका कहीं पर नाम-निशान नहीं मिलता।

पह्लव (पार्थियन) वंश

बैक्ट्रिया के पश्चिम में पार्थिया नामक प्रदेश स्थित था। यह प्रदेश सिकंदर द्वारा स्थापित साम्राज्य के सीरिया प्रांत के अंतर्गत आता था। पार्थिया के लोग पार्थियन अथवा पह्लव कहलाते थे। जिस समय शकों ने भारत में सत्ता स्थापित की उसी समय पह्लवों ने भी भारत के पश्चिमोत्तर भाग पर आक्रमण करके उसके कुछ भाग में अपनी सत्ता स्थापित की।

माना जाता है कि पार्थिया का प्रथम स्वतंत्र शासक मिथेडेटस था। उसी के नेतृत्व में भारत पर पहला पार्थियन आक्रमण हुआ। पह्लवों के भारतीय राज्य का प्रथम स्वतंत्र शासक वानेजीज था। वह तक्षशिला के शक शासक मावेज का समकालीन था। उसका सीस्तान एवं दक्षिणी अफगानिस्तान पर भी शासन था।

उसने महाराज रजरस महतस (महाराजाधिराज) की उपाधि धारण की। वानेजीज के बाद स्पैलिरिसिस राजा हुआ। पह्लवों में गाण्डोफर्नीज सबसे प्रतापी शासक हुआ। उसने भारत में अपनी शक्ति का खूब विस्तार किया। उसका राज्य पूर्वी फारस से लेकर भारत में पूर्वी पंजाब तक था। उसकी राजधानी गांधार थी।

वह लगभग 19 ई. में सिंहासन पर बैठा तथा लम्बे समय तक शासन करता रहा। गाण्डोफार्नीज के बाद पह्लवों का राज्य दो भागों में विभक्त हो गया जिससे राज्य के विभिन्न भागों में नियुक्त गवर्नर स्वतंत्र होते चले गये। इसी समय कुषाणों के भारत पर आक्रमण आरम्भ हुए जिनके कारण पह्लवों का राज्य समाप्त हो गया।

पह्लव राजाओं के विषय में बहुत जानकारी मिलती है। जो कुछ जानकारी मिली है, वह भी विवाद-ग्रस्त है। इनका इतिहास शकों के साथ इतना घुल-मिल गया है कि उसे अलग करना कठिन है। शकों की भांति पह्लव भी भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को अपनाकर भारतीयों में घुल-मिल गये। पश्चिमोत्तर प्रदेश में पह्लवों, शकों तथा यूनानियों की राज-सत्ता को समाप्त करने का श्रेय एक नई जाति को प्राप्त हुआ जो ‘कुषाण’ के नाम प्रसिद्ध है।

कुषाण वंश

कुषाणों का प्राचीन इतिहास चीनी ग्रंथों में मिलता है। ये लोग यू-ची अथवा यूह्ची जाति की एक शाखा से थे। यू-ची लोग प्रारम्भ में चीन के उत्तरी-पश्चिमी प्रदेश में कानसू नामक प्रान्त में निवास करते थे। लगभग 165 ई.पू. में हूँग-नू (हूण) नामक जाति ने उन्हें वहाँ से मार भगाया।

इससे यू-ची लोग नये प्रदेश की खोज में पश्चिम की ओर बढ़ते हुए सिरदरया के प्रदेश में जा पहुँचे। यहाँ पर उन दिनों शक निवास करते थे। इसलिये यूचियों की शकों से मुठभेड़ हुई जिसमें यू-ची विजयी रहे। शकों को विवश होकर वहाँ से भाग जाना पड़ा परन्तु यू-ची लोग इस नये प्रदेश में शान्ति से नहीं रह सके। उनके पुराने शत्रु वू-सुन ने हूँग-नू जाति की सहायता से लगभग 140 ई.पू. में यू-ची लोगों को वहाँ से मार भगाया।

यू-ची लोग फिर नये प्रदेश की खोज मे आगे बढ़े। उन्होंने आक्सस नदी को पार कर लिया और ताहिया प्रदेश में पहुंच गये। यहाँ के लोगों ने उनके प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया। यू-ची, ताहिया-विजय से ही संतुष्ट न हुए। उन्होंने बैक्ट्रिया तथा उनके पड़ौस के प्रदेशों पर भी अधिकार स्थापित कर लिया।

कुजुल कदफिस

इस समय यू-ची, पाँच शाखाओं में विभक्त थे जिनके अलग-अलग नाम थे। इन्हीं में से एक का नाम कई-सांग अथवा कुषाण था। इस शाखा का नेता कुजुल कदफिस बड़ा ही साहसी योद्धा था। उसने यूचियों की अन्य शाखाओं पर भी प्रभुत्व स्थापित कर लिया। इस प्रकार वह यूचियों का एकछत्र सम्राट् बन गया। उसका वंश कुषाण वंश कहलाया।

बैक्ट्रिया तथा उसके निकटवर्ती प्रदेशों पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त कुजुल ने अपनी विशाल सेना के साथ भारत की ओर प्रस्थान किया। उसने सबसे पहले काबुल-घाटी में प्रवेश किया और यूनानियों की रही-सही शक्ति को नष्ट कर उस पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने पूर्वी गान्धार प्रदेश पर अधिकार किया। लगभग अस्सी वर्ष की अवस्था में कुजुल का निधन हुआ।

विम कदफिस

कुजुल कदफिस के बाद उसका पुत्र विम कदफिस उसके साम्राज्य का स्वामी बना। विम कदफिस भी अपने पिता की भाँति वीर तथा साहसी था। उसके शासन-काल में कुषाणों की सत्ता भारत में बड़ी तेजी से आगे बढ़ने लगी। उसने थोड़े ही दिनों में पंजाब, सिन्ध, काश्मीर तथा उत्तर प्रदेश के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया। कुषाण लोग अपनी भारतीय विजय के साथ-साथ यहाँ की सभ्यता तथा संस्कृति से प्रभावित होते जा रहे थे। कुजुल कदफिस बौद्ध-धर्म का और उसका पुत्र विम कदफिस जैन-धर्म अनुयायी था।

कनिष्क (प्रथम)

विम कदफिस के बाद कनिष्क (प्रथम), कुषाण वंश का शासक हुआ। वह इस वंश का सर्वाधिक प्रतापी तथा शक्तिशाली शासक था। कनिष्क कौन था? विम के साथ उसका क्या सम्बन्ध था। वह कब सिंहासन पर बैठा? ये प्रश्न अब तक विवादग्रस्त हैं परन्तु यह निश्चय है कि कनिष्क कुषाण वंश का ही शासक था और विम कदफिस के साथ उसका घनिष्ठ सम्बन्ध था। कनिष्क 78 ई. में सिंहासन पर बैठा। उसका शासनकाल, विजय तथा शासन दोनों ही दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। सांस्कृतिक दृष्टि से भी उसका शासनकाल महत्त्वपूर्ण है। कनिष्क ने भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को इस सीमा तक स्वीकार किया कि उसे भारतीय शासक कहना अनुचित न होगा।

कनिष्क की दिग्विजय

काश्मीर विजय: कनिष्क ने सिंहासन पर बैठते ही साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया। उसने सबसे पहले काश्मीर पर विजय प्राप्त की और उसे अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। कश्मीरी लेखक कल्हण का कथन है कि कनिष्क ने काश्मीर में कई विहारों एवं नगरों का निर्माण करवाया।

साकेत तथा मगध विजय: चीनी तथा तिब्बती ग्रंथों से ज्ञात होता है कि कनिष्क ने साकेत तथा मगध पर आक्रमण किया और उन पर विजय प्राप्त की।

बंगाल विजय: कनिष्क की मुद्राएँ बंगाल में भी प्राप्त हुई हैं। इससे इतिहासकारों का अनुमान है कि पूर्व दिशा में उसका साम्राज्य बंगाल तक फैला था।

सिंधु घाटी पर अधिकार: एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने सिन्धु नदी घाटी पर अधिकार स्थापित कर लिया था।

अफगानिस्तान पर विजय: जेंदा और तक्षशिला लेखों से ज्ञात होता है कि कनिष्क का अधिकार कम्बोज, गान्धार, काहिरा तथा काबुल पर था। कनिष्क का राज्य अफगानिस्तान की सीमा तक फैला था।

पार्थिया पर विजय : कनिष्क के पूर्वज कुजुल कदफिस ने पार्थयन राजा को पराजित किया था। उस पराज का बदला लेने के लिये पार्थिया के राजा ने कनिष्क पर आक्रमण किया। इस युद्ध में पार्थिया का राजा परास्त हुआ।

चीन पर विजय: कनिष्क ने चीन के राजा के साथ भी लोहा लिया। उन दिनों चीन में हो-ती नामक राजा शासन कर रहा था। कनिष्क ने अपने एक राजदूत के साथ हो-ती के पास यह प्रस्ताव भेजा कि वह अपनी कन्या का विवाह कनिष्क के साथ कर दे। हो-ती ने इस प्रस्ताव को अपमानजनक समझा और कनिष्क के राजदूत को बन्दी बना लिया।

इस पर कनिष्क ने चीन के राजा पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में कनिष्क को सफलता नहीं मिली। और वह परास्त होकर वापस लौट आया। कुछ समय पश्चात् हो-ती के मर जाने पर कनिष्क ने दूसरी बार चीन पर आक्रमण किया। इस बार उसे सफलता प्राप्त हुई।

वह दो चीनी राजकुमारों को बन्दी बना कर अपनी राजधानी में ले आया और उनके रहने के लिए समुचित व्यवस्था की। चीनी साक्ष्यों से पता लगता है कि कनिष्क ने काशगर, खेतान तथा यारकन्द पर भी अधिकार कर लिया। इस प्रकार कनिष्क का साम्राज्य न केवल भारत के वरन् दक्षिण-पश्चिमी एशिया के भी बहुत बड़े भाग में फैला था।

कनिष्क का शासन प्रबन्ध

कनिष्क के शासन प्रबन्ध के विषय में अधिक ज्ञात नही है परन्तु जो थोड़े-बहुत साक्ष्य प्राप्त होते हैं उनसे ज्ञात होता है कि उसने पुष्पपुर अथवा पेशावर को अपनी राजधानी बनाया, जो उसके साम्राज्य के केन्द्र में स्थित था। यहीं से वह अपने सम्पूर्ण साम्राज्य पर शासन करता था।

चूंकि कनिष्क का साम्राज्य अत्यन्त विशाल था और वह पूर्व तथा पश्चिम में दूर-दूर तक फैला था, इसलिये कनिष्क ने अपने साम्राज्य को कई प्रान्तों में विभक्त किया तथा उनमें प्रान्तपति नियुक्त किये जो छत्रप तथा महाक्षत्रप कहलाते थे। सारनाथ के अभिलेख से उसके क्षत्रपों तथा महाक्षत्रपों के नाम भी ज्ञात होते हैं। इसलिये यह निष्कर्ष निकाला गया है कि उसने शकों की क्षत्रपीय शासन-व्यवस्था का अनुसारण किया।

