मध्यकालीन मुस्लिम बादशाह भारत में आक्रांता के रूप में आये थे। उन्होंने सेना के बल पर इस देश का शासन प्राप्त किया था अतः उनका ध्यान अपनी सेनाओं को मजबूत बनाये रखना, उन्हें निरंतर राज्य विस्तार के काम में लगाये रखना तथा शत्रुओं से अपने राज्य को सुरक्षित रखने पर अधिक था। कृषि, व्यापार, वाणिज्य एवं उद्योगों का संरक्षण एवं विकास उनकी प्राथमिकता में नहीं थे। यही कारण है कि मध्यकालीन फारसी और अरबी ग्रन्थों में भारत की अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में बहुत कम सूचनाएँ मिलती हैं। मंगोल बादशाह भी आक्रांताओं की तरह इस देश में प्रविष्ट हुए। 1221 ई. में मंगोलों ने चंगेजखाँ के नेतृत्व में भारत पर पहला बड़ा आक्रमण किया तथा 1526 ई. में बाबर के नेतृत्व में उन्हें पहली बार दिल्ली की सल्तनत पर शासन करने का अधिकार मिला। मुस्लिम शासकों की परम्परा के अनुसार मंगोलकालीन फारसी एवं अरबी ग्रंथों ने बादशाहों द्वारा लड़ी गई लड़ाइयों, शहजादों द्वारा किये गये उत्तराधिकार के युद्धों, विप्लवों आदि का विस्तार से वर्णन किया है किंतु देश की कृषि, व्यापार, वाणिज्य एवं अर्थव्यवस्था का बहुत कम उल्लेख किया है।
मुगलकालीन अर्थव्यवस्था जानने के प्रमुख स्रोत
भारतीय आर्य परम्परा में राजाओं के तिथिक्रम, वंशक्रम तथा युद्धों का वर्णन करने की बजाय धर्म, अध्यात्म एवं पौराणिक आख्यानों के साथ-साथ कृषि, पशुपालन, अकाल, आदि का बहुतायत से उल्लेख होता था। यही कारण है कि मंगोलों के शासन में रचे गये संस्कृत ग्रंथों तथा क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य में भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में सूचनाएँ अंकित की जाती रहीं। मुगलकालीन एवं परवर्ती विदेशी पर्यटकों के विवरणों से भी मुगलकालीन अर्थव्यवस्था का ज्ञान होता है।
मुगलकालीन अर्थव्यवस्था के प्रमुख तत्त्व
मुगलकाल में भी भारत की अर्थव्यवस्था प्राचीन आर्य परम्परा के अनुसार कृषि, पशुपालन एवं घरेलू उद्योगों पर आधारित थी। इस कारण गाय ही ग्रामीण जीवन एवं अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार थी। अर्थव्यवस्था में जटिलता उत्पन्न नहीं होने से, प्रजा का जीवन सरल एवं मंथर-गति युक्त था। ग्रामीण प्रजा की आवश्यकताएँ गाँवों में ही पूरी हो जाती थीं। पूरा परिवार प्रायः एक ही कार्य करता था। प्रत्येक परिवार का कार्य परम्परा से निर्धारित था। स्त्रियां घर का काम करती थीं तथा अपने परिवार के साथ-साथ आर्थिक गतिविधियों में भी भूमिका निभाती थीं।
श्रम विभाजन
परम्परागत रूप से आर्यों द्वारा किया गया श्रम विभाजन अब भी समूची ग्रामीण एवं नगरीय अर्थव्यवस्था का आधार था। किसान खेती करते थे। बढ़ई तथा लौहार कृषि उपकरण तथा घरेलू उपभोग का सामान बनाते थे। सामान्यतः खेती के साथ-साथ पशुपालन भी किया जाता था किंतु कुछ लोग केवल पशुपालक एवं चरवाहे के रूप में जीवन यापन करते थे। वे पशुओं को पालने एवं दूध बेचने का काम करते थे। जुलाहे कपड़ा बुनते थे। चर्मकार चमड़े का काम करते थे। पुजारी, ज्योतिषी, वैद्य, महाजन, धोबी, नाई तथा भंगी आदि जातियों के लोग, परम्परागत रूप से अपने लिये निश्चित किये गये कार्य करते थे। कुछ लोग रस्सी और टोकरी बनाने, शक्कर तथा गुड़ बनाने, इत्र तथा तेल आदि बनाने का काम करते थे।
हाट-बाजार
नगरीय जीवन में बाजार दैनंदिनी का अंग थे जहाँ विभिन्न प्रकार की सामग्री का क्रय-विक्रय होता था किंतु गाँवों में बाजार प्रायः नहीं थे। अलग-अलग गांवों में छोटे-छोटे नियतकालिक बाजार लगते थे जिनमें कपड़ा, मिठाइयाँ तथा दैनिक आवश्यकता की विविध सामग्री बिकती थी। फसलों एवं पशुओं का क्रय विक्रय बड़े स्तर पर होता था।
भू-स्वामित्व एवं भू-राजस्व
भू-स्वामित्व
मध्यकालीन भारत में भू-स्वामित्व के सम्बन्ध में विद्वानों ने अलग-अलग मत व्यक्त किये हैं। समकालीन यूरोपियन यात्री बादशाह को भूमि का स्वामी मानते हैं किन्तु डॉ. इरफान हबीब का मत है कि भूमि का स्वामी न तो बादशाह था और न किसान। कुछ परिस्थितियों में उसका अधिकार मिलकियत का था अर्थात् सिद्धान्ततः भूमि का स्वामी बादशाह था परन्तु व्यवहारिक रूप से भूमि पर काश्त करने वाले जब तक भू-लगान देते रहते थे, तब तक वे भूमि के स्वामी बने रहते थे। सामान्य रूप से किसान न तो भूमि को बेच सकता था और न उससे अलग हो सकता था। डॉ. नोमान अहमद सिद्दीकी का मानना है कि कृषकों को जमीन बेचने और बंधक रखने जैसे अधिकार नहीं थे। फिर भी कृषकों का एक वर्ग जिसे मौरूसी कहा जाता था, इस प्रकार के अधिकारों का दावा करता था, जिन्हें दखलदारी का अधिकार (ओक्यूपेंसी राइट्स) कहा जा सकता है। सामान्यतः उन्हें बेदखल नहीं किया जा सकता था और उनके वंशजों का उनके खेतों पर उत्तराधिकार होता था। साथ ही ऐसे किसान भी थे जो जमींदारों की अनुमति से खेत जोतते थे और उन्हें जमींदार कभी भी बेदखल कर सकते थे। वस्तुतः कृषकों का वर्गीकरण कई स्तरों एवं श्रेणियों में हो सकता था। किसान यदि अपनी भूमि को छोड़कर अन्यत्र चला जाता था तो सरकारी कर्मचारियों को आदेश थे कि वे किसान को समझा-बुझाकर वापस ले आयें। औरंगजेब के काल में बहुत से किसान ताल कोंकण से भाग गये थे। उन्हें बलपूर्वक वापस लाकर छः सौ गाँवों में बसाया गया था।
भूमि का वर्गीकरण
मुगलकाल में भूमि को मोटे तौर पर दो श्रेणियों में विभाजित किया गया था- (1.) खालसा भूमि और (2.) गैर-खालसा (जागीर, साराण आदि)। खालसा भूमि सीधी बादशाह के नियंत्रण में थी। मालगुजारी निश्चित करने के लिए भूमि को पोलज, परती, चाचर एवं बंजर में बाँटा गया था। यह वर्गीकरण भूमि को जोतने पर आधारित था। पोलज वह भूमि थी जिसे प्रत्येक वर्ष जोता जाता था। परती को कुछ समय के लिए बिना जोते ही छोड़ दिया जाता था। चाचर भूमि तीन-चार साल के लिए बिना जुते ही छोड़ दी जाती थी। बंजर भूमि वह थी जिस पर पाँच साल से अधिक समय तक कोई उपज नहीं होती थी। गैर खालसा भूमि जागीरदारों के अधिकार में थी। अकबर के शासनकाल में जागीरदार अर्द्ध-स्वतन्त्र शासक थे। बादशाह का उनके आंतरिक शासन में हस्तक्षेप नहीं था।
भ-ूराजस्व का निर्धारण
प्रथम दो प्रकार की भूमियों (पोलज तथा परती) को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया- (1.) अच्छी, (2.) मध्यम और (3.) खराब। इन तीन श्रेणियों की प्रति बीघा औसत उपज को पोलज अथवा परती के प्रति बीघा की सामान्य उपज मान लिया गया था। इन दोनों भूमि में विशेष अन्तर नहीं था क्योंकि जिस वर्ष भी परती भूमि पर खेती की जाती थी, उसकी उपज पोलज के समान ही हुआ करती थी। चाचर भूमि में जब पहले साल खेती होती थी तो निश्चित दर अर्थात् 2/5 भाग मालगुजारी के रूप में ली जाती थी और पाँच साल खेती होने के पश्चात् उस पर सामान्य दर से मालगुजारी वसूल की जाती थी। इसी प्रकार बंजर भूमि पर भी पांॅच साल के बाद पूरी दर से मालगुजारी वसूल की जाती थी।
रैयती जमींदारों के अत्याचार
डॉ. नोमान अहमद सिद्दीकी के अनुसार मुगलकाल में किसानों की स्थिति सन्तोषप्रद नहीं थी। किसान को भूमि की पैदावार के अनुसार एक-तिहाई से लेकर आधा हिस्सा तक भू-राजस्व के रूप में देना पड़ता था। भू-राजस्व के साथ-साथ किसानों को चुंगियों तथा अनुलाभों के रूप में कुछ और भी देना पड़ता था। यह वसूली भू-राजस्व के निर्धारण एवं संग्रह पर हुए व्यय की पूर्ति के लिए विभिन्न मदों में की जाती थी। ऐसा प्रतीत होता हैं कि तलबाना और शहनामी जैसी चुंगियाँ जमींदारों से ली जाती थी जो आमतौर पर अपना भार किसानों पर डाल देते थे। छोटे ओहदे वाले मनसबदारों को भू-राजस्व संग्रहण हेतु छोटी-मोटी सेना रखने की अनुमति होती थी। यह सेना किसानों, जन-सामान्य तथा रयैती जमींदारों को आतंकित करने के लिए पर्याप्त होती थी। इस कारण छोटे मनसबदार, भू-राजस्व संग्रहण, रैयती जमींदारों के साधनों की जानकारी कर उन पर अधिक भू-राजस्व-कर आरोपित करके करते थे। रयैती जमींदार भू-राजस्व-कर का सारा भार किसानों पर डाल देते थे। जब किसान पैसा जमा नहीं करवा पाते थे तो उन पर रैयती जमींदार द्वारा अत्याचार किये जाते थे। जब किसानों पर अत्याचार, सहन करने की सीमा से बाहर हो जाता था तब वे रैयती जमींदारों के क्षेत्रों को छोड़कर जोर टलब जमींदारों के क्षेत्रों में चले जाते थे। जहाँ उन्हें रैयती जमींदारों के क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक सुविधा मिलती थी। इससे किसानों की दयनीय स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।
मुगलकालीन कृषि
आर्यों द्वारा स्थापित संस्कृति ने वैदिक काल से भारत को कृषि प्रधान देश का स्वरूप प्रदान किया था। मंगोलों के शासन में भी खेती का काम सामान्यतः हिन्दुओं के हाथों में रहा। इस कारण अब भी खेती प्राचीन आर्य पद्धति से, बैलों के द्वारा हल चलाकर की जाती थी। हल, कसी, खुरपी, पटेला तथा हंसिया, इस युग में भी खेती के मुख्य उपकरण थे। प्राचीन आर्य शासकों ने खेतों में सिंचाई के लिए नहरें बनाने की परम्परा आरम्भ की थी किंतु मध्यकालीन मुस्लिम आक्रमणों के बाद शासकों द्वारा नहरों की मरम्मत नहीं करवाने से खेती पूर्णतः वर्षा पर निर्भर हो गई। वर्षा के अभाव में प्रायः अकाल की स्थिति उपत्न्न हो जाती थी।
मुख्य फसलें
मुगलकाल में बोई जाने वाली मुख्य फसलें गेहूँ, बाजरा, मक्का, चावल, मटर, तिलहन, गन्ना, रूई आदि थीं। फलों में आम, अंगूर, केला, खरबूजा, अंजीर, नींबू, खिरनी, जामुन आदि उत्पन्न किये जाते थे। आयुर्वेदिक औषधियाँ, जड़ी-बूटियाँ, मसाले और सुगन्धित काष्ठ भी उत्पन्न किये जाते थे। इन उत्पादों को भारत के विभिन्न भागों एवं भारत से बाहर ले जाकर भी बेचा जाता था। अनाज भण्डारण के लिये गड्ढों या खत्तियों का उपयोग किया जाता था जिनमें लम्बे समय तक अनाज सुरक्षित रखा जा सकता था।
बागवानी
मुगल बादशाहों ने फलों की उपज में वृद्धि और किस्मों में सुधार करने के प्रयास किये तथा बागवानी को प्रोत्साहन दिया। बाबर को बागों में विशेष रुचि थी। उसने ईरानी शैली के अनुसार कुछ बागों का निर्माण करवाया, जिनमें कृत्रिम झरने तथा ढलुआ जमीनों पर चबूतरे आदि बनवाये।
अकबर के शासन काल में किसानों की सहायता
मुगल शासकों में अकबर सबसे पहला बादशाह था जिसने किसानों को प्रोत्साहन देने की नीति अपनाई। उसके शासन काल में किसानों को गन्ना, नील, अफीम, मसाले आदि नगद फसलें उत्पन्न करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। राज्य तकाबी के रूप में किसानों को ऋण देता था और सिंचाई की सुविधाएँ प्रदान करने का प्रयत्न करता था। अनावृष्टि, अतिवृष्टि अथवा दुर्भिक्ष या अन्य किसी दैवी प्रकोप से फसल नष्ट हो जाने पर राज्य की ओर से उस क्षेत्र का भूमि कर माफ कर किसानों को आर्थिक सहायता दी जाती थी। फसलों को हुई क्षति का विवरण रखा जाता था। जब अधिक वर्षा या बाढ़ के कारण भूमि बिना जुती रह जाती थी, तब किसानों को भीषण कष्ट होता था। ऐसे समय में भी राज्य किसानों की सहायता करता था। सरकारी कर्मचारियों को आदेश था कि वे किसानों से कोई अतिरिक्त कर वसूल न करें तथा उनके साथ कठोर व्यवहार न करें। यदि सैनिक अभियानों के समय किसानों की फसलों को किसी प्रकार की क्षति उठानी पड़ती थी तो राज्य उस क्षति की पूर्ति करता था। कुछ मामलों में अकबर ने अपने सैनिक अभियानों के समय खड़ी फसल को क्षति से बचाने के लिए सशस्त्र सैनिकों को नियुक्त किया तथा फसलों को सेना के कारण हुई क्षति के लिये किसानों को नकद राशि का भुगतान किया।
अकबर ने आलू की फसल तैयार करवाने का प्रयत्न किया था तथा जहाँगीर ने अनेक प्रकार के अंगूरों की उपज करवाई। तम्बाकू और तरबूज भी पैदा किये जाने लगे। मुहम्मद रिदा को जिसने पहली बार तरबूज उगाये थे, सम्मानित किया गया। मुगलों के काल में गेहूँ और चावल का निर्यात किया जाता था। इसलिये यह आवश्यक था कि उपज को बढ़ाया दिया जाये ताकि आन्तरिक माँगों की पूर्ति के साथ-साथ निर्यात के लिए भी जिन्स उपलब्ध हो सके।
किसानों का जीवन
कुछ मुस्लिम इतिहासकारों का मानना है कि मुगलों के समय में किसानों की स्थिति अच्छी थी जबकि अधिकांश विदेशी इतिहासकारों के अनुसार मुगल काल में किसानों की स्थिति बहुत खराब थी। पेलसर्ट के अनुसार जहाँगीर के समय में किसानों की स्थिति बहुत ही खराब थी। उनके घरों में केवल दुःखों और विपत्तियों का स्थान था। कश्मीर के लोग मोटा चावल खाते थे। बिहार के ग्रामीण केसरी दाल खाने को बाध्य थे, जिससे वे रोगग्रस्त रहते थे। मालवा के लोगों को गेहूँ के आटे की व्यवस्था करना बहुत कठिन था, इसलिए वे ज्वार के आटे का प्रयोग करते थे।
मुगलों के शासन काल में इजारेदारी के व्यापक प्रचलन से किसानों पर बुरा प्रभाव पड़ा। क्योंकि इस व्यवस्था के अन्तर्गत किसान इजारा लेने वाले व्यक्ति की दया पर निर्भर होते थे, जिनका उद्देश्य किसानों से अधिक से अधिक कर वसूल करना होता था। अतः साधारण किसान साधन सम्पन्न होे ही नहीं सकते थे। वे बड़ी निर्धनता में अपना जीवन-निर्वाह करते थे।
किसानों द्वारा घोर परिश्रम करने के बाद फसल तैयार होती थी, किन्तु भू-राजस्व एवं अन्य करों तथा चुंगियों को चुकाने के बाद उनके पास इतना अनाज बड़ी कठिनाई से बचता था कि वे अपना तथा अपने परिवार का पेट पाल सकें। किसानों के इस शोषण के विरुद्ध छुटपुट विद्रोह होते थे परन्तु उन्हें निर्ममता से कुचल दिया जाता था। औरंगजेब के काल में सतनामियों और जाटों के विद्रोह इसकी पुष्टि करते हैं। इन विद्रोहों के लिए जहाँ औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता जिम्मेदार थी वहीं किसानों के असन्तोष ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
किसानों द्वारा अपना पेट भरने के लिये केवल एक ही रास्ता था कि वे अधिक से अधिक भूमि पर खेती करें ताकि भूराजस्व चुकाने के बाद इतना अनाज बच जाये कि वे अपने परिवार का पेट भर सकें। सौभाग्य से उस समय देश की जनसंख्या कम थी तथा खेती योग्य भूमि अधिक मात्रा में उपलब्ध थी, इस कारण पूरा परिवार दिन रात हाड़ तोड़ परिश्रम करके अधिक से अधिक अन्न पैदा करता था। जिसका अधिकांश भाग रैयती जमींदार ले जाते थे। किसानों को अपनी अन्य न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिये जंगल से लकड़ी काटनी पड़ती थी तथा पशुओं के माध्यम से भी कमाई करनी पड़ती थी। बहुत से लोग रस्सी, टोकरी, छाज आदि बनाकर बेचते थे। इसलिए शोषण होने पर भी किसान खेती करता रहता था।
मुगलकालीन प्रौद्योगिकी
प्राचीन काल से ही भारत में प्रौद्योगिकी विकास की गति बहुत धीमी रही थी। मुगलकाल में भी प्रौद्योगिकी में विशेष उन्नति नहीं हुई।
धातु प्रौद्योगिकी
इस युग में धातु-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कुछ उन्नति हुई। कांसे, पीतल, लोहे, सोना और चाँदी के बर्तन, मूर्तियाँ बनाने की प्रौद्योगिकी पहले की ही तरह चलती रही। धातु को गर्म करके उसे पीट-पीटकर चद्दरें बनाई जाती थीं और उन चद्दरों से तश्तरियाँ, थालियाँ, कटोरियाँ आदि बनाई जाती थीं। इस काल में पीतल की सुन्दर कलात्मक सुराहियाँ बनाने की तकनीक विकसित हुई। धातु के बर्तनों पर सुन्दर नक्काशी का काम होता था। अच्छी किस्म के शुद्ध लोहे से तलवारें एवं बरछियाँ बनाई जाती थीं। अस्त्र-शस्त्र बनाने की प्रौद्योगिकी तथा आभूषण बनाने की प्रौद्योगिकी में विकास देखा गया।
काष्ठ प्रौद्योगिकी
यद्यपि इस समय तक युद्धों में रथों का प्रयोग कम हो गया था, फिर भी काष्ठ-प्रौद्योगिकी से रथों का निर्माण होता रहा। मुगलों की अपनी कोई नौ-सेना विकसित नहीं हुई थी, फिर भी समुद्र तटीय राज्यों द्वारा अपनी सेनाओं के लिये बड़ी नावों एवं जहाजों का निर्माण किया जाता था। युद्ध के साथ-साथ व्यापारिक आवश्यकताओं के लिये भी बड़ी नौकाओं की आवश्यकता थी। माल ढोने के लिए मालवाहक जहाजों का भी निर्माण किया जाने लगा। इनके अलावा लकड़ी का सुन्दर सजावटी सामान पहले की ही तरह सम्पूर्ण भारत में होता रहा। उसकी तकनीक में कोई विशेष विकास नहीं हुआ।
आभूषण प्रौद्योगिकी
मुगल बादशाह, शहजादे तथा बेगमें आभूषण पहनने एवं रखने के बड़े शौकीन थे इसलिये आभूषण बनाने वाले कारीगर नई-नई डिजाइन के आभूषण तैयार करते थे जिनमें तकनीकी कौशल स्पष्ट दिखाई देता था।
कृषि प्रौद्योगिकी
कृषि प्रौद्योगिकी में सीमित विकास हुआ। अधिकतर खेती पहले की ही तरह वर्षा पर निर्भर थी। बहुत कम संख्या में नदियों पर बांध बनाये गये थे तथा बहुत कम संख्या में नदियों से नहरें निकाली गई थीं। मुगल शासकों ने मध्य एशिया में पैदा होने वाली कुछ फसलों को भारत में उगाने के प्रयास किये। उन्होंने नये फल-फूलों को पैदा करने की तकनीकी विकसित की। खेती के कुछ नये उपकरणों का भी विकास हुआ जिनकी सहायता से आलू की फसल तैयार की जाने लगी तथा अँगूरों की खेती की जाने लगी। भारत में पहली बार तरबूज पैदा किये गये। यद्यपि खेत जोतने के लिए हल का ही प्रयोग किया जाता था किन्तु अब हल के नीचे लोहे के तीखे फलक लगाये जाने लगे जिससे भूमि को अधिक गहराई तक खोदा जा सके। फसल काटने के लिए लोहे की दरांती का प्रयोग किया जाता था। तैयार फसल को खलिहान में साफ करने तथा उससे भूसी निकालने की परम्परागत पद्धति ही काम में ली जाती थी। स्पष्ट है कि कुछ नई फसलें पैदा करने और कुछ नये उपकरणों का निर्माण करने के अतिरिक्त कृषि प्रौद्योगिकी में विशेष प्रगति नहीं हुई।
युद्ध प्रौद्योगिकी
इस काल में युद्ध प्रौद्योगिकी का काफी विकास हुआ। मुसलमानों ने युद्धों में तोपों और बन्दूकों का प्रयोग आरम्भ किया। अतः भारत में तोपें और बारूद बनाने की प्रौद्योगिकी का विकास हुआ। बाबर ने भारत में पहली बार युद्ध क्षेत्र में तुलुगमा पद्धति का प्रयोग किया, जो भारतीय सेनाओं के विरुद्ध अधिक सफल रही। इसलिये अब शत्रु सेना को घेरने की नई रणनीतियों का प्रयोग किया जाने लगा। अब सैनिकों की सुरक्षा के लिए धातु-निर्मित कवचों का प्रयोग अत्यधिक बढ़ गया परन्तु अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण की प्रौद्योगिकी में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ।
वस्त्र प्रौद्योगिकी
मुगल काल में वस्त्र प्रौद्योगिकी, विशेषकर सूती, ऊनी और रेशमी कपड़ा तैयार करने की प्रौद्योगिकी का बहुत विकास हुआ। इस कारण इस काल में वस्त्र उद्योग भारत का सबसे बड़ा उद्योग बन गया। नये प्रकार के कपड़े तैयार होने लगे। ढाका की बनी हुई मलमल पूरे विश्व में अपनी बारीकी के लिए प्रसिद्ध हो गई। ढाका में ऐसे करघे बनाये गये जिनसे बना हुआ कपड़ा अधिक कीमत का होता था। बादशाहों एवं शासक वर्ग के लोगों के लिये लाहौर और लखनऊ में चीकन का कपड़ा तैयार किया जाता था। कालीकट के सिरोंज का कपड़ा अत्यन्त बारीक होता था। रेशमी वस्त्रों पर सोने-चाँदी के तारों से कसीदाकारी की जाती थी। कश्मीर में बहुत ही मुलायम ऊनी शाल बनाये जाते थे। इस काल में कपड़ों की रंगाई और छपाई में नये प्रयोग हुए। रसायनों से रंग तैयार किये जाते थे। बांधनू की रंगाई अत्यन्त प्रसिद्ध थी।
कागज-प्रौद्योगिकी
मुगल काल में कागज प्रौद्योगिकी का विशेष विकास नहीं हुआ। फिर भी दिल्ली, आगरा तथा लाहौर में कागज बनाये जाने का उल्लेख मिलता है। बहुसंख्यक हस्तलेखों से भी कागज की उपलब्धता प्रमाणित होती है। लाहौर तथा आगरा के शाही कारखानों में कागज तैयार किया जाता था। विभिन्न प्रयोगों के लिए विभिन्न प्रकार के कागज बनाने की प्रौद्योगिकी विकसित हुई, जैसे शाही फरमानों के लिए शोभायुक्त कागज तथा व्यापारियों और दलालों के लिए टिकाऊ प्रकार का कागज बनाया जाता था। जिल्दसाजी के लिए मजबूत कागज बनाया जाता था।
चर्म प्रौद्योगिकी
मुगल काल में चमड़े से विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ बनाने की तकनीक का भी विकास हुआ। घोड़ों के लिए काठी, लगाम, तलवार के लिए म्यान, जूते, पानी के मशक आदि वस्तुएं बड़ी मात्रा में बनाई जाती थीं। गुजरात में चमड़े की वस्तुएँ बड़ी मात्रा में बनती थीं जिनका अरब देशों में निर्यात किया जाता था। इस काल में गन्ने से चीनी बनाने की तकनीक विकसित हुई। लाहौर, दिल्ली तथा आगरा चीनी उद्योग के बड़े केन्द्र थे।
स्थापत्य एवं शिल्प प्रौद्योगिकी
मुगल काल में भवन निर्माण, नगर-नियोजन एवं मूर्तियाँ बनाने की प्रौद्योगिकी का अच्छा विकास हुआ। भवन निर्माण प्रौद्योगिकी में मुस्लिम शैली का प्रयोग किया गया। अधिकतर इमारतें लाल पत्थर की बनाई गईं। बड़े-बड़े पत्थरों को काटकर उन्हें उचित आकार देना तथा उन्हें आकर्षक बनाने के लिए उन पर विभिन्न आकृतियों ऊकेरना शिल्पकारों की उच्च तकनीक का प्रमाण हैं। दिल्ली का लाल किला और फतेहपुर सीकरी की इमारतें इस युग की उच्च स्थापत्य एवं शिल्प प्रौद्योगिकी के श्रेष्ठ उदारहरण हैं। कुछ मुगल शासकों तथा उनकी बेगमों के मकबरे संगमरमर पत्थर से बनाये गये। संगमरमर के पत्थरों पर की गई नक्काशी अत्यंत उच्च कोटि की है। मुमताज महल का मकबरा ताजमहल, आबू का देलवाड़ा मन्दिर और फतेहपुर सीकरी में शेख सलीम चिश्ती का मकबरा, संगमरमर के भवन-निर्माण प्रौद्योगिकी के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। यद्यपि मूर्तियां बनाना इस्लाम के विरुद्ध था, फिर भी विभिन्न सूबों में देव प्रतिमाओं का निर्माण होता रहा। संगमरमर के बड़े-बड़े शिलाखण्डों को उचित आकार में काटकर छैनी और हथोड़े से प्रतिमा-निर्माण की प्रौद्योगिकी का भी विकास हुआ। हाथी दाँत के सुन्दर खिलौने और कंगन बनाने की तकनीक मौर्य काल से ही चली आ रही थी। उसमें भी कुछ विकास हुआ।
वनस्पति आधारित प्रौद्योगिकी
सैनिकों को निरंतर लड़ते रहने के लिये अफीम का सेवन करना पड़ता था। मुगल काल में युद्ध निरंतर चलते रहते थे इसलिये अफीम का सेवन भी बहुत बढ़ गया था। इसलिए इस काल में अफीम की खेती भी बढ़ी और उसके पौधे के फूलों से रस निकालकर अफीम तैयार करने की तकनीक भी विकसित हुई। कश्मीर में तथा कुछ अन्य स्थानों पर तिल तथा अरण्डी के बीज से तेल निकालने की तकनीक विकसित हुई। बंगाल और उड़ीसा में पैदा होने वाली लाख से स्त्रियों के लिए चूड़ियाँ, कंगन-कड़े आदि बनाये जाने लगे। गुजरात में इन कंगनों और कड़ों पर रंगीन कांच के टुकड़े लगाकर उन्हें आकर्षक बनाने की कला विकसित हुई। बेंत और बांस के वृक्षों से बांस आदि को छीलकर टोकरी, चटाइयाँ आदि बनाई जाती थीं। माना जाता है कि मुसलमानों ने भारत में शतरंज का खेल प्रचलित किया। मुगल काल में भारत के विभिन्न भागों में शतरंज के पट्टे एवं मोहरे बनाये जाने लगे। लकड़ी एवं हाथी दाँत से चौपड़ की गोटियाँ बनाई जाती थीं।
निष्कर्ष
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि मुगल काल में युद्ध, वस्त्र, भवन, नगर नियोजन, धातु उद्योग, काष्ठ उद्योग, हाथी दाँत उद्योग आदि क्षेत्रों में प्रौद्योगिकी का पर्याप्त विकास हुआ किंतु कृषि क्षेत्र में प्रौद्योगिकी का विशेष विकास नहीं हुआ।
मुगल कालीन उद्योग
