भारत की जनता को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अपेक्षा है कि वे देश में बड़े बदलाव करें। हालांकि लोकतंत्रीय शासन पद्धति में प्रधानमंत्री अकेला निर्णय नहीं लेता, मंत्रिमण्डल के सामूहिक निर्णय से सरकार चलती है। मंत्रिमण्डल अपने राजनीतिक दल की नीतियों के अनुसार निर्णय लेता है तथा राजनीतिक दल जनता की अपेक्षा के अनुसार सरकार पर दबाव बनाता है। इतना सब होने पर भी प्रधानमंत्री का व्यक्तित्व ही अंततोगत्वा सरकार के समस्त निर्णयों एवं नीतियों पर आच्छादित रहता है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विगत साढ़े दस वर्षों से भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार चला रहे हैं। उनका व्यक्तित्व पहले ही दिन से करिश्माई नेता जैसा रहा है।
नरेन्द्र मोदी से पहले भारत की राजनीति में दो ही नेता करिश्माई माने जाते रहे हैं- जवाहर लाल नेहरू एवं इंदिरा गांधी किंतु उनके करिश्माई नेतृत्व किसी काम के नहीं निकले। उन्होंने जो नीतियां बनाईं, देश की राजनीति को जो दिशा दी, भारत के सामाजिक ढांचे का जो सत्यानाश किया, उससे भारत देश कम और धर्मशाला अधिक बन गया। जिसकी मर्जी आए, देश में घुसे और नागरिक बनकर देश की सरकार को चुने। मजहब के नाम पर देश में अधिक से अधिक सुविधाएं ले और देश के नागरिकों के गले काटे।
नरेन्द्र मोदी सरकार ने विगत साढ़े दस वर्षों में पुरानी सरकारों की नीतियों को त्यागकर नई राजनीति का आरम्भ किया है। इस अवधि में नरेन्द्र मोदी सरकार ने बहुत से अद्भुत कार्य किए हैं किंतु भारत के भाग्य को बदल सकने वाले कार्य अब भी नरेन्द्र मोदी सरकार के संकल्प और कर्म की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
भारत की जनता को विशेषकर हिन्दू जनता को, यदि और अधिक स्पष्ट कहें तो बीजेपी के मतदाताओं को नरेन्द्र मोदी से अपेक्षा है कि वे देश के भीतर कुछ बहुत बड़े परिवर्तन करें। यदि नरेन्द्र मोदी सरकार इन परिवर्तनों की ओर कदम बढ़ाती है तो निश्चित रूप से न केवल राष्ट्र मजबूत होगा, न केवल देश के भीतर शांति बढ़ेगी, न केवल भारत का भविष्य सुरक्षित होगा, अपितु एक ऐसे नए इतिहास का निर्माण होगा जिसकी गूंज शताब्दियों तक बनी रहेगी। नरेन्द्र मोदी भी सच्चे करिश्माई नेता सिद्ध होंगे।
प्रत्येक हिन्दू को नरेन्द्र मोदी से अपेक्षा है कि भारत में अवैध रूप से निवास कर रहे प्रत्येक रोहिंग्या को देश से बाहर निकालकर उनके अपने देशों बांगलादेश या बर्मा में धकेल दिया जाए।
जनता की दूसरी अपेक्षा यह है कि भारत सरकार वक्फ बोर्ड को तुरंत भंग करे। वक्फ बोर्ड की सम्पूर्ण सम्पत्ति का राष्ट्रीयकरण किया जाए तथा इस सम्पत्ति को देश के बेरोजगार नौजवानों के लिए रोजगार विकसित करने में प्रयुक्त किया जाए। आज वक्फ बोर्ड के पास दस लाख हैक्टेयर भूमि है। यह भूमि देश के विकास में काम आए न किसी मजहबी फिरके की सम्पत्ति बनकर रहे।
जनता की तीसरी अपेक्षा यह है कि प्लेसेज ऑफ वरशिप एक्ट को तुरंत समाप्त करके एक ऐसा कानून बनाया जाए जिसके तहत देश के उन समस्त स्थलों का संवैधानिक सर्वे करवाया जा सके जिन पर हिन्दू अपना दावा जताते हैं। उन दावों का निबटारा करने के लिए विशेष न्यायिक ट्रिब्यूनल बनाए जाने चाहिए। जो स्थल प्राचीन हिन्दू धार्मिक स्थल के रूप में पहचाने जाते हैं, उन्हें वापस हिन्दुओं को त्वरित गति से लौटाया जाए। उसके लिए वर्षों अथवा दशकों तक कानूनी कार्यवाहियां न चलें।
नरेन्द्र मोदी सरकार से जनता की चौथी अपेक्षा यह है कि भारत के संविधान में इंदिरा गांधी द्वारा इमरजेंसी के दौरान जबर्दस्ती जोड़े गए धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्दों को हटाया जाए तथा भारत के संविधान की उद्देश्यिका पुनः वैसी ही कर दी जाए जैसी कि 1950 में देश का संविधान लागू करते समय थी।
जनता की नरेन्द्र मोदी से अपेक्षा है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश की एकता एवं अखण्डता के लिए कार्य किए जाएं। नरेन्द्र मोदी सरकार भारत की एकता और अखण्डता को मजबूत करने के लिए कुछ बड़े कदम उठाए।
सरकार द्वारा देश के भीतर महजबी कलह को समाप्त करने तथा देश में सुख एवं शांति का वातावरण बनाने के लिए अल्पसंख्यक बोर्ड जैसी समस्त संस्थाओं को समाप्त करके राष्ट्रीय एकता बोर्ड जैसी संवैधानिक संस्थाएं गठित की जानी चाहिए। इन संस्थाओं का कार्य यह हो कि जो लोग अथवा जिनके पूर्वज विगत एक हजार सालों में भय, लालच, विवशता अथवा भ्रम वश हिन्दू धर्म छोड़कर चले गए हैं, उन्हें अपनी मर्जी से पुनः हिन्दू धर्म में लाने के शांतिपूर्ण प्रयास किए जाएं।
नरेन्द्र मोदी सरकार से जनता की छठी अपेक्षा यह है कि जिस प्रकार उन्होंने भारत की राजनीति को परिवारवाद से मुक्त करवाया है, उसी प्रकार वे भारत की ज्युडीशियरी को लगभग 30-32 परिवारों के वर्चस्व से मुक्त करवाएं। विगत पिचहत्तर सालों से भारत के उच्च न्यायालयों एवं सर्वोच्च न्यायालयों में पीढ़ी दर पीढ़ी इन्हीं परिवारों के सर्वाधिक जज बन रहे हैं। भारत के प्रत्येक नागरिक के लिए जज बनने के समान अवसर उपलब्ध होने चाहिए।
यदि नरेन्द्र मोदी सरकार अपने तीसरे कार्यकाल में इनमें से आधे कार्य भी कर पाती है और आधे कार्य अपने चौथे कार्यकाल में करने का लक्ष्य निर्धारित करती है तो भारत की जनता को बड़ी राहत मिलेगी तथा देश में अशांति का वातावरण समाप्त होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अपेक्षा है कि वे समय रहते कदम उठाएं तथा उन संकल्पों को पूरा करें जो जनसंघ की स्थापना के समय नेताओं ने लिए थे।
भगवान बुद्ध कौन थे? यह प्रश्न अटपटा सा लगता है किंतु वैदिक ऋषि भगवान गौतम बुद्ध और शाक्यमुनि गौतम बुद्ध हिन्दू धर्म के इतिहास की ऐसी पहेली बन गए हैं जिसे सुलझाना बहुत कठिन है किंतु यदि हिन्दू धर्म के अवतारवाद के दर्शन को अच्छी तरह से समझ लिया जाए तो यह गुत्थी बड़ी सरलता से सुलझ जाती है कि वैदिक ऋषि भगवान बुद्ध और शाक्यमुनि गौतम बुद्ध अलग-अलग हैं!
भारत के स्थापित इतिहास में शाक्य मुनि सिद्धार्थ गौतम को गौतम बुद्ध एवं भगवान बुद्ध भी लिखा जाता है। इस कारण सनातनी धर्मावलम्बी एवं बौद्ध मतावलम्बी दोनों ही, शाक्यमुनि गौतम बुद्ध एवं भगवान गौतम बुद्ध को एक ही व्यक्ति मानते हैं किंतु वास्तव में ये एक व्यक्ति नहीं हैं, दो हैं।
आज से लगभग 100 साल पहले तक इतिहासकारों ने गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी को भी एक ही व्यक्ति मानकर प्राचीन भारत का इतिहास लिखा था। इस असमंजसता का कारण सिद्धार्थ गौतम एवं महावीर स्वामी, इन दोनों राजकुमारों के नाम, जन्म-काल, जन्म-स्थल, राजकुल, माता-पिता, इनके द्वारा प्रतिपादित दर्शनों का वैदिक धर्म से विरोध आदि तथ्य बहुत ही समानता रखते थे।
आगे चलकर जैसे-जैसे गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी का इतिहास सामने आता गया, वैसे-वैसे यह स्थापित होता चला गया कि बुद्ध और महावीर एक व्यक्ति नहीं थे, ये दो थे एवं अलग-अलग थे और बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म की स्थापना एक व्यक्ति ने नहीं की थी, दो अलग-अलग व्यक्तियों ने की थी।
ऐसा और भी मामलों में देखा गया है कि एक ही नाम के दो महापुरुष अथवा अवतार हो जाते हैं। ऋषि जमदग्नि के पुत्र का नाम भी राम है और राजा दशरथ के पुत्र का नाम भी राम है। इसलिए इन्हें अलग-अलग पहचानने के लिए जमदग्नि के पुत्र को परशुराम कहा गया।
राम और परशुराम की तरह ही, शाक्य मुनि गौतम बुद्ध एवं भगवान गौतम बुद्ध एक व्यक्ति के दो नाम नहीं थे, अपितु ये दोनों नाम दो अलग-अलग व्यक्तियों के थे जो आपस में एक जैसे प्रतीत होने के कारण एक दूसरे के पर्याय बन गए हैं।
जो भगवान गौतम बुद्ध, भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं, वे शाक्य मुनि गौतम बुद्ध अर्थात् सिद्धार्थ गौतम से अलग हैं।
दार्शनिक आधार पर भी, शाक्य मुनि गौतम बुद्ध अथवा सिद्धार्थ गौतम भगवान विष्णु के अवतार हो भी नहीं सकते क्योंकि विष्णु तो वेदों की रक्षा के लिए अवतार लेते हैं जबकि शाक्य मुनि गौतम बुद्ध ने वेदों को स्वीकार नहीं किया। विष्णु तो यज्ञ की रक्षा के लिए अवतार लेते हैं, जबकि शाक्य मुनि गौतम बुद्ध ने यज्ञों का विरोध किया। इस तथ्य से यह पहेली सुलझती हुई लगती है किभगवान बुद्ध कौन थे?
भगवान विष्णु तो ब्राह्मणों की रक्षा के लिए अवतार लेते हैं, जबकि शाक्य मुनि गौतम बुद्ध ने ब्राह्मणों द्वारा अर्जित सम्पूर्ण ज्ञान, उनके द्वारा बनाए गए वर्ण-विधान एवं कर्मकाण्ड आदि समस्त बातों का विरोध किया। भगवान विष्णु तो परमात्मा माने जाते हैं जिनसे समस्त आत्माओं का निर्माण होता है जबकि शाक्य मुनि गौतम बुद्ध ने तो परमात्मा एवं आत्मा के बारे में कोई बात नहीं की।
भगवान विष्णु का दर्शन आत्मदीपो भव के सिद्धांत पर खड़ा है जिसका अर्थ होता है, आत्मा को प्रकाशित करो जबकि बुद्ध का दर्शन अप्प दीपो भव के सिद्वांत पर खड़ा है जिसका अर्थ होता है स्वयं दीपक बन जाओ। इन दो अलग विचारों से भी यह पहेली सुलझती हुई लगती है किभगवान बुद्ध कौन थे?
विष्णु रूपी परमात्मा से उत्पन्न आत्माएं तो देह छोड़ने के बाद मोक्ष प्राप्त करती हैं जबकि शाक्य मुनि गौतम बुद्ध के अनुसार मनुष्य अपने कर्मों से इसी देह में निर्वाण प्राप्त कर लेता है।
ऐसी स्थिति में शाक्यमुनि गौतम बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार कैसे माना जा सकता है! निश्चित रूप से भगवान विष्णु के अवतार माने जाने वाले गौतम बुद्ध, शाक्यमुनि गौतम बुद्ध से अलग हैं। और यह प्रश्न अनुत्तरित नहीं रह जाता कि भगवान बुद्ध कौन थे?