कनिष्क का धर्म

कनिष्क के धार्मिक विश्वासों का ज्ञान उसकी मुद्राओं से होता है। उसकी प्रथम कोटि की वे मुद्राएँ है जिन पर यूनानी देवता, सूर्य, तथा चन्द्रमा के चित्र मिलते हैं। उसकी दूसरी कोटि की वे मुद्राएँ है जिन पर ईरानी देवता अग्नि के चित्र मिलते हैं तथा उसकी तीसरी कोटि की वे मुद्राएँ है जिन पर बुद्ध के चित्र मिलते हैं।

इससे अनुमान होता है कि कनिष्क आरम्भ में यूनानी धर्म को मानता था, उसके बाद उसने ईरानी धर्म स्वीकार किया और अन्त में वह बौद्ध-धर्म का अनुयायी बन गया। उसकी मुद्राओं से ज्ञात होता है कि कनिष्क में उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। वह समस्त धर्मों को आदर की दृष्टि से देखता था।

इसी से उसने अपनी मुद्राओं में यूनानी, ईरानी तथा भारतीय तीनों देवताओं को स्थान देकर उन्हे सम्मानित किया। कुछ विद्वानों की यह भी धारणा है कनिष्क की मुद्राओं पर अंकित देवताओं से ज्ञात होता है कि उसके साम्राज्य में कौन-कौन से धर्म प्रचलित थे। ये मुद्राएं कनिष्क के व्यक्तिगत धर्म की द्योतक नहीं हैं।

कनिष्क और बौद्ध धर्म: कनिष्क प्रारम्भ में चाहे जिस धर्म को मानता रहा हो परन्तु वह मगध विजय के उपरान्त निश्चित रूप से बौद्ध हो गया था। पाटलिपुत्र में कनिष्क की भेंट बौद्ध-आचार्य अश्वघोष से हुई। वह अश्वघोष की विद्वता तथा व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुआ कि उसे अपने साथ अपनी राजधानी पुष्पपुर अथवा पेशावर ले गया और उससे बौद्ध-धर्म की दीक्षा ग्रहण की। बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार अशोक की भाँति कनिष्क भी बौद्ध-धर्म को स्वीकार करने से पूर्व, क्रूर तथा निर्दयी था परन्तु बौद्ध धर्म का आलिंगन कर लेने के उपरान्त वह भी अशोक की भांति उदार तथा दयालु हो गया था।

धार्मिक सहिष्णुता: अशोक की भांति कनिष्क में भी उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। इन दोनों सम्राटों ने बौद्ध धर्म को आश्रय दिया परन्तु अन्य धर्मों के साथ उन्होंने किसी प्रकार का अत्याचार नहीं किया। अन्य धर्मों को भी आदर की दृष्टि से देखा और उनकी सहायता की। कनिष्क की मुद्राओं में बुद्ध के साथ-साथ भगवान शिव की मूर्तियाँ भी मिलती हैं। वह हवन भी किया करता था जिससे स्पष्ट है कि वह ब्राह्मण धर्म में भी विश्वास रखता था। अशोक की भाँति कनिष्क ने भी बौद्ध-धर्म को दूर-दूर प्रचारित किया।

अशोक तथा कनिष्क के धर्म में अंतर: अशोक तथा कनिष्क दोनों ही बौद्ध धर्म में विश्वास रखते थे किंतु उन दोनों के धार्मिक विश्वासों में बड़ा अन्तर था। अशोक ने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लेने के उपरान्तयुद्ध करना बन्द कर दिया था परन्तु कनिष्क बौद्ध धर्म को स्वीकार करने के बाद भी युद्ध करता रहा। अशोक हीनयान का अनुयायी था और कनिष्क महायान सम्प्रदाय का अनुयायी था।

चतुर्थ बौद्ध संगीति: जिस प्रकार अशोक ने तीसरी बौद्ध संगीति पाटलिपुत्र में बुलाई थी उसी प्रकार कनिष्क ने भी चतुर्थ बौद्ध-संगीति काश्मीर के कुण्डलवन में बुलाई। इस संगीति को बुलाने का ध्येय बौद्ध धर्म में उत्पन्न हुए मतभेदों को दूर करना और बौद्ध-ग्रन्थों का सकंलन कर उन पर प्रामाणिक टीका एवं भाष्य लिखवाना था।

इस संगीति में लगभग 500 भिक्षु तथा बौद्ध-आचार्य सम्मिलित हुए। यह सभा बौद्ध-आचार्य वसुचित्र के सभापतित्त्व में हुई। आचार्य अश्वघोष ने उप-सभापति का आसन ग्रहण किया। इस सभा की कार्यवाही संस्कृत भाषा में हुई थी जिससे स्पष्ट है कि संस्कृत भाषा का सम्मान इस समय बढ़ रहा था।

इस सभा में बौद्ध-धर्म में उत्पन्न मतभेदों को दूर किया गया और त्रिपिटक-ग्रन्थों पर प्रामाणिक टीकाएँ लिखी गईं। कनिष्क ने इन टीकाओं को ताम्र-पत्रों पर लिखवाकर उन्हें पत्थर के सन्दूक में रखवाकर उन पर स्तूप बनवा दिया।

महायान को मान्यता: चतुर्थ बौद्ध संगीति की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि इसमें बौद्ध-धर्म के ‘महायान’ संप्रदाय को मान्यता प्रदान की गई। महायान सम्प्रदाय बौद्ध-धर्म का प्रगतिशील तथा सुधारवादी सम्प्रदाय था जो देश तथा काल के अनुसार बौद्ध-धर्म में परिवर्तन करने के पक्ष में था। अब बौद्ध-धर्म का प्रचार विदेशों में हो गया था। भारत पर आक्रमण करने वाले विदेशियों ने बौद्ध-धर्म को स्वीकार कर लिया था। ऐसी स्थिति में बौद्ध धर्म में थोड़ा बहुत परिवर्तन आवश्यक हो गया था।

इसके अतिरिक्त भारत में भक्ति-मार्ग  का प्रचार हो रहा था। इससे बौद्ध-धर्म प्रभावित हुए बिना न रहा। इस समय ब्राह्मण-धर्म का प्रचार भी जोरों से चल रहा था। इसलिये उसकी अपेक्षा बौद्ध-धर्म को अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए बौद्ध-धर्म में संशोधन की आवश्यकता थी। इन्हीं सब कारणों से बौद्धधर्म में ‘महायान’ पन्थ चलाया गया था। यह पन्थ भक्तिवादी, अवतारवादी तथा मूर्तिवादी बन गया।

महायान सम्प्रदाय वाले, बुद्ध को ईश्वर का अवतार मानने लगे और उनकी तथा बोधिसत्वों की मूर्तियाँ बनाकर उनकी उपासना करने लगे। यद्यपि महायान सम्प्रदाय का बीजारोपण कनिष्क के पहले ही चुका था परन्तु उसे मान्यता बौद्धों की चतुर्थ संगीति में दी गई और उसे कनिष्क ने राज-धर्म बना लिया। यह कनिष्क के शासन-काल की महत्त्वपूर्ण घटना थी।

कनिष्क कालीन साहित्य

कनिष्क के काल में बड़े-बड़े विद्वान् तथा साहित्यकार हुए जिनका कनिष्क से घनिष्ठ सम्पर्क था। बौद्ध-धर्म के आचार्य वसुमित्र, अश्वघोष तथा नागार्जुन इसी काल की महान् विभूतियाँ थीं। वसुमित्र बहुत बड़े धर्माचार्य तथा वक्ता थे। संगीति के आयोजन में भी उनकी बड़ी रुचि थी उनकी विद्वता के कारण ही उन्हें चतुर्थ बौद्ध-संगीति का अध्यक्ष बनाया गया था।

उन्होंने बौद्ध-ग्रन्थों पर प्रामाणिक टीकाएँ लिखीं। अश्वघोष इस काल की दूसरी महान् विभूति थे जिनकी गणना बौद्ध-धर्म के महान् आचार्यों में होती है। वे उच्च कोटि के कवि, दार्शनिक, उपदेशक तथा नाटककार थे। उनका प्रसिद्ध ग्रन्थ बुद्ध-चरित्र है जिसकी रचना संस्कृत में हुई। इस महाकाव्य में बुद्ध के चरित्र तथा उनकी शिक्षाओं का वर्णन किया गया है।

नागार्जुन महायान पन्थ का प्रकाण्ड पण्डित तथा प्रवर्तक था। वह विदर्भ का रहने वाला कुलीन ब्राह्मण था परन्तु कालान्तर में उसने बौद्ध-धर्म स्वीकार कर लिया और महायान सम्प्रदाय का प्रचारक बन गया। बौद्ध-धर्म का उच्चकोटि का विद्वान् पार्श्व, कनिष्क का गुरु था। आयुर्वेद के आचार्य चरक कनिष्क के राजवैद्य थे। उनकी चरक-संहिता भारतीय आयुर्वेद का अमूल्य ग्रन्थ है।

कनिष्क कालीन कला

कनिष्क के काल में कला की उन्नति हुई। कुषाण काल में कला की जो उन्नति हुई, उस ओर संकेत करते हुए रॉलिसन ने लिखा है- ‘भारतीय संस्कृति के इतिहास में कुषाण काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण युग है।’

नये नगरों की स्थापना: अशोक की भाँति कनिष्क भी बहुत बड़ा निर्माता था। उसने दो नगरों का निर्माण करवाया। एक नगर उसने तक्षशिला के समीप बनवाया जिसके खंडहर आज भी विद्यमान हैं। यह नगर ‘सिरपक’ नामक स्थान पर बसाया गया था। कनिष्क ने दूसरा नगर काश्मीर में बसाया था जिसका नाम कनिष्कपुर था।

विहारों की स्थापना: अपनी राजधानी पुष्पपुर में उसने 400 फुट ऊँचा लकड़ी का स्तम्भ तथा बौद्ध-विहार बनवाया। यहीं पर उसने एक पीतल की मंजूषा में बुद्ध के अवशेष रखवाकर एक स्तूप बनवाया। इस स्तूप का निर्माण कनिष्क ने एक यूनानी शिल्पकार से करवाया।

अपने साम्राज्य के अन्य भागों में भी कनिष्क ने बहुत से विहार तथा स्तूप बनवाये। चीनी यात्री फाह्यान ने गान्धार में कनिष्क द्वारा बनवाये गये विहारों तथा स्तूपों को देखा था। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 170 विहारों तथा स्तूपों का वर्णन किया है।

मथुरा कला शैली: कनिष्क के काल में मूर्तिकला की बड़ी उन्नति हुई। मथुरा में इस काल की कई मूर्तियाँ मिली हैं। गुप्तकाल की श्रेष्ठ मूर्तिकला शैली को मथुरा शैली का ही विकसित रूप माना जाता है। मथुरा शैली की समस्त कृतियां सरलता से पहचानी जा सकती हैं क्योंकि इनके निर्माण में लाल पत्थर का प्रयोग किया जाता था जो मथुरा के निकट सीकरी नामक स्थान से प्राप्त होता था।