मुगल काल में गाँवों तथा नगरीय क्षेत्रों में शिल्पी तथा कारीगर आदि श्रमजीवी जातियां अपने पुराने पारिवारिक एवं परम्परागत कार्यों को करती थीं। उनके औजारों में भी विशेष तकनीकी विकास नहीं हुआ था। इस कारण मुगल काल में किसी भी उद्योग का बड़े पैमाने पर विकास नहीं हुआ। अधिकांश उद्योग स्थानीय थे जो पिता से पुत्र को हस्तान्तरित होते थे। लगातार एक ही काम करते रहने से देश के कई नगर और क्षेत्र अपने विशिष्ट और श्रेष्ठ उत्पादों के लिए विख्यात हो गये थे। फारस की पद्धति के अनुसार राज्य की ओर से कुछ शाही कारखानों की स्थापना की गई थी। जिनमें शाही तथा दरबारी लोगों की आवश्यकता की चीजें बनाई जाती थीं। इनमें सुनार, किमखाब या रेशम तैयार करने वाले, कसीदाकारी करने वाले, चित्रकार, दर्जी, मलमल तथा पगड़ी बनाने वाले आदि अनेक प्रकार के कारीगर होते थे, जो साथ मिलकर काम करते थे। प्रान्तों में भी स्थानीय माँग के अनुसार विभिन्न प्रकार की चीजों को बनाने के कारखाने स्थापित किये गये थे।
वस्त्र उद्योग
यह प्राचीन उद्योग था तथा मुगल काल में सबसे बड़ा उद्योग था जिसका विस्तार सम्पूर्ण देश में हुआ। इसके मुख्य केन्द्र बंगाल, गुजरात, बनारस, उड़ीसा और मालवा थे। मुगल काल में सूरत, काम्बे, पटना, बुरहानपुर, दिल्ली, आगरा, लाहौर, मुल्तान, ठट्टा आदि नगर भी विशेष प्रकार के कपड़े तैयार करने के लिए प्रसिद्ध हो गये थे। नये प्रकार के कपड़ों में बैरामी, शानबफ, शीरीबफ और कत्तने रूमी की शुरूआत हो चुकी थी। ढाका में बनी मलमल पूरे विश्व में अपनी बारीकी के लिए प्रसिद्ध हो चुकी थी। इसकी श्रेष्ठता को देखकर विदेशी यात्री भी चकित हो जाते थे। सोनार गाँव में अति उत्तम प्रकार की मलमल तैयार की जाती थी जिसके एक टुकड़े की कीमत चार हजार रुपये तक होती थी। उत्तम प्रकार की मलमल को बड़े सुन्दर नाम दिये गये थे, जैसे मलमल खास (बादशाह के लिये मलमल), सरकार-ए-आली (नवाबों के लिए निमित्त), आब-ए-रमान (जल-प्रवाह), शबनम (ओस) आदि। ढाका में करघे पर तैयार किये गये कपड़े सबसे अधिक महंगे होते थे। समाना और सुल्तानपुर उत्तम वस्त्रों के लिए विख्यात थे। जौनपुर तो आज भी उत्तम प्रकार की दरियों के लिए विख्यात है। कालीकट के सिरोंज के कपड़े तो इतने बारीक होते थे कि उसे पहनने पर भी आदमी नंगा दिखता था।
कासिम बाजार, माल्दा, मुर्शिदाबाद, पटना, काश्मीर और बनारस रेशम उद्योग के मुख्य केन्द्र थे। गुजरात में रेशम का उत्पादन नहीं होता था किन्तु वहाँ रेशम की बुनाई का काम अच्छा होता था। रेशम से तथा रेशमी, सुनहले सोने तथा चाँदी मढ़े सूतों से सूरत में दरियाँ तैयार होती थीं। गुजरात भी किमखाब, बदला कुर्त्ता, कसीदाकारी के वस्त्र तथा किनारी (चाँदीतार) आदि के लिए प्रसिद्ध था। असम भी रेशमी कपड़ों के लिए प्रसिद्ध था। दक्षिण में कोयंबटूर के निकट रेशम उत्पादन का एक बड़ा केन्द्र था।
ऊन उद्योग
भारत के रेगिस्तानी एवं पहाड़ी क्षेत्रों में भेड़ पालन बड़े पैमाने पर होने के कारण काबुल, काश्मीर तथा पश्चिमी राजस्थान के जोधपुर, जैसलमेर तथा बीकानेर आदि शहर ऊन तैयार करने के प्रसिद्ध केन्द्र थे। उत्तम प्रकार की ऊन तिब्बत से आती थी। काश्मीर के शॉल बहुत मुलायम तथा गर्म होते थे। काश्मीर में शॉल के साथ-साथ विविध प्रकार के ऊनी वस्त्र एवं कम्बल भी तैयार होते थे। लाहौर, आगरा, पटना में भी बड़े स्तर पर शॉल बनते थे। बुरहानपुर, जौनपुर तथा अमृतसर में ऊनी वस्त्र उद्योग खूब फल-फूल गया था।
रंगाई उद्योग
इस काल में रंगाई उद्योग भी खूब विकसित था। लाहौर और उसके आसपास पर्याप्त मात्रा में नील का उत्पादन होता था। दिल्ली सूती वस्त्र रंगने में, विशेष रूप से बांधनू की रंगाई के काम के लिए प्रसिद्ध था। बैना तथा समीपवर्ती क्षेत्रों का रंगाई का काम अति उत्तम माना जाता था। दूसरे दर्जे की उत्तम रंगाई गुजरात में सरखेज तथा गोलकुण्डा में की जाती थी। रंगाई के अन्य महत्त्वपूर्ण केन्द्र आगरा, लखनऊ, अहमदाबाद, फरूखाबाद तथा मछलीपट्टम थे। बंगाल में ढाका तथा कासिम बाजार कपड़ा रंगाई के मुख्य केन्द्र थे।
धातु उद्योग
भारतीय वैदिक सभ्यता से ही धातुओं का उपयोग करना सीख गये थे। मौर्य काल में धातु कला का विस्तार हुआ था। भारतवासी लोहे को शुद्ध करने की प्रक्रिया से अच्छी तरह परिचित थे। समकालीन संस्कृत साहित्य में भिन्न प्रकार के लोहे के गुणों का विवरण मिलता है। मुगल काल में लोहा, ताम्बा, पीतल, सोना, चाँदी, जस्ता आदि विभिन्न धातुओं का बड़े स्तर पर उपयोग होता था। लोहे का उपयोग धारिया, तलवारें, हथियार तथा बरछे बनाने में होता था। सर्वोत्तम इस्पात का उपयोग तलवारों और बरछों के निर्माण में होता था, जिनकी अरब तथा फारस के देशों में बड़ी माँग थी। श्रीनगर, लाहौर, आगरा, मुल्तान, वजीराबाद, भड़ौंच, ढाका तथा चटगाँव में नावें, रथ तथा लकड़ी की कई प्रकार की सामग्री बनाई जाती थीं। मुगलों के पास नियमित नौ-सेना नहीं थी, अतः जहाजों के निर्माण को अधिक प्रोत्साहन नहीं मिला, फिर भी लाहौर, वजीराबाद, कोरोमण्डल तट पर मडापल्लम तथा नसीपुर में मालवाहक जहाजों का निर्माण और उनकी मरम्मत होती थी।
कागज उद्योग
मुगल काल में कागज के प्रयोग का उल्लेख मिलता है किंतु यह उद्योग अधिक विकसित अवस्था में नहीं था। अमीर खुसरो ने कोरे तथा रेशम की भाँति शमी तथा सीरियन कागज के दिल्ली में बनाये जाने का उल्लेख किया है। चीनी यात्री माहुआन, जिसने सुल्तान गियासुद्दीन आजमशाह के काल में बंगाल का भ्रमण किया था, ने वृक्ष की छाल से श्वेत चमकीले कागज के उत्पादन का उल्लेख किया है। बहुसंख्यक हस्तलेखों से भी कागज की उपलब्धता का प्रमाण मिलता है। कागज निर्माण के मुख्य केन्द्र पटना, दिल्ली, राजगीर, शहजादपुर, सियालकोट, मानसिंघी तथा खरपुरी में थे। मानसिंघी कागज को उसकी रेशमी बनावट, श्वेत रंग तथा टिकाऊ होने से बहुत पसन्द किया जाता था। लाहौर तथा आगरा में स्थापित शाही कारखाने भी कागज का उत्पादन करते थे। सर्वोत्तम कागज कश्मीर में बनता था। विभिन्न प्रकार के कागज विभिन्न प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होते थे। शोभायुक्त कागज का उपयोग शाही फरमानों के लिए होता था, टिकाऊ प्रकार के कागज का प्रयोग व्यापारियों तथा दलालों के लेखा के निमित्त तथा बुद्धिजीवियों द्वारा होता था और जिल्दसाजी के लिए मोटे तथा मजबूत कागज का प्रयोग होता था। सामान्यतः प्रान्तांे तथा बड़े नगरों के बाहर कागज बनाने का छोटा गाँव होता था, जिसे कागजी मोहल्ला अथवा कागजीपुर कहा जाता था। फरूखाबाद में आज भी कागजी बाजार नाम की एक गली है।
चमड़ा उद्योग
मुगलकाल में चमड़े के विभिन्न प्रकार के सामान का उपयोग होता था। जूते, चमड़े के जैकेट, तम्बू, घोड़ों के लिए काठी तथा लगाम, तलवार के लिए म्यान, ढाल, सामान रखने के थैले, चटाई, पानी की मशक, बैलगाड़ियों के पर्दे आदि के लिये चमड़े की मांग रहती थी। बंगाल में चमड़े का उपयोग विदेशों को निर्यात की जाने वाली चीनी की पैकिंग में किया जाता था। सिन्ध में बने चमड़े के सामान उत्तम माने जाते थे। दिल्ली में भी सम्पन्न चमड़ा उद्योग स्थापित था। कैंबे, चप्पलों के लिए प्रसिद्ध था। गुजरात सोने और चाँदी से कढ़ी चमड़े की चटाइयों के लिए प्रसिद्ध था। वहाँ चमड़े की वस्तुएँ बड़ी मात्रा में बनती थी जिनका अरब देशों को निर्यात होता था। असम के जंगलों में सांडों तथा हिरणों की बहुतायत से चमड़ा उद्योग विकसित अवस्था में था। पश्चिमी राजस्थान में भी चमड़े की युद्धोपयोगी एवं घरेलू उपभोग की विविध सामग्री बनती थी।
चीनी उद्योग
चीनी की खपत देशभर में प्रचुर मात्रा में होती थी। चीनी गन्ने से तैयार की जाती थी, जो लाहौर से आगरा तक के समस्त क्षेत्र में तथा बंगाल, अजमेर एवं मालवा तक विस्तृत बहुत बड़े क्षेत्र में पैदा किया जाता था। उत्तम प्रकार की चीनी लाहौर, दिल्ली, बियाना, कालपी, पटना तथा आगरा में बनाई जाती थी। पटना में बनने वाली चीनी बंगाल को निर्यात की जाती थी।
मिट्टी के खिलौने एवं बर्तन उद्योग
मुगल काल में मिट्टी के बर्तन बनाने का काम पूरे देश में होता था। बुरहानपुर, वैलोर, कुम्भाकोनम तथा महरई चमकीले बर्तनों के लिए प्रसिद्ध थे। मिट्टी के बर्तनों पर चमकीले कलात्मक तथा शोभायुक्त डिजाइन बनाते थे। दिल्ली, लखनऊ और काश्मीर इस उद्योग के मुख्य केन्द्र थे। इस प्रकार मिट्टी के बर्तन बनाने का उद्योग देशभर में व्याप्त था किंतु मिट्टी की मूर्तियाँ एवं खिलौने बनाने का उद्योग मुगल काल में लगभग बंद हो गया। इसका मुख्य कारण इस्लाम का प्रसार था जिसमें आदमी तथा जानवरों के बुत एवं चित्र बनाने का निषेध था। फिर भी केन्द्रीय एवं प्रांतीय राजधानी से दूर स्थित ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों के खिलौने बनाने का काम होता रहा।
कृषि आधारित उद्योग
मुगलकाल में विभिन्न कृषि उत्पादनों- नारियल, गिंगली, तिल तथा अरण्डी के बीज से तेल निकालने के उद्योग विकसित अवस्था में थे। खुशबूदार तेल, इत्र, मसाले, दवायें, शरबत आदि भी बनते थे। नूरजहाँ ने इत्र एवं खुशबूदार तेल बनाने के क्षेत्र में कई नये प्रयोग किये। मूंझ की रस्सी बनाकर उससे चारपाइयां एवं चटाइयां बुनी जाती थीं। सिरकियों से चटाइयां एवं टट्टियां बनाई जाती थीं। खस की टट्टियां भी बड़े पैमाने पर बनती थीं।
विविध उद्योग
मुगल काल में पत्थर पर नक्काशी करने, कांच की बोतलें बनाने तथा जालीदार झरोखे एवं खिड़कियां तैयार करने के काम बड़े स्तर पर होते थे जो बादशाहों एवं अमीरों के मकानों में काम आते थे। काश्मीर लकड़ी के विभिन्न उत्पादों के लिये प्रसिद्ध था। बेंत एवं बाँस से टोकरी, चटाई, छतें तथा झौंपड़ी बनाने तथा सजाने का काम होता था। बंगाल तथा उड़ीसा में लाख पैदा होता था। इससे स्त्रियों के कंगन, कड़े तथा बच्चों के खिलौने बनाये जाते थे। इसका मुख्य उद्योग गुजरात में था। हाथी दाँत का काम करने वाले जड़ाऊ तथा अन्य प्रकार की वस्तुएँ बनाने में बड़े निपुण थे। इनमें कड़े, कंगन, शतरंज के पट्टे तथा शतरंज के मोहरे मुख्य थे। दिल्ली तथा पूर्वाेत्तर मुल्तान इस कार्य के लिए प्रसिद्ध थे। देश के विभिन्न भागों में विविध प्रकार के आभूषण बनाने एवं उन पर मीनाकरी तथा पच्चीकारी करने का काम बड़े पैमाने पर होता था। विदेशी यात्री नूनीज ने 1509 ई. से 1529 ई. के बीच विजयनगर का भ्रमण किया था। उसने लिखा है कि भारत में हाथी दाँत के गुटके बनाये जाते थे जिन पर सोने की पच्चीकारी की जाती थी।
मुगल काल में आन्तरिक एवं बाह्य, दोनों प्रकार का व्यापार उन्नति पर था। पुरातन समय से ही भारत के बाह्य देशों के साथ वाणिज्यिक सम्बन्ध थे। देश की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के पश्चात् जो सामग्री शेष बचती थी, उसका बाह्य देशों में निर्यात कर दिया जाता था। यातायात एवं परिवहन की समस्या व्यापारियों तथा सामान ले जाने वाले साधनों से पूर्ण होती थी। देश में व्यापार के लिए अनेक सड़कें तथा रास्ते थे, जो सरकार द्वारा सुरक्षित रखे जाते थे। इन सड़कों से युद्ध के समय विशाल सेनाएँ गुजरती थीं। उस समय भाप के जहाज के अभाव के कारण समुद्री व्यापार खतरनाक था, फिर भी व्यापारी तथा विदेशी सौदागर माल बाहर ले जाते थे।
विदेशी व्यापार
सल्तनतकाल में भारत का व्यापार प्रशान्त महासागर और भू-मध्यसागर के देशों तक फैला हुआ था। अरबी यात्री भारत के माल को इन देशों में ले जाकर बेचते थे और वहाँ से सोना, रत्न, मोती, खजूर, घोड़े आदि विविध सामान भारत में लाते थे। मुल्तान और काश्मीर के रास्ते एशियाई देशों के साथ थल मार्ग से व्यापार होता था। लाहौर, मुल्तान, लाहरीबन्दर (सिन्ध में), कैम्बे, पटना, आगरा आदि में बड़े बाजार थे जहाँ विदेशों से वस्तुएँ आती थीं और देश के विभिन्न भागों में भेजी जाती थीं। विदेशी व्यापार दो मार्गों से होता था- (1) समुद्री मार्ग तथा (2) स्थल मार्ग द्वारा।
विदेशी व्यापारी नील, शोरा तथा बुने हुए वस्त्रों के बदले सौंदर्य एवं प्रसाधन सामग्री भारत लाते थे। इस सामग्री को गुजरात, दिल्ली, आगरा, राजस्थान तथा मालवा के बाजारों में बेचा जाता था।
समुद्री व्यापार
अधिकतर समुद्री व्यापार ‘अफ्रीकी’ व्यापारियों के हाथ में था। कुछ सीमा तक इस व्यापार पर उनका एकाधिकार था। भारत को पश्चिमी देशों के साथ मिलाने वाले दो मुख्य सीधे समुद्री मार्ग थे- एक तो फारस की खाड़ी वाला तथा दूसरा लाल समुद्र वाला। लाल समुद्री मार्ग खतरनाक चट्टानों, पथरीले मार्गों एवं कोहरा आदि बाधाओं के कारण दुष्कर था। अतः नाविक तथा सौदागर फारस की खाड़ी वाले मार्ग को अधिक पसन्द करते थे। यह मार्ग ईराक में बगदाद से चीन में कैण्टन तक जाता था। अरब यात्री इब्नबतूता (1333-1346 ई.) को अदन में हिन्दू सौदागरों के बहुत से जहाज मिले। उनमें कैम्बे, किलन तथा कालीकट आदि कई बन्दरगाहों से माल लाया गया था। वहाँ से भारतीय माल अफ्रीका के समुद्री तट दमिश्क और सिकंदरिया तथा यूरोप के विभिन्न देशों को ले जाया जाता था। इन बन्दरगाहों से भारतीय माल चीन, लंका, इण्डोनेशिया तथा भारतीय टापुओं को जाता था।
मुगल काल में भारत में अनेक महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह थे जहाँ विश्व के विभिन्न भागों से बड़ी संख्या में व्यापारी आते थे। पश्चिमी सीमा में लहारीबन्दर, गुजरात में कैंबे, गोआ और कोचीन तथा पूर्वी तटीय मछलीपट्टम, पुलीकट तथा नजरकटन एवं बंगाल में हुगली, सतगाँव, श्रीपुरा तथा चटगाँव आदि बंदरगाह उल्लेखनीय थे। अरब तथा फारस के जहाज खजूर, फल, घोड़ों, समुद्री मोतियों तथा रत्नों को लेकर भारत आते थे और उनके बदले में गुड़, चीनी, मक्खन, जैतून के फल, नारियल तथा कपड़े ले जाते थे। विविध प्रकार की धातुओं से बने बर्तन और विभिन्न प्रकार की विलास की वस्तुएँ भी भारत से निर्यात की जाती थीं। अफगानिस्तान, फारस तथा मध्य एशिया के साथ मुल्तान, कोटा तथा खैबर दर्रे के रास्ते से स्थल मार्ग व्यापार के अतिरिक्त माल कारोमण्डल, समुद्री तट के रास्ते से फारस ले जाया जाता था।
मुगल काल में भारतीय निर्यात की मुख्य वस्तुएँ, सूती कपड़ा, अनाज, तेल के बीज, ज्वार, चीनी, चावल, नील, सुगंधित पदार्थ, सुगन्धित लकड़ी तथा पौधे, कर्पूर, लवंग, नारियल, विभिन्न जानवरों की खालें, गेंडे तथा चीते की खाल, चंदन की लकड़ी, अफीम, काली मिर्च तथा लहसुन थे। विदेशों में भारतीय कपास से बने कपड़ों की बड़ी माँग थी। यह माँग जावा, सुमात्रा, बोड़ा, मलाया, बोर्नियो, अकनि, पेगु, स्याम, बेटम आदि पूर्वी देशों तक ही सीमित नहीं थी, अपितु पश्चिमी देशों में भी भारतीय सूती कपड़े की पर्याप्त माँग थी। वर्थया ने भारत भ्रमण (1503-1508 ई.) के विवरण में लिखा है कि गुजरात की कैम्बे तथा बंगाल की बंगला दो बंदरगाह समस्त फारस, तातार, तुर्की, सीरिया, बर्बरी अर्थात् अफ्रीका, अरब, फेलिक्स, इथोपिया तथा भारत के समुद्रों के अनेक टापुओं को रूई तथा सिल्क के विभिन्न प्रकार के सामान भेजते थे। उसने कैम्बे से हर वर्ष जाने वाले पृथक्-पृथक देशों के तीन जहाजों का उल्लेख किया है। अनुमान है कि बंगाल से रूई तथा रेशम के 50 जहाज निर्यात होते थे। बिहार तथा मालवा में अफीम की पैदावार होती थी जो राजपूताना, बरार तथा खानदेशों को भेजी जाती थी। यहाँ से वह अफीम पेगु (लोअर बर्मा), जावा, चीन, मलाया, फारस एवं अरब देशों को भेजी जाती थी।
भारत में मुगल काल में सोने तथा चाँदी की खानें नहीं थीं इसलिये ये धातुएं विदेशों से आयात की जाती थीं। इन धातुओं को भारत से बाहर भेजे जाने पर रोक थी। विदेशी व्यापारी सोना तथा चाँदी लेकर आते थे और उसके बदले में बहुत सी वस्तुएँ ले जाते थे। सोना मुख्यतः चीन, जापान, मलक्का, तथा अन्य समीपवर्ती देशों से, मूँगा पेगु से तथा मोती और विभिन्न प्रकार के रत्न फारस तथा अरब से आते थे।
स्थलीय व्यापार
मुगलों के शासन काल में थल मार्ग से सीमांत देशों के साथ होने वाले व्यापार में अभूतपूर्व प्रगति हुई। बाबर के अनुसार भारत और काबुल के बीच सफल व्यापार होता था। भारत, अपने सीमांत देशों, मध्य एशियाई देशों और अफगानिस्तान से सूखे मेवे, ताजे फल, अम्बर हींग, खुरखुरे लाल पत्थर आदि का आयात करता था तथा इसके बदले में कपड़े, कम्बल, चीनी, नील, औषधि सम्बन्धी जड़ी-बूटी आदि का निर्यात करता था। हिमालय के राज्यों तथा तिब्बत से कस्तूरी, चीनी लकड़ी, खेतचीनी, अमीरा (आँखों की एक मूल औषधि), जेद, बढ़िया ऊन, सोना, ताँबा, सीसा, तिब्बती गाय की दुम, शहद, सोहागा, मोम, ऊनी सामान तथा बाज पक्षी से लदे हुए काफिले भारत आते थे। नेपाल से भारत को पशु तथा सींग, कस्तूरी, सोहागा, चिरैता (औषधि की जड़ी-बूटी), मजीह (रंग), इलायची, चौरीस (तिब्बती गाय की दुम), महीन रोयें, बाज पक्षी तथा बालचर (सुगंधित घास) आते थे। इनके बदले में तैयार वस्त्र, नमक, धातु, चीनी, मसाले आदि नेपाल को जाते थे। भूटान से भारत को कस्तूरी तथा तिब्बती गाय की दुम आते थे। पुर्तगाली डाकुओं के कारण पेगु के साथ भारत का व्यापार बहुत सफल नहीं था। पेगु को भारत में बुने हुए कपड़े के थान, सूत तथा अफीम का निर्यात होता था। इसके बदले में सोने, चाँदी तथा मूल्यवान पत्थर भारत आते थे। खुरासानी व्यापारी तुर्की गुलामों और सुस्त्री नामक कपड़े का व्यापार करते थे। बाबर और हुमायूँ के काल में इस व्यापार की काफी उन्नति हुई। तुर्किस्तान में रहने वाले अजाक लोग भारत को निर्यात करने के लिए घोड़े पालते थे। 6,000 अथवा इससे अधिक के झुण्डों में घोड़े भारत भेजे जाते थे। अरब यात्री इब्नबतूता ने वर्णन किया है कि हीरमुज, अदन, क्रीमिया तथा अजाक से अच्छी नस्ल के घोड़े भारत को भेजे जाते थे। इन घोड़ों को सिंध तथा मुल्तान दोनों स्थानों में पाला जाता था।
व्यापार सन्तुलन
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि व्यापार का सन्तुलन भारत के पक्ष में था। विभिन्न देशों के व्यापारी भारतीय बन्दरगाहों पर आते थे तथा उपयोगी वस्तुएँ, जड़ी-बूटियाँ और गोंद के बदले में सोना तथा रेशम देते थे। यह क्रम मौर्यों के समय से चल रहा था जो कि मुगलों के समय में भी चलता रहा। इसीलिए भारत में सोने और चाँदी का विपुल भण्डार हो गया। इसी विपुल सम्पदा के कारण विदेशी आक्रान्ता भारत की ओर आकर्षित होते थे।
विदेशी तथा भारतीय व्यापारी
आन्तरिक व्यापार
भारत के समुद्री व्यापार में अरब तथा तुर्की के व्यापारी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। खुरासानी व्यापारी चीन, फारस, अरब तथा भूमध्य स्थित देशों एवं भारत के साथ थल व्यापार में बड़े सक्रिय थे। उत्तर भारत के मुल्तानी, गुजराती, बनिये, राजपूताना, मध्य भारत तथा गुजरात के बंजारे आदि ऐसे व्यापारी थे जो दूर देशों के साथ व्यापार करते थे। उनमें से कइयों के पास अपने बड़े जहाज थे। इटली के यात्री निकोलो कोंटी (1419-1444 ई.) का कहना है कि इन व्यापारियों में से एक व्यापारी इतना धनाढ्य था कि उसके पास अपना माल ढोने के 40 जहाज थे। भारतीय व्यापारी अधिकतर व्यापार पूर्वी अफ्रीका, लाल समुद्री बन्दरगाहों, फारस की खाड़ी के देशों तथा दक्षिणी पूर्वी एशिया के भागों, विशेषकर सुमात्रा तक करते थे। दिल्ली सल्तनत के सुल्तान तथा उनके उत्तरवर्ती मुगल विदेशी व्यापार के हक में नहीं थे। इन मुसलमान शासकों ने भारतीय व्यापारियों के हितों की रक्षा भी नहीं की। 1547 ई. में एक समझौते के द्वारा विजयनगर का समुद्री व्यापार पुर्तगालियों के कारण सुरक्षित नहीं था। भारतीय व्यापारियों को अपनी सुरक्षा की व्यवस्था स्वयं करनी पड़ती थी। भारत के विदेशी व्यापार में वृद्धि के लिये विदेशी व्यापारी ही मुख्य रूप से उत्तरदायी थे। जब वास्को-डी-गामा ने 1498 ई. में अन्तरीप द्वीपसमूह का मार्ग ज्ञात किया था, उसके बाद लगभग एक शताब्दी तक भारतीय समुद्री व्यापार पर पुर्तगालियों का एकाधिकार रहा। पुलीकट, कासिम बाजार, पटना, बेलसर, नाजपट्टम तथा कोचीन में उनके मुख्य कारखाने थे। अरब वाले, जो पहले इस व्यापार में बहुत भाग लेते थे, अब भारत के साथ होने वाले समुद्री व्यापार से लगभग पूरी तरह हटा दिये गये।
विदेशी यात्रियों के वर्णनों में तथा समकालीन भारतीय साहित्य में भारत के आन्तरिक व्यापार की जानकारी मिलती है। प्रत्येक नगर में एक बाजार होता था। नियत अंतरालों पर समीपवर्ती गाँवों तथा कस्बों से पर्याप्त लोग तथा व्यापारी इन बाजारों में आते थे और खूब व्यापार होता था। फेरी लगाकर माल बेचने वाले तथा अन्य प्रकार के व्यापारी बहुत थे जो उपभोक्ताओं की जरूरतें पूरी करते थे। राजपूताने के बनजारे हर प्रकार की चीजें जैसे अनाज, चीनी, मक्खन तथा नमक बैलगाड़ियों पर लादकर एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाते थे। कई बार ये काफिले 40,000 बैलों के हो जाते थे। अन्य व्यापारी भी समूहों में विचरण करते थे। वे मुल्तान, लाहौर और दिल्ली जैसी बड़ी राजधानियों के बाजारों से व्यापार करते थे।
उत्तर भारत में व्यापार गुजरातियों तथा मारवाड़ी बनियों के द्वारा एवं दक्षिण में चेतियों के द्वारा होता था। कुछ चलती-फिरती दुकानें होती थीं, जो घोड़े की पीठ पर लगाई जाती थीं। महत्त्वपूर्ण वस्तुओं का व्यापार नगर की मंडियों में होता था। बड़े पैमाने का व्यापार कुछ विशेष वर्ग तक सीमित था। भारत के महत्त्वपूर्ण व्यापारी गुजराती और मुल्तानी थे। विदेशों से आने वाले मुसलमान व्यापारियों को खुरासानी कहा जाता था। ये देश के समस्त भागों में व्यापार करते थे। बड़े-बड़े उद्योगों पर दलालों का दबदबा था।
परिवहन के साधन
मुगल काल में परिवहन के दो प्रमुख साधन थे। व्यापारिक माल प्रायः सड़कों से ले जाया जाता था। उस काल की सड़कें कच्चे मार्ग से अधिक नहीं होती थीं जिनके दोनों ओर छायादार पेड़ होते थे। यात्रियों की सुविधा के लिए स्थान-स्थान पर सराय तथा विश्रामगृह बनाये जाते थे तथा पशुओं के लिए पेयजल की व्यवस्था की जाती थी। यात्रियों को मार्ग दिखाने की सुविधा के लिए छोटी-छोटी अटारी अथवा मीनारें बनी हुई थीं। राजपूताने के भाट भी खतरनाक सड़कों पर काफिलों का मार्गदर्शन तथा सुरक्षा करते थे और उनसे पारिश्रमिक लेते थे। व्यापारिक माल के परिवहन का दूसरा माध्यम नदी थी, जो अपेक्षाकृत सस्ता था। आगरा से मुल्तान के लिए गाड़ी भाड़ा दो रुपये प्रति मन था, जबकि मुल्तान से सिंध का नाव का भाड़ा डेढ़ रुपये प्रति मन था। काश्मीर, बंगाल, सिंध तथा पंजाब में अधिकांश माल नदी मार्ग से ले जाया जाता था। लगभग समस्त बड़ी नदियों, विशेषकर गंगा, यमुना तथा झेलम से पर्याप्त परिवहन होता था। राल्फ फिच (1513-31 ई.) ने 180 नावों के बेड़े में आगरा से बंगाल तक की यात्रा की थी। थट्टा से लाहौर तक जाने में 6-7 सप्ताह का समय लगता था, जबकि वापसी यात्रा में केवल 18 दिन लगते थे।
आन्तरिक व्यापार पर अधिकारियों द्वारा स्थान-स्थान पर चुँगी ली जाती थी, उनके विभिन्न नाम- तमगा अथवा जाकट आदि होते थे। चुँगी के अतिरिक्त समस्त बड़े बाजारों तथा बन्दरगाहों पर भी लगभग ढाई प्रतिशत शुल्क देना पड़ता था। व्यापार को प्रभावित करने वाला दूसरा पहलू सड़कों पर सुरक्षा की व्यवस्था थी। मुगल बादशाहों ने सड़कों को सुरक्षित बनाने के लिये कई उपाय किये और डाकू तथा लुटेरों को कठोर दण्ड देने की व्यवस्था की परन्तु व्यापारियों में फिर भी भय बना रहता था। इस कारण वे काफिलों में शस्त्रों एवं रक्षकों सहित यात्रा करते थे।
अन्तर-प्रादेशिक व्यापार
मौर्य काल से ही भारत के विभिन्न प्रदेशों के बीच अन्तर-प्रादेशिक व्यापार होता आया था। मुगल काल में भी यह व्यापार थोड़ी बहुत बाधाओं के साथ चलता रहा।
बंगाल
मुगल काल में बंगाल से चावल, चीनी तथा मक्खन आदि खाद्य सामग्री, समुद्री मार्ग से कोरोमंडल, केपकामरिन होते हुए कराची तक भेजी जाती थी। बंगाल से गुजरात को चीनी तथा दक्षिण भारत को गेहूँ भेजा जाता था।
बिहार
