अठ्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति की विफलता वस्तुतः लाल किले की विफलता थी। लाल किले में बैठे बादशाह को शक्ति का स्रोत मानकर क्रांतिकारियों ने उसे अपना नेता चुना किंतु उन्हें पता नहीं था कि लाल किला बिल्कुल लुंज-पुंज और निशक्त है। वह तो विगत लगभग एक सौ साल से अंग्रेजों की पेंशन पर जी रहा है! यही कारण था कि लाल किला क्रांति की देवी को शौर्य-रक्त का अर्पण नहीं कर सका!
अँग्रेजों को भारत से बाहर निकालने के लिए 1857 में जो राष्ट्रव्यापी क्रांति हुई, वह सफल क्यों नहीं रही, इसके अगल-अलग कारण बताए गए हैं। कुछ इतिहासकारों के अनुसार क्रांति के लिये सम्पूर्ण भारत में 31 मई 1857 का दिन निर्धारित किया गया था। संयोगवश 29 मार्च 1857 को मंगल पाण्डे ने बैरकपुर में विद्रोह कर दिया। इसके कुछ दिनों बाद अंग्रेजों की सबसे बड़ी सैनिक छावनी बैरकपुर क्रांति की ज्वाला में जल उठी।
3 मई 1857 को लखनऊ में भी गाय की चर्बी लगे कारतूसों का उपयोग करने के विषय पर सैनिक विद्रोह हो गया, जिसे अंग्रेजों द्वारा दबा दिया गया। जब यह समाचार मेरठ पहुँचा तो 10 मई 1857 को मेरठ में भी विद्रोह हो गया। इस कारण क्रांति की योजना उसके पूर्णतः आरम्भ होने से पहले ही उजागर हो गई।
इससे अँग्रेजों को संभलने का अवसर मिल गया। मेलीसन ने लिखा है- ‘यदि पूर्व निश्चय के अनुसार 31 मई 1857 को एक साथ समस्त स्थानों पर स्वाधीनता का व्यापक और महान् संग्राम आरम्भ हुआ होता तो कम्पनी के अँग्रेज शासकों के लिए भारत को फिर से विजय कर सकना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं होता।’
मेरठ और दिल्ली के विद्रोही सैनिकों ने मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को अपना नेता बनाया किन्तु क्रांति और युद्ध जैसे शब्दों से अपरिचित, बूढ़े, निराश और थके हुए बहादुरशाह से सफल सैन्य-संचालन एवं क्रांति के नेतृत्व की आशा करना व्यर्थ था।
सिक्ख और अधिकांश हिन्दू उसे फिर से बादशाह बनाने को तैयार नहीं थे! क्योंकि उउन्हें आशंका थी कि लाल किले की विफलता सम्पूर्ण क्रांति को विफल कर देगी। किंतु ईस्ट इण्डिया कम्पनी के मुस्लिम सिपाहियों ने उसे जबर्दस्ती अपना नेतृत्व सौंपा। वास्तव में इस गौरवमयी क्रांति की सबसे कमजोर कड़ी बहादुरशाह ही था।
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दिल्ली के अनेक साहूकारों और निकटवर्ती हरियाणा क्षेत्र के सैनिक अधिकारियों ने अंग्रेजों के लिए मुखबरी काने का कार्य किया। उन्हें बादशाह के मुसलमानी राज्य की जगह अँग्रेजों का राज ही अधिक अच्छा लगता था। यहाँ तक कि लाल किले में बैठे बहुत से मुसलमानों ने बादशाह के साथ गद्दारी की जिनमें मिर्जा इलाही बख्श तथा मौलवी रजब अली जैसे गद्दार प्रमुख थे। इस क्रांति में सबसे खराब प्रदर्शन लाल किले का रहा।
लाल किले की विफलता में मुगल हरम की बेगमों का भी बड़ा हाथ था। बादशाह की चहेती बेगम जीनत महल भी बादशाह की जीत नहीं चाहती थी। वह चाहती थी कि बादशाह जल्दी से जल्दी पराजित हो जाए तथा उसके समस्त बड़े शहजादे मारे जाएं ताकि वह अपने बेटे जवांबख्त को बादशाह बनवा सके।
भारत के प्रायः समस्त प्रभावशाली नरेशों ने इस क्रांति का दमन करने में अँग्रेजों का साथ दिया, विशेषतः उन राजाओं ने जिनके राज्य एवं पेंशनें सुरक्षित थे। सिन्धिया के मन्त्री दिनकर राव तथा निजाम के मन्त्री सालारजंग ने अपने-अपने राज्य में क्रांति को फैलने से रोका।
विद्रोह काल में स्वयं लॉर्ड केनिंग ने कहा था- ‘यदि सिन्धिया भी विद्रोह में सम्मिलित हो जाये तो मुझे कल ही बिस्तर गोल करना पड़ जाये।’ राजपूताना के लगभग समस्त नरेशों ने अँग्रेजों की भरपूर सहायता की।’