मथुरा शैली की मूर्तियां आकार में विशालाकाय हैं। इन मूर्तियों पर मूंछें नहीं हैं। बालों और मूछों से रहित मूर्तियों के निर्माण की परम्परा विशुद्ध रूप से भारतीय है। मथुरा की कुषाणकालीन मूर्तियों के दाहिने कंधे पर वस्त्र नहीं रहता। दाहिना हाथ अभय की मुद्रा में उठा हुआ होता है। मथुरा शैली की कुषाण कालीन मूर्तियों में बुद्ध सिंहासन पर बैठे हुए दिखाये गये हैं।

गांधार कला शैली: इस काल में गान्धार-कला की भी बड़ी उन्नति हुई। कनिष्क तथा उसके उत्तराधिकारियों ने जो बौद्ध-मूर्तियाँ बनवाईं, उनमें से अधिकांश मूर्तियां, गान्धार जिले में मिली हैं। इसी से इस कला का नाम गान्धार-कला रखा गया है। गान्धार-कला की बहुत सी प्रतिमाएँ मुद्राओं पर भी उत्कीर्ण मिलती हैं।

गान्धार-कला को इण्डो-हेलेनिक कला अथवा इण्डो-ग्रीक कला भी कहा जाता है, क्योंकि इस पर यूनानी कला की छाप है। बुद्ध की मूर्तियों में यवन देवताओं की आकृतियों का अनुसरण किया गया है। इस कला को ग्रीक बुद्धिष्ट शैली भी कहा जाता है। इस शैली की मूर्तियों में बुद्ध कमलासन मुद्रा में मिलते हैं किंतु मुखमण्डल और वस्त्रों से बुद्ध, यूनानी राजाओं की तरह लगते हैं।

बुद्ध की ये मूर्तियां यूनानी देवता अपोलो की मूर्तियों से काफी साम्य रखती हैं। महाभिनिष्क्रण से पहले के काल को इंगित करती हुई बुद्ध की जो मूर्तियां बनाई गई हैं, उनमें बुद्ध को यूरोपियन वेश-भूषा तथा रत्नाभूषणों से युक्त दिखाया गया है।

कनिष्क कालीन व्यापार

कनिष्क का साम्राज्य न केवल भारत के बहुत बड़े भाग में अपितु भारत से बाहर उत्तर-पश्चिम एशिया के बहुत बड़े भाग में फैला हुआ था। इस कारण इस काल में भारत का ईरान, मध्य एशिया, चीन, तिब्बत आदि देशों के साथ घनिष्ठ सम्पर्क स्थापित हो गया। चूँकि कनिष्क ने भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को अपना लिया था और बौद्ध-धर्म का अनुयायी हो गया था, इसलिये इन देशों में उसने भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार करने का प्रयत्न किया।

सांस्कृतिक सम्बन्ध के साथ-साथ इन देशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध भी स्थापित हो गया और इन देशों के साथ स्थायी रूप से व्यापार होने लगा। मुद्राओं से ज्ञात होता है कि इस काल में भारत का रोम साम्राज्य के साथ भी व्यापारिक सम्बन्ध था। भारत से बड़ी मात्रा में वस्त्र, आभूषण तथा शृंगार की वस्तुएँ रोम भेजी जाती थीं और वहाँ से सोना भारत आता था।

कनिष्क की उपलब्धियाँ

कुषाण-वंश के शासकों में कनिष्क सर्वाधिक वीर, साहसी तथा कुशल सेनानायक था। उसने जितने विशाल साम्राज्य पर शासन किया उतने विशाल साम्राज्य पर शासन करने का अवसर किसी अन्य कुषाण शासक को प्राप्त नहीं हुआ। किसी अन्य कुषाणकालीन शासक में प्रशासकीय प्रतिभा भी उतनी नहीं थी जितनी कनिष्क में थी। सांस्कृतिक दृष्टि से भी किसी कुषाण शासक की तुलना कनिष्क से नहीं की जा सकती।

किसी भी अन्य कुषाण शासक में न तो कनिष्क जितनी धर्म परायणता थी और न उतनी सहृदयता तथाा सहिष्णुता थी। कनिष्क का धार्मिक दृष्टिकोण अशोक की भांति व्यापक था। साहित्य तथा कला में भी कनिष्क के समान किसी अन्य कुषाण शासक में रुचि नहीं थी।

कनिष्क की गणना न केवल कुषाण-वंश के वरन् भारत के महान सम्राटों में होनी चाहिये। डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने उसमें चन्द्रगुप्त मौर्य तथा अशोक के गुणों का समन्वय बताते हुए लिखा है- ‘निस्सन्देह भारत के कुषाण-सम्राटों में कनिष्क का व्यक्तित्त्व सबसे आकर्षक है। वह एक महान् विजेता और बौद्ध-धर्म का आश्रयदाता था। उसमें चन्द्रगुप्त मौर्य की सामरिक योग्यता और अशोक के धार्मिक उत्साह का समन्वय था।’

उसकी महत्वपूर्ण उपलब्ध्यिाँ निम्नलिखित प्रकार से हैं-

(1) महान् विजेता: कनिष्क की गणना महान् विजेताओं में होनी चाहिये। वह अत्यंत महत्त्वकांक्षी राजा था। सिंहासन पर बैठते ही उसने साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया और जीवन-पर्यन्त साम्राज्य की वृद्धि करने में लगा रहा। यद्यपि उसने अहिंसात्मक बौद्ध-धर्म स्वीकार कर लिया था परन्तु अपना विजय अभियान बन्द नहीं किया।

इससे भारत के एक बड़े भाग पर तथा भारत की सीमाओं के बाहर एशिया के बहुत बड़े भाग पर भी उसका शासन हो गया। कनिष्क के अतिरिक्त भारत के अन्य किसी सम्राट् को भारत के बाहर इतने बड़े भू-भाग पर शासन करने का श्रेय प्राप्त नहीं है। उनका साम्राज्य उत्तर में काश्मीर से दक्षिण में सौराष्ट्र तक और पूर्व में बंगाल से पश्चिम में पार्थिया तक विस्तृत था।

उसने काश्गर, यारकन्द तथा खोतन को अपने साम्राज्य में मिला लिया। स्मिथ ने उसकी इन विजयों की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘कनिष्क को सर्वाधिक आकर्षक सैनिक सफलता उसकी काशगर, यारकन्द तथा खोतन पर विजय थी।’ चीन के शासन को नत-मस्तक कर उसने अपनी प्रतिष्ठा में वृद्धि की। इसलिये कनिष्क की गणना भारत के महान् शासकों में करना उचित ही है।

(2) कुशल शासक: प्रशासकीय दृष्टि से भी कनिष्क का स्थान बहुत ऊँचा है। अशोक की मृत्यु के उपरान्त उत्तरी भारत में जो कुव्यवस्था तथा अराजकता फैली हुई थी उसे दूर करने में वह सफल रहा। इतने विशाल साम्राज्य को सुरक्षित तथा सुसंगठित रखना इस बात का प्रमाण है कि वह शासन करने में अत्यन्त कुशल था।

वह अपने क्षत्रपों तथा महाक्षत्रपों पर नियन्त्रण करने में भी सफल रहा। वह अपने साम्राज्य को आन्तरिक उपद्रवों तथा विद्रोहों से मुक्त रख सका। उसकी मुद्राओं, स्तूपों तथा विहारों से ज्ञात होता है कि उसका साम्राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण था। उसकी प्रजा सुखी थी। उसके शासन काल में विदेशों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो जाने से भारत के उद्योग-धन्धों तथा व्यापार में बड़ी उन्नति हुई। इसलिये एक शासक के रूप में भी कनिष्क को भारतीय इतिहास में प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त होना चाहिये।

(3) महान् धर्म-तत्त्ववेत्ता: कनिष्क में उच्चकोटि की धर्म-पराणयता थी। उसने बौद्ध-धर्म की उसी प्रकार सेवा की जिस प्रकार अशोक ने की थी। अशोक की भांति उसने अनेक स्तूपों तथा विहारों का निर्माण करवाया और भिक्षुओं तथा आचार्यों की सहायता की।

उसने चतुर्थ बौद्ध-संगीति बुलाकर बौद्ध-धर्म में उत्पन्न मतभेदों को दूर किया और बौद्ध ग्रन्थों पर टीकाएँ तथा भाष्य लिखवाये। महायान सम्प्रदाय को मान्यता देकर, उसे राज धर्म बनाकर और विदेशों में उसका प्रचार करवा कर उसने महायान सम्प्रदाय की बड़ी सेवा की।

उसने महायान को विदेशों में अमर बना दिया। एन. एन. घोष ने लिखा है- ‘महायान सम्प्रदाय के आश्रयदाता तथा समर्थक के रूप में उसे उतना ही ऊँचा स्थान प्राप्त है जितना अशोक को हीनयान सम्प्रदाय के संरक्षक तथा समर्थक के रूप में प्राप्त था।’ कनिष्क के धार्मिक विचार संकीर्ण नहीं थे और वह कट्टरपन्थी नहीं था। उसमें उच्चकोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। वह अशोक की भांति समस्त धर्मों को आदर की दृष्टि से देखता था।

उसकी मुद्राओं से स्पष्ट हो जाता है कि वह यूनानी, ईरानी तथा ब्राह्मण-धर्म का भी सम्मान करता था। आयंगर ने कनिष्क के सम्बन्ध में लिखा है- ‘वह पारसीक तथा यूनानी देवताओं को भी आदर की दृष्टि से देखता था। इन कथाओं को, कि वह बौद्ध-धर्म का भक्त था, बड़े ही सीमित अंश में स्वीकार करना चाहिए।’ इस प्रकार धार्मिक दृष्टिकोण से कनिष्क, अशोक का समकक्षी ठहरता है।

डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने लिखा है- ‘कनिष्क की ख्याति उसकी विजयों पर उतनी आधारित नहीं जितनी शाक्यमुनि के धर्म को संरक्षण प्रदान करने के कारण है।’

(4) महान् निर्माता: यद्यपि कनिष्क का सम्पूर्ण जीवन युद्ध करने तथा अपने साम्राज्य को सुरक्षित तथा सुसंगठित रखने में व्यतीत हुआ था परन्तु उसने शान्ति कालीन कार्यों की ओर भी ध्यान दिया। काश्मीर का कनिष्कपुर नगर उसी ने बसाया। राजधानी पुष्पपुर के समीप उसने एक दूसरे नगर का निर्माण करवाया। राजधानी पुष्पपुर में तथा अपने राज्य के अन्य भागों में उसने कई स्तूपों तथा विहारों का निर्माण करवाया।

पुष्पपुर में उसने लकड़ी का जो स्तम्भ बनवाया था वह लगभग 400 फीट ऊँचा था। इसलिये एक निर्माता के रूप में भी कनिष्क को यश प्राप्त होना चाहिए। स्मिथ ने एक निर्माता के रूप में उसकी प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘स्थापत्यकला को उसकी सहायक शिल्प के साथ कनिष्क का उदार संरक्षण प्राप्त था जो अशोक की भांति एक महान् निर्माता था।’