मुगल काल में पटना एक प्रसिद्ध व्यापारिक नगर था। पटना से देश के विभिन्न भागों को चावल और रेशम भेजा जाता था जिसके बदले में पटना को देश के विभिन्न भागों से गेहॅँू, चीनी तथा अफीम प्राप्त होती थी।
आगरा
आगरा विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के आयात एवं निर्यात के लिए प्रसिद्ध केन्द्र था। यह बंगाल और पटना से कच्ची सिल्क तथा चीनी और पूर्वी सूबों से चावल, गेहूँ तथा मक्खन का आयात करता था। आगरा, देश तथा विदेशों में उत्तम प्रकार के नीले रंग के लिए बहुत प्रसिद्ध था। इसके समीपवर्ती क्षेत्रों, जैसे- हिंदुआन, बयाना, पंचूना, बिसौर तथा खानवा में गेहूँ की उपज होती थी। यहाँ से गेहूँ भारत के समस्त बन्दरगाहों तथा विदेशों को भेजा जाता था। यूरोपीय यात्री राल्फ फिच ने लिखा है- ‘आगरा एक विशाल नगर है। यह लन्दन से भी बड़ा और घना बसा हुआ है। इसके बाजार व्यापारियों से परिपूर्ण रहते हैं।’
लाहौर तथा मुल्तान
उत्तर-पश्चिमी भारत का सबसे बड़ा नगर लाहौर था। उसके बाद मुलतान का नम्बर आता था। काबुल, कांधार तथा फारस से होने वाला समस्त व्यापार मुल्तान तथा लाहौर से होकर होता था। इस कारण मुल्तान और लाहौर व्यापार के महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गये थे। मुल्तान चीनी, अफीम, सूती माल, गंधक तथा ऊँटों के लिए प्रसिद्ध था। लाहौर दरियों के लिए प्रसिद्ध था। फादर माँन्सेरेट ने लाहौर का वर्णन करते हुए लिखा है- ‘सम्पन्नता, जनसंख्या और क्षेत्रफल की दृष्टि से लाहौर, एशिया अथवा यूरोप के किसी नगर की तुलना में बड़ा है, जहाँ के बाजारों में सम्पूर्ण एशिया के व्यापारियों की भीड़ रहती है। इसकी आबादी इतनी अधिक है कि इसकी गलियों में लोग एक-दूसरे से भिड़ते हुए चलते हैं।’ एडवर्ड टैरी ने लिखा है- ‘लाहौर पंजाब का मुख्य नगर है। यह बहुत विशाल है जो व्यक्तियों एवं सामग्रियों से परिपूर्ण है। यह भारत में सबसे बड़ा और प्रसिद्ध व्यापारिक नगर है।’
गुजरात
गुजरात मुगल काल में भी वाणिज्य का बड़ा केन्द्र बना रहा। प्राकृतिक संसाधनों तथा वाणिज्य ने इसे भारत का धनी सूबा बना दिया। यह कपड़े की बुनाई का बड़ा केन्द्र था। गुजरात में तैयार किये गये कपड़ों के थान गुजरात के मुख्य बन्दरगाह कैंबे द्वारा दक्षिण-पूर्व एशिया तथा भारत के दूसरे भागों, विशेषकर आगरा को भेजे जाते थे। गुजरात में मालवा और अजमेर से गेहूँ तथा दक्षिणी राज्यों एवं मलाबार से चावल मँगवाया जाता था। गुजरात से आगरा तथा केरल को रूई तथा सूत्री वस्त्र और थट्टा को तम्बाकू भेजा जाता था। गुजरात के प्रमुख नगर कैंबे के बारे में बारबोसा ने लिखा है- ‘यह एक बड़ा और भव्य नगर है जिसमें अधिक व्यापारी और पूँजीपति लोग रहते हैं- दोनों हिन्दू और मुसलमान।यहाँ नाना प्रकार के यन्त्र सम्बन्धी निपुण शिल्पकार हैं।’ कैंबे गुजरात का प्रसिद्ध बन्दरगाह भी था, जहाँ से समुद्री व्यापार होता था। गुजरात में बने हुए कपड़े का निर्यात इसी बन्दरगाह से होता था। अहमदाबाद भी गुजरात का एक अन्य प्रसिद्ध नगर था।
बीदर
बीदर, जो लगभग एक शताब्दी तक बहमनी राज्य की राजधानी था, आंतरिक व्यापार का महत्त्वपूर्ण बाजार था। यह बाजार बूँटेदार कपड़े तथा सोने और रत्न जड़ित आभूषणों के लिए प्रसिद्ध थे। बीदर का बूँटेदार कपड़ा बिदरी वेयर के नाम से प्रसिद्ध था। जो ताँबे, सीस तथा रांगे का सम्मिश्रण होता था तथा सोने तथा आभूषणों से जड़ित होता था।
सिंध
मुगलकाल में सिंध से गेहूँ, जौ, सूती कपड़े तथा घोड़े, भारत के विभिन्न भागों में भेजे जाते थे। इनके बदले में भारत के विभिन्न भागों से सिंध को चावल, चीनी, गन्ना, इमारती लकड़ी तथा मसाले भेजे जाते थे। सिंध में काश्मीर, गुजरात, रावलपिंडी तथा लद्दाख से नमक मंगवाया जाता था तथा भारत के विभिन्न भागों से अच्छे चावल, चौड़े वस्त्र, गेहूँ, दवाएँ, चीनी, आम, लोहा, ताँबा, पीतल के बर्तन, शीशे का सामान, सोना, चाँदी तथा विलास की सामग्रियाँ भी मँगवाये जाते थे। सिंध से आगरा तथा अन्य स्थानों को शॉल, ऊन तथा शोरा निर्यात किया जाता था।
केरल एवं मलाबार
केरल काली मिर्चों का निर्यात करता था तथा उसके बदले में अफीम का आयात करता था। पुलीकट का छपा हुआ कपड़ा बहुत बढ़िया होता था जो गुजरात तथा मलाबार तट को भेजा जाता था। गुजरात तथा मलाबार के बीच काफी व्यापार होता था। विजयनगर मलाबार से नारियल, इलायची तथा अन्य मसाले, कीमती पत्थर, मोम तथा लोहा, खजूर तथा चीनी का आयात करता था।
कोरोमण्डल तथा विजयनगर
दक्षिण में विजयनगर प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था। कारोमण्डल तथा विजयनगर का तटवर्ती व्यापार मलाबार के व्यापारी चलाते थे। यहाँ आयात की जाने वाली चीजों में रंगीन कपड़े, धातु, गुलाबजल, अफीम, चंदन की लकड़ी, मूंगा , पारा, केसर, कपूर, सिन्दूर, कस्तूरी, सुपारी, नारियल, काली मिर्च, खजूर, चीनी, कैंबे का कपड़ा तथा घोड़े सम्मिलित थे। यहाँ से चावल और कपड़े का निर्यात होता था। 15वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में भटकल के दक्षिणी बन्दरगाह तथा विजयनगर में बहुमूल्य पत्थर की बड़ी मांग थी, वह दक्षिणी राज्यों से हीरे, और भुज तथा कायल से मोती, पेगु और लंका से दूसरे महँगे पत्थरों का आयात करता था। विजयनगर के व्यापारी पुलीकट से बर्मी लाल रत्न तथा कस्तूरी लाते थे। विजयनगर में मलाबार से काली मिर्च मँगवाई जाती थी।
वाणिज्य एवं व्यापार के अन्य प्रमुख केन्द्र
मुगल काल में अजमेर, राजपूताने का प्रसिद्ध नगर था। यहाँ से मलाबार तथा अन्य स्थानों को गेहूँ भेजा जाता था। इनके अलावा जौनपुर, बुरहानपुर, लखनऊ, खैराबाद आदि भी प्रसिद्ध व्यापारिक नगरीय केन्द्र थे। दक्षिण भारत में गोलकुण्डा एक महत्त्वपूर्ण वाणिज्यिक नगर था जिसका गोआ, मछलीपट्टम और सूरत के बन्दरगाहों से सीधा सम्पर्क था।
निष्कर्ष
मुगलकालीन भारत में अन्तर्राज्यीय और अन्तर्राष्ट्रीय दोनों प्रकार के व्यापार उन्नत अवस्था में थे। स्थल और जलमार्ग द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक सामान जाता करता था। ह्नेनसांग ने भी अपने यात्रा-वर्णन में लिखा है कि सड़कों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक सामाना आया-जाया करता था। स्वयं ह्नेनसांग ने एक व्यापारिक जहाज से यात्रा की थी। उज्जैन, कन्नौज, पाटलिपुत्र (पटना), मथुरा, अयोध्या और काशी व्यापारिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण नगर थे। मध्य एशिया, चीन, अरब और तिब्बत से बहुत पहले से व्यापार किया जाता था। बाह्य देशों से व्यापार थलमार्ग और सामुद्रिक मार्ग से होता था। ताम्रलिप्ति भी प्रसिद्ध बंदरगाह था जिसके विषय में ह्नेनसांग ने लिखा है कि इस बंदरगाह में व्यापार की वस्तुएँ एकत्रित रहती थीं। इस काल में उद्योग काफी विकसित थे। इन उद्योगों द्वारा उत्पादित माल विदेशों को निर्यात होता था। यहाँ से निर्यात होने वाली प्रमुख वस्तुओं में चन्दन की लकड़ी, नारियल, चीनी, कपड़ा, मलमल, हाथी-दाँत, मोती और बहुमूल्य पत्थर आदि थे। यहाँ आयात की जाने वाली वस्तुओं में शराब, घोड़े, खजूर, पोस्तीन, मूँगा और रेशमी कपड़े होते थे। इस प्रकार देश की आर्थिक स्थिति अत्यन्त सुड़ौल एवं विकसित थी।
इस अध्याय में भारत के अन्तर्प्रादेशिक आंतरिक व्यापार का अत्यंत संक्षिप्त वर्णन किया गया है। विस्तृत वर्णन करना सम्भव नहीं है, क्योंकि देश के विभिन्न भागों के बीच विशेषकर प्रांतीय राजधानियों एवं विभिन्न राज्यों की राजधानियों के बीच बहुत बड़े पैमाने पर व्यापार होता था।
1221 ई. से लेकर 1526 ई. तक मंगोल आक्रमणकारियों की कई लहरें भारत में आईं। इस दौरान वे विदेशी आक्रांता बने रहे। वे विध्वंस के लिये कुख्यात थे। प्रारंभ के मंगोल आक्रांता इस्लाम के शत्रु थे। इस कारण प्रारम्भ में वे भारत के मुस्लिम शासकों को नष्ट करने के लिये उद्देश्य से प्रेरित होकर आक्रमण करते थे। बाद के काल में मंगोलों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया। अब वे भी भारत से कुफ्र को नष्ट करने के लिये आक्रमण करने लगे। मंगोलों ने भारत आक्रमणों के दौरान भारत की कला, स्थापत्य, साहित्य एवं संस्कृति को भयानक क्षति पहुँचाई। 1526 ई. में जब बाबर ने दिल्ली एवं आगरा पर शासन स्थापित किया तो मंगोल विदेशी नहीं रह गये। अब उन्हें यहाँ से कहीं नहीं जाना था इसलिये उनके द्वारा किया जाने वाला विध्वंस बड़ी सीमा तक रुक गया किंतु विध्वंसकारी प्रवृत्ति पूरी तरह समाप्त नहीं हुई। बाबर के सेनापति मीर बांकी अथवा अबुलबकी ने अयोध्या में भगवान राम की जन्मभूमि पर स्थित अत्यंत प्राचीन राम मंदिर को नष्ट करके उस पर मस्जिद खड़ी की। विंध्वस का यह सिलसिला औरंगजेब तथा उसके बाद भी चलता रहा।
प्राचीन भारतीय स्थापत्य और मुस्लिम स्थापत्य के सम्मिश्रण से भवन निर्माण की जो शैली, सल्तनत काल में आरम्भ हुई, वह मुगलों के शासन काल में भी निरन्तर विकसित होती रही। इसलिये मुगलकालीन इमारतों पर हिन्दू और मुस्लिम वास्तुकलाओं के सम्मिश्रण का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। औरंगजेब को छोड़कर समस्त मुगल शासक स्थापत्य कला के प्रेमी थे। अकबर के समय में ईरानी तथा भारतीय कला के सम्मिश्रण से एक नई शैली विकसित हुई जिसे मुगल स्थापत्य शैली कहते हैं।
मुगल स्थापत्य कला पर भारतीय एवं ईरानी प्रभाव
बहुत से इतिहासकारों का मानना है कि मुगल स्थापत्य शैली में भारतीय स्थापत्य की प्रधानता है। हेवेल ने लिखा है- ‘मुगल शैली विदेशी तथा देशी शैलियों का सम्मिश्रण प्रदर्शित करती है। भारतीय शैली अनुपम थी और उसमें विदेशी तत्त्वों को मिलाने की अलौकिक शक्ति थी।’
सर जान मार्शल ने लिखा है- ‘मुगल शैली के विषय में यह निश्चय करना कठिन है कि उस पर किन तत्त्वों का प्रभाव अधिक था।’ फर्ग्यूसन तथा कुछ अन्य विद्वानों का विश्वास है कि मुगल कला, पूर्व-मुगलकाल की कला का परिवर्तित और विकसित रूप थी।’ अर्थात् भारतीय कला को विदेशी कला से प्रेरणा प्राप्त हुई थी और विदेशी कला ने भारतीय कला को प्रभावित किया था।
निष्कर्ष
विदेशी विद्वान भले ही कुछ भी कहें किंतु वास्तविकता यह है कि मुगलकाल में अकबर के राज्यारोहण तक भारतीय कला पर ईरानी प्रभाव अधिक रहा किन्तु अकबर के काल में भारतीय कला परम्परा को ईरानी आदर्श के हित में अपना लिया गया। अकबर के शासन के अन्तिम वर्र्षोें में विदेशी तथा भारतीय तत्त्व ऐसे घुल-मिल गये कि भारतीय अथवा ईरानी कला के पृथक् अस्तित्त्व का पता लगाना कठिन हो गया।
बाबर कालीन स्थापत्य कला
बाबर स्थापत्य कला का पारखी था। उसे तुर्की और अफगानी सुल्तानों द्वारा बनवाई गई दिल्ली और आगरा की इमारतें पसन्द नहीं आईं। वह ग्वालियर में राजा मानसिंह और विक्रमजीत के महलों की स्थापत्य शैली से अत्यधिक प्रभावित हुआ। बाबर का मानना था कि भले ही ये महल भिन्न-भिन्न टुकड़ों में तथा बिना किसी नियमित योजना के बने थे फिर भी वे बेजोड़ थे। ग्वालियर के महल हिन्दू कला के सुन्दर उदाहरण थे। जब बाबर ने अपने लिये महल बनवाये तब उसने ग्वालियर के महलों का अनुकरण किया। बाबर के महल बहुत कमजोर बने थे जो अधिक समय तक टिके नहीं रह सके। बाबर को मस्जिद तथा उपवन निर्माण में बड़ी रुचि थी। उसने अयोध्या में रामजन्म भूमि पर बाबरी मस्जिद, आगरा के लोदी किले में जामा मस्जिद तथा पानीपत में काबुली बाग मस्जिद बनवाई। बाबर ने कश्मीर में निशात बाग, लाहौर में शालीमार बाग तथा पंजाब में पिंजोर बाग बनवाया। वह राजपूताने की सीमा पर ऐसे भवन बनवाना चाहता था जो गर्मियों में भी ठण्डे रहें। उसके आदेश से आगरा, सीकरी, बयाना, धौलपुर, ग्वालियर तथा अन्य नगरों में अनेक भवनों का निर्माण किया गया। बाबर के समय बनी इमारतों में से अब केवल दो शेष बची हैं- (1.) पानीपत के काबुली बाग की मस्जिद तथा (2.) संभल की जामा मस्जिद। 1526-27 ई. में निर्मित ये दोनों मस्जिदें काफी विशाल थीं किंतु इनमें कोई शिल्प-सौन्दर्य नहीं है। अयोध्या में रामजन्म भूमि पर निर्मित बाबरी मस्जिद को 1992 ई. में जन-आंदोलन के दौरान तोड़ दिया गया।
हुमायूँ कालीन स्थापत्य कला
हुमायूँ कला-प्रेमी शासक था। उसने दिल्ली में दीनपनाह नामक महल बनवाया। यह महल अत्यन्त शीघ्रता में बना था जिसमें सुन्दरता तथा मजबूती का ध्यान नहीं रखा गया। संभवतः शेरशाह सूरी ने इस महल को नष्ट कर किया। हुमायूँ ने आगरा तथा फतेहाबाद (हिसार) में फारसी शैली पर एक-एक मस्जिद बनवाई। इनमें कला तथा मौलिकता के कोई लक्षण नहीं थे। अब इनके खण्डहर ही शेष रह गये हैं। हुमायूँ के समय की कोई कलात्मक इमारत शेष नहीं बची है।
अकबरकालीन स्थापत्य कला
बाबर तथा हुमायूँ ने भविष्य के मुगल शासकों के लिये इमारतें बनवाने की परम्परा स्थापित की जिससे दिल्ली में अच्छी इमारतें बनने लगीं। अकबर का शासन काल जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति के सम्मिश्रण और समन्वय का काल था। इस कारण उसके समय में स्थापत्य एवं भवन निर्माण में भी सम्मिश्रण की नई शुरुआत हुई। अकबर द्वारा निर्मित भवनों में ईरानी तथा भारतीय तत्त्व दृष्टिगोचर होते हैं पर इनमें प्रधानता भारतीय तत्त्वों की ही है। कुछ विद्वानों की धारणा है कि मुगल कला का आरम्भ अकबर से ही मानना चाहिये। अबुल फजल का कथन है- ‘बादशाह सुन्दर इमारतों की योजना बनाता है और अपने मस्तिष्क एवं हृदय के विचार को पत्थर और गारे का रूप देता है।’ अकबर ने तत्कालीन शैलियों की बारीकी को समझा और अपने शिल्पकारों को इमारतें बनाने के लिए नये-नये विचार दिये। अकबर के काल में स्थापत्य कला की जो नई शैली विकसित हुई, वह वास्तव में हिन्दू-मुस्लिम शैलियों का समन्वय थी।
हुमायूँ का मकबरा
अकबर के शासनकाल की सबसे पहली इमारत दिल्ली में स्थित हुमायूँ का मकबरा है जिसे अकबर की सौतेली माँ हाजी बेगम ने बनवाया था। हाजी बेगम ईरानी आदर्शों से प्रभावित थी। इस मकबरे के निर्माण में अनेक भारतीय शिल्पकारों ने भी काम किया इसके कारण यह मकबरा ईरानी आदर्शों की भारतीय अभिव्यक्ति बन गया। इस इमारत का नीचे का भाग हिन्दू-मुस्लिम वास्तुकला शैली का तथा ऊपरी भाग ईरानी शैली का है। इस इमारत की कुर्सी ऊँची है जिसमें समरूपता का ध्यान रखा गया है। इसका मेहराबयुक्त विशाल मण्डप ईरानी शैली का तथा सुन्दर छतरियों वाले कलात्मक मण्डप भारतीय शैली के हैं। इसका गुम्बद सफेद संगमरमर का है जबकि शेष इमारत में सफेद और काले संगमरमर के साथ-साथ लाल बलुआ पत्थर का भी प्रयोग हुआ है।
आगरा का लाल किला
अकबर कालीन स्थापत्य शैली का सबसे सुन्दर एवं पहला नमूना आगरा का लाल किला है। इस किले की साधारण रूपरेखा मानसिंह द्वारा बनवाये गये ग्वालियर के किले से मिलती-जुलती है। आगरा का किला लगभग डेढ़ मील के घेरे में स्थित है। यह पूर्णतः लाल रंग के गढ़े हुए पत्थरों से निर्मित है। इसकी दीवारें लगभग 70 फुट ऊँची हैं। किले के दो मुख्य द्वार हैं जिनमें से एक पश्चिम की ओर स्थित है। इसका नाम दिल्ली द्वार या हाथी द्वार है क्योंकि यह दिल्ली जाने वाले मार्ग की तरफ खुलता था तथा इसके मेहराब पर हाथियों की दो आकृतियां थीं। दूसरा द्वार इससे छोटा है जो अमरसिंह द्वार कहलाता है। आजकल दर्शक किला देखने के लिये इसी द्वार से प्रवेश करते हैं। प्रवेश द्वार के ऊपरी भाग की सजावट बहुत अच्छी है। मेहराबों और पैनलों पर सफेद संगमरमर जड़कर सुन्दर डिजायनें बनाई गई हैं। दरवाजे की बनावट में कोई कलात्मकता नहीं है। किले की चारदीवारी के भीतर अकबर ने 500 से भी अधिक इमारतें बनवाई थीं। ये समस्त इमारतें लाल पत्थर से बनवाई गई थीं। अकबर की बनवाई हुई इन इमारतों में से कई इमारतों को शाहजहाँ ने गिरवाकर उनके स्थान पर सफेद संगमरमर के मण्डप बनवाये।
अकबरी महल और जहाँगीरी महल: आगरा के लाल किले में अकबर द्वारा निर्मित सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण इमारतें- अकबरी महल और जहाँगीरी महल हैं। ये दोनों महल बलुआ पत्थर से निर्मित हैं। अकबरी महल में बंगाली बुर्ज बने हुए हैं। जहाँगीरी महल शाहजादा सलीम के रहने के लिये बनवाया गया था। जहाँगीरी महल में कई स्तम्भ हैं। इनमें कड़ियों और जालियों द्वारा सजावट की गई है। यह पूर्णतः हिन्दू कला से प्रभावित है। दोनों महलों के बीच में चौकोर आँगन है तथा चारों ओर दुमंजिले कमरे बने हुए हैं।
लाहौर का किला
अकबर द्वारा निर्मित लाहौर का किला आगरा के किले के समान है। लाहौर के किले की इमारतें आगरा के किले के जहाँगीरी महल के समान हैं। अन्तर यह है कि लाहौर के किले की सजावट आगरा के किले की अपेक्षा अधिक घनी है। तोड़ों में हाथी और सिंहों की मूर्तियाँ और छत के नीचे कारनिस में मोरों के चित्रों को देखकर अनुमान लगाया जाता है कि इसके अधिकतर शिल्पकार हिन्दू थे और मुगल अधिकारियों का दृष्टिकोण सहिष्णुतापूर्ण था।
इलाहाबाद का किला
अकबर द्वारा निर्मित इलाहाबाद का किला खण्डहर प्रायः हो गया है। उसकी अनेक इमारतें नष्ट हो गई हैं। केवल जनाना भवन ही शेष बचा है।
फतेहपुर सीकरी की इमारतें
अकबर कालीन स्थापत्य की सफलतम इमारतें फतेहपुर सीकरी में देखी जा सकती हैं। फतेहपुर सीकरी, आगरा से 23 मील दक्षिण-पश्चिम में एक ढालू पहाड़ी पर स्थित है। इस नगर के तीन ओर दीवारें और एक ओर कृत्रिम झील थी। यह नगर 1569 ई. से 1580 ई. के बीच 11 वर्र्षोें में बनकर तैयार हुआ। अबुल फजल ने लिखा है- ‘चँूकि अकबर के श्रेष्ठ पुत्रों- सलीम और मुराद ने सीकरी में जन्म लिया था और शेख सलीम (एक मुस्लिम संत जिसके आशीर्वाद से सलीम का जन्म हुआ था) की दिव्य ज्ञान युक्त आत्मा उनमें प्रवेश कर गई थी, इसलिये अकबर के पवित्र हृदय में इस आध्यात्मिक वैभव से परिपूर्ण स्थान को भौतिक वैभव प्रदान करने की इच्छा थी……(इसीलिये) आदेश हुआ कि प्रमुख कारीगर बादशाह के निजी उपयोग के लिये अट्टालिकाओं का निर्माण करें।’ फतेहपुर सीकरी की इमारतों में जोधाबाई का महल, बीबी मरियम का महल, तुर्की सुल्ताना का महल, बीरबल का महल, पंचमहल, दीवाने खास, दीवाने आम, जामा मस्जिद, शेख सलीम चिश्ती की मजार, ख्वाबगाह, बुलंद दरवाजा आदि मुख्य हैं।
जोधाबाई का महल: जोधाबाई का महल फतहपुर सीकरी के महलों में सबसे पुराना है। इस महल की बनावट न तो मुस्लिम स्थापत्य शैली की है और न हिन्दू स्थापत्य के अनुसार। वास्तव में यह इमारत अपने समय की मिली-जुली शैलियों की है। इसकी बनावट आगरा के जहाँगीरी महल के समान है। इसकी छत बहुत सुन्दर एवं सजीव है और इसमें तराशे हुए पत्थरों का उपयोग हुआ है।
बीबी मरियम की कोठी: इसका असली नाम सुनहरी मकान है। इसकी भीतरी तथा बाहरी दीवारों पर सुनहरे पत्थर जड़े थे। इसमें संगतराशी का अच्छा काम किया गया था। महल के भीतरी भाग में मुगल शैली के कुछ सुन्दर चित्र बनाये गये थे जो अब नष्ट हो गये हैं। स्मिथ ने इन चित्रों को ईसाई धर्म की पवित्र पुस्तक बाइबिल पर आधारित बताया है परन्तु इसमें पंखवाली शवीहें दिखाई गई हैं, जो ईरानी देवमाला पर आधारित हैं। इनकी शक्ल फरिश्तों के समान हैं।
तुर्की सुल्ताना का महल: तुर्की सुल्ताना का महल फतेहपुर सीकरी की इमारतों में सबसे अच्छा माना जाता है। इसकी निर्माण शैली तथा पत्थरों की बनावट सुन्दर एवं सजीव है। इसके बारे में रशब्रुक विलियम ने लिखा है- ‘यहाँ अकबर के शासनकाल की चित्रकारी बहुत ही सुन्दर है। इसके अतिरिक्त यह महल संगतराशी का अच्छा उदारहण है। इसकी दीवारों पर जंगल, पेड़-पौधे, झाड़ियों आदि के दृश्य बहुत ही सुन्दर ढंग से बने हैं। झाड़ियों में शेर और पेड़ों पर मोर बैठे दिखाई देते हैं।’
राजा बीरबल का महल: राजा बीरबल का महल भी स्थापत्य कला की विशेषताओं के कारण सुन्दर लगता है। यह महल काफी ऊँची कुर्सी पर बना हुआ है। सीकरी की समस्त इमारतों में यही इमारत ऐसी है जिसका गुम्बद सुन्दर दिखाई देता हैं। मुस्लिम स्थापत्य कला में इसका विशेष स्थान हैं।
पंचमहल: पंचमहल भी फतहपुर सीकरी की सबसे सुन्दर इमारतों में से है। इसकी नीचे की मंजिलें बड़ी और फिर उससे ऊपर की मंजिलें छोटी हैं। सबसे ऊपर चौखूंटे खम्भों पर टिकी हुई एक सुन्दर छतरी है। नीचे की मंजिल में 56 सतून हैं और उन पर नक्काशी का काम किया गया है परन्तु हर खम्भे की नक्काशी अलग है। कहीं पर जैन स्थापत्य कला शैली की विशेषतायें हैं, कहीं पर हिन्दू स्थापत्य कला शैली की विशेषतायें तो कहीं पर मुस्लिम स्थापत्य कला की विशेषतायें हैं। ये सुन्दरता के साथ-साथ समन्वय का अच्छा वातावरण भी प्रस्तुत करती हैं। नीचे की मंजिलों पर हिन्दू स्थापत्य कला शैली की छाप अधिक है। सजावट तथा सुन्दरता के लिये घण्टियों तथा जंजीरों की बेलों का ढंग से प्रयोग हुआ है।
दीवाने खास: फतेहपुर सीकरी में अकबर का दीवाने खास अनेक विशेषताओं से युक्त है। यहाँ न अच्छी संगतराशी है और न सुन्दर सजावट परन्तु सादा होने पर भी यह इमारत बहुत ही प्रभावशाली है। इस इमारत की सबसे बड़ी विशेषता इसकी बनावट है जो कलाकारी का उत्कृष्ट उदाहरण है। इसके मध्य का सतून अत्यन्त सुन्दर ढंग से बना है जिसकी नक्काशी देखने योग्य है। इसी सतून के ऊपर शाही तख्त रखा रहता था जिसको रोकने के लिए बहुत सी नक्शदार छतगीरियाँ हैं। सिंहासन तक पहुँचने के लिये चारों कोनों से छज्जों के रूप में चार मार्ग बनाये गये हैं। इसका निर्माण हिन्दू स्थापत्य के अनुसार हुआ है।
जामा मस्जिद: कुछ विद्वानों के अनुसार फतेहपुर सीकरी की जामा मस्जिद केवल दीन-ए-इलाही के अनुयायियों के लिये थी। मस्जिद के मध्य भाग में शेख सलीम चिश्ती की मजार बनी हुई है। इसको अकबर ने लाल पत्थर से बनवाया था। इसमें बहुत ही सुन्दर जालियों का प्रयोग हुआ है। इसे मुगल स्थापत्य कला का एक सुन्दर नमूना कहा जाता है। जहाँगीर ने इसे संगमरमर का बनवा दिया। इसमें सीप का बहुत अच्छा काम हुआ है।
ख्वाबगाह: ख्वाबगाह के नाम से प्रसिद्ध इमारत दो मंजिली है। ऊपर की मंजिल में एक छोटा कमरा है जो अकबर का शयनागार था। इसकी दीवारों पर अनेक चित्र अंकित थे। इन चित्रों में महात्मा बुद्ध, मेरी तथा शिशु रूप में ईसा मसीह के चित्र थे तो आखेट तथा नदी-नालों के दृश्य भी बने हुए थे जो अब धूमिल हो गये हैं। अबुल फजल और फैजी के भवन भी सुन्दर रहे होंगे परन्तु अब वे अच्छी दशा में नहीं हैं।
बुलन्द दरवाजा: फतहपुर सीकरी की जामा मस्जिद में जनसाधारण के प्रवेश के लिये बना दक्षिण दिशा का द्वार बुलन्द दरवाजा कहलाता है। यह भारत में बना सबसे ऊँचा दरवाजा है। यह भी माना जाता है कि विश्व में इतना बड़ा दरवाजा और कहीं नहीं है। कहा जाता है कि यह दरवाजा अकबर की दक्षिण विजय के उपलक्ष्य में बनाया गया था परन्तु ऐतिहासिक तथ्य इसकी पुष्टि नहीं करते। स्थापत्य कला के विद्वानों की दृष्टि में यह दरवाजा हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य कला शैलियों का सुन्दर सम्मिश्रण है। यह दरवाजा लाल पत्थर से बनाया गया जिस पर कोई रंग नहीं चढ़ाया गया। इस पर नक्काशी का बहुत सुन्दर काम हुआ है तथा संगमरमर की सुन्दर एवं सजीव पच्चीकारी की गई है। पर्सा ब्राउन के शब्दों में- ‘बुलन्द दरवाजा एक प्रभावशाली निर्माण कार्य है, विशेषकर तब जबकि यह जमीन पर खड़ा होकर देखा जाये। तब यह उत्तेजक एवं विस्मयकारक शक्ति का रूप दिखाई देता है किन्तु इसका प्रभाव भार-स्वरूप तथा दिखावटी नहीं प्रतीत होता।’
अकबर द्वारा निर्मित अन्य भवन
अकबर ने अटक का किला, मेड़ता और अजमेर की मस्जिदें तथा अन्य स्थानों के किले इत्यादि अनेक सुन्दर इमारतें बनवाई थीं। सिकन्दरा में स्थित अकबर का मकबरा का नक्शा अकबर ने बनाया था। इसे जहाँगीर ने पूरा करवाया।