पुराणों में विष्णु के दस अवतार मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बलराम एवं कल्कि बताए गए हैं। कुछ ग्रंथों में बलराम के स्थान पर विष्णु के मोहिनी अवतार को सम्मिलित किया गया है तो कुछ ग्रंथों में गौतम बुद्ध को नौंवा अवतार माना गया है किंतु दशावतारों की सूची के गौतम बुद्ध शाक्य मुनि गौतम बुद्ध से अलग हैं।
वर्तमान समय में हिन्दुओं में यह धारणा प्रचलित है कि चूंकि हिन्दू धर्म बहुत उदार है इसलिए भगवान को न मानने वाले गौतम बुद्ध को भी हिन्दुओं ने विष्णु का नौवां अवतार मान लिया है जबकि यह धारणा पूरी तरह से गलत है।
शाक्य मुनि गौतम बुद्ध भगवान विष्णु के अवतार नहीं हैं, इस बात का आभास तो इस बात से ही हो जाना चाहिए कि विष्णु के दशावतारों की सूची में वेदों को न मानने वाले भगवान महावीर अथवा उनसे पहले के किसी भी जैन तीर्थंकर का नाम नहीं है। फिर वेदों को न मानने वाले गौतम बुद्ध का नाम दशावतारों की सूची में क्यों होता? अतः निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि दशावतारों की सूची के भगवान गौतम बुद्ध शाक्य मुनि गौतम बुद्ध से अलग हैं।
सनातन धर्म में गौतम नामक दो बड़े ऋषि हुए हैं। पहले गौतम आज से लगभग सात हजार साल पहले भगवान राम के काल में हुए थे जिनकी नारी को भगवान राम ने सामाजिक अपवाद से मुक्त किया था। इन गौतम ऋषि का नाम वेदों में मिलता है। इन्होंने वैदिक ऋचाएं की रचना भी की थी।
आज से लगभग पांच हजार साल पहले, सनानत हिन्दू धर्म में गौतम नामक एक और महान् ऋषि हुए जो क्षीरसागर में अनंत-शयन करने वाले अर्थात् शेषनाग की शैया पर शयन करने वाले विष्णु के नौंवे अवतार माने गए। इन्होंने गौतम धर्म सूत्र की रचना की थी जिसमें वर्ण व्यवस्था के नियम निर्धारित किए गए। षड्दर्शनों में से एक न्याय दर्शन के प्रणेता भी यही गौतम हैं। गौतम के कई हजार साल बाद मनु नामक जिस ऋषि ने मनुस्मृति की रचना की थी, उस मनुस्मृति का आधार भी इन्हीं गौतम ऋषि द्वारा रचित गौतम धर्मसूत्र है।
न्याय दर्शन एवं गौतम धर्मसूत्र के रचयिता गौतम ऋषि ने यज्ञों में बलि देने की प्रथा को अनुचित बताया तथा उसे जीव-हिंसा कहा। उनके प्रभाव से यज्ञों में पशु-बलि का प्रचलन बहुत से क्षेत्रों में बंद हो गया। समाज पर गौतम के व्यापक प्रभाव के कारण ही उन्हें भगवान विष्णु का नौंवा अवतार स्वीकार किया गया तथा उन्हें भगवान गौतम बुद्ध कहा गया। उनकी माता का नाम अंजना और पिता का नाम हेमसदन था। भगवान गौतम बुद्ध का जन्म बिहार प्रांत के ‘गया’ नामक स्थान पर हुआ था जिसे हिन्दुओं का सबसे बड़ा तीर्थ माना जाता है।
न्याय दर्शन एवं गौतम धर्मसूत्र के रचयिता गौतम ऋषि के लगभग ढाई हजार साल बाद अर्थात् आज से ठीक ढाई हजार साल पहले हुए शाक्य राजा शुद्धोदन एवं उनकी महारानी माया के पुत्र के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उन्होंने भी जीवहिंसा को बहुत बड़ा पाप बताया तथा मानव मात्र के लिए अहिंसा के मार्ग पर चलने का निर्देशन किया। उन्हें शाक्य मुनि गौतम बुद्ध के नाम से जाना गया।
शाक्य गौतम बहुत ही कठोर साधक एवं परम ज्ञानी हुए। उन्होंने कठिन तपस्या के बाद तत्त्वानुभूति की और वे बुद्ध कहलाए। शाक्य मुनि को उनके शिष्यों ने तथागत कहा तथा हिन्दुओं ने उन्हें आगे चलकर वैदिक ऋषि भगवान गौतम बुद्ध से जोड़ दिया।
बौद्ध दर्शन में भगवान जैसा कोई अस्तित्व है ही नहीं, अतः इस बात को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है कि शाक्य गौतम के लिए भगवान शब्द का प्रयोग बौद्धों ने नहीं, हिन्दुओं ने किया।
श्रीललित विस्तार ग्रंथ के 21वें अध्याय के पृष्ठ संख्या 178 पर उल्लेख है कि संयोगवश शाक्य मुनि गौतम बुद्ध ने उसी स्थान पर तपस्या की जिस स्थान पर भगवान बुद्ध ने तपस्या की थी। इसी कारण लोगों ने दोनों को एक ही मान लिया।
जर्मन इतिहासकार मैक्स मूलर के अनुसार शाक्य सिंह बुद्ध अर्थात गौतम बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु के लुम्बिनी के वनों में ईस्वी पूर्व 477 में हुआ था। अर्थात् शाक्य मुनि केवल ढाई हजार साल पहले हुए। जबकि सनातन धर्म के भगवान बुद्ध आज से 5000 वर्ष पहले बिहार के ‘गया’ नामक स्थान में प्रकट हुए थे।
श्रीमद् भागवत महापुराण (1/3/24) तथा श्रीनरसिंह पुराण (36/29) के अनुसार भगवान बुद्ध आज से लगभग 5000 साल पहले इस धरती पर आए। मैक्समूलर के अनुसार गौतम बुद्ध ईस्वी पूर्व 477 में अर्थात् आज से ठीक 2501 साल पहले आए।
इस प्रकार काल की भिन्नता के आधार पर भी सिद्ध होता है कि सनातन धर्म के भगवान बुद्ध और शाक्य मुनि गौतम बुद्ध एक नहीं हैं।
श्रीगोवर्धन मठ पुरी के पीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती के अनुसार भगवान हिन्दुओं के भगवान बुद्ध और बौद्धों के गौतम बुद्ध दोनों अलग-अलग काल में जन्मे अलग-अलग व्यक्ति थे।
सनातन धर्म में जिन भगवान गौतम बुद्ध को भगवान विष्णु का अंशावतार बताया गया है, उनका जन्म मगध के कीकट प्रदेश में ब्राह्मण कुल में हुआ था जबकि उनके जन्म के ढाई हजार वर्ष बाद कपिलवस्तु में जन्मे गौतम बुद्ध, क्षत्रिय राजकुमार थे।
ब्राह्मणों ने ही सनातन धर्म के गौतम बुद्ध को भगवान का अवतार घोषित करके उन्हें पूजने की शुरुआत की थी। ब्राह्मण कर्मकांड में जिस बुद्ध की चर्चा होती है वे शाक्य मुनि से अलग हैं। जिस गौतम ऋषि का उल्लेख वेदों में हुआ है, वही सनातनियों के भगवान बुद्ध हैं। उन्हें ही भगवान का अंशावतार माना जाता था। इन्हीं गौतम बुद्ध की चर्चा श्रीमद्भागवत में भी हुई है जो कि ब्राह्मण कुल जन्मे थे।
उज्जैन के पहली शताब्दी ईस्वी के आसपास उज्जैन के राजा विक्रमादित्य की राजसभा के नौ रत्नों में से एक अमरसिंह ने अमरकोष नामक संस्कृत ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ में भगवान बुद्ध के 10 और गौतम बुद्ध के पांच पर्यायवाची नामों को एक ही क्रम में लिखा गया है। इस कारण हिन्दुओं को बुद्ध के नाम पर भ्रम हुआ तथा भगवान बुद्ध एवं शाक्य गौतम को एक ही मान लिया गया।
अमरकोष के रचयिता को यह भ्रम गौतम शब्द के कारण हुआ जो दोनों नामों में जुड़ा हुआ है। वेदों के गौतम ऋषि का गोत्र गौतम था और संभवतः शाक्य क्षत्रिय राजकुमार सिद्धार्थ का गोत्र भी गौतम था। इसी कारण अमर कोष के रचयिता को यह भ्रम हुआ।
अग्निपुराण में भगवान बुद्ध को लंबकर्ण अर्थात् लम्बे कान वाला कहा गया है। इस कारण शाक्य मुनि की प्रतिमाओं में भी लम्बे कान बनाए जाने लगे।
वाल्मीकि रामायण में बुद्ध को चोर कहा गया है-
वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड के 109वें सर्ग के चौतीसवें श्लोक में बुद्ध का उल्लेख इस प्रकार हुआ है- ‘यथा हि चोरः तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।’
अर्थात् ‘बुद्ध यानी जो नास्तिक है और नाम मात्र का बुद्धिजीवी है, वह चोर के समान दंड का अधिकारी है।’ निश्चित रूप से यह श्लोक रामायण में बहुत बाद में जोड़ा गया है। फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि यदि तथागत बुद्ध को भगवान राम का अवतार मान लिया गया होता तो उन्हें वाल्मीकि रामायण में चोर के समान दण्ड का भागी नहीं कहा गया होता। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि रामायण में तथागत बुद्ध नाम लिखा गया है न कि गौतम बुद्ध या भगवान बुद्ध।
इस विवेचन से यही निष्कर्ष निकलता है कि जिन वैदिक ऋषि गौतम को सनातनियों ने विष्णु का अवतार मानकर भगवान बुद्ध कहा, उनका काल पांच हजार साल पहले का है। शाक्य मुनि तथागत गौतम जिनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था, उन्हें नाम की एकता के कारण हिन्दुओं ने भगवान बुद्ध मान लिया है जिनका काल आज से लगभग ढाई हजार साल पहले का था। ऐसी और भी बहुत सी बातें यह गुत्थी सुलझाने में सहायता करती है कि भगवान बुद्ध कौन थे?
हिन्दूधर्म और सिक्खपंथ वैसे ही हैं जैसे सूर्य और उसका प्रकाश। हिन्दू धर्म सूर्य है तो सिक्ख पंथ उसका प्रकाश है। हिन्दू धर्म वृक्ष है तो सिक्ख पंथ उसकी शाखा है।
कुछ दिनों पहले बागेश्वर धाम के गादीपति पंडित धीरेन्द्र शास्त्री ने एक वक्तव्य दिया था कि संभल के हरिहर मंदिर में भगवान शिव का अभिषेक होना चाहिए। बरजिंदर परवाना नामक एक सिक्ख अतिवादी ने समझा कि धीरेन्द्र शास्त्री ने अमृतसर के स्वर्णमंदिर में शिवजी का अभिषेक करने की बात कही है जिसे हरमंदिर भी कहा जाता है। उसने कहा कि वह धीरेन्द्र शास्त्री को जान से मार डालेगा।
वर्तमान समय में बरजिंदर परवाना जैसे सैंकड़ों अथवा हजारों सिक्ख अतिवादी हैं जो हिन्दू धर्म को सिक्ख धर्म से अलग समझकर इस तरह की हरकतें कर रहे हैं। इन अतिवादियों को कनाडा, अमरीका एवं पाकिस्तान में बैठी हुई भारत विरोधी शक्तियों से फण्ड तथा अजेण्डा दोनों मिलते हैं जिनके कारण ये अतिवादी लोग कोई काम करके रोजी-रोटी कमाने एवं अपने परिवारों को सुख-शांति के मार्ग पर ले जाने की बजाय इस तरह की हिंसात्मक कार्यवाहियों, धमकियों एवं बयानों से देश में घृण फैलाने का काम करते हैं। उनकी इन हरकतों से ही हिन्दू और सिक्ख एक-दूसरे को शंका की दृष्टि से देखने लगे हैं।
होना तो यह चाहिए कि सिक्ख अतिवादी इस बात पर विचार करें कि हिन्दुओं का हरिहर मंदिर तथा सिक्खों का हरमंदिर कितने मिलते-जुलते नाम हैं तथा इस बात के जीते-जागते प्रमाण हैं कि हिन्दू और सिक्ख एक ही हैं, वे अलग-अलग नहीं हैं।
सिक्ख अतिवादी अस्सी के दशक में हुए जनरैल सिंह भिण्डरवाला के समय से सिक्ख धर्म को न केवल हिन्दू धर्म से अलग धर्म के रूप में प्रचारित कर रहे हैं, अपितु इस तरह का विष उगल रहे हैं जिससे यह लगता है कि इन दोनों धर्मों में कोई जन्मजात का वैर है।
कनाडा में जिस तरह से सिक्ख अतिवादियों ने खालिस्तान की स्थापना के नाम से अपना अड्डा जमाया है और कनाडा के प्रधानमंत्री ट्रूडो जैसे पॉलिटीशियन्स ने उन्हें धन, शक्ति एवं समर्थन दिए हैं, उनसे इन अतिवादियों को लगता है कि वे सचमुच एक दिन खालिस्तान बना लेंगे।
यह निश्चित है कि वे अपना पेट पालने के लिए हिंसा के जिस मार्ग पर चल रहे हैं, वह रास्ता आगे जाकर काली धुंध में विलीन हो जाता है। गुरु नानक के सम्मान में एक भजन गाया जाता है कि सतगुरु नानक परगतिटया, मिटी धुंध जब चानण होया।
सिक्ख अतिवादियों को अपने परिवार वालों के बीच बैठकर सोचना चाहिए कि वे हिंसा और घृणा के जिस मार्ग पर चल रहे हैं, क्या उससे उन्हें तथा उनके परिवार को कभी कोई प्रकाश मिलेगा!