(5) साहित्य तथा कला का महान् प्रेमी: कनिष्क ने अपने युग के बड़े-बड़े विद्वानों, लेखकों तथा धर्माचार्यों को आश्रय प्रदान किया। अपने समय के विख्यात धर्माचार्य वसुमित्र तथा अश्वघोष को चतुर्थ बौद्ध-संगीति का अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष बनवा कर उन्हें सम्मानित किया।

कनिष्क ने बौद्ध-आचार्य पार्श्व की शिष्यता ग्रहण कर बौद्ध धर्म को प्रतिष्ठित किया। नागार्जुन जैसा महायान धर्म का आचार्य उसके सम्पर्क में था। यह श्रेय कनिष्क को ही प्राप्त है कि गान्धार-शैली की प्रतिष्ठा उसके शासन-काल में बढ़ी और अन्यत्र भी उसका अनुकरण होने लगा।

उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि विजेता, शासक, निर्माता, धर्मवेत्ता, साहित्य एवं कला-प्रेमी के रूप में भारतीय इतिहास में कनिष्क को प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त होना चाहिए। इस सम्बन्ध में स्मिथ का यह कथन उल्लेखनीय है- ‘कुषाण सम्राटों मे केवल कनिष्क ही अपना नाम छोड़ गया है जो भारत की सीमाओं के सुदूर बाहर भी विश्रुत था और जिसकी समता के करने लिए लोग लालायित रहते आये हैं।’

कनिष्क की हत्या

कनिष्क के शासन काल की अलग-अलग अवधियां अनुमानित की गई हैं। कुछ इतिहासकारों ने आरा अभिलेख के आधार पर उसके शासनकाल की अवधि 45 वर्ष मानी है। अधिकांश विद्वान इस अवधि को स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार कनिष्क ने केवल 23 वर्ष तक शासन किया।

दंत कथाओं से ज्ञात होता है कि कनिष्क की प्रजा उसकी सामरिक प्रवृत्ति तथा साम्राज्यवादी नीति से अप्रसन्न हो गयी और उसके सैनिकों ने षड्यंत्र रचकर उसकी हत्या कर दी। यदि उसके शासन की अवधि 45 वर्ष मानते हैं तो उसकी हत्या 123 ई. में हुई और यदि उसके शासन की अवधि 23 वर्ष मानते हैं तो कनिष्क की हत्या 101 ई. में होनी निश्चित होती है।

कनिष्क के उत्तराधिकारी

कनिष्क की मृत्यु के उपरान्त वसिष्क, हुविष्क तथा कनिष्क (द्वितीय) नाम के कुषाण राजा हुए। इन शासकों के सम्बन्ध में अधिक ज्ञात नहीं होता है।

अंतिम कुषाण शासक वासुदेव

कुषाण-वंश का अन्तिम शासक वासुदेव था। उसका राज्य केवल मथुरा तथा उसके निकटवर्ती प्रदेशों तक सीमित था। वह भगवान शिव का उपासक था। उसकी मुद्राओं पर नन्दी का चित्र अंकित है। वासुदेव के शासन-काल में कुषाण साम्र्राज्य छिन्न-भिन्न होकर समाप्त हो गया और उत्तरी भारत में कई राज-वंशों का उदय हुआ जिन्होंने कुषाण-साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर अपने राज्य स्थापित कर लिये। कुषाण साम्राज्य के पश्चिमोत्तर भाग पर शकों तथा पार्थियनों ने अधिकार जमा लिया।

कुषाण साम्राज्य का पतन

कुषाण-साम्राज्य के पतन का मूल कारण इसके अन्तिम सम्राटों की अयोग्यता थी परन्तु किस शक्ति ने कुषाणों का उन्मूलन किया, इस पर विद्वानों में मतभेद है। काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार कुषाण साम्राज्य के उन्मूलन का कार्य नागों और वाकाटकों द्वारा सम्पन्न किया गया था परन्तु डॉ. अल्तेकर के विचार में यह कार्य यौधेय, कुणिन्द, मालव, नाग और माघ जातियों के द्वारा सम्पन्न किया गया। वास्तव में वह युग विदेशी सत्ता के विरुद्ध एक प्रबल प्रतिरोध का युग था। अनेक तत्कालीन गणराज्यों ने यौधेय राज्य के नेतृत्व में कुषाण-साम्राज्य के उन्मूलन का प्रयत्न किया और वे उसमें सफल रहे।

कुषाण काल में कला एवं संस्कृति

कुषाण-काल में बड़े-बड़े विद्वान् तथा साहित्यकार हुए। वसुमित्र, अश्वघोष, चरक, पार्श्व तथा नागार्जुन इसी काल की विभूतियाँ है। वसुमित्र ने ‘महाविभाषा-शास्त्र’ की रचना की और चतुर्थ बौद्ध-संगीति का अध्यक्ष पद ग्रहण किया। बौद्ध-धर्म के महान् आचार्य, कवि, दार्शनिक, उपदेशक तथा नाटककार अश्वघोष ने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘बुद्ध चरित्र’ की रचना की।

आयुर्वेद के आचार्य चरक कनिष्क के राजवैद्य थे जिन्होने ‘चरक-संहिता’ की रचना की। बौद्ध-धर्म का उच्च कोटि का विद्धान पार्श्व, कनिष्क का गुरु था। नागार्जुन महान् आचार्य एवं दार्शनिक था। इन्हीं उद्भट विद्वानों की ओर संकेत करते हुए  डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने लिखा है- ‘अश्वघोष, नार्गाजुन तथा अन्य लोगों की कृतियों से यह सिद्ध हो जाता है कि कुषाण-काल महती क्रियाशीलता का युग था। यह धार्मिक उत्तेजना तथा धर्म-प्रचार का भी युग था।’

रॉलिन्स ने लिखा है- ‘इस काल में नूतन साहित्यिक स्वरूप प्रकाश में आते है, नाटक तथा महाकाव्य सामने आते हैं और प्रतिष्ठित संस्कृत का विकास होता है।’

अन्धकार का युग

कुषाण साम्राज्य के बाद और गुप्त साम्राज्य के उदय के पूर्व के युग को भारतीय इतिहास में ‘अन्धकार का युग’ कहा गया है। डॉ. स्मिथ ने लिखा है- ‘कुषाण तथा आन्ध्र राजवंशों के विनाश और साम्राज्यवादी गुप्त साम्राज्य के उदय के मघ्य काल का समय, भारत के सम्पूर्ण इतिहास में सर्वाधिक अन्धकारमय है।’

स्मिथ का यह कथन सत्य नहीं माना जा सकता क्योंकि आधुनिक काल में मुद्राओं तथा अभिलेखों के आधार पर जो शोध का कार्य हुआ है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि यह अन्धकार का युग नहीं था। इस युग में भारत में अनेक राजतन्त्र तथा गणतन्त्र विद्यमान थे। इस समय सात राजतन्त्र तथा नौ गणतन्त्र विद्यमान थे।

राजतन्त्रों के नाम इस प्रकार हैं- नाग, अहिक्षत्र, अयोध्या, कौशाम्बी, वाकाटक, मौखरि और गुप्त। गणतन्त्रों के नाम इस प्रकार हैं- आर्जुनायन, मालव, यौधेय, शिवि, लिच्छवि, कुणिन्द, कुलूट, औदुम्बर और मद्र। राजतन्त्रों में नाग-राज्य सर्वाधिक शक्तिशाली था और गणराज्यों में यौधेय गणराज्य सर्वाधिक शक्तिशाली था। इन्ही राज्यों के ध्वंशावशेषों पर गुप्तों के विशाल साम्राज्य का निर्माण होना था।

अध्याय – 17 : गुप्त साम्राज्य

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(प्रारम्भिक गुप्त शासक, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, स्कन्दगुप्त, गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण, गुप्त कला, स्थापत्य कला, साहित्य, दर्शन, धर्म, विज्ञान और तकनीक)

320 ई. से 495 ई. तक भारत में गुप्त शासकों की एक दीर्घ श्ृंखला ने शासन किया जिसे ‘गुप्त-वंश’ के नाम से जाना जाता है। इसे भारतीय पुनर्जागरण का युग तथा भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग भी कहा जाता है। मौर्य शासन के नष्ट हो जाने के बाद भारत की राजनीतिक एकता भंग हो गई थी, उस राजनीतिक एकता को इस युग में पुनर्जीवित किया गया। इस वंश के समस्त शासकों के नाम के अंत में प्रत्यय की भांति ‘गुप्त’ शब्द का प्रयोग हुआ है, जो कि उन शासकों की जाति अथवा वंश का सूचक है। इसलिये इस वंश को गुप्त-वंश कहा गया है।

गुप्त काल का इतिहास जानने के प्रमुख स्रोत

साहित्यिक स्रोत

पुराण: वायु पुराण, स्मृति पुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण।

स्मृतियां: बृहस्पति स्मृति, नारद स्मृति।

बौद्ध साहित्य: वसुबंधु चरित, मंजुश्रीमूलकल्प।

जैन साहित्य: जिनसेन रचित हरिवंश पुराण।

विदेशी साहित्य: फाह्यान का फो-क्यो-की तथा ह्वेनसांग का सि-यू-की।

नाटक: विशाखदत्त रचित देवीचंद्रगुप्तम् तथा मुद्राराक्षस, शूद्रक रचित मृच्छकटिकम्, कालिदास रचित मालविकाग्निमित्रम्, कुमारसम्भवम्, रघुवंशम् अभिज्ञान शाकुन्तलम् आदि।

पुरातात्विक स्रोत

स्तम्भलेख, गुहालेख तथा प्रशस्तियां: समुद्रगुप्त के प्रयाग एवं एरण अभिलेख, चंद्रगुप्त द्वितीय का महरौली स्तम्भ-लेख, उदयगिरि गुहा अभिलेख। कुमारगुप्त प्रथम का मंदसौर लेख, गढ़वा शिलालेख, बिलसढ़ स्तम्भलेख, स्कन्दगुप्त की जूनागढ़ प्रशस्ति, भितरी स्तम्भ लेख।

ताम्रपत्र: भूमि दान करने सम्बन्धी ताम्रपत्र।

मुद्राएं: गुप्त शासकों की स्वर्ण एवं रजत मुद्राएं।

मंदिर एवं मूर्तियां: उदयगिरि, भूमरा, नचना, कुठार, देवगढ़ एवं तिगवा के मंदिर, सारनाथ बुद्ध मूर्ति, मथुरा की जैन मूर्तियां।