राष्ट्रीय स्थापत्य कला शैली
फतेहपुर सीकरी की अकबर कालीन समस्त इमारतें हिंदू-मुस्लिम मिश्रित स्थापत्य शैली की हैं। इनमें हिन्दू कला की प्रधानता है। इनमें से कुछ की सजावट, जैसे- दीवाने खास में लगे हुए खम्भों की शोभा बढ़ाने वाले तोड़े, पंचमहल और जोधाबाई के महल में लगे हुए उभरे घण्टे तथ जंजीर और मरियम के महल में पत्थर खोदकर बनाये गये पशुओं के चित्र इत्यादि हिन्दू और जैन मन्दिरों की ही नकल हैं। संगमरमर और बलुआ लाल पत्थर के बने हुए बुलन्द दरवाजे में शिल्प कला का उत्कृष्ट नमूना दिखाई पड़ता है। डॉ. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने लिखा है- ‘फतेहपुर सीकरी की स्थापत्य कला की शैली भारतीय प्राचीन संस्कृति के विभिन्न तत्त्वों को समन्वित करने और मिलाने की अकबर की नीति को ही जैसे पाषाण रूप में प्रस्तुत करती हैं।’ डा. श्रीवास्तव ने अकबर की इस समन्वित स्थापत्य शैली को राष्ट्रीय स्थापत्य कला शैली कहा है। अकबर ने स्थापत्य की जो नई शैली विकसित की, उसका प्रभाव सारे देश पर और राजस्थान के राजपूत राजाओं पर पड़ा। अकबर के शासनकाल में अजमेर, बीकानेर, जोधपुर, आम्बेर, ओरछा और दतिया में जो महल बने, उन पर मुगल कला का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। यहाँ तक कि हिन्दुओं के मन्दिर भी इस शैली के प्रभाव से नहीं बच सके। हिन्दू राजाओं के महलों के बारे में पर्सी ब्राउन ने लिखा है- ‘राजपूत भवनों को देखकर कोई भी कल्पना कर सकता है कि उनमें प्रारम्भिक मुगली कला, जैसे-कटोरेदार मेहराबें, काँच की पच्चीकारी, दरीखाना, पलस्तर की रँगाई किस प्रकार हिन्दू राजाओं की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अपना लिये गये थे।’
जहाँगीर कालीन इमारतें
जहाँगीर की रुचि शिल्प कला की अपेक्षा छोटी चित्रकारी और बागवानी में अधिक थी। अतः उसके समय में बहुत कम इमारतें बनीं और जो इमारतें बनीं, उनमें शिल्प कला का उत्कृष्ट रूप नहीं था।
एतमादुद्दौला का मकबरा: जहाँगीर के काल में नूरजहाँ द्वारा आगरा में बनवाया गया एतमादुद्दौला का मकबरा उस काल की इमारतों में सबसे अच्छा है। यह सफेद संगमरमर से निर्मित है और इसमें संगमरमर के टुकड़ों के बराबर बहुमूल्य पत्थर लगे हुए हैं। यह मुगलकाल की प्रथम इमारत है जो श्वेत संगमरमर से निर्मित है और जिसमें पच्चीकारी का काम है। यह मकबरा उत्कृष्ट स्नेह का प्रतीक है और मुगल कला का बेजोड़ नमूना है। पर्सी ब्राउन के अनुसार यह मकबरा अकबर और शाहजहाँ की शैलियों को जोड़ने वाली कड़ी के रूप में माना जा सकता है।
अकबर का मकबरा: जहाँगीर के काल की दूसरी उल्लेखनीय इमारत सिकन्दरा में स्थित अकबर का मकबरा है। इसका नक्शा अकबर ने तैयार किया था किन्तु इसका निर्माण जहाँगीर की देखरेख में हुआ था। इस इमारत से अकबर और उसके पुत्र जहाँगीर की अभिरुचि का अन्तर स्पष्ट हो जाता है। अकबर की ठोस और विशाल इमारतों की तुलना में यह इमारत आडम्बरपूर्ण तथा नाजुक शैली में बनी है। मुसलमानों के समस्त मकबरों में गुम्बद बनाने की प्रथा प्राचीन समय से प्रचलित थी किन्तु इस मकबरे पर कोई गुम्बद नहीं है। इसकी बनावट बौद्ध विहार जैसी है। इसलिये आलोचकों की मान्यता है कि यह कट्टर मुसलमानी ढंग का मकबरा नहीं है। इसके मुख्य प्रवेश-द्वार पर सुन्दर जड़ाऊ काम किया हुआ है तथा इसके चारों कोनों पर बनी हुई सफेद संगमरमर की सुन्दर मीनारें इसकी सुन्दरता में वृद्धि करती हैं।
जहाँगीर का मकबरा
जहाँगीर का मकबरा लाहौर के पास शाहदरा में स्थित है। इसका नक्शा जहाँगीर ने बनाया था तथा इस मकबरे का निर्माण उसकी बेगम नूरजहाँ ने करवाया था। इसके ऊपर संगमरमर का एक मण्डप था जिसे बाद में सिक्खों ने उतार लिया था। मकबरे का भीतरी भाग संगमरमर की पच्चीकारी से सुशोभित है। चिकने और रंगीन खपरैल इसकी सुन्दरता को अधिक बढ़ा देते हैं। पर्सी ब्राउन का कथन है कि सारी इमारत प्रभावशाली प्रतीत नहीं होती है।
जहाँगीर की अन्य इमारतें
उपर्युक्त इमारतों के अतिरिक्त लाहौर में बना अनारकली का मकबरा तथा ख्वाबगाह और मोती मस्जिद जहाँगीर की ही बनवाई हुई हैं।
मुगल स्थापत्य का स्वर्ण काल अर्थात् शाहजहाँ कालीन स्थापत्य
शाहजहाँ का शासनकाल मुगल स्थापत्य कला का स्वर्ण युग था। इस काल में स्थापत्य कला अपने चरम पर पहुँच गई। शाहजहाँ ने अनेक इमारतें बनवाईं। वह स्वयं स्थापत्य कला में निपुण था। वह अपनी इमारतांे के नक्शे स्वयं देखता था। शाहजहाँ की इमारतें श्वेत संगमरमर से निर्मित हैं। उसके समय में राजपूताने में स्थित मकराना की खानों में प्रचुर मात्रा में संगमरमर उपलब्ध था।
शाहजहाँ के समय में निर्माण कला के साधनों और सिद्धान्तों में अनेक परिवर्तन हुए। उसके काल में पत्थर काटने में निपुण कारीगरों का स्थान संगमरमर काटने और पॉलिश करने में निपुण कारीगरों ने ले लिया। आयताकार भवनों का स्थान चौकोर लहरदार सजावटपूर्ण महलों ने ले लिया। सबसे अधिक मौलिक परिवर्तन मेहराब की बनावट में हुआ। इनमें सजावट, पच्चीकारी और नजाकतपूर्ण सौन्दर्य आ गया। आगरा, लाहौर, दिल्ली आदि नगरों में पुराने महलों का नव-निर्माण हुआ और नवीन भवन बनवाये गये।
शाहजहाँ के काल की स्थापत्य शैली के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों की राय है कि इन कृतियों के कलाकार विदेशी थे और शाहजहाँ ने अकबर कालीन हिन्दू प्रभाव वाली स्थापत्य शैली को त्यागकर पुनः शुद्ध ईरानी शैली को अपनाने का प्रयास किया था। कतिपय अन्य विद्वान इसे भारतीय शैली से ही उत्पन्न बताते हैं। डॉ. बनारसी प्रसाद के अनुसार यह शैली दो संस्कृतियों के समन्वय का परिणाम थी।
शाहजहाँकालीन दिल्ली की इमारतें
(1.) दिल्ली का लाल किला: शाहजहाँ ने दिल्ली के पास शाहजहाँनाबाद नामक नगर बसाया और उसमें लाल किले के नाम से एक किले का निर्माण कराया। इसकी लम्बाई 3100 फुट और चौड़ाई 1650 फुट है। किले की दीवारें ऊँची तथा कँगूरेदार हैं। इसकी पश्चिमी दीवार में मुख्य दरवाजा बनाया गया जो जन साधारण के प्रवेश के लिये था। दक्षिणी दीवार वाला दरवाजा व्यक्तिगत था तथा विशेष व्यक्तियों द्वारा ही व्यवहार में लाया जाता था।
(2.) दीवाने आम: दिल्ली के लाल किले के मध्य विशाल भाग में दीवाने आम बना हुआ है। इसका आकार चतुर्भुजी है। यह पत्थर से निर्मित 185 फुट लम्बा तथा 70 फुट चौड़ा भवन है। यहाँ बैठकर शाहजहाँ जनसाधारण की फरियाद सुनता था। इसके बाहरी भाग में 9 मेहराबें दोहरे खम्बों पर आधारित हैं। तीनों ओर का मार्ग खम्भों पर आधारित दाँतेदार डाटों से बना हुआ है। इन खम्बों की कुल संख्या 40 है। इस भवन में पीछे की दीवार में एक मेहराबदार ताख है। इस ताख में शाहजहाँ का प्रसिद्ध तख्ते ताउस रखा रहता था। इस ताख की दीवार में अत्यन्त सुन्दर शिल्पकारी की गई है। पत्थरों को काटकर जड़ने के काम में इसका कोई सानी नहीं है।
(3.) रंगमहल: दिल्ली के लाल किले में दूसरी महत्त्वपूर्ण इमारत रंगमहल है। यह शाहजहाँ का हरम था। यह भवन 153 फुट लम्बा और 69 फुट चौड़ा है। इसके मध्य में एक बड़ा कक्ष है तथा चारों कोनों में छोटे-छोटे कक्ष हैं। यह अलंकृत सेतबन्धों द्वारा 15 भागों में विभाजित है तथा रंग एवं चमक में अद्वितीय है।
(4.) दीवाने खास: दिल्ली के लाल किले में स्थित दीवाने खास महत्त्वपूर्ण इमारत है। इसका निर्माण एक निश्चित योजना के अनुसार हुआ है। इसका बड़ा कमरा 90 फुट लम्बा और 67 फुट चौड़ा है। इसके बाहरी भाग में पाँच रास्ते हैं। ये पाँचों रास्ते मेहराबदार हैं तथा बराबर आकार के हैं। दूसरी ओर के रास्ते कुछ छोटे हैं। इस प्रकार यह इमारत अधिक खुली हुई है। इन रास्तों से काफी हवा आती है जिससे यहाँ ठण्डक बनी रहती हैं। इसका फर्श सफेद संगमरमर का है। इसके मेहराब स्वर्ण तथा रंग से सजे हुए हैं तथा पंक्तियों से भरे हुए से लगते हैं।
रंगमहल तथा दीवाने खास में जड़ाई, नक्काशी, पच्चीकारी तथा सजावट का काम बहुत उत्तम है। इन दोनों की बनावट एक जैसी है। इनकी मेहराबें दाँतेदार हैं। छतें बहुत ही सुन्दर हैं। इन छतों में स्वर्ण तथा जवाहरातों की सजावट की गई है। इस छत को टिकाये रखने के लिये स्तम्भों का प्रयोग नहीं किया गया है। यह छत 12 कोनों के सेतुबन्ध से सधी हुई है। प्रत्येक भाग में सुन्दर जड़ाई तथा रंग का काम हुआ है। दीवारों तथा मेहराबों पर फूलों की सुन्दर आकृतियाँ बनी हुई हैं।
(5.) दिल्ली की जामा मस्जिद: शाहजहाँ ने दिल्ली के लाल किले के पास दिल्ली की प्रसिद्ध जामा मस्जिद बनवाई। यह लाल पत्थर से निर्मित शाही ढंग की इमारत है। इसके तीनों विशाल दरवाजों पर बुर्ज बने हुए हैं। पूर्व का द्वार शाही परिवार के उपयोग के लिये था। उत्तर और दक्षिण के द्वारों से जन-साधारण प्रवेश करता था। इसमें नमाज पढ़ने के लिये 200 फुट लम्बा तथा 90 फुट चौड़ा स्थान है। इसके सामने 325 फुट लम्बा आयताकार सहन है जिसके बीच में हाथ-पैर धोने के लिये एक तालाब है। नमाज स्थल के बीच का बाहरी दरवाजा चौड़ा है तथा दोनों ओर पाँच-पाँच दाँतेदार मेहराबों के रास्ते हैं। इसके दोनों कोनों पर चार मंजिला लम्बी-लम्बी मीनारें हैं। इस पूरी इमारत पर सफेद संगमरमर के बने हुऐ तीन विशाल गुम्बद हैं। अन्दर लहरियेदार मेहराबनुमा दरवाजे हैं। स्थापत्य के जानकार विद्वानों के अनुसार इस स्थल से प्राचीन विष्णु मंदिर के अवशेष प्राप्त होते हैं। इससे अनुमान होता है कि यह किसी समय हिन्दू पूजा स्थल रहा होगा। शाहजहाँ ने उसे तोड़कर मस्जिद में बदल दिया होगा।
(1.) आगरे का लाल किला: शाहजहाँ ने आगरे के लाल किले में अकबर द्वारा निर्मित लाल पत्थरों की अनेक इमारतें तुड़वाकर, संगमरमर से पुनः निर्मित करवाईं। इनमें मुख्य हैं- दीवाने आम, दीवाने खास, शीश महल, खास महल, मुसम्मन बुर्ज, नगीना मस्जिद तथा मोती मस्जिद।
शाहजहाँकालीन आगरा की इमारतें
(2.) दीवाने आम: शाहजहाँ ने दीवाने आम का निर्माण 1628 ई. में करवाया। इसका हॉल 201 फुट लम्बा तथा 67 फुट चौड़ा है। यह तीन तरफ से खुला हुआ है। इसकी छत दुहरे खम्भों की कतार से सधी हुई है। खम्भों की संख्या 40 है। चारों तरफ एक संगमरमर की गैलेरी है। दीवारों को काट-काटकर उसमंे रंगीन पत्थर, जवाहर, स्वर्ण इत्यादि बहुमूल्य वस्तुओं को जड़ा गया है।
(3.) दीवाने खास: दीवाने खास एक ऊँचे चबूतरे पर बना हुआ है। इसमें दो बड़े-बड़े कमरे हैं जिनको संगमरमर के गलियारे से जोड़ा गया है। हॉल के खम्भों और दरवाजों पर बहुत अच्छा जड़ाव, कटाव, नक्काशी तथा पच्चीकारी का काम किया गया है। सजावट का काम भी उत्तम है। इनके ऊपर फूल-पत्तियों के तरह-तरह के चित्र बने हुए हैं। पहले सोने से जड़ाई का काम हो रहा था। दीवाने खास के सामने एक बड़े आँगन में सफेद संगमरमर का विशाल चबूतरा बना हुआ है।
(4.) शीश महल: शीश महल में काँच का काम बहुत अच्छा हुआ है इसलिये इसका नाम शीश महल पड़ा। यह भवन दीवाने खास के नीचे है। इसके दरवाजों और दीवारों पर काँच तथा सोने का बहुत अच्छा काम हुआ है। दरवाजे तथा दीवारें रंगीन तथा बहुमूल्य पत्थरों से अलंकृत हैं।
(5.) खास महल: खास महल बादशाह का हरम था। यह दीवाने खास से लगा हुआ है। यह लाल पत्थर से निर्मित है। यमुना की तरफ की इसकी दो सुनहरी बुर्जियों में भाँति-भाँति के सुन्दर फूलों की सजावट है तथा बहुत बढ़िया नक्काशी की गई है। खास महल के गलियारे, कमरे तथा ऊपरी भाग सफेद संगमरमर के हैं। इनकी दीवारों पर अनेक प्रकार के सुन्दर तथा मूल्यवान पत्थरों की जड़ाई की गई है। इस महल के सामने अँगूरी बाग हैं। इस बाग के तीनों तरफ बड़े-बड़े हॉल हैं और चौथी तरफ संगमरमर का बड़ा गलियारा है। इस बाग में कई फव्वारे भी हैं।
(6.) मुसम्मन बुर्ज: मुसम्मन बुर्ज को पहले शाह बुर्ज भी कहते थे। यह सफेद संगमरमर से निर्मित चार मंजिला भवन है। इसकी चौथी मंजिल में सुन्दर नक्काशी है। इसके बीच में एक हौज बना हुआ है जिसका रूप गुलाब के फूल जैसा है। उसके सामने एक झरना भी बना हुआ है।
(7.) झरोखा दर्शन: खास महल और आठकोर मीनार के मध्य में झरोखा दर्शन है। यह सफेद संगमरमर का बना हुआ है। इसकी छतें चमकदार हैं। यहाँ से शाहजहाँ जनता को दर्शन देता था।
(8.) नगीना मस्जिद: नगीना मस्जिद शाही महिलाओं के लिये बनवाई गई थी। आकार-प्रकार मेंयह मस्जिद छोटी है परन्तु इसकी सुन्दरता में कोई कमी नहीं है। यह सफेद संगमरमर से निर्मित है। इसमें चारों ओर कमरे बने हैं तथा इसके सामने एक सुन्दर बाग है।
(9.) मोती मस्जिद: मोती मस्जिद उस काल की शिल्प कला के श्रेष्ठ सौन्दर्य की अभिव्यक्ति है। यह आगरा के किले की सबसे शानदार इमारत है। यह 1654 ई. में बनकर तैयार हुई। यह एक ऊँची कुर्सी पर बनी हुई है। इस मस्जिद का आँगन सफेद रंग के बड़े आकार के चौकोर खण्डों से जड़ा हुआ है। इसमें एक फव्वारा तथा एक धूप घड़ी है। वास्तु कला के जानकारों ने इस मस्जिद की बहुत प्रशंसा की है। इस मस्जिद के चारों ओर एक सुन्दर गैलेरी और एक खम्भेदार बरामदा बनाया गया है। इसमें अनेक कमरे बने हुए हैं जिन्हें संगमरमर के जालीदार पर्दों से एक-दूसरे से अलग कर दिया गया है।
(10.) आगरा की जामा मस्जिद: इसका निर्माण 1648 ई. में हुआ था। इसकी लम्बाई 130 फुट तथा चौड़ाई 100 फुट है। वास्तुकला की दृष्टि से यह दिल्ली की जामा मस्जिद से निम्न स्तर की है। मीनारों के अभाव के कारण यह कम प्रभावशाली दिखाई पड़ती है। इसके गुम्बद भी कम आकर्षक हैं। इसकी मेहराबें सामने की ओर चौड़ा स्थान छोड़कर बनाई गई हैं। यही इसकी विशेषता कही जा सकती है।
(11.) आगरा का ताजमहल: आगरा का ताजमहल वस्तुतः एक मकबरा है जिसे शाहजहाँ ने अपनी प्रिय बेगम मुमताज के प्रति अपने प्रेम की चिरस्थाई स्मृति के प्रतीक के रूप में बनवाया। इमारत की पूरी योजना आयताकार है तथा यह एक चारदीवारी से घिरा हुआ है जिसके चारों कोनों पर चार चौड़े-चौड़े मेहराबदार मण्डप हैं। अहाते के भीतर एक वर्गाकार बाग है जिसके उत्तरी सिरे पर ऊँची कुर्सी पर सफेद संगमरमरी मकबरा स्थित है। मुख्य चबूतरे के चारों कोनों पर एक-एक तिमंजिली मीनार ऊपरी छतरी सहित बनाई गई है। सम्पूर्ण ताजमहल शैली, बनावट और कारीगरी में भारतीय है। सम्पूर्ण इमारत शुद्ध संगमरमर से निर्मित है। इसकी अत्यन्त सुन्दर खुदाई और जड़ाई भारतीय शिल्पकारों की स्थापत्य दक्षता का प्रमाण है। ताजमहल को देखने से लगता है कि पत्थर के शिल्पकार की छैनी का स्थान अब संगमरमर पर पॉलिश करने वालों के बारीक औजारों ने ले लिया था। मेहराबों की बनावट में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन दिखाई देता है। लगभग समस्त मेहराबें पत्तियोंदार या नोंकदार हैं।
ताजमहल के निर्माता कौन थे ?
इतिहासकार स्मिथ के अनुसार ताजमहल का निर्माण यूरोपियन तथा एशियाई कलाकारों ने किया। फादर मैनरिफ का कथन है कि ताजमहल का निर्माता वेनिस का निवासी जेरोम बोरनियो था परन्तु सर जॉन मार्शल और हेवेल इस मत को नहीं मानते। पर्सी ब्राउन के अनुसार इसका निर्माण तो प्रायः मुसलमान कलाकारों द्वारा हुआ था परन्तु इसकी चित्रकारी हिन्दू कलाकारों द्वारा हुई थी। पच्चीकारी का कठिन काम कन्नौज के हिन्दू कलाकारों को सौंपा गया था। अनेक विद्वानों के अनुसार ताजमहल का मुख्य शिल्पकार एक तुर्क या ईरानी उस्ताद इशा था जिसे बड़ी संख्या में हिन्दू कारीगरों का सहयोग प्राप्त था। ताजमहल की सजावट की प्रेरणा एतमादुद्दौला के मकबरे से ली गई प्रतीत होती है।
मुगल स्थापत्य की सर्वश्रेष्ठ इमारत
आगरा का ताजमहल न केवल शाजहाँ की इमारतों में ही सर्वश्रेष्ठ है अपितु मुगल स्थापत्य कला का भी सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। हेवेल ने लिखा है- ‘यह भारतीय स्त्री जाति का देवतुल्य स्मारक है। सुन्दर बाग और अनेक फव्वारों के मध्य स्थित ताजमहल एक काव्यमय रोमाण्टिक सौन्दर्य का सृजन करता है। वस्तुतः ताजमहल दाम्पत्य प्रेम का प्रतीक और कला-प्रेमियों का मक्का बन गया है।’ डॉ. बनारसी प्रसाद का कहना है- ‘चाहे ऐतिहासिक साहित्य का पूर्ण पु´ज नष्ट हो जाये और केवल यह भवन ही शाहजहाँ के शासनकाल की कहानी कहने को बाकी रह जाये तो इसमें संदेह नहीं, तब भी शाहजहाँ का शासनकाल सबसे अधिक शानदार कहा जायेगा।’
शाहजहाँकालीन अन्य इमारतें
शाहजहाँ ने आगरा और दिल्ली के अतिरिक्त लाहौर, काबुल, अजमेर, कन्धार, अहमदाबाद और कशमीर में भी श्वेत संगमरमर की अनेक इमारतें बनवाई थीं। उसने लाहौर के किले में पुरानी इमारतों को गिरवाकार किले के पश्चिमी भाग में चालीस खम्भे का दीवाने आम, मुसम्मन बुर्ज, शीश महल, नौलक्खा और ख्वाबगाह आदि इमारतें बनवाईं। ये समस्त इमारतें काफी सुन्दर हैं। शाहजहाँ ने इतनी अधिक इमारतें बनवाईं कि उसे निर्माताओं का शाहजादा कहा जाता है।
पतनोन्मुख मुगल स्थापत्य कला
शाहजहाँ की मृत्यु के बाद मुगल स्थापत्य कला का पतन आरम्भ हो गया। औरंगजेब को किसी भी प्रकार की कला में कोई रुचि नहीं थी। अतः उसने बहुत कम इमारतें बनवाईं, वे भी बहुत ही साधारण थीं।
रबिया-उद्-दौरानी का मकबरा: औरंगजेब ने औरंगाबाद के पास अपनी बेगम रबिया-उद्-दौरानी का मकबरा बनवाया जिसमें ताजमहल की नकल करने का असफल प्रयास किया गया। यह एक मामूली ढंग की इमारत है और उसकी सजी हुई मेहराबों में और अन्य सजावट में कोई विशेषता नहीं है।
दिल्ली की लाल किला मस्जिद: औरंगजेब ने दिल्ली के लाल किले में एक मस्जिद बनवाई, जो उसकी सादगी का परिचय देती है।
लाहौर की बादशाही मस्जिद: औरंगजेब ने अपने शासन काल में लाहौर में भी एक मस्जिद बनवाई जिसे बादशाही मस्जिद कहा जाता है।
औरंगजेब के बाद की मुगल स्थापत्य कला
औरंगजेब के काल में मुगल स्थापत्य कला पत्नोन्मुख हो गई। 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के बाद उत्तरकालीन मुगल बादशाहों के समय में वास्तुकला का लगभग पूर्णतः पतन हो गया। अठारहवीं सदी में कोई उल्लेखनीय इमारत नहीं बनी। डॉ. आशीर्वादलाल श्रीवास्तव ने लिखा है- ‘अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जो इमारतें बनीं, वे मुगलकालीन शिल्पकला के डिजाइन का खोखलापन और दीवालियापन ही प्रकट करती हैं।’
मुगल कालीन चित्रकला
मुगल साम्राज्य की स्थापना के साथ ही चित्रकला में नवजीवन आ गया। मुगल बादशाह चित्रकला के महान् प्रेमी थे। हेरात में बहजाद नामक चित्रकार ने चित्रकला की एक नई शैली आरम्भ की जो चीनी कला का प्रान्तीय रूप था और इस पर भारतीय, बौद्ध, ईरानी, बैक्ट्रियाई और मंगोलियन तत्त्वों का प्रभाव था। इसे बहजाद कला कहा जाता था। फारस के तैमूरवंशी राजाओं ने इसे राजकीय सहायता दी।
बाबर के काल में चित्रकला
बाबर जब हेरात में आया, तब उसे इस प्रकार की बहजाद कला की चित्रकला से परिचय प्राप्त हुआ। बाबर इस कला को भारत में ले आया। बाबर ने अनेक हस्तलिखित ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ इस कला शैली में चित्रित करवाईं।
हुमायूँ के काल में चित्रकला
हुमायूँ भी चित्रकला प्रेमी था। उसे निर्वासन काल में फारस के उच्चकोटि के चित्रकारों से परिचय प्राप्त हुआ। इनमें से एक हेरात का प्रसिद्ध चित्रकार बहजाद का शिष्य मीर सैय्यद अली था और दूसरा ख्वाजा अब्दुस समद था। हुमायूँ इन दोनों को अपने साथ भारत ले आया और हुमायूँ तथा अकबर ने इन कलाकारों से चित्रकला का ज्ञान प्राप्त किया। इस काल में अधिकांशतः सूती वस्त्रों पर चित्र बनाये जाते थे। इन चित्रों में ईरानी भारतीय तथा यूरोपीयन शैलियों का सम्मिश्रण पाया जाता है किन्तु ईरानी शैली की प्रधानता होने के कारण इसे ईरानी कलम कहा गया। इस शैली को मुगल काल की प्रारम्भिक चित्रकला शैली कहा जा सकता है।
अकबर के काल में चित्रकला
अकबर के उदारवादी दृष्टिकोण के कारण अकबर के शासनकाल में चित्रकला की नई शैली विकसित हुई जो ईरानी और भारतीय शैली के सर्वोत्तम तत्त्वों का सम्मिश्रण थी। इस नवीन शैली में विदेशी तत्त्व भारतीय शैली में इस तरह घुलमिल गये कि दोनों के पृथक् अस्तित्त्व का पत लगा पाना असम्भव हो गया और वह बिल्कुल भारतीय हो गई।
जहाँगीर के काल में चित्रकला
जहाँगीर का शासनकाल भारतीय चित्रकला का चरमोत्कर्ष काल था। जहाँगीर स्वयं अच्छा चित्रकार था। उसके दरबार में कई प्रसिद्ध चित्रकार रहते थे। इस काल की चित्रकला में भी कई प्रयोग हुए। जहाँगीर की मृत्यु के साथ ही मुगल चित्रकला का विकास रुक गया।
राजपूत चित्रकला
सातवीं एवं आठवीं शताब्दी के लगभग राजपूताना में अजन्ता चित्रकला की समृद्ध परम्परा विद्यमान थी किन्तु अरबों के आक्रमण के कारण पश्चिमी क्षेत्र के कलाकार गुजरात से राजपूताना की ओर आ गये जिन्होंने स्थानीय शैली को आत्मसात करके एक नई शैली को जन्म दिया। चूँकि इस नई शैली की चित्रकला से बड़ी संख्या में जैन ग्रंथों को चित्रित किया गया था, अतः इसे जैन शैली कहा गया। इस शैली का विकास गुजरात से आये कलाकारों ने किया था इसलिये इसे गुजरात शैली भी कहा जाने लगा। धीरे-धीरे गुजरात और राजपूताना शैली में कोई भेद नहीं रहा। पन्द्रहवीं शताब्दी में इस पर मुगल शैली का प्रभाव दिखाई देने लगा। ज्यों-ज्यों राजपूत शासकों ने मुगल बादशाह अकबर से राजनैतिक एवं वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये और उनका मुगल दरबार में आना-जाना होता रहा, राजपूत चित्रकला पर मुगल प्रभाव अधिकाधिक बढ़ता गया, जिससे राजपूत शैली की पूर्व प्रधानता समाप्त हो गई।
मुगल कालीन मूर्तिकला
मुसलमानों के भारत आने से पहले भारत में मूर्तिकला उन्नत अवस्था में थी किन्तु मुस्लिम आक्रान्ता मूर्तियों को तोड़ना इस्लाम की सेवा एवं अपना कर्त्तव्य मानते थे। अतः उन्होंने भारतीय मूर्तिकला पर घातक प्रहार किया। बाबर और हुमायॅूँ भी कट्टर मुसलमान थे और मूर्ति बनाना पाप समझते थे तथा मूर्तियों एवं मन्दिरों को ध्वस्त करना एक पवित्र कार्य समझते थे। अकबर ने अपने उदार दृष्टिकोण के कारण मूर्तिकला को प्रोत्साहन दिया। जहाँगीर ने भी कुछ मूर्तियाँ बनवाईं किन्तु शाहजहाँ और औरंगजेब ने इसे कोई प्रोत्साहन नहीं दिया, जिससे मूर्तिकला पतनोन्मुख हो गई।
आभूषण कला
मुगल शासकों की बेगमें तथा शहजादियाँ, यहाँ तक कि स्वयं मुगल बादशाह एवं शहजादे कलात्मक आभूषणों के शौकीन थे। इस कारण मुगल काल में आभूषण कला को बड़ा प्रोत्साहन मिला तथा कई प्रकार के नये आभूषणों का भी निर्माण होने लगा। राजपूतों से वैवाहिक सम्बन्धों के कारण भी मुगल शासकों ने स्वर्णकारों को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया। स्वर्णकार और जौहरी सदैव अपने काम में लगे रहते थे। शाहजहाँ ने सोने का रत्नजड़ित तख्ते-ताऊस बनवाया जिसे 1739 ई. में नादिरशाह ईरान ले गया।
अन्य ललित कलाएँ
संगीत कला
मुगलों के काल में संगीत कला की बहुत उन्नति हुई। बाबर स्वयं गायन में निष्णात था। उसने गायन कला की एक पुस्तक भी लिखी। हुमायूँ भी संगीत प्रेमी था। अकबर भारतीय शास्त्रीय संगीत का बड़ा प्रेमी था। तानसेन उस युग का महान् संगीतज्ञ था। अकबर के काल में हिन्दू और मुस्लिम संगीत पद्धतियों का समवन्य हुआ जिससे ठुमरी, गजल, कव्वाली आदि अनेक पद्धतियों का सृजन हुआ।
मुगलकालीन साहित्य
मुगलों के आने से पहले एवं मुगलों के काल में भी शाही दरबार की भाषा फारसी थी। राज्याधिकारियों को अनिवार्य रूप से फारसी पढ़नी पड़ती थी। मुगल काल में फारसी साहित्य को और बढ़ावा मिला। अधिकांश मुगल बादशाह विद्या प्रेमी थे।
तुर्की एवं फारसी साहित्य