राजपूताना, मैसूर, पंजाब और पूर्वी बंगाल आदि प्रदेशों के लगभग सभी शासक शान्त रहे। इनमें से कोई भी राजा, अँग्रेजों को भगाकर भारत को फिर से मुगलों और मराठों को समर्पित करने का इच्छुक नहीं था। यहाँ तक कि महाराष्ट्र, मध्य भारत और गुजरात का कोई बड़ा शासक क्रांति में सम्मिलित नहीं हुआ। इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि भारत के कुछ बड़े राजाओं ने मिलकर अँग्रेजों के विरुद्ध व्यूह-रचना की होती तो अँग्रेजों को भारत छोड़कर चले जाना पड़ता। जिन छोटे नरेशों, सेनापतियों तथा सामन्तों ने क्रांतिकारियों का साथ दिया, वे अलग-अलग रहकर अपने क्षेत्रों में अँग्रेजों से लड़ते रहे। इस कारण अँग्रेजों ने उन्हें एक-एक करके परास्त किया।
इस क्रांति के समय सिक्खों ने ब्रिटिश सरकार का समर्थन किया। वे किसी भी कीमत पर मुगल बादशाह का समर्थन करने को तैयार नहीं थे क्योंकि मुगल बादशाहों ने गुरु अर्जुनदेव सिंह, गुरु तेग बहादुर और बंदा बहादुर को बरेहमी से मरवाया था। सिक्ख, उस बंगाल सेना से भी प्रतिशोध लेना चाहते थे जिसने सिक्ख-आंग्ल-युद्धों में अँग्रेजों का साथ दिया था। इन कारणों से सिक्ख, अँग्रेजों के प्रति वफादार रहे।
हालांकि सिक्खों का यह निर्णय बहुत आश्चर्यजनक था क्योंकि अँग्रेजों ने केवल 8 साल पहले ई.1849 में ही सिक्खों के स्वतंत्र राज्य को समाप्त करके ब्रिटिश क्षेत्र में मिलाया था। इस दृष्टि से सिक्खों को अँग्रेजों से बदला लेना चाहिये था किंतु सिक्खों ने अँग्रेजों के लिये दिल्ली और लखनऊ जीतकर सैनिक क्रांति की कमर तोड़ दी। सिक्खों ने इस बात पर भी विचार नहीं किया कि कुछ दिन पहले ही अँग्रेजों ने महाराजा रणजीतसिंह की महारानी जिंदां कौर की वार्षिक पेंशन अचानक 15,000 पौण्ड वार्षिक से घटाकार 1,200 पौण्ड प्रति वर्ष कर दी थी।
इतिहासकारों का आकलन है कि यदि पटियाला, नाभा व जीन्द ने ठीक समय पर अँग्रेजों की सहायता न की होती तो क्रांति का परिणाम कुछ और होता। इसी प्रकार गोरखों ने अपने सेनापति जंग बहादुर की अधीनता में अवध पर आक्रमण करके अँग्रेजों की सहायता की तथा क्रांति को विफल कर दिया। विद्रोही सैनिकों को ठीक तरह से संचालित कर सकने वाला कोई योग्य नेता उपलब्ध नहीं था। नाना साहब, रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, आउवा ठाकुर कुशालसिंह, शाहपुरा का शासक लक्ष्मणसिंह, जगदीशपुर का जमींदार कुंवरसिंह जैसे नेता समग्र क्रांति का नेतृत्व करने की स्थिति में नहीं थे।
1857 की सैनिक क्रांति को देश के बहुत से हिस्सों में जनता का समर्थन मिला किंतु कृषक एवं श्रमिक जनता इससे प्रायः उदासीन रही। इस कारण यह क्रान्ति जन-क्रान्ति नहीं बन सकी। अनेक स्थानों पर क्रांतिकारियों ने लूट-पाट मचाकर जनसाधारण की सहानुभूति खो दी।
विद्रोहियों द्वारा जेलों को तोड़ देने से पेशेवर चोर और लुटेरे बाहर निकल आये जिससे अराजकता फैल गई। इस कारण जन-सामान्य ने इस क्रांति को बहुत कम स्थानों पर सहयोग दिया। अँग्रेजी पढ़े लिखे युवकों का इस क्रांति से कोई लेना-देना नहीं था।
क्रांति के प्रत्यक्षदर्शी अंग्रेज अधिकारी एवं लेखक सर जी. ओ. ट्रैवेलियन ने लिखा है- ‘अँग्रेजों के गले काटने की बात सोचने की बजाये वे उनके साथ उच्च न्यायालय में या मजिस्ट्रेटों की कुर्सियों पर बैठने का स्वप्न देख रहे थे। वे पंजाब और नेपाल की राजनीति पर अटकल लड़ाने की बजाय फ्री-प्रेस और मुक्त वाद-विवाद की भलाइयों पर सोच रहे थे और वे वाद-विवाद सभाओं में लच्छेदार अँग्रेजी में व्याख्यान देने का स्वप्न देख रहे थे।’
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता