अकबर की यह हालत देखकर सलीमा बेगम ने पिता-पुत्र के मध्य सुलह करवाने का विचार किया। वह अकबर से अनुमति लेकर इलाहाबाद गयी और सलीम को समझा बुझा कर आगरा ले आयी।
सलीम अपने बाप की यह दुर्दशा देखकर उसके पैरों पर गिर पड़ा और अपने अपराधों के लिये पश्चाताप करने लगा। अकबर ने अबुल फजल के गम को भुला दिया और सलीम को उठाकर छाती से लगा लिया। सलीम ने अपने सात सौ सत्तर हाथी और बारह हजार स्वर्ण मुद्रायें बादशाह को भेंट कीं।
इस बार अकबर ने सलीम से कहा कि वह यदि बंगाल नहीं जाना चाहता है तो मेवाड़ पर अभियान करके अपने पूर्वजों की भांति यश लाभ करे। सलीम ने अकबर की बात मान ली और मेवाड़ के लिये रवाना हो गया। अभी वह आगरा से निकल कर फतहपुर सीकरी तक ही गया था कि उसका मन फिर से बदल गया। उसने अकबर को कहलवाया कि मैं महाराणा के विरुद्ध अभियान करने में स्वयं को असक्षम मानता हूँ अतः मुझे प्रयाग जाने दिया जाये। अकबर ने सलीम को नितांत निकम्मा जानकर उसकी यह प्रार्थना भी स्वीकार कर ली।
प्रयाग पहुँच कर सलीम ने फिर से अपने को स्वतंत्र बादशाह घोषित कर दिया और दरबार लगाने लगा। वह अत्यधिक शराब पीने लगा। एक दिन शराब के नशे में धुत्त होकर उसने रानी मानबाई को कोड़ों से इस कदर पीटा कि ग्लानि वश मानबाई ने जहर खा लिया। मानबाई की मौत से राजा मानसिंह जो अब तक सलीम का सबसे बड़ा हितैषी था, सलीम का शत्रु हो गया।
तातार गुलाम ने मानबाई की आत्महत्या का पूरा प्रकरण अकबर को लिखकर भेजा, सलीम ने तातार गुलाम की जीवित अवस्था में ही खाल खिंचवा ली। जब एक नौकर ने इसका विरोध किया तो सलीम ने शराब पीकर उसे इतना पीटा कि पिटाई के दौरान ही उसकी मृत्यु हो गयी।
एक दिन सलीम की निगाह अपने पिता अकबर के एक और खास नौकर पर पड़ी। जाने क्यों सलीम को उसे देखते ही इतना क्रोध आया कि उसे पीट-पीट कर नपुंसक बना दिया।
इन सारे समाचारों के मिलने पर अकबर ने सलीम के सुधरने की आशा त्यागकर सलीम के सत्रह वर्षीय पुत्र खुसरो पर ही अपना ध्यान केंद्रित करने का निर्णय लिया। खुसरो आमेर नरेश मानसिंह की बहिन का पुत्र और खाने आजम मिर्जा कोका का दामाद था। इसलिये ये दोनों भी अकबर की योजना से सहमत हो गये तथा खुसरो को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित करने तथा सलीम को दण्डित करने के उपाय करने लगे।
अकबर ने भले ही सलीम को राज्याधिकार से वंचित करने तथा खुसरो को शासन पर स्थापित करने का निर्णय ले लिया किंतु प्रारब्ध ने सलीम और खुसरो के भाग्यों में कुछ और ही लिखा था। अभी खुसरो को शासन पर स्थापित करने की योजना पर विचार चल ही रहा था कि अकबर की माता हमीदाबानू की मृत्यु हो गयी।
सलीम अपनी दादी के मरने का समाचार पाकर बादशाह की मातमपुरसी के लिये आगरा आया और सीधे दरबार में ही हाजिर हुआ। अकबर ने दरबार में तो सलीम से कुछ नहीं कहा किंतु जब महल में उसे अकबर के सामने लाया गया तो अकबर ने खींचकर एक तमाचा सलीम के मुँह पर मारा तथा उसे स्नानागार में बंद कर दिया। राजा शालिवाहन को सलीम पर कड़ी निगरानी रखने तथा उसका मानसिक उपचार करने के लिये कहा गया।
उस दिन जब अकबर ने दर्पण में अपना चेहरा देखा तो वह बुरी तरह चौंक उठा। उसे दर्पण में अपने चेहरे के स्थान पर बैरामखाँ का चेहरा दिखायी दिया। उसे लगा कि सलीम ने अकबर के विरुद्ध नहीं अपितु वर्षों बाद फिर किसी अकबर ने बैरामखाँ के विरुद्ध विद्रोह किया है।
इसके बाद अकबर फिर कभी दर्पण नहीं देख सका और बुरी तरह से बीमार पड़ गया। शाही हकीम ने पूरा जोर लगाया किंतु उसे बादशाह की बीमारी पकड़ में नहीं आयी। वह जो भी दवा करता था, वह अकबर पर विष जैसा कार्य करती थी।
राजा शालिवाहन ने पूरे दस दिन तक सलीम को स्नानागार में बंद रखा तथा इस दौरान उसे शराब की एक बूंद भी पीने को नहीं दी। दस दिन बाद जब राजा शालिवाहन ने सलीम को स्नानागार से बाहर निकाला तो सलीम ने पूरी दुनिया ही बदली हुई पायी।