बाबर तुर्की और फारसी का अच्छा कवि और लेखक था। उसने अपनी आत्मकथा तुजुक-ए-बाबरी अपनी मातृभाषा तुर्की में लिखी थी। उसके उत्तराधिकारियों के काल में तुजुक-ए-बाबरी का फारसी में अनुवाद हुआ। इस ग्रन्थ से फारसी की नई काव्य शैली विकसित हुई जिसे मुबायान कहते हैं। हुमायूँ भी तुर्की और फारसी के अलावा, दर्शन, ज्योतिषी और गणित का ज्ञाता था। उसके दरबार में ख्वादामीर और बयाजित जैसे इतिहासकार रहते थे। उसकी बहिन गुलबदन बेगम ने अकबर के शासनकाल में हुमायूँनामा की रचना की। अकबर तथा उसके उत्तराधिकारियों के काल में भी फारसी साहित्य का विपुल सृजन हुआ। मुगल काल में फारसी के मौलिक ग्रन्थों की रचना के साथ-साथ अनुवाद विभाग की भी स्थापना हुई जिसमें संस्कृत, अरबी, तुर्की और ग्रीक भाषाओं के अनेक सुप्रसिद्ध ग्रन्थों का फारसी भाषा में अनुवाद हुआ।
संस्कृत साहित्य
बाबर तथा हुमायूँ ने संस्कृत साहित्य के संरक्षण में रुचि नहीं दिखाई। फिर भी उनके शासन काल में भारतीय विद्वानों द्वारा निजी रूप से संस्कृत साहित्य का सृजन किया गया। अकबर, जहाँगीर तथा शाहजहाँ ने संस्कृत के विद्वानों को राजकीय संरक्षण देकर संस्कृत साहित्य को कुछ प्रोत्साहन दिया किन्तु औरंगजेब के काल में संस्कृत विद्वानों का मुगल दरबार में फिर से सम्मान बन्द हो गया।
हिन्दी साहित्य
मुगलों के अभ्युदय के बाद साहित्यिक भाषा के रूप में हिन्दी का विकास तेजी से हुआ। इस कारण मुगलकाल हिन्दी काव्य का स्वर्ण युग बन गया। 1532 ई. के आस-पास मंझन ने मधुमालती की रचना की, जो अपूर्ण ग्रन्थ होते हुए भी हिन्दी की श्रेष्ठ कृतियों में गिना जाता है। 1540 ई. के आस-पास मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत नामक महाकाव्य की रचना की, जो रूपक शैली में लिखा गया है। इसमें मेवाड़ की रानी पद्मिनी की कथा है। यद्यपि इन विद्वानों को राज्याश्रय प्राप्त नहीं था, फिर भी उन्होंने हिन्दी साहित्य जगत को अमूल्य रत्न प्रदान किये। अकबर के समय में धार्मिक सहिष्णुता होने के कारण हिन्दी साहित्य का अभूतपूर्व विकास हुआ।
देशी भाषाओं का साहित्य
मुगल काल में देश के विभिन्न हिस्सों में बोली जाने वाली विविध देशी भाषाओं एवं बोलियों का भी अच्छा विकास हुआ। राजस्थान के चारण कवियों ने डिंगल भाषा को समृद्ध बनाया। वैष्णव सम्प्रदाय ने तो अनेक देशी भाषाओं को समृद्ध बनाया। इस काल में रचा गया पिंगल अर्थात् ब्रज भाषा का साहित्य आज तक किसी भी भाषा में रचा गया सर्वोत्कृष्ट साहित्य है।
निष्कर्ष
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मुगल काल में, विशेषकर अकबर से लेकर शाहजहाँ के काल में, भारत में कला, स्थापत्य एवं साहित्य का यथेष्ट विकास हुआ। मुगल शासकों की उदार नीतियों के कारण विविध प्रकार की कलाओं एवं साहित्य को पर्याप्त संरक्षण मिला, जिससे भारतीय कला और साहित्य ने नई ऊँचाइयां अर्जित कीं।
इतिहास में मुगलों के शासन को कुलीनों का शासन कहा जाता है। मुगलकालीन शासन व्यवस्था के मूल ढाँचे को खड़ा करने का श्रेय अकबर को है। उसने जिस शासन पद्धति को लागू किया, वह थोड़े-से परिवर्तनों के साथ औरंगजेब के समय तक तथा उसके भी बाद तक जारी रही। मंगोलों की शासन व्यवस्था में अरब तथा फारस की व्यवस्था के चिन्ह विद्यमान थे। इन विदेशी तत्त्वों के साथ भारतीय शासन व्यवस्था और भारतीय आदर्श भी घुलमिल गये थे। जदुनाथ सरकार ने लिखा है- ‘मुगल शासन प्रणाली भारतीय और अभारतीय प्रणाली का एक मिला-जुला सम्मिश्रण था अथवा वास्तविक रूप में फारस और अरब की प्रणाली भारतीय परिस्थितियों में प्रयोग की गयी थी।’
मुगलों ने भारत के बाहर के किसी भी मुस्लिम शासक अथवा खलीफा की सत्ता के प्रति नाममात्र की अधीनता भी स्वीकार नहीं की थी। इस दृष्टि से उनका युग, सल्तनत काल से काफी भिन्न था। सल्तनत काल की ही तरह मुगलों की शासन व्यवस्था का मूलाधार सैनिक शासन ही था। दिल्ली सुल्तानों के विपरीत मुगल शासकों ने प्रजा के लिए अच्छी जीवन परिस्थितियों का निर्माण करना अपना कर्त्तव्य समझा।
बादशाह
दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों ने इस्लामी कानूनों का पालन करने का प्रयास किया था परन्तु मुगल बादशाहों ने कुछ मामलों में इस्लामी परम्परा का पालन नहीं किया। मुगलों ने स्वयं को केवल मुसलमान प्रजा का शासक नहीं माना। अकबर और जहाँगीर ने स्वयं को अपनी समस्त प्रजा का बादशाह माना और समस्त प्रजा के साथ लगभग एक जैसा व्यवहार किया। मुगल बादशाहों ने इस्लामी परम्परा के विरुद्ध जाकर, हिन्दू राजाओं की भांति स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि घोषित किया। यह बात हिन्दू शासकों के राजत्व सिद्धान्त के अधिक निकट थी।
मुगलकाल में समस्त शक्तियाँ बादशाह में केन्द्रीभूत थीं। बादशाह शासन की धुरी था। इस दृष्टि से वे पूर्णतः निरंकुश शासक थे परन्तु उन्हें स्वेच्छाचारी अथवा अत्याचारी कहना उचित नहीं होगा। वे जन-कल्याण में रुचि रखते थे और इसके लिये प्रयास भी करते थे। अकबर से शाहजहाँ तक के मुगल बादशाहों में प्रजा हित की भावना सर्वोपरि रही। अतः यह कहना अधिक उचित होगा कि वे स्वेच्छाचारी उदार शासक थे। उनके अधिकारों पर किसी प्रकार की रुकावट नहीं थी। वे कुछ विशेषाधिकारों का उपभोग भी करते थे। मुगलिया सल्तनत में प्रचलित समस्त उपाधियों एवं राजकीय सम्मान का दाता केवल बादशाह ही होता था। प्रजा को ‘झरोखा दर्शन’ देने का अधिकार भी उसी का था। इसी प्रकार तस्लीम और कोर्निश भी केवल उसी का अधिकार था। केवल बादशाह ही नक्कारों का प्रयोग कर सकता था। उसके अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति हाथियों के दंगल का आयोजन नहीं कर सकता था।
अधिकांश मुगल बादशाह अपने मन्त्रियों तथा अमीरों से सलाह लिया करते थे और उनके प्रभाव को ध्यान में रखकर कार्यवाही करते थे। दिल्ली सल्तनत के तुर्की एवं अफगानी सुल्तानों ने अपने अमीरों की शक्ति को कुचलकर अपनी शक्ति को बढ़ाने का प्रयास किया था परन्तु मुगल बादशाहों ने अमीरों का विश्वास तथा सहयोग प्राप्त कर अपनी सत्ता को सुदृढ़ बनाया। जब कोई अमीर विद्रोह करता था तब मुगल बादशाह उसे दृढ़ता से कुचलते थे। यह परम्परा बैरमखाँ के दमन के साथ आरम्भ हुई थी जो अंत तक चलती रही।
शासन के विभाग
बाबर से अकबर तक के समय में शासन व्यवस्था के चार प्रमुख विभाग थे। अकबर के काल में दो वर्षो के लिए यह संख्या पाँच हो गई थी जब टोडरमल को मशरफे-दीवान अर्थात् अर्थमन्त्री बना दिया गया था किन्तु यह विशेष परिस्थिति में किया गया था। औरंगजेब के शासनकाल में इन मन्त्रियों की संख्या बढ़कर 6 हो गयी। इन मन्त्रिमण्डल विभागों के अतिरिक्त एक परामर्शदाता समिति का उल्लेख भी मिलता है। इसके सदस्यों की संख्या लगभग 20 थी। अकबर महत्त्वपूर्ण एवं जटिल विषयों पर इस समिति से परामर्श लेता था। समिति की बैठक रात्रि में होती थी।
मुगल शासन के मुख्य अधिकारी
मुगल बादशाह राजतन्त्रीय सिद्धान्तों के अनुसार मंत्री अथवा सलाहकार रखते थे। इस संस्था को प्रचलित भाषा में वजारत कहते थे। मंत्री बादशाह को केवल परामर्श दे सकते थे। उसे स्वीकार करना या न करना बादशाह की इच्छा पर निर्भर था। वास्तव में सब कुछ बादशाह तथा उसके मन्त्रियों के व्यक्तित्त्व पर निर्भर करता था। जदुनाथ सरकार ने लिखा है- ‘वजीर और दीवान बादशाह से दूसरी श्रेणी के धनवान पुरुष होते थे किन्तु अन्य पदाधिकारी उनके किसी भी रूप में सहकारी नहीं थे। वे यथार्थ में उनसे कहीं नीचे थे। यदि उन्हें मन्त्री की अपेक्षा सचिव कहा जाय तो अधिक उपयुक्त होगा।’
वकील-ए-मुतलक अथवा वजीर
सैद्धान्तिक रूप से वजीर शासन का प्रधान था। वह समस्त राजकीय कार्यवाहियों के प्रति उत्तरदायी थी। उसे प्रधानमंत्री, वकील-ए-मुतलक और दीवान भी कहते थे। शासन का सारा दायित्व उसी पर था। दीवान होने के नाते वह राजस्व विभाग का सर्वोच्च अधिकारी था और राज्य की सम्पूर्ण आय-व्यय की देखभाल करता था। आइने अकबरी के अनुसार- ‘दीवान अर्थ सम्बन्धी बातों में बादशाह का नायब होता था, शाही राजकोषों की देखरेख करता था और हिसाब-किताब की जाँच करता था। उसी के पास मालगुजारी की रकम जमा रहती थी। वह अराजकता की स्थिति में व्यवस्था स्थापित करने वाला था। उसे बादशाह और जनता दोनों से ही सम्पर्क बनाये रखना होता था। सरकारी नौकरियों में नियुक्ति दीवान की सिफारिश पर होती थी। राजकार्यों से सम्बन्धित कई आदेशपत्रों पर दीवान के हस्ताक्षर होने आवश्यक थे, बख्शी के कार्यालय से सम्बन्धित प्रपत्र दीवान के हस्ताक्षरों के बिना मान्य नहीं थे। मनसबदारों की तनख्वाह, जागीरों के खर्च, प्रान्तों में भेजी जाने वाली रकम, मदद-ए-माश आदि पर उसके हस्ताक्षर होते थे। दीवान नवीन पद ग्रहण करने वालों को प्रमाण-पत्र जारी करता था। जनता की राजस्व सम्बन्धी शिकायतें दीवान के समक्ष प्रस्तुत की जाती थीं। उसके विभाग में लगभग समस्त आवश्यक दस्तावेज रहते थे। इस प्रकार दीवान का कार्यालय राज्य का प्रमुख अभिलेखागार था। उसके सहायक अधिकारियों में दीवान-ए-खालसा, दीवान-ए-तन, मुस्तौफी एवं दीवान-ए-बयूतात प्रमुख थे। इस प्रकार मुगल सल्तनत में दीवान का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण था। औरंगजेब के बाद हुए अयोग्य मुगल बादशाहों के शासनकाल में सल्तनत की वास्तविक शक्ति दीवान अथवा वजीर के हाथों में चली गई।
मीर बख्शी
सैन्य विभाग का सर्वोच्च अधिकारी मीर बख्शी होता था परन्तु वह सेना का प्रधान सेनापति नहीं होता था। उसकी नियुक्ति बादशाह द्वारा सैनिक प्रबंधन के लिये की जाती थी। इस पद के कार्य समय के साथ बदलते रहे। प्रारम्भ में मीर बख्शी का प्रमुख कार्य सैनिकों की भर्ती करना, घोड़ों को दाग लगाना, सैनिकों का हुलिया लिखना एवं सेना के लिये आवास तथा रसद आदि की व्यवस्था करना था। बाद में उसे अन्य कई जिम्मेदारियाँ दे दी गईं। जिससे इस पद के अधिकारी के लिए सैन्य योग्यता के साथ-साथ प्रशासनिक योग्यता होनी भी आवश्यक हो गई। अकबर के समय में इस पद का समुचित उत्थान हुआ। बख्शी के कार्यक्षेत्रों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- (1.) कार्यालय सम्बन्धी कार्य और (2.) दरबार सम्बन्धी कार्य।
(1.) कार्यालय सम्बन्धी कार्य: सेना के कार्यालय सम्बन्धी कार्य के अन्तर्गत कई विभाग आते थे। प्रत्येक विभाग का कार्यक्षेत्र निश्चित था। मनसबदारों की नियुक्ति एवं उनके मनसबों के आधार पर उनके सैनिकों की संख्या, वेतन, जागीर आदि की जाँच बख्शी के कार्यालय में होती थी। मीर बख्शी के प्रमाणपत्र के बिना मनसबदारों के वेतन का भुगतान नहीं होता था।
(2.) दरबार सम्बन्धी कार्य: अबुल फजल लिखता है कि मीर बख्शी बाहर से आये समस्त नवीन सैनिकों के वेतन तय करवाकर उन्हें बादशाह के समक्ष उपस्थित करता था। बख्शी बादशाह की यात्राओं, बाहरी दौरों तथा आखेट में साथ रहता था। वह पड़ाव की देखरेख एवं मनसबदारों के ठहरने की व्यवस्था देखता था। वह कभी-कभी महत्त्वूपर्ण अभियानों में सेना के साथ भी भेजा जाता था। शाही महलों की सुरक्षा के लिए मनसबदारों की ड्यूटी लगाने का काम भी उसी का था। उसके विस्तृत एवं व्यापक काम में सहायता देने के लिये उसके अधीन अनेक अधिकारी एवं कर्मचारी रखे गये थे। जदुनाथ सरकार ने बख्शी को पे-मास्टर एवं ब्लाकमैन ने उसे पे-मास्टर एवं एड्जुटेण्ट कहा है किन्तु डॉ. आर. के. सक्सेना के अनुसार वास्तव में वेतन का भुगतान दीवान-ए-तन ही करता था न कि मीर बख्शी। फिर भी इसमें संदेह नहीं कि यह एक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण पद था।
खानेसामां (खान-ए-सामान)
अकबर के शासनकाल तक खान-ए-सामान के पद को मन्त्री पद के समान नहीं माना जाता था परन्तु बाद में यह पद महत्त्वपूर्ण हो गया। वह घरेलू विभाग से सम्बन्धित था और बादशाह की दैनिक भोजन व्यवस्था, कपड़े, हीरे-जवाहरात, गोला-बारूद और शाही महलों के काम आने वाले पशुओं तक की देखरेख करता था। इस पद पर महत्त्वपूर्ण उमरावों की नियुक्ति की जाती थी। खानेसामां का प्रमुख कार्य राजकीय परिवार से सम्बन्धित सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति एवं देखरेख करना था। वह बादशाह के निजी सेवकों एवं गुलामों का प्रधान था। वह राजमहल में रहकर और यदि बादशाह बाहर दौरे पर हो तो वहाँ भी साथ रहकर दैनिक खर्चे, खान-पान, वस्त्र आदि की व्यवस्था देखता था। बादशाह के हरम की आवश्यकताओं को भी वहीं देखता था। मनूची ने लिखा है कि खान-ए-सामान बादशाह के समस्त प्रकार के व्यय के प्रति उत्तरदायी था। शाही कारखानों में जहाँ नाना प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन होता था, उनकी सम्पूर्ण देखभाल भी खानेसामां के नियंत्रण मंे थी। इस दृष्टि से खानेसामां का पद राज्य में नवीन वस्तुओं के निर्माण, कारीगरों को प्रोत्साहन देने एवं राजमहल के प्रबंधन से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण पद था।
काजी-उल-कुजात (प्रधान काजी)
बादशाह के बाद न्याय विभाग का दूसरा महत्त्वपूर्ण पद काजी-उल-कुजात अर्थात् प्रधान काजी का होता था। मुगलों की न्याय व्यवस्था का प्रमुख आधार मुस्लिम कानून निर्माताओं द्वारा इस्लाम के आधार पर निर्मित सिद्धान्त एवं दिल्ली सुल्तानों द्वारा स्थापित न्याय व्यवस्था थी। बादशाह की अत्यधिक व्यस्त्ता के कारण यह सम्भव नहीं था कि वह समस्त अपीलों की सुनवाई कर सके, इसलिए काजी-उल-कुजात की नियुक्ति की जाती थी जो अपीलों की सुनवाई करता था। काजी-उल-कुजात साम्राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश था जो सल्तनत की सम्पूर्ण न्याय व्यवस्था के लिये उत्तरदायी था। उसका मुख्य काम प्रान्तों, जिलों और नगरों में काजियों को नियुक्त करना तथा उनके निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुनना था। उसकी सहायता के लिए मुफ्ती होते थे जो इस्लामी कानूनों की व्याख्या करते थे। मुगलकाल के अधिकांश काजी भ्रष्ट तथा घूसखोर थे। जदुनाथ सरकार ने लिखा है- ‘मुगलकाल के लगभग समस्त काजी कुछ अपवादों को छोड़कर घूस लेने के लिए बदनाम थे।’ डॉ. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव और डॉ. इब्नहसन का मत है कि काजी-उल-कुजात (प्रधान काजी) और सद्र-उस-सुदूर (प्रधान सद्र) एक ही व्यक्ति होता था।
सद्र-उस-सुदूर (प्रधान सद्र)
मुस्लिम कानूनों के वे ज्ञाता जिन्हें शरा की पूरी जानकारी होती थी, उलेमा कहलाते थे। बादशाह शासन के कार्यों में उलेमाओं से परामर्श लेता था। एक ही साथ अनेक उलेमाओं से परामर्श लेना सम्भव नहीं था, इसलिये बादशाह किसी एक उलेमा को शेख-उल-इस्लाम के पद पर नियुक्त करता था जिसे काजी-उल-कुजात भी कहा जाता था। कठिन प्रश्नों पर विचार करने के लिए ‘शरा’ के अन्य ज्ञाताओं को भी बुलाया जाता था जिन्हें सुदूर कहा जाता था। जो सुदूर स्थाई रूप से परामर्श के लिए नियुक्त होता था उसे सद्र-उस-सुदूर कहा जाता था। इसका मुख्य काम धार्मिक मामलों पर बादशाह को सलाह देना होता था। सद्र-उस-सुदूर का काम राजकीय दान-पुण्य की व्यवस्था करना, धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था करना, विद्वानों और साधु-संतों के लिए राजकीय अनुदान की व्यवस्था करना था। डॉ. इब्नहसन का मत है कि सद्र-उस-सुदूर का काम उलेमाओं को राज्य द्वारा जागीरें बख्शीश करवाने तथा निर्धनों को धन दान दिलवाने तक ही सीमित था। औरंगजेब ने सद्र-उस-सुदूर को पहली बार मंत्री स्तर प्रदान किया।
मुहतसिब
मुहतसिब का कार्य जनसाधारण के नैतिक चरित्र एवं आदर्श को उन्नत बनाना था। व्यावहारिक दृष्टि से इसका कार्यक्षेत्र मुसलमानों तक ही सीमित था। उसका मुख्य काम यह देखना था कि मुसलमान प्रजा, इस्लाम की शिक्षाओं के अनुसार जीवन यापन करती है या नहीं। मुसलमानों को इस्लाम के विरुद्ध आचरण करने से रोकना भी उसका उत्तरदायित्व था। औरंगजेब के शासनकाल में इस पदाधिकारी का महत्त्व काफी बढ़ गया था क्योंकि उसे सल्तनत में निर्मित होने वालेे हिन्दू मन्दिरों को तोड़ने का काम दे दिया गया था। शराबखानों तथा जुए के अड्डों को समाप्त करना भी उसका काम था। इस कार्य के लिए वह सैनिकों के साथ नगर का दौरा करता था।
अन्य पदाधिकारी
उपर्युक्त प्रमुख पदाधिकारियों के अलावा अन्य कई महत्त्वपूर्ण अधिकारी शासन व्यवस्था से सम्बन्धित थे। इनमें बुयातात, मीर आतिश, दारोगा-ए-डाक-चौकी आदि मुख्य कहे जा सकते हैं। बुयातात का काम मृत पुरुषों की धन-सम्पत्ति का लेखा रखना तथा उस धन में से राजकीय कर को काटकर शेष धन मृत पुरुष के उत्तराधिकारियों को लौटाना था। मीर आतिश तोपखाने का अध्यक्ष होता था। वह मीर बख्शी के अधीन काम करता था। उसका मुख्य काम शाही महल एवं दुर्ग की सुरक्षा का प्रबन्ध करना था। दरोगा-ए-डाक-चौकी राजकीय-डाक-विभाग का अध्यक्ष होता था। शासकीय पत्रों को भिजवाने के साथ-साथ उसे गुप्तचर विभाग भी सौंपा गया था। इसलिए शासन में उसका प्रभाव काफी बढ़ा हुआ था। निष्कर्षतः कहा जाता सकता है कि मुगलों की केन्द्रीय शासन व्यवस्था काफी सुसंगठित एवं सुव्यवस्थित थी।
प्रान्तीय शासन व्यवस्था
बाबर एवं हुमायूँ ने प्रान्तीय व्यवस्था स्थापित करने में कोई विशेष योगदान नहीं दिया। इसलिये सल्तनत कालीन व्यवस्था ही चलती रही। अकबर के शासनकाल मंे मुगल सल्तनत को सूबों (प्रान्तों) में बांटा गया। आइने अकबरी ने इनकी संख्या 12 बताई है। 1599 ई. तक बरार, खानदेश और अहमदनगर की विजय से तीन सूबे और बढ़ गये। इस प्रकार, अकबर के शासन के अन्त में मुगल साम्राज्य 15 सूबों में विभाजित था। जहाँगीर के समय में यही संख्या बनी रही परन्तु शाहजहाँ द्वारा थट्टा, उड़ीसा और काश्मीर को स्वतंत्र सूबे बना देने से सूबों की संख्या बढ़कर 18 हो गई। औरंगजेब द्वारा बीजापुर और गोलकुण्डा की विजय से दो सूबे और बढ़ गये। सूबों का क्षेत्रफल स्थायी नहीं होता था। केन्द्रीय सरकार की आवश्यकता के अनुसार इसमें परिवर्तन होते रहते थे। प्रान्तों की आय में भी कोई समानता नहीं थी। साधारणतः समस्त सूबे बराबर थे किन्तु सुरक्षा और सामरिक महत्त्व की दृष्टि से कुछ सूबों पर अन्यों की तुलना में अधिक ध्यान दिया जाता था।
सूबेदार
मुगलों की प्रान्तीय शासन व्यवस्था का ढाँचा उनकी केन्द्रीय शासन व्यवस्था से मिलता-जुलता था। जदुनाथ सरकार उसे केन्द्रीय व्यवस्था का लघु रूप ही मानते हैं। प्रान्त का सर्वोच्च अधिकारी सिपहसालार तथा सूबा-ए-साहिब कहलाता था। यह पदाधिकारी सूबे में बादशाह का ही प्रतिरूप था। उसकी नियुक्ति बादशाह द्वारा की जाती थी। सामान्यतः यह पद राजवंश के सदस्यों तथा उच्च मनसबदारों को दिया जाता था। सूबेदार की नियुक्ति और पदोन्नति के सम्बन्ध में निश्चित नियम नहीं थे। सूबेदार की नियुक्ति एक सूबे में कितने समय तक रहेगी, इसके भी स्पष्ट नियम नहीं थे। सामान्यतः तीन वर्ष की अवधि के बाद उनका स्थानान्तरण किया जाता था। मुगल बादशाह की भाँति सूबेदार का अपना दरबार होता था। वह एक विशाल सेना रखता था। सूबेदार के मुख्य कामों में प्रान्त में शान्ति एवं व्यवस्था को कायम रखना, शाही आदेशों का पालन करवाना, प्रान्त से राजस्व वसूली के कार्य में सहयोग देना, विद्रोहों का दमन करना, न्याय प्रदान करना और जन-सुविधा का ध्यान रखना शामिल था। सूबेदार के लिये ऐसे कार्य करने की मनाही थी जो बादशाह के विशेषाधिकार में थे, जैसे- चमड़ी उधड़वाना, हाथी के पैरों से कुचलवाना, झरोखा-दर्शन देना आदि। मृत्युदण्ड के मामलों में उसे शाही निर्देशों के अनुसार कार्य करना होता था। बादशाह की पूर्व स्वीकृति के बिना वह पड़ौसी राज्यों से युद्ध अथवा सन्धि नहीं कर सकता था। वह अपने अधीनस्थ अधिकारियों- दीवान और सद्र को नियुक्त अथवा पदच्युत भी नहीं कर सकता था।
दीवान-ए-सूबा
प्रान्तीय शासन व्यवस्था का दूसरा महत्त्वपूर्ण अधिकारी दीवान-ए-सूबा था। प्रान्त में सूबेदार के पश्चात् दीवान का ही पद था। यह प्रान्त में केन्द्रीय राजस्व विभाग का प्रतिनिधि था और किसी भी तरह से सूबेदार के अधीन नहीं था। वह सूबेदार का प्रतिद्वन्द्वी था। दोनों ही एक-दूसरे पर निगरानी रखते थे। प्रान्तीय दीवान का चुनाव केन्द्रीय दीवान करता था और बादशाह उसकी नियुक्ति करता था। दीवान का मुख्य काम प्रान्त से राजस्व वसूल करना तथा राजस्व वसूली के लिए प्रान्तीय अधिकारियों एवं कर्मचारियों को नियुक्त करना था। राजस्व सम्बन्धी विवादों को निपटाना तथा कृषि की उन्नति की तरफ ध्यान देना भी उसी का काम था। उसे अपने कामों के लिए सूबेदार की सहायता पर निर्भर रहना पड़ता था। क्योंकि दीवान के अधिकार में अलग से सैनिक नहीं होते थे। वह अपनी रिपोर्ट केन्द्रीय दीवान के पास भेजता था।
सद्र-ए-सूबा
दीवान के पश्चात न्याय और धार्मिक विभाग के अध्यक्ष का पद प्रमुख था। सद्र की नियुक्ति केन्द्र के सद्र-उस-सुदूर की सिफारिश पर बादशाह द्वारा की जाती थी। वह अपने क्षेत्र में इस्लाम के हितों के प्रति उत्तरदायी था।
काजी-ए-सूबा
काजी-ए-सूबा प्रान्तों में प्रमुख न्यायाधीश था जिसकी नियुक्ति बादशाह काजी-उल-कुजात की सिफारिश पर करता था। वह दीवानी और फौजदारी दोनों ही प्रकार के मुकदमों की सुनवाई करता था।
बख्शी-ए-सूबा
बख्शी-ए-सूबा अथवा बख्शी, प्रान्त का प्रमुख अधिकारी था। इसकी नियुक्ति मीर बख्शी की सिफारिश पर बादशाह द्वारा की जाती थी। वह सूबे के सैनिकों की देखभाल करता था। वह प्रान्त में मनसबदारों की सूची भी रखता था। प्रान्तीय बख्शी वाकियानवीस का भी कार्य करता था। उसे माह में दो बार प्रान्त की गतिविधियों की सूचना बादशाह को भेजनी पड़ती थी।
जिला शासन व्यवस्था
मुगल काल में भी प्रान्त जिलों में विभाजित थे, जो सरकार कहलाते थे। सरकार महाल या परगने में विभाजित थी। परगने का निर्माण कई गाँवों के मिलने से होता था। शाहजहाँ के समय में कुछ परगनों को मिलाकर एक अन्य इकाई का निर्माण किया गया जिसे चकला कहा जाता था। कितने परगनों को मिलाकर एक सरकार बनती थी और एक प्रान्त में कितनी सरकार होती थी, यह निश्चित नहीं था।
फौजदार
जिले के सर्वोच्च अधिकारी को फौजदार कहते थे। उसका पद और कार्य आजकल के जिला कलक्टर के समान था। वह प्रान्तीय सूबेदार के प्रति उत्तरदायी होता था। जिले में शान्ति और व्यवस्था बनाये रखने के लिए उसके अधीन एक सैनिक टुकड़ी रहती थी। जदुनाथ सरकार का मानना है कि फौजदार केवल प्रान्तीय सेना का एक सेनापति होता था और उसका कार्य छोटे-छोटे विद्रोहों का दमन करना, डाकुओं का उन्मूलन करना तथा राजस्व अधिकारियों को सहयोग प्रदान करना था। उसकी नियुक्ति प्रान्तीय सूबेदार की सिफारिश पर बादशाह द्वारा की जाती थी।
अमल गुजार
जिले की शासन व्यवस्था का दूसरा प्रमुख अधिकारी अमल गुजार होता था। यह मालगुजारी एकत्र करने से सम्बन्धित मुख्य अधिकारी था। इसकी नियुक्ति केन्द्रीय सरकार द्वारा की जाती थी किन्तु वह प्रान्तीय दीवान के प्रति उत्तरदायी होता था। अमलदार को बेईमान और उपद्रवी किसानों के साथ कठोर व्यवहार करने के आदेश थे। सरकारी खजाने की देखभाल भी उस के अधीन थी।
बितिक्ची
अमल गुजार के अधीन बितिक्ची होता था जो भूमि और लगान सम्बन्धी कागज तैयार करता था। वह किसानोें को लगान वसूली की रसीद देता था। परगने की शासन व्यवस्था शिकदार, आमिल, पोतदार, कानूनगो और कारकून चलाते थे।
शिकदार
शिकदार परगने का मुख्य सैनिक अधिकारी होता था जो अपने क्षेत्र में शान्ति एवं व्यवस्था के लिए जिम्मेदार था। वह राजस्व वसूली के कार्य में भी सहयोग देता था।