शैलचित्र: अजन्ता एवं बाघ के शैलचित्र।

गुप्त वंश का उद्भव

गुप्तों का मूल स्थान: गुप्त वंश के मूल स्थान के बारे में इतिहासकारों में एक राय नहीं है। कुछ इतिहासकार, बाद के काल के चीनी लेखक इत्सिंग के वर्णन के आधार पर गुप्तों का मूल स्थान मगध को मानते हैं। कतिपय इतिहासकार प्रयाग-साकेत-अवध के क्षेत्र को गुप्तों का मूल स्थान मानते हैं। प्रयाग से समुद्रगुप्त की प्रशस्ति का प्राप्त होना इसका प्रमाण माना जाता है किंतु प्रयाग प्रशस्ति सहित किसी भी लेख में गुप्त शासकों एवं उनके अधिकारियों ने गुप्तों के मूल स्थान का उल्लेख नहीं किया है।

गुप्तों की जाति: गुप्त-सम्राटों की जाति पर विद्वानों में बड़ा मतभेद है क्योंकि गुप्त उनकी जाति न होकर उनकी उपाधि प्रतीत होती है। वैदिक काल में ‘राजन्य’ के कोष की रक्षा का कार्य करने वाला मंत्री ‘गोप्ता’ कहलाता था। संभवतः गोप्ता ही आगे चलकर गुप्त कहलाये। ‘विष्णुपुराण’ में ब्राह्मणों की उपाधि शर्मा, क्षत्रियों की उपाधि वर्मा, वैश्यों की उपाधि गुप्त और शूद्रों की उपाधि दास बताई गई है। उपाधि के आधार पर गुप्त सम्राट, वैश्य ठहरते है। यह भारतीय परम्परा के अनुकूल भी लगता है। गुप्तों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘गुप्तों की उत्पत्ति रहस्य से घिरी हुई है, परन्तु नामों के अन्त में गुप्त लगे रहने के कारण उन्हें वैश्य वर्ण अथवा वैश्य जाति का कहना उचित ही होगा।’

आर्य वर्ण व्यवस्था के अनुसार राज-पद क्षत्रियों को ग्रहण करना चाहिए परन्तु अवसर आने पर ब्राह्मणों ने, क्षत्रिय शासकों को पदच्युत करके शासक बनना स्वीकार किया। इसी कारण शुंग, कण्व तथा सातवाहन आदि राज-वंशों की स्थापना हुई। सम्भव है कि ब्राह्मणों का अनुसरण करके वैश्यों ने भी अवसर मिलने पर क्षात्रधर्म स्वीकार कर लिया हो और राज्य की स्थापना करके शासन करने लगे हों। गुप्तों से पूर्व भी इसके उदाहरण मिलते हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य के सौराष्ट्र प्रांत का प्रांतपति पुष्यगुप्त वैश्य था। इसलिये पर्याप्त सम्भव है कि गुप्त-वंश के शासक वैश्य रहे हों।

गुप्त-वंश के प्रारम्भिक शासक श्रीगुप्त तथा घटोत्कच, किसी अन्य स्वतंत्र राजा के अधीन सामंत थे। इसलिये संभव है कि पुष्यगुप्त कि भांति श्रीगुप्त भी वैश्य रहा हो और किसी क्षत्रिय राजा, सम्भवतः नाग-वंश के सामंत के रूप में शासन करता रहा हो। कालान्तर में इस वंश में उत्पन्न चन्द्रगुप्त (प्रथम) ने स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित करके गुप्त राजवंश की स्थापना की।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार गुप्त-वंश को वैश्य-वंश स्वीकार करने में कठिनाई यह है कि इस वंश के राजाओं के वैवाहिक सम्बन्ध क्षत्रिय राजवंशों के साथ थे। चन्द्रगुप्त (प्रथम) ने लिच्छिव वंश की और चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने नाग-वंश की राजकुमारियों से विवाह किये। इतिहासकारों की यह आपत्ति इसलिये मान्य नहीं हो सकती कि राजवंशीय विवाह किसी जाति से बंधे हुए नहीं रहते। चन्द्रगुप्त मौर्य ने सैल्यूकस की कन्या से विवाह किया था, जो यूनानी था।

डॉ. जायसवाल, डॉ. बी. बी. गोखले आदि इतिहासकारों ने गुप्तों को शूद्र प्रमाणित करने का प्रयास किया है। प्रो. हेमचंद्र रायचौधरी उन्हें ब्राह्मण बताते हैं। डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा आदि विद्वानों ने गुप्तों को क्षत्रिय बताया है।

निष्कर्ष: गुप्तों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जब तक कोई सुदृढ़़ प्रमाण नहीं मिल जाता, तब तक यह कहना कठिन है कि वे किस वर्ण अथवा जाति से थे। तब तक उन्हें वैष्य स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है।

गुप्त-काल का महत्त्व

गुप्त-साम्राज्य की स्थापना से भारत के प्राचीन इतिहास में एक नये युग का आरम्भ होता है, जिसका राजनीतिक, ऐतिहासिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक दृष्टिकोण से बड़ा महत्त्व है।

(1) ऐतिहासिक महत्त्व: गुप्त-वंश का शासन काल हमें ऐतिहासिक तथ्यों के अंधकार से प्रकाश में लाता है। कुषाण-साम्राजय के विध्वंस तथा गुप्त-साम्राज्य के उत्थान के मध्य का काल इतिहास की दृष्टि से अंधकारमय माना जाता है परन्तु गुप्त-काल के आरम्भ होते ही यह अन्धकार समाप्त हो जाता है और क्रमबद्ध इतिहास प्राप्त होने लगता है। तिथि-सम्बन्धी संदेह भी समाप्त हो जाते हैं। स्मिथ ने लिखा है- ‘चौथी शताब्दी में प्रकाश का पुनः आगमन होता है, अन्धकार का पर्दा हट जाता है और भारतीय इतिहास में फिर एकता तथा दिलचस्पी पैदा हो जाती है।’

(2) राजनीतिक महत्त्व: अशोक की मृत्यु के बाद मौर्यों का विशाल साम्राज्य नष्ट-भ्रष्ट हो गया और भारत की राजनीतिक एकता समाप्त हो गई जिसके परिणाम स्वरूप देश के विभिन्न भागों में देशी-विदेशी राज्यों की स्थापना हो गई, जिनमें निरन्तर संघर्ष चलता रहता था। राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और पंजाब में अनेक गणराज्य शक्तिशाली बन गये। इस काल में मालव, यौधेय, अर्जुनायन, मद्र तथा शिवि आदि गणराज्यों ने विदेशी सत्ता पर आघात करके अपनी प्रभुसत्ता का विस्तार किया। विदिशा और मथुरा में नागों की शक्ति का विस्तार हुआ। दक्षिण में वाकाटक शक्तिशाली बन गये। इन्हीं परिस्थितियों में गुप्तों का भी उदय हो रहा था। गुप्त सम्राटों ने देशव्यापी दिग्विजय के माध्यम से इन गणराज्यों एवं छोटे-छोटे राज्यों को अधीन करके, भारत की विच्छन्नता को समाप्त किया और अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर देश को राजनीतिक एकता प्रदान की।

(3) आर्थिक महत्त्व: गुप्त-सम्राटों ने सम्पूर्ण देश में एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर उसमें शांति तथा व्यवस्था स्थापित की और लोक-कल्याण के कार्य करके प्रजा को समृद्ध बनाया। गुप्तकाल, भारत की अभूतपूर्व समृद्धि का युग था। इस काल में विदेशों के साथ भारत के घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित हुए।

(4) धार्मिक महत्त्व: इस काल में ब्राह्मण-धर्म का चूड़ान्त विकास हुआ। गुप्त-सम्राटों ने ब्राह्मण-धर्म को राजधर्म बना कर संरक्षण प्रदान किया और अश्वमेध यज्ञ करने लगे। इससे ब्राह्मण-धर्म को बड़ा प्रोत्साहन मिला और उसकी द्रुतगति से उन्नति होने लगी। सौभाग्य से गुप्त-साम्राटों में उच्चकोटि की धर्मिक सहिष्णुता थी और वे समस्त धर्मों के साथ उदारतापूर्ण व्यवहार करते थे।

(5) सांस्कृतिक महत्त्व: ब्राह्मण-धर्म का संस्कृत भाषा के साथ अटूट सम्बन्ध है। चूंकि गुप्तकाल में ब्राह्मण-धर्म की उन्नति हुई इसलिये संस्कृत भाषा की भी उन्नत्ति हो गई। वास्तव में गुप्तकाल संस्कृत भाषा के चरमोत्कर्ष का काल है। इस काल में साहित्य तथा कला की बड़ी उन्नति हुई और भारत की सभ्यता तथा संस्कृति का विदेशों में बड़ा प्रचार हुआ। इस अभूतपूर्व सांस्कृतिक उन्नयन के कारण ही गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है।

प्रारंभिक गुप्त शासक

श्रीगुप्त

श्रीगुप्त का काल 275 ई. से 300 ई. माना जाता है। उसी को गुप्त वंश का संस्थापक भी माना जाता है। अभिलेखों में उसे महाराज कहकर सम्बोधित किया गया है। उस काल में महाराज उपाधि का प्रयोग छोटे क्षेत्र के स्वतंत्र शासक के लिये किया जाता था। इसलिये संभव है कि श्रीगुप्त एक सीमित क्षेत्र का स्वतंत्र राजा था। यह क्षेत्र प्रयाग-साकेत होना संभावित है जिसकी राजधानी अयोध्या रही होगी। चीनी यात्री इत्सिंग ने लिखा है कि श्रीगुप्त ने नालंदा से 40 योजन (240 मील) दूर पूर्व की ओर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उसने महाराज की पदवी धारण की। इत्सिंग लिखता है कि 500 वर्ष पूर्व, महाराज श्रीगुप्त ने चीनियों के ठहरने के लिये एक मंदिर बनवाया तथा 240 गांव दान में दिये।

घटोत्कच

श्रीगुप्त का उत्तराधिकारी घटोत्कच था। उसने संभवतः 300 ई. से 319 ई. अथवा 320 ई. तक शासन किया। उसके शासन काल की किसी भी घटना की जानकारी नहीं मिलती। उसने भी महाराज की उपाधि धारण की। अनेक अभिलेखों में इसे गुप्तवंश का संस्थापक कहा गया है। परंतु सर्वमान्य मत तथा प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि घटोत्कच, गुप्तवंश का दूसरा राजा था। घटोत्कच के नाम की एक स्वर्ण मुद्रा उपलब्ध हुई है जिसे प्रो.एलन ने किसी बाद के राजा का सिक्का माना है। प्रोफेसर गोयल के अनुसार गुप्त-लिच्छवी सम्बन्घ इसी काल में आरम्भ हुए।

चन्द्रगुप्त प्रथम (320-335 ई.)