विगत चौदह सौ साल से संसार भर में जिस तरह इस्लाम के नाम पर आतंकवादी मानवता के शत्रु हुए बैठे हैं, क्या सिक्ख अतिवादी अपने समाज को उसी मार्ग पर ले जाना चाहते हैं?
क्या सिक्ख अतिवादियों को गुरु नानक की यह बात कभी याद आती है- नानक दुखिया सब संसारा? यह सारा संसार दुखों से भरा पड़ा है। संसार में दैहिक, दैविक और भौतिक तीन प्रार के दुख व्याप्त हैं। मनुष्य का पूरा जीवन इन तीनों दुखों से लड़ने में ही बीत जाता है। इन दुखों से लड़ने के लिए एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य का साथ और सहयोग चाहिए किंतु जब मानव-मानव का शत्रु होकर जिएगा तो दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों प्रकार के दुख हजार-हजार गुना होकर इंसानों को सताएंगे।
क्या सिक्ख अतिवादियों को उनके माता-पिता गुरु, किसी ने नहीं बताया कि भारत भूमि पर विशाल वटवृक्ष के रूप में विकसित सनातन धर्म की चार बड़ी शाखाएं वैदिक दर्शन, जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन एवं सिक्ख पंथ के रूप में विकसित हुई हैं। यह ठीक वैसे ही है, जैसे कि एक ही पिता के पुत्रों से अलग-अलग गोत्र चल पड़ते हैं।
क्या वे पुत्र आपस में एक-दूसरे को मारने की धमकी देते हैं? हिन्दू भी एक ओंकार को मानते हैं, सिक्ख भी एक ओंकार को मानते हैं, हिन्दू भी विष्णु की पूजा पुरुषोत्तम के रूप में तथा शिव की पूजा महाकाल के रूप में करते हैं, गुरु नानक ने भी ‘अकाल पुरुष’ को चरम सत्य माना है जिसने प्रकृति, माया, मोह, गुण, देवता, राक्षस और सारा जगत् बनाया है।
इस प्रकार आरम्भ से अंत तक पूरा का पूरा हिन्दू धर्म और पूरा का पूरा सिक्ख पंथ एक दूसरे के पर्याय ही हैं, इनमें कहीं कोई भेद नहीं है।
हिन्दू भी वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धांत पर चलता है और गुरु नानक भी एक नूर ते सब जग उपजा कौन भले कौन मंदे कहकर हिन्दू धर्म को जगाया। जब हमारे गुरु एक हैं तो हिन्दूधर्म और सिक्खपंथ अलग कहाँ हैं?
गुरुग्रंथ साहब में 541 भक्ति पद कबीर के, 60 भक्ति पद नामदेव के और 40 भक्ति पद संत रविदास के हैं। जयदेव, त्रिलोचन, सधना, नामदेव, वेणी, रामानंद, कबीर, रविदास, पीपा, सैठा, धन्ना, भीखन, परमानन्द और सूरदास जैसे वैष्णव भक्तों एवं हरिबंस, बल्हा, मथुरा, गयन्द, नल्ह, भल्ल, सल्ह, भिक्खा, कीरत, भाई मरदाना, सुन्दरदास, राइ बलवंड एवं सत्ता डूम, कलसहार, जालप आदि हिन्दू कवियों के पदों से गुरुग्रंथ साहब भरा पड़ा है। फिर भेद कहाँ है, झगड़ा कहाँ है?
गुरु गोबिंदसिंह ने कहा था-
सकल जगत में खालसा पंथ गाजै, जगै हिन्दू धर्म सब भण्ड भाजै!
गुरु गोबिन्दसिंह ने ‘चण्डी’ की स्तुति की तथा रामकथा पर सुन्दर खण्डकाव्य लिखा। व्यवाहारिक रूप में सिक्ख गुरु, अवतारों तथा हिन्दू देवी- देवताओं में श्रद्धा रखते थे। सिक्ख ग्रन्थों में लिखा है-
रामकथा जुग जुग अटल, जो कोई गावे नेत।
स्वर्गवास रघुवर कियो, सगली पुरी समेत।
भारत की आजादी के समय सिक्खों ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर अपने उन पड़ौसियों एवं सगे सम्बन्धियों के प्राणों की रक्षा की जो सिक्ख नहीं थे, हिन्दू थे। हिन्दुओं ने भी सिक्खों के लिए अपनी जान की बाजी लगाई।
भारत की आजादी के बाद सिक्खों को सरदारजी और सरदार साहब कहकर आदर दिया जाता था। सिक्ख भारत के प्रधानमंत्री बने, राष्ट्रपति बने, गृहमंत्री, वित्तमंत्री और विदेशमंत्री बने। सिक्ख तीनों सेनाओं के अध्यक्ष बने, पंजाब आदि प्रांतों में मुख्यमंत्री बने। सिक्ख योजना आयोग और वित्त आयोग के अध्यक्ष बने, चेयरमैन रेलवे बोर्ड बने।
डॉक्टर, इंजीनियर, चार्टर्ड एकाउंटेंट, आईएएस, आईपीएस, आईएफएस, प्रोविंशियल सर्विसेज जैसी एक भी ऐसी प्रतिष्ठिति सेवा नहीं है, जिसमें सिक्ख अधिकारी न हों। फिर भेद कहाँ है, झगड़ा कहाँ है? हिन्दूधर्म और सिक्खपंथ अलग कहाँ हैं?
मुझे याद है कि जब हम छोटे बच्चे थे, तब हमारे पिताजी हमें हिन्दू मंदिरों के साथ-साथ, जब भी अवसर मिलता था, सिक्खों के गुरुद्वारे, सिंधियों के गुरुद्वारे, आर्यसमाज, जैन मंदिर तथाबौद्ध पेगोडा ले जाया करते थे। आज भी मेरी पीढ़ी के लोगों के लिए ये सब धर्मस्थल एक ही हैं, अपने ही हैं, इनसे हमें कभी परायापन अनुभव नहीं होता, न तब होता था और न आज होता है।
मैंने बद्रीनाथ, वैष्णो देवी और रामेश्वरम् के मंदिरों में सिक्खों को शिवलिंग पर जल चढ़ाते हुए, दुर्गाजी के समक्ष दीपक घुमाते हुए और हरिद्वार में गंगाजी नहाते हुए खूब देखा है। जब किसी हिन्दू बस्ती में किसी सिक्ख का घर होता था, तो सारे लोग होली दीवाली में उसके भी घर रामा-श्यामा करने जाते थे। वैशाखी और लोहड़ी जैसे त्यौहार तो आज भी सिक्ख और हिन्दू एक साथ ही मानते हैं। फिर झगड़ा कहाँ है।
जब कोई सिक्ख यह नारा लगाता है- जो बोले सो निहाल तो आगे की पंक्ति का सत् सिरी अकाल बोलने में हिन्दू सबसे आगे रहते हैं। बहुत से हिन्दू सिक्खों को देखकर सत् सिरी अकाल कहकर अभिवादन करते हैं। यदि दार्शनिक स्तर पर देखा जाए हिन्दूधर्म और सिक्खपंथ इतने निकट हैं कि इन्हें अलग करके देखना कठिन है।
इतनी सारी समरसताओं के उपरांत भी जब कुछ सिरफिरे अतिवादियों द्वारा हिन्दुओं के विरोध में कार्यवाही की जाती है, उन पर हिंसा की जाती है तो बहुत दुख होता है। सिक्ख अतिवादियों ने कनाडा, अमरीका, इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रेलिया आदि कई देशों में हिन्दुओं पर हमले किए हैं। अब भी समय है, यदि पूरा सिक्ख समाज एक होकर अपने परिवार के अतिवादी नौजवानों को सिक्ख धर्म के आदर्शों से परिचय करवाए तो मानवता का बहुत भला होगा।
आज पंजाब में लाखों सिक्ख परिवार थोड़े से पैसों के लालच में, चमत्कारों की भूल भुलैया में अथवा मीठी-मीठी बातों में आकर ईसाई हो रहे हैं। यदि सिक्ख अतिवादियों को सिक्ख पंथ की रक्षा करनी है तो अपना ध्यान उन ईसाई मिशनरियों पर केन्द्रित करे, न कि हिन्दुओं पर हमले करने में।
भारत विराधी ताकतों द्वारा फैंके जा रहे टुकड़ों पर पलने वाले अतिवादी सिक्ख कभी भी अपने परिवारों को शांति, सुरक्षा और उन्नति नहीं दे पाएंगे, अपना नहीं तो अपने परिवारों का तो सोचो! हिन्दूधर्म और सिक्खपंथ अलग कहाँ हैं?
कांग्रेसी सांसद राहुल गांधी का आचरण एक बार फिर से सवालों के घेरे में है।राहुल गांधी वर्ष 2004 से सार्वजनिक जीवन में हैं। इस आलेख में उनके द्वारा सार्वजनिक रूप से किए जा रहे आचरण पर संक्षेप में चर्चा की गई है तथा यह समझने का प्रयास किया गया है कि राहुल गांधी द्वारा विगत बीस वर्ष में किया गया आचरण गुण्डागर्दी की श्रेणी में आता है या नहीं! यह भी समझने का प्रयास किया गया है कि क्या राहुल गांधी की सांसदी फिर से जाएगी!
19 दिसम्बर 2024 को भाजपा के सांसद निशिकांत दुबे ने संसद परिसर में सैंकड़ों सांसदों के बीच में राहुल गांधी को ‘गुण्डागर्दी करते हो, बूढ़े को गिरा दिया, शर्म नहीं आती’ कहकर धिक्कारा।
एक समय था जब संसद में पक्ष-विपक्ष के सांसदों में ऐसी गरिमामय नोंकझोंक होती थी कि उसे सुनने वाला भी आनंद से भर जाता था। एक बार भाजपा की सांसद विजयाराजे सिंधिया ने लोकसभा में अपनी सीट से खड़े होकर कहा कि दिल्ली में गुण्डागर्दी इतनी अधिक बढ़ गई है कि किसी सभ्य महिला का सड़क पर निकलना मुश्किल हो गया है। इस पर किसी कांग्रेसी सांसद ने हंसते हुए कहा था कि बहिनजी फिर आपको तो कोई मुश्किल नहीं होती होगी। कांग्रेसी सांसद की इस हाजिर जवाबी पर पूरी लोकसभा में जोर का ठहाका लगा था।
इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि संसद में गुण्डागर्दी पर चर्चा तब भी होती थी और आज भी होती है किंतु आज के कांग्रेसी सांसदों का अंदाज बदल गया है।
माना जाता है कि गुण्डा शब्द भारत में इटली से आया है। पांचवीं शताब्दी ईस्वी में इटली के शासक ऑलिब्रियस के समय में शासन की सारी शक्ति उसके प्रधानमंत्री रिसीमेर और उसके भतीजे गुण्डोबैड के हाथों में रही। गुण्डोबैड इतना बुरा व्यक्ति था कि इटैलियन और अंग्रेजी भाषाओं में ‘गुण्डा’ एवं ‘बैड’ शब्द ‘बुराई’ के अर्थ में प्रयुक्त होने लगे।
बात इधर-उधर न चली जाए, इसलिए वापस मूल विषय पर अर्थात् राहुल गांधी पर आते हैं। राहुल गांधी पर आरोप है कि उन्होंने 19 दिसम्बर 2024 को भाजपा के दो सांसदों को धक्का दिया जिससे दोनों को गंभीर चोटें लगीं और उन्हें आईसीयू में भर्ती करवाकर उनका एमआरआई करवाना पड़ा।
राहुल गांधी ने बीजेपी के सांसदों को धक्का दिया या नहीं, राहुल गांधी का यह कृत्य गुण्डागर्दी की परिभाषा में आता है या नहीं, यह तो भविष्य ही बताएगा जब पुलिस के अनुसंधान और न्यायालयों की बहसों के बाद अंतिम निर्णय निकलेगा।
राहुल गांधी का सबसे पहला आपत्तिजनक आचरण तब सामने आया था, जब उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा बनाए गए एक कानून को सार्वजनिक मंच पर फाड़कर फैंका था। ऐसी हरकत राहुल गांधी को क्या सिद्ध करती है?
राहुल गांधी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक को मोहनदास कर्मचंद गांधी की हत्या के लिए बिना किसी आधार पर सैंकड़ों बार हत्यारा कहा और अंत में उन्हें कोर्ट में जाकर अपने इस गैरजिम्मेदार आचरण के लिए माफी मांगनी पड़ी। राहुल गांधी का यह आचरण किस श्रेणी में आता है?
राहुल गांधी ने भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री के लिए एक बार सार्वजनिक रूप से कहा कि बेरोजगारी इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि देश का युवा नरेन्द्र मोदी को सड़कों पर जूतों से पीटेगा। ऐसा भड़काऊ बयान देकर क्या राहुल गांधी देश के युवाओं को हिंसा का मार्ग आपाने के लिए कह रहे थे? राहुल का यह आचरण क्या उन्हें किसी सभ्य इंसान की श्रेणी में रखता है?
राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए असम्मानजनक एवं हल्के शब्दों का प्रयोग सार्वजनिक रूप से कई बार किया है। राहुल गांधी ने नरेन्द्र मोदी के संदर्भ में सार्वजनिक रूप से यह तक कहा कि सारे मोदी चोर क्यों होते हैं? इस वक्तव्य पर राहुल गांधी की सांसदी तक चली गई थी। मामला अब भी सुप्रीम कोर्ट में लम्बित है।
2019 के लोकसभा चुनावों में राहुल गांधी ने सार्वजनिक सभाओं में चौकीदार चोर है के नारे लगवाकर देश के प्रधानमंत्री को बदनाम करने का कुकृत्य किया।
राहुल गांधी संसद में सम्पूर्ण हिन्दू जाति को हिंसक कह चुके हैं। क्या सम्पूर्ण हिन्दू जाति को हिंसक बताने वाली भाषा किसी भी जिम्मेदार आदमी की हो सकती है?
19 दिसम्बर को ही नागालैण्ड के एक आदिवासी समुदाय से आने वाली सांसद ने लोकसभा अध्यक्ष के समक्ष एक शिकायत प्रस्तुत की है कि राहुल गांधी ने मेरे एकदम निकट आकर मुझे डांटा। राहुल मेरे इतने पास आ गए कि मुझे अपमान का अनुभव हुआ। क्या यह हरकत किसी सभ्य मनुष्य की हो सकती है? राहुल गांधी तो एक प्रधानमंत्री के पुत्र हैं, एक प्रधानमंत्री के पोते हैं, एक प्रधानमंत्री के पड़पोते हैं। इतनी शालीन विरासत के बावजूद कोई आदमी सार्वजनिक आचरण के सामान्य सिद्धांत सीखने से कैसे वंचित रह सकता है।
इस प्रकार राहुल गांधी सार्वजनिक रूप से जिस शब्दावली का प्रयोग करते रहे हैं उसे सभ्य नहीं माना जाता किंतु सहन कर लिया जाता है किंतु राहुल गांधी ने 19 दिसम्बर 2024 को संसद परिसर में जो आचरण किया है, वह आचरण कानून की परिभाषा में राहुल गांधी को क्या सिद्ध करेगा, यह तो अब कोई न्यायालय ही तय करेगा किंतु जनता अपने नेताओं से इस तरह के आचरण की अपेक्षा नहीं करती, शायद उसे सहन भी नहीं करना चाहेगी। क्या राहुल की सांसदी फिर से जाएगी, क्या वे जेल जाएंगे, क्या होगा, यह सब भविष्य के गर्भ में है।
नरेन्द्र मोदी सरकार ने विगत दस सालों की अवधि में देश के भीतर और बाहर बहुत से ऐसे परिवर्तन किये हैं जिनसे देश के नागरिकों का बहुत भला हुआ है। घरेलू नीतियों की तरह नरेन्द्र मोदी की विदेश नीति भी अत्यंत सफल रही है।
इस आलेख में नरेन्द्र मोदी की विदेश नीति के कारण विगत दस वर्षों में अंतराष्ट्रीय स्तर पर प्राप्त सफलताओं की संक्षिप्त चर्चा की गई है।
नरेन्द्र मोदी की विदेश नीति संसार के सामने भव्य प्रदर्शन करने की रही है जिसके कारण विगत दस वर्षों में अंतराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि अत्यंत मजबूत हुई है।
नरेन्द्र मोदी सरकार ने विगत दस सालों में अमरीकी दबाव के सामने झुके बिना रूस से सम्बन्ध बनाए रखकर, चीन सैनिकों को फिर से अपनी पुरानी पोजीशन्स पर लौटाकर, आर्मीनिया-अजरबैजान युद्ध में अत्यंत स्पष्ट शब्दों में आर्मीनिया के पक्ष में बोलकर, कनाडा के विरुद्ध अत्यंत मजबूती से कूटनीतिक कार्यवाही कर कर और जापान, जर्मनी, इटली, इंग्लैण्ड इजराइल एवं ऑस्ट्रेलिया के साथ सम्बन्धों को नया आकार देकर भारत की छवि को दुनिया भर में चमकाया है।
नरेन्द्र मोदी सरकार ने भारत के पड़ौसी देशों की शत्रुतापूर्ण कार्यवाहियों का दमन करने के लिए जिस दृढ़ता, शांति एवं कूटनीति से काम लिया है, उससे शत्रु को मुंह की खानी पड़ी है तथा देश किसी भी युद्ध में फंसने से बचा है, जबकि अमरीका विगत दस वर्षों से लगातार कोशिश करता रहा है कि भारत किसी तरह चीन, अफगानिस्तान या बांग्लादेश से युद्ध में उलझ जाए।
नरेन्द्र मोदी सरकार ने अमरीकी दबाव में आए बिना, पाकिस्तान के हाथों में भीख का कटोरा पकड़ा दिया, बांग्लादेश की अपदस्थ प्रधानमंत्री शेख हसीना को सैनिक बगावत के बीच में से सुरक्षित निकाल लिया, पाकिस्तान में सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम देकर अपने विंग कमांडर अभिनंदन वर्द्धन की सुरक्षित वापसी करवा ली, मालदीव की सरकार को बिना किसी युद्ध के घुटनों पर ला दिया, श्रीलंका की आर्थिक मदद करके श्रीलंका सरकार पर से चीन के प्रभाव को कम करने में सफलता प्राप्त की।
नरेन्द्र मोदी सरकार ने ईरान और तुर्की की लाख बेवकूफियों के बावजूद उनसे अपने रिश्तों को सामान्य बनाए रखा है।
नरेन्द्र मोदी सरकार ने कुवैत की सरकार पर दबाव डालकर कुवैत में कैद 22 भारतीयों को रिहा करवा लिया, 53 भारतीयों की उम्रकैद की सजा घटाकर 20 वर्ष करवाई, 18 भारतीयों की सजा में तीन चौथाई सजा की कटौती करवाई तथा 25 कैदियों की सजा घटाकर आधी करवाई। जिन 15 कैदियों को फांसी दी जानी थी, उन्हें भी माफी दिलवाई। ये सब लोग छोटे-बड़े अपराधों में कठोर कुवैती कानूनों के कारण कुवैत की जेलों में बंद थे।
कुवैत में बंदियों की फांसी रुकवाने का कार्य इतना कठिन था जिसे दुनिया की बड़ी-बड़ी ताकतें आसानी से नहीं करवा सकतीं किंतु नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा इसे सफलता पूर्वक करवा लिया गया।
जब रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध छिड़ा तो नरेन्द्र मोदी सरकार ने दोनों पक्षों के बीच अल्पकालिक युद्ध विराम करवाकर हजारों भारतीय छात्रों को यूक्रेन से सुरक्षित भारत वापसी करवाने में अद्भुत सफलता प्राप्त की। इस दौरान नरेन्द्र मोदी सरकार ने न केवल भारत के छात्रों को यूक्रेन से बाहर निकाला अपितु पाकिस्तान और बांग्लादेश के लोगों को भी यूक्रेन से बाहर निकाल लिया।
इतना ही नहीं, नरेन्द्र मोदी ने इस युद्ध के बीच स्वयं रूस एवं यूक्रेन जाकर युद्ध रुकवाने के प्रयास किए किंतु जो बाइडन की नीतियों के चलते यह युद्ध आज भी चल रहा है।
अमरीका के लाख प्रयासों के बावजूद नरेन्द्र मोदी ने भारत को यू एन ओ में किसी भी अंतर्राष्ट्रीय दबाव में नहीं आने दिया तथा यूएनओ में रूस के विरुद्ध किसी ऐसे प्रस्ताव के पक्ष में वोट नहीं दिया जो रूस पर एक तरफा दबाव बनाते थे किंतु भारत ने यू एन ओ में रूस के विरुद्ध ऐसे मामलों में वोट भी किया जिनसे सम्पूर्ण मानवता का भला होता हो। नरेन्द्र मोदी ने यू एन ओ में जाकर यू एन ओ की प्रासंगिकता पर प्रश्न खड़ा किया। ऐसा करने वाले वे पहले भारतीय नेता हैं।
भारत ने इजराइल से अपने अच्छे सम्बन्धों के बावजूद इजराइल से बार-बार शांति की अपील भी की तथा फिलीस्तीन के निर्दोष नागरिकों को दवा एवं रसद भिजवाई।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की ऐसी स्पष्ट, उज्ज्वल और चमकीली छवि या तो इंदिरा गांधी के समय में रही, या नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में रही। जिस प्रकार नेहरू और इंदिरा के कार्यों का मूल्यांकन अब हो रहा है, उसी प्रकार नरेन्द्र मोदी की विदेश नीति का सही मूल्यांकन तो भविष्य ही करेगा किंतु वर्तमान समय में न केवल भारत की अंतराष्ट्रीय स्तर पर छवि अपितु नरेन्द्र मोदी सरकार की घरेलू छवि भी अत्यंत उज्जवल और दृढ़ दिखाई देती है। भले ही विपक्षी पार्टियां सरकार की छवि पर रोज कीचड़ फैंकती है, किंतु नरेन्द्र मोदी सरकार का चेहरा पूरी तरह उजला है।
इस आलेख में हम राम कालीन जातियाँ विषय पर प्रकाश डाल रहे हैं। भगवान राम के समय भारत में कितनी जातियाँ निवास करती थीं, इसके सम्बन्ध में किसी ग्रंथ में प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती किंतु विभिन्न प्राचीन ग्रंथों के आधार पर भगवान राम के काल की जातियों का अनुमान लगाया जा सकता है।
आज भारत में निवास करने वाले हिन्दुओं में कई हजार जातियाँ पाई जाती हैं किंतु हिन्दू जाति अत्यंत प्राचीन काल में जातियों में विभक्त नहीं थी। भारत में विभिन्न भागों में निवास करने वाले लोग अपने समुदाय की अलग पहचान रखते थे, उन्हें ही उस काल की जातियां कहा जा सकता है।
इस आलेख में हम राम कालीन जातियाँ विषय पर प्रकाश डाल रहे हैं। भगवान राम के समय भारत में कितनी जातियाँ निवास करती थीं, इसके सम्बन्ध में किसी ग्रंथ में प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती किंतु विभिन्न प्राचीन ग्रंथों के आधार पर भगवान राम के काल की जातियों का अनुमान लगाया जा सकता है।
अप इस कंटेंट को नीचे दिए गए लिंक की सहायता से वीडियो के रूप में देख एवं सुन भी सकते हैं-
उस काल में कम से कम पंद्रह बड़ी जातियाँ भारत के विभिन्न क्षेत्रों में निवास करती थीं।
हिमालय पर्वत पर निवास करने वाली देव जाति सबसे विकसित एवम् शक्तिशाली थी।
देवों के बाद आर्य जाति सबसे विकसित एवम् शक्तिशाली थी। आर्यों को देव जाति की ही संतान माना जाता है।
आर्यों ने मनुष्य के कार्य के आधार पर आर्य जाति को वर्णों में समायोजित किया था।
रामजी के काल में यक्ष, गंधर्व एवम् किन्नर जातियों के भी उल्लेख मिलते हैं जो पहाड़ियों में छिपकर रहती थीं।
ये जातियां भी देवों एवम् मानवों की मित्र थीं। ये देवों की उपजातियां थीं