आमिल
आमिल परगने का वित्त अधिकारी था। उसका मुख्य काम किसानों से लगान वसूल करना था।
पोतदार
पोतदार परगने का खजांची था। कानूनगो परगने के पटवारियों का अधिकारी था। उसका मुख्य काम लगान, भूमि और कृषि सम्बन्धी दस्तावेजों की देखभाल करना तथा उन्हें तैयार करना था।
कोतवाल
बड़े नगर की व्यवस्था के लिए एक कोतवाल होता था। उसके पास 100 पैदल सैनिक एवं 50 घुड़सवार सैनिक होते थे। कोतवाल मुख्य रूप से नगर पुलिस का अध्यक्ष होता था किन्तु साथ ही वह नगरपालिका का प्रशासन और फौजदारी के मुकदमों के लिए स्थानीय न्यायाधीश का काम भी करता था। वह नगर में शान्ति व्यवस्था बनाये रखना, मूल्यों, मापतौल के बाटों का निरीक्षण करना, अपराधों को रोकना, लावारिसों की सम्पत्ति की व्यवस्था करना, बूचड़खानों, कब्रगाहों और शमशानों पर निगरानी रखना आदि कार्य भी करता था।
ग्राम शासन
मुगलों के काल में गाँवों की शासन व्यवस्था पहले की भाँति परम्परागत ग्राम पंयाचतों के द्वारा की जाती रही। गाँवों के प्रमुख अधिकारियों में मुकद्दम, पटवारी, चौकीदार आदि मुख्य थे। डॉ. परमात्माशरण के अनुसार मुस्लिम शासकों ने अपनी दूरदृष्टि और राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए ग्राम बिरादरी के स्थानीय शासन के मामले में हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा।
बाबर ने सैनिक शक्ति के बल पर मुगल साम्राज्य की नींव रखी। उसकी सैन्य व्यवस्था तैमूर और चंगेज खाँ के संगठन पर आधारित थी। बाबर की सेना की शक्ति तोपखाने के कारण अत्यधिक बढ़ गई थी। उसने तुर्कों, मंगोलों और उजबेगों की युद्ध प्रणाली की भी अनेक बातें अपना ली थीं। हुमायूँ ने बाबर की व्यवस्था को कायम रखा परन्तु वह अच्छा सेनापति नहीं था। अकबर ने सैनिक शक्ति को सुदृढ़ बनाकर सल्तनत का विस्तार किया। उसने सेना में अनेक सुधार किये। उसने मनसबदारी प्रथा के आधार पर सैनिक व्यवस्था को संगठित बनाया। उस समय में सेना के तीन मुख्य अंग थे- घुड़सवार, तोपखाना और पैदल। अकबर ने नाविक बेड़े का भी गठन किया। सेना के इन समस्त अंगों का महत्त्व एक जैसा नहीं था। बाद में हाथियों का महत्त्व भी बढ़ा। औरंगजेब के शासनकाल तक मुगलों की सेना अपनी धाक को बनाये रख सकी परन्तु पहले मेवाड़ के विरुद्ध असफल रहने पर और बाद में मराठों के विरुद्ध असफल रहने पर उसकी प्रतिष्ठा नष्ट हो गई।
घुड़सवार सेना
मुगल सेना का सबसे प्रमुख अंग घुड़सवार सेना थी। अधिकांश मुगल शासक स्वयं अच्छे घुड़सवार थे। बाबर ने भारत में जिस तुगलमा पद्धति का उपयोग किया और जिसके कारण उसे विजय प्राप्त हुई, वह घुड़सवारों की गति पर आधारित थी। घुड़सवारों की दो श्रेणियाँ थीं- बरगीर और सिलेदार। बरगीर सैनिक को राज्य की तरफ से घोड़े, अस्त्र-शस्त्र एवं वस्त्र दिये जाते थे। सिलेदार सैनिक घोड़े, अस्त्र-शस्त्र एवं वस्त्र की व्यवस्था स्वयं करता था। घुड़सवारों का एक अन्य वर्गीकरण भी था। जिस सैनिक के पास दो घोड़े होते थे वह दुअस्पा कहलाता था। एक घोड़े वाले सैनिक को एक-अस्पा कहा जाता था। दो सैनिकों के बीच एक घोड़ा होने पर उन्हें निम-अस्पा कहा जाता था। इस वर्गीकरण के आधार पर उनका वेतन भी अलग-अलग होता था।
मुगल घुड़सवार सेना की सर्वाधिक श्रेष्ठ टुकड़ी अहदी सैनिकों की होती थी। इनकी भर्ती सीधे केन्द्र द्वारा की जाती थी और इनका सम्पर्क सीधे बादशाह से होता था। ये लोग बादशाह के निजी सेवक होते थे। इनके प्रशिक्षण की व्यवस्था राज्य की तरफ से की जाती थी। इनके लिए एक अलग दीवान और बख्शी होता था तथा एक अमीर इनका प्रमुख होता था। विशेष अवसरों पर अहदी सैनिकों को सेना के साथ भेजा जाता था। आरम्भ में एक-एक अहदी के पास आठ-आठ घोड़े रहते थे परन्तु बाद में अकबर के शासन के अन्त में यह संख्या घटाकर पाँच कर दी गई। जहाँगीर ने इस संख्या को और कम करके चार कर दिया। अहदी सैनिकों को 25 रुपये से 500 रुपये प्रतिमाह तक वेतन दिया जा सकता था जबकि अन्य घुड़सवारों को 12 से 15 रुपये प्रतिमाह वेतन मिलता था।
पैदल सेना
अकबर के समय में पैदल सेना को प्यादा अथवा पायक कहा जाता था। पैदल सैनिकों की तीन श्रेणियां थीं- (1.) लड़ाकू: इस श्रेणी में बन्दूकची और तलवारिया (शमशीर बाज) आते थे। (2.) अर्द्ध-लड़ाकू: इस श्रेणी में संदेशवाहक, दास, चोबदार आदि आते थे। (3.) गैर लड़ाकू: इस श्रेणी में लुहार, खनिक आदि आते थे। पैदल सेना में बन्दूकचियों की संख्या सबसे अधिक होती थी। उन्हें सेना का महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता था परन्तु उनका वेतन बहुत कम था। बर्नियर ने लिखा है कि पैदलन सैनिकों को बहुत कम वेतन मिलता था और बन्दूकचियों को अच्छे समय में भी कठिनाई से जीवन यापन करना पड़ता था।
तोपखाना
बाबर ने भारत में सर्वप्रथम तोपखाने का उपयोग किया था परन्तु इसका संगठन अकबर के समय में हो पाया। तोपखाने की व्यवस्था के लिए मीर खानसामा और मीर आतिश नामक अधिकारियों की नियुक्ति की गई। तोपों की ढलाई के लिए ढलाई खाने बनाये गये। ये तोपें इतनी भारी होती थीं कि उन्हें ढोने के लिए कई हाथियों और पशुओं की आवश्यकता पड़ती थी। औरंगजेब ने तोपखाने में सुधार करने का अथक प्रयास किया। फिर भी इतिहासकारों का मानना है कि मुगल तोपखाना निम्न स्तर का था। इसलिये आगे चलकर यूरोपीय राष्ट्रों की तुलना में भारतीयों का तोपखाना काफी कमजोर सिद्ध हुआ।
नौ-सेना
मुगल सैनिक व्यवस्था में मुगल नौ-सेना सबसे उपेक्षित थी। अकबर ने पहली बार नौ-सेना के लिए मीर-ए-बहर की अध्यक्षता में एक अलग विभाग खोला। जहाँगीर और शाहजहाँ ने इस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। औरंगजेब ने अवश्य ही इस ओर ध्यान दिया। फिर भी मुगलों की नौ-सेना नावों का छोटा बेड़ा मात्र ही रही, जिसका मुख्य काम शाही परिवार के सदस्यों और सैनिकों को इस किनारे से उस किनारे पहुँचाना था।
वित्त और राजस्व व्यवस्था
बाबर और हुमायूँ, दोनों का शासनकाल किसी प्रकार के आर्थिक सुधारों को कार्यान्वित करने के लिए अपर्याप्त रहा। अकबर ने सल्तनत की अर्थव्यवस्था को संगठित करने का प्रयास किया। उसे इस कार्य में सफलता भी मिली। अकबर जनकल्याण को उतना ही महत्त्व देता था जितना कि वह राज्य की सुरक्षा को देता था। उसकी कर पद्धति का उद्देश्य न केवल राज्य की वित्तीय स्थिति को सुधारना था अपितु मोटे तौर पर किसानों, व्यापारियों और आम आदमी के हितों की रक्षा करना भी था। जहाँगीर और शाहजहाँ ने उसकी नीति का पालन किया परन्तु औरंगजेब के समय अकबर द्वारा स्थापित व्यवस्था लड़खड़ाने लगी।
आय के स्रोत
आय का मुख्य साधन भूमि कर था। व्यापारिक कर, खानों पर कर, पैतृक सम्पत्ति कर, नमक कर, चुँगी कर, युद्ध में लूटी गई सम्पत्ति का 1/5वाँ भाग, टकसाल, अधीनस्थ राज्यों से प्राप्त होने वाले उपहार तथा वार्षिक कर, राजकीय कारखानों से होने वाली आय आदि मुगल राज्य की आय के मुख्य साधन थे। स्थानीय शासन को विभिन्न प्रकार के करों से होने वाली आय का उपयोग स्थानीय शासन के लिए किया जाता था। बाबर ने मुसलमानों से जकात नामक धार्मिक कर और गैर मुसलमानों से जजिया तथा तीर्थयात्रा कर लेने की व्यवस्था की। हुमायूूँ ने यह व्यवस्था जारी रखी। अकबर ने जजिया और तीर्थयात्रा कर समाप्त कर दिया। जहाँगीर और शाहजहाँ ने अकबर की नीति को जारी रखा परन्तु औरंगजेब ने बादशाह बनने के कुछ वर्षों बाद इन करों को पुनः आरम्भ कर दिया। मुगलों को व्यय के मुकाबले अधिक आय होती थी।
चुँगी
मुगल शासन की आय का एक प्रमुख साधन चुँगी थी। देश के आंतरिक भागों और विदेशों से आने वाली वस्तुओं पर चुँगी ली जाती थी। विदेशों से आने वाले और विदेशों को भेजे जाने वाले माल पर बन्दरगाहों और सीमाओं पर चुँगियाँ लगा करती थीं। अकबर के समय में उत्तरी भारत में लगभग 21 बन्दरगााह थे। इनमें से लहारीबन्दर, सूरत और बालसौर अधिक प्रसिद्ध थे। बन्दरगाहों से प्राप्त चुँगी का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि केवल सूरत के बन्दरगाह से राज्य को तीस लाख रुपये वार्षिक आय होती थी। सामान्यतः जिले के अधिकारी को शाही फरमान के द्वारा उस जिले में स्थित बन्दरगाहों का नियंत्रण सौंप दिया जाता था। जिन्सों पर राज्य की ओर से कर निर्धारित किये जाते थे। बादशाह के आदेश से समय-समय पर इन दरों में फेरबदल होता रहता था। करों की वसूली का काम जिलाधिकारी अथवा अन्य किसी व्यक्ति को सौंप दिया जाता था। कभी-कभी किसी स्थान से प्राप्त होने वाली चुँगी की आय किसी व्यक्ति विशेष को भी प्रदान कर दी जाती थी। सामान्यतः चुँगी की दर जिन्स के मूल्य पर ढाई से पाँच प्रतिशत ली जाती थी। औरंगजेब के शासनकाल तक यह दर कायम रही। समकालीन विदेशी यात्री लिखते हैं कि सीमा शुल्क अधिकारी बड़े कठोर थे। भारत आने वाले प्रत्येक व्यक्ति की तलाशी ली जाती थी। थेवेनो ले लिखा है- ‘कभी-कभी व्यापारी को माल छुड़ाने में एक महीना तक लग जाता था।’ देश के भीतरी भागों में माल ले जाने पर भी चुँगी वसूल की जाती थी। इसे राहदारी कहा जाता था।
टकसाल
राज्य के आय के साधनों में टकसाल भी महत्त्वपूर्ण थी। 1577 ई. से पहले तक, प्रान्तीय टकसालें चौधरियों के अधीन कार्य करती थीं। अकबर ने इस व्यवस्था को समाप्त करके टकसालों के लिए अलग अधिकारी नियुक्त किये। इन अधिकारियों के ऊपर एक निदेशक नियुक्त किया। सरकारी खजाना एक प्रकार से विनिमय बैंक था। लोगों को टकसाल में जाकर सिक्के ढलवाने की स्वतंत्रता थी। इससे राज्य को बट्टे के रूप में धन प्राप्त होता था। घिसे हुए सिक्कों को बदलते समय भी राज्य बट्टा वसूल करता था। राज्य को टकसाल से कितनी आय होती थी इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि औरंगजेब के शासनकाल में केवल सूरत की टकसाल से नौ लाख रुपये वार्षिक आय होती थी। अधिकांश इतिहासकारों ने मुगलकालीन सिक्कों की विशुद्धता तथा बनावट की सुन्दरता की प्रशंसा की है। मुगलों का चाँदी का रुपया 177.4 ग्राम वजन का होता था।
सम्पत्ति जब्ती
यूरोपीय यात्रियों ने सम्पत्ति जब्ती के बारे में विस्तृत जानकारी दी है। उनके अनुसार शाही मनसबदार की मृत्यु हो जाने पर उसकी सम्पत्ति पर बादशाह का स्वामित्व हो जाता था। बड़े व्यापारी की मृत्यु होने पर उसकी सम्पत्ति बादशाह की हो जाती थी। एक यात्री ने लिखा है- ‘बादशाह अपने सामन्त की सम्पूर्ण सम्पत्ति को अपने अधिकार में ले लेता था। यदि मृतक ने निष्ठापूर्वक सेवा की हो तो उसके बीवी-बच्चों को जीविका निर्वाह योग्य धन दे दिया जाता था, इससे अधिक नहीं।’
मुगलों की न्याय व्यवस्था
मुगलों की न्याय व्यवस्था के सम्बन्ध में इतिहासकारों के मध्य विवाद रहा है। जदुनाथ सरकार ने इस व्यवस्था को सुगम, सक्रिय एवं अपूर्ण बताया है। डॉ. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने इसे दोषपूर्ण बताया है जबकि डॉ. हसन ने इसे समयानुकूल माना है। डॉ. जैन का मत है कि मुगलों की न्याय व्यवस्था कम खर्चीली, शीघ्र कार्य करने वाली, सरल तथा तथ्यों पर आधारित थी। वास्तविकता यह है कि मुगलों की न्याय व्यवस्था काफी दुर्बल थी।
बादशाह
बादशाह, सल्तनत का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था जो सप्ताह में एक बार खुले दरबार में बैठकर अपीलों एवं अभियोगों का निर्णय करता था। हुमायूँ ने अपनी न्यायप्रियता का ढिंढोरा पीटने के लिए तबल-अदल अर्थात् न्याय के नगाड़े की स्थापना की थी। अकबर धार्मिक मतभेदों तथा प्रभावों से दूर रहकर न्याय करने का प्रयास करता था। जहाँगीर ने सोने की जंजीर का एक सिरा शाहबुर्ज के कंगूरे में लगाकर और दूसरे सिरे को यमुना नदी के तट तक ले जाकर पत्थरों के खम्भों में बाँधकर अपने न्यायप्रिय होने की घोषणा की। न्याय में देर होने अथवा और किसी प्रकार की कठिनाई के समय इस जंजीर को हिलाकर बादशाह का ध्यान आकर्षित किया जा सकता था। औरंगजेब के लिये कहा जाता है कि तैमूर के वंशजों में न्याय के लिए इतना अधिक सेवानिष्ठ एवं कठोर शासक कोई दूसरा नहीं था।
अधीनस्थ न्यायिक संस्थाएँ
मुगल बादशाह के साथ-साथ सल्तनत में एक ही समय में कार्य करने वाली एक-दूसरे से स्वतंत्र चार तरह की न्यायिक संस्थाएँ थीं-
(1.) काजी एवं मुफ्ती: राजधानी में प्रथम काजी, प्रान्तीय राजधानियों में प्रान्त का प्रधान काजी तथा बड़े-बड़े नगरों और कस्बों में भी काजी लोग न्याय प्रदान करते थे। काजी की अदालतों में धर्मिक विवाद तथा दीवानी मामले प्रस्तुत किये जाते थे। प्रथम न्यायालय में काजी शरीयत के अनुसार न्याय करता था। उसके सामने कुल विधि, आनुवंशिक सम्बन्धी झगड़े, धार्मिक संस्था के पूँजी सम्बन्धी विवाद आदि प्रस्तुत किये जाते थे। काजियों की सहायता करने एवं इस्लामी कानूनों की व्याख्या करने के लिये मुफ्तियों को नियुक्त किया जाता था।
(2.) राजकीय अधिकारी: दूसरे प्रकार के न्यायालय बादशाह एवं केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त सूबेदार, फौजदार, शिकदार और कोतवाल आदि अधिकारियों द्वारा चलाये जाते थे। ये लोग सामान्यतः फौजदारी मामलों की सुनवाई करते थे। दीवान, अमल गुजार, आमिल आदि अधिकारी लगान सम्बन्धी मामलों की सुनवाई करते थे।
(3.) उर्फ: तीसरे प्रकार के न्यायालय को उर्फ कहा जाता था। वे राजद्रोहों तथा संगीन अपराधों के सम्बन्ध में निर्णय देते थे।
(4.) जातीय पंचायतें: चौथे प्रकार के न्यायालय गांवों में परम्परागत रूप से चलने वाली वे जातीय पंचायतें थीं जो अलिखित प्रथाओं अथवा जातीय परम्पराओं की विधि संहिता के अनुसार न्याय करती थीं।
हिन्दुओं के लिये न्याय व्यवस्था
अकबर ने हिन्दुओं के परस्पर दीवानी झगड़ों की सुनवाई के लिये हिन्दू पण्डितों को भी न्यायाधीश नियुक्त किया। ये पण्डित हिन्दू कानूनों, रीति-रिवाजों तथा परम्पराओं के आधार पर निर्णय करते थे। गाँवों में न्याय करने का उत्तरदायित्व ग्राम पंचायतों का था। शासक भी उनके निर्णयों को सम्मान देते थे। निम्न अदालतों के निर्णय के विरुद्ध उससे ऊपर की अदालत में अपील की जा सकती थी।
मुगलों की न्याय व्यवस्था के दोष
मुगलों की न्याय व्यवस्था में कई दोष थे-
(1.) एक न्यायालय का दूसरे न्यायालय के साथ पारस्परिक सम्बन्ध और अधिकार क्षेत्र स्पष्ट नहीं था।
(2.) मंगोल न्याय व्यवस्था इस्लामी कानून पर आधारित थी किंतु कानूनों की व्याख्या में काफी अन्तर आ जाता था।
(3.) साम्राज्य में प्रचलित नियमों का संग्रह नहीं था। इससे लोगों को कानूनों की पर्याप्त जानकारी नहीं मिल पाती थी।
औरंगजेब के शासनकाल में इन कानूनों को फतवा-ए-आलमगिरी के रूप में संगृहीत कराने का प्रयास किया गया। इस प्रकार मुगलों की न्याय व्यवस्था में न तो न्यायालयों में कोई नियमित श्रेणी बद्धता थी, न ही समुचित विभाजन था और न न्याय की सुव्यवस्थित प्रणाली ही थी।
दण्ड विधान
मुगलों का दण्ड-विधान काफी कठोर था। चोरी, डकैती, हत्या, राजद्रोह, यौन अपराध तथा घूस आदि लेना-देना प्रमुख अपराध थे। गम्भीर अपराधों तथा राजद्रोह के मामलों में प्राणदण्ड, अंग-विच्छेद, सम्पूर्ण सम्पत्ति का अपहरण आदि दण्ड दिये जाते थे। साधारण अपराधों के लिए कोड़ों से पीटने की सजा, सामाजिक दृष्टि से अपमानित करना, आर्थिक जुर्माना आदि सजाएँ दी जाती थीं।
बंदीगृह
मुगलों के शासन काल में आजकल की भाँति बन्दीगृहों की पृथक् व्यवस्था नहीं थी। ग्वालियर, आगरा, हांसी, इलाहाबाद आदि पुराने दुर्गों को बन्दी गृहों के रूप में काम में लिया जाता था। कैदियों का व्यवहार संतोषजनक पाये जाने पर उनको समय के पूर्व ही रिहा कर दिया जाता था। बादशाहों के राज्यारोहण एवं शहजादों के जन्म आदि अवसरों पर भी कैदियों को रिहा करने की परम्परा थी।
मुगल शासन व्यवस्था का मूल्यांकन
मुगलकालीन शासन व्यवस्था का मूल्यांकन करते समय हमें मध्ययुगीन परिस्थितियों को ध्यान में रखना चाहिये। उस युग में धार्मिक कट्टरता की प्रधानता थी और कोई भी संस्था उससे अप्रभावित नहीं रह पाई थी। उस युग में यातायात, आवागमन तथा संचार के साधनों का पर्याप्त विकास नहीं हो पाया था। केन्द्रीय सरकार के लिए शासन की प्रांतीय एवं जिला इकाइयों से निरन्तर सम्पर्क बनाये रखना सम्भव नहीं था। अनेक इतिहासकारों ने मुगल शासन व्यवस्था को मध्ययुग की श्रेष्ठ शासन व्यवस्था माना है।
दिल्ली सुल्तानों के समय में केन्द्रीय तथा प्रान्तीय स्तर पर शासन के मूलभूत सिद्धान्त व्यवस्थित नहीं हो पाये थे। उन्होंने इस देश में अब्बासिद संस्थाओं को लागू करने का प्रयास किया था परन्तु खलजी और तुगलक शासकों के अलावा अन्य सुल्तानों के समय में इस दिशा में विशेष प्रगति नहीं हो पाई। लोदी शासनकाल में अमीरों में कबीलाई भावना की प्रधानता तथा सुल्तान के साथ उनके समानता के दावे के कारण शासन व्यवस्था शिथिल पड़ गई थी और मुगल बादशाहों को केन्द्रीय शासन को नये सिरे से मजबूत बनाने के लिये नई व्यवस्थाएँ करनी पड़ीं।
बाबर एवं हुमायूँ की शासन व्यवस्था
बाबर और हुमायूँ को केन्द्रीय एवं प्रांतीय शासन व्यवस्था को संगठित करने का समय नहीं मिल सका। वे राज्य के विजेता तो थे किंतु उन दोनों की शासकीय प्रतिभा संदिग्ध है।
अकबर की शासन व्यवस्था
मुगल सल्तनत में शासन व्यवस्था स्थापित करने का श्रेय अकबर को जाता है। अकबर ने सुसंगठित एवं सुव्यवस्थित शासन व्यवस्था विकसित करने के लिये निम्नलिखित नवाचार किये-
(1.) अधिकारियों के कार्यों एवं अधिकारों का विभाजन: अकबर ने प्रशासन की विभिन्न इकाइयों के कार्यों तथा अधिकारों का स्पष्ट विभाजन करके उनके उत्तरदायित्व को स्पष्ट कर दिया।
(2.) अधिकारियों पर दृष्टि रखने की व्यवस्था: अकबर ने विभागीय कार्यों के लिए विभिन्न अधिकारियों को नियुक्त किया तथा प्रत्येक अधिकारी पर दूसरे अधिकारी द्वारा दृष्टि रखने की व्यवस्था लागू की। प्रान्तीय शासन व्यवस्था इसका सबसे अच्छा उदारहण है। इस प्रकार की व्यवस्था से कोई भी पदाधिकारी अपनी गतिविधियों को केन्द्रीय सरकार से अधिक दिनों तक गुप्त नहीं रख सकता था तथा सामान्यतः विद्रोह करने के सम्बन्ध में भी नहीं सोच सकता था।
(3.) मनसबदारी प्रथा: अलाउद्दीन खलजी के समय से घोड़ों को दागने, सैनिकों का हुलिया नोट करने, दशमलव पद्धति के आधार पर सैनिकों का विभाजन करने आदि प्रथाएँ चली आ रही थीं। अकबर ने उन प्रथाओं को विकसित रूप देकर मनसबदारी प्रथा प्रारम्भ की।
(4.) दहसाला बंदोबस्त: शेरशाह के समय में भी राजा टोडरमल ने भू एवं राजस्व सम्बन्धी सुधार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अकबर के सौभाग्य से उसे भी राजा टोडरमल की सेवाएं प्राप्त हो गईं। राजा टोडरमल ने मालगुजारी के क्षेत्र में पर्याप्त सुधार करके दहसाला बंदोबस्त को लागू किया।
जहाँगीर की शासन व्यवस्था
अकबर द्वारा स्थापित शासन व्यवस्था को उसके उत्तराधिकारियों ने थोड़े-बहुत परिवर्तनों के साथ लागू रखा। जहाँगीर ने शासन व्यवस्था में किसी प्रकार का विशेष सुधार नहीं किया। उसके शासनकाल में अकबर की शासन व्यवस्था अपने मूलरूप में कायम रही।
शाहजहाँ की शासन व्यवस्था
शाहजहाँ के समय में भी अकबर कालीन शासन व्यवस्था चलती रही। शाहजहाँ ने शासन व्यवस्था में परिस्थ्तििवश मामूली सुधार किये।
औरंगजेब की शासन व्यवस्था
औरंगजेब इस्लाम का कट्टर अनुयायी था। अतः उसने इस्लामिक सिद्धान्तों को आधार बनाकर शासन व्यवस्था में कई बदलाव किये। शासन से उदारता लुप्त हो गई। हिन्दुओं को प्रजा का दर्जा नहीं दिया गया। उन पर जजिया एवं तीर्थ कर पुनः आरोपित कर दिये गये। हिन्दुओं के तीर्थस्थलों, देवालयों एवं देवमूर्तियों को भंग करना शासन का कर्त्तव्य हो गया।
परवर्ती मुगल शासकों की शासन व्यवस्था
औरंगजेब की मृत्यु के बाद परवर्ती अयोग्य एवं विलासी मुगल शासकों के समय शासन व्यवस्था में धीरे-धीरे इतने दोष उत्पन्न हो गये कि अन्त में मुगल साम्राज्य और मुगलवंश का ही पतन हो गया। फिर भी, मध्ययुग में लम्बे समय तक मुगल शासन व्यवस्था ने भारत को सुरक्षा तथा शान्ति प्रदान की। बाद में अंग्रेजों ने भी उस शासन व्यवस्था की उपादेयता को ध्यान में रखकर उसकी बहुत सी बातों को अपनाया।
भारत पर अधिकार स्थापित करने वाले प्रारम्भिक तुर्क सुल्तानों के समक्ष यह समस्या थी कि वे विजित प्रदेशों में इस्लामी भू-राजस्व व्यवस्था को लागू करें अथवा भारत की प्राचीन भू-राजस्व व्यवस्था को जारी रखें या दोनों का समन्वय कर एक नई व्यवस्था बनायें! तत्कालीन परिस्थितियों में अन्तिम विकल्प ही उचित प्रतीत हुआ और उन्होंने भारतीय तथा इस्लामिक व्यवस्था को मिलाकर नयी व्यवस्था स्थापित की। इस व्यवस्था में हिन्दू और मुस्लिम कृषकों के लिये अलग-अलग भू-राजस्व की दरें निर्धारित की गईं।
दिल्ली सुल्तानों की नीति
दिल्ली सल्तनत की आय का सबसे बड़ा साधन भूमि-कर (लगान) था। मुस्लिम उलेमाओं ने भूमि को मुख्य रूप से तीन भागों में बाँटा हैं- (1) उशरी, (2) खराजी, और (3) सुल्ही। उशरी भूमि मोटे तौर पर वह भूमि थी जो मुसलमानों के अधिकार में थी। खराजी वह भूमि थी जिस पर गैर-मुस्लिमों द्वारा काश्त की जाती थी। संधि के अंतर्गत प्राप्त होने वाली भूमि सुल्ही कहलाती थी। दिल्ली के सुल्तानों के पास सुल्ही भूमि नहीं थी। उशरी और खराजी भूमियां उपज के आधार पर पाँच श्रेणियों में विभक्त थीं। उशरी भूमि से उपज का 1/10वाँ भाग भूमिकर के रूप में लिया जाता था परन्तु यदि कृत्रिम साधनों से भूमि की सिंचाई की गई हो तो केवल 1/20 वाँ भाग ही वसूल किया जाता था। खराजी भूमि पर 1/2 से 1/5वाँ भाग तक लगान के रूप में वसूल किया जाता था। लगान नकद अथवा जिन्स, दोनों रूप में दिया जा सकता था।
बाबर और हुमायूँ की नीति
पानीपत के युद्ध के पश्चात् बाबर ने भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डाली और एक विशाल क्षेत्र को अपने अधीन किया। उसने राजनीतिक व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन करते हुए अफगानों के स्थान पर मुगल, चगताई एवं मिर्जा अमीरों को प्रांतीय शासक बनाया। सल्तनत की समस्त बड़ी जागीरें उन्हें सौंप दी गईं किंतु बाबर ने देश की प्रशासनिक व्यवस्था में बदलाव करना उचित नहीं समझा। उसने लोदियों के समय में लागू मालगुजारी व्यवस्था को ज्यों का त्यों जारी रखा। मुगल अमीरों को दी गई जागीरों की आय से बाबर को एक निश्चित रकम वार्षिक कर के रूप में मिलने लगी। जिन प्रान्तों में खालसा भूमि की घोषणा की गई, वहाँ बाबर ने मालगुजारी वसूलने के लिए शिकदारों की नियुक्ति की। बाबर ने कुछ क्षेत्रों पर स्थानीय जमींदारों की सहायता से भी शासन किया। उसने इन जमींदारों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया। इसलिए ये जमींदार भी वार्षिक कर देते रहे।
हुमायूँ के शासनकाल में भू-राजस्व सम्बन्धी सुधार किये गये। सिकन्दरीगज को 41 से बढ़ाकर 42 कर दिया गया। उसके समय में एक खखार (आठ मन से कुछ अधिक) अनाज पर दो बाबरी तथा चार टंक कर लिया जाता था। कुछ विद्वानों का मत है कि हुमाँयू के समय में अकबर के समय से कम लगान लिया जाता था।
शेरशाह की लगान व्यवस्था