अनेक इतिहासकार चंद्रगुप्त (प्रथम) को गुप्त वंश का प्रथम स्वतंत्र शासक मानते हैं। सिंहासन पर बैठते ही उसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की। जिन दिनों चन्द्रगुप्त का उत्कर्ष आरम्भ हुआ, उन दिनों मगध में कुषाणों का शासन था। मगध की जनता इस विदेशी शासन को विनष्ट कर देने के लिए आतुर थी। चन्द्रगुप्त ने इस अवसर को हाथ से नहीं जाने दिया और मगध की जनता की सहायता से विदेशी शासन का अंत कर मगध का स्वतंत्र सम्राट बन गया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने द्वितीय मगध-साम्राज्य की स्थापना की। यह घटना 320 ई. में घटी।

अभिलेखीय साक्ष्य

अब तक चंद्रगुप्त (प्रथम) के काल का कोई व्यक्तिगत लेख या प्रशस्ति उपलब्ध नहीं हो सकी है। इस कारण उसके काल की महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाओं के बारे में अत्यंत अल्प जानकारी उपलब्ध होती है।

कुमार देवी से विवाह: अपनी स्थिति को सुदृढ़़ बनाने के लिए चन्द्रगुप्त ने वैशाली के प्रतापी लिच्छवी-राज्य की राजकुमारी, कुमारदेवी के साथ विवाह कर लिया। उसे गुप्त लेखों में महादेवी कहा गया है जो उसके पटरानी होने का प्रमाण है। इस विवाह का राजनीतिक महत्त्व था। चंद्रगुप्त के सिक्कों पर ‘लिच्छवयः’ शब्द तथा कुमारदेवी की आकृति अंकित है। इस विवाह की पुष्टि समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशसित से भी होती है। लिच्छवी-राज्य से मैत्री हो जाने से गुप्त सम्राटों को अपने राज्य का विस्तार करने में बड़ी सहायता मिली। कालान्तर में लिच्छवि राज्य भी मगध-राज्य में सम्मिलित हो गया जिससे मगध-राज्य की प्रतिष्ठा तथा शक्ति में बड़ी वृद्धि हो गई।

नये सम्वत् का प्रारंभ: चन्द्रगुप्त ने एक नया सम्वत् चलाया जिसका प्रारम्भ 26 जनवरी 319-20 ई. अर्थात् उसके राज्याभिषेक के दिन से हुआ था। इसे गुप्त संवत के नाम से जाना जाता है।

उत्तराधिकारी की घोषणा: चन्द्रगुत (प्रथम) ने अपने जीवनकाल में ही अपने पुत्र समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। उसके इस चयन की प्रशंसा करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘समुद्रगुप्त की प्रारंभिक स्थिति चाहे जैसी रही हो, वह गुप्त-सम्राटों में सर्वाधिक योग्य सिद्ध हुआ और उसने अपनी सफलताओं से अपने पिता के चयन के औचित्य को प्रमाणित कर दिया। युद्ध तथा आक्रमण के आदर्शों के कारण चन्द्रगुप्त, अशोक के बिल्कुल विपरीत था।’

राज्य विस्तार: पुराणों में आये विवरणों एवं प्रयाग प्रशस्ति से चंद्रगुप्त प्रथम के राज्य विस्तार की जानकारी मिलती है। उसका राज्य पश्चिम में प्रयाग जनपद से लेकर पूर्व में मगध अथवा बंगाल के कुछ भागों तक तथा दक्षिण में मध्य प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी भाग तक विस्तृत था।

समुद्रगुप्त (335-375 ई.)

चन्द्रगुप्त (प्रथम) के बाद उसका पुत्र समुद्रगुप्त मगध के सिंहासन पर बैठा। चन्द्रगुप्त (प्रथम) की माता लिच्छवियों की राजकुमारी कुमारदेवी थी। यद्यपि समुद्रगुप्त के और भी कई भाई थे परन्तु उसके अलौकिक गुणों तथा योग्यता से प्रसन्न होकर चन्द्रगुप्त (प्रथम) ने अपने जीवन काल में ही उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। इसलिये समुद्रगुप्त निर्विरोध अपने पिता के साम्राज्य का स्वामी बन गया और उसने उसका विस्तार करना आरम्भ कर दिया।

अभिलेखीय साक्ष्य

समुद्रगुप्त की उपलब्धियों की जानकारी उसके मंत्री हरिषेण द्वारा प्रयाग में उत्कीर्ण करवाई गई प्रयाग प्रशस्ति से मिलती है। यह प्रशस्ति, प्रयाग के किले के भीतर अशोक के स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। समुद्रगुप्त का ऐरण अभिलेख भी महत्वपूर्ण साक्ष्य है। समुद्रगुप्त की मुद्रायें भी उसके शासन काल की तिथियों की सूचना देती हैं। उनसे अभिलेखीय प्रमाणों की पुष्टि होती है। गया एवं नालंदा के ताम्रपत्रों से भी उसके शासन काल की सूचनाएं मिलती हैं।

समुद्रगुप्त की दिग्विजय

समुद्रगुप्त महत्त्वाकांक्षी शासक था। सिंहासन पर बैठते ही उसने साम्राज्य विस्तार की नीति का अनुसरण किया। प्रयाग प्रशस्ति का लेखक हरिषेण सौ युद्धों में उसके रणकौशल का उल्लेख करता है जिसके कारण उसके सारे शरीर पर घावों के निशान बन गये। इस प्रशस्ति में उसकी विजयों की लम्बी सूची मिलती है। समुद्रगुप्त की विजयों को हम पांच भागों में विभक्त कर सकते हैं- (1) आर्यावर्त के नाग राजाओं पर विजय, (2) पाटलिपुत्र पर विजय, (3)  मध्य भारत के आटविक राज्यों पर विजय, (4) दक्षिण भारत पर विजय, (5) सीमान्त-प्रदेश पर विजय, (6) गण राज्यों पर विजय तथा (7) विदेशी राज्यों का विलय।

(1) आर्यावर्त के नाग राजाओं पर विजय: समुद्रगुप्त ने सर्वप्रथम उत्तरी भारत अथवा अर्यावर्त के राज्यों पर आक्रमण किया। उसने रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चंद्रवर्मन, गणपति नाग, नागसेन, नन्दिन, अच्युत और बलवर्मा नामक नौ राजाओं के साथ युद्ध किया और उन्हें परास्त कर उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। इनमें से नागदत्त, गणपति नाग, नागसेन और नन्दिन नागवंशी राजा जान पड़ते हैं जिनके प्रसिद्ध केन्द्र मथुरा तथा पद्मावती थे। अच्युत नामक राजा अहिच्छत्र (उत्तर प्रदेश के बरेली जिले) पर राज्य करता था। अन्य राजाओं की सही पहचान नहीं हो सकी है। समुद्रगुप्त ने इन राज्यों को अपने साम्राज्य में मिलाकर उत्तरी भारत में अपनी स्थिति सुदढ़ कर ली।

(2) पाटलिपुत्र विजय: नाग राजाओं को परास्त करने के बाद समुद्रगुप्त ने कोटकुलज नामक राजा को परास्त करके पाटलिपुत्र में प्रवेश किया। पाटलिपुत्र विजय गुप्तों के लिये एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी।

(2) विध्यांचल क्षेत्र के आटविक राज्यों पर विजय: उत्तर भारत के बाद, समुद्रगुप्त ने मध्य भारत के स्वतंत्र राज्यों पर अभियान किया। अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उस काल में जबलपुर तथा नागपुर के आस-पास 18 अटवी राज्य थे। अटवी जंगल को कहते हैं। चंूकि यह प्रदेश पर्वतों तथा जंगलों से भरा पड़ा था इसलिये इन राज्यों को अटवी राज्य कहते थे। प्रयाग के स्तम्भ-लेख से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने इन राज्यों के राजाओं को अपना परिचारक अथवा सेवक बनाया। इन राज्यों पर विजय प्राप्त कर लेने से समुद्रगुप्त के लिये दक्षिण-विजय का मार्ग खुल गया।

(3) दक्षिणापथ पर विजय: अभिलेखीय साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने दक्षिण के 12 राज्यों पर विजय प्राप्त की। उसने इन राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया अपितु उनके साथ बड़ी उदारता का व्यवहार किया और उन्हें विजित राजाओं को लौटा दिया। इन राजाओं ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली और उसे अपार धनराशि कर तथा भेंट के रूप में दी। दक्षिण के इन राजाओं को अपने साम्राज्य में सम्मिलित नहीं करके समुद्रगुप्त ने दूरदर्शिता का परिचय दिया। उस युग में, गमनागमन के साधनों का सर्वथा अभाव था। इसलिये उत्तरी भारत से दक्षिणी भारत पर नियंत्रण रखना असम्भव था। यदि समुद्रगुप्त ने दक्षिण के राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया होता तो दक्षिण भारत अशान्ति तथा उपद्रव का स्थान बन जाता और इसका कुप्रभाव उत्तरी साम्राज्य पर भी पड़ता।

(4) सीमान्त प्रदेशों पर विजय: अपनी दिग्विजय के चतुर्थ चरण में  समुद्रगुप्त ने सीमांत प्रदेशों- समतट (बांगला देश), डवाक (आसाम का नवगांव), कामरूप (आसाम) तथा कर्तृपुर (गढ़वाल में कुमायूं अथवा पंजाब में जालंधर का क्षेत्र) पर विजय प्राप्त की। सीमांत प्रदेश के कुछ राजाओं ने युद्ध में पराजित होकर और कुछ ने बिना युद्ध किये ही समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली। ये राज्य समुद्रगुप्त को कर देने लगे और उसकी आज्ञाओं का पालन करने लगे।

(5) गणराज्यों पर विजय: गुप्त-साम्राज्य के पश्चिम तथा दक्षिण-पश्चिम में कुछ ऐसे राज्य थे जिनमें अर्द्ध प्रजातंत्रात्मक अथवा गणतंत्रात्मक शासन व्यवस्था थी। इनमें मालव, अर्जुनायन, यौधेय, मद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानिक, काक, खार्परिक आदि प्रमुख थे। ये राज्य गणराज्य कहलाते थे। इन राज्यों ने समुद्रगुप्त के प्रताप से आतंकित होकर, बिना युद्ध किये ही उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। इस प्रकार समुद्रगुप्त की सत्ता सम्पूर्ण भारत में व्याप्त हो गई और वह भारत का एकछत्र सम्राट बन गया।

(6) विदेशी राज्यों का विलय: प्रयाग प्रशस्ति की तेबीसवीं एवं चौबीसवीं पंक्ति में उल्लिखित विदेशी शक्तियों के नामों से ज्ञात होता है कि अनेक विदेशी राज्यों ने समुद्रगुप्त की सेवा में उपहार एवं कन्यायें प्रस्तुत करके उससे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये। इन शक्तियों ने समुद्रगुप्त के गरुड़ चिह्न से अंकित आज्ञापत्र लेना स्वीकार किया। इन विदेशी शक्तियों में प्रमुखतः कुषाण, शक-मुरण्ड, सिंहल तथा अन्यान्य द्वीपवासी थे जिन्हें क्रमशः देवपुत्र-शाहि-शाहानुशाही, शक-मुरण्ड, सिंहलद्वीपवासी तथा सर्वद्वीपवासी नामों से जाना जाता था। पश्चिम के जो छोटे-छोटे राज्य विद्यमान थे उन्होंने भी समुद्रगुप्त की प्रधानता को स्वीकार कर लिया।