देव, आर्य, यक्ष, गंधर्व एवम् किन्नर जातियों में परस्पर मित्रता थी।
नाग जाति पूरे देश में फैली हुई थी। उस काल में यह भी एक विकसित जाति थी।
वनों में निवास करने वाली जातियों में वानर, ऋक्ष, गरुड़ एवम् गीध जातियाँ प्रमुख थीं।
भारत के दक्षिण-पूर्व में स्थित समुद्री द्वीपों में निवास करने वाली प्रमुख जाति का नाम रक्ष अथवा राक्षस था। इन्हें असुर, दैत्य एवम् दानव भी कहते थे।
नागों एवम् राक्षसों में मित्रता थी। भगवान राम ने मानवों एवम् वानरों में मित्रता स्थापित की।
इन जातियों के साथ-साथ कोल, किरात, भिल्ल, शबर एवम् निषाद आदि जातियों के उल्लेख भी मिलते हैं। निषाद जाति को केवट भी कहते थे। भगवान राम ने आर्यों एवं निषादों में मित्रता स्थापित करवाई थी।
उस काल में देव एवम् आर्यों को छोड़कर शेष जातीय समुदायों के मुख पूरी तरह विकसित नहीं हुए थे। इस कारण जिस मानव समुदाय की मुखाकृति प्रकृृति के जिस जीव से साम्य रखती थी, उसी प्राणी के नाम पर उस मानव समुदाय का नामकरण हो गया था। यथा गीध, गरुड़, वानर, ऋक्ष आदि।
आज भी भारत में हिमालय से लेकर समुद्र तक तरह-तरह के मुंह वाले मानव देखने को मिलते हैं। यदि निवास स्थल के अनुसार इन जातियों का अवलोकन करें तो हम पाते हैं कि भारत के धुर उत्तर में स्थित हिमालय पर्वत पर सुर, हिमालय से विंध्याचल तक नर, विंध्याचल से समुद्र तक की भूमि पर वानर और समुद्र में स्थित द्वीपों में असुर जातियां रहती थीं।
इन्हीं सब जातियों को राम कालीन जातियाँ कहा जा सकता है।
जब-जब सनातन धर्म पर संकट आया है, तब-तब सनातन धर्म की रक्षा के लिए भारत के साधु-संतों एवं संन्यासियों ने अपने साधना स्थलों से बाहर निकल कर भारत की जनता का उद्धार किया है। आज फिर से सनातन धर्म संकट में है तथा साधु-संतों एवं संन्यासियों को अपने मठों, आश्रमों, तपोस्थलियों से बाहर निकल कर हिन्दू जनता के बीच आकर हिन्दू जनता का उद्धार किए जाने की आवश्यता है।
सनातन धर्म पर प्रहार करके उसे नष्ट करने का सिलसिला उस समय से ही आरम्भ हो गया था जिस समय हयग्रवीव नामक असुर ब्रह्माजी के हाथों से वेद छीनकर पाताल में छिप गया था। तब भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी को नींद में सोया हुआ जानकर स्वयं वेद की रक्षा करने का निश्चय किया तथा हयग्रीव नामक असुर को मारने के लिए विष्णु ने स्वयं भी हयग्रीव के रूप में अवतार लिया तथा हयग्रीव नामक असुर को मारकर वेद का उद्धार किया था।
तब से लेकर आज तक सनातन वैदिक धर्म पर असुरों, दैत्यों, विधर्मियों आदि के प्रहार होते ही रहे हैं। इसी कारण समय-समय पर सनातन वैदिक धर्म की रक्षा के लिए प्रयास भी उच्च स्तर पर होते रहे हैं।
भगवान विष्णु ने मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम और कृष्ण के रूप में अवतार लेकर हिन्दू धर्म को बचाया।
जिस समय रावण ने वैदिक संस्कृति एवं धर्म को मिटाने के लिए देवताओं एवं लोकपालों को बंदी बना लिया और जंगलों में तप कर रहे ऋषि-मुनियों को नष्ट करना आरम्भ किया, तब मुनि विश्वामित्र ने श्रीराम को अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देकर तथा महर्षि अगस्त्य ने श्रीराम को दिव्य अस्त्र-शस्त्र देकर लेकर असुरों का वध करवाया।
महाभारत काल में जब कंस, जरासंध, शिशुपाल, दुर्योधन आदि दुष्ट राजाओं के कारण हिन्दू धर्म एवं संस्कृति पर महाविनाश का खतरा उत्पन्न हो गया तब श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर, द्रुपद, विराट, त्रितर्ग एवं पाण्ड्य आदि समस्त अच्छी शक्तियों को एक करके दुष्ट राजाओं का विनाश करवाया। इसीलिए श्रीकृष्ण की वंदना कृष्णम् वंदे जगद्गुरुम् कहकर की जाती है।
जिस समय बौद्धों ने मौर्य राजाओं का संरक्षण पाकर सनातन वैदिक धर्म को पूरी तरह समाप्त करने की तैयारी की, उस समय पूरे भारत में बौद्ध मठ बन गए। लोग अपना नियत कर्म त्यागकर मठों में जाकर रहने लगे। देश में तंत्र-मंत्र और अभिचार का बोलबाला हो गया। बौद्धों के इस पाखण्ड में वेदों की आवाज दब सी गई।
तब केरल के एक छोटे से गांव का संन्यासी शंकराचार्य केवल आठ वर्ष की आयु में अपने गुरु से दीक्षा लेकर भारत की आत्मा को जगाने के लिए निकला। वह जंगलों, पर्वतों एवं नदियों को पार करता हुआ सम्पूर्ण भारत में घूमा।
आचार्य शंकर ने गांव-गांव जाकर लोगों को वैदिक धर्म का ज्ञान दिया। बौद्धों को शास्त्रार्थों में पराजित किया। चार दिशाओं में चार मठों की स्थापना की जिन्होंने धर्म रूपी समुद्र में यात्रा कर रही भारत की जनता को सदियों तक ज्ञान का प्रकाश स्तम्भ बनकर धर्म के सच्चे स्वरूप का ज्ञान करवाया।
बौद्धों के पाखण्ड का नाश करने के लिए गुरु मत्स्येंद्रनाथ, गोरखनाथ, भर्तरीनाथ एवं गोपीचंद आदि नौ नाथों ने अपने जीवन हिन्दू धर्म के उद्धार के लिए झौंक दिए। ये नाथ भारत के गांव-गांव फिरे और उन्होंने लोगों को बौद्ध धर्म के पाखण्ड से बाहर निकलकर हिन्दू धर्म की तरफ लौटाया।
नाथों में ही सरहपा आदि चौरासी सिद्ध हुए। उन्होंने भी सैंकड़ों साल तक गुरु मत्स्येंद्रनाथ एवं गोरखनाथ के काम को आगे बढ़ाया और भारत की जनता सनातन वैदिक हिन्दू धर्म में लौट आई। सरहपा को भी बौद्धों ने बौद्ध बना लिया था किंतु वे अपनी आत्मा के प्रकाश से पुनः हिन्दू धर्म में लौटे तथा उन्होंने भारत, नेपाल एवं तिब्बत में निवास करने वाली हिन्दू जतना का उद्धार किया।
जिस समय सातवीं शताब्दी ईस्वी में अरब की धरती पर इस्लाम ने जन्म लिया और आठवीं शताब्दी ईस्वी से खलीफाओं की सेनाएं भारत के लोगों को बलपूर्वक मुसलमान बनाने के लिए आने लगीं, तब दक्षिण भारत में आलवार संतों ने भारत के लोगों को विष्णु-भक्ति का मार्ग सुझाया। कुल 12 आलवार संतों ने तीन सौ साल की अवधि में पूरे दक्षिण को भक्तिमय कर दिया। घर-घर आरती और कीर्तन होने लगे।
आलवार संतों ने दक्षिण भारत में विष्णु धर्म की जड़ को इतना मजबूत कर दिया कि उसे किसी लालच, भय एवं मीठी बातों से हिला पाना संभव नहीं रहा।
इन्हीं आलवारों की परम्परा में रामानुजाचार्य हुए। रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य और निम्बार्काचार्य ने भी सैंकड़ों साल तक भारत की जनता का अध्यात्मिक नेतृत्व किया तथा उसमें विष्णु भक्ति के प्रति नवीन चेतना का संचार किया।
रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में रामानंदाचार्य हुए। उनके काल में महमूद गजनवी एवं उनके कुछ समय बाद मुहम्मद गौरी आदि के नेतृत्व में भारत की जनता का संहार हुआ। उत्तर भारत की जनता अपना धर्म बचाने के लिए कुओं में छलांगें लगाने लगी। बहुत से भयभीत हिन्दू तलवार के जोर पर मुसलमान बनाए गए।
इस काल में रामानुजाचार्य के शिष्य रामानंद ने मोर्चा संभाला। उन्होंने, उनके श्ष्यिों ने तथा उनके शिष्यों के शिष्यों ने उत्तर भारत में भक्ति की ऐसी रसधारा बहाई कि लोग अपने धर्म की रक्षा करने के लिए आततायी सेनाओं का मुकाबला करने के लिए तैयार होने लगे।
रामानंद की प्रेरणा से उत्तर भारत में वैष्णव भक्त-कवियों की झड़ी लग गई। कबीर, तुलसी, मीरा, रैदास, दादू आदि संतों ने भारत की आत्मा को धर्ममय बना दिया। तुलसीदास ने धनुर्धारी राम का ऐसा स्वरूप भारत की जनता के सामने रखा, जैसा पहले कोई भी नहीं रख सका था।
तुलसी के राम हाथ में धनुष लेकर ताड़का, सुबाहू, मारीच और रावण को मारते थे तो शबरी के झूठे बेर खाकर, गीध की अंत्येष्टि करके, बिना किसी अपराध के ही समाज की दृष्टि से नीचे गिरी हुई अहिल्या का उद्धार करके सम्पूर्ण भारतीय समाज को सम्बल देते थे और जंगलों में स्थित संत-महात्माओं के आश्रमों में जाकर उन्हें निर्भय होकर तप करने का संदेश देते थे।
जिस समय देश पर सिकंदर लोदी भारत के लोगों को तेजी से मुसलमान बनाने लगा, उस काल में वल्लभाचार्य और उनके शिष्यों ने मोर्चा संभाला। उन्होंने वृंदावन क्षेत्र से उन मूर्तियों का उद्धार किया जो आतताइयों के भय से धरती में दबी पड़ी थीं। वल्लभाचार्य के शिष्य सूरदास ने पूरी भारत भूमि को कृष्णमय बना दिया। आज भी करोड़ों भारतीय सूरदास के बाल कृष्ण को भोग लगाए बिना मुंह में अन्न नहीं रखते।
सिकंदर लोदी के शासन काल में ही बंगाल से चैतन्य महाप्रभु अपने शिष्यों की मण्डली लेकर बंगाल से निकले। वे भारत के सैंकड़ों गांवों से हरिकीर्तन करते हुए और भक्ति में मग्न होकर नाचते हुए निकले तथा वृंदावन तक पहुंचे। उनके गौड़ीय सम्प्रदाय ने बड़ी संख्या में बंगाल, बिहार, उड़ीसा एवं उत्तर प्रदेश के लोगों को मुसलमान बनने से रोका।
जब इस्लामी सेनाओं ने महाराष्ट्र में प्रवेश किया, तब संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम, रामदास आदि सैंकड़ों संतकवि घरों का त्याग करके जनता के बीच घूमने लगे।
औरंगजेब के काल में हजारों सतनामियों ने मीनाक्षी माता से प्रेरणा पाकर पंजाब से लेकर आगरा एवं दिल्ली तक के क्षेत्र में औरंगजेब की सेना द्वारा किए जा रहे अत्याचारों का विरोध किया तथा औरंगजेब की सेना को परास्त किया।
जो इतिहास हमें अंग्रेजी शासन के काल में तथा उसके बाद कांग्रेस के काल में पढ़ाया गया है, उसमें भारत के साधु-संतों एवं संन्यासियों के योगदान को उपेक्षित किया गया है ताकि भारत की जनता में जो धर्म रूपी एकता का सूत्र है उसे नष्ट करके उस पर शासन किया जा सके।
धर्म रूपी सूत्र की एकता के बल पर भारत की जनता ने मुहम्मद बिन कासिम से लेकर, महमूद गजनवी, मुहम्मद गौरी, तैमूर लंग, अहमदशाह अब्दाली, बख्तियार खिलजी आदि सैंकड़ों आतताइयों का सामना किया। हिन्दू वीर रणखेत में अमर हुए किंतु उन्होंने अपना धर्म नहीं छोड़ा।
इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि यदि भारत के हिन्दुओं ने हिन्दू धर्म छोड़ दिया होता तो आज भारत में हिन्दुओं का वही हाल होता जो ईरान में पारसियों का हुआ और अफगानिस्तान में बौद्धों का हुआ। उन देशों में अब न कोई पारसी बचा है और न कोई बौद्ध।
अंग्रेजों के समय में संन्यासियों ने भारत की जनता में विदेशी शासन के विरुद्ध अलख जगाने का कार्य किया जो कि भारत की जनता को ईसाई बनाने का प्रयास कर रहा था। हिन्दू संन्यासियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति करने का प्रयास किया जिसे कुचलने के लिए अंग्रेज सरकार ने हजारों संन्यासियों की हत्याएं करवाईं। इसी संन्यासी आंदोलन को कलकत्ता के हिन्दू डिप्टी कलक्टर बंकिमचंद्र चटर्जी ने आनंद मठ नामक उपन्यास की रचना की जिसका एक गीत वंदे मातरम् भारत भूमि के लिए वरदान सिद्ध हुआ।
वंदे मातरम् भारत की आत्मा में समा गया। वंदे मातरम् को उद्घोष करते हुए सैंकड़ों हजारों हिन्दू अंग्रेजी गोलियों के सामने छाती ठोककर खड़े हो जाते थे। आज भी हम वंदे मातरम् को सुनकर जैसी अनूभति करते हैं, वैसी किसी अन्य गीत को सुनकर नहीं करते।
दुनिया में 195 देश हैं, उनमें से 57 देशों में आज इस्लाम का शासन है। शायद ही कोई देश बचा हो जहाँ मुसलमान नहीं रहते या उन देशों की जनता को मुसलमान बनाने के प्रयास नहीं चलते।
इस्लाम के नाम पर 1947 में भारत के तीन टुकड़े करवाए गए। आज उन्हीं देशों से इस्लाम को मानने वाले लोग भारत में चोरी-छिपे प्रवेश कर रहे हैं, हिन्दू लड़कियों को लव जेहाद में फंसाकर हिन्दू धर्म से दूर कर रहे हैं। उनकी कोख से ऐसी संतान उत्पन्न होती है जो हिन्दू धर्म के लिए और भी बड़ा खतरा है।
इसीलिए आज एक बार फिर मठों से बाहर निकलने का समय आ गया है! साधु-संत और संन्यासी अपने मठों, आश्रमों, तपोस्थलियों से बाहर निकलें। गांव-गांव जाएं, लोगों को हिन्दू धर्म की आत्मा के दर्शन करवाएं। उन्हें शांति और अहिंसा का संदेश देते हुए अपने धर्म में बने रहने के लिए प्रेरित करें। सनातन धर्म की रक्षा के लिए उन्हें अपने पुरखों का गौरव स्मरण करवाएं।
भारत की जनता को अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा भारत में इस्लाम के प्रसार के लिए चलाए जा रहे षड़यंत्रों का ही सामना नहीं करना है, उन्हें उन ईसाई मिशनरियों का भी सामना करना है जो आदिवासियों, निर्धनों एवं भोलेभाले लोगों को चमत्कारों में फंसाकर हिन्दू धर्म से दूर कर रहे हैं। सनातन धर्म की रक्षा के लिए इन पाखण्डों एवं षड़यंत्रों का भाण्डाफोड़ करना आवश्यक है।
खतरा बाहर से ही नहीं अंदर से भी है। यदि भारत के साधु-संत और संन्यासी अपने मठों, आश्रमों, तपोस्थलियों से बाहर निकल कर भारत की जनता तक नहीं पहुंचे तो भारत की भोलीभाली जनता रामरहीम इंसां, नित्यानंद और आसाराम बापू जैसे ठगों, हत्यारों एवं दुराचारियों के चंगुल में फंसकर अपना इहलोक एवं परलोक दोनों ही नष्ट करती रहेगी।
भारत में अरबपति सेठों की कमी नहीं है, वे भी भारत के साधु-संत एवं संन्यासियों की सहायता करें जिससे साधु-संत गांव-गांव में मण्डलियों के रूप में पहुंचकर वहाँ के सरपंचों एवं प्रभावशाली लोगों से सम्पर्क करके गांवों में जनसभाएं करके लोगों को हिन्दू धर्म के व्यावहारिक स्वरूप का उपदेश दें।
साधु-संत एवं संन्यासियों को कोई राजनीतिक बात नहीं करनी है, कोई आंदोलन नहीं खड़ा करना है, विशुद्ध रूप से वही कार्य करना है जिसके लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित किया है। वे अपनी तपस्या भी करें और शंकराचार्य तथा चैतन्य महाप्रभु बनकर गांवों में जाएं। आज पढ़ी लिखी नई पीढ़ी हिन्दू धर्म की बातों को हेय समझती है तो उसका कारण केवल यही है कि कोई उन्हें पथ दिखाने वाला नहीं है। सनातन धर्म की रक्षा के लिए साधु-संत यह कार्य कर सकते हैं।
यदि साधु-संन्यासियों की मण्डलियां गांवों में कोई उपदेश न भी करें तथा केवल हरिकीर्तन करती हुई एक गांव से दूसरे गांव तक जाएं तो भी भारत में ऐसा अद्भुत वातावरण तैयार होगा कि पूरा संसार दांतों तले अंगुली दबाएगा।
हम साधु-संतों एवं संन्यासियों को कोई निर्देश, सुझाव या मार्गदर्शन नहीं दे सकते, हम केवल उनसे करबद्ध होकर प्रार्थना कर सकते हैं कि वे मठों से निकलकर हमारे बीच आएं और हमें हिन्दू धर्म में बने रहने के लिए प्रेरित करें।
आरक्षण का लाभ केवल गरीब परिवारों को देकर गरीबी दूर की जा सकती है!
1947 के विभाजन के बाद भारत में 34 करोड़ 50 लाख लोग रह गए थे। उस समय देश में 80 प्रतिशत लोग अर्थात् 27 करोड़ 60 लाख लोग गरीब थे।
संविधान निर्माताओं ने गरीबी का कारण सामाजिक पिछड़ेपन को माना और जाति आधारित आरक्षण की व्यवस्था दी ताकि पिछड़े लोगों की गरीबी को दूर किया जा सके।
वर्ष 1950 से देश में अनूसूचित जातियों एवं जनजातियों को शिक्षण संस्थाओं, नौकरियों एवं राजनीतिक पदों पर आरक्षण दिया गया।
वर्ष 1990 में भारत में मण्डल कमीशन की रिपोर्ट लागू हुई जिससे अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था लागू हुई।
यह बात सही है कि सामाजिक पिछड़ेपन से देश में न केवल गरीबी आती है अपितु धन का असमान वितरण भी होता है।
लगभग 75 वर्षों से चली आ रही आरक्षण व्यवस्था के कारण देश के पिछड़े लोगों को भी शिक्षा, नौकरी एवं राजनीतिक पद पाने का अवसर मिला।
आज जबकि देश अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, बताया जा रहा है कि देश में केवल 16.4 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे हैं। अर्थात् विगत पिचहत्तर सालों में देश में गरीबी का प्रतिशत 80 से घटकर केवल 16.4 प्रतिशत रह गया।
यह कमाल की उपलब्धि है।
प्रश्न यह है कि यह कमाल की उपलब्धि क्या आरक्षण का लाभ के अंतर्गत दी गई सरकारी नौकरियों के बल पर प्राप्त की गई?
निश्चित रूप से नहीं।
इस समय भारत में केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारों में कुल 1 करोड़ 40 लाख लोग नौकरियां कर रहे हैं। इस हिसाब से भारत में प्रत्येक 100 में से 1 आदमी ही सरकारी नौकरी में है।
इनमें से आरक्षित वर्ग के कर्मचारी लगभग 70 लाख के आसपास हैं या इससे भी कम हैं।
इन 70 लाख लोगों के परिवारों के सदस्यों की संख्या साढ़े तीन करोड़ के आसपास है।
स्पष्ट है कि आरक्षित वर्ग के 70 लाख परिवारों को सरकारी नौकरी देने से केवल साढ़े तीन करोड़ लोगों की गरीबी दूर हुई है। न कि देश की।
कहा जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी सरकार के कार्यकाल में देश में 25 करोड़ लोगों को बहुआयामी गरीबी से बाहर निकाला गया है। निश्चित रूप से यह उपलब्धि केवल सरकारी नौकरियों के बल पर हासिल नहीं की गई है।
देश की गरीबी कम करने में सरकार द्वारा सामाजिक क्षेत्र में दी जा रही पेंशनों, निशुल्क चिकित्सा, निशुल्क शिक्षा, निशुल्क आवास तथा अन्य लाभकारी योजनाओं का बहुत बड़ा योगदान है।
भारत में निजी क्षेत्र में अर्थात् गैर-सरकारी कम्पनियों, कारखानों, दुकानों आदि में लगभग 14 करोड़ लोग काम करते हैं।
अर्थात् देश की लगभग 10 प्रतिशत जनसंख्या प्राइवेट सेक्टर में काम करती है। इस प्रकार देश से गरीबी कम करने में निजी क्षेत्र का योगदान बहुत बड़ा है।
वर्तमान समय में देश में 140 करोड़ लोग रहते हैं जिनमें से 16.4 प्रतिशत अर्थात् लगभग 23 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे हैं।
ऐसा क्या किया जाए कि देश के 23 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से ऊपर खींच लिए जाएं?
23 करोड़ लोगों का अर्थ है लगभग 5 करोड़ परिवार। यदि प्रत्येक परिवार से एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी दी जाए तो 5 करोड़ सरकारी नौकरियों का सृजन करना होगा, जो कि संभव नहीं है। सरकारें प्रतिवर्ष केवल 1 दो लाख युवाओं को नौकरियां दे सकती हैं।
फिर भी यदि आरक्षित वर्ग की समस्त नौकरियां उन्हीं जातियों के गरीब परिवारों के लिए आरक्षित कर दी जाएं तो गरीब परिवारों को से गरीबी से बाहर निकलने का मौका अवश्य मिलेगा।
आरक्षित जातियों के वे लोग जो गरीबी की रेखा से ऊपर जीवन यापन कर रहे हैं, वे सामान्य वर्ग की नौकरियों के लिए प्रयास कर सकते हैं।
यदि भारत की राजनीतिक पार्टियां अपने निजी स्वार्थों को छोड़कर, सत्ता में बने रहने अथवा सत्ता छीनने की गंदी राजनीति छोड़कर गरीब जनता की उन्नति के लिए ठोस काम करना चाहती हैं तो उन्हें ऐसा कानून बनाना चाहिए जिससे वर्तमान में उपलब्ध 49.5 प्रतिशत आरक्षण देश के 16.4 प्रतिशत गरीब लोगों को मिल जाए।
आरक्षित जातियों के जो परिवार गरीबी की रेखा से ऊपर उठ गए हैं, उन्हें आरक्षण का लाभ छोड़ देना चाहिए जिससे वे अपनी ही जाति के गरीब परिवारों की उन्नति में योगदान कर सकें।
यह तय है कि इस व्यवस्था से समस्त गरीब परिवारों के युवा सदस्यों को सरकारी नौकरियां नहीं मिलेंगी किंतु यह भी तय है कि इस उपाय से देश में जातिवाद का ताण्डव कम होगा, राजनीतिक पार्टियों द्वारा देश के वोटरों को जाति के आधार पर लामबंद करने पर रोक लगेगी तथा निर्धन परिवार अधिक तेजी से अर्थव्यवस्था की मूल धारा में आ सकेंगे।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अकबर को भारत के दो महान शासकों में से एक माना है किंतु जब हम अकबर के काल में लिखी गई फारसी पुस्तकों पर दृष्टि डालते हैं तो जवाहर लाल नेहरू का दावा सही जान नहीं पड़ता। हमें इतिहास से बार-बार यह प्रश्न पूछना पड़ता है कि क्या अकबर महान् था!