शेरशाह ने सल्तनत की समस्त भूमि की नपाई करवाकर प्रत्येक श्रेणी की भूमि का क्षेत्रफल एक रजिस्टर में दर्ज करवाया। भूमि को तीन श्रेणियों में बाँटा गया- उत्तम, मध्यम, और निम्न। इन तीनों श्रेणियों की भूमि की उपज को जोड़कर, तीन से विभाजित कर प्रति बीघा भूमि की औसत पैदावार निकाली जाती थी। पैदावार का एक तिहाई हिस्सा लगान के रूप में लिया जाता था। किसानों को स्वतंत्रता थी कि वे लगान अनाज अथवा नकदी के रूप मे दें। प्रत्येक किसान को उसकी भूमि का पट्टा दिया जाता था जिसमें किसान की भूमि के क्षेत्रफल, भूमि की स्थिति और किसान द्वारा अदा किया जाने वाला लगान दर्ज होता था। प्रत्येक किसान को कबूलियत नामक दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने पड़ते थे, जिसमें किसान लगान के नियमों को स्वीकार करता था। भूमि-कर के अलावा किसानों से अन्य कर भी लिये जाते थे।
अकबर के भू-राजस्व सम्बन्धी प्रयोग
मुगलों की लगान व्यवस्था का ढाँचा मूल रूप में अकबर द्वारा किये गये प्रयोगों तथा सुधारों पर आधारित था। अकबर ने आरम्भ में शेरशाह द्वारा निर्धारित अनाज की दरें अपनायीं और इनको नकदी में बदल दिया। यह व्यवस्था असन्तोषजनक सिद्ध हुई। इसके निम्नलिखित कारण थे-
(1.) शेरशाह द्वारा स्थापित भूमि प्रबन्ध अस्त-व्यस्त हो चुका था। हुमायूँ ने दुबारा तख्त प्राप्त होते ही अपने विशाल क्षेत्रों को अपने अमीरों और अधिकारियों में बाँट दिया था परन्तु खालसा भूमि और जागीरी भूमि की स्पष्ट हदबन्दी न होने से अव्यवस्था फैली हुई थी।
(2.) लगान व्यवस्था दोषपूर्ण थी। केन्द्रीय सरकार प्रतिवर्ष उपज एवं परगनों में प्रचलित मूल्य के आधार पर लगान वसूल करती थी। उपज और मूल्यों में परिवर्तन के कारण सरकारी माँग की दर भी बदलती रहती थी। जब तक दर का निर्धारण नहीं हो जाता था तब तक लगान की वसूली भी नहीं हो पाती थी। किसान इस अनिश्चयपूर्ण स्थिति से परेशान थे।
(3.) उपर्युक्त प्रक्रिया के कारण लगान वसूली में काफी विलम्ब हो जाता था। इससे बकाया रकम भी चढ़ जाती थी जिसे वसूल करना कठिन कार्य था।
(4.) उपज और मूल्य का प्रतिवर्ष पता लगाने में सरकार का काफी धन अपव्यय हो जाता था।
(5.) जल्दबाजी में एकत्र की गई सूचनाएँ पूर्णतः विश्वसनीय नहीं होती थीं।
(6.) अमीरों और अधिकारियों को प्रसन्न करने रखने की दृष्टि से उन्हें दी जाने वाली जागीरों की आय को वास्तविक आय से काफी बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता था।
अकबर द्वारा किये गये सुधार
उपर्युक्त दोषों से खिन्न होकर अकबर ने राज्य की अर्थव्यवस्था और लगान व्यवस्था को सुधारने के लिये अनेक उपाय किये। 1560 ई. में अकबर ने ख्वाजा अब्दुल मजीद को आसफखाँ की उपाधि देकर भूमि व्यवस्था को संगठित करने के लिए नियुक्त किया परन्तु वह इस काम के लिए सर्वथा अयोग्य सिद्ध हुआ। उसने जागीरों से प्राप्त होने वाली आय के काल्पनिक आँकड़े लिख डाले। उसके इस कृत्य से सरकार, जागीरदारों और प्रजा की हानि हुई। इस पर उसने एतमाद खाँ को वित्तमंत्री नियुक्त किया जो बहलोल मलिक के नाम से भी जाना जाता है।
एतमादखाँ (बहलोल मलिक) के सुधार: 1563 ई. में एतमादखाँ (बहलोल मलिक) को वित्त मंत्री नियुक्त किया गया। एतमादखाँ ने लगान व्यस्था सुधारने के लिये कई उपाय किये-
(1.) शाही भूमि (खालसा) को जागीरी भूमि से अलग किया।
(2.) सिक्कों को मोहर लगी कीमत के अनुसार मंजूर करने का आदेश दिया।
(3.) वित्तीय विभाग तथा खजाने का पुनर्गठन किया।
(4.) खालसा भूमि को इस प्रकार से बाँटा कि प्रत्येक इकाई से एक करोड़ दाम (2.5 लाख रुपया) वसूल हो।
(5.) प्रत्येक इकाई पर करोड़ी नामक अधिकारी नियुक्त किया और उसकी सहायता के लिए बितक्ची तथा एक खजांची रखा गया। इन समस्त अधिकारियों का काम मालगुजारी वसूल करके सरकारी खजाने में जमा कराने का था।
एतमादखाँ द्वारा किये गये उपाय सफल रहे। अबुल फजल ने लिखा है कि इन सुधारों से गबन करना सम्भव नहीं रहा। बदायूँनी के अनुसार इन सुधारों से सरकारी खर्च में काफी कमी आ गई। फिर भी, अभी तक भूमि की उपज का वास्तविक अनुमान लगाने का कोई सार्थक प्रयास नहीं किया गया।
मुजफ्फरखाँ के सुधार: 1564 ई. में मुजफ्फरखाँ को दीवान नियुक्त किया गया और राजा टोडरमल को उसका सहायक नियुक्त किया गया। डॉ. त्रिपाठी ने लिखा है- ‘मुजफ्फरखाँ, आसफखाँ (भूतपूर्व वित्त मंत्री) के फर्जी आँकड़ों से बहुत परेशान हुआ। उसने रजिस्टरों तथा स्थानीय कानूनगो अधिकारियों से वास्तविक उपज के आँकड़े जमा करने के लिए 10 कानूनगो नियुक्त किये। इन आँकड़ों के आधार पर मालगुजारी का जमाय हाल हासिल नामक नया खाता बना। यह खाता भी बहुत विश्वसनीय नहीं था क्योंकि वह स्थानीय कानूनगो द्वारा लोगों की इधर-उधर से सुनी सूचनाओं पर आधारित था जो स्वयं ही विश्वसनीय नहीं थे। इसके अलावा एक मुख्य दोष यह था कि सम्पूर्ण राज्य में लगान भुगतान की दर तो एक समान थी परन्तु विभिन्न सूबों में अनाज के भाव एक समान नहीं थे। इससे उन सूबों के किसानों को काफी हानि उठानी पड़ती थी जहाँ अनाज के भाव सस्ते थे। इस दोष को दूर करने के लिए मुजफ्फरखाँ ने आदेश दिये कि फसल तैयार होने पर अनाज के स्थानीय भाव राज्य को भेजे जायें और राज्य की स्वीकृति मिलने के बाद उन्हीं दरों के हिसाब से लगान वसूल किया जाय। इससे थोड़ा-बहुत सुधार हुआ।
अकबर ने अपने शासन के तेरहवें वर्ष (1568-69 ई.) में शहाबुद्दीन अहमदखाँ को दीवान नियुक्त किया। नये दीवान ने अनुभव किया कि प्रतिवर्ष उपज और बाजार भाव के आंकड़े जमा करना खर्चीला और दोषपूर्ण होने के साथ साम्राज्य विस्तार होते रहने के कारण असम्भव भी होने लगा है। अतः उसने प्रतिवर्ष मालगुजारी की रकम नियत की जानी बन्द कर दी और नस्क प्रणाली चालू की जिससे सरकार और जमींदार या भूमि के स्वामी के मध्य पारस्परिक बन्दोबस्त की व्यवस्था हुई। यह एक प्रकार की ठेकेदारी थी तथा सन्तोषप्रद नहीं थी। 1570-71 ई. में मुजफ्फर खाँ को पुनः वित्त मंत्री नियुक्त किया गया और उसने तुरन्त मालगुजारी को ‘नापें और उर्वरा शक्ति’ के आधार पर नियत करने का निर्णय लिया।
टोडरमल का बन्दोबस्त: 1573 ई. में गुजरात विजय के पश्चात् अकबर ने टोडरमल को वहाँ की राजस्व व्यवस्था में सुधार करने भेजा। टोडरमल ने गुजरात में भूमि की पैमाइश करवाई तथा उसका वर्गीकरण करके लगान निश्चित किया। किसानों को यह विकल्प दिया गया कि वे अनाज के रूप में या नकद रुपयों में लगान अदा करें। कुल उपज का मूल्य बाजार भाव से लगाकर उस पर लगान वसूल किया जाता था। टोडरमल ने भ्रष्ट कर्मचारियों को कठोर दण्ड दिये। गुजरात के बन्दोबस्त के आधार पर ही फिर टोडरमल ने सम्पूर्ण साम्राज्य का बन्दोबस्त किया। उसने 1579-80 ई. में सम्पूर्ण साम्राज्य को 12 सूबों में विभाजित किया और प्रत्येक सूबे को अनेक सरकारों में बाँट दिया गया। टोडरमल ने जो व्यवस्था स्थापित की उसे टोडरमल का बन्दोबस्त कहा जाता है। इस बन्दोबस्त की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार थीं-
(1.) भूमि की पैमाइश: सर्वप्रथम 1570-71 ई. से 1579-80 ई. तक की औसत वार्षिक आय का ब्यौरा तैयार किया गया। तत्पश्चात् किसी भूमि के क्षेत्रफल पर उत्पादित फसल के आधार पर लगान का निश्चय किया गया। अतः समस्त भूमि की पैमाइश करवाई गयी। टोडरमल ने शेरशाह के समय से प्रचलित भूमि नापने के लिए रस्सी का प्रयोग त्याग दिया और उसके स्थान पर सात गज लम्बी जरीब (बांॅसांे में लोहे के छल्ले ढलवाकर) द्वारा भूमि की पैमाइश करवाई। इस नाप को पटवारियों के पास लिखवा दिया गया और उसकी एक प्रति माल विभाग में रख ली गयी। 60 गज लम्बी एवं 60 गज चौड़ी भूमि को एक बीघा जमीन माना गया।
(2.) भूमि का वर्गीकरण: भूमि की उर्वरक शक्ति के आधार पर भूमि को चार श्रेणियों में बाँटा गया- (1) पोलज: यह सबसे अधिक उपजाऊ होती थी तथा इसमें एक ही साल में दो फसलें बोयी जाती थीं। (2) पड़ौती: यह पोलज से कम उपजाऊ होती थी तथा इसकी उर्वरा शक्ति बनाये रखने के लिए इसे एक या दो वर्ष खाली छोड़ा जाता था। (3) चाचर: यह बहुत कम उपजाऊ होती थी तथा तीन-चार वर्ष तक खाली छोड़ने के पश्चात् एक बार बोयी जाती थी। (4) बंजर: यह अनउपजाऊ भूमि थी जिसे पाँच वर्ष या इससे भी अधिक समय तक बिना काश्त के छोड़ दिया जाता था।
(3.) कर निर्धारण: 1580 ई. में आइने-दहसाला या दस-साल बन्दोबस्त लागू हुआ जिसमें भूमि की नाप-जोख और वर्गीकरण के अतिरिक्त कर-निर्धारण एवं वसूली के लिए विस्तृत नियमों का उल्लेख किया गया था। कर-निर्धारण के लिए प्रत्येक वर्ग की भूमि (बंजर को छोड़कर) को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया। तीनों प्रकार की भूमि की औसत पैदावार निकाली जाती थी, जो प्रत्येक प्रकार की भूमि की स्टेण्डर्ड पैदावार समझी जाती थी। पिछले दस वर्षों की पैदावार के आधार पर प्रत्येक फसल की प्रति बीघा पैदावार का औसत निकाला जाता था और औसत पैदावार का एक-तिहाई भाग लगान के रूप में वसूल किया जाता था। कर निर्धारण के लिए फसलों की किस्म को भी ध्यान में रखा जाता था। अबुल फजल ने लिखा है- ‘प्रत्येक परगने की पिछले दस साल की उपज और प्रचलित कीमतों को इकट्ठा किया गया और उसके दसवें भाग को वार्षिक मालगुजारी के रूप में निश्चित कर दिया गया।’ अनुमान होता है कि मालगुजारी के रूप में उपज का दसवां भाग जमींदार द्वारा केन्द्र सरकार को देने के लिये निश्चित किया गया था क्योंकि किसानों को अपनी उपज का एक तिहाई से आधा हिस्सा तक जमींदार को मालगुजारी के रूप में देना पड़ता था।
(4.) कर वसूली: अकबर भूमि कर नकदी के रूप में वसूल करना पसन्द करता था। इसलिए उसने सूबोें में विभिन्न हलकों के लिए अनाज की नकद दर सूचियाँ तैयार करवायीं। इसके लिए प्रतिवर्ष फसल तैयार होने पर बाजार भाव का पता लगा लिया जाता था। बाजार भाव के आधार पर एक दर स्वीकृत करके इसकी सूचना राजस्व विभाग के कर्मचारियों को दे दी जाती थी। भविष्य में करों को घटाने-बढ़ाने के लिए सरकार प्रतिवर्ष उपज और फसल के मूल्य का ब्यौरा रखती थी। अकबर की इस व्यवस्था को रैयतवाड़ी प्रथा भी कहते हैं, क्योंकि जो किसान भूमि जोतता था, वही कर देता था। यह व्यवस्था अधिक सफल नहीं हुई। अकबर का कर-निर्धारण भी अत्यन्त सख्त था।
आइने अकबरी में लगान वसूली की तीन विधियाँ बताई गई हैं- (1) गल्लाबख्श अथवा बँटाई, नस्क अथवा कनकूत। (2) जब्ती और (3) नकदी। गल्लाबख्शी में जब फसल कट जाती थी तब अनाज को देखकर राजय सरकार और किसान का अलग-अलग भाग निश्चित कर बाँट लिया जाता था। नस्क के अन्तर्गत सारे ग्राम की फसल का अनुमान लगा कर उसके लिए एक साथ ही भूमि-कर निर्धारित कर दिया जाता था। गाँव का मुखिया अपनी इच्छानुसार कृषकों से भूमि-कर वसूल कर सकता था। जब्ती में भूमि का सर्वेक्षण, मालगुजारी निश्चित करने के लिए दस्तूरूल अमल का प्रवर्तन और जब्ती खसरे की तैयारी प्रमुख आधार था। अलग-अलग परगनों में अलग-अलग विधियाँ प्रचलित थीं, किन्तु अधिंकाशतः बँटाई प्रथा प्रचलित थी जिसके अनुसार खलिहान में अनाज का ढेर लगाने के बाद सरकार अपना हिस्सा तुलवाकर ले लेती थी। कभी-कभी भूमि-कर अधिक होने से किसान लगान नहीं दे पाता था और सख्ती के बाद भी सफलता नहीं मिलती थी। अतः प्रतिवर्ष सरकार को कर में छूट देनी पड़ती थी।
यद्यपि अकबर की राजस्व व्यवस्था पूर्णतः संतोषप्रद नहीं मानी जा सकती, फिर भी उसने भारतीयों को राजस्व की एक ऐसी प्रणाली प्रदान की जो न केवल स्थायी थी, अपितु लोगों की समझ में भी सरलता से आ जाती थी। अबुल फजल ने टोडरमल के इन सुधारों की प्रशंसा की है जबकि बदायूँनी ने इनकी आलोचना की है। वस्तुतः इसमें कुछ दोष थे। मालगुजारी की दर मध्यम श्रेणी के किसानों के लिए बोझिल थी क्योंकि भूमि के वर्गीकरण तथा उपज की तालिका के आधार पर औसत निकाल कर वसूली की जाती थी। ऐसी स्थिति में जिन किसानों के पास दूसरी और तीसरी श्रेणी की भूमि थी, उन्हें तुलनात्मक आधार पर प्रथम श्रेणी के किसानों से अधिक मालगुजारी देनी पड़ती थी। कुल मिलाकर उसकी व्यवस्था उत्तम थी।
अकबर की भू-राजस्व व्यवस्था के दोष: स्मिथ और मोरलैण्ड आदि विद्वानों ने अकबर की भू-राजस्व व्यवस्था की प्रशंसा की है। फिर भी मुगलों की भू-राजस्व व्यवस्था दोषमुक्त नहीं थी। इस व्यवस्था के नियम केवल खालसा भूमि पर ही सख्ती के साथ लागू किये जाते थे और खालसा भूमि का क्षेत्र काफी कम था। अधिकतर भूमि जमींदारी, जागीरदारी आदि के रूप में थी और वहाँ इन नियमों का अमल नहीं होता था। दूसरा प्रमुख दोष भूमि के वर्गीकरण के आधार पर उपज की तालिका में औसत निकालकर मालगुजारी वसूल करना था। इससे मध्यम एवं निम्न श्रेणी की भूमि वाले किसानों को अधिक लगान देना पड़ता था। राजकीय अधिकारी किसानों से लगान के साथ अनेक गैर-स्वीकृत कर भी वसूल करते थे। उन्हें रोकने के लिये विशेष प्रयत्न नहीं किया गया था।
जहाँगीर के समय में लगान व्यवस्था
जहाँगीर के समय में अकबर की लगान व्यवस्था बिना किसी विशेष परिवर्तन के जारी रही परन्तु उसका प्रबन्धन शिथिल पड़ गया। जागीरदारों के अधिकारों में वृद्धि हो गयी और किसानों की स्थिति खराब होने लगी जिससे राज्य की आय में कमी आने लग गई।
शाहजहाँ के समय में लगान व्यवस्था
शाहजहाँ के शासनकाल में भू-राजस्व व्यवस्था में और गिरावट आई। उसके शासनकाल में राज्य की 70 प्रतिशत भूमि जागीरदारों को दे दी गयी जिससे राज्य का जागीरी किसानों से सम्पर्क टूट गया। लगान की दर में वृद्धि कर दी गई। अब 33 प्रतिशत से 50 प्रतिशत तक लगान लिया जाने लगा। शाहजहाँ के समय में लगान वसूली का काम ठेके पर देने की प्रथा आरम्भ हुई। ठेकेदारी प्रथा से किसानों को काफी क्षति पहुँची क्योंकि ठेकेदार नियम से अधिक लगान वसूल करते थे।
औरंगजेब के समय में लगान व्यवस्था
औरंगजेब के समय उपर्युक्त समस्त दोष तो कायम रहे ही, साथ ही लगान वसूली में कठोरता बरती जाने लगी और किसानों से उनकी सम्पूर्ण भूमि से लगान लिया जाने लगा, चाहे सम्पूर्ण भूमि पर खेती की गयी हो अथवा नहीं। इससे किसानों की स्थिति शोचनीय हो गई।
औरंगजेब के बाद भू-राजस्व व्यवस्था
औरंगजेब के बाद मुगल शासन की भू-राजस्व व्यवस्था बुरी तरह से लड़खड़ा गई। अब भूमि को ठेकेदारों को देने के अलावा अन्य कोई उपाय नहीं किया गया। इससे राज्य की आर्थिक व्यवस्था बुरी तरह बिगड़ गई।
मुगलों की भू-राजस्व व्यवस्था का मूल्यांकन
मुगलों की भू-राजस्व व्यवस्था को ठोस आधार प्रदान करने का श्रेय अकबर को है। उसके द्वारा स्थापित व्यवस्था थोड़े-बहुत परिवर्तनों के साथ उसके उत्तराधिकारियों के काल में भी बनी रही। अकबर के शासनकाल में एक तरफ तो कृषि भूमि के क्षेत्र को बढ़ाने का प्रयास किया गया और दूसरी तरफ किसानों को अच्छी फसलें उगाने के लिए प्रोत्साहित किया गया। इस सम्बन्ध में उन्हें उचित सुविधाएँ भी दी गईं। भूमि की पैमाइश के माप गज, बिस्वा और बीघा में निश्चित किये गये। भूमि की पैमाइश के लिए बाँस के टुकड़ों को लोहे के कड़ों से जोड़कर जरीब बनाई गई। भूमि का वर्गीकरण किया गया। मालगुजारी वसूल करने वाले अधिकारियों को निर्धारित मात्रा से अधिक कर वसूल नहीं करने के आदेश दिये गये। पट्टा तथा कबूलियत के द्वारा किसान के अधिकारों को सुरक्षित किया गया और देय मालगुजारी को निश्चित किया गया। किसान को जब्ती, बँटाई अथवा नस्क में से किसी एक प्रथा को चुनने का विकल्प दिया गया। अकबर को मालगुजारी नकद में लेना पसन्द था, फिर भी किसानों को उपज के रूप में मालगुजारी चुकाने की छूट थी। प्राकृतिक प्रकोपों के समय किसान को भू-राजस्व में छूट दी जाती थी और तकाबी ऋण भी दिया जाता था।
किसानों की स्थिति
मुगलकाल में किसानों के भूमि सम्बन्धी अधिकार क्या थे और उनकी आर्थिक स्थिति कैसी थी? इन सवालों पर इतिहासकारों में काफी मतभेद हैं। बर्नियर समस्त भूमि का मालिक बादशाह को बताता है। प्रो. इरफान हबीब के अनुसार भूमि का स्वामी न तो बादशाह ही था और न किसान। कुछ परिस्थितियों में उसका अधिकार मिलकियत का था, पर सामान्य रूप से किसान न तो अपनी भूमि से अलग हो सकता था और न उसे बेच सकता था। किसान यदि भूमि छोड़कर चला जाता तो सरकारी कर्मचारी उसे समझा-बुझाकर वापस ले आते थे। डॉ. सिद्दीकी का यह भी मानना है कि उस युग में किसान इच्छाहीन किरायेदार नहीं था क्योंकि वह कुछ समझौते और प्रतिबन्धों के अनुसार खेती करता था। किसान जो भूमि-कर चुकाता था उसका विवरण सरकारी लेखों में स्पष्ट था। यद्यपि किसानों को जमीन बेचने अथवा बन्धक रखने का अधिकार नहीं था, किसानों का एक वर्ग मोरूसी कहलाता था जो भूमि को बेचने एवं बंधक रखने के अधिकारों का दावा करता था। अधिकांश विद्वानों का मत है कि सामान्यतः किसानों को अपनी भूमि से बेदखल नहीं किया जाता था और उनके वंशजों को उनके खेतों पर उत्तराधिकार का हक होता था। किसानों का एक वर्ग ऐसा भी था जो जमींदारों की अनुमति से उनकी भूमि पर खेती करता था। ऐसे किसानों को बेदखल भी किया जा सकता था। जिन किसानों को पट्टा और कबूलियत का लाभ मिला हुआ था, उनको कम शोषण और यंत्रण का सामना करना पड़ता था।
जहाँ तक किसानों की आर्थिक स्थिति का प्रश्न है उन्हें अपनी पैदावार का एक-तिहाई से लेकर आधा हिस्सा तक भू-राजस्व के रूप में देना पड़ता था। भूमि-कर के अलावा उन्हें चुँगियों और अनुलाभों के रूप में भी कुछ चुकाना पड़ता था। उन्हें जमींदारों और जागीरदारों द्वारा सरकार को चुकाये जाने वाले करों का कुछ बोझ भी सहन करना पड़ता था। फिर भी, डॉ. सिद्दीकी का मत है कि मुगलकाल में किसान खुशहाल थे क्यांेकि आवश्यकता की अन्य वस्तुएँ सस्ती थीं और सरलता से उपलब्ध होती जाती थीं। अन्य इतिहासकार उनके मत से सहमत नहीं हैं क्योंकि अधिक लगान एवं अधिकारियों की लूटखसोट के कारण किसानों की दशा अत्यंत शोचनीय थी। औरंगजेब के शासनकाल में तो वे जैसे-तैसे अपना जीवन निर्वाह कर रहे थे। पैलसर्ट ने लिखा है कि किसानों की स्थिति बहुत खराब थी। उनके भाग्य में केवल दुःखों और विपत्तियों का स्थान था।
अकबर के शासन के आरम्भिक वर्षों में शाही सेना में मंगोल, तुर्क, उजबेग, अफगान तथा ईरानी आदि विदेशी सैनिकों की भरमार थी। सैनिक दलों के मुखिया भी उसी जाति के होते थे। इन अधिकारियों को अपनी तथा अपने सैनिकों की सेवाओं के बदले में जागीरें प्रदान की जाती थीं। हुमायूँ के विलासी स्वभाव के कारण शासन में शिथिलता आ गई। इस कारण उसके शासनकाल में सैन्य अधिकारी केन्द्रीय सत्ता के पूर्ण नियंत्रण में नहीं रहे। उन्होंने जागीरोें के अनुरूप निर्धारित संख्या में सैनिक रखने भी बन्द कर दिये। इससे मुगलों की सैनिक शक्ति कमजोर पड़ गई। ये सैनिक अधिकारी अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये गैर-कानूनी काम तथा धोखाधड़ी भी करने लगे। वे सैन्य व्यवस्था में किसी भी प्रकार के सुधार का हमेशा विरोध करते थे। अकबर सैनिक सत्ता का केन्द्रीयकरण करना चाहता था ताकि अनियंत्रित सैन्य अधिकारियों पर अंकुश लगाया जा सके और सैनिक सत्ता सही अर्थों में बादशाह के हाथों में आ जाय। मनसबदारी प्रथा अकबर की इसी विचारधारा का परिणाम था।
मनसब का अर्थ
अकबर द्वारा आरम्भ की गई मनसबदारी प्रथा मुगल व्यवस्था की एक चारित्रिक विशेषता थी। मनसब एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ है- ‘निश्चित स्थान’। मनसबदारी प्रथा का उद्देश्य साम्राज्य के अधिकारियों में एक क्रमानुसार पद व्यवस्था स्थापित करना था। साम्राज्य के समस्त अधिकारियों एवं कर्मचारियों की भर्ती सैनिक अधिकारी के रूप में की जाती थी, चाहे उनका काम कुछ भी हो। उनका पद एवं वेतन का निश्चय और शासन तथा दरबार में उनकी श्रेणी एवं मर्यादा का निर्धारण उनके मनसब के आधार पर तय होता था। अबुल फजल के अनुसार अकबर ने मनसबदारों को मनसब दहववाशी (10 के नायक) से दस हजारी (10,000 सैनिकों का अधिकारी) तक निर्धारित कर दिये परन्तु 5,000 से ऊपर के मनसब अपने श्रेष्ठ पुत्रों के लिये आरक्षित कर दिये। 1585 ई. में मनसब की सर्वोच्च सीमा को बढ़ाकर 12,000 कर दिया गया और अमीरों को 7,000 तक के मनसब दिये जाने लगे। 1605 ई. में राजा मानसिंह को 7,000 जात एवं 6,000 सवार का मनसब दिया गया।
मनसबदारों की किस्में
मनसबदार दो किस्म के थे- स्थायी और अस्थायी। स्थायी मनसब को गैर-मश्रूत कहा जाता था। इस किस्म के मनसबदार जीवनपर्यन्त अपने पद का उपभोग करते थे। परन्तु बादशाह इसमें रद्दोबदल कर सकता था। अस्थायी मनसब को मश्रूत कहा जाता था। यह मनसब किसी विशेष कार्य की पूर्ति तक के लिये प्रदान किया जाता था। कार्य की समाप्ति के साथ ही मनसब भी समाप्त हो जाता था। कई बार स्थायी मनसबदारों को अतिरिक्त कार्य के लिए मश्रूत प्रदान किया जाता था। कार्य समाप्ति के बाद यह समाप्त हो जाता था परन्तु गैर-मश्रूत यथावत् बना रहता था।
मनसबदारों की श्रेणियाँ
मनसबदारों की तीन श्रेणियाँ थीं- (1) मनसबदार, (2) अमीर और (3) उमरा-ए-आजम।
(1.) मनसबदार: एक विशेष पद अथवा कोटि से निम्न अधिकारियों को मनसबदार कहा जाता था।
(2.) अमीर: प्रारंभ में 200 अश्वारोहियों से ऊपर के अधिकारियों को अमीर की श्रेणी में रखा गया। बाद में इस सीमा को बढ़ाकर 500 अश्वारोही कर दिया गया। औरंगजेब ने इस सीमा को बढ़ाकर 1000 कर दिया।
(3.) उमरा-ए-आजम: उमरा-ए-आजम के अन्तर्गत अश्वारोहियों की ठीक संख्या बताना कठिन है क्यांेकि यह सीमा लगातार घटती-बढ़ती रही। इतिहासकारों का मानना है कि 3,000 अथवा उससे ऊपर के जात वाले अमीरों को ‘उमरा-ए-आजम’ (अथवा अमीर-ए-आजम) कहा जाता था। जहाँगीर और शाहजहाँ के समय में यह सीमा बनी रही परन्तु औरंगजेब ने इसको घटाकर 2,000 जात कर दिया। 1682 ई. में इस सीमा को और कम करके 1,500 कर दिया गया। मनसबदारों के लिए अपने मनसब के हिसाब से सैनिक तथा पशु रखना आवश्यक नहीं था परन्तु उन्हें अपने अधीन अपनी मनसब की संख्या के एक निश्चित भाग तक सैनिक अवश्य रखने पड़ते थे। वस्तुतः ऐसा करके अकबर सेना में व्याप्त भ्रष्टाचार और घोड़ों सम्बन्धी धोखाधड़ी को समाप्त कर देना चाहता था।
मनसबदारों की नियुक्ति
मनसबदारों की नियुक्ति बादशाह द्वारा की जाती थी। उनकी पदोन्नति अथवा पदावनति बादशाह की प्रसन्नता अथवा अप्रसन्नता पर निर्भर थी। सामान्यतः बादशाह शुभ अवसरों पर या सैनिक अभियान के आरम्भ में अथवा अंत में मनसबदारों के मनसब में वृद्धि करता था परन्तु ऐसा करना बादशाह के लिए अनिवार्य नहीं था। 1505 ई. में जब राजा टोडरमल बंगाल के सफल अभियान से वापस लौटा तब बादशाह ने उपहार आदि देकर उसका सम्मान तो किया परन्तु उसके मनसब में वृद्धि नहीं की। अबुल फजल के अनुसार मनसबदारों की नियुक्ति सामान्यतः प्रतिदिन होती रहती थी और सम्भवतः ही कोई दिन जाता हो जब किसी को मनसब प्रदान न किया जाता हो अथवा किसी के मनसब में वृद्धि न होती हो। मनसब के उम्मीदवार बख्शी द्वारा बादशाह के सन्मुख प्रस्तुत किये जाते थे और उसकी स्वीकृति के बाद उसकी नियुक्ति का परवाना जारी किया जाता था।
जात और सवार मनसब
1594 ई. में अकबर ने सवार पद आरम्भ किया। इससे पूर्व मनसब के लिये केवल जात शब्द का प्रयोग किया जाता था। प्रत्येक मनसबदार से यह आशा की जाती थी कि वह अपने मनसब के अनुरूप अश्वारोही सैनिक रखेगा और इसी हिसाब से उसको जागीर भी दी जाती थी परन्तु व्यावहारिक रूप में मनसबदार मनसब के अनुरूप अश्वारोही सैनिक को रखे बिना ही उतने सैनिकों के वेतन तथा जागीर का उपभोग करते रहते थे। इस भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए मनसबदारों के मनसब में जात और सवार पद का उल्लेख किया जाने लगा। स्पष्ट है कि जात और सवार शब्द दो अलग-अलग अर्थों में प्रयुक्त किये जाते थे। दुर्भाग्यवश जात और सवार शब्दों की सही व्याख्या अभी तक नहीं हो पाई है। विभिन्न विद्वानों ने इन शब्दों के विभिन्न अर्थ निकाले हैं।