समुद्रगुप्त के साम्राज्य की सीमाएँ

समुद्रगुप्त की उपर्युक्त दिग्विजय के फलस्वरूप उसका साम्राज्य उत्तर में हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक और पश्चिम में यमुना तथा चम्बल नदी से लेकर पूर्व में हुगली नदी तक फैल गया। उत्तर भारत के एक बड़े भूभाग पर समुद्रगुप्त स्वयं शासन करता था। स्वशासित प्रदेश के उत्तर व पूर्व में पांच तथा पश्चिम में नौ गणराज्य उसके करद राज्य थे। दक्षिण में बारह राज्यों की स्थिति भी इन्हीं के समान थी। इन करद राज्यों के अतिरिक्त अनेक विदेशी राज्य भी समुद्रगुप्त के प्रभाव में थे।

अश्वमेध यज्ञ

अपनी दिग्विजय सम्पूर्ण होने के उपलक्ष में समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया। प्रयाग-प्रशस्ति में इस यज्ञ का उल्लेख नहीं है इससे अनुमान होता है कि प्रयाग प्रशस्ति अश्वमेध यज्ञ से पहले उत्कीर्ण की गई थी। समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ में दान तथा दक्षिणा देने के लिए स्वर्ण-मुद्राएं ढलवाईं। इन मुद्राओं में एक ओर यज्ञ-स्तम्भ अंकित है जिससे एक अश्व बंधा हुआ है। मुद्रा के इसी ओर ‘अश्वमेध पराक्रमः’ अंकित है। इस अवसर पर सम्राट ने असंख्य मुद्राएं तथा गांव दान में दिये। कई गुप्त लेखों में उसे चिरकाल से न होने वाले अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करने वाला कहा गया है।

विदेशों से सम्बन्ध

समुद्रगुप्त की दिग्विजय से उसका यश चारों दिशाओं में दूर-दूर तक  विस्तृत हो गया। निकटवर्ती विदेशी राजा उसकी मैत्री की आकांक्षा करने लगे। चीनी अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त के शासनकाल में श्रीलंका के राजा मेघवर्ण ने दो बौद्ध-भिक्षुओं को बोधिगया भेजा। वहाँ पर इन भिक्षुओं को यथोचित सुविधा न मिल सकी। जब मेघवर्ण को इसकी सूचना मिली तब उसने समुद्रगुप्त से गया में एक विहार बनवाने की अनुमति मांगी। समुद्रगुप्त ने उसकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। मेघवर्ण ने गया में महाबोधि संघाराम नामक विहार का निर्माण करवाया। 631 ई. में जब चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आया, तब तक यह विहार सुरक्षित था और इसमें महायान पंथ के लगभग एक हजार भिक्षु निवास करते थे।

समुद्रगुप्त का चरित्र तथा उसके कार्य

समुद्रगुप्त को भारत के इतिहास में उच्च स्थान दिया जाता है। उसके सिक्कों पर मुद्रित पराक्रमांक(पराक्रम है पहचान जिसकी), व्याघ्रपराक्रमः (बाघ के समान पराक्रमी है जो) तथा अप्रतिरथ (प्रतिद्वंद्वी नहीं है जिसका कोई) जैसी उपाधियां उसके प्रचण्ड प्रभाव को इंगित करती हैं।

स्मिथ ने लिखा है ‘गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त, भारतीय इतिहास का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण तथा गुण-सम्पन्न सम्राट था।’ उसकी प्रतिभा बुहुमुखी थी। वह न केवल एक महान् विजेता था अपितु अत्यंत कुशल शासक भी था। वह राजनीति का प्रकाण्ड पंडित था। उसकी साहित्य तथा कला में विशेष अनुरक्ति थी और उसका धार्मिक दृष्टिकोण उदार तथा व्यापक था।

डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार ने समुद्रगुप्त की बहुमुखी प्रतिभा की प्रसंशा करते हुए लिखा है- ‘समुद्रगुप्त की सैनिक’ विजय तो महान् थी ही, उसकी व्यक्तिगत साधनाएं भी कम महान् नहीं थीं। उसके राजकवि ने विजित लोगों के प्रति उसकी उदारता, उसकी परिष्कृत प्रतिभा, उसके धर्मशास्त्रों के ज्ञान, उसके काव्य कौशल और उसकी संगीत योग्यता की मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा की है।’ स्मिथ ने भी समुद्रगुप्त की बहुमुखी प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘समुद्रगुप्त अद्भुत व्यक्तिगत क्षमता वाला व्यक्ति था और उसमें असाधारण विभिन्न गुण थे। वह एक श्रेष्ठ व्यक्ति, विद्वान, कवि, संगीतज्ञ तथा सेनानायक था।’

(1) महान् विजेता: समुद्रगुप्त की गणना भारत के महान् विजेताओं में होती है। उसने अपने पिता के छोटे से राज्य को, जो साकेत, प्रयाग तथा मगध तक सीमित था, एक विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया। उसने छिन्न-भिन्न भारत को अपनी दिग्विजय द्वारा एक राज-सूत्र में बांध कर फिर से राजनीतिक एकता प्रदान की। उन दिनों में जब गमनागमन के साधनों का सर्वथा अभाव था, संपूर्ण भारत, मध्य भारत, दक्षिण भारत, सीमान्त प्रदेशों तथा विदेशी राज्यों को नतमस्तक करना, साधारण कार्य नहीं था। उसने सम्पूर्ण भारत की दिग्विजय कर राजनीतिक एकता स्थापित करने का जो उनुपम आदर्श उपस्थिति किया, उसका अनुगमन उसके बाद के समस्त महात्वाकांक्षी विजेताओं ने किया। एक विजेता के रूप में समुद्रगुप्त की प्रशंसा करते हुए स्मिथ ने लिखा है- ‘छः सौ वर्ष पूर्व अशोक के काल से इतने बड़े साम्राज्य पर और किसी ने शासन न किया। वह स्वयं को भारत का सर्वशक्तिमान सम्राट बनाने के महान् कार्य में सफल हुआ।’

(2) महान् सेनानायक: समुद्रगुप्त महान् सेनानायक था। एक मुद्रा पर  वह सैनिक वेश में अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुए दिखाया गया है। समुद्रगुप्त की समस्त सैनिक विजयें, उसके अपने बाहुबल से अर्जित की गई थीं। अपने दिग्विजय अभियानों में वह स्वयं अपनी सेना का नेतृत्व तथा संचालन करता था और रण-स्थल में स्वयं सैनिकों की प्रथम पंक्ति में विद्यमान रहता था। अपने शत्रुओं पर वह बाघ की भांति टूट पड़ता था। इसी से वह व्याघ्र-पराक्रम, पराक्रमांक आदि उपाधियों से विभूषित किया गया। वह समरशत अर्थात् सौ युद्धों का विजेता था तथा अजेय समझा जाता था।

(3) राजनीति का प्रकाण्ड पण्डित: समुद्रगुप्त न केवल महान् विजेता तथा सेनानायक था अपितु दूरदर्शी तथा कुशल राजनीतिज्ञ भी था। उसने इस बात का अनुभव किया कि उस युग में जब यातायात के साधनों का अभाव था, एक केन्द्र से सम्पूर्ण भारत का शासन करना असंभव था। इसलिये उसने केवल उत्तर भारत के राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया। शेष राजाओं को परास्त करने के बाद उनका उच्छेदन न करके उन्हें अपना अधीनस्थ मित्र बना लिया। उसका व्यवहार इन राज्यों के साथ इतना उदार तथा सौजन्यतापूर्ण था कि कभी किसी राजा ने उसके विरुद्ध विद्रोह करने का प्रयास नहीं किया।

(4) सफल शासक: यद्यपि समुद्रगुप्त एक महान् विजेता तथा सेनानायक के रूप में अधिक प्रसिद्ध है, तथापि उसमें प्रशासकीय प्रतिभा का अभाव नहीं था। उसके शासन-काल में किसी का विद्रोह अथवा विप्लव न हुआ। इससे यह स्पष्ट है कि वह अपने साम्राज्य में शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखने में पूर्ण रूप से सफल रहा। उसने जितनी मुद्राएं चलाईं वे सब स्वर्ण निर्मित हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि उसका साम्राज्य धन-धान्य से पूर्ण था और उसकी प्रजा सुखी थी। चूंकि उसका साम्राज्य अत्यंत विशाल था इसलिये ऐसा प्रतीत होता है कि उसने प्रान्तीय शासन की भी व्यवस्था की थी जिन पर वह पूर्ण नियंत्रण रखता था। शासन को सुचारू रीति से चलाने के लिये विभागीय व्यवस्था भी की गई थी। सेना, शासन, न्याय आदि कार्यों के लिए अलग-अलग विभाग होते थे, जिनके अलग-अलग अध्यक्ष नियुक्त रहते थे। समुद्रगुप्त बड़ा ही उदार तथा दयावान् व्यक्ति था, इसलिये उसने दीन-दुखियों, अनाथों तथा असहायों की सहायता के लिये दान आदि की भी व्यवस्था की थी।

(5) महान् साहित्यानुरागी: समुद्रगुप्त में न केवल उच्च-कोटि की सैनिक तथा प्रशासकीय प्रतिभा थी वरन् उच्च-कोटि की मानसिक प्रतिभा भी थी। वह उच्च-कोटि का विद्वान तथा विद्या-व्यसनी था। साहित्य में उसकी बड़ी रुचि थी। वह उच्च-कोटि का लेखक तथा कवि था। यह साहित्यकारों तथा कवियों का आश्रयदाता था। बौद्ध-विद्वान वसुबंधु को समुद्रगुप्त का आश्रय प्राप्त था। उसका मंत्री हरिषेण भी उच्च-कोटि का कवि था। वह अपने स्वामी का बड़ा कृपा पात्र था। प्रयाग के स्तम्भ-लेख में हरिषेण ने समुद्रगुप्त की बड़ी प्रशंसा की है। उसने कहा है कि अनेक काव्यों को लिखकर समुद्रगुप्त ने कविराज की उपाधि प्राप्त की। उसका साहित्य विद्वानों के मनन करने योग्य है। उसकी काव्य-शैली अध्ययन करने योग्य है, उसकी काव्य रचनाएं कवियों के आध्यात्मिक कोष में अभिवृद्धि करती हैं। हरिषेण की इस प्रशस्ति से स्पष्ट है कि समुद्रगुप्त को साहित्य से बड़ा प्रेम था। डॉ.रमाशंकर त्रिपाठी ने समुद्रगुप्त की आलौकिक प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘समुद्रगुप्त अद्भुत प्रतिभा का व्यक्ति था। वह न केवल शस्त्रों में वरन् शास्त्रों में भी कुशल था। वह स्वयं बड़ा ही सुसंस्कृत व्यक्ति था और उसे विद्वानों की संगति प्रिय थी।’