जवाहरलाल नेहरू ने क्यों केवल दो शासकों को भारत का महान् पुत्र माना! भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू एवं आजादी के बाद के लेखक डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव के अनुसार अकबर ने दूसरे मजहबों के प्रति उदारता का प्रदर्शन करके उनका विश्वास अर्जित किया तथा अपने ही मजहब एवं अपने ही कुल के उन शहजादों एवं अफगान विरोधियों को दबा दिया जो अकबर के राज्य पर कब्जा करना चाहते थे।
नेहरू ने अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘अकबर का नाम भारत के इतिहास में जगमगा रहा है और कभी-कभी कुछ बातों में वह हमें अशोक की याद दिलाता है।’
नेहरू ने अपनी पुत्री इंदिरा प्रियदर्शिनी के नाम लिखे अपने पत्रों में लिखा है- ‘यह एक अजीब बात है कि ईसा से तीन सौ वर्ष पहले का एक बौद्ध सम्राट और ईसा के बाद सोलहवीं सदी में एक मुसलमान सम्राट दोनों एक ही ढंग से और करीब-करीब एक ही आवाज में बोल रहे हैं। ताज्जुब नहीं कि यह खुद भारत की ही आवाज हो जो उसके दो महान् पुत्रों के जरिए बोल रही हो! एक तरह से अकबर भारतीय राष्ट्रीयता का जन्मदाता माना जा सकता है।’
हालांकि पण्डित नेहरू ने अकबर को सम्राट अशोक के समकक्ष ठहराते हुए उसे भारत का महान् पुत्र लिखा है किंतु वास्तविकता यह है कि अकबर की नसों में बहने वाले रक्त की एक भी बूंद भारतीय नहीं थी। उसकी माता हमीदा बानू खुरासान की रहने वाली थी और पिता हुमायूँ काबुल का रहने वाला था। उसके पूर्वजों की जड़ें मध्य-एशिया के ट्रांसऑक्सियाना क्षेत्र अर्थात् समरकंद एवं उज्बेकिस्तान में थीं। अकबर की माता और पिता के पूर्वजों की जितनी भी पीढ़ियों के नाम इतिहास में उपलब्ध हैं, उनमें से कोई भी भारतीय नहीं था।
यदि नेहरू की पुस्तक के अनुसार अकबर को भारत का महान् पुत्र मान लिया जाए तो फिर उन अंग्रेज अधिकारियों को विदेशी कैसे माना जा सकता है, जिन्हें 15 अगस्त 1947 को जहाजों में बैठाकर इंग्लैण्ड के लिए रवाना कर दिया गया। जहाँ तक महानता का प्रश्न है, वह अकबर की अपेक्षा उन अंग्रेज अधिकारियों में अधिक पाई जाती है, जिन्होंने भारत में रेल चलाई, पुल एवं सड़कें बनवाईं, विद्यालय एवं चिकित्सालय बनवाए, नहरों एवं बांधों का निर्माण करवाया, नागरिक प्रशासन की आधुनिक पद्धतियां लागू कीं, अकबर ने इनमें से कुछ भी नहीं किया।
जहाँ तक अकबर की महानता और धर्म-सहिष्णुता का प्रश्न है, उसका उत्तर कुरुक्षेत्र में अकबर द्वारा साधुओं का एक-दूसरे के हाथों रक्तपात करवाने, चित्तौड़ के दुर्ग में तीस हजार निर्दोष लोगों का कत्लेआम करवाने, गुजरात में साबरमती के तट पर दो हजार कटे हुए सिरों की मीनार बनवाने और शराब के नशे में राजकुमार मानसिंह का गला दबाने की घटनाओं में स्वतः मिल जाता है।
हालांकि पानीपत के मैदान में बेहोश पड़े महाराज हेमचंद्र का गला काटने एवं नगरकोट मंदिर में हुसैन कुली खाँ की सेना द्वारा 200 काली गायों का संहार करवाने की घटनओं में अकबर का प्रत्यक्ष हाथ नहीं था, फिर भी ये घटनाएं अकबर के सेनापतियों की मानसिकता का पूरा परिचय देती हैं।
पं. नेहरू ने लिखा है- ‘एक तरह से अकबर भारतीय राष्ट्रीयता का जन्मदाता माना जा सकता है। ऐसे समय में जबकि देश में राष्ट्रीयता का कुछ भी निशान नहीं था और मजहब लोगों को एक दूसरे से अलग कर रहा था, अकबर ने समझ-बूझ कर समान भारतीय राष्ट्रीयता के आदर्श को फूट डालने वाले मजहबी दावों के ऊपर रख दिया।’
अकबर महान् था, यह सिद्ध करने के लिए नेहरू ने अकबर की तरफ से सफाई देते हुए लिखा है- ‘अकबर अपनी कोशिश में पूरी तरह तो सफल नहीं हुआ किंतु यह अचंभे की बात है कि वह कितना आगे बढ़ गया और उसकी कोशिशों को कितनी ज्यादा सफलता मिली! फिर भी अकबर को जो कुछ भी सफलता मिली वह अकेले उसी की नहीं थी। जब तक कि ठीक समय ना आ गया हो और आसपास के हालात मदद ना करें तब तक कोई भी मनुष्य महान कामों में सफल नहीं हो सकता। महापुरुष खुद अपना चौगिर्द तैयार करके जमाने को जल्दी बदल सकता है किंतु महापुरुष खुद भी तो जमाने का और जमाने के चौगिर्द का ही फल होता है। इस तरह अकबर भी भारत के उस जमाने का फल है।’
नेहरू ने लिखा है- ‘अकबर हिंदुओं की सद्भावना हासिल करने में सफल हुआ। अकबर की नौकरी करने और उसको सम्मान देने के लिए चारों ओर से लगभग सभी राजपूत इकट्ठे होने लगे सिावाय मेवाड़ के राणा प्रताप के जिसने कभी सिर नहीं झुकाया। जिंदगी भर यह अभिमानी राजपूत दिल्ली के महान सम्राट से लड़ता रहा और उसने उसके सामने सिर झुकाना मंजूर नहीं किया।’
नेहरू ने लिखा है- ‘अकबर हिन्दू सरदारों और हिन्दू जनता का स्नेह हासिल करने में जुट गया। राजा मानसिंह को तो अकबर ने कुछ दिनों के लिए काबुल का सूबेदार बनाकर भेजा। इस तरह अकबर ने राजपूतों को अपनी तरफ कर लिया और वह जनता का प्यारा बन गया।…. शरीर में अकबर असाधारण बलवान और चुस्त था और वह जंगली और खूंख्वार जानवरों के शिकार से ज्यादा और किसी चीज से प्रेम नहीं करता था। एक सिपाही की हैसियत से तो वह इतना बहादुर था कि उसे अपनी जान तक की बिल्कुल परवाह नहीं थी।’
नेहरू ने लिखा है- ‘मैंने अकबर की तुलना अशोक से की है किंतु तुम इस तुलना से भ्रम में न पड़ जाना। बहुत सी बातों में अकबर अशोक से बिल्कुल अलग था। अकबर बड़ी ऊंची उमंगों वाला बादशाह था और अपने जीवन के अंत समय तक वह अपना साम्राज्य बढ़ाने की धुन में चढ़ाइयां करता रहा।…. देखा जाए तो राजपूतों को और अपनी हिंदू प्रजा को मनाने के लिए कभी-कभी तो वह इतना आगे बढ़ जाता था कि मुसलमान प्रजा के साथ अक्सर अन्याय हो जाता था।’
पण्डित नेहरू के उपरोक्त कथनों में कितनी सच्चाई है, इस पर हम अगले आलेख में चर्चा करेंगे।
विभिन्न इतिहासकार भले ही अकबर की धार्मिक सहिष्णुता के कितने ही गीत क्यों न गा लें, ऐतिहासिक तथ्यों से केवल इस बात की पुष्टि होती है कि अकबर को भारत पर राज्य करने तथा अपने ही कुल के शहजादों एवं अफगान लड़ाकों से लड़ने के लिए वीर हिन्दू जाति के सहयोग की आवश्यकता थी, इसलिए उसने विधर्मियों के प्रति धार्मिक सहिष्णुता के प्रदर्शन का मार्ग चुना था न कि हृदय की किसी उच्च भावना से प्रेरित होकर!
जवाहर लाल नेहरू के किसी भी तर्क से यह सिद्ध नहीं होता कि अकबर महान् था।
जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम की अनुशंसा भारत सरकार के लिए बाध्यकारी है या नहीं, जब से इस विषय पर चर्चा उठी है, तब से जनता में यह प्रश्न उठने लगा है कि ताकतवर कौन है, सुप्रीम कोर्ट या भारत सरकार?
सुप्रीम कोर्ट और भारत सरकार में से कौन अधिक ताकतवर है, इसका कानूनी पक्ष तो संविधान के बड़े-बड़े जानकार जिन्हें संविधान विशेषज्ञ कहा जाता है, कई सालों की बहस के बाद भी शायद ही एक-मत हो सकें किंतु लोकतंत्र में हर मामले पर जनता की कुछ न कुछ धारणा अवश्य होती है। भले ही यह धारणा लिखित रूप में नहीं होती किंतु इस धारणा की अपनी ताकत बहुत होती है।
जनता की धारणा इतनी ताकतवर होती है कि उसके सामने बड़ी से बड़ी शक्ति को नतमस्तक होना पड़ता है। हम यहाँ सुप्रीम कोर्ट तथा भारत सरकार की ताकत पर जनता की धारणा की बात कर रहे हैं कि इस विषय पर जनता क्या सोचती है!
सुप्रीम कोर्ट ताकतवर इसलिए हैं क्योंकि उसे चुनाव नहीं लड़ना है। भारत सरकार ताकतवर इसलिए हैै क्योंकि वह चुनावों से अस्तित्व में आती है।
सुप्रीम कोर्ट ताकतवर है इसलिए वह सीबीआई को पिंजरे में बंद तोता कहता है। भारत सरकार ताकतवर इसलिए है क्योंकि उसके पास ऐसे कई पिंजरे हैं जिनमें सीबीआई जैसे बहुत से तोते बंद हैं। ये तोते सरकार के असली उपकरण हैं, यदि ये तोते पिंजरे से बाहर निकाल दिए जाएं तो देश में अराजकता मच जाए।
सुप्रीम कोर्ट ताकतवर इसलिए है क्योंकि वह सरकार के बुलडोजर पर रोक लगा सकती है। सरकार ताकतवर इसलिए है क्योंकि उसे अवैध कब्जों को हटाने के लिए बुलडोजर चलाने की संवैधिानिक शक्ति प्राप्त है।
सुप्रीम कोर्ट ताकतवर इसलिए है क्योंकि उसने स्वयं ही कॉलेजियम की व्यवस्था कर ली है। सरकार ताकतवर इसलिए है कि वह कॉलेजियम की स्वयंभू व्यवस्था को अस्वीकार करके उसी पद्धति से जजों की नियुक्ति करना चाहती है जिस तरह से उनकी नियुक्ति का प्रावधान भारत के संविधान में किया गया है तथा 1993 तक जिस पद्धति से जजों की नियुक्ति होती आई थी।
न्यायालयों में जजों की नियुक्ति के मामले को छोड़कर भारत में एक भी पद ऐसा नहीं है जो अपनी नियुक्ति स्वयं कर ले। प्रत्येक पद के लिए किसी भी व्यक्ति का चयन संविधान सम्मत किसी अन्य संस्था द्वारा किया जाता है किंतु सुप्रीम कोर्ट जजों की नियुक्ति का अधिकार अपने पास रखना चाहती है और एक ऐसे कॉलेजियम के माध्यम से अपनी अनुशंसा को भारत सरकार के लिए बाध्यकारी मानती है जिसमें कोई चुना हुआ प्रतिनिधि शामिल नहीं है। इसी कारण जनता में यह बहस छिड़ी है कि ताकतवर कौन है, सुप्रीम कोर्ट या भारत सरकार।
न तो सुप्रीम कोर्ट, और न भारत सरकार, कोई भी जनता में आकर कॉलेजियम की बात नहीं करता किंतु सुप्रीम कोर्ट के वकीलों एवं सरकार के मंत्रियों के माध्यम से मीडिया में छन-छन कर कुछ बातें आती हैं जिनसे लगता है कि कॉलेजियम को लेकर दोनों संस्थाएं अपनी-अपनी ताकत को तौल रही हैं।
सुप्रीम कोर्ट ताकतवर इसलिए है क्योंकि संविधान सभा द्वारा बनाए गए संविधान ने सुप्रीम कोर्ट को बनाया है तथा उसे कुछ निश्चित ताकत दी है। भारत सरकार ताकतवर इसलिए है क्योंकि भारत सरकार ने ही संविधान सभा द्वारा बनाए गए संविधान को स्वीकार किया है, लागू किया है तथा भारत सरकार ही संसद के माध्यम से संविधान को हर समय जन-आकांक्षाओं के अनुरूप ढालती रहती है।
अब जबकि संविधान सभा अस्तित्व में नहीं है, तब उसकी उत्तराधिकारी संस्था संसद के रूप में विद्यमान है। संविधान की वास्तविक कस्टोडियन संसद ही है। वह इस कार्य में अपनी सुविधा के लिए सुप्रीम कोर्ट की भी सहायता लेती है।
सुप्रीम कोर्ट तथा भारत सरकार तो उस समय भी थे जब भारत पर अंग्रेजों का राज्य था किंतु तब के सुप्रीम कोर्ट तथा भारत सरकार की ताकत का स्रोत लंदन में लगने वाली संसद थी। जब ब्रिटिश वायसराय की सरकार भारत छोड़कर इंग्लैण्ड चली गई तब तत्कालीन सुप्रीम कोर्ट भी उस सरकार के साथ इंग्लैण्ड चला गया।
15 अगस्त 1947 से 25 जनवरी 1950 तक उस सुप्रीम कोर्ट की एक छाया भारत में काम करती रही, ठीक उसी तरह, जिस तरह 2 सितम्बर 1946 से भारत में जवाहर लाल नेहरू की अंतरिम सरकार काम करती थी। इस अवधि में सुप्रीम कोर्ट तथा भारत सरकार दोनों के पास 1935 में ब्रिटिश संसद से पारित कानून था जिससे दोनों संस्थाओं का संचालन होता था।
6 दिसम्बर 1946 को जवाहर लाल नेहरू की अंतरिम सरकार ने ही नया संविधान बनाने के लिए संविधान सभा की स्थापना की तथा इसके लिए सुप्रीम कोर्ट से कोई आदेश नहीं लिया।
जवाहर लाल नेहरू की अंतरिम सरकार ने ही 26 जनवरी 1950 से भारत का नया संविधान लागू किया और सुप्रीम कोर्ट का वर्तमान स्वरूप सामने आया।
जवाहर लाल नेहरू के समय में यह प्रश्न शायद ही कभी उठा हो कि कौन बड़ा है, सुप्रीम कोर्ट या भारत सरकार! लाल बहादुर शास्त्री केवल 19 महीने प्रधानमंत्री रहे, इस संक्षिप्त अवधि में ताकत का प्रश्न उठे, ऐसी कोई परिस्थिति बनी ही नहीं।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय में न्यायालय एवं सरकार के बीच यह प्रश्न कई बार उठा। इंदिरा गांधी जबर्दस्त जननेता थीं, उनकी अपनी ताकत थी, अपनी एक सोच थी। सामान्यतः वे संविधान सम्मत ढंग से सरकार चलाती थीं किंतु इंदिरा गांधी सरकार को मनमाने ढंग से भी चलाती थीं। इस कारण न्यायालय एवं सरकार के बीच कई बार ठनी।
12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी को चुनावों में धांधली करके जीतने के 14 प्रकार से कदाचार का दोषी पाया तथा उनका निर्वाचन अवैध घोषित कर दिया। इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को ही मान्य रखा किंतु इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बने रहने की अनुमति दे दी। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी रहीं और उन्होंने अगले ही दिन अर्थात् 25 जून 1975 को देश में इमरजेंसी लगा दी।
इस घटनाक्रम से ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट सरकार पर भारी पड़ा क्योंकि चुनाव अवैध घोषित हो जाने के बाद भी इंदिरा गांधी सुप्रीम कोर्ट की इच्छा से प्रधानमंत्री बनी रहीं किंतु इंदिरा गांधी ने अगले दिन ही इमरजेंसी लगाकर देश पर मजबूती से शिकंजा कस लिया। इतना ही नहीं, इंदिरा गांधी की सरकार ने 38वां संविधान संशोधन करके न्यायपालिका से आपातकाल की न्यायिक समीक्षा करने का अधिकार ही छीन लिया।
कुछ समय बाद ही इंदिरा गांधी की सरकार ने 42वां संविधान संशोधन करके कानूनों की संवैधानिक वैधता पर निर्णय देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों की शक्ति को कम कर दिया।
42वें संविधान संशोधन ने संविधान में इतने बड़े परिवर्तन किए कि इसके आकार के कारण, इसे लघु-संविधान कहा गया। इंदिरा गांधी की सरकार ने संविधान के कई हिस्से, जिनमें प्रस्तावना और संविधान संशोधन खंड भी शामिल हैं, बदल दिए और कई नए अनुच्छेद और धाराएं लगा दीं। संशोधन के 39 खंडों ने सर्वोच्च न्यायालय की कई शक्तियां छीन लीं और न्यायिक व्यवस्था पर कई प्रकार से संसदीय संप्रभुता स्थापित कर दी।
इंदिरा गांधी की सरकार ने 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में लोकतांत्रिक अधिकारों में कटौती की और प्रधानमंत्री कार्यालय ने व्यापक शक्तियां प्राप्त कर लीं। संसद को न्यायिक समीक्षा के बिना, संविधान के किसी भी हिस्से को संशोधित करने की असीमित शक्ति भी दे दी। इस संशोधन ने राज्य सरकारों की कुछ शक्तियां भी केंद्र सरकार को हस्तांतरित कर दीं।
सरकार ने 42वें संविधान संशोधन के द्वारा प्रस्तावना में भी संशोधन करके भारत की पहचान ‘संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य’ के स्थान पर ‘संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य’ बना दी।
सरकार द्वारा किए गए संविधान के इस अतिक्रमण पर सुप्रीम कोर्ट के पास मौन रह जाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं बचा। क्योंकि यह सारी प्रक्रिया संसद के माध्यम से हुई।
1977 में हुए आम चुनावों में इंदिर गांधी हारीं। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी सरकार ने इंदिरा गांधी द्वारा किए गए संविधान संशोधनों पर हो-हल्ला तो खूब मचाया तथा इंदिरा गांधी को जेल तक भेज दिया किंतु इससे पहले कि मोरारजी की सरकार कुछ ठोस काम कर पाती, स्वयं ही गिर गई। 1980 में हुए मध्यावधि चुनावों में इंदिरा गांधी चुनाव जीतकर फिर से प्रधानमंत्री बन गईं।
इस प्रकार 1975 में इंदिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय के जो अधिकार सीमित किए थे, वे फिर से बहाल नहीं किए गए और आज भी संवैधानिक रूप से इंदिरा गांधी द्वारा किए गए संशोधन अस्तित्व में हैं।
इस ऐतिहासिक विवेचना के बाद एक दृष्टि अमरीका पर डालते हैं। अमरीका में संघीय न्यायालय ही नहीं, प्रांतीय न्यायालय भी सरकार की तुलना में बहुत अधिक ताकतवर दिखाई देते हैं किंतु वास्तव में हैं नहीं। वहाँ भी सरकारें ही ताकतवर हैं। संघीय सरकार तथा प्रांतीय सरकारें ही जनता की आकांक्षाओं की प्रतिनिधि हैं।
अमरीका में सरकार की ताकत का एक उदाहरण लेना ही पर्याप्त होगा कि अमरीका के राष्ट्रपति को अपनी स्वयं की किसी भी गलती को क्षमा करने का अधिकार प्राप्त है।
भारत में भी न्यायालय द्वारा किसी अपराधी को फांसी की सजा सुनाए जाने पर भारत के राष्ट्रपति को क्षमादान देने का अधिकार प्राप्त है।
एक दृष्टि भारत के पड़ौसी देशों पर डालते हैं। पाकिस्तान का सुप्रीम कोर्ट भारत के सुप्रीम कोर्ट की तरह ताकतवर दिखाई तो देता है किंतु है नहीं। पाकिस्तनी सुप्रीम कोर्ट को बड़े राजनीतिक फैसले पाकिस्तान की सरकार की मंशा के अनुसार ही देने होते हैं जिनके चलते पाकिस्तान का प्रत्येक पूर्व प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति या तो जेल में पटक दिया जाता है, या फिर देश छोड़कर भाग जाता है। या फिर फांसी पर भी चढ़ा दिया जाता है जैसे कि जुल्फिकार अली भुट्टो।
पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट में जो जज सरकार की मंशा के विरुद्ध कार्य करते हैं, उन्हें किसी न किसी बहाने से उनके पदों से हटा दिया जाता है। हाल ही में पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बनने जा रहे इजाज उल अहसन ने इसलिए चीफ जस्टिस के पद की शपथ लेने से मना कर दिया क्योंकि वहाँ नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ की सरकार है और इस जज ने ही 2017 में पूर्व प्रधामंत्री नवाज शरीफ के विरुद्ध फैसला सुनाया था और शरीफ को पाकिस्तान छोड़कर लंदन में जाकर रहना पड़ा था।
पाकिस्तान में तो सरकार ही नहीं मिलिट्री भी जजों का भाग्य तय कर देती है। हालांकि जजों को नियंत्रित करने के लिए पाकिस्तान की मिलिट्री ने आज तक एक भी गोली नहीं चलाई है। उन्हें केवल आंख दिखाकर ही भगा दिया जाता है।
हमारे दूसरे पड़ौसी अर्थात् बांगलादेश में भी सुप्रीम कोर्ट की हालत लगभग पाकिस्तान जैसी ही है। हाल ही में अराजक तत्वों ने जजों के घरों का घेराव करके उनसे बलपूर्वक इस्तीफ लिए। क्योंकि शेख हसीना की सरकार हट चुकी थी और मोहम्मद यूनुस की सरकार ने जजों का बचाव नहीं किया।
सौभाग्य से भारत में पाकिस्तान और बांगलादेश जैसी स्थितियां नहीं हैं तथा सुप्रीम कोर्ट और भारत सरकार बिना किसी विशेष विवाद के अपना-अपना संविधान सम्मत काम कर रहे हैं।
जनता, सरकार और न्यायपालिका के सम्बन्ध एक रूपक के माध्यम से इस तरह समझे जा सकते हैं कि जनता महावत है जिसने अपनी सुविधा के लिए सरकार रूपी हाथी पाल रखा है और उस हाथी ने स्वयं को नियंत्रित करने के लिए न्यायपालिका रूपी अंकुश बनाया है। अंकुश अपनी मर्जी से हाथी को नियंत्रित नहीं कर सकता। अंकुश महावत के हाथ में है, और महावत की भूमिका में केवल और केवल जनता है। न्यायपालिका एक ऐसा अंकुश है जो न केवल हाथी पर अपितु महावत पर भी कुछ न कुछ नियंत्रण स्थापित करता है।
सारांश रूप में केवल यही कहा जा सकता है कि भारत की जनता की सेवा करने के लिए ही भारत सरकार तथा सुप्रीम कोर्ट नामक दोनों संस्थाएं बनी हैं। भारत की जनता ही सुप्रीम कोर्ट और भारत सरकार की मालिक है। जनता की धारणा ही दोनों के लिए बाध्यकारी है।
जनता की अपेक्षा केवल इतनी है कि ये दोनों संस्थाएं जनता के कल्याण के लिए एक-दूसरे की शक्ति बनें, एक-दूसरे की पूरक बनें तथा किसी भी स्थिति में शक्ति के दो अलग-अलग तथा प्रतिस्पर्द्धी केन्द्र न बनें।
सिद्धांत कुछ भी कहते रहें, धरातल की कड़वी सच्चाई यह है कि कोई भी अंकुश हाथी को नियंत्रित नहीं कर सकता। यदि हाथी बिगड़ गया तो महावत और अंकुश दोनों धरे रह जाते हैं। अतः हर स्थिति में सरकार की इच्छा से चुनी गई सरकार का सम्मान ही सर्वोपरि है।
उस सरकार का सम्मान कोई नहीं करना चाहेगा जो बिगड़े हुए हाथी की तरह व्यवहार करती है, उस अंकुश का भी कोई सम्मान नहीं करना चाहेगा जो हाथी को अपनी मर्जी से नियंत्रित करने का प्रयास करता है। उस महावत का भी कोई सम्मान नहीं करना चाहेगा जो हाथी और अंकुश दोनों को प्रेम और बुद्धिमानी से संचालित करने में असमर्थ है।
भारतीय साहित्य, चित्रकला एवं मूर्तिकला में किन्नर अथवा किम्पुरुष अत्यंत प्राचीन काल से उपस्थित हैं। पुराणों में भी किन्नर अथवा किम्पुरुष मौजूद हैं तथा...
भारतीय संस्कृति में त्यौहारों एवं शादी-विवाहों में विभिन्न पशु-काठियों के लोकनृत्य आोजित किए जाते हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, उड़ीसा एवं तमिलनाडु...