ब्लाकमैन के अनुसार जात सैनिकों की उस संख्या का बोधक था जिसके रखने की आशा मनसबदारों से की जाती थी और सवार मनसब उस संख्या को बताता है जो वास्तव में मनसबदार रखते थे। मनसबदार के वेतन का भुगतान जात संख्या के आधार पर किया जाता था। इरविन के मतानुसार ‘सवार पद’ एक अतिरिक्त सम्मान था और प्राप्तकर्त्ता को जात की संख्या के अतिरिक्त सवार पद से निश्चित सैनिकों को भी रखना पड़ता था। इरविन के मत में सबसे बड़ा दोष तो यह है कि यदि इस मत के आधार पर सैनिकों की गणना करें तो मुगल सेना की संख्या एक अविश्वसनीय अंक तक पहुँच जाती है। डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी के अनुसार सवार मनसब एक अतिरिक्त सम्मान मात्र था और उसमें जितने सवारों का उल्लेख होता, उन्हें रखने का मनसबदार का कोई बन्धन नहीं होता था। अब्दुल अजीज का मत है कि मनसब के अन्तर्गत मनसबदार एक निश्चित संख्या में हाथी, भारवाहक पशु आदि रखता था जबकि सवार मनसब यह बताता था कि उसके पास कितने सैनिक सवार होने चाहिए। सी. एम. के. राव का मत है कि जात पैदल और सवार मनसब घुड़सवारोें की संख्या को बताता था। जात और सवार सम्बन्धी इन विरोधी विचारों के आधार पर इनका सही अर्थ निकालना अत्यधिक कठिन है।
वेतन और भत्ता
मनसबदारों के वेतन का भुगतान नकदी अथवा जागीर के रूप में किया जाता था। कोई जागीर अथवा मनसब वंशानुगत नहीं थी। वैसे बादशाह बड़े मनसबदारों के पुत्रों को मनसब देकर उनके प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करता था परन्तु उन्हें निम्न मनसब ही दिये जाते थे। यदि उनमें प्रतिभा होती तो वे उन्नति करते-करते बड़े मनसबदार बन जाते थे। मनसबदारों को उनके मनसब के अनुसार वेतन दिया जाता था। कई बार मनसबदारों को वेतन के अलावा पुरस्कार स्वरूप धन भी दिया जाता था।
मनसबदारों को अपने समस्त प्रकार के सैनिकों के बदले में जो वेतन मिलता था उसे तलब कहा जाता था। जात पद के लिए जो वेतन मिलता था उसे खासा अथवा घात कहा जाता था। इस वेतन से मनसबदार अपने परिवार का पोषण करता था। सवार पद के लिए जो वेतन मिलता था उसे ताबीनाल कहा जाता था। इसका उपयोग मनसब के अनुरूप रखे जाने वाले घोड़ों, घुड़सवारों, बोझा ढोने वाले पशुओं आदि पर किया जाता था। अबुल फजल के अनुसार प्रथम श्रेणी के 5,000 के मनसबदार को 30,000 रुपये मासिक मिलते थे। इसी प्रकार, प्रथम श्रेणी के 500 के मनसबदार को 2,500 रुपये प्रतिमाह मिलते थे। 10 के मनसबदार को 100 रुपये प्रतिमाह मिलते थे परन्तु तृतीय श्रेणी के 5000, 500 एवं 10 के मनसबदार को क्रमशः 28,000; 2100 एवं 75 रुपये प्रतिमाह मिलते थे। शाहजादों को उनके मनसब की तुलना में कहीं अधिक वेतन मिलता था।
मनसब की श्रेणियाँ
1595 ई. से पूर्व मनसब की अलग-अलग श्रेणियाँ नहीं थी परन्तु 1595 ई. में मनसबदारों को तीन श्रेणियाँ में बाँटा गया। जिस मनसबदार के पास अपनी मनसब की संख्या के बराबर सैनिक होते थे, वह अपने मनसब का प्रथम श्रेणी का मनसबदार कहलाता था। यदि उसके पास सैनिकों की संख्या उसके मनसब की आधी संख्या से अधिक होती थी तो वह दूसरी श्रेणी का और आधी संख्या से भी कम सैनिक रखने वाला तीसरी श्रेणी का मनसबदार कहलाता था। इसी वर्गीकरण के आधार पर उन्हें वेतन भी दिया जाता था। यह आवश्यक नहीं था कि किसी उच्च मनसब प्राप्त मनसबदार को शाही दरबार में भी उच्च पद प्राप्त हो। उदाहरणार्थ, राजा मानसिंह को सात हजार मनसब प्राप्त था किन्तु उसको दरबार में कभी भी मंत्री पद प्राप्त नहीं हो सका जबकि उससे कम मनसब वाला अबुल फजल कई वर्षों तक मंत्री पद पर बना रहा। असैनिक विभागों के अधिकारी सैनिक नहीं रखते थे परन्तु आवश्यकता पड़ने पर उन्हें भी सैनिक सेवा देनी पड़ती थी। कोई भी मनसबदार समस्त मुगल सेना का नायक नहीं था। स्वयं बादशाह ही प्रधान सेनापति था। वह अलग-अलग मनसबदारों को विभिन्न अभियानों का मुख्य सेनापति नियुक्त करता था। उसकी सहायता के लिए उससे भी उच्च मनसब वाले मनसबदारों को नियुक्त कर दिया जाता था।
मनसबदारों द्वारा सैनिकों की भर्ती
मनसबदार अपने सैनिकों की भर्ती करने के लिए स्वतंत्र थे तथा प्रत्येक मनसबदार प्रायः अपनी जाति के लोगों को ही अपनी सेना में भर्ती करता था। उन्हें अपने घोड़े तथा व्यवस्था सम्बन्धी अन्य सामान भी स्वयं जुटाना पड़ता था। मीरबख्शी के विभाग द्वारा मनसबदारों के सैनिकों तथा घोड़ों का निरीक्षण किया जाता था। प्रथम निरीक्षण के समय मनसबदार के घोड़ों तथा सैनिकों की जाँच कर उनकी एक सूची बनाई जाती थी और उनके घोड़ों को दागा जाता था। दो प्रकार के दाग लगाये जाते थे। घोड़े के सीधे पुट्ठे पर सरकारी निशान और बायें पुट्ठे पर मनसबदार का निशान दागा जाता था। निरीक्षण के समय सही संख्या में घोड़े तथा सैनिक प्रस्तुत करने वाले मनसबदारों को पदोन्नति जल्दी मिलती थी। मनसबदारों को पुरस्कृत तथा दण्डित करने की भी व्यवस्था थी ताकि उन्हें अनुशासन में रखा जा सके।
जब्ती प्रथा
मनसबदारी से सम्बन्धित जब्ती प्रथा के बारे में विद्वान एकमत नहीं हैं। इस प्रथा के अंतर्गत मनसबदार अथवा अमीर की मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति को राज्य जब्त कर लेता था। इसका एक कारण तो यह माना जाता है कि मनसबदार हमेशा ही राज्य के ऋणी रहा करते थे और मनसबदार की मृत्यु के बाद राज्य अपने ऋण की वसूली के लिए उसकी सम्पत्ति को कुर्क कर लेता था। दूसरा तर्क यह दिया जाता है कि राज्य की सेवा में रहते हुए मनसबदार समस्त धन अर्जित करता था। इसलिए उसकी मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति पर राज्य का अधिकार माना जाता था। इस प्रथा के कारण मुगल काल में कुलीन वर्ग का उत्कर्ष नहीं हो सका। मनसबदार के पुत्रों को नये सिर से अपना जीवन आरम्भ करना पड़ता था।
अबुल फजल ने जब्ती प्रथा के बारे में कोई जानकारी नहीं दी है परन्तु इतिहासकारों का मानना है कि अकबर के शासनकाल में भी यह प्रथा किसी न किसी रूप में प्रचलित थी तथा यह प्रथा कुछ विशेष परिस्थितियों में ही लागू की जाती थी जैसे कि- (1) यदि किसी मनसबदार का कोई उत्तराधिकारी नहीं होता था (2) यदि उस पर राज्य का बकाया, निकलता था और (3) जागीर का हिसाब साफ किया हुआ नहीं होता था। ऐसी स्थितियों में मनसबदार की सम्पत्ति जब्त कर ली जाती थी परन्तु जिन मनसबदारों के उत्तराधिकारी होते थे, उन्हें मनसबदार की सम्पत्ति में से काफी कुछ दे दिया जाता था। उन्हें कितना हिस्सा दिया जाये, यह बादशाह की इच्छा पर निर्भर करता था। इस सम्बन्ध में कोई निश्चित नियम नहीं थे। बर्नियर ने इस प्रथा को ‘जंगली’ कहा है।
अकबर के बाद मनसबदारी व्यवस्था
अकबर के बाद मनसब की सीमा में तेजी के साथ वृद्धि होती गई। जहाँगीर के शासनकाल में मनसब की सीमा 40,000 तक पहुँच गई। 1617 ई. में शाहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) को 30,000 जात एवं 20,000 सवार तथा शाहजादा परवेज को 20,000 जात एवं 10,000 सवार का मनसब दिया गया। इसी प्रकार, नगरयार को 12,000 जात एवं 8,000 सवार का मनसब मिला। जब शाहजहाँ ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह किया तब परवेज का मनसब बढ़ाकर 40,000 जात एवं 30,000 सवार कर दिया गया। शाहजहाँ के शासनकाल में मनसबों की सीमा और अधिक बढ़ाने का प्रयास किया गया। दारा शिकोह को 60,000 जात एवं 40,000 सवार का मनसब दिया गया था। शुजा को 20,000 जात एवं 15,000 सवार, औरंगजेब को 20,000 जात एवं 15,000 सवार और मुराद को 15,000 जात एवं 12,000 सवार के मनसब दिये गये। औरंगजेब ने भी अपने पुत्रों को उच्च मनसब दिये। शाहजादा मुअज्जम को 40,000 जात एवं 40,000 सवार, कामबख्श को 40,000 जात एवं 40,000 सवार, मुहम्मद सुल्तान को 20,000 जात एवं 10,000 सवार, मुहम्मद आजम को 20,000 जात एवं 9,000 सवार के मनसब दिये गये। इसी प्रकार, उसने अपने पौत्रों को भी उच्च मनसब प्रदान किये। मनसब की वृद्धि केवल बादशाह के पुत्र-पौत्रों के मनसबों में ही की गई थी। साम्राज्य के किसी भी अमीर को इतने उच्च मनसब नहीं दिये गये थे।
अकबर के बाद मनसबदारों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती गई। औरंगजेब के समय में तो विशेष वृद्धि हुई। मनसब की सीमा में तो वृद्धि हुई परन्तु मनसबदारों के वेतन में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं हुई। उल्टे उनके वेतन तथा भत्ते कम होते गये। शाहजहाँ के समय से ही यह गिरावट आरम्भ हो गई। औरंगजेब के समय में अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाने से स्थिति और भी विकट हो गई। समय पर वेतन चुकाना भी सम्भव नहीं रहा। अकबर के समय में एक साधारण अश्वारोही को 9,600 दाम (240 रुपये) प्रतिवर्ष वेतन मिलता था। जहाँगीर के समय में यही वेतन बना रहा परन्तु शाहजहाँ के शासनकाल के अन्तिम वर्षों में तथा औरंगजेब के शासनकाल में 8,000 दाम (200 रुपये) प्रतिवर्ष वेतन दिया जाता था। वेतन में कटौती के साथ रसद-ए-खुराकी में भी कटौती की गई।
मनसबदारी प्रथा की सफलता
जागीरदारी प्रथा के दोषों को दूर करने तथा राजपूतों पर अंकुश रखने के लिए अथवा उनमें प्रतिस्पर्धा की भावना को उत्पन्न कर एक का दूसरे के विरुद्ध उपयोग करने और अपने विद्रोही उमरावों के विरुद्ध कबीला भावना का उपयोग कर उनको दबाने की दृष्टि से अकबर ने जिस मनसबदारी प्रथा का सूत्रपात किया, वह कई दृष्टियों से सफल रही। इससे मनसबदारों में बादशाह के प्रति स्वामिभक्ति और कर्त्तव्यनिष्ठा की भावना भी बढ़ी क्योंकि उनकी पदोन्नति बादशाह की कृपा पर निर्भर करती थी। इस व्यवस्था से योग्य व्यक्तियों को दायित्वपूर्ण काम सौंपने में सरलता हो गई।
मनसबदारी प्रथा के दोष
उपरोक्त समस्त सफलताओं के उपरान्त भी मनसबदारी प्रथा में कुछ जन्मजात दोष थे, जो इस प्रकार थे-
(1.) मनसबदारों को अपने मनसब के अनुसार जो वेतन मिलता था, वे उसका प्रायः दुरुपयोग करते थे। वे लोग साधारण लोगों को फौजी वर्दी पहनाकर और उनके घोड़ों को अपना बताकर सैनिक निरीक्षण के लिए ले जाते थे और उन्हें मुक्त कर उनके वेतन का स्वयं उपभोग करते रहते थे। इरविन ने लिखा है- ‘झूठी सेना संग्रह एक ऐसी बुराई थी जो मुगल सेना में सबसे अधिक पाई जाती थी। इन सबके हिस्से को पूरा करने के लिए मनसबदार एक-दूसरे को अपने सैनिक उधार दे देते थे अथवा बाजार से लोगों को पकड़ कर उन्हें किसी टट्टू पर बैठाकर दूसरों के साथ उनकी भी गिनती योग्य सैनिकों में करा देते थे।’ इस प्रकार, राज्य जितना खर्च करता था, उतनी योग्य एवं शिक्षित सेना उसे नहीं मिल पाती थी।
(2.) मनसबदार के सैनिक, बादशाह की तुलना में अपने मनसबदार के प्रति अधिक स्वामिभक्त होते थे। सैनिकों को भुगतान यद्यपि शाही खजाने से दिया जाता था परन्तु मनसबदार और बादशाह में संघर्ष छिड़ जाने की स्थिति में वे प्रायः मनसबदार के पक्ष से लड़ते थे।
(3.) मनसबदारों को अपने सैनिक भर्ती करने की स्वतंत्रता थी। धीर-धीरे मनसबदारों का नैतिक पतन होता चला गया और सैनिक भर्ती में भ्रष्टाचार को रोकना असम्भव हो गया। मनसबदार को अपने सैनिक दस्ते का नेतृत्व करना पड़ता था, अतः उसे विभिन्न प्रकार के सैनिकों का नेतृत्व करने के अनुभव से वंचित रह जाना पड़ता था।
(4.) मनसबदारों के लिए यद्यपि नियम बनाये गये परन्तु उनको लागू करना बादशाह की इच्छा पर निर्भर था जो किसी भी मनसबदार को ऊँचे मनसब दे सकता था अथवा महत्त्वपूर्ण सैनिक अभियान का प्रधान सेनापति नियुक्त कर सकता था। इससे मनसबदारों में एक-दूसरे के प्रति प्रतिद्वंद्विता एवं द्वेष भावना पनप गई। वे प्रायः शत्रु का मिलकर सामना करने की अपेक्षा आपस में ही एक-दूसरे को नाकामयाब बनाने में लग जाते थे। मनसबदारों के बीच में बढ़ता हुआ द्वेष मुगल साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुआ।
(5.) मनसबदार की मृत्यु के पश्चात उसका मनसब समाप्त हो जाता था और सरकार उसकी सम्पत्ति भी जब्त कर लेती थी। इसलिए प्रत्येक मनसबदार अपने जीवनकाल में ही समस्त धन को खर्च करने का प्रयत्न करता था ताकि मरने पर राज्य को कुछ न मिले। इस मनोवृत्ति ने एक तरफ तो उन्हें अत्यधिक विलासी बना दिया और दूसरी तरफ वे हमेशा कर्ज में डूबे रहने लगे। अनेक मनसबदार तो युद्ध क्षेत्र की ओर कूच करते समय भी अपने साथ अनेक सेवक, नर्तकियाँ और हरम की स्त्रियों को ले जाते थे। इससे सेना की गति बहुत धीमी पड़ जाती थी।
(6.) मनसबदारी व्यवस्था में केन्द्रीयकरण न होने से उसमें एकता की भावना विकसित नहीं हो पाई जो एक राष्ट्रीय सेना के लिए आवश्यक होती है। विभिन्न मनसबदारों के अन्तर्गत विभिन्न सैन्य-दलांे के रख-रखाव और रणकौशल का स्तर भी भिन्न-भिन्न होता था। इसीलिए उनमें अनुशासन एवं योग्यता की समानता नहीं थी।
(7.) मनसबदार अपने सैनिकों को प्रशिक्षण देने की व्यवस्था नहीं करते थे। मुगल बादशाहों ने भी इसके लिए उन पर दबाव नहीं डाला।
मुगल सेना के अन्य दोष
मनसबदारी प्रथा के अलावा मुगलों की सैन्य व्यवस्था में कुछ अन्य दोष भी थे-
(1.) मुगल शासकों ने पैदल सेना की तरफ विशेष ध्यान नहीं दिया। इससे पैदल सेना का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता चला गया।
(2.) मुगलों का तोपखाना समय की रफ्तार से काफी पीछे रह गया। बड़ी-बड़ी तोपों के होते हुए भी अकबर असीरगढ़ जैसे किले पर कोई सक्रिय प्रभाव नहीं डाल सका। शाहजहाँ के समय में कन्धार में मुगल सेना अपनी तोपों के होते हुए भी असफल रही। औरंगजेब के समय में जब मराठों ने छापामार युद्ध पद्धति का सहारा लिया, तब तोपों की रही-सही उपयोगिता भी समाप्त हो गई।
(3.) मुगलों ने नौ-शक्ति की उपेक्षा कर भारतीय समुद्रों का द्वार यूरोपीय राष्ट्रों के लिए खुला छोड़ दिया जिससे यूरोपीय लोग भारत के समुद्र तटों पर ऐसे जम गये कि बाद में उन्हें हटाना असम्भव हो गया।
(4.) मुगल सेना की धीमी गति भी उनका एक मुख्य दोष थी। औरंगजेब के जीवन के अंतिम भाग में मुगल सेना अपनी शक्ति और साख खो बैठी।
राज्य कर्मचारियों को वेतन के बदले जो भूमि दी जाती थी उसे जागीर कहते थे। मुगलकाल से पहले भी इसी प्रकार से वेतन भुगतान की पद्धति के प्रमाण मिलते हैं परन्तु मुगलकाल में यह व्यवस्था अत्यधिक व्यापक थी।
जागीरों के प्रकार
मुगलकाल में कई प्रकार की जागीरें प्रचलन में थीं। यहाँ तक कि मुगलों के राजस्व अभिलेखों में जोधपुर, जयपुर आदि राज्यों के राजाओं को भी जागीरदार कहकर सम्बोधित किया गया है। प्रमुख जागीरों के प्रकार इस प्रकार से थे-
(1.) तनख्वाह जागीर: जब जागीर वेतन के बदले दी जाती थी तो उसे तनख्वाह जागीर कहा जाता था।
(2.) मशरूत जागीर: जब किसी पद प्राप्ति के कारण जागीर प्रदान की जाती थी तो उसे मशरूत जागीर कहा जाता था।
(3.) इनाम जागीर: 1672 ई. में मुहम्मद अमीन खाँ की गुजरात की सूबेदारी के पद पर नियुक्ति के समय पाटन और बैरम गाँव की जागीर उसके पद के साथ मिला दी गई। ऐसी जागीर जिसके लिए कोई अनुबन्ध नहीं होता था, इनाम कही जाती थी।
(4.) वतन जागीर: अकबर ने भारतीय शासकों और जमींदारों को मनसबदार नियुक्त करने की नीति अपनाई थी। उन्हें अपने अधिकार क्षेत्र के जमा (मालगुजारी) के बराबर मनसब मिलता था। इसके लिए आवश्यक था कि इस वर्ग के पास जितनी भूमि है उसकी आय का अनुमान लगाया जाये। क्योंकि इन क्षेत्रों के सही आँकड़े उपलब्ध नहीं थे, इसलिए केवल अनुमान के आधार पर इनको निश्चित कर दिया गया। यह जागीर वतन जागीर कहलाती थी।
(5.) तनख्वाह जागीर: मनदसबदार को मनसबदार के रूप में जो जागीर प्रदान की जाती थी वह तनख्वाह जागीर के नाम से सम्बोधित की जाती थी। जोधपुर के महाराजा जसवन्तसिंह को इसी आधार पर मारवाड़ वतन जागीर के रूप में और हिसार तनख्वाह जागीर के रूप में दिया गया था।
(6.) अल-तमगा जागीर: जहाँगीर ने अल-तमगा नामक नई जागीर व्यवस्था आरम्भ की। इस प्रकार की जागीर की स्वीकृति के फरमान पर बादशाह की मोहर लगाई जाती थी, जो सोने के पानी की होती थी। अल-तमगा जागीर का उद्देश्य तथा स्वरूप जहाँगीर ने स्वयं स्पष्ट किया है- ‘यह मेरी इच्छा थी कि अनेक पदाधिकारी अपनी इच्छाओं को पूर्ण होते देख सकें। मैनें बख्शियों को आदेश दिया कि यदि कोई अपनी मातृभूमि को जागीर के रूप में प्राप्त करना चाहे तो वह इसके लिए निवेदन करे जिससे कि चंगेज के नियमों के अनुसार अल-तमगा के अन्तर्गत उसकी जागीर की सम्पत्ति में परिणत कर दिया जाये जिससे कि वह जागीर तबादले की आशंका से मुक्त हो जाये।’ जहाँगीर की इच्छा थी कि यदि वह किन्हीं अधिकारियों को विशेष रूप से अनुग्रहित करना चाहे तो ऐसा करने में कोई असुविधा न हो। मुगलकाल में अल-तमगा जागीर के छुटपुट प्रमाण ही मिलते हैं।
उत्तराधिकार का नियम
मुगल शासक जागीर के सम्बन्ध में पैतृक उत्तराधिकारी को मानते थे परन्तु उसके बाद भी यह उनका अधिकार था कि वे उत्तराधिकारी को चुनें। 1679 ई. में औरंगजेब ने महाराजा जसवन्तसिंह की मृत्यु होने पर जोधपुर की वतन जागीर को खालसा घोषित कर दिया तो परम्परा के विरुद्ध होने के कारण इसका जबरदस्त विरोध हुआ।
जागीरों का प्रबंधन
जागीरदारी प्रथा से किसानों के अधिकारों पर किसी प्रकार की आँच नहीं आती थी और न ही जमींदार किसी प्रकार से इससे प्रभावित होता था। जागीर का पट्टा मिलने पर स्वयं जागीरदार का यह उत्तरदायित्व था कि वह अपनी जागीर से राजस्व एकत्रित करने का प्रबन्ध करे। बड़े-बडे़ जागीरदार इस कार्य के लिए आमिल, अमीन, कानूनगो आदि रखते थे और उन्हीं के द्वारा वे अपनी जागीर से राजस्व एकत्रित करवा लिया करते थे।
इजारेदारी: छोेटे-छोटे जागीरदारों के लिए जागीर के प्रबंधन के लिये विभिन्न कर्मचारियों की नियुक्ति करना कठिन था। इसलिये वे अपनी जागीर इजारे पर देते थे और इजारेदारों से एक निश्चित धनराशि लेते थे। जब जागीरदार की नियुक्ति ऐसे स्थान पर हो जाती थी जो उनकी जागीर से दूर होता था तब जागीर की समुचित व्यवस्था करना सम्भव नहीं होता था। तब भी जागीर इजारे पर दी जाती थी।
पायबाकी: जब कभी एक जागीरदार का निधन हो जाता था अथवा उसकी जागीर की बदली होती थी तो जागीर को तब तक के लिये पुरानी जागीर के दीवान के अधिकार में पायबाकी के रूप में रख दिया जाता था जब तक कि वह दूसरे जागीरदार को न दे दी जाती। इस पायबाकी में से राज्य के अधिकारियों को उस समय कुछ जागीर दे दी जाती थी, जब वे किसी विशेष काम के लिए नियुक्त किये गये हों। ऐसी जागीर को मशरूत जागीर के नाम से पुकारा जाता था।
जागीरदारों पर नियंत्रण
जागीरदार का स्थानांतरण
अकबर के आरम्भिक वर्षों में जागीरदार स्वयं को जागीर का स्थायी स्वामी समझ बैठे थे। अतः अकबर ने उनकी शक्ति कम करने के लिए जागीरदारों को एक जागीर से दूसरी जागीर में स्थानांतरित करने की नीति बनाई किन्तु जागीर के बदलने के कारण जमा (लगान) की राशि में कमी या अधिकता आ जाती थी। इसलिए उसने जागीर से राजस्व वसूल करने का काम सरकारी कर्मचारियों के हाथों में सौंप दिया। 1581-82 ई. में पुनः नकद वेतन देने की प्रथा भी चलाई परन्तु इसका अत्यधिक विरोध हुआ। अतः जागीर व्यवस्था को पुनः लागू कर दिया गया। इसका लाभ यह हुआ कि अब जागीरदार सतर्क हो गये।
जागीरदारों पर अंकुश
मुगल काल में जागीरदार का अपनी जागीर पर पूर्ण अधिकार नहीं होता था। बादशाह का ही उस पर नियंत्रण रहता था। कानूनगो, चौधरी तथा प्रशासन के दूसरे सहयोगी लगान सम्बन्धी नियमों को लागू करते थे तथा फौजदार जागीर में शान्ति व्यवस्था का कार्य करते थे। बादशाह से जागीर की दुर्व्यवस्था के सम्बन्ध में शिकायत की जा सकती थी और ऐसी स्थिति में जागीरदार को दण्डित भी किया जा सकता था। जागीरदार अपनी उन्नति तथा आर्थिक अस्तित्त्व के लिए बादशाह पर निर्भर रहते थे। बादशाह अधिकतर अपने सम्बन्धी या उच्च कुल के लोगों को जागीर देते थे परन्तु नीचे के वंश वालों को जागीर देने पर प्रतिबन्ध नहीं था। इसलिए जागीरदार को यह भय लगा रहता था कि यदि बादशाह ने उनके समक्ष किसी नीचे के वंश वाले को जागीरदार बना दिया तो यह उनके लिए असम्मानजनक होगा।
औरंगजेब के समय जागीर प्रथा में एक नया संकट आ गया। इस समय तक इतनी जागीरें दी गईं कि राज्य में जागीर देने के लिए भूमि शेष नहीं बची। जागीर मिलने में इतनी देर हो जाया करती थी कि यह कहा जाने लगा कि मनसब मिलने तथा उससे सम्बन्धित जागीर प्राप्त करने में एक नौजवान के बाल सफेद हो जाते थे। ऐसी स्थिति में जागीर का तबादला होना तो और भी अधिक दुःखदायी था। जागीरदार यह नहीं जानते थे कि एक बार जागीर हाथ से निकल जाने पर उन्हें दूसरी जगह जागीर प्राप्त करने में सफलता मिलेगी या नहीं। अतः वे भयभीत रहते थे।
मदद-ए-माश
इस्लामिक प्रथा के अनुसार मुगल शासक भी धार्मिक लोगों, विद्वानों, शेखों, सैयदों आदि को करमुक्त भूमि का अनुदान देते थे जिसे मदद-ए-माश कहा जाता था। अबुल फजल के अनुसार चार वर्गाें के लोगों को मदद-ए-माश भूमि के अनुदान योग्य माना गया था- (1.) पहला वर्ग उन लोगों का था जिन्होंने दुनियादारी का परित्याग कर सत्य की खोज में स्वयं को खपा दिया हो। (2.) दूसरा वर्ग धार्मिक सन्तों का था। (3.) तीसरे वर्ग में वे लोग आते थे जो किसी कारणवश शारीरिक अथवा भौतिक जीविका चलाने में असमर्थ थे। (4.) चौथे वर्ग में वे लोग थे जो कुलीन वंश के थे परन्तु किसी व्यापार अथवा व्यवसाय को करना अपनी मर्यादा के खिलाफ समझते थे।
मदद-ए-माश के प्राप्तकर्त्ताओं को यह अधिकार था कि वे अपनी भूमि किसानों को ठेके पर दे दें अथवा बेच दें अथवा दान में दे दें। अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ के समय में ऐसे अनुदान को बेचने या हस्तांतरण करने का अधिकार प्राप्तकर्त्ता को था या नहीं, निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता परन्तु औरंगजेब और उसके उत्तराधिकारियों के समय में यह प्रथा मौजूद थी। मदद-ए-माश की संस्था को मुगलकालीन सामाजिक एवं कृषि व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। सामाजिक रूप से इस संस्था ने ग्रामीण जनता में धार्मिक सहिष्णुता की चेतना विकसित करने में सहयोग दिया।
संस्थाओं को जागीर
व्यक्तियों के साथ-साथ संस्थाओं को भी इस प्रकार का अनुदान दिया जाता था। अनुदान देने तथा उनके पुनर्ग्रहण करने के समस्त अधिकार बादशाह में निहित थे। भू-स्वामित्व का अधिकार वंशानुगत दिया जाता था परन्तु उत्तराधिकारियों को आवधिक सत्यापन कराना आवश्यक था। ऐसे अनुदान अधिकतर भू-राजस्व तथा अन्य करों से मुक्त रहते थे किन्तु ऐसी भूमि पर कर निर्धारण की सम्भावना को पूरी तरह से अस्वीकार नहीं किया जा सकता। शाहजहाँ ने 1648-49 ई. में बेगम बिरलास के अनुदान पर कर लगाया था। इसी प्रकार शाहजहाँ के काल में ही भूसरा तथा हैबतपुर गाँवों की अयम्मा भूमि पर भी कर का निर्धारण कर दिया।
अकबर तथा महाराणा प्रताप के बीच आदि से अंत तक जो भी घटनाएं हुईं उनसे यह सिद्ध होता है कि न तो अकबर महाराणा प्रताप से संधि चाहता था और न महाराणा प्रताप किसी भी कीमत पर अकबर से संधि करना चाहता था।
महाराणा प्रताप की सेना के हरावल का नेतृत्व हकीम खाँ सूर के हाथ में था। उसकी सहायता के लिये सलूम्बर का चूण्डावत किशनदास, सरदारगढ़ का डोडिया भीमसिंह, देवगढ़ का रावत सांगा तथा बदनोर का रामदास नियुक्त किये गये।
मुगलों द्वारा रामप्रसाद के महाबत को भी मार डाला गया। जैसे ही महाबत धरती पर गिरा, मुगल सेना के हाथियों का फौजदार हुसैन खाँ अपने हाथी से रामप्रसाद पर कूद गया।