(6) महान् कला प्रेमी: समुद्रगुप्त वीणा बजाने में प्रवीण था। संगीत में उसकी बड़ी रुचि थी। उसकी अनेक स्वर्ण-मुद्राओं पर वीणा अंकित है। हरिषेण की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उसने संगीत में नारद तथा तुम्बुरू को भी लज्जित कर दिया था। गायन तथा वादन दोनों में ही उसने प्रवीणता प्राप्त कर ली थी।

(7) भागवत धर्म का अनुयायी: समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ करके ब्राह्मण धर्म तथा यज्ञों की उपयोगिता में विश्वास प्रकट किया। इससे ब्राह्मण धर्म को राज्य का आश्रय प्राप्त हो गया। वह फिर से लोक-धर्म बन गया और उसकी उन्नति होने लगी। समुद्रगुप्त की मुद्राओं पर लक्ष्मी की आकृति अंकित की गई है। उसने परम भागवत की उपाधि धारण की। उसका राज्य-चिन्ह गरुड़ था, जो विष्णु का वाहन है। इन सब तथ्यों से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वह विष्णु का उपासक था।

(8) धार्मिक सहिष्णुता: संसार के श्रेष्ठ धर्म का अनुयायी होने पर भी वह अन्य धर्मों की प्रजा के साथ सहानुभूति रखता था। वह उन पर किसी प्रकार का भेदभाव अथवा अत्याचार नहीं करता था। वह बौद्ध आदि धर्मों की सहायता करता था। उसने गया में एक बौद्ध-विहार बनावाया जिससे स्पष्ट होता है कि उसका धार्मिक दृष्टिकोण बड़ा उदार था और उसमें उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी।

(9) अलौकिक व्यक्तित्त्व: समुद्रगुप्त के चरित्र तथा उसके कार्यों का विवेचन करने के उपरांत हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वह साधारण मनुष्य नहीं था। उसे दैवी-शक्तियां प्राप्त थीं। इसी से उसे अमनुज अर्थात् जो मनुष्य न हो तथा अचिंत्य पुरुष आदि कहा गया है जो लोक तथा समय के अनुकूल कार्य करने के लिए ही मुनष्य का स्वरूप धारण किये हुए था। अन्यथा वह धन में कुबेर के समान तथा बुद्धिमत्ता में बृहस्पति के समान था। वह साधु के लिए उदय (आशा) और असाधु के लिए प्रलय (विनाश) था। इसलिये वह देवता का साक्षात् स्वरूप था।

भारत का नेपोलियन

अंग्रेज इतिहासकार डॉ. विसेंट स्मिथ ने समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा है। उसने लिखा है- ‘समुद्रगुप्त ने कलाओं के अभ्यास से चाहे जितनी मात्रा में ख्याति प्राप्त की हो, जिससे उसके न्यूनावकाश की शोभा बढ़ी, यह स्पष्ट है कि वह साधारण शक्तियों में संयुक्त न था। वह वास्तव में विलक्षण प्रतिभा का व्यक्ति था और वह भारतीय नेपोलियन कहलाने का अधिकारी है।’ इसके विपरीत आयंगर ने लिखा है- ‘उसे भारत का नेपोलियन कहना बड़ा ही अनुचित है जो केवल राज्य जितना ही राजा का कर्त्तव्य समझता था।’ समुद्रगुप्त के सम्बन्ध में इन दोनों इतिहासकारों के मतों पर विचार कर लेना आवश्यक है।

नेपोलियन तथा समुद्रगुप्त में समानता: नेपोलियन यूरोप का महान् विजेता तथा सेनानायक था। फ्रांसिसी क्रांति के समय वह फ्रांसिसी सेना का सेनापति था। उसने फ्रांस की समस्त सैन्य शक्ति अपने हाथ में कर ली और वह फ्रांस का सम्राट बन गया। उसने अपने बाहुबल तथा सैन्यबल से न केवल फ्रांस की उसके शत्रुओं से रक्षा की वरन् उसने सम्पूर्ण यूरोप को आतंकित कर उसे नत-मस्तक कर दिया। स्मिथ ने समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन केवल इस आधार पर कहा है कि जिस प्रकार नेपोलियन एक महान् विजेता तथा सेनानायक था और उसने सम्पूर्ण फ्रांस को नत-मस्तक कर दिया था, उसी प्रकार समुद्रगुप्त ने भी अपने अलौकिक पराक्रम से सम्पूर्ण भारत पर विजय प्राप्त कर उसे नत-मस्तक किया था। इस दृष्टिकोण से समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन मानने में किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिए परन्तु दोनों की समानता यहीं समाप्त हो जाती है।

नेपोलियन तथा समुद्रगुप्त में असमानताएं: दो भिन्न महाद्वीपों के इन दो महान् योद्धाओं तथा विजेताओं के पूरे जीवन में आद्योपरांत भिन्नताएं हैं। इन्हें इस प्रकार से समझा जा सकता है-

(1) वंश का अंतर: नेपोलियन एक सामान्य परिवार में उत्पन्न हुआ एक साधारण सैनिक था, उसने अपने लिये राज्य का निर्माण स्वयं किया जबकि समुद्रगुप्त, राजा का पुत्र था, उसे राज्य उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था।

(2) सामरिक सफलताओं में अंतर: नेपोलियन को अपने उद्देश्य में केवल आरम्भिक चरण में सफलता प्राप्त हुई। उसकी विजय क्षणिक सिद्ध हुई। उसके विपरीत समुद्रगुप्त को अपने उद्देश्य में आद्योपरांत सफलता प्राप्त हुई।

(3) राज्य के स्थायित्व में अंतर: नेपोलियन ने जिस नये साम्राज्य का निर्माण किया वह थोड़े ही समय बाद नष्ट हो गया। जबकि समुद्रगुप्त ने जिस नये साम्राज्य का निर्माण किया, वह स्थायी सिद्ध हुआ। उसने न केवल स्वयं जीवन-पर्यन्त उस साम्राज्य का सुखपूर्वक उपभोग किया अपितु उसके उत्तराधिकारियों ने भी डेढ़ शताब्दियों से अधिक समय तक उस मधुर फल का उपभोग किया।

(3) विजित शत्रुओं के साथ सम्बन्धों में अंतर: नेपोलियन, विजय के उपरान्त विजित प्रदेशों में शान्ति स्थापित नहीं कर सका और शत्रुओं को मित्र बनाने में असफल रहा। इसके विपरीत समुद्रगुप्त ने जिन प्रदेशों को जीता वहाँ पर उसने स्थायी शान्ति स्थापित की और अपने शत्रुओं को अभयदान देकर उन्हें अपना मित्र बना लिया। नेपोलियन के विरुद्ध स्पेन तथा जर्मनी ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया परन्तु समुद्रगुप्त को इस प्रकार के किसी आन्दोलन का सामना न करना पड़ा।

उद्देश्यों में अंतर: नेपोलियन तथा समुद्रगुप्त की सफलाताओं और स्थायित्व में अंतर का कारण यह है कि इन दोनों विजेताओं के उद्देश्यों में भी पर्याप्त अंतर था। नेपोलियन केवल समर विजयी योद्धा था और उसकी विजय का नैतिक स्तर अत्यंत निम्नकोटि का था। इसके विपरीत समुद्रगुप्त एक धर्म-विजयी सम्राट था और उसकी विजय का नैतिक स्तर आर्य आदर्शों के अनुरूप अत्यंत ऊँचा था।

जीवन काल के अंत में अंतर: नेपोलियन को अन्त में भयानक पराजयों का आलिंगन करना पड़ा और उसका अन्त बड़ा दुःखद हुआ। ट्राफलर तथा वाटरलू के सामुद्री युद्धों में इंग्लैड की सेनाओं ने उसे बहुत बुरी तरह परास्त किया। उसकी सेनाओं को रूस से हताश होकर वापस लौटना। अन्त में नेपोलियन बन्दी बनाकर सेन्ट निर्जन हेलेना द्वीप में भेज दिया गया, जहाँ अपमानजनक परिस्थितियों में उसकी जीवन-लीला समाप्त हुई। समुद्रगुप्त के जीवन में ऐसा कुछ घटित नहीं हुआ। समुद्रगुप्त ने अपनी दिग्विजय-यात्रा में सर्वत्र विजय-लक्ष्मी का ही आलिंगन किया था, पराजय का नहीं। समुद्रगुप्त ने 40 वर्षों के दीर्घकालीन शासन में अपनी विजयों के मधुर फलों का आस्वादन किया।

निष्कर्ष: नेपोलियन तथा समुद्रगुप्त के जीवन में इतना बड़ा अन्तर होने के कारण अधिकांश इतिहासकार स्मिथ के कथन से सहमति नहीं रखते। इतिहासकारों का कहना है कि नेपोलियन कुछ अर्थों में यूरोप का समुद्रगुप्त हो सकता है परन्तु समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहना उचित नहीं है।

रामगुप्त (375 ई.)

समुद्रगुप्त के कई पुत्र तथा पौत्र थे। उसके ज्येष्ठ पुत्र का नाम रामगुप्त था जो उसके बाद सिंहासन पर बैठा। कतिपय साहित्यिक उल्लेखों तथा पूर्वी मालवा से प्राप्त रामगुप्त के नाम से अंकित तथा गरुड़ चिह्नांकित सिक्कों के आधार पर रामगुप्त की ऐतिहासिकता स्वीकार की गई है। उसके शासन काल के सम्बन्ध में अधिक जानकारी नहीं मिलती है। सम्भवतः उसके सिंहासन पर बैठते ही शकों ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। रामगुप्त परास्त हो गया और शकों ने उसे बंदी बना लिया। विवश होकर रामगुप्त को शकों से सन्धि करनी पड़ी जिसमें उसे अपनी रानी ध्रुवदेवी, शकों को समर्पित करने की शर्त स्वीकार करनी पड़ी। रामगुप्त का छोटा भाई चन्द्रगुप्त बड़ा ही वीर, साहसी तथा स्वाभिमानी राजकुमार था। अपने भ्राता की कायरता से खिन्न होकर चंद्रगुप्त, धु्रवदेवी के वेश में स्त्री-वेशधारी योद्धाओं के साथ शकों की सैन्य छावनी में गया। जब शक राजा धु्रवदेवी का आलिंगन करने के लिए आगे बढ़ा तब चन्द्रगुप्त ने उसका वध कर दिया और अपने सैनिकों की सहायता से शकों को गुप्त साम्राज्य से मार भगाया।

सम्राट रामगुप्त की कायरता तथा कापुरुषता से धु्रवदेवी को बड़ा क्षोभ हुआ। उसने अपने देवर के वीरोचित गुणों का सम्मान करते हुए तथा साम्राज्य के लिये उसका मूल्य एवं उसकी आवश्यकता समझते हुए, चंद्रगुप्त के साथ मिलकर रामगुप्त की हत्या का षड़यंत्र रचा। धु्रवदेवी के सहयोग से चन्द्रगुप्त ने अपने भाई रामगुप्त का वध कर दिया और धु्रवदेवी के साथ विवाह करके गुप्त साम्राज्य का सम्राट बन गया